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नवम अध्ययन का नाम विनयसमाधि है। भावविनय के लोकोपचार, अर्थनिमित्त, कामहेतु, भयनिमित्त और मोक्षनिमित्त ये पांच भेद किए गए हैं। मोक्षनिमित्तक विनय के दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार सम्बन्धी पांच भेद किए गए हैं । २३८
दसवें अध्ययन का नाम सभिक्षु है। प्रथम नाम, क्षेत्र आदि निक्षेप की दृष्टि से 'स' पर चिन्तन किया है। उसके पश्चात् 'भिक्षु' का निक्षेप की दृष्टि से विचार किया है। भिक्षु के तीर्ण, तायी, द्रव्य, व्रती, क्षान्त, दान्त, विरत, मुनि, तापस, प्रज्ञापक, ऋजु, भिक्षु, बुद्ध, यति, विद्वान, प्रव्रजित, अनगार, पाखण्डी, चरक, ब्राह्मण, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, साधु, रूक्ष, तीरार्थी आदि पर्यायवाची दिये हैं। पूर्व में श्रमण के जो पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं उनमें भी इनमें के कुछ शब्द आ गये हैं । २३९
चूलिका का निक्षेप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चार प्रकार का है। यहां पर भावचूला अभिप्रेत है, जो क्षायोपशमिक है। रति का निक्षेप भी चार प्रकार का है। जो रतिकर्म के उदय के कारण होती है वह भाव - रति है, वह धर्म के प्रति रतिकारक और अधर्म के प्रति अरतिकारक है। इस प्रकार दशवैकालिकनिर्युक्ति की तीन सौ इकहत्तर गाथाओं में अनेक लौकिक और धार्मिक कथाओं एवं सूक्तियों के द्वारा सूत्रार्थ को स्पष्ट किया गया है। हिंगुशिव, गन्धर्विका, सुभद्रा, मृगावती, नलदाम और गोविन्दवाचक आदि की कथाओं का संक्षेप में नामोल्लेख हुआ है। सम्राट् कूणिक ने गणधर गौतम से जिज्ञासा प्रस्तुत की— भगवन् ! चक्रवर्ती मर कर कहां उत्पन्न होते हैं ? समाधान दिया गया—संयम ग्रहण न करें तो सातवें नरक में । पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत हुई—भगवन् ! मैं कहां पर उत्पन्न होऊंगा ? गौतम ने समाधान किया—छठे नरक में । प्रश्नोत्तर के रूप में कहीं-कहीं पर तार्किक शैली के भी दशैन होते हैं ।
भाष्य
निर्युक्तियों की व्याख्याशैली बहुत ही संक्षिप्त और गूढ़ थी। निर्युक्तियों का मुख्य लक्ष्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना था। निर्युक्तियों के गुरु गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए कुछ विस्तार से प्राकृत भाषा में जो पद्यात्मक व्याख्याएं लिखी गईं, वे भाष्य नाम से विश्रुत हैं। भाष्यों में अनेक प्राचीन अनुश्रुतियां, लौकिक कथाएं और परम्परागत श्रमणों के आचार-विचार और गतिविधियों का प्रतिपादन किया गया है। दशवैकालिक पर जो भाष्य प्राप्त है, उसमें कुल ६३ गाथाएं हैं। दशवैकालिकचूर्णि में भाष्य का उल्लेख नहीं, आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्ति में भाष्य और भाष्यकार का अनेक स्थलों पर उल्लेख किया है २४०, भाष्यकार के नाम का उल्लेख नहीं किया और न अन्य किसी विज्ञ ने ही इस सम्बन्ध में सूचन किया है। २४१ जिन गाथाओं को आचार्य हरिभद्र ने भाष्यगत माना हैं, वे गाथाएं चूर्णि में भी हैं। इससे यह स्पष्ट है कि भाष्यकार चूर्णिकार से पूर्ववर्ती हैं। इसमें हेतु, विशुद्धि, प्रत्यक्ष,
२३८. दशवैकालिक गाथा ३०९-३२२ २३९. दशवैकालिक गाथा ३४५-३४७ २४०. (क) भाष्यकृता पुनरुपन्यस्तं इति ।
(ख) आह च भाष्यकारः ।
— दशवै. हारिभद्रीय टीका, प. ६४ — दशवै. हारिभद्रीय टीका, प. १२० - दशवै. हारिभद्रीय टीका, पृ. १२८
(ग) व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः ।
२४१. तामेव निर्युक्तिगाथां लेशतो व्याचिख्यासुराह भाष्यकारः । - एतदपि नित्यत्वादिप्रसाधकमिति निर्युक्तिगाथायामनुपन्यतमप्युक्तं सूक्ष्मधिया भाष्यकारेणेति गाथार्थः ।
दशवै. हारिभद्रीय टीका, पत्र १३२
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