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दसवेयालियसुत्तं : दशवैकालिकसूत्र
परिचय
वर्त्तमान में श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार, आगमसाहित्य, अंग, उपांग, मूल और छेद इन चार विभागों में विभक्त है। मूल-विभाग में दशवैकालिकसूत्र का द्वितीय स्थान माना जाता है।
नन्दी सूत्र के वर्णनानुसार समस्त आगमों के दो विभाग हैं - ( १ ) अंग-प्रविष्ट और (२) अंग - बाह्य । अंगबाह्य के भी दो प्रकार हैं- १. कालिक और २. उत्कालिक । दशवैकालिकसूत्र की गणना अंगबाह्य के अन्तर्गत उत्कालिक सूत्रों में है ।'
नियुक्तिकार के अनुसार यह शास्त्र दश विकालों (सन्ध्या - कालों) में दश अध्ययनों के रूप में कहा गया, इस कारण इसका नाम भी 'दशवैकालिक' रखा गया।
'दशवैकालिक' मूलसूत्र क्यों माना गया ? इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। जर्मन विद्वान् शार्पेटियर का मत है— इन (उत्तराध्ययन आदि चार सूत्रों) में 'Mahavir's own words' (भगवान् महावीर के स्वयं के वचन) हैं, इसलिए इन्हें मूल संज्ञा मिली। डॉ. शुब्रिंग (Dr. Walthere Schubring) का कहना है— 'साधु - जीवन के मूल में जिन यम-नियमादि के आचरण की आवश्यकता है, उस (मूलाचार) के लिए उपदिष्ट होने से, ये मूलसूत्र कहलाए होंगे।' प्रो. गेरीनो (Prof. Guerinot) की मान्यता है कि 'ये मौलिक (Original) ग्रन्थ हैं, इन पर अनेक टीकाएँ, चूर्णिया, दीपिका, निर्युक्ति आदि लिखी गई हैं, इस दृष्टि से (टीकाओं आदि की अपेक्षा से) इन आगमों को 'मूलसूत्र' कहने की प्रथा प्रचलित हुई होगी।'
हमारी दृष्टि से इन चारों शास्त्रों की मूलसंज्ञा के पीछे यह विचार है कि चारों सूत्रों में ना के मूल मोक्ष के चार अंगों— सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तप का मौलिक एवं संक्षिप्त सारभूत वर्णन होने से इनका नाम 'मूलसूत्र' पड़ा हो, ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि नन्दीसूत्र में सम्यग्ज्ञान का, 'अनुयोगद्वार' में सम्यग्दर्शन का, दशवैकालिक में सम्यक्चारित्र का और उत्तराध्ययन में इन तीनों के सहित सम्यक्तप का मुख्य रूप से वर्णन है। कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य ने परिशिष्ट पर्व में दशवैकालिकसूत्र को जैनधर्म का तत्त्वबोध समझाने वाला पवित्र
१.
नन्दीसूत्र
२.
'वेयालियाए ठविया, तम्हा दसकालियं नाम ।' दशवै. निर्युक्ति ३. दशवैकालिक (मुनि संतबालजी) की प्रस्तावना, पृ. १७-१८