Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[४९] प्रेत्यविषय और देवता को एक कोटि में माना है। भले ही निवासस्थान की दृष्टि से दो भेद किये गये हों पर गति की दृष्टि से दोनों एक ही हैं। स्थानांग२८३ में नरक और स्वर्ग में जाने के क्रमशः ये कारण बताये हैं—महारम्भ, महापरिग्रह, मद्यमांस का आहार, पंचेन्द्रियवध । तथा सराग संयम, संयमासंयम, बालतप और अकामनिर्जरा ये स्वर्ग के कारण हैं । मज्झिमनिकाय८५ में भी नरक और स्वर्ग के कारण बताये गये हैं (कायिक ३) हिंसक, अदिनादायी (चोर) काम में मिथ्याचारी, (वाचिक ४) मिथ्यावादी, चुगलखोर, परुष-भाषी, प्रलापी (मानसिक ३) अभिध्यालु, मिथ्यादृष्टि । इन कर्मों को करने वाले नरक में जाते हैं, इसके विपरीत कार्य करने वाले स्वर्ग में जाते हैं।
स्थानांग२८६ में बताया है कि तीर्थंकर, चक्रवर्ती पुरुष ही होते हैं। किन्तु मल्ली भगवती स्त्रीलिंग में तीर्थंकर हुई हैं। उन्हें दश आश्चर्यों में से एक आश्चर्य माना है। अंगुत्तरनिकाय२८७ में बुद्ध ने भी कहा कि भिक्षु यह तनिक भी संभावना नहीं है कि स्त्री अर्हत्, चक्रवर्ती व शक्र हो।
इस प्रकार हम देखते हैं कि स्थानांग विषय-सामग्री की दृष्टि से आगम-साहित्य में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यों सामान्य गणना के अनुसार इस में बारह सौ विषय हैं। भेद-प्रभेद की दृष्टि से विषयों की संख्या और भी अधिक है। यदि इस आगम का गहराई से परिशीलन किया जाए तो विविध विषयों का गम्भीर ज्ञान हो सकता है। भारतीय-ज्ञानगरिमा और सौष्ठव का इतना सुन्दर समन्वा अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें ऐसे अनेक सार्वभौम सिद्धान्तों का संकलन-आकलन हुआ है, जो जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं के ही मूलभूत सिद्धान्त नहीं हैं अपितु आधुनिक विज्ञान-जगत में वे मूलसिद्धान्त के रूप में वैज्ञानिकों के द्वारा स्वीकृत हैं। हर ज्ञानपिपासु और अभिसन्धित्सु को प्रस्तुत आगम अन्तस्तोष प्रदान करता है। व्याख्या-साहित्य
स्थानांग सूत्र में विषय की बहुलता होने पर भी चिन्तन की इतनी जटिलता नहीं है, जिसे उद्घाटित करने के लिये उस पर व्याख्यासाहित्य का निर्माण अत्यावश्यक होता। यही कारण है कि प्रस्तुत आगम पर न किसी नियुक्ति का निर्माण हुआ और न भाष्य ही लिखे गये, न चूर्णि ही लिखी गई। सर्वप्रथम इस पर संस्कृत भाषा में नवाङ्गीटीकाकार अभयदेव सूरि ने वृत्ति का निर्माण किया। आचार्य अभयदेव प्रकष्ट प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने वि०सं० ग्यारह सौ बीस में स्थानांग सत्र पर वृत्ति लिखी। प्रस्तुत वृत्ति मूल सूत्रों पर है जो केवल शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसमें सूत्र से सम्बन्धित विषयों पर गहराई से विचार हुआ है। विवेचन में दार्शनिक दृष्टि यत्र-तत्र स्पष्ट हुई है। तथा हि''यदुक्तं''उक्तं चं"आह च तदुक्तं "यदाह' प्रभृति शब्दों के साथ अनेक अवतरण दिये हैं। आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाएँ उद्धृत की हैं। अनुमान से आत्मा की सिद्धि करते हुए लिखा है-इस शरीर का भोक्ता कोई न कोई अवश्य होना चाहिए, क्योंकि यह शरीर भोग्य है। जो भोग्य होता है उसका अवश्य ही कोई भोक्ता होता है। प्रस्तुत शरीर का कर्ता "आत्मा" है। यदि कोई यह तर्क करे कि कर्ता होने से रसोइया के समान आत्मा की भी मूर्त्तता सिद्ध होती है तो ऐसी स्थिति में प्रस्तुत हेतु साध्यविरुद्ध हो जाता है किन्तु यह तर्क बाधक नहीं है, क्योंकि संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त भी है। अनेक स्थलों पर ऐसी दार्शनिक चर्चाएं हुई हैं। वृत्ति में यत्र-तत्र निक्षेपपद्धति का उपयोग किया है, जो नियुक्तियों और भाष्यों का सहज स्मरण कराती है। वृत्ति में मुख्य रूप से संक्षेप में विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्त भी दिये गये हैं।
वृत्तिकार अभयदेव ने उपसंहार में अपना परिचय देते हुये यह स्वीकार किया है कि यह वृत्ति मैंने यशोदेवगणी की सहायता से सम्पन्न की। वृत्ति लिखते समय अनेक कठिनाइयाँ आईं। प्रस्तुत वृत्ति को द्रोणाचार्य ने आदि से अन्त तक पढ़कर
२८४. स्थानांग, स्थान ४, उ. ४, सूत्र ३७३ २८५. मज्झिमनिकाय, १-५-१ २८६. स्थानाङ्ग, स्थान १० २८७. अंगुत्तरनिकाय