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ही व्यक्ति पतित आचरण करता है। इन्द्रियसंयम का अर्थ है—इन्द्रियों को अपने विषयों के ग्रहण से रोकना एवं गृहीत विषय में राग-द्वेष न करना। हमारे अन्तर्मानस में इन्द्रियों के विषयों के प्रति जो आकर्षण उत्पन्न होता है उनका नियमन किया जाए।५९ श्रमण अपनी पांचों इन्द्रियों को संयम में रखे. और जहां भी संयममार्ग से पतन की संभावना हो वहां उन विषयों पर संयम करे। जैसे संकट समुपस्थित होने पर कछुआ अपने अंगों का समाहरण कर लेता है वैसे ही श्रमण इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का समाहरण करे।६० बौद्ध श्रमणों के लिए भी इन्द्रियंसंयम आवश्यक माना है। धम्मपद में तथागत बुद्ध ने कहा—नेत्रों का संयम उत्तम है, कानों का संयम उत्तम है, घ्राण और रसना का संयम भी उत्तम है, शरीर, वचन और मन का संयम भी उत्तम है, जो भिक्षु सर्वत्र सभी इन्द्रियों का संयम रखता है वह दुःखों से मुक्त हो जाता है।६१ स्थितप्रज्ञ का लक्षण बतलाते हुए श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन को कहा जिसकी इन्द्रियां वशीभूत हैं वही स्थितप्रज्ञ है ।१६२ इस प्रकार भारतीय परम्परा में चाहे श्रमण हो, चाहे संन्यासी हो उसके लिए इन्द्रियसंयम आवश्यक है।१६३ कषाय : एक विश्लेषण
श्रमण को इन्द्रियनिग्रह के साथ कषायनिग्रह भी आवश्यक है। कषाय शब्द क्रोध, मान, माया, लोभ का संग्राहक है। यह जैन पारिभाषिक शब्द है। कष और आय इन दो शब्दों के मेल से कषाय शब्द निर्मित हुआ है। 'कष' का अर्थ संसार, कर्म या जन्म-मरण है और आय का अर्थ लाभ है। जिससे प्राणी कर्मों से बांधा जाता है अथवा जिससे जीव पुनः-पुनः जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है वह कषाय है।६४ स्थानांगसूत्र के अनुसार पापकर्म के दो स्थान हैं—राग और द्वेष । राग माया और लोभ रूप है तथा द्वेष क्रोध और मान रूप है।६५ आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में नयों के आधार से राग-द्वेष का कषायों के साथ क्या सम्बन्ध है, इस पर चिन्तन किया है। संग्रहनय की दृष्टि से क्रोध और मान ये दोनों द्वेष रूप हैं। माया और लोभ ये दोनों राग रूप हैं। इसका कारण यह है कि क्रोध और मान में दूसरे के प्रति अहित की भावना सन्निहित है। व्यवहारनय की दृष्टि से क्रोध, मान और माया ये तीनों द्वेष के अन्तर्गत आते हैं। माया में भी दूसरे का अहित हो, इस प्रकार की विचारधारा रहती है। लोभ एकाकी राग में है, क्योंकि उसमें ममत्व भाव है। ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से केवल क्रोध ही द्वेष रूप है। मान-माया-लोभ ये तीनों कषाय न रागप्रेरित हैं और न द्वेषप्रेरित। वे जब राग से उत्प्रेरित होते हैं तो राग रूप हैं और जब द्वेष से प्रेरित होते हैं तो द्वेष रूप हैं।६६ चारों कषाय राग-द्वेषात्मक पक्षों की आवेगात्मक अभिव्यक्तियां हैं। __क्रोध एक उत्तेजक आवेग है जिससे विचारक्षमता और तर्कशक्ति प्रायः शिथिल हो जाती है। भगवतीसूत्र में
१५९. आचारांग, २/१५/१/१८० १६०. सूत्रकृतांग, १/८/१/१६ १६१. धम्मपद, ३६०-३६१ १६२. श्रीमद्भगवद्गीता, २/६१ १६३. वही, २/५९, ६४ १६४. अभिधानराजेन्द्रकोष, खण्ड ३, पृ. ३९५ १६५. स्थानांग २/२ १६६. विशेषावश्यकभाष्य २६६८-२६७१
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