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तुले हुए थे, यही कारण है कि आचार्य हरिभद्र को अपनी वृत्ति लिखते समय अगस्त्यसिंह चूर्णि आदि उपलब्ध न हुई हो। यदि उपलब्ध हुई होती तो वे उसका अवश्य ही संकेत करते ।
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आचार्य हरिभद्र के पश्चात् अपराजितसूरि ने दशवैकालिक पर एक वृत्ति लिखी, जो वृत्ति 'विजयोदया' नाम से प्रसिद्ध है। अपराजितसूरि यापनीय संघ के थे। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है। उन्होंने अपने द्वारा रचित आराधना की टीका में इस बात का उल्लेख किया है। यह टीका उपलब्ध नहीं है। आचार्य हरिभद्र की टीका का अनुसरण करके तिलकाचार्य ने भी एक टीका लिखी है। इनका समय १३वीं - १४वीं शताब्दी है । माणिक्यशेखर ने दशवैकालिक पर नियुक्तिदीपिका लिखी है। माणिक्यशेखर का समय पन्द्रहवीं शताब्दी है । समयसुन्दर ने दशवैकालिक पर दीपिका लिखी है। इनका समय विक्रम संवत् १६११ से १६८१ तक है। विनयहंस ने दशवैकालिक पर वृत्ति लिखी है, इनका समय विक्रम संवत् १५७३ है । रामचन्द्रसूरि ने दशवैकालिक पर वार्तिक लिखा है, इनका समय विक्रम सं. १६७८ है । इसी प्रकार शान्तिदेवसूरि, सोमविमलसूरि, राजचन्द्र, पारसचन्द्र, ज्ञानसागर प्रभृति मनीषियों ने भी दशवैकालिक पर टीकाएं लिखी हैं। पायचन्द्रसूरि और धर्मसिंह मुनि, जिनका समय विक्रम की १८ वीं शताब्दी है, ने गुजराती - राजस्थानी मिश्रित भाषा में टब्बा लिखा । टब्बे में टीकाओं की तरह नया चिन्तन और स्पष्टीकरण नहीं है। इस प्रकार समय-समय पर दशवैकालिक पर आचार्यों ने विराट् व्याख्या साहित्य लिखा है । पर यह सत्य है कि अगस्त्यसिंह स्थविर विरचित चूर्णि, जिनदासगणी महत्तर विरचित चूर्णि और आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित वृत्ति इन तीनों का व्याख्यासाहित्य में विशिष्ट स्थान है। परवर्ती विज्ञों ने अपनी वृत्तियों में इनके मौलिक चिन्तन का उपयोग किया है। टब्बे के पश्चात् अनुवाद युग का प्रारम्भ हुआ।' आचार्य अमोलकऋषिजी ने दशवैकालिक का हिन्दी अनुवाद लिखा। उसके बाद अनेक विज्ञों के हिन्दी अनुवाद प्रकाश में आए। इसी तरह गुजराती और अंग्रेजी भाषा में भी अनुवाद हुए तथा आचार्य आत्माराम जी महाराज ने दशवैकालिक पर हिन्दी में विस्तृत टीका लिखी। यह टीका मूल के अर्थ को स्पष्ट करने में सक्षम है। अनुसंधान - युग में आचार्य तुलसी के नेतृत्व में मुनि श्री नथमल जी ने " दसवेआलियं " ग्रन्थ तैयार किया, जिसमें मूल पाठ के साथ विषय को स्पष्ट करने के लिए शोधप्रधान टिप्पण दिए गए हैं। इस प्रकार अतीत से वर्तमान तक दशवैकालिक पर व्याख्याएं और विवेचन लिखा गया है, जो इस आगम की लोकप्रियता का ज्वलन्त उदाहरण है।
प्राचीन युग में मुद्रण का अभाव था इसलिए ताड़पत्र या कागज पर आगमों का लेखन होता रहा। मुद्रण युग प्रारम्भ होने पर आगमों का मुद्रण प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम सन् १९०० में हरिभद्र और समयसुन्दर की वृत्ति के साथ दशवैकालिक का प्रकाशन भीमसी माणेक बम्बई ने किया। उसके पश्चात् सन् १९०५ में दशवैकालिक दीपिका का प्रकाशन हीरालाल हंसराज (जामनगर) ने किया। सन् १९१५ में समयसुन्दर विहित वृत्ति सहित दशवैकालिक का प्रकाशन हीरालाल हंसराज (जामनगर) ने करवाया। सन् १९११ में समयसुन्दर विहित वृत्ति सहित दशवैकालिक का प्रकाशन जिनयशः सूरि ग्रन्थमाला खम्भात से हुआ। सन् १९१८ में भद्रबाहुकृत नियुक्ति तथा हारिभद्रीया वृत्ति के साथ दशवैकालिक का प्रकाशन देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार बम्बई ने किया । निर्युक्ति तथा हारिभद्रीयावृत्ति के साथ विक्रम संवत् १९९९ में मनसुखलाल हीरालाल बम्बई ने दशवैकालिक का एक संस्करण प्रकाशित किया। दशवैकालिक का भद्रबाहु निर्युक्ति सहित प्रकाशन आंग्ल भाषा में E Leumann द्वारा ZDMG से प्रकाशित करवाया गया (Vol. 46, PP 581-663)। सन् १९३३ में जिनदासकृत चूर्णि का प्रकाशन ऋषभदेवजी केसरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था रतलाम से हुआ। सन् १९४० में संस्कृत टीका के साथ संपादक आचार्य हस्तीमलजी महाराज ने जो
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