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व्याख्यासाहित्य
दशवैकालिक पर आज तक जितना भी व्याख्यासाहित्य लिखा गया है, उस साहित्य को छह भागों में विभक्त किया जा सकता है—नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, संस्कृतटीका, लोकभाषा में टब्बा और आधुनिक शैली में संपादन। नियुक्ति प्राकृत भाषा में पद्य-बद्ध टीकाएं हैं, जिनमें मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद की व्याख्या न करके मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है। नियुक्ति की व्याख्याशैली निक्षेप पद्धति पर आधृत है। एक पद के जितने भी अर्थ होते हैं उन्हें बताकर जो अर्थ ग्राह्य है उसकी व्याख्या की गई है और साथ ही अप्रस्तुत का निरसन भी किया गया है। यों कह सकते हैं सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बताने वाली व्याख्या नियुक्ति है।२२३ सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान शर्पेन्टियर ने लिखा है नियुक्तियां अपने प्रधान भाग के केवल इन्डेक्स का काम करती हैं, ये सभी विस्तारयुक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं।२४ डॉ. घाटके ने नियुक्तियों को तीन विभागों में विभक्त किया है—२२५
(१) मूल-नियुक्तियां- जिन नियुक्तियों पर काल का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा और उनमें अन्य कुछ भी मिश्रण नहीं हुआ, जैसे—आचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियां। ___ (२) जिनमें मूलभाष्यों का सम्मिश्रण हो गया है। तथापि वे व्यवच्छेद्य हों, जैसे—दशवैकालिक और आवश्यक सूत्र की नियुक्तियां।
(३) वे नियुक्तियां, जिन्हें आजकल भाष्य या बृहद् भाष्य कहते हैं। जिनमें मूल और भाष्य का इतना अधिक सम्मिश्रण हो गया है कि उन दोनों को पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता, जैसे निशीथ आदि की नियुक्तियां।
प्रस्तुत विभाग वर्तमान में जो नियुक्तिसाहित्य प्राप्त है, उसके आधार पर किया गया है।
जैसे यास्क महर्षि ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए निघण्टु भाष्य रूप निरुक्त लिखा, उसी प्रकार जैन पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्तियां लिखीं। नियुक्तिकार भद्रबाहु का समय विक्रम संवत् ५६२ के लगभग है और नियुक्तियों का समय ५०० से ६०० (वि.सं.) के मध्य का है। दस आगमों पर नियुक्तियां लिखी गई, उनमें एक नियुक्ति दशवैकालिक पर भी है। डॉ. घाटके के अभिमतानुसार ओघनिर्युक्त और पिण्डनियुक्त क्रमशः दशवैकालिकनियुक्ति और आवश्यकनियुक्ति की उपशाखाएं हैं। पर डॉ. घाटके की बात से सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य मलयगिरि सहमत नहीं हैं। उनके मंतव्यानुसार पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक अंश है। यह बात उन्होंने पिण्डनियुक्ति की टीका में स्पष्ट की है। आचार्य मलयगिरि दशवैकालिकनियुक्ति को चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु की कृति मानते हैं, किन्तु पिण्डैषणा नामक पांचवें अध्ययन पर वह नियुक्ति बहुत ही विस्तृत हो गई, जिससे पिण्डनियुक्ति को स्वतंत्र नियुक्ति के रूप में स्थान दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि पिण्डनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक विभाग है। आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में अपना तर्क दिया है—पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति के अन्तर्गत होने के कारण ही इस ग्रन्थ २२३. सूत्रार्थयोः परस्परं नियोजन सम्बन्धनं नियुक्तिः ।
—आवश्यकनियुक्ति, गा. ८३ २२४. उत्तराध्ययन की भूमिका, पृ. ५०-५१ २२५. Indian Historical Quarterly, Vol. 12, P. 270
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