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जो सहइ हु गामकंटए अक्कोसपहारतज्जणाओ य । भयभेरवसद्दसंपहासे समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खू ॥
- दशवकालिक १०/११ जो कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों, आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और बेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को सहन करता है तथा सुख और दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है-वह भिक्षु है। सुत्तनिपात की निम्न गाथाओं से तुलना करें
भिक्खुनो विजिगुच्छतो, भजतो रित्तमासनं । रुक्खमूलं सुसानं वा, पब्बतानं गुहासु वा ॥ उच्चावचेसु सयनेसु कीवन्तो तत्थ भेरवा । येहि भिक्खु न वेधेय्य निग्घोसे सयनासने ॥
-सुत्तनिपात ५४/४-५ दशवैकालिक के दसवें अध्ययन की १५ वी गाथा है
हत्थसंजए पायसंजए वायसंजए. संजइंदिए । अज्झप्परए सुसमाहियप्पा सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू ।
–दशवैकालिक १०/१५ जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वाणी से संयत है, इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, भली-भांति समाधिस्थ है और जो सूत्र और अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है वह भिक्षु है। धम्मपद में भिक्षु के लक्षण निम्न गाथा में आए हैं
चक्खुना संवरो साधु साधु सोतेत संवरो । घाणेन संवरो साधु साधु जिह्वाय संवरो ॥ कायेन संवरो साधु साधु वाचाय संवरो । मनसा संवरो साधु साधु सब्बत्थ संवरो ॥
-धम्मपद २५/१-२-३ सब्बत्थ संवुतो भिक्खु सब्बदुक्खा पमुच्चति । हत्थसंयतो पादसंयतो वाचाय संयतो संयतुत्तमो ।
अज्झत्तरतो समाहितो, एको सन्तुसितो तमाहु भिक्खुं ॥ इस प्रकार दशवैकालिकसूत्र में आयी हुई गाथाएं कहीं पर भावों की दृष्टि से तो कहीं विषय की दृष्टि से और कहीं पर भाषा की दृष्टि से वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों के साथ समानता रखती हैं। कितनी ही गाथाएं आचारांग चूलिका के साथ विषय और शब्दों की दृष्टि से अत्यधिक साम्य रखती हैं। उनका कोई एक ही स्रोत होना चाहिए। इसके अतिरिक्त दशवैकालिक की अनेक गाथाएं अन्य जैनागमों में आई हुई गाथाओं के साथ मिलती हैं। पर हमने विस्तारभय से उनकी तुलना नहीं दी है। समन्वय की दृष्टि से जब हम गहराई से अवगाहन करते हैं तो ज्ञात होता है—अनन्त सत्य को व्यक्त करने में चिन्तकों का अनेक विषयों में एकमत रहा है।
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