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क्रोध के द्रव्यक्रोध और भावक्रोध ये दो भेद किए हैं।६७ द्रव्यक्रोध से शारीरिक चेष्टाओं में परिवर्तन आता है और भावक्रोध से मानसिक अवस्था में परिवर्तन आता है। क्रोध का अनुभूत्यात्मक पक्ष भावक्रोध है और क्रोध का अभिव्यक्त्यात्मक पक्ष द्रव्यक्रोध है। क्रोध का आवेग सभी में एक सदृश नहीं होता, वह तीव्र और. मंद होता है, तीव्रतम क्रोध अनंतानुबन्धी क्रोध कहलाता है। तीव्रतर क्रोध अप्रत्याख्यानी क्रोध के नाम से विश्रुत है। तीव्र क्रोध प्रत्याख्यानी क्रोध की संज्ञा से पुकारा जाता है और अल्प क्रोध संज्वलन क्रोध के रूप में पहचाना जाता है।
मान कषाय का दूसरा प्रकार है। मानव में स्वाभिमान की मूल प्रवृत्ति है। जब वह प्रवृत्ति दम्भ और प्रदर्शन का रूप ग्रहण करती है तब मानव के अन्तःकरण में मान की वृत्ति समुत्पन्न होती है। अहंकारी मानव अपनी अहंवृत्ति का सम्पोषण करता रहता है। अहं के कारण वह अपने-आप को महान् और दूसरे को हीन समझता है। प्रायः जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, बुद्धि, ज्ञान, सौन्दर्य, अधिकार आदि पर अहंकार आता है। इन्हें आगम की भाषा में मद भी कहा गया है। अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के आधार पर मान कषाय के भी चार प्रकार होते हैंतीव्रतम मान अनन्तानुबन्धी मान, तीव्रतर मान अप्रत्याख्यानी मान, तीव्र मान प्रत्याख्यानी मान, अल्प मान संज्वलन के नाम से जाने और पहचाने जाते हैं। ____ कपटाचार माया कषाय है, माया जीवन की विकृति है। मायावी का जीवन निराला होता है। वह 'विषकुम्भं पयोमुखम्' होता है। माया कषाय के भी तीव्रता और मंदता की दृष्टि से पूर्ववत् चार प्रकार होते हैं।
लोभ मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली तृष्णा व लालसा है। लोभ दुर्गुणों की जड़ है। ज्योंज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता चला जाता है। अनन्त आकाश का कहीं ओर-छोर नहीं, वैसे ही लोभ भी अछोर है। लोभ कषाय के भी तीव्रता और मंदता के आधार पर पूर्ववत् चार प्रकार होते हैं। इस प्रकार कषाय के सोलह प्रकार होते हैं। कषाय को चाण्डालचौकड़ी भी कहा गया है। कषाय की तीव्रता अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय के फलस्वरूप जीव अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं बन सकता। अप्रत्याख्यानी कषाय में श्रावक धर्म स्वीकार नहीं कर सकता। अप्रत्याख्यानी कषाय आंशिक चारित्र को नष्ट कर देता है। प्रत्याख्यानी कषाय की विद्यमानता में साधुत्व प्राप्त नहीं होता। ये तीनों प्रकार के कषाय विशुद्ध निष्ठा को और चारित्र धर्म को नष्ट करते हैं। संज्वलन कषाय में पूर्ण वीतरागता की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए आत्महित चाहने वाला साधक पाप की वृद्धि करने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ—इन चारों दोषों को पूर्णतया छोड़े दे।६८ ये चारों दोष सद्गुणों को नाश करने वाले हैं। क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का, माया से मित्रता का और लोभ से सभी सद्गुणों का नाश होता है।६९ योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है—मान, विनय, श्रुत, शील का घातक है, विवेकरूपी नेत्रों को नष्ट कर मानव को अन्धा बना देता है। जब क्रोध उत्पन्न होता है तो सर्वप्रथम उसी मानव को जलाता है जिसमें वह उत्पन्न हुआ है। माया अविद्या और असत्य को उत्पन्न करती है। वह शीलरूपी लहलहाते हुए वृक्ष को नष्ट करने में कुल्हाड़ी के सदृश है। लोभ से समस्त दोष उत्पन्न होते हैं। वह सद्गुणों को निगलने वाला राक्षस है और जितने भी दुःख हैं उनका वह मूल है।७० प्रश्न यह है कि कषाय को किस प्रकार जीता जाए? इस
१६७. भगवतीसूत्र १२/५/२ १६८. दशवैकालिक ८/३७ १६९. वही ८/३८ १७०. योगशास्त्र ४/१०/१८
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