Book Title: Yadusundara Mahakavya
Author(s): Padmasundar, D P Raval
Publisher: L D Indology Ahmedabad
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002642/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PADMASUNDARASŪRI'S YADUSUNDARAMAHAKAVYA L. D. SERIES 105 GENERAL EDITORS DALSUKH MALVANIA NAGIN J. SHAH EDITED BY D. P. RAVAL L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD 9 For Private Fersonal n y Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PADMASUNDARASŪRI'S YADUSUNDARAMAHAKÁVYA L. D. SERIES 105 GENERAL EDITORS DALSUKH MALVANIA NAGIN J. SHAH EDITED BY D. P. RAVAL L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD 9 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FIRST EDITION August 1987 Printed by Jhalak Printers Maliwada Pole Shahpur Ahmedabad-380 001 and Published by Nagin J. Shah Published with the financial assistance of the Govt. of India, Minis ry of Education & Culture, Department of Education, under the scheme of financial assistance for preservation of manuscripts. Acting Director L. D. Institute of Indology Ahmedabad-380009 PRICE RUPEES THIRTY FIGHT ONLY Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित यदुसुन्दरमहाकाव्य संपादक डी. पी. रावल प्रकाशक : लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर अहमदाबाद-९ ' दO Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान संपादकीय मुगल सम्राट अकबर की विद्वत्सभा के विद्वदरत्न कवि पद्मसुन्दर की अद्यावधि अप्रकाशित संस्कृत रचना यदुसुन्दर महाकाव्य का प्रकाशन करते ला. द. विद्यामंदिर को बड़ा ही हर्ष हो रहा है । प्रस्तुत महाकाव्य १२ सर्गों में विभक्त है। यह महाकाव्य पद्मसुन्दर की सर्जकता और पंडिताई का द्योतक है । वसुदेव और कनकावती के प्रेम और परिणय की कथा इस महाकाव्य में निरूपित हुई है। वसुदेवहिंडी के कनकावती लम्भक में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के ८ वें पर्व के वनकावती परिय नामक तृतीय सर्ग में यह कथावस्तु मिलती है। डॉ. डी. पी. रावल ने बड़े ही परिश्रम से इस महाकाव्य का संपादन किया है और इस संपादन को प्रस्तुत करके उन्होंने सौराष्ट्र युनिवर्सिटी की पीएच० डी० की उपाधि प्राप्त की है। अपनी प्रस्तावना में उन्होंने पद्मसुन्दरसरि के जीवन और कृतियों का परिचय दिया है तथा महाकाव्य की कथावस्तु का विस्तृत आलेखन कर उसका मूल्यांकन किया है। इसलिए उन्हें अनेकशः धन्यवाद । संस्कृत साहित्य के अध्येताओ और विद्वानों को इस नये संपादन से लाभ होगा एसा मेरा पूरा विश्वास है । ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर अहमदाबाद-३८० ००९ १५ जुलाई १९८७ नगीन जी. शाह कार्यकारी अध्यक्ष Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १-१२ यदुसुन्दर महाकाव्य १-१८२ परिशिष्ट १ विषयानुक्रम दुसुन्दरमहाकाव्य में प्रयुक्त छन्द १८४ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना हस्तप्रत परिचय प्रस्तुत यदुसुन्दर महाकाव्य का संपादन उपलव्ध एकमात्र प्रति की सहायता से किया गया है। यह प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर में सुरक्षित है। यह प्रति मुनिश्री पुण्यविजयजी के संग्रह की है । इसका क्रमांक ४७९९ है । यह प्रति कागज पर लिखी हुई है। इस की लिपि नागरी है। इस प्रति का परिमाण २७.३४११.३ से. मी. है। इस प्रति में कुल पत्र ५४ हैं । अंतिम पत्र का क्रमांक ५३ है किन्तु क्रमांक ३६ दो पत्रों को दिया गया है। प्रत्येक पत्र में १३ पंक्तियां हैं। कुछ पत्र में १४-१५ पंक्तियाँ भी हैं । पंक्तियों में अक्षरों की संख्या ४५ से ५० तक पाई जाती है। प्रति की अवस्था अच्छी है। इस प्रति का लेखनकाल १८वीं शती का उत्तरार्ध है । यदुसुन्दर महाकाव्य के प्रणेता पद्मसुन्दर कवि श्री पद्मसुन्दर का जन्म राजस्थानगत तेजपुर गाँव में हुआ था, जो गाँव जोधपुरनरेश मालदेव के हस्तक था' । कवि की कर्मभूमि तेजपुर, जोधपुर, चरथावल . और दिल्ही रही । मुझफरनगर जिले के चरथावल गाँव के अग्रवाल वंश और गोइल गोत्र के तथा दिगम्बर सम्प्रदाय के काष्ठा संघ मथुरान्वय पकरगण के आम्नाय के श्रावक रायमल्ल, जोधपुरनरेश मालदेव और दिल्ही के मुगलसम्राट अकबर के वे आश्रित और सम्मानित कवि थे । वे नागपुरीय तपागच्छ के श्वेताम्बर संप्रदाय के प्रकाण्ड पंण्डित साधु थे । वे आनंदमेरु के शिष्य पद्ममेरु के शिष्य थे। पद्मसुन्दर नाम के साथ उपाधिवाचक शब्द महारक, उपाध्याय, वादी, गणि, सूरि, आचार्य, मनि. पांडे, पंडित आदि प्राप्त होते हैं । कवि के अपने विद्वान शिष्य का नाम हेमसूरि था । अकबर की विद्वत्परिषद् के ३३ हिन्दू सभ्यों में कवि पद्मसुन्दर का अग्र स्थान था । अकबर की सभा में पद्मसुन्दर ने चन्द्रकीर्ति को परास्त किया था जिसके कारण अकबर ने १. अनेकान्त, वर्ष ५, किरण ५-६, पृ. ४९-५२ २. जैन साहित्य का इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृ. ३९५-४०३ ३. जैन साहित्यनो इतिहास, मोहनलाल दलीचन्द देसाई, पृ.२४६ । संस्कृत साहित्य का इतिहास, वाचस्पति गैरोला, पृ.३६३-४ ४. इति श्रीमन्नागपुरीयतपागच्छनभोमणि पण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरु शिरहित सुन्दर ...सुन्दरप्रकाशशब्दार्णवपुष्पिका । ५. पहावली समुच्चय, भाग २, चारित्रस्मारक ग्रन्थमाला क्र. ४४, अहमदाबाद, १९५०, पृ. २२४ ६. अनेकान्त, वर्ष ७, किरण ५-६, पृ. ४९-५२ ७. जैन परम्परानो इतिहास, भाग-२, पृ. ५९४ ८ आइने-अकबरी, पृ. ५३७-५५४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्न होकर पद्मसुन्दर को कंबल पालकी और गांव बक्षिस में दिये और सम्मानित किया। पद्मसुन्दर के गुरु आनन्दमेरु भी बाबर और हुमायु से सम्मानित थे। कवि पद्मसुन्दर रायमल्ल, मालदेव और अकबर के समकालीन होने से वे इस्वी सन की १६वी शती में हुए । हीरविजयसूरि की अकबर से भेंट सने १५८३ में हुई थी, तब अकबरने हीरविजयसूरि से कहा कि पद्मसुन्दर मेरे आश्रित थे और उन्होंने अपना ग्रंथसंग्रह मुझे समर्पित किया है। 1। इससे फालत होता है कि सने १५८३ से दो-तीन वर्ष पूर्व ही पद्मसुन्दर का निर्वाण हुआ होगा । अतः पद्मसुन्दर का निर्वाणवर्ष सने १५८० हो सकता है । संवत १६२५ (इ. स. १५६९) वैशाख वद १२ के दिन तपागच्छीय बुद्धिसागर द्वारा खरतर साधुकी तिजी का सम्राट की सभा में विजय हुआ तब पद्मसुन्दर आग्रा में थे, ऐसा अगरचंद नाहटा ने प्रस्तुत किया है121 अतः पद्मसुन्दर की विधिमानता सने १५२० से १५८० तक थी ऐसा सिद्ध होता है । उनकी आयु ६० वर्ष की मानी जाय । साहित्य सर्जन का समय १५४५ से १५८० माना जाय । कविश्री पनसुन्दर की कृतियाँ पद्मसुन्दर विद्वान कवि हैं । उन्होंने संस्कृत-प्राकृत में कई ग्रंथों की रचना की है। वे अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनकी रचनाएँ अलंकारशास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, न्याय, नीति, स्तोत्र, चरित्र, महाकाव्य, कोश आदि अनेक विषयों में अव्याहत गति रखती हैं । प्रकाशित कृतियाँ : (१) अकबरशाही शूगारदर्पण (२) कुशलोपदेश (३) प्रमाणसुन्दर (४) ज्ञानचन्द्रोदयनाटक (५) पार्श्वनाथचरित महाकाव्य ९. साहे: संसदि पद्मसुन्दरगणिजित्वा महापण्डित क्षीमग्रामसुखासनाद्यकबरश्रीसाहितो लब्धवान् । हिन्दूकाधिपमालदेवनृपतेर्मान्यो वदान्योऽधिकं श्रीमद्योधपुरे सुरेप्सितवचाः पद्माह्वयः पाठकः ।।-श्रीहर्षकीर्तिकृतधातुतरङ्गिणी मान्यो बाबरभूभुजोडर जयराट् तद्वत् हमाऊं नृपोत्यर्थ प्रीतमनाः सुमान्यमकरोदानन्दरायाभिधम् । तद्वत् साहिशिरोमणेरकबरक्ष्मापालचूडामणेन्यिः पण्डितपद्मसुन्दर इहाभूत् पण्डितव्रातजित् ।। .. _ अकबरशाही शृङ्गारदर्पण, पृ. २० ११. जैन गूर्जर कविओ, मोहनलाल दलीचन्द देसाई, पृ. ७६१ १२ संस्कृत साहित्य का इतिहास, वाचस्पति. गैरोला, पृ. ३६३-४ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ अप्रकाशित कृतियाँ : (१) परमतव्यवच्छेदस्याद्वादसुन्दरद्वात्रिंशिका (२) राजप्रश्नीयनाटयपदभजिका (३) षड्भाषागभितनेमिस्तव (४) वरमङ्गलिकास्तोत्र 4 (५) भारतीस्तोत्र (६) सारस्वतरूपमाला (७) हायनसुन्दर (e) सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव अपरनाम पदार्थचिन्तामणि (९) रायमल्लाभ्युदयमहाकाव्य " (१०) जम्बूचरित्र (जम्बूअज्झयण) 10 (११) प्रज्ञापनासूत्रअवचरि11 यसुन्दर महाकाव्य में महाकाव्य के लक्षण : संस्कृत काव्यशास्त्र में दी गई महाकाव्य की व्याख्या को यदुसुन्दर पूर्ण रूप से अनुसरता है। वह सर्गबद्ध है । कुल सर्ग १२ हैं । कथानक अनुसार प्रत्येक सर्ग का नामकरण किया गया है। र्मा के अन्तमें छन्दपरिवर्तन होता है। सर्ग के अन्त में भावि सर्ग की कथा का सूचन मिलता है । यदुसुन्दर का आरम्भ 'चिद्रूप मह' की स्तुति से होता है। वस्तु पौराणिक है । पौराणिक १ अनूप संस्कृत लायब्रेरी, लालगढ पेलेस, बीकानेर, हस्तप्रत नं. ९७४६ २ वही, हस्तप्रत नं. ९९३६ ३ श्री अगरचंद नाहटा संग्रह, बीकानेर ४ वही ५ वही ६ पुण्यविजयजी संग्रह, ला.द. भा. सं विद्यामंदिर, अहमदाबाद, हस्तप्रत नं. ४०३ । जन शास्त्र भण्डार, राजस्थान, हस्तप्रत नं. ४१६ ७ ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर, हस्तप्रत नं. १०८० । ज्ञानभंडार लायब्रेरी, बिकानेर, __हस्तप्रत नं. ५२७२ । ८ श्रीवनेचंदजी सिंधि, सुजानगढ (राजस्थान) । श्री अगरचन्द नाहटा संग्रह, बिकानेर । ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर, हस्तप्रत नं १००० । कान्तिविजयजी शास्त्र संग्रह, छाणी, हस्तप्रत नं ४४८ ९ कल्याणचन्द्र पुस्तक भंडार, खंभात. देखिए 'जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास,' खण्ड १, पृ. ११८ १० ला. द. भा.सं विद्यामंदिर, हस्तप्रत नं. ५११६ ११ ला. द. संयह, ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर, हस्तक्त नं. ७४०० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथासाहित्य में सुप्रसिद्ध वसुदेव की विषयवस्तु को ले कर यदुसुन्दर की रचना की गई है । इस तरह क्षत्रिय वर्णके चन्द्रवंशीय राजा से सम्बद्ध यदुसुन्दर की कथावस्तु है । वसुदेव महाजनपद मथुरा के राजा और श्रीकृष्ण के पिता थे । वसुदेव कनकावती और अनेक विद्याधरीओं को अपने गुणों से जीत कर परिणय में प्राप्त करता है। वसुदेव धीरोदात्त प्रकार का नायक है । परोपकारी, धर्मनिष्ठ, वीर, उदार, कामदेवसरूप, युवांगनावल्लभ, कामशास्त्रवेदी, सकलकलाज्ञ, दानशूर, आनन्दी, कुलीन, सौभाग्यशाली, पुण्यशाली, आर्वपुरुष, मुमुक्षु, उदासीन, ब्रह्मानन्दी आदि विशेषण उनको दिये गये हैं। नायक का अन्तरङ्गमित्र है चन्द्रातप, कुबेर को प्रति. नायक कहा जा सकता है । नगर, पर्वत, समुद्र, नदी, सरोवर, ऋतु, सूर्योदय, चन्द्रोदय, जलक्रीड़ा, रतोत्सव, लग्न, वियोग, कुमारजन्म, युद्ध, रात्रि, यज्ञ आदि के वर्णन रसभावयुक्त और शन्दालङ्कार प्रचुर हैं । कथावृत्त न तो बहुत विस्तृत है, न तो बहुत संक्षिप्त है । प्रधान रस शृङ्गार है । हास्य, करुण, वीर, रौद्र आदि रसों का निरूपण भी चमत्कृतिपूर्ण है । बीज आदि पाँच अर्थपकृतियाँ, आरम्भ आदि पाँच कार्यावस्थाएँ और मुख आदि पांच संधियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं । संवादों से महाकाव्य रोचक बना है। वसुदेव-चन्द्रातप, चन कनकावती, कनकावती-वसुदेव और कुबेर-वसुदेव संवाद काव्यदृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । अत्रतत्र सज्जनप्रशंसा और दुर्जननिन्दा की गई है । महाकाव्य का शीर्षक 'यदुसुन्दर' नायक के नाम तथा वर्ण्य विषय पर से रखा गया है । यदुसुन्दर महाकाव्य का विषयवर्णन प्रथमसर्ग-वसुदेवप्रस्थान : जैन धर्म के विद्वान कवि श्री पद्मसुन्दर इस महाकाव्य के रचयिता हैं । जैन धर्म के मूल तत्व का भारतीय अद्वैतवेदान्त दर्शनशास्त्र में वर्णित मूल तत्त्व के साथ ऐक्य साधकर आप अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण शब्दों में उसी तत्व की उपासना करते हैं, जो गायत्री-त्रिपदा मन्त्र की वैदिक व्याहृतियाँ में वर्णित है । फिर स्तुति निर्देश के साथ कवि ने मंगलाचरण किया है। प्रसंगवश कवि नायक, चन्द्रातप, विद्याधर तथा हंस का निर्देश करते हैं और मुद्रालंकार का प्रयोग करते हैं । मथुरापुरी वर्णन २ से १८ : भारत की सात मोक्षदायिका पुरीओं में से एक महान मथुरापुरी का वर्णन कवि विलक्षण रूप से करते हैं । यह मथुरा नगरी स्वर्ग से भी विशेष सुखदायी, शोभापूर्ण एवं समद्ध महानगरी है। कवि ने समुचित शब्दों के प्रयोग के साथ सूक्ष्म निरीक्षणपूर्वक नगरी का वर्णन किया है। इससे कवि की पूर्ण विद्वत्ता का परिचय हमें मिलता है। मथुरा की पवित्रता, सम्पत्ति एवं गरिमा, अंगनाओं का रूप, यादवों की सुन्दरता, शाल वृक्ष की उच्चता एवं गगनचुम्बी महल, यमुना का तट, महलों के महोत्सवों के वाद्यस्वर, विलासिनीओं के वस्त्राभरण की सुषमा इत्यादि वर्णित हैं। मथुरा की रमणिओं के सवर्ण कर. कमल में लक्ष्मी एवं रक्त मुखकमल में सरस्वती, मलिन-श्याम पंक में से उत्पन्न नीलश्वेत कमल को यानी अपने शाश्वत निवास स्थान को छोड़कर खेल रहे हैं । पूजा के समय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनालयों में नादब्रह्म का तादात्म्य सिद्ध होता है । महलों के शिखर चन्द्रकान्त एवं सूर्यकान्त मणियों से सुशोभित हैं । विशेष में वर्णित हैं-यमुना का शीतल पवन, भामिनीओं का केवल रतिक्रीड़ा में भुजबन्धन, प्रवाल तथा अशोक से सुशोभित गृह एवं वन, महाजन तथा वन में विपल्लवता, अरविन्द में एवं विट में मधुपत्व, काव्य तथा साधुओं में सुवृत्तता इत्यादि । यदुवंश वर्णन १९ से ३८ : यदुवंश के इतिहास प्रसिद्ध सुवीर नामक सूर्य-चन्द्र के इस सर्वोत्कृष्ट मथुरानगरी के चन्द्रवंशी राजवंश में राजा के पुत्र शूर का जन्म हुआ । शूर के यहाँ शौरि तथा समान दो पुत्र हुए । शौरि का पुत्र अन्धक हुआ और उसके समुद्र आदि दस पुत्र हुए । इसी कारण से यह राजवंश धनुर्धारी दशाह के नाम से ख्यात हुआ । समुद्र ये सब से छोटे भाई वसुदेव इस महाकाव्य के नायक हैं । राजा शौरि ने अपने भाई सुवीर को जो युद्ध का मूल है ऐसा राज्य सौंप दिया; वे तपश्चर्या करके मोक्षमार्गी बन गये । सुवीर अपने वंश का एक प्रसिद्ध राजा था । उसके पुत्र का नाम भोजवृष्णि था, जिसके पुत्र उग्रसेन का पुत्र कंस था । इस दुराचारी कंस का विवाह जरासंघ की पुत्री के साथ हुआ था । विवाह के बाद उसने अपने पिता उग्रसेन को राज्य से दूर किया, बन्दी बनाया: अपराजित तेज से युक्त और साभिमान धनुष का टंकार करनेवाला वह राजा बन गया । वसुदेव के दर्शन से मुग्ध पुरांगनाओं की शृंगार चेष्टाएँ : इस ओर वसुदेव कामदेव के समान तेजस्वी एवं मोहक थे । इसी कारण से मथुरानगरी की तमाम स्त्रियाँ उन से मोहित थीं । इस मुग्धता का वर्णन भावोदय अलंकार में किया गया है । कोई नारी नेत्र से उनका पान कर रही रही है, अन्य नारी की गति में स्खलन आ जाता है, और अन्य संगरंग का आरोपण करके मानो उनका आलिंगन कर रही है । एक स्त्री तूटी हुई मालाओं का गुम्फन कर रही है, अन्य रागमण्डन । एक नारी स्तनपान करते बालक का त्याग कर देती है, दूसरी हाथ में रखे हुए दर्पण में पड़े हुए प्रतिबिम्ब का आलिंगन कर रही है। एक स्त्री उनके सामने कटाक्ष नीलोत्पल फेंक रही है, अन्य स्त्री शीत वायु के कम्प के साथ सीत्कार तथा पुलकित रोमाञ्च का अनुभव कर रही है । वसुदेव भी ऐसा भाव प्रगट करते हैं, मानों ओष्ठ का विदारण कर रहे हो । एक नगरजन समुद्र राजा के पास फरियाद करते हैं कि वसुदेव पुरांगनाओं का शीलभंग कर रहे हैं" (४५-४६) । बड़े भाई समुद्र राजा अपने छोटे भाई वसुदेव को बाह्यपरिभ्रमण छोड़कर, महल में रहकर शास्त्राभ्यास करने का, विद्याविशारद एवं सदाचारी बनने का उपदेश देते हैं (४७-४८ ) । परन्तु वसुदेव ज्ञानी, मर्मज्ञ तथा शब्दतत्त्ववेत्ता थे । अतः मथुरानगरी का छोड़कर चले जाने की इच्छा प्रगट करते हैं । ( ४९-५३) । वसुदेव गृहत्याग - प्रस्थान करते हैं । अपने क्षत्रियत्व के स्वाभिमान का रक्षण करने के लिये शस्त्र धारण करके उत्तर दिशा में प्रस्थान करते हैं । पुर, ग्राम, पर्वत, नदी, सुशोभित प्रदेशों में विहार करते हैं और अन्त में विद्याधरनगरी में 66 वन - उपवन से प्रावष्ट होते हैं (५४-५५) । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याधरनगरी का वर्णन (५६-६२) : भ्रान्तिमान अलेकार का प्रयोग करते हुए कवि विद्याधरनगरी का अत्यन्त मनोहर वर्णन करते हैं । रत्नमय भूमिओवाले महलों में चन्द्रकान्त मणियों में से द्रवित पीयूष का पान करके भ्रमर-पंक्तियां कमलराजि के मधुद्वपान की इच्छा नहीं रखती हैं; वेदिका पर रखे हुए आरस सभ रात के समय चन्द्रज्योत्स्ना में रजतकुम्भ की भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं । जिनमन्दिरों में से निकलते हए धूपसमूह के कारण वर्षाकाल की कल्पना करके मयूर निरन्तर केकारव करते हैं। मणिमण्डप में पतिवेष्टित कोई वल्लभा पति को प्रतिविम्बत मिथुन का दर्शन कराकर उसे कह रही है मानो कि "आप अन्य स्त्री में आसक्त हैं ।" लाल माणिक जडित कण्ड में बर्फ जैसा शीत जल भरा हुआ है, फिर भी दयितागण तृषित होने पर भी उसका पान नहीं करता है, क्योंकि उसे भ्रम होता है कि इससे तो लाल रक्तमय जल का पान हो जायेगा । मरकतमणि जहित मार्ग तथा विशाल शालवृक्ष की छाया में जल का भ्रम होने के कारण अनेक प्रकार के पक्षी भिन्न-भिन्न दिशाओं में से उतर आते हैं । वसदेव के अनुपम सौंदर्य के कारण तिरस्कृत विद्याधरों की मण्डलियाँ अणिमा आदि आठ भूतिओं में छिप गई हैं। वसुदेव का शरीरसौन्दर्य देखकर विद्याधर युवतियाँ आकृष्ट एवं मोहित हो जाती हैं और रसपूर्वक उनका सांगोपांग नेत्रपान आकंठ कर रही हैं । रोहिणी आदि उनसे विधिवत विवाह करती हैं (६४-६६) । यहाँ खगविद्या के ज्ञाता चन्द्रातप नामक विद्याधर के साथ वसदेव की मित्रता जमती है। विद्याधर चन्द्रातप नायक वा अन्तरंग मित्र बन जाता है (६७-६८) । कथानायक वसुदेव अनेक विद्याधरीओं के साथ सुरत-सम्बन्ध में रत होकर कामशास्त्र का अभ्यास करते हैं । तृतीय पुरुषार्थ में निष्णात एवं रत होकर अनेक आमोदप्रमोद के विहार के स्थानों में से विहरते हैं और केलि क्रीडाएँ करते हैं (६९-९०) । यहाँ हमें शंगाररस के अभिव्यंजक भाव-विभाव-अनुभाव-संचारीभाव का कमनीय वर्णन मिलता है । सर्ग-२. चन्द्रातपसंगमन : पीठालय नगरी के राजा हरिश्चन्द्र की कनकावती नामक एक कन्या है । इस कन्या के सौन्दर्य का सविस्तर वर्णन हमें इस सर्ग में मिलता है । नखशिख इस वर्णन में कनकावती के हरिणनेत्र, कचपाश एवं कुन्तल से शुरू करके ऊरुयुग्म, जंघायुगल, चरणक्रमाम्बुज तथा मरालगति एवं सुधागिरा का क्रमिक वर्णन किया है । कनकावती सर्वविद्याविशारद थी और मेधा में साक्षात् भारती और कान्ति में साक्षात् रति के समान थी (२ से ४७) । वह जब अत्यन्त रूपवती, लावण्यवती, और रति को भी लज्जाशील बना दे ऐसी नवयौवना बन गई, तब उसके लिये सुयोग्य वर प्राप्त होने के बारे में पिता चिन्तित रहने लगे । उसने निर्णय किया कि वे उसके स्वयंवर की रचना करेंगे ।(४८) वसुदेव के मित्र और खगविद्या के ज्ञाता चन्द्रातपके मन में निर्णय होता है कि यह कन्या वसुदेव के लिये योग्य है। इसी विचार से प्रेरित होकर, जब कनकावती अपनी सखियों के साथ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महल के सबसे ऊपर के कक्ष पर खेल रही है तब हंस का रूप लेकर चन्द्रातप उसके पास जाता है । प्रकाशपुञ्ज के समान और ब्रह्माजी के वाहन जैसा हंस आया तो उसे अपने करकमल में लेकर उसका मार्जन करती है और हंस भी उसके अंगों के साथ लीला करता हआ आनन्द मनाता है । राजकुमारी कनकावती इस हंस को सुवर्णमय पिंजड़े में रखने की बात अपनी सखियों को कहती है तब गीर्वाण वाणी में आतिथ्य के लिए कलकण्ठी को वह धन्यवाद देता है और कहता है कि वह सुवृत्तमौक्ति रुमाला कंठ में धारण करे और उसे मुक्त रखे । इस वाणी से प्रभावित बाला क्षमा की प्रार्थना करती है और उसके मनोभावों का वर्णन चाहती हैं (४९ से ५९) । विद्याधरनगरी के लालित्यादिके वर्णन से आरंभ करके हंस यदुवंश में जन्म पानेवाले वसुदेव का प्रभाव एवं प्रताप, वक्षःस्थल एवं बाहु, सुन्दरता, गुण और यौवन आदि का वर्णन करके कहता है कि राजकमारी एवं वसुदेव का युगल कोकिला के पञ्चम स्वर के समान, चन्द्र एवं पूर्णिमा जैसा और मनुष्य जन्म को फलदायी बनानेवाला होगा । चन्द्रातप आगे कहता है कि स्वयंवर में यदि वह उपस्थित हो जाय तो उसकी पिछान के लिये उसका चित्र तैयार करके लाया है । कनकावती वसुदेव का चित्र देखती है, (६० से ६७) । देखते ही वह वसुदेवमय बन जाती है और कहती है कि "उस नाथ से मैं सनाथ बनें।" उसके लिये हंस चिन्तामणि, कामधेनु, कल्पवृक्ष एवं कल्पलता जैसा और जीवनदाता लगता है। हंस के स्वरूप में स्थिर चन्द्रातप उसे धैर्यवान बनने को कहता है । कनकावती का सौन्दर्यवर्णन वह पुण्यामरवृक्ष, धनुर्वेद आदि के रूपकों के द्वारा करता है और पूरी श्रद्धा एवं आशा के साथ कहता है कि कनकावती अपने रूपलावण्य से कामदेव के समान सुन्दर वसुदेव को अवश्य ही जीत सकेगी । (६८ से ८१) इस रीति से कनकावती के मनमें वसुदेव के प्रति पूर्णभाव एवं पूर्वानुराग का प्रादुर्भाव करके वह विद्याधर नगर में वापस लौटता है ।। इस ओर वसुदेव के विरह में कनकावती सच्चिदानन्दरूपी अद्वैत ऐसे वसुदेवब्रह्म में तन्मय हो जाती है। (८२) चन्द्रातप वसुदेव के समक्ष राजकन्या का सन्देश पेश करता है (८३)। वसुदेव मी सब बातें सुनकर विरहतप्त होते हैं, पुलकित-रोमाञ्चित बन जाते हैं। बार बार वे कनकावती के बारे में पृच्छा करते हैं और प्रेमकथारूप सुधा का पान करते करते तृप्त नहीं होते । बातें सुनते-सुनते कनकावतीमय बन जाते हैं; कामदेव की माया से भ्रमित वे निद्रा भी नहीं पाते (८४)। केवल कनकावती की स्मरणभक्ति में तल्लीन ऐसे वे निजपरके भेद का विस्मरण पाते हैं अद्वत ब्रह्मलीन समाधिस्थ बनकर वे केवल कनकावती में अन्तिम एवं चौथे सायुज्यमुक्तिपद की प्राप्ति करते हैं । (८५) सर्ग ३. वसुदेव-कनकानुलाप : ___ इस सर्ग के आरंभ में कनकावती के दैहिक सौन्दर्य एवं मनोभावों को ध्यान में रखकर उसकी विरहावस्था का वर्णन किया गया है । यहाँ उसकी कृशता, महाधि, तनुलता, वियोगक्षणों की कालगणना, विरहमूर्ति, चन्द्रोपालम, अश्रपात, इत्यादि का वर्णन किया गया है। विरहानल से दग्घा राजपुत्री को सखियाँ इन शब्दों में धैर्य धारण करने को कहती हैं- हे सुदति ! Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारा नाथ तो हृदय में ही बिराजमान है फिर इतनी व्यथा क्यों ?" फिर भी राजपुत्री विलाप, मूर्छा इत्यादि का अनुभव करती है तब सखियाँ कमल, चन्दन, शीतजल, शीतोपचार आदि से उसे सान्त्वना देने का प्रयत्न करती हैं । वसुदेव भी अपने मित्र चन्द्रातप के साथ उस नगर में आते हैं । कनकावती के पिता उनका सत्कार करते हैं । तदनन्तर चन्द्रातप के साथ राजा के प्रमदवन में प्रवेश करते ही वसुदेव को शृंगार रसाभास से उपवन के विभिन्न तत्त्वों में क्रीडाएँ दृष्टिगोचर होती हैं । ये तत्त्व हैं—अशोक, प्रवाल, चम्पक, पाटल, रसाल क्रकचदल, पलाश, भ्रमर, पराग इत्यादि । वसुदेव अन्तरंग मित्र एवं प्रासंगिक नायक के साथ केलिक्रीडा करते हैं । उसी समय पुष्पक विमान में बैठकर राजराज किन्नरेश, गुह्यकेश्वर, हरसखा, वैश्रवण, पौलस्त्य, नरवाहन, श्रीद, विद्याधरेन्द्र, पुण्यजन आदि विशेषणों से अन्वित यक्षराज कुबेर उस उपवन में उतरते हैं । कुबेर वसुदेव के साथ सन्मानपूर्ण वर्ताव करते हैं, और कनकावती के साथ विवाह हो इसमें वसुदेव की मदद चाहते हैं । विनम्रता के भाव के साथ दूत्यकर्म की प्रार्थना करते हैं । यहाँ कवि याचक की स्वार्थपूर्ण दृष्टि का निरूपणं सुन्दर शैली में करते हैं । कुबेर याचना के भावके साथ दुबारा दूत्यकर्मकी विज्ञप्ति पेश करते हैं । इस कार्य के लिये वसुदेव को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से कुबेर अनेक सुबोध वचन कहते हैं (४९ से ५७) । कुबेर वसुदेव के रूप एवं वाणी से अहोभाव का अनुभव करता है । दूतकर्म का स्वीकार करके अन्तःपुर में जाने के लिये तत्पर वसुदेव को कुबेर एक ऐसी विद्या देते हैं जिससे वह सबको देख सकते हैं और कनकावती सिवाय और कोई उन्हें नहीं देख सकता | विद्या का स्वीकार करके वसुदेव कनकावती के महल में प्रवेश करते हैं । यहाँ महल के अन्यान्य भागों का वर्णन हमें मिलता है । अन्तःपुर के वर्णन में कवि अपना पूर्ण कलाकौशल दिखलाते हैं; कनकावती के कक्ष का वर्णन तो सचमुच सर्वोत्कृष्ट है । यहाँ वसुदेव एवं कनकावती का प्रथम मिलन होता है और वे परस्पर भावानुरागी बनते हैं । उसी समय कामदेव शरसंधान करता है । (९७ से १०१) वसुदेव के आगमन से नायिका खुश जरूर होती है, मगर बाद में पूछती है - "भाप इस रक्षित महल में किस युक्ति से प्रवेश पा सके ?" आगे वह कहती है- " आपके जन्म एवं निवास का स्थल कोई भी हो, यह आपके जन्म से सचमुच कृतार्थ हो गया हैं । आपकी वाणी, आपके गाम्भीर्य. औदार्य आदि सचमुच सर्वातिशायी हैं।" फिर परिचय देने की विज्ञन्ति वह करती है तब सचमुच तो कनकावती के मधुर वचनों से वह खूब प्रभावित हुआ है । फिर भी वह तो आया है कुबेर के दूत के रूप में । इस सन्दर्भ में वसुदेव कुबेर के बारे में प्रशंसावचन कहते हैं— कनकावती के गुणों के श्रवण से कुबेर मुग्ध हैं । इसी के चिन्तन में निद्रा खो बैठे हैं, इत्यादि । आगे वसुदेव कनकावती को कहते हैं - " सूर्य के संग से कुन्तीमाता देवांगना बनीं, उसी रीति से आप भी कुबेर के साथ विवाह करें और देवांगना बने ।" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु इन बातों पर ध्यान देने के बजाय कनकावती तो वसुदेव का परिचय ही चाहती है। वसुदेव कहते हैं कि उनका नामोच्चारण निंद्य है। फिर भी वे कहते हैं कि आप यदुवंश के वसुदेव हैं और इस समय तो कुबेर के दूत हैं। सखी द्वारा कनकावती कहती है कि राजहंस और श्वेत बगली, सच्चे मोती और काचमणि, मदोन्मत्त हस्ती और नाजुक हरिणी का योग संभव नहीं, वैसे कनकावती का योग कोई देव के साथ संभव नहीं । फिर आगे सखी से कनकावती स्पष्ट कहती है कि वह वसुदेव को छोड़कर इन्द्र का वरण भी नहीं चाहती; उसके शरीर का स्पर्श या तो वसुदेव करेंगे या तो अग्नि करेगा । वसुदेव फिर से दूत की वाणी में बात करते हैं तो कनकावती क्रुद्ध हो जाती है, रोने लगती है। - ऐसी परिस्थिति में दूतकर्म की चिन्ता छोड़कर वसुदेव कामदेव की आज्ञा के वशवर्ती बन जाते हैं और कनकावती को सान्त्वना देते हुए कहते हैं-"जैसे चन्द्र का जीवन रात्रि है, वैसे ही तुम मेरा ।" वसुदेव प्रमदवन में वापिस आते हैं । दूतकार्य तो किया, मगर कनकावती का सन्देश देते हैं कि "आप सचमुच महान हैं और मेरे पूज्य हैं ।" मित्र के चित्तशुद्धियुक्त कार्य से वसुदेव के प्रति कुबेर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं । सर्ग-४ कनकावती के स्वयंवर का वर्णन : इस सर्ग में कनकावती के स्वयंवर का वर्णन पेश किया जाता है । अलग-अलग देश के अद्भुत वेषपरिधानयुक्त, अहंकारी, पराक्रमी, कामदेव जैसे सुन्दर राजकुमार अपने अश्व, रथ इत्यादि पर आरूढ होकर आगे बढ़ जाने की स्पर्धा करते-करते वहाँ आते हैं। नगर के मार्ग इन राजकुमारों के अश्व, हस्ती, पायदल, रथदल इत्यादि से भरे पड़े हैं । वसुदेव समक्ष तिरस्कृत कुबेर भी आते हैं । कुबेर वसुदेव को एक ऐसा अंगुलीयक देते हैं जिसके पहनने से वे बराबर कुबेर जैसे दिखाई देते हैं। सारा नगर अनेक राजा, राजकुमार और उनके रसाले से स्वर्ग समान खिल उठा था । अतिथिसत्कार के बाद राजाओं को सुन्दर महलों में निवास दिया गया है। इस सर्ग में राजपुत्रों का वर्णन सुन्दर शैली में किया गया है । महलों में राजपुत्री के चित्रों की प्रदर्शनी है, जिसे देखकर तमाम राजपुत्र सविशेष उस्कण्ठित बन जाते हैं। फिर आता हैं अत्यन्त मनोरम स्वयंवर वर्णन और स्वयंवर प्रवेश करती हुई राजकुमारी का वर्णन । उसके अंगप्रत्यंग एवं अलंकारों का अत्यन्त मनोरमवर्णन करने के साथ इसे देखकर किस रीति से तमाम राजपुत्र कामविह्वल बन गये इसका निरूपण भी दिया गया है। साथ-साथ स्वयंवर मण्डप का भी वर्णन कवि चारुरीत्या करते हैं । कनकावती स्वयंवरमण्डप में प्रवेश करती है। उसकी सखी सुवदना सर्वप्रथम देवों का परिचय देती है और किसी देव का वरण करने का सूचन करती है। कनकावती देवों को प्रणाम करती है, वरण न होने के कारण देव श्याम पड़ जाते हैं । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद में अवन्तिराज, गौड़राज, काशिराज, और साकेतराज का वर्णन-प्रशंसन किया जाता है । उसका मन तो परब्रह्म में लीन साधक-सा वसुदेव में ही लीन है । सर्ग ५-मुद्रितनृपकुमुद : स्वयंवर मण्डप में राजओं का वर्णन आगे बढ़ता है। पाण्ड्यराज, कलिंगराज, नेपाल के राजा, मलयदेश के राजा, कांची के राजा, कीटकराज, मिथिला के राजा आदि का वर्णन सुवदना करती है, परन्तु कनकावती की आँखें तो वसुदेव को ही खोज रही हैं । सर्ग ६-वसुदेव वरण : स्वयंवर वर्णन आगे बढ़ता है । अब कुबेर का वर्णन आता है, और फिर आता है यादवकुलभूषण का विस्तीर्ण वर्णन । उसके गुण, जवानी, रसिकता आदि का वर्णन अनेकविध कल्पनों के साथ कवि करते हैं । इस लेषमय, हृदयंगम वर्णन में कवि का कविस्व खिल उठता है ।। मगर वसुदेव कुबेर जैसे भी लगते हैं। किन्तु मानव होने के कारण वसुदेव धरातलस्पर्शी हैं, उनके शरीर पर प्रस्वेद बिन्दु दिखाई देते हैं, उनके कण्ठ में शुद्ध सोने में रत्न जदित शंगार कल्पलता है, वसुदेव के नयन सनिमेष हैं, उनके कण्ठ की पुष्पमाला मुरझा रही है । इन प्रमाणों से वसुदेव का परिचय हो जाने पर कनकावती सच्चे कुबेर के पास प्रार्थना करती है, सनाथा बनना चाहती है । वसुदेव को कुबेर आज्ञा देते हैं, अंगुलीयक दूर होते ही वसुदेव अपने सच्चे स्वरूप में प्रगट होते हैं। पहले अन्तःपुर में दर्शन हुआ था, यही वसुदेव हैं वह । कनकावती उनके कण्ठ में माला पहनाकर वसुदेव का वरण करती है । नगर में आनन्दघोष होता है, वाद्य बजते हैं, राजागण श्याम पड़ जाता है । सारा वातावरण आनन्दविभोर हो जाता है । युगल सर्वथा परस्परानुकूल है। उसके वर्णन में कवि सम, उपमा, व्यतिरेक आदि अलंकारों का प्रयोग करते हैं। राजकुमार-राजागण अपने निवास प्रति गमन करते हैं । सर्ग ७-वरालंकरण : कमनीय रूप से अन्धित, वरवर्णिनी स्त्रीओ से घेरे हुए वसुदेव राजगृह जाते हैं। मार्ग में उनके गुणगानरत बन्दीजनों को प्रभूत धन देते हैं । वे वसुवारि की वर्षा कर रहे हैं । " इस वरसे उभय श्रेष्ठ कुलों की शोभा बढ़ेगी " ऐसा कहकर राजा हरिश्चन्द्र शुभलग्न की तैयारी करने का अपनी रानी को कहते हैं । ज्योतिषीयों को विवाह का मुहूर्त पूछा जाता है । वे श्रेष्ठ मुहूर्त निकालकर देते हैं, जो उदयास्त-निर्मल और सूर्य, चन्द्र और गुरु से बलान्वित है । इस पर दूत द्वारा बमदेव की सम्मति पायी जाती है । उचित समय पर कन्या के पिता उनके आगमन पतीक्षा करते हैं। रानी के मार्गदर्शन में शुभलग्न की त्वरित तैयारी हो रही है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ इसके बाद हमें तैयारी और सुशोभन का विस्तीर्ण वर्णन मिलता है । राजकुमारी को स्नान कराया जाता है और स्नान के बाद वस्त्रालंकार सुशोभनों से अन्वित देह चम्पा के पुष्प और सुवर्ण जैसा खिल उठता है, चारों ओर सुगन्ध फैल उठता है। उसी दिन से जगत के लोग कहते हैं कि “सोने में सुगन्ध मिली ।" । फिर हमें मिलता है वेदिका पर बैठी हुई कन्या का विस्तृत अनुपम वर्णन । वसुदेव भी विवाह के लिए तैयार एवं सुशोभित किये जाते हैं, सूर्य के समान सात अश्वोवाले रथ पर आरूढ होकर निकलते हैं । राजमार्ग पर पुरांगनाएँ निकल पड़ती हैं । वसुदेव के दर्शन के लिए उत्सुक और दर्शनमुग्ध नारियों का वर्णन किया है गया । सर्ग-८ वसुदेव परिणय : महामूल्यवान वस्त्रालंकार विभूषित अनेक राजकुमार अश्वारूढ होकर वसुदेव की बारात में उपस्थित हैं । अत्यंत सुशोभित वसुदेव राजकुमार और नृपगण का वर्णन यहाँ सौन्दर्य की पराकाष्ठा पर पहुँचता है । वसुदेव का स्वागत करते कनकावती के पिता उनका आलिंगन करते हैं। अपनी पुत्री का वे पूरी प्रसन्नता के साथ कन्यादानविधि सम्पन्न करते हैं, मानों हिमालय ने गौरी का, समुद्र ने लक्ष्मी का कन्यादान दिया । बाद में विवाह सम्पन्न होता है । वसुदेव को और अन्य सभी को समुचित भेटों से सम्मानित किया जाता है। तीन चार दिन के बाद अपने परिवारजनों के साथ बारात अपने गृह प्रति गमन करती है । कनकावती को वसुदेव स्वयं रथारूढ करते हैं । थोड़े अन्तर तक वसुदेव परि. वार तथा सेना को लेकर साथ जाते हैं । इसके पहले कन्या की बिदा का प्रसंग करुण मिश्रित शान्त रस से अन्वित है। बिदा करते समय पिता पुत्रीको वसुदेव को अपना सर्वस्व मानकर, परमात्मा मानकर उनकी नवधा भक्ति के साथ सेवा करने का उपदेश देते हैं। इस सर्ग में विभिन्न वर्णनों में कवि ने उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, रूपक, आशी, श्लेष, सूक्ष्म आदि अनेक अलंकारों का सफल प्रयोग किया है । सर्ग-९ वनविहार वर्णन : विवाह के बाद पति-पत्नी मथुरा के मार्ग में वन विहार कर रहे हैं । एक दूसरे के संग में वसुदेव एवं कनकावती अत्यन्त सुन्दर, परस्परानुरूप लगते हैं । प्रियतमा की प्रसन्नता के लिए वसुदेव वनयुगल दिखलाते हैं, इनका वर्णन करते हैं । इन युगलों में मुख्य हैं सारस-सारसी, हंस-हंसी, चक्रवाक-चक्रवाकी, मयूर-मयूरी । फिर क्रमानुगत ऋतुवर्णन दिये गये हैं। कवि वसन्तवर्णन से आरंभ करके शिशिर तक आते हैं । वर्णन सुन्दर, तादृश एवं वैविध्यपूर्ण तथा प्रसन्न कर हैं । सर्ग-१० विजयश्री वरण : वसुदेव कनकावती के साथ मथुरा प्रस्थान कर रहे हैं। अरिष्टपुरके वाहर रुकते Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ हैं । पैदल नगरचर्या करते हैं। यहां राजसमूह दिखाई देता है । यहाँ कवि भिन्न-भिन्न राजाओं की शृंगार चेष्टा का वर्णन करते हैं । विद्या के बल पर अपना रूप परिवर्तन करके वसुदेव स्वयंवर - मण्डप में प्रवेश करते हैं । राजपुत्री रोहिणी का स्वयंवर रचा गया है । उसी समय शुभ विवाह के मंगल परिधान में हाथ में वरमाला के साथ रोहिणी प्रवेश करती है । सब राजा विह्वल हो उठते हैं । अनेक राजाओं का परम्परित वर्णन वेगवती ने किया, किन्तु रोहिणी खुश नहीं है । चंद्र की निकटवर्ती रोहिणी की भाँति राजकुमारी रोहिणी चन्द्रसमान तेजस्वी वसुदेव को देखकर प्रसन्नचित्त हो जाती है और पति के रूपमें उनका वरण करती है । वसुदेव ने तो रूप परिवर्तन किया है । यह जानकर विरोध उठता है । राजसैन्य इकठा हो गया, युद्ध हुआ, तुमुल युद्ध | सब दलों के साथ युद्ध करने के बाद विजयी वसुदेव पर पुष्पवृष्टि होती है । फिर कोई जादूगर क्षत्रिय पुरुष की कीर्ति की विडम्बना करता है । फिर युद्ध, युद्धवर्णन और विजय की कथा | आगे चलते चलते अनेक कन्याओं के साथ विवाह । फिर से मथुरा के प्रति आगे प्रस्थान | सर्ग - ११ कनकानिधुवन : यह सारा सर्ग वसुदेव- कनकावती के संभोग शृंगार का वर्णन करता है । नायक की चेष्टाएँ, नायिका के विभिन्न प्रतिभाव आदि का निरूपण, वर्णन कवि करते हैं । दूरे सर्ग में मुक्त शृंगार, कामचेष्टाएँ आदि का प्रायः वाच्य में निरूपण किया गया है । अन्त:पुर में कामक्रीडा के बाद वनविहार और वन-उपवन क्रीडा का वर्णन कवि देते सर्ग : १२ - सन्ध्योपश्लोक मंगलगान : इस सर्ग में हमें अति लम्बे भावावेश सभर वर्णन मिलते हैं । प्रकृति के साथ एकरूप मानव भावों का सायुज्य दिखाया जाता है । 1 सन्ध्या, अन्धकार, चन्द्र और इनके बीच प्रकृति तथा उसमें मानव का विहार यहाँ वर्णित है । अनेक रसों का निरूपण किया गया है । प्रात:काल का वर्णन, बन्दीजनों का गान इत्यादि भी हैं । यहाँ काव्य के १२ सर्गों की समाप्ति होती है । १०६४ श्लोक वाले काव्य की समाप्ति मंगलान्त गान के साथ सम्पन्न होती है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित यदुसुन्दरमहाकाव्यम् । एँ श्री जिनाय नमः । विनिद्रचन्द्रातपचारु भूर्भुवः . स्वरीशमार्हन्त्यमनाद्यनश्वरम् । स्वचुम्बिसंविघृणिपुञ्जमञ्जरी परीतचिद्रूपमुपास्महे महः ॥१॥ इहैव वर्षे यदुवंशपुङ्गवः पवित्रिता विश्वजनीनविक्रमैः । लघूकृता द्यौरनया दिविस्थिता स्वसम्पदोरुमथुरापुरी भुवि ॥२॥ सहस्रशीर्षः पुरुषो विभर्ति यां शिरःसहस्रेण विदनगरीयसीम् । सहस्रपात्पादवरोऽसभाजय- | त्परीत्य नित्यं परिवर्तनच्छलात् ॥३॥ यदङ्गनारूपनिरूपणाय वा गुहः षडास्यश्चतुराननो विधिः । दिक्षया यौवतनर्ममर्मणां हरिः सहस्राक्ष इब स्म यत्र भूत् ॥४॥ निराकृता नाकिनिकायमण्डली निलीय दृक्कोणपथातिगाऽभवत् । यदू हैः सुन्दरतापराजितः किमत्र पञ्चेषुरनगतामगात् ॥५॥ यदीयशालः कपिशीर्षशीर्षता वतंसलाभाय सुरापगामिव । यियासुरेतत्कमलातिगर्भकं चिकीर्षुरुच्चैःपदमारुरोह यत् ॥६॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित अदभ्रमभ्रंलिहसौधमण्डली शिरःस्खलद्वाहरयादह र्पतिः । ध्रुवं चकारोत्तरदक्षिणायने स भीतभीतोऽत्र यतस्तिरोऽश्चति ।।७।। रविस्तटे यच्छिखरामलिप्सया समाधियोगात्किल तप्यते तपः । कलिन्दकन्याकलदण्डमुदहन् सुयोगपढें परिखामिषेण यत् ॥८॥ बहुक्षणमन्दिरतल्लजैरलं विमानिता यत्र विमानसम्पदः । धनस्वरैयंत्र घनाघनध्वनिः समं पराजीयत तूर्यनिःस्वनैः ॥९॥ दरस्मितस्मेरविलासिनीजनः परिष्कृतो भूषणभूष्यमण्डलैः । सुपुष्पवन्तौ हसतीव पक्षयो ___ रहर्निश चञ्चदनश्चितश्रियौ ॥१०॥ गृहे गृहे खेलति यत्र खेलया जनीयुगं स्त्रीगणरामणीयकम् । कराम्बुजे श्रीवंदने सरस्वती विहाय पकरुहपक्कजाश्रयम् ॥११।। सदाऽर्हतामायतनेष्वगर्हिता हणासु तौर्यत्रिकनादडम्बरैः । ज्यधत्त सांराविणमाहतो जनः किलैककं ब्रह्म ततो विदुर्बुधाः ॥१२॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य दुसुन्दर महाकाव्य सिताश्मवेश्माप्रतलेषु पुञ्जितै णीचकैस्तारकितं नभो दिवा । प्रतीयते नक्तमहश्च यत्र वा सदाऽर्ककान्तोपलविग्रहै गृहैः पुराङ्गनासौरभचौरिका चणो रतिश्रमस्वेदलवस्य तस्करः । यदाशुगो यामुनशीकराकुलो मनोहरो यद्युवतीषु यद्युवा कृताभिमानादपि भामिनीजनाद् भयं कलिर्यत्र रतेषु प्रसून माल्येषु च मत्तकाशिनी प्रवालशालीनि गृहाणि यत्र वा भुजैर्युवस्वेव मृणालकोमलैः ।। १५॥ वनानि चाशोकघनानि रेजिरे । विपल्लवो यत्र महाजनेषु न सौमनस्य सुजने वनेऽत्र वा क्वचिद्वने कश्चन वा विपल्लवः ।। १६ ।। विटेऽरविन्दे मधुपत्वविभ्रमः । सुवृत्तता शुक्तिजका व्यसाधुषु बन्धनम् 1 रसाकुलं कामिकुलं च गोकुलं ॥१३॥ ॥ १४ ॥ प्रमाणता दृक्च्छ्रुतयोः प्रमेयता ॥१७॥ रसायनं काव्यगुणे सुभेषजे । महामहः पौरगृहेऽत्र राजके सदाऽप्सरः रः शोभि वनं सुमेरुवत् ॥१८॥ m Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तदत्र राजन्वति राजति स्म राइ यदुर्नदीमातृकनामनीवृति । यतोऽगमद्यादववंशसंकथा - प्रथां जगच्चित्तचकोरचन्द्रिका ।।१९।। तदङ्गजः सूर इति प्रतापवान् सुहृन्मनोऽम्भोजविकाशनक्षमः । दुहृद्वशःकैरवकोशमुद्रणा निभालने सूर इवापरोऽभवत् ॥२०॥ तदुद्वहौ सौरिरथो सुवीर इ त्यभिख्यय ज्येष्ठ कनिष्ठतां गतौ । निजान्ववायैकनभोनभोमणि क्षपामणीव प्रसभं रराजतुः ॥२१॥ नृपस्य शो रेस्तनुजोऽन्धकोऽभवद् रिपुक्रतुध्वंसनताऽधकारिवत् । ततः समुद्रोदरशुक्तिशुक्तिजा बभुः समुद्रादय आत्मजा दश ।।२२। दशाहदिक्चक्रशतक्रतूपमो धनुष्मतां धामवतां धुरन्धरः । यदोजसः सवरतामसासहि विधिय॑धादात्मकरे कमण्डलुम् ।।२३॥ समुद्रनामा शिरोमणिः पूरुषरत्नशेवधिः । यशो यदीयं विललास पाण्डुरे सपत्नपत्नीकुचगण्डमण्डले ॥२४॥ ॥ युग्मम् ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमाहाकाव्य ततः कनीयाननुजो मनस्विनां महत्तरो यो वसुधासुधाधिपः । सुभाग्यसौभाग्यकलाकलानिधि निधिर्वसूनां वसुदेव इत्यभूत् ॥२५॥ यदीयकीर्तिव्रतते वाकुराः सुदिश्यदन्तावलदन्तपङ्क्तयः । दलानि गङ्गाकुसुमानि तारकाः फलान्यशीतांशुसितांशुशुक्तिजाः ॥२६॥ अथो नृपः शौरिरशेषभूतल प्रभूतभूपालकभालभूषणः । न्यधापयत्स स्वदप सुवीरके स्वयं मुमुक्षुर्गृहविग्रह ग्रहम् ॥२७॥ नृपः सुवीरो रिपुवीरविक्रम प्रतापबालाकबलाहकोदयः । शशास सर्वामपि सागराम्बरां .. स राजबीजी निजबीजिराज्यपः २८ तदङ्गजन्मा भुवि भोजवृष्णिरि त्यभिव्ययाऽभूभुवनकभूषणः । द्विषन्महीन्द्रद्रमकुञ्जभञ्जन-- द्विपेन्द्रदेश्यः किल राजपुङ्गवः ॥२९॥ तदङ्गजोऽथोग्र इवोनसाहसो य उग्रसेनः पितृविश्रमप्रदः । बभार भूभारमखण्डमण्डलं धुरै धुरीणोऽधरदुर्वहामिव ॥३०॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनसुन्दरसूरिविरचित तदुद्वहः कंस इति स्वरूढिता गुणेन वित्तो यदुवंशसम्भवः । यदीयतेजस्तपनोष्मसाध्वसाद् भवः स्वमौलौ सुरनिम्नगामधात् ॥३१॥ ततो जरासन्धनृपप्रसादतः स्ववंशविध्वंसनृशंसकोणपः । हरस्व राज्यं पितुरुग्रसेनतो मुषाण कोश जनकं बधान च ॥३२॥ पुषाण भोगानरिराजपत्तनं क्षणादवस्कन्द नभान दुर्दमान् । क्लिशान दुःशासनृपोपवर्तन जिगाय जय्यानरिजैत्रविक्रमः ॥३३॥ ॥ विशेषकम् ।। धिगेतकान्भङ्गुरभोगसङ्गमा नवाप्तिरम्यानपुनरायतिद्रुहः । तृणेढि जन्यो जनकस्य यत्तृषा तृणाननीरैः शममेति किं तृषा ॥३४॥ पतन्ति यज्जन्मनि नैव पूर्वजा ___अवीचिकृच्छ्रे तदपत्यमित्यपि । विदन्ति तज्ज्ञा अमुना जिजीविषत् पितुः पुनर्व्यत्ययपञ्जिका कृता ॥३५॥ स भीमकान्तादिगुणैरलङ्कृतोऽ प्यधृष्यधामाऽभवदुद्धतद्विषाम् । मृदुर्घदूनां नयचञ्चुपौरुषो भनक्ति वायुटुंगणं न वीरणम् ॥३६॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य निस(क्ष)वो मे सुहृदो हृदिस्थिताः श्रयन्तु दिक्चक्रमनम्रकन्धराः । समाचचक्षे किल यद्धनुर्गुणः कठोरटक्काररवेण राजकम् ॥३७।। विपक्षभूपालवधोत्थपातक स्वकालकायत्वकलक्कशक्कया । असिस्तपस्वी किल यस्य वैरिता यशःपयः किं व्रतयत्यनारतम् ॥३८॥ विहारचारे विहरन्पुराना विलोलहक्कैरवकौमुदीपतिः । । कयाचन प्रेमसुधोमिसान्द्रया दृशा स्मरात्मा वसुदेव ऐक्ष्यत ।।३९।। परा दृशाऽपीयत पीवरस्तनी दमीयसौन्दर्यसुधातरङ्गितम् । अमूमुहद्रगदनविभ्रम स्खलद्गतिः काऽप्यदसीयलीलया ॥१०॥ कयाचिदाश्लिष्यत मन्मथान्धया धिया तदारोपितसगरगया । यदीप्सितं वस्तु न हस्तगोचरं मनोविनोदः खलु केन वार्यते ॥४१॥ परा त्रुटन्मौक्तिकदामगुम्फन जनी दवद्यावकरागमण्डनम् । स्तनं धयन्तं च परा स्तनधयं विहाय तदर्शनलालसाऽचलत् ॥४२॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित परा करादर्शनिलीनतद्वपुः समालिलिङ्ग प्रलथनीविबन्धना । पथि प्रयातोऽस्य गवाक्षगा परा . ___ कटाक्षनीलोत्पलमक्षिपत्पुरः ॥४३।। तनूरुहानकुरयत्ययं तनौ तनोति सीत्काररवं सवेपथुम् । विदारयत्योष्ठममुष्य सङ्गमो हिमानिलः किं तरुणीष्वजृम्भत ॥४४॥ अथैकदा पौरजनः सदःस्थितं समुद्रभूपालमदो व्यनिशपत् ।। पुराङ्गनाशीलपरासनोद्धत स्तवामुजः सम्पति साम्प्रतं न नात् ॥४५॥ निवस्तुमीष्टे कथमत्र मादृशो . भवादृशो यत्र बिलकमितकमः । पिता स्वपुत्रस्य निहन्ति हन्त चेत् . जिजीविका तस्य कुतोऽकुतोभया ॥४६॥ ततस्तमाहूय नृपो रहोऽभ्यधा न्नयापदेशोक्तिभिरेव चाटुभिः । अटाट्यया ते भविता मलीमसं .. वपुर्वपुष्मन्नधितिष्ठ तद्गृहे ॥४७॥ श्रुतेष्वधीती रसिको रसायने कवित्ववक्तृत्वकलाविलासवान् । अलकृतौ छन्दसि नाटकेऽचिरात् प्रमाणमभ्यस्य विशारदो भव ॥४८।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य तदिङ्गितज्ञः स परामृशद्वचो हितं क्वचित्स्यादहितप्रयोजकम् । सुधीशा सूक्ष्मदृशो हि विष्टपं विलोकयन्ति स्म दृशा परे पुनः ॥४९।। अहो ! महामानधनार्थिनः कदा न नीचवृत्त्या निजवर्तनं व्यधुः । सुचातकश्चारुपयः पयोमुचां. समुत्समुत्कन्धर एव पीयते ॥५०॥ ध्रुवं सधाम्नामिह धामजीवितं विनैव तज्जन्ममनीषितं मुधा । इति ब्रुवन्नस्तमियाय भास्करः प्रतापमान्द्यं महतां सुदुर्वहम् ॥५१।। अरुन्तुदो दुर्विषहो मनस्विनां स्वबन्धुवर्गस्य वचः शिलीमुखः । वरं विदेशः कलुषे हि मानसे न सन्मरालस्थितिरत्र शोभना ।।५२।। विचित्रविज्ञानकलासु कौशल स्वभागधेयस्य फलं प्रकाशते । विजृम्भते कीर्तिरुदेति पौरुषं गुणेषु धैर्य विषयान्तरक्रमात् ॥५३।। इति स्वचेतस्यवधार्य निर्ययौ कृपाणपाणिः परिणाहिभाग्यभाक । न चैकको गह्वरगाहनोद्यतो । मृगाधिपो नु प्लवतामपेक्षते ॥५४।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनसुन्दरसूरिविरचित व्रजन्पुरग्रामशिलोच्चयादिकान् सरिद्रुमारामविहारकौतुकान् । व्यतीत्य विद्याधरराजिराजितं जगाम विद्याधरपत्तनं क्रमात् ।।५५।। यदीयचामीकरसौधकुट्टिमा-- वनद्धचन्द्रोपलसन्द्रवन्मधु । निपीय पीयूषमिवालिमालया विशेष ईषे न सरोजराजिषु ॥५६।। अदभ्रशुभाश्मशिलावितर्दिषु प्रकाशसक्रान्तविरोचनविषा । पुरस्त्रियो राजतकुम्भविभ्रम विभाव्य यत्र स्वकरप्रथां व्यधुः ॥५७।। यदीयसिद्धायतनप्रधूपित प्रधानराजाहजधूमडम्बरैः । शिखावले१दिनमेव सर्वदा विमुक्तकेकाविरुतैर्विभाव्यते ॥५८।। कयापि पत्या मणिमण्डपस्थया मणिप्रतिच्छायितदेहवेष्टया । परानुरागीत्यसि विप्रलम्भने रहस्युपालभ्यत यत्र वल्लभः ॥५९।। सुशोणरलोपलनद्धभूतला स्तुषारनीश अपि यत्र दीर्घिकाः । न तासु तृष्णग्दयितागणोऽपि सन् पिवत्यहो ! शोणितशोणिमभ्रमात् ॥६०॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य हरिन्मणिच्छन्नतलासु मांसल पभासु पद्यासु विभिन्नचञ्चवः । पतन्ति पित्सन्स इहाङ्कुराशया विशालशालेयविभासु यत्र च ॥६१॥ यदीयविद्याधरराजमण्डली निलीय तस्थावणिमादिभूतिषु । प्रकर्षरूपप्रतिरूपशालिनी दमीयसौन्दर्यविनिर्जिताऽपि या ।।६२।। शौरिस्तदा खचरयौवतनेत्रराजी राजीव पंक्तिभिरलक्रियते स्म तत्र । यत्सन्निधावपि निधौ वसतेः प्रयाते को वा कवाटघटनां विदधीत धीमान् ।।६।। विद्याधरैरपि तदा विदितानुभावै रातिथ्यमस्य सुतरां विधिवद्व्यधायि । सन्तः सतां शुभमजयंमदृष्टयोगात् प्रापय्य हि स्वजननं चरितार्थयन्ति ।।६४।। तस्मै प्रसन्नहृदयैरपि तैरदायि . या रोहिणीप्रभृतयः खगवन्धविद्याः । सद्यः प्रसादवरदा अभवन्नये हि यदुर्लभं सुलभतामपि तद्विभर्ति ॥६५॥ सौभाग्यशेवधिरिति प्रसमीक्ष्य दत्त्वा भूयः स खेचरकनी: परिणीय यह्वीः । इन्दाञ्चकार सफलेन्दुरिव प्रभाभि ज्योत्स्नीनिशि स्वरमणीसुषमाभिरेषः ।।६६।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित M चन्द्रातपः खग इहास्य वयस्यरूपः __सौहार्दमार्दवनिधिः सविधं सिषेवे । शौरिश्च तेन शशिनेव समुद्रपूरः स्नेहोर्मिमेदुरमना मुहुरुल्ललास ॥६७।। प्रीतिस्तयोः सवयसोर्वचनातिगाऽऽसीद् ब्रह्मानुभूतिरिव सम्मदशर्मसान्द्रा । सख्यं नु तन्मनसि यत्र न भेदवृत्ति श्वेतः प्रसादव(य)ति धीप्सति यः स पापः ।।६८।। तत्रानिशं सहचरीकिलिकिञ्चितादि ___ लीलाभिरेष विजहार विहारदेशान् । ताभिर्बभौ सुरतसागरसत्तरीभिः साक्षास्किलेष्य इव कोकिलकाकलीभिः ।।६९॥ सघनजघननीवीबन्धमोक्ष करिष्य न्नरुणचरणसेवाचाटुकारं दधानः । स्मरशरभरपातव्यस्तलज्जाभिराभि-- नवनिधुवनलीलानर्मकेलिं ततान ।।७।। इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितेशश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरनाम्नि महाकाव्ये वसु देवप्रस्थानं नाम प्रथमः सर्गः ॥१॥ ॥ छ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथो हरिश्चन्द्रनरेन्द्रनन्दिनी बभूव पीठालयपत्तनोद्भवा । नृधर्म पूर्वप्रमदाकृतक्षणा ॥ द्वितीयः सर्गः ॥ सुरूपसीमा कनकेति विश्रुता ॥१॥ प्रपञ्चयामास किमत्र वागुरां यदी लावण्यगुणप्रपञ्चिताम् । कृष्णसारं हरिणं नु कामिहगू द्वयं हि बधुं किल कामलुब्धकः ॥ २॥ यदीयधम्मिल्ल शिरोजमञ्जरी अनङ्गदाशः निलीनमीनध्वजमीन शैवलम् । किमस्ति यद्वा करवालिका जगज् जनैकजेतुः कुसुमायुधेशितुः ||३|| कलापिनां बर्हकलापकेषु य न्न्यधायि निःश्रीकनिकारलक्षणम् । करार्धचन्द्रः कचपाशशोभया निरस्य यस्याः स किलैषु लक्ष्यते किमपप्रथत्तरां जगद्युवस्वान्तविसारनिग्रहम् । सकुन्तलानायममुं यदीयसद् वपुर्गुण गाधजले किल ध्रुवम् ||५|| अथो सुकेशीकचराहुकालिमो परक्तभालैन्दवमण्डले सति । स्वसिद्धविद्यां यदसस्मरत्स्मर-' 11811 स्ततो जगज्जित्वरसत्त्ववानभूत् ॥६॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पद्मसुन्दरसूरिविरचित सुकैशिकापास्तशिखण्डिनां गणः . किमु त्रपातो गहनं व्यगाहत । अथो सुकेश्या मुखचन्द्रमण्डल ग्रहाय कैश्यं तम ईप्सति ध्रुवम् ॥७।। यदीयवेणी भववेध्यकुण्ठिता स्वबाणवीर्यस्य मनोभुवः किमु । . गृहीतहेतेरसिरस्त्रनिग्रहे भटस्य शस्त्रग्रह एव शस्यते ।।८।। किमु भ्रुवौ यौवनकामयाभिथः सखित्वसंयोजितमङगुलिद्वयम् । अथेदमीये हरदग्धमन्मथ प्रसूनकोदण्डरजो विजृम्भते ।।९॥ यदाननेन्दुस्थितचन्द्रिकोज्ज्वलो व्यदिद्युतत्कुन्तलताऽभ्रमण्डले। किमेतदीयाननराजचिह्नता रराज यत्कैशिकलाञ्छनच्छलात् ॥१०॥ यदोयकेशोपवने यदानन सरः प्रभाजालजलौघसम्भृतम् । प्रफुल्लसल्लोचनपङ्कजश्रि तत् किमेतदिन्दीवरितं नभोऽथवा ॥११॥ विदिद्युते यद्विजपङ्क्तिरुज्ज्वला कषायितस्वाधरवाससाऽऽवृता । समञ्जस कोकनदेऽत्र मौक्तिकं दधौ प्रवाले किमु वज्रतां विधिः ॥१२॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसुन्दरमहाकाव्य यतोऽधरं बिम्बमिति स्फुटान्वया यदीयबिम्बाधरपञ्जिका किल । प्रवाल इत्येव किल प्रवालतां दधच्च तेनाभिधयैव धिक्कृतः ॥ १३ ॥ श्रवोलताsस्या युवता नियन्त्रणे चकास्ति पाशः किल कामपाशिनः । रथद्वय वा ननु यौवनस्मर द्वयस्य यत्कर्णयुगं विहारिणः ॥१४॥ गिरां रसज्ञाssसनगाधिदेवतोपवीणयत्याननपङ्कजालया । तथा हि तस्या द्विजहंसमण्डली गुणानुपश्लोकयतीव सुस्वरा ।। १५ ।। मुखेन तस्या ननु निर्जितो विधु द्विधाकृतात्मा विधुरो यदाधितः । कपोलबिम्बद्वयरूपभृत्ततः सरूपयत्याननपङ्कजश्रियः ॥ १६ ॥ यदीयनांसाद्युतिभिस्तिरस्कृतः शुको विज हे वनवासिभिर्वनम् । जगजिगीषोर्ननु पुष्पधन्वनोऽ दसीयनासाविवरं निषङ्गति ॥१७॥ न किन्नरी काऽपि न चापि कच्छपी न कोऽपि पुंस्कोकिलकाकलीगुणः । इति त्रिरेखाबलयेन मन्महे स्फुटं सुकण्ठ्या उपकण्ठमास्यते ॥ १८ ॥ १५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तथा च तस्यां मृदुबाहुवल्लरी पराजितं किं नलिनं निषेवते । जलप्रपातं समृणालनालक पराभवान्मञ्जुलमम्बुमज्जनम् ॥१२ कुमुद्वती यत्करकुड्रमलत्विषा जिता द्विरेफस्रजमावहन्त्यपि । तपस्यती वै तदभीशुलिप्सया सुमर्षशीतातपवातपातना ॥२०॥ यदङ्गुलीपञ्चकमर्धचन्द्रकाः स्मरस्य बाणा युववर्धनोदधुराः । ध्रुवं बभुः किंशुकपुष्पधन्वता स माधवस्यास्य विजृम्भतेऽथवा ॥२१॥ अहो ! महोत्पातपरम्परा ध्रुव सुकामिवर्गस्य विभाव्यते यतः । यदीयहस्तः स पुनर्भवो बभौ नमः प्रदोषे किल पञ्चचन्द्रकम् ॥२२॥ किमङ्कुरैः पल्लवित प्रवालजैः पद्मरागैरुत कोरकायितम् । दीपाणिद्युतिकोटिरुत्थिता प्रमाणबाधां तनुते प्रसञ्जनैः ||२३|| अनङ्गतारुण्ययुगं तदीयसद् वपुः प्रभानिर्झरमग्नमुन्नतम् । कुचेभकुम्भद्वयमाप्य हेलयाs - त्यहस्तयत् किं किल रोचिरोघतम् || २४ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य यदीयरोमालिलताप्रतानिनी सुगुच्छयुग्मं कुचमण्डलद्वयम् । विभाति शोचिर्झरसन्न यौवनो न्मदेभकुम्भद्वयमुल्ललास किम् ॥२५॥ यदाननेन्दुप्रभया वियोजित सुवत्सकासारतटोषितं किल । अतिष्ठदेतत्कुचकोकयुग्मक विधेर्निदेशो दुरतिक्रमोऽङ्गिनाम् ॥२६॥ किमेतदीया स्मरभिल्लपल्लिका- कुचद्वयी यामधिशय्य मन्मथः । स्वकर्णजाहं शरमाकलय्य च व्यदारयत्कामिकुरङ्गसंहितम् ॥२७॥ तदीयरोमावलिरन्दुकोऽगलत् प्रभिन्नवक्षोजमहेभगात्रतः । ध्रुवं सृणिर्वा स्मरवारणस्य सा विनीलरत्नातिभङ्गभगुरा ॥२८॥ इयं स्मरारामिकवृक्षवाटिका · स्तनारघट्टस्फुटरोममालिनी । जनी सुलावण्यजलाविलान्तर स्वनाभिकूपप्रगुणीकृता खलु ॥२९॥ बभार लावण्यसरोऽम्बुपूरितं स्फुट रतिप्रीतिनितम्बिनीद्वयम् । सुजातरूपस्तनकुम्भयोयुगं समाहितेन्दीवरचारुचूचुकम् Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तदीयनाभिः किल कामयज्वनो ध्रुवं हवित्री रुचिहव्यवाहना । अरालरोमावलिघूमनीलिमा निरेत्युदग्रः कथमन्यथा ततः ।। ३१ ।। वलित्रयारोहण मंशुवारिभिः परीतमेतचनु रोमता कुशैः ॥ तदीयना भी शुभतीर्थमत्र कि चकार कामः कमनीयतर्पणम् ॥३२॥ पुरा विसस्मार विधिर्विधानता मुरोजयुग्मस्य विलग्नलग्नतः । विभागतो यन्निरमायि तद्वयं ततोऽणुमध्या किमभूत्सुमध्यमा ॥३३॥ अणुद्वयं यन्निरधारि वेधसा प्रधानसर्गे तत एव निर्ममे । तदेतदीयोदरमंश संशय व्यक्ति कोटिद्वयरूढसत्त्वतः ॥ ३४ ॥ कटिः कृशाऽस्याः किमु कामकामिनः कलत्रमीष्टे तदीयचापस्य किमस्ति लस्तकः रतकेलिसारताम् । करस्य मुष्टिग्रहनामियाय यत् ॥३५॥ यदीयकाञ्चीपदचारुचातुरी निरीक्ष्य हर्यक्ष इयाय काननम् । वनस्थवृत्त्या निरनुप्लवोऽजहा त्परानुषङ्गा नु विलज्जितो हिया || ३६ || Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य तरुयुग्मेन महेन्द्रकुम्मिनः करो विजिग्ये स्वकरैः सुमेदुरैः । ततो नु दृग्गोचरतः पलायितः स्वमेव गोपायति यस्त्रपाभरात् ।।३७।। वने नु रम्भाऽपि यदूरुचारुतां समाददाना यदभिध्ययाऽवसत् । च्छदच्छिदाऽसीमसुसीमधर्मजं सहिष्णुराभीलमधःशिराः स्फुटम् ॥३८॥ तदीयपाणेः करभस्तदूरुणा लभेत किञ्चित्सुषमां तदौचिती । किमेतदीयेऽथ मनोभुवो बभौ सुसक्थिनी स्तम्भयुगं जयश्रियः ॥३९॥ तदीयजङ्घायुगलं सुमायुधः स्ववाणतूणीरविधां विधाय यः । पराजितः प्राम्भववैरिणि ध्रुवं द्विधा ऽस्त्रभृत्किं पुनरभ्यषेणयत् ॥४०॥ तदह्रियुग्माम्बुजरागरोचिरा दधत्पुनः कोकनदं प्रमोदते । प्रवातकम्पैरिव नृत्यभङ्गिभि र्मुहुर्नरीनृत्यत एव लीलया ॥४१॥ निरुच्यते तत्पदयोलवः स्वयं सपल्लवस्तत्तुलनां करोतु किम् । विभाति कल्पः किल तत्क्रमाम्बुजं । ततोऽनुकल्पो ननु पङ्कजावली ॥४२।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित त्वदाननस्पर्धनजातयक्ष्मणः प्रसीद नम्रस्य तवेति भामिनि । कृतागसः किं नखरच्छविच्छलात् स पापतिस्तत्क्रममिन्दुमण्डलः ॥४३॥ गतेषु पीनस्तनभारमन्थर स्पदेषु सा बन्धुरकन्धरानना । अशिक्षयद्राजमरालगामिनी मरालमालां किल हंसकस्वनैः ॥४४।। सुधा सुधा सा मधुरा न गोस्तनी सिता सिता संयति यगिरा ननु । सुधा-किराकर्णितया नु कर्णयो रपारयत्पारणकं सुधाभुजाम् ॥४५।। तदा तदासेचनकं निदर्शनं निरुप्य रूपस्य विधिविधाय ताम् ।। सुतारतार्थीति पुरा परासित ___ व्रतो बभूव श्रुतिविश्रुतः किमु ॥४६।। प्रमाणशास्त्रे सुतरामधीतिनी सुगद्यपद्यश्रुततत्त्वसाक्षिणी । समस्तविद्याविदुषी बभूव सा धिया रुचा वा ननु भारती रतिः ।।४७ वरो वरोऽस्याः सदृशो दृशोऽथवा न गोचरश्चतसि चेत्यचिन्तयत् । पिता सुता मे भविता स्वयम्वरा स्वयं समारम्भि ततः स्वयम्वरः ॥४८॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य अथ स्वसौधाग्रतले नृपात्मजा ज्वलच्छिखावन्तमिवाम्बर। जिरान् स्थिताऽऽलिभिः कल्पितकेलिकौतुका । मरालमायान्तमिह व्यलोकयत् सवेगझाङ्कारित पक्षतिः खगः प्रडीनसण्डीनगतिक्रियापटुः । क्रमादवातीतरदेतदालय प्रकाण्डभित्तौ मणिमञ्जुलघुति ॥५०॥ स रोहितत्रोटिहगंहि सुन्दरः स्फुरच्छरच्चन्द्रमरीचिपाण्डुरः । तया दृशाऽपीयत हार्दसान्द्रया निमेपया वैधसपत्रजैत्ररुक् ॥ ५१ ॥ किमेष धातुः पदपद्मसद्मभू विलासशाली कलकण्ठनिःस्वनः 1 अथो गिरांदेवतया समीरितः किलैष दध्याविति लोललोचना ॥५२॥ अयत्नलब्धः किल कल्पपादप स्तदस्तु लीलाकलहंस एष मे । सुदिष्टलभ्ये स्फुटमिष्टवस्तुनि प्रमोदभूमौ प्रयतेत को न वा ॥५३॥ इति ब्रुवाणा वरवर्णिनी निजे कराम्बुजे तं विनिवेश्य लीलया । चिखेल लीलाकमलेन वेन्दिरा ।।४५ ॥ स्वपाणिपद्मेन ममाज तत्तनुम् ॥५४॥ २१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पद्मसुन्दरसूरिविरचित निधीयतामालि ! मरालपुङ्गवो निधानवल्लोहितरत्नपारे । सखीजने सोत्कलिके तदाहूतौ खगः स गीर्वाणगिरेत्यरीरणत् ।।१५।। श्रुतं न चातिथ्यमिदं श्रते क्वचित् प्रियातिथियकिल चारमर्हति । सुवृत्तमद्वाचिकमौक्तिकस्रज कुरु स्वकण्ठे कलकण्ठि ! मुञ्च माम् ॥५६।। ततो नरेन्द्रात्मजया विसिष्मिये खगे कुतः स्फूर्तिमियति दिव्यवाक । वितर्किताऽहं यदनेन तत्खगः कदाचिदर्थान्तरनिहनुतो भवेत् ।।५७।। विमृश्य बालेति जगाद रीढया भवान्मया विप्रकृतो न तद्धितम् । वयं नु मुग्धा हि भवादृशां यतोऽ नभिज्ञदोषो न विगानमर्हति ।।५८।। महत्प्रसङ्गेन कदापि चेतनो मनोगतं भावयते मनोरथम् । विवक्षितं तद्वद मे प्रियंवद ! प्रियं पुनर्येन मनः सुखायते ॥५९।। अथाचचक्षे खगराइनिशामय प्रबुद्धपक्केरुहचारुलोचने । इहास्ति विद्याधरपूरपूर्वया श्रिया विनिर्भसिंतनिर्जरालया ॥६॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य खगेश्वरस्तां प्रशशास कोशल: सुराजनीतिप्रथितैककौशलः । सुकोशला तत्तनुजा जगज्जनी शिरोमणिः केतकगर्भकोमला ॥६१।। धवोऽस्ति तस्या यदुवंशपुष्कर प्रकाशनार्को वसुदेवसंज्ञितः । यदाननस्य प्रतिमानमिच्छुकः शशी परिभ्राम्यति नित्यमम्बरे ॥६२।। यदीयवक्त्रप्रभया विनिर्जिता सरोजराजी मलिनाननालिभिः । प्रतापतो यस्य किलोपसूर्यकं बभार सूर्यः स्वनिकारताऽङ्कनम् ॥६३।। सुगोपुरद्वारकपाटवक्षसा ___जयेन्दिरास्तम्भविसारिवा हुना । नृपेण तेनैव हि वीरसूः प्रसूः स्वीकीर्तिविस्फूर्तिपराजितेन्दुना ॥६४॥ स वा यवीयान्जनमौलिशेखरो महद्गुणारामकरामणीयकः । भवत्यथो यौवतमौलिमण्डनं वधूवरद्वन्द्वमिहास्तु वां सहक् ।।६५।। तदौचितीमञ्चति पञ्चमस्वरः पिको यदा जक्षिति चूतमञ्जरीम् । फलेग्रहिः स्यान्नरजन्मता द्वयोः समीहते त्वां सुभगः स चेयू वा ॥६६॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनसुन्दरसरिविरचित मया यदालेख्यपटे व्यलेखि ते पतिः स नूनं भविता पतिवरे । जगाद चैतत्प्रतिमानतस्तदा। तदागमे त्वं किल लक्षयेरिति ॥६७।। तदा तदालेख्यमधीशकन्यया निरीक्ष्य तद्पनिमग्नचेतसा । व्यचिन्ति चेन्मे दयितो भवेदयं तदा नु राकाशशिनोयुतिः शुभा । ६८। अहो ! मनोवेद्यमिवानुवेदकः प्रधावतीष्टं तरसा सुदूरगम् । अपाणि निघ्नाच्च सुधां सुधाकरा धतः प्रियं नाथति नाथमात्मनः ॥६॥ अपत्रपामन्थरतारतारया दृशा निरैक्षिष्ट तया नभश्चरः । उवाच वाचं मृदुमञ्जभाषिणी कथं घटामञ्चति धीर ! दुर्घटम् ।।७०॥ क्व तावकं दर्शनमेति माशां दृशां सपीतिं क्व च शौरिजन्मनः। शिखानचुम्बीनि फलानि भूचरै ने खर्वशाखैः सुलभानि मूरुहाम् ।।७१॥ लज्जाकूपारपूरप्रसृमरपरमामोदमेदस्विवीची संवीतं विश्वविश्वं मन इह मनुते दर्शनादस्य यन्मे । तन्मन्येऽणोः समुद्रः कथमिव निरगात्कां मुदं कान्तसङ्गः कर्ता वाचो न वाचो न धिषणधिषणा वक्तुमीशा नु लेशम् ।।७२।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य तत्त्वं सनाथय सनाथ ! इति ध्रुवं मे त्वद्वाचिकप्रणयनप्रवणैकवृत्तेः । जानीहि कामतरुकामगवीनिकाम कामप्रदो हि महतामिह तु प्रसङ्गः ॥७३।। यो ह्रीणमानसदरीकुहरेऽधिशेते तं कण्ठकन्दलपथं नु कथं नयामि । कौलेयकं खलु विगायति मुक्तलज्जं लोको ममानुभव तस्य भवानभिज्ञः ।।७४।। यः प्राणदानपणलभ्यनिभालनो मे प्रेयान, घटयता निरमायि सर्वम् । लोकश्च पुण्यमपि जीवदयं त्वया तत् स्थैर्या सहे खलु विलम्ब्य यतस्व कृत्ये ॥७५।। तभारतीमधुरसां परिपीय कर्ण पात्रेण मञ्जलगिरा मुहुरप्यवादीत् । विद्याधरः क्षितिपुरन्दरपुत्रि ! धीरं . चेतो विधेहि करणीयमिदं मयैव ।।७६।। त्वत्प्रेसस्कन्धवन्धस्त्वहजुभुजयुगाश्लेषशाखो दली स्यात् त्वत्पाणिभ्यां त्वदहिद्वितयकिशलयः पुष्पितस्त्वस्मितेन । मन्ये त्वन्नेत्रचञ्चद्रुचिरुचिरजलैरालवालैः परीत स्त्वद्वक्षोजप्रवेकैः फलित इवतरां शौरिपुण्यामरद्रुः ।।७७।। कामस्त्वां तन्वि! धन्वी तनुरुहलतिकाशिञ्जिनी शुद्धवंश्यां लब्ध्वा कोदण्डयष्टिं विकलितकुसुमेष्वासवीर्यो नृपेऽस्मिन् । मन्ये त्वन्नेत्रवाणव्रणिततनुममुं शौरिवेध्यं विधाता त्वन्मध्ये लस्तके वा निबिडतरकरमाहबद्धैकमुष्टिः ।।७८॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभसुन्दरसरि विरचित शके सुन्दरि ! नाभिसुन्दरदरीमध्यस्थितस्त्वत्कुच द्वन्द्वाकोटजमण्डिते तनुरुहश्रेणीलताशा द्वले । त्वदेहाश्रम एव नेत्रहरिणद्वन्द्वास्पदे तप्यते भ्रधन्वा दशनेषुरेष मदनः शौरिं विजेतुं तपः ॥७९।। शौरिस्ते नेत्रवापीरुचिनलिनचयं मण्डयिष्यन्मदुक्ति स्फूर्जत्सौरभ्यलुभ्यमर इव सुधास्यन्दिरूपं पिपासुः । आगन्ता त्वत्सरस्वत्यमृतलहरिभिर्जीवनीयैर विप्नः __ कर्ता हे ! हेमदाम्नाऽरुणमणिरचनां तेन यूनाहमेषः ।।८०॥ मां जानीया भविष्यद्रमण मृदुपदद्वन्द्वकान्तारविन्द भ्राम्यद्भुङ्ग च चन्द्रातपमिह सुदतीहक्चकोरद्वयस्य । भूयात्ते हार्यरूपः पतिरिति विदुषि ! त्वादृशो मन्निदेशात् तेनालप्येति दृष्टयंवदध इव नो मानसान्मानवत्याः ॥८१॥ शौरिं चित्तेऽधिकृत्य क्षितिपतिदुहितुर्वाचिकोदारगुम्फ ___ मध्येकृत्य प्रतस्थे खगपुरमचिरात्प्राप विद्याधरेन्द्रः । पश्यन्ती सा दिशोऽष्टौ विरहविधुरिता शौरिरूपैकताना ब्रवाऽद्वैतरूपं प्रणिहितमनसः सच्चिदानन्दसान्द्रम् ॥८२।। प्रेमोदन्तं शशंस क्षितिपतितनयाशंसितं शौरये स प्रत्यादिष्टान्यशिष्टिर्गदितमनुवदन्सोऽपि पप्रच्छ भूयः । शृण्वन्नुद्भिन्नरोमा प्रियवचनचयं प्रेमतो नाप तृप्ति प्रेमालापैः प्रियाणां नवरसनिलयैः को नु सौहित्यमेति ।।८३।। शौरिः संवेशलब्धामपि कनकवतीं स्वं सुधास्वादतृप्तं मेने भूयः शयालोस्तदधिगमधिया मक्षु विद्राति निद्रा । किं माया शम्बरारेरियमजनि जनी शाम्बरीयैकरूपा नानारूपप्रतीतेनसि नरपतविभ्रमत्वं विभर्ति ।।८४।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य अहं सा साऽहं वा किमुत कनकारूढपदवीं ___ प्रपेदे भूशक्रः स्मरकनकमूर्छापरवशः । न संवित्ते चित्ते निजपरभिदामेकलयता सुधामग्नस्तस्यां किमलभत सायुज्यनिलयम् ।।८५।। इति । श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितेशश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरनाम्नि महाकाव्ये चन्द्रातपसङ्गमनं नाम द्वितीयः सर्गः Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयः सर्गः ॥ कनकवत्यपि शौरिदिदृक्षया व्यवहिते खचरप्रणिधौ भृशम् । शशिकलेव कृशा समजीजनद् विरहसज्वरजर्जरविग्रहा ॥१॥ विषमबाणकलादकलावता प्रियवियोगकषस्फुटसाक्षिणी । कनकराजिरियं कनकातनुः किमुदपादि महाधिनिघर्षणैः ॥२।। द्विनृपभूः सुविचिन्त्य सुमेषुणा किमिति यौवनपालवनी जनी । तनुलता सुतनोर्नु तनूकृता दयितयौजनजीवनवञ्चिता ॥३॥ सखि ! दिवा नु बभूव विधेर्दिनं ननु निशानिमयो मरुतां निशा । न गणनामपि कालविदोविंदु मम वियोगकृतामिति साऽब्रवीत् ॥४।। विरहजूर्तिनिदाघरुजार्दिता यदुकथाहरिचन्दनमण्डनम् । विदधती विषमां रुजमायसा हतविधेरहह ! प्रतिकूलता ।।५।। स्तननिपौ ननु यौवनकारुणा कृततरौ विरहानलसङ्गतौ । पुपुषतुढिमानमहो ! गुणं विगुणता सुतनोस्तनुते तनौ ॥६॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य न विददार हृदुग्रवियोगज ज्वलनतः सुतनोर्यदुपहितात् । कुचसुधाकुटयोर्महिमा हिमा- दतितरामधिको नु विगाहते ||७|| नयनयोर्निरगाद्यदधीरिमा स विललास विला सवतीवपुः । किमु जडत्वमियाय तनूरनु प्रथितशौरिकथा जलमज्जनैः ||८|| विगलितं वलयैः सममश्रु निः श्वसनदीर्घतया निशया स्थितम् । तनुतया निजजीवितवाञ्छया विलसितं दुहितुः पृथ्वीशितुः ||१|| दिनशशिप्रतिमाननपङ्कजा हिमनिपातगलत्कदलीनिभो. तपन शुष्क सरोऽब्जस टक्करा । रुयुगला समपद्यत साऽबला ॥१०॥ मुखरुचा नु जिगाय यदम्बुजं तदपि तामदुनोच्छयनीयगम् । समयमेत्य महद्विपदां किल क्वचन हीनबलोsपि बली भवेत् ॥ ११ ॥ तरुतनूरुहजन्यधतो ब्यथा भवति तत्र विलासवतीहृदि । यदुजभूभृदसौ स्थितिमाश्रय द्यदुत बाधत एव किमद्भुतम् ॥ १२ ॥ २९ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरमरिविरचित मृदुतनोहृदि बाप्पजलाविले __ प्रतिकृतिर्यददृश्यत वक्त्रजा । यदुनृपं किल वीक्षितुमत्रगं व्यधित नम्रमुखी सविधं मुखम् ॥१३॥ श्वसनमारुत एव वियोगज ज्वलनमुज्ज्वलयत्यभितो हृदि । विषमबाणमहेश्मसमेधितं कलयति स्म तदन्तरितां दशाम् ॥१४॥ मदनचित्रकरः सुदृशः सुदृक् किरणतूलिकया किमचित्रयत् । सकलदिग्वलयं यदुमूर्तिता मयमयन्तरदान्तररजभृत् ॥१५॥ अनुमितो हृदये विरहानल: श्वसनबाष्पचयैः क्षितिभृद्भुवः । तदपि बाष्पजलानि बलादथो विघटयन्त्यनुमित्यनुलिङ्गताम् ॥१६॥ मृदुतनो मृदुहृन्निहितैः सुमै निजशरैरिव यत्कुसुमायुधः । ननु दुनोति विनोदयति स्म त मृदुषु मार्दवसञ्ज्वरता नयः ॥१७।। प्रहरता हृदि तां यदुपुङ्गवः __ स्वनिलयः स्वशरैरपि चिक्षिणे । कुत इयं मदनेन निजस्थिति क्षयकरी कलिता किल धन्विता ॥१८॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदु सुन्दर महाकाव्य वरयता मम शौरिनृपात्परो मनसि जातु यदीत्थमचिन्तयम् । विरहवायुसखे स्म जुहोति या किमिति पाण्डिमशुद्धमभूद्वपुः ॥१९॥ असुतृणानि परासुधवे न याः शिखिनि जुह्वति यत्तनुदाह के । विरहवह्निशिखामसहिष्णवो ननु महाधिदुरन्तदरद्रुताः ॥२०॥ विरहदाहशमाय गृहाण या निजकरेण सरोजमुरोजयोः । द्रुतमपि श्वसितोष्णसमीरणा दजनि मुर्मुर इत्यजदात्ततः ॥२१॥ मदनयौवनवृष्णिशासनां बहुनृपां सुतनोर्नु तनू पुरीम् । तनुरुचः करदानतया जहुः किमजनिष्ट कृशा नु कृशोदरी ||२२| किमुत वृष्णिजहृत्सुमुखीमुखं व्यधित यद्विधुकान्तमतिभ्रमात् । इति न चेत्तदिदं हि विधूदये किमु दृशोऽस्रपयः समदुद्रवत् ||२३|| यदिदमैन्दवमण्डलमात्मभू विजयकृदहनास्त्रमिवाक्षिपत् । तदपनुद्वरुणास्त्रमुपाग्रहीत् ॥ २४ ॥ तत इयं सवदश्रुजलच्छलात् ३१ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनसुन्दरसरिविरचित मलयजैरनिलैरनिलास्त्रता मिव किमु प्रजिघाय मनोभवः । हृदिकृतैर्नु विसैरियमप्यहो ! पवनमुक्प्रतिशस्त्रमुपाददे ।।२५।। जलदजालजलैर्नु जलास्त्रता मतनुना प्रहितां प्रतियत्यसौ । किमुत दीर्घतरश्वसनानिल प्रतिघशस्त्रमिवादित सादरम् ॥२६।। किमबलाहृदि शङ्कुयुगं स्मरो विरहितापि च जीवनमप्यहो ।। स निचखान कुचद्वितयच्छला दपि बलात्तदिति प्रमिमीमहे ॥२७॥ न खलु चन्दनचन्द्रहिमानिला जनमनः सुखयन्ति विना प्रियम् । ज्वलति वा कनकाहृदि तस्थिवा निति विमृश्य यदुः किमनाकुलः ॥२८॥ विरहतापिनि मे हृदि वल्लभो नवयुवा नवनीततनुर्यदा । प्रखरसञ्ज्वरतो नु विलीयते सखि ! तदा मम का गतिरायतौ ॥२९॥ सखि ! कलङ्क इति स्फुरति स्फुटं विरहिणीवधपातकपङ्किलः । ननु विधौ विधुरामपि मां पुन दहति निष्करुणः किरणोल्मुकैः ॥३०॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य करतले स्वकपोलतलं दध ___ त्यविरतं स्रवदश्रुपृषत्कणैः । स्वभुजवल्लिमसिञ्चयदान्तर प्रभुदवग्रहशोषितविग्रहाम् ॥३१॥ सुदति ! ते हृदये दयितः स्थितः किमु विषीदसि तत्परिदेवनैः । नयनयोः स बहिनहि गोचरः सखि ! ततो मनुते न मनोमुदम् ॥३२॥ इति विलप्य मुमूर्च्छ मुहुर्मुहु विरहजज्वरसञ्ज्वरजर्जरा । जलजशीतजलव्यजनानिलै रियमुपास्यत साधुवयस्यया ॥३३॥ अथ वयस्ययुतो यदुनन्दनो नु समया पुरगोपुरमासदत् । स कनकाजनकार्पितगौरवः सुखमुवास निवासमनुत्तमम् ॥३४॥ तूत्राक्रीडेऽशोकनव्यप्रवाला नीक्षाञ्चके शौरिरस्तोकलोकः । भ्रान्त्या भूभृन्नन्दिनीपाणिपद्म प्राग्रप्रेङ्घद्रोचिषामेकतानः ।।३५॥ तच्चाम्पेयं चारुचूडाग्रजान हाम्यभृङ्ग कुड्मलं मन्यमानः । दग्धं कामिस्वान्तमुच्चैः पराग ज्वालाजालं धूमकेतुं ददर्श ॥३६।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ पद्मसुन्दरस्ररिविरचित सद् गन्धाढ्या गन्धकल्यावभासे चूडाचुम्बिन्यप्रतश्चम्पकद्रोः । लीनालीनामञ्जनव्याजतो या पञ्चेषोः किं दीपिकेव ध्वजिन्याः ||३७|| दृष्ट्वा पुष्पं पाटलं पाटलायाः शौरिर्मेंने कामकाण्डीरतूणम् । तस्यामोदाद्गारसारं स जिन् मूर्तभ्रान्ति भीलुकः सन्बभार ||३८|| तेनादर्शि स्फीतशाली रसालो गुञ्जभृङ्गक्रोधहुङ्काररावः । विभ्राणो यो भत्सैनां विप्रयुक्ता न्वातोद्वेल्लन्मञ्जरीमञ्जुहस्तैः ॥३९॥ सम्भाविन्या बल्लभायाः कुचाभान् कुम्भान्कामस्याभिषेकाय हैमान् । भूपोऽद्राक्षी दाडिमद्रोः फलानि वृतान्यारामश्रियः कन्दुकानि ॥४०॥ गन्धान्धभ्रमरकुलाकुलं वियोगि स्वान्तिथः क्रकचदलश्रियं दधानम् । अस्पृश्यं हरचरणैः सकल्मषत्वाद् वार्ष्णेयः कथमिव केतकं ददर्श ॥ ४१ ॥ खण्डेन्दु प्रतिभशिलीमुखं पलाशं रक्ताक्तं विरहिजनाध्वनीन बेधात् । मेने यन्मनसिजधन्विनो महीप स्तन्नूनं नयनपथं निनाय नैव 118211 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य आश्लिष्टा व्रततिततीः सुगन्धवाहै चुम्बभिर्नवमधुपेः प्रवेपमानाः । उ भिन्नस्मितमुकुलाः सुपल्लवोष्ठाः सम्वीक्ष्य क्षणमिव सञ्जहर्ष शौरिः ॥४३॥ व्याकोश द्रुमकुसुमेषु किं परागः सम्प्लुष्टस्मरशर भूतिविभ्रमत्वम् । व्यातेने यदुत वियोगिमानसानां स्यादन्धकरणपटुर्नृपो निदध्यौ 118811 सख्या स व्यतनुत तत्र केलिमेवं सौहार्दप्रगुणमनोविनोदकेन । साचिव्ये खलु हृदयङ्गमैर्वनं वा स्वर्भोगाद्भुततमशर्मन धत्ते ॥ ४५ ॥ तत्रावातरदथ गुह्यकेश्वरस्य प्राप्रांशुप्रतिहतहेलिमण्डलश्रि । आतोद्यध्वनिविजिताम्बुदं नृपोऽस्था दुग्रीवः क्षणमिव वीक्ष्य पुष्पकं तत् ॥४६॥ श्रीदस्तं किल निकषा विमानमारा दाहृत्य प्रणयमनीषयाऽऽजुहाव | वार्ष्णेयस्तमुपनिषेदिवानुपेया साङ्गत्ये ननु सुहृदां विनम्रतैव ॥४७॥ स्वातिथ्यं कशिपुमनिंद्य ! नार्थयेऽहं नौशीरं भवत इतीव मेऽर्थनीयम् । कर्तव्यं मदनुनयेन दूत्यमेकं पौलस्त्यो यदुतनयं प्रतीत्यवादीत् ॥४८॥ ३५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित अश्वाऽश्वं जवनमथी मगेन्द्रशावं सिंही गौर्जनयति धुर्यसौरभेयम् । ऐन्द्रीदिग्दशशतरश्मिमुग्रमूर्ति वीरं त्वां ननु भुवि वीरसूः प्रसूस्ते ॥४९।। माकन्दश्चलदलपारिभद्रमुख्याः सच्छालाः कपिपिककाकजीवनीयाः । कल्पद्रुः सदयदिवौकसां प्रकाम्यः स श्लाघ्यो जगति भवानिवापरे किम् ।।५०॥ पर्जन्यः किल शितिकण्ठकण्ठनीलो विकृष्टस्तनितरवोऽर्णसां पृषन्ति । द्वित्राणि प्रकिरति चातकस्य चञ्चौ सा दित्सा किमुत कदर्यतैव नूनम् ।।५।। साम्राज्यं वसुवपुरङ्गनादिहये वस्तूनि प्रमदकराणि गत्वराणि । संचिन्वन्नसुभिरनश्वरं यशः स्व तृण्यावद्गणयति तानि यन्महेच्छः ॥५२॥ भूयांसो नृपतिलकास्त्वदन्ववाये येऽर्थिभ्यः सनिजनिपूर्तये धुरीणाः । तद्वंश्ये भवति किमद्भुतं यदा सा __ सर्वाशा निजयशसा समापय त्वम् ॥५३॥ भ्रभङ्गो वदनशोस्तिरोहितत्वं हालक्ष्येऽर्थिनि मनसो विलक्षता च । दोषास्ते सति हि विदूषयन्त्यभिख्यां मा भूस्तैस्त्वमपि कलङ्कितः शशीव ॥५४॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य सन्त्युप्रा युधि शतशोऽपि सांयुगीना दातारो जगति परःशताः श्रुता ये । भोक्तारो भुवि रसिकाश्च भूरिशोऽन्ये द्वित्रास्ते परकरणीयबद्ध कक्षाः ||५५|| यच्चिन्तामणिरुपलो दुसः सुरद्रु नर्थित्वं विफलयति स्म सोऽर्थिनोऽपि निष्णातस्त्वमलमलं विलम्ब्य कार्ये मन्दारः कमितरि मादृशेऽस्यवन्ध्यः ॥५६॥ इष्टापत्यै सुरनिवहान्विशोऽर्थयन्ते तेऽपि त्वां समयवशेन मादृशश्च । तत्तूर्ण क्षितिपसुतोपयामसिद्धयै दूत्यं मे सुभगशिरोमणेऽभ्युपैहि ॥५७॥ तेनेदृग्धनदवचो निशम्य सम्यग् - वैदुष्यं किल विबुधेषु नेत्यचिन्ति । तस्या मय्यनुनय एव मे च तस्यां तामेषोऽभिलषति मन्मुखेन दूत्यात् ॥५८॥ स्मृत्वा यां क्षणमपि मूर्च्छितोऽतिमोहा दुह्रान्तश्चकित इवापनिद्र एव । तद्ष्टौ कथमवद्दित्थयाऽस्मि गोप्ता भावस्यापनविधौ कथं प्रभूष्णुः ||५९ || प्राणेभ्यः शतगुणपण्यभूमसीमा या तामप्यभवमहं वरीतुकामः । तद्दत्यं मम वचनीयतैव किंवा ह्रीभारादवनतकन्धरो ब्रवाणि ||६०|| ३७ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફૂટ पद्मसुन्दरस्ररिविरचित जीवातुर्मम किल जीवितस्य याssस्ते तामेष व्यवहितवञ्चनादभीप्सुः । नाश्वासः सुहृदि न सौहृदेऽदसीयेsप्यौचित्यं निकृतिपरेषु वक्रतैव ।। ६१ ॥ गीर्वाणा मम दयिताप्तयेऽर्थनीया मामेव प्रणिधितयाऽपि तेऽर्थयते । अर्थार्थी प्रणिहितकृत्य सिद्धिहेतोः सन्मानक्षितिमपि गौरवं मिमीते ॥ ६२॥ यद्वाऽस्तु प्रणयविहायिताधमण यक्षेशः किमुत ममोत्तमर्णतैव । मत्कृत्याकरणिरथो परार्थसिद्धयै स्वीच तदिति विमृश्य शौरिराह ॥ ६३ ॥ मादृक्षः कथमनृणी भवेन्नृडिम्भो नाकियो नयनपथातिथी भवद्भ्यः । यद्वा मे प्रतनतपः सुरद्रुमाणां साफल्यं यदजनि साधुदर्शनं वः ||६४ ॥ इज्याभिर्यमनियमोपहारमन्त्रै राराध्याः स्मरणह विष्यतर्पणैर्वा । प्रत्यक्षास्त इति ममापि दिष्टमिष्टं यत्स्वाहाभुजइह मानिनोऽर्थयन्ते ।। ६५|| मन्दारान्यदवगणय्य दातृमुख्यान् मय्येव प्रथितयशः प्रदातुकामाः । स्वर्लोकावतरणमेव देवपादा श्चक्राणाः फलितमहो ! मदुग्रपुण्यैः ।। ६६ ।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य आदित्या जगति सुधान्धसः सुधैव प्रत्यक्षा कनककुटद्वयाऽभिदावत। यत्प्रादुर्भवनमहो ! दृगेकपद्यां तच्चक्षुर्भवतु निमग्नमेव तस्याम् ॥६७॥ त्वत्प्रेक्षामुकुरतले जगत्समग्रं सङ्क्रान्तं किमु कथनीयमस्ति मेऽस्य । यद्विज्ञापयति शिशुस्तथाऽपि माक् 'श्रद्धेयं शुकरुतवद्विपाकहृद्यम् ॥६८॥ यास्यामि द्रुतमुपमृद्य विघ्नसङ्घान् शुद्धान्ते कथमपनीय यामिकादीन् । यः पुम्भिद्रविगमोऽवरोधगर्भः सुप्रापो युवतिजनश्च सौविदल्लैः ।।६९।। मां वीक्ष्य क्षितिपसुता वरीतुकामा मन्दाक्षप्रणतशिरोधरा भवित्री। ब्रूता हे कथमुत वाचिकं नु तस्याः संशीतिर्मनसि विगाहते ममेति ॥७०॥ इत्युक्त्वा यदुतनयः सजोषमास प्रारेमे गदितुमथोऽस्य राजराजः । प्रेष्याधैर्दुरभिभवोऽवरोधचारेऽ प्यन्तर्धिर्भवतु ममानुभावतस्ते ॥७१॥ प्रस्थास्नोस्तव सविधं नृपात्मजायाः प्रत्यक्षा भवतु तनुः परैरलक्ष्या । स्वीकुर्वन्धनदवचो यदुः प्रतस्थे देवानां ननु मनसैव कर्मसिद्धिः ॥७२॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित पौरीणां नयननिभालनानि पश्यन् हाणां कनककरीररम्यमूर्नाम् । पौराणां चतुरिमचारुतामभिरू यां ___ वार्ष्णेयो नृपसदनातिथित्वमापत् ॥७३।। उत्तानध्वजपटकुम्भतोरणाली सद्वात्याविधुतवितानवन्दनस्रक् । चन्द्राश्मप्रघटितभासुरप्रघाणा सिंहद्वाःस्थित इह तां निपीय शौरिः ॥७४॥ उद्दामद्विरदकपोलकर्णपाली-- प्रश्च्योतन्मदजलसिक्तभूमिभागम् । पादातैस्तुरगरथाश्ववारवारैः सकीर्ण नृपतिकुलाजिरं ददर्श ॥७५॥ शस्त्रास्त्रप्रगुणितरक्षिवर्गसज्जां प्राक्कक्षां निकृतपरप्रवेशचाराम् । व्याधामव्यतिकरधामवज्रनद्धां _प्राविक्षधुवतिकुलाकुलां स सद्यः ॥७६।। भूरेषा ननु कनकापदार्पणेनो घल्लीलाललितविहारिणा कृतार्था । अञ्चामि स्वन मद्राक्षीद्विकचदृशेति वास्तुमेषः ॥७७॥ माणिक्यकुट्टिमवितर्दिषु वामनेत्राः कक्षान्तरे च ददृशे स्मरभिल्लपल्ल्यः । उद्यन्मृगाङ्कशतम सायं नमःश्रियमिव स्फुटमुद्वहन्त्यः ।।७८॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य ११ दौवारिकस्य परविप्रतिषेधवाच। त्वं कोऽस्यरेऽपसर सोऽपि विशङ्कमानः । ग्रीवां विभुज्य चकितः क्षणमित्यपास्त शङ्कः परामथ विवेश निशान्तकक्षाम् ।।७।। नियूहबन्धुरविटङ्कविनीलपक्षि छेकोक्तिपल्लवितताण्डवगेयरम्यम् । तद्गर्भधाम विचचार नदन्मृदङ्ग रङ्गत्कृशाश्विगणमाशु यदुर्विशङ्कः ।।८।। चर्चिक्यमेव दधतीं यदसंवृतानी काञ्चिद्विलोक्य पिदधे दृशमात्मनीनाम् । नासीरचारिजनयौवतघट्टनेन ___ सद्यश्चमच्चरिकरीति मुहुः स्म शौरिः ।।८।। शिश्लेष काचिदपरा स्वभुजोपपीडं काचिन्नखैर्ऋणयति स्म समापतन्ती । काऽप्यारागभरविच्छुरिताङ्गमेनं तत्रोपभुक्तमिव चक्रुरदृश्यमेताः ।।८२॥ पस्पर्श काऽपि सुतनुस्तनुहृष्टरोमा शोभां बभार करकन्दुकमाक्षिपन्ती । सङ्घट्य शौरिमथ तां परिवृत्यलान । भ्रान्ता समीक्ष्य न चिखेल परा सखीषु ।। ८३।। लीलावतीललितविभ्रमहावहेला कल्लोललोलितमपि प्रभुमानसं न । कालुष्यमाप सति वैकृतसम्भवे हि न क्षोभमेति धुरि धीरधियां स धन्यः ।।८।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तस्याङ्गसङ्गमधिगत्य परा मृगाक्षी भूयस्तदहिपदवीमदवीयसी ताम् । नीराजनां विदधती नयनारविन्द प्रेङ्खोलनैरिव ससम्भ्रममेकताना || ८५|| तच्छायमेव निपपौ निजयष्टिभेद मुक्तामणिष्वनुकृतं मृगशावकाक्षी । अप्येकपत्न्यभिसमीक्षणजातलज्जा स्वां सञ्जहार दृशमुद्गतरोमहर्षा ||८६॥ भ्रान्त्वा विशङ्कितमना उपकारिकायां सौधाङ्गणे समपनीय परिश्रमं सः । आलिख्य तत्र कनकामथ सन्दिदेश याबदद्भुतं कलकलैर्बुबुधेऽङ्गनानाम् ॥८७॥ स्तम्भैर्हरिन्मणिमयैः शुचिपद्मराग भित्तिप्रभाभिरभितः स्फुटचाकचिक्यम् | तद्रामणीयकमणीरमणीयचित्र - मत्रकर्षं नृपतिधाम समारुरोह ||८८|| तत्र स्फुटस्फटिकचत्वरमध्यमग्न मार्तण्डमण्डललसत्प्रतिमानरम्ये । प्रासाद शैलशिखरे कनकामुखेन्दु मुद्यत्तमं कलयति स्म सविस्मयोऽसौ ॥८२॥ तस्याः सुधामधुरमद्भुतधामरूपं लावण्यवारिधिभव सुदृशा निपीय । दिव्यानुभावत इहाविरभूत्स भूयः सौभाग्यशेवधिरनाकलनीयशक्तिः ॥ ९० ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य रुद्धाऽऽलिभिः सकिलिकिञ्चितनर्ममर्म वक्रोष्ठिका छुरित कोक्तिषु कोविदाभिः । aforareas कङ्कणकिङ्किणीका तेन व्यलोकि कनका कनकावदाता ॥९१॥ पुंसो मया प्रतिकृतिर्ददृशे ब्रुवाणः कोsपि श्रुतः किमपि मे भवदङ्गलमम् । न्यासोऽत्र कोsपि पदयोः पदमित्थमेष पार्षद्ययौवतगरामशृणोत्प्रचारम् ||१२|| दृष्टमपि क्षितिपतेस्तनयां समक्षं भ्रान्तिस्मृतामिव जडीभवदङ्गवृत्तिः । मेने पराऽपि यदुमक्षसमक्षलब्धं संवेशदृष्टमिव तं समुदीतमोहा ॥९३॥ निर्बाधरूपमनयोर्नु मिथोऽनुराग स्तम्भेन चित्रलिखितप्रतिमं बभासे । प्रत्यग्रमार्तघटवज्जलमीक्षणेऽङ्ग लावण्यमेव पपतुः स्फुटलब्धबोधे ॥ ९४ ॥ उन्मीलितं तमथ ता ददृशुः सुनेत्रा उन्मीलिते क्षणधियः पुलकाङ्किताङ्गाः । कादम्बिनीपटलनिर्गतचन्द्रविम्बं वीक्ष्येव दृक्प्रसृतिभिर्निपपुः समेताः ||९५|| सद्यो विभेद कनकाऽऽननपद्ममुद्रा वार्ष्णेयमञ्जुलमुखांशुमदीक्षणेन । क्या पहनुते मुदिरमण्डलमंशुमालि -- तेजः क्रियद्विबुधगीः सुभगं भवन्तम् ॥९६॥ ४३ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित कोणे दृशः पतति तत्र महीमधोनि - तस्याः प्रमोदभववाष्पसगद्गदोक्तैः । सांदृष्टिकं फलमिवा शुगमाततज्ये स्वं संदधे धनुषि पुष्पशरस्तदैव ॥९॥ सव्यापसव्यशरमुक्त बभूव कामो लीलाचलैर्मगदृशो नु दृशोः कटाक्षैः । प्रापय्य वृष्णिजशरव्यमुदीतरोम-- हर्षव्रणाकिततर्नु सहसा चकार ।।९८।। तस्यास्तदङ्ग मुकुरे सुनिखातदृष्टिः कष्टान्निमिष्य समियाय परप्रतीकम् । स्याद्विघ्ननिघ्नमतिहृद्यमपीह वस्तु सगे निसर्ग इति चेत्किमु तत्र चित्रम् ॥९९।। तद्वमकान्तिभरनिझरमज्जने स्म खञ्जायते नयनखजनयुग्ममस्याः तत्पञ्चशाख मुखपाणिसरोरुहेषु चिक्रीड केलि कमनीयगतागतेन ॥१०॥ साऽऽनन्दथूपनतसान्द्ररसोमिमग्ना जातु भ्रमश्रमविमोहवशा क्शावत् । तन्मुक्तकामुकदशा द्वयभाविभोगं यादृच्छिकं नु बुभुजे यदुदर्शनेन ॥१०१॥ प्रष्टुं न शेकुरिति ताः कथमित्थमागा स्त्वं कोऽसि मन्मथशरव्रणितैर्विहस्ताः । अभ्युत्थितिं विदधिरे न तदातिथेयीं ब्रीडाविनम्रवदनाः प्रमदा हि मुग्धाः ।।१०२॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य उत्पिञ्जलत्वमपहाय विधाय धैर्य मुत्थाय सन्नतमुखी स्वयमभ्युवाद । पाद्यं नतेन शिरसा सुविधेयमर्थ्य सूक्तामृतैरतिथये मयि तन्न धाय॑म् ।।१०३।। स्नातकाः किमिह ते न च येऽतिथिभ्यः पादोपहारजलमासनदानपूर्वम् । न प्राञ्जलेन मनसाऽञ्जलिसञ्जनं वा कुर्युः सगौरवमुदञ्चितरोमहर्षाः ॥१०४।। तसिंहसंहनन! मे चरितार्थयेदं सिंहासनं निजपदाम्बुजविश्रमेण । नो दयते तव मनो नलिनम्रदिम्नो विद्वेषिणः पदयुगस्य विहारचारैः ।।१०५।। निःश्रीकमेव कृतवान्कतमं व्यतीत्य देशं पुरस्य यदिहाभरणीवभूव । का मं स्वनाम मयि च प्रकृते निवेद्यं प्रायो हि नामपदमेव मुखं क्रियासु ॥१०६।। द्वारस्थसौविदसुरक्षितसौधगर्भे यत्स्वैरसञ्चरणमग्निशिखाप्रवेशः । प्रागल्भ्यमस्मि भवतो ननु निर्णिनीषु स्तत्संशयालुमनसा वदतां वरेण्य ॥१०७।। यद्रक्षिलक्षदृगलक्षित इत्थमागा भूयस्त्वदाचरितसच्चरितानि बीजम् । सौन्दर्यतर्जितरतीश सुसङ्गतोक्तै मकर्णयोर्घटय पारणकं सुधायाः ॥१०८।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिषिरचित सा वाग्जनिर्ननु मुधा विबुधान्समेत्य न स्तौति मरसरितया किमुताल्पजल्पा । तस्यापि जन्म च धकित्कुशलद्रुहो यः प्रादुःकरोति न सतोऽपि सतां गुणौघान् ॥१०९।। तन्मां मुहुस्त्वरयतीह भवद्गुणौधो रुच्यं दृशोः सुभगसुन्दरदर्शनं ते ।। संपिण्डितं नु सुधया किमु चन्द्रिकाभिः पुजायितं मधुरसाभिरभिद्रुतं वा ॥११०।। हुत्वा वपुर्गिरिशभालगाश्रयाशे मन्ये पुनर्नव इवास मनोभवस्त्वम् । सौधाकर घटयति स्म विधिविधातु बिम्ब त्वदाननरुचः प्रतिमानमेव ॥११॥ मुख्यो भवन्मुखमृगाङ्क इहैव साक्षात् स्वत्कृष्णसारकचनेत्रमृगस्य सेव्यः । दृश्येतरत्वभजनान्ननु पक्षयोर्यो __ गौणः शशी सकलुषः प्रतिभाति भाभिः ॥११२।। गुम्फो गिरामधरयत्यपि गीः पतिं ते गाम्भीर्यमेव गलहस्तयतीव वाद्धिम् । औदार्यमेव लघयत्यपि कर्णमुख्यान् सर्वातिशायिचरितं तव चारुमूर्ते ॥११३।। स्वर्गी भवानिकल तदा समलकृता द्यौ रुत्तम्भितो भवसि भोगिषु भोगिलोकः । चेन्मानुषो वसुमती ननु रत्नगर्भा स्वं विश्वविश्वजनमौलिकिरीटरत्नम् ॥११४॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये सुन्दर महाकाव्य वास्तोः पतेरपि परिद्रढिमानमुच्चैः स्वैश्वर्यवीर्यविभवेन तृणीकरोषि । तत्तस्य कस्य कृतिनः सदनातिथित्व - मापत्पदाम्बुजयुगं तव तच्छृणोमि ।।११५ ।। एवं सुधारसकिरः सुगिरः सुदत्याः तद्वाग्निसर्गमिषकामशराः सपुङ्खाः कर्णाञ्जलीभिरभितः प्रमदान्निपीताः । प्रावीविशन्यदुपतेर्हृदयं निरस्ताः ।। ११६ ।। अध्यास्य वामनयनार्पितभद्रपीठ मुत्खाय मान्मथशरं स पुरश्वकार । धैर्य यथावसरमेव वितायमाना भावाः प्रयान्ति खलु गौरवमत्युदारम् ॥११७॥ प्रेमप्रमोदभरमेदुरलोचनायां तस्यामथोपरतवाचि स वाचिकानि । स्वस्वामिनो धनपतेः स्फुटचाटुकार सान्द्राणि सानुनयमेवमुदाजहार ।। ११८ आतिथ्यतो विरम पीठमलङ्कुरुष्व त्वद्भाविभर्तृधनदस्य च मां नियोज्यम् । दृत्याय सङ्गतमवैहि वुवूर्षुरस्ति श्रीदः श्रिया निजदृशोस्तमुरीकुरु त्वम् ॥ ११९ ॥ विस्मापयन्ति तव शैशवतोऽपि चेतः कौबेरमब्जसुकुमारतराङ्गि ! रङ्गात् । त्वद्रामणीयकगुणा रमणीयतार हारा इव स्म परितः परिरब्धपूर्वाः ॥१२०॥ હું Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित त्वद्यौवनेन सममीशसखस्य हार्द __ मध्यारुरोह धनुषीव गुणः स्मरस्य । सञ्चारिकापरिजनात्परिपीय गूढात् त्वत्संकथां विदधतो मुदमान्तरेण ॥१२१।। त्वद्विप्रलम्भपरितापजवैमनस्यात् तरपे विलूनहरिचन्दनपल्लवानाम् । निद्राति न क्षणमहो ! फलदान्सुर द्रन् निःपल्लवानपि चकार निकारनिम्नान् ॥१२२।। चेतः प्रमोदयति चैत्ररथं न जातु पुस्कोकिलस्य किल कोमलकूजितेन । नो चन्द्रचूडचरणौ शरणीकरोति यश्चन्द्रचण्डकरचण्डतरप्रतापात् ॥१२३॥ किं चालकापुरि पुनर्भुवनानि यानि तस्याक्षरच्युतकवन्ति विभौविभान्ति । आत्मानमप्यहह __ वेद त्वया विरहितं बत वर्णशून्यम् ॥१२४॥ पुष्पेषु मार्गणगणप्रहतस्तदानीं सख्य दधे स्मरहरेण स किन्नरेशः । पुष्पैस्तमर्चयति नो जगदर्चनीय पुष्पोत्करान्मृदुतरादपि कांदिशीकः ॥१२५॥ स्वर्गापगाकमलिनीविसतन्तुरन्तः सन्तापयत्यपि तुषारतरो म्रदीयान् । त्वन्मङ्घबाहुलतिकाम्रदिमोपमेयो वैचिन्यमीश्वरसखस्य कियब्रवीमि ॥१२६।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य ४२ मन्दारमञ्जरिपरागकणान्वितन्वन् प्रालेयशैलपरिशीलनशीतलोऽपि । मन्दानिलो न च मनो धृतयेऽस्य दुःस्थे चेतस्यशेषमविषयमहो ! नु चित्रम् ॥१२७।। लावण्यवारिधिशामपि किन्नरीणां नेत्रन्धयः स्वनयनरनिमेषविघ्नैः । तार्तीयभागमपि पुण्यजनेश्वरोऽसौ __ तृष्णपिपासति दृशस्तव चारुनेत्रे ! ।।१२८॥ भाविस्वयम्वरवरा जगतः प्रतीता लोकश्रुतिः श्रुतचरा तव तन्वि ! तेन । सन्देशपत्रमिह मामिव सञ्चरिष्णु ___ त्वरलाभचाटुकृतये विनियुक्तवान्सः ॥१२९॥ आश्लिष्य स त्वयि भृशं सकुचोपपीडं मृद्वनि ! सन्दिशति सप्रणयं नृधर्मा । स्वाऊरनजदहनोषितमेनमेहि निर्वापयाशु परिरम्भतुषारसारैः ॥१३०॥ पुष्पायुधोद्धरनिषादशरापमृत्यो . स्त्रायस्व मां तरलतारतरङ्गिनेत्रे ! । यद्वाऽस्तु तावककटाक्षशिलीमुखानां __ पातैर्मृतिस्तु सुषमा तदनुग्रहो मे ।।१३१।। सन्त्येव यद्यपि परे बहुशस्त्वदीय - लीलाकटाक्षलहरीलवलुब्धचित्ताः । मां प्राणमात्रपणदानपर दयस्व स्वीकारतोऽप्यनुगृहाण तथाऽपि भीरु ! ॥१३२।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनसुन्दरमरिविरचित नाकस्त्वया यदि परिष्क्रियते तदानी सौभाग्यकल्पतरुरेव फलेग्रहिमें । भूःसङ्गता यदि तदप्यवतारयामि । द्यामत्र तावकमनःप्रमदाय तन्वि! ॥१३३।। अन्तः सनाथयसि मे हृदयं चिरस्य सद्यः प्रसह्य च बहिस्तदलङ्कुरुष्व । हारायतां तव भुजद्वितयाक्कपाली वक्षस्यथ स्तनयुगं तरलायतां मे ।।१३४॥ आप्यायनाय नवतामरसैः सपर्या सम्पादिता न विबुधानपि नो भवत्या । किन्तु त्वदहिसरसीरुहशीलनेन मूर्द्धा सुपूजित इवाऽस्तु मुदेकहेतुः ॥१३५।। कि किन्नरीषु रतसिन्धुतरीषु ताप स्त्वद्विप्रयोगजनितः शममेति मेऽस्य । अध्यम्बुजा खलु तृषा मधुरादतीव न क्षीरपाणत इह प्रशमं प्रयाति ॥१३६।। दिव्यां सुधामधरयत्यधरः सुधैव विश्राणयामि किमु तेऽन्तरतर्पणाय । यन्निजिगाय शशिमण्डलमाननं ते कर्ताऽस्म्यहं ननु कदाऽस्य मुदा सपीतिम् ॥१३७।। सान्निध्यतः सुतनु ! नोऽमरतां लभस्व तन्नौचितीचणमिदं हि वचो विभाति । येन त्वदहिनवनीरजसञ्जनेन जीवातुना ननु जिजीविषतीव माहक ॥१३८॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपं दृशोस्तव गुणश्रवणं श्रुती मे जिह्वाधर तनुमनुस्फुटमङ्गसङ्गः । घ्राणं मुखश्वसनतोत्कलिका मनो मे प्रहलादयत्यपि च संलयसङ्गतायाः ॥१३९।। आदित्य एष तव दोःपरिवेषमिच्छं स्तन्मण्डयाशु मदुपनमनन्यनिघ्ने । वामाक्षि ! वामविधिरेव मम प्रसून बाणव्रणैरितरथा हि शरव्यितस्य ॥१४॥ इत्येकपिङ्गगदितानि सुवाचिकौघ ___मुक्ताफलानि कुरु कण्ठविभूषणानि । स्वप्रेमसूत्रततिसेवनतः सुकेशि ! दूत्यं विधेहि फलिनं वरणेन तस्य ॥१४१॥ एषा नृपाद्धनदवाचिकधारयात्तां . वाचं निशम्य भृकुटीकुटिलाननासीत् । अण्यान्तरे हि विषमे बहिरिजितस्य वैषम्यमेव निगदन्ति यदिनितज्ञाः ॥१४२।। तद्वाचिकान्यवगणय्य धराधर्व तं नम्रानना मृदुलमजुलचाटुसूक्तिम् । आचष्ट केयमिति वश्चनरीतिरात्थ पृष्टं यदन्यदपि कैतवकौशलेन ॥ ॥१४३॥ किञ्चित्प्रकाशविशदा नु सरस्वती ते गूढेगिता क्वचन चापि सरस्वतीव । पीयूषसोदररसा मम चाटुगर्भा श्रव्या न कोऽपि सुधयाऽधिकया नु तृप्येत् ॥१४४।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पद्मसुन्दरस्ररिविरचित यच्छेखरे मणिरिवासि समुद्गतस्त्वं वंशः स एव कतमो भवतः शृणोमि । यद्यप्युदारचरितानि गृणन्ति पुंसां वंशं तदप्यभिहितात्तव निश्चिनोमि एवं निगद्य विरतां निजगाद बालां नैवानुयोजनमहं प्रतिवक्तुमीशः । नामग्रहः स्वयमहो महतां विगानं तत्स्वान्वयप्रकटनं कतमाऽस्तु नीतिः ॥१४६॥ चेदुज्ज्वलं न च कुलं रुशती ममोक्तिः कल्या कथं परवतो यदि निर्मलं तत् । मन्नामशीलकुलसंकथयाऽलमाशु श्रीपति ननु वृणुष्व पतिवरे ! त्वम् ॥ १४७॥ ।। १४५॥ किञ्चानुरोधवशतः प्रतिवच्मि किञ्चिद् वंशाङ्कुरो यदुपतेः कतमोऽस्ति माह्छ । त्वद्भर्तुरेव घनदस्य विभोर्भुजिष्यः स्वीयप्रथां प्रथयतो मम गर्हणैव वाणीमिमां रतिपतेरिव पञ्चवाणीं सन्देशयामृतरसायनमाशु साध्वि ! । या मन्मुखेन भविता मदनापमृत्यो स्त्राणाय तस्य विरहज्वरपाण्डुमूर्तेः त्वद्विप्रलम्भविधुरक्षण एव कामः श्रीदं शरव्ययति सूनशरैरमोघैः । क्षन्ता कथं निरवधानतया विलम्B— मीषत्रोऽभ्युपगमोक्तिलवो भवत्या ॥१४८॥ ॥१४९॥ ॥ १५०॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य शौरेः सुधामधुरमुद्गृणतोऽतिहृद्यं वाचां चयं प्रतिपदं नु मुदं दधाना । बालाऽवधाय विकचाननपङ्कजं सा संलापसम्मुखमथो सुमुखी चकार ॥१५१॥ सङ्क्रान्तविश्वजनविश्वजनीनभावा प्रेक्षावतां विमलदणिकेव दृष्टिः । सा त्वादृशस्य सुतरां मदुपेक्षणीये काऽभ्यर्थना सुरजनेऽपि मुहुः प्रयस्य ॥१५२॥ त्वं वा वितर्कय सुपर्वगणोऽतिखवा कि मानुषी सुमलिनामुररीकरोति । हंसोऽवमत्य वरटामपि किं बलाकां प्रायो निसर्गधवलां परिरिप्सतीति ॥१५३॥ का किन्नरीषु नरदैवतभोगलीला द्वैराज्यसिन्धुतटगाहतरीषु नारी । लाभिविना मयि रतिः क्वचिदस्तु तेषां . निििक्तकस्य ननु काचमणावपेक्षा ॥१५४।। तद्गौरवादपि शृणोमि गिरस्त्वदीया दाम्पत्यमेव घटते न ममामरेण किं वा विभावय चिरं पृषती वराकी दन्तावलं मदकलं तुलयाऽभ्युपैति ॥१५५।। अत्रान्तरे तरललोचनयाऽऽलिरुक्ता सूक्त्याऽलपत्समुपकर्णय तद्रहस्यम् । एषा नृदेव ! वसुदेवपतिं विनाऽन्यं .:. नाशंसते हि मघवन्तमपि प्रतीहि ॥१५६॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पद्मसुन्दरस्ररिविरचित तन्नाममन्त्रमवधानपरा कृशाङ्गी जञ्जयते विदितविद्य इवात्मविद्याम् । तत्प्रेमकोमलमृणालभिदा भयार्ता सुश्रूषते न पुरुषान्तरनामधेयम् सा किन्नरेशधिषणाप्रतिभूर्ममस्तात् शौरिं व्यतीत्य शयनेऽपि परो व्यचिन्ति । किं जाग्रतोऽप्यनिमिषाः सुषुवुः परस्य दारान्विवोढुमनसो ननु संविदानाः श्रीदस्तु दीनजनकारुणिकः स्वतोऽनु गृह्णातु मां हृदयवल्लभलम्भनेन । बहिर्मुखा भुवि नृणामुत कामितार्थ अङ्गानि मे स्पृशति शौरिरुषर्बुधो वा साक्षान्ममाश्रुतमिदं मनसि द्वढीयः । किं वा सुमानि कनकस्य हरोपहार - मर्हन्ति भूपतनमेव परा न काष्ठा सम्पादका न कमितार इति श्रुतोक्तिः ॥ १५९ ॥ प्रायो नृजन्म कतमं नु मलीमसं वा स्त्रैणं तदप्युपपतिव्यतिषङ्गदुष्टम् । जाल्मोऽघमर्षणमृजां कथमर्हती ह‍ सख्या स एवमुदितः स्वरसज्ञयाऽपि ।। १५७॥ शौरिर्मुखं नयनयोरतिथीचकार । गाङ्गाम्बु माटि किमशौचमिरा निपस्थम् ।। १६१॥ भूयो रुषाऽपि परुषाणि चटूनि किञ्चित् संव्याजहार वचनानि मिताक्षराणि ॥। १५८।। ।।१६०॥ ॥१६२॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य तच्चित्रमत्र पृथुभामिनि ! भासते मे यत्किन्नरेशमवधीर्य सुवर्णरम्यम् । तावन्नरेशमपि वर्णविहीयमान मङ्गीकरोषि कतमा तव चातुरीयम् ॥१६३॥ तत्स्वर्गिणा सुरतसागरपूरपार लीलाविलोललहरीः परिचेतुकामा । त्वं तेन यौवनमिदं फलिनं विधेहि किं ते नरेण तनुसातकणेन तुष्टिः ॥१६४।। तन्मानसं त्वयि नितान्तनिखातमास्ते चामीकरेऽरुणमणीव मनोहराङ्गि ! । त्वन्मानसं किमु ततो विमुखं न को वा चिन्तामणि स्वशरणागतमाद्रियेत ॥१६५।। माहाल्यतो दिविषदां मनुजोऽपि दिव्य शक्तीः प्रपद्य दिविषत्त्वमियति सद्यः । गोशीर्षसन्निधिवशादपि पारिभद्रो यच्चन्दनायत इतीह किमद्भुतं ते ॥१६६॥ अभ्यर्थयेत तव वा सुरशाखिनं स स्वप्राङ्गणस्थमपि संवननाय जातु । तरिक स्वयं न दयिता भविताऽसि तस्य यस्मादवन्ध्यफलदाः सुरपादपाः स्युः ॥१६७।। तत्सार्वभौमकरिकुम्भजविभ्रमैस्ते न स्पर्द्धतां किमु कठोरकुचद्वयीयम् । श्रीदस्त्वदीयकुचयोः करसञ्जनाता दिक्कुम्भिकुम्भतलपातसुखं विधत्ताम् ॥१६८॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पद्मसुन्दरस्ररिविरचित धामनङ्गततरङ्गतरङ्गितानि त्वत्प्रेमसङ्गत रतैः ः स कुरङ्गनेत्रे ! | तेनैधि नार्यपि सुरीसुरसङ्गमेन हेमैव लोहमिव सिद्धरसेन विद्धम् कर्ता स्वयम्वरमखे महदन्तरायं यक्षोsनवाप्य भवतीममरानुभावात् । तद्राजकं समरमस्यसि किं च वाहा वाहव्यथो ननु मिथोऽपि निरर्गलं वा येनावको किलरसालशिखेव भान्ती सम्भाविनी व्यगणयः किमु तं कुबेरम् । मद्वाचमश्च न च मुञ्च पतिं नु हस्ते - इत्थं गिरः समुपकर्ण्य सुधाब्धिकुल्या दूतोदिता हृदि तथेति विनिश्चिकाय । दोलायितं नु मनसा चकितेक्षणायाः स्तम्भातिं कनकगौरतनोश्च तन्वा कृत्य प्रसाधि तरलाक्षि ! मनोविनोदम् ॥ १७१ ॥ तत्प्रावृषेण्यमिव दुर्दिनमश्रुधारा सम्पातनिर्झरमिवाक्षियुगं चकासे । बिन्दू मणीव हृदि कज्जल पुञ्जनीलौ ॥१६९॥ ॥१७०॥ सा प्रेमकाव्यरचनां हृदि बिन्दुमत्या नेत्रबिन्दुमितया किमलञ्चकार । वक्षोजकुङ, मलमलङ्कुरुतः किमसे तन्नेत्रपद्मयुगलादलिदम्पतीव किं नायकावधि निपत्य विराजतोऽस्याः ॥१७३॥ ।।१७२ ।। ॥१७४॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य सा वैशसेन सुदती रुदती विहस्ता सख्यौ स्म रोदयति किं किल रोदसीव । प्राणेशलाभकृतविघ्नविनिर्णयार्ते रुझान्तबुद्धिरनिशं विललाप बाला ॥१७५।। हंहो विधे ! यदलिखः किल भालपट्टे प्रेयान्यदुस्तव भविष्णुरलं विलम्वैः । तम्कि विलुम्पसि लिपिं करुणालय हि धिक् ते मनो विकरुण विरुणद्धि यन्माम् ।।१७६॥ न त्व' मनः ! कुलिशमाशुभिदामुपैषि कामाशुगैर्भवसि लोहमथो न वहनेः । यद्विप्रलम्भजनितान्न विलीयसे तत् - किं क्षोदकृत्तिलकटं करवाणि यत्त्वाम् ॥१७७॥ प्राणा ! वियोगदहनज्वलदूषरेऽस्मिन् मन्मानसे धृतिरहो । प्रतिभाति किं वा । मत्प्राणनाथदिशमप्यनिला भवन्तः संश्लिष्य तन्मम जनुः फलिनं विदध्वम् ।।१७८॥ हे लोचने ! प्रियविलोकनखञ्जिताशे ! धत्तः किमालविरलायितचापलानि । स्व कल्मष किमिति नाश्रुजलाभिषेकान् मृष्टो निजासुदयितव्यवधानदुःस्थम् ॥१७९॥ साधारिका व्यतियती यदि कल्पकोटि स्तज्जीवन कियदभिक्षणकल्पनेन ।' क्वास्मादृशामथ मृतिर्दयित मनश्च प्राणानिलस्तदपि नोज्झितुमीहतेऽन्तः ॥१८०॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ पद्मसुन्दरसरिविरचित वर्षतुमस्रजनितं नु विभाव्य लेखा निद्रालवो विकरुणाः किमु नो दयन्ते । यद्वा मयि स्मरमदान्धधियां हि तेषां । बुद्धिर्बभूव परकृत्यविधानवन्ध्या ॥१८॥ शौरेऽवधूय सकलं तव पादपद्म कोशेऽलिनीव कृपणा किल तस्थुषीयम् । तद्यातनां हृदिगतो नु दिदृक्षसे किं मन्ये कठोरहृदयाः किल सांयुगीनाः ॥१८२॥ श्रोता पुनस्तव कृते यदवाप संस्थां तन्वी यदा सुभग तावदनुग्रहीता । नो साम्प्रतं किल कृपाकणतस्तदानी विज्ञास्यसि स्वयमिमां ध्रुवमेकपत्नीम् ॥१८३।। एतानि पद्मवदनापरिदेवितानि शण्वन्यदुर्भमविपाकमपहनुवानः । तावबलाद्वयचकलद्विरहस्मरस्तं संस्मार्य चारुनयनाकिलिकिश्चितानि ॥१८४।। कौबेरदूत्यमपचिन्त्य हृदि स्मराज्ञां सञ्चित्य सम्भ्रमवशेन परिस्फुरन्तीम् । चन्द्राननां स विरहय्य मृषा विकल्पै रित्यालपद्यदुकुलाचलपूर्णचन्द्रः ॥१८५।। दूनाऽसि दीनवदना किमु न ब्रवीषि कोप जहीहि किमु रोदिषि कोपनेऽस्मिन् । मन्मौलिरत्नघृणिमञ्जरिरोहिणी ते शुश्रूषतां चरणचारुनखेन्दुमूर्तिम् ॥१८६॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य अझैर्नु शुक्तिजकणैरिव हारगुम्फ हृद्यातनोषि किमु हारमपाकरोषि । मय्यानतेन तनु मानिनि ! मानमुच्चै स्तृण्यासु ते किमु कठोरकुठारघातः ॥१८७।। लीलारविन्दमवधूय मुखारविन्द पाणौ दवग्लपितकान्तिमिवानुभुज्य । धत्से कुतो नयनखञ्जनमञ्जनेन नानक्षि ! किं धवलमजलाभिषेकैः ॥१८८।। यत्कज्जलेन मुखमश्रुजलेन सार्द्र तन्माजयामि निजपाणितलेन किं वा । स्वं विप्रियं पदसरोजरजोऽणुभिस्ते सार्द्ध स्वमौलिमिलनेन निवेदयाहम् ॥१८९।। . तबिन्दुविच्युतकमश्रुजबिन्दुपाता... न्मां दान्तमेव किमु दातमलङ्करोषि । यन्मानिनि ! प्रणयबन्धुरकन्धरेऽस्मि न्मानं तनोषि यदि वा मयि स प्रसादः ॥१९॥ संवाहयामि चरणौ किमु बाहुवल्लीं __ भस्लीमिव स्मरभटस्य दृशं विहस्य । सन्धेहि मय्यवनते नु विधेहि लीलाs पानेक्षणेन घनसारनिमग्नमाक्षि ! ॥१९॥ जातु व्यलीकमपि ते विदधे तदर्थे ___ चण्डि ! त्वदीयकुचशम्भुशिरःप्रमाणम् । तत्संवृणुष्व रुदनाम्बुदकालमणो... विद्योततां तव सितस्मितकौमुदी मे ॥१९२॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित विकस्वरं तामरसं स्मितेन ते कटाक्षपातेन शिलीमुखावली । गिरां प्रचारैर्मधुविन्दुवृन्दता =स्तु मन्मानसमानसे प्रिये ! स्तनोदयाद्रि नख चन्द्रलेखया परिष्कृतं कर्तुमना जनस्तव । तनु स्ववक्षः परिरम्भलम्भनात् तनूरुहा श्मप्रतिबिम्ब नर्तनम् गिरः सुमाध्वीकसुधारसौरसी माश्रवस्य श्रवसोः सपीतये | सृजाऽसि यत्त्वं वसुदेवसंज्ञिनो अहह निशाकरस्येव निशा नु जीवनम् ॥१९३॥ इति स बुबुधे मिथ्यालप्य भ्रमस्य विघट्टनात् परिचितचिदानन्दः साक्षाद्यमीव बभौ विभुः । यदुरिदमथाह स्म प्रायों विधिर्दुरतिक्रमः सहृदयहृदामौचित्येऽपि स्खलन्ति धियः खलु ॥ १९६॥ ।। १९४ ।। भ्रमपरवता भावाकूतं यदान्तरगोचरं किमिति मयका प्रादुश्चक्रे स्वनामपुरस्सरम् । अयि ! विगलितें दूत्यौचित्ये किमुत्तरपरे यो ।। १९५॥ अथ मम मनः श्रद्धाशुद्धं सुरेण परीक्ष्यतां मुखमभिमुखं किं कर्ताऽस्मि त्रपागुरु तत्पुरः ।। १९७ ।। जनता निर्वादोऽयं सतामपि दुर्जयो जनकतनयां यस्माद्रामो गृहान्निरकासयत् । कथमपि मृषा लोको लोको विनिन्दति निन्दतु ॥ १९८ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य इति विरहजप्रेमालापात्प्रतीत्य निजं पति चकितहृदया लज्जासिन्धौ ममज्ज मनस्विनी । तदिति हृदया कूतं साक्षात्सखीवदनेन या निगदितवती भर्तुः प्रेमप्रमोदसमृद्धये ॥१९९।। इयमियमये ! धन्यस्वाश्रुप्रवाहपरम्परां तव पदयुगातिथ्यं कृत्वा जगो वरवणिनी । तब विरहजे वह्नौ प्राण। भया जवसीकृताः किमितेि कमिता यक्षो मत्तः परं यदतः परम् ।।२०।। अपि सुरजनो मान्यः साक्षान्मम त्वयि जीवित ननु रुचिभिदा नानारूपा विभाति यदङ्गिनाम् । प्रकटितजगद्वस्तुस्तोमं विहाय विभाकरं किल शशधरे प्रेम्णा धत्तां मुदं नु कुमुद्वती ।।२०१॥ अथ धनपतेमन्तु मन्ता भवानपि तत्कृते परिणयमखे संतप्र्येनं स्वयम्वरडम्बरे । अहमिति वरीताऽस्मि प्रायो भवन्तमनन्यधीः कठिनहृदयस्त्वं कामो वा तथाऽस्तु न चामरः ।।२०२॥ शौरिश्चन्द्रमुखीमुखोद्गतसुधाधाराऽनुकारागिरः श्रुत्वा दूत्यरहस्यमीश्वरसखे सम्यक्समाख्यातवान् । सद्भतार्थनिवेदनात्समतुषत्तस्मिन्स दृष्टावधि श्चतःशुद्धतया यथार्थकथनं सम्यग्दृशां प्रीतये ।।२०३॥ इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितेशश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरनाग्नि महाकाव्ये वसुदेव कनकाऽनुलापो नाम तृतीयः सर्गः ॥३॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थः सर्गः॥ अथाययौ राजकुमारमण्डली स्वधोरणैरद्भुतवेषशेखरा । परस्परस्पर्द्धिपुरागमोत्सुका स्वयम्वरा सङ्कलितस्वयम्वरम् ।।१।। अहंयवः सङ्गरधीरविक्रमाः स्ववर्यसौन्दर्यनिरस्तनिर्जराः । बभुः कुमाराः श्रुतसिन्धुमन्दराः पथि प्रयान्तः स्मरमूर्तिसुन्दराः ।।२।। रसातलं नाध्वविहीनमध्वग युवप्रवेकैर्विरलो न सत्पथः । न वा युवा कामशरैरपीडितो बभूव भूः सङ्खलतार्तिभारभुः ॥३॥ महीभृतां सैनिकवाजिवारणैः पदाजिरथ्याऽश्वतरक्रमेलकैः । विरेजिरे राजपथाः सुसफुला न सर्पपेणान्तरमाध्यत क्षितौ ॥४॥ अखण्डभूमण्डलमण्डनेश्वरा स्तथान्तरीपप्रभविष्णवो नृपाः । परे सुरेशा नरवाहनादयो । गुणेन तस्या नु सिता इवैयरुः ।।५।। निराकृतोऽपि स्फुटदूतजस्पितै मिथो विजातीयतयाप्यसङ्गतः । धनाधिपो राजसमाजमाययौ न मानमान्धं गणयन्त्यभीप्सवः ॥६।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य ६३ निजोमिकामार्पयदेषशौरये स वेद तां दिव्यविभूतिभूषिताम् । प्रतारकाणामतिगौरवः स्फुट विशङ्कनीयः सखिषु प्रसेदुषाम् ॥७॥ ततश्च तस्याः परिधानतो यदुः स राजराजो विरराज चापरः । तदा द्विमूर्तिधनदः प्रथामगा द्यथातथं सगिरते ध्रुवं जनः ॥८॥ विदूरदेशेभ्य इवैत्य नैगमाः क्षणात्समीयुः कनकार्थलिप्सवः । विदिद्युते तत्पुटभेदनं च तैः सुरप्रकाण्डैः किल किं सुरालयः ॥९॥ विचित्रसौषस्थितिसाभिवादन प्रणामविश्राणनगौरवोक्तिभिः । स तान्हरिश्चन्द्रनृपः क्षितीश्वरा नुपाचरत्काममुपासनापटुः ॥१०!। सगौरवं स्वाश्रयविष्टरार्पणं तथातिथिभ्यः प्रियवाग्विसर्जनम् । अथातिथेयी गृहमेधसामिति स्थितिर्न चापैति कदा सदातनी ॥११॥ प्रबोधसंस्कारवती: सरस्वती निरूपयन्तोऽप्यनिमेषदृष्टयः । पुरचिनिध्यानविधौ सुरा नरा. न भेदमापुः किल तत्र सङ्गताः ॥१२॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदमसुन्दरसरिविरचित गतश्रमस्वेदजलाः प्रकीर्णक प्रवीजनैश्चित्रवितानसंश्रयैः । प्रफुल्लमाल्या नवदूष्यभूषिता न नाकिनोऽस्मिन्विभिदुनायकाः ।।१३।। दिनं व्यतीयुः क्षितिपालनन्दिनी-- चरित्रचित्राणि गृहाणि वीक्ष्य ते । निशामपि स्वप्नरतोपगृहन प्रसङ्गरङ्गव्यतिषङ्गविभ्रमैः ॥१४॥ अथास्य दूतानुनयाभिमन्त्रणैः समाहृता राजसमाजमण्डपम् । स्वयम्वराभिख्यमलं विभूषणै विभूषयन्ति स्म विभूषिता नृपाः ।।१५।। महामसारोपलबद्धचत्वरं बलक्षबालध्यजनालिसङ्कुलम् । बभौ सुवर्णाभरणांशुपिञ्जरं सरः सराजीवमिव स्वयम्वरम् ।।१६।। सुधाभुजो मानुषरूपमीक्षणै निपीय सौन्दर्यसुधातरङ्गितम् । समत्सरभृकुटिदन्तुन्तिरां क्षणादवज्ञातरलां दृशं व्यधुः ॥१७॥ महीमहेन्द्राः परिपीय साधिम स्पृशां सुराणां परभागा दृशा । तदैव तेषामनिमेषतां दृशो निनिन्दुरुन्मेषितदोषमत्सराः ॥१८॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहा काव्य अहो ! असूयाऽभ्युदयो गुणिद्रुहां यतोऽनवद्येऽपि गुणेऽवमानना । परस्य दोषान्तरम सूचना दसूनृता सूचकतैव सा नृणाम् ॥ १९ ॥ गिरीशभालज्वलने जुहाव यां तनूमनेका कृतिलब्धिसिद्धये । स्मरो युवानस्त इमे पृथग्विधा बभुः कला केलिकलापमूर्तयः ||२०|| स्मरस्वरूपान् दधतोऽतिसुन्दरान् तनू मनूनांस्तरुणाननेकशः । East विविशे वशात्मना स्मरेण तप्तेन समीक्ष्य मन्महे ॥ २१ ॥ नृरत्नरूपैर्वसुधा सुधाकरे ज्वलन्मणीनां मुकुटामचुम्बिनाम् । सुसङ्गतं तत्सदृशैर्हि तादृशां विभाति रत्नैः सह रत्नता तुला ||२२|| महीभुजां कल्पलतेव दोर्द्वयी रराज शोणाङ्गुलिपल्लवायिता । सुपुष्पिता काञ्चनरत्नभूषणै येथेष्टदानात्पलितेव याऽर्थिनाम् ||२३|| ततः कनत्काञ्चनपीठपद्धतौ स तानुपावीविशदर्चितान्नृपः । सुमेरुकूटेष्विव ते सुधान्धसो व्यदीदिपन्नुज्ज्वलहारहारिणः ॥ २४ ॥ ६५ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित अपारयन्तस्त्रि निरीक्षितु पौरजना हि तत्कृते । स्वसर्गनिर्माणरहस्यमत्र तान् न्यदर्शयान इवाखिलान्विधिः ॥२५॥ स तत्र शक्रोऽत्र महीविडोजसः ___ सहस्रशः कामितकल्पभूरुहः । ततोऽत्र वृन्दारकवृन्दता घना दिवं जिगायेव किल स्वयम्वरः ॥२६॥ दिवोधवः पङ्क्तिशतानि चक्षुषां सदासदां कान्तिसुधासपीतये । व्यधाद्विधाता शतयज्ञकर्मणा मपप्रथत्तेन सहस्रलोचनः ॥२७॥ गिराम्पति किनिकायनायकः प्रगल्भसूरिः सकलार्थनिनवः । स वर्णयामास सभा प्रभाषणा दवाप वाचस्पतिनामधेयताम् ॥२८॥ दिविस्थितं देवतयौवतं वर __ प्रवर्यसौन्दर्यसुधासरस्वति । स्वलोचनाम्भोजकदम्बतां नु तां न्यमज्जयद्या न निमेषमावहत् ॥२९।। चभुः सदस्या नृपमौलिशेखरा मनोभवेषु व्रणदुःखदुर्विधाः । किमु स्मरन्तः कनकेष्टदेवता मिवैकताना निभृताङ्गयष्टयः ॥३०॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य अथ क्षितीन्द्रो नृपचित्तवारिधि स्मरोमितोद्वेलनचारुचन्द्रिकाम् । निजाङ्गजां वारणराजगामिनी मजूहवद्राजसभा सभासुरः ॥३१॥ निपीय मध्येसभमङ्गजप्रभा विभातभूषामणिदीप्तिदन्तुराम् । समाजिहानामरविन्दलोचना ममाणि भूपैरिति कामविक्लवैः ॥३२॥ इयं नु शृङ्गाररसैकवारिधे विलोलकल्लोलपरम्परा परा । स्फुरदुकूलांशुकतारहारताऽ नुकारिडिण्डीरचया विराजते ॥३३॥ इयं नु सम्भव परा जनश्रुतिः श्रुता सुरैः कामितकामविभ्रमा । अथो किमस्मन्नयनार्थितर्पणे प्रकल्पिता कल्पलतेव जङ्गमा ॥३४॥ यदीयसौन्दर्यसुधासुधाशना वयं नु सौवर्गसुख लभामहे । ध्रुवं महानन्दपदं वरिष्यतेऽ वसीयसंवेशनसंविदा मुदा ॥३५।। रवीन्दुबिम्बे इव कुण्डलद्वयी मिषेण भग्ने मुखमण्डलश्रिया । उपास्तिमाधत्त इति व्यलीकता निवर्हणाय स्फुटमेतदीयया ॥३६॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित इदं हि साक्षादमृतद्यतिर्मुखं दिवो मृगाङ्कः स्फुटमौपचारिकः । सखजरीटं नयनाम्बुजद्वयं व्यधादिवास्याः कुतुकेन किं विधिः ॥३७।। मनोभवो मुख्यमिदं धनुर्धवौ किमङ्ग नाङ्गीकुरुतां जिगीषया । तथैतदीये गुणवृत्तिपुष्पजं जहातु पूर्वो हि परेण बाध्यते ॥३८॥ रते रतीशस्य च सौधयुग्मकं नवं वयः कारुरलञ्चकार यत् । तदनमुत्तम्भितकुम्भशेखरं विभाति भर्मद्युति तत्कुचद्वयम् ॥३९।। मृणालनालादपि तद्भुजद्वयी करं नु जग्राह विजित्य तत्समम् । ततः करोऽस्या गृहमद्भुतश्रियः प्रतीयत्ते स्म त्रिजगज्जनोक्तिषु ॥४०॥ 'विधिन चैनां निजकर्मकर्मठः ससर्ज यः शान्तरसैकमन्दधीः । इमां नु शृङ्गारसुधातरङ्गिणी स्मरः स्वशिल्पैः सुतनूमजीजनत् ॥४१॥ तदास्यनिःश्वासमिषेण मालयाs निलः स्वरेण. स्फुटकोकिलस्वनः । प्रसूनताऽम्रदिमाऽनुभाव्यते मधुः स्वलक्ष्मी किममूमजीघटत् ।।४२॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य जिता स्वरूपेण च मेनकाऽऽनका __ स्वरेण वीणाऽऽस्यरुचा शशिधुतिः । स्मितेन पद्मिन्यथवा मृगीदृशा । दृशा मृगी नास्त्यजितं जगत्त्रयम् ।।४३।। इति श्रुता पारिषदैर्नराधिपै रनविद्रावणविद्रुतक्तिभिः । निमेषशून्यैरपि किन्नरैनरै विलोचनैश्चारुविलोचना पपे ।।४४।। . स कोऽपि नाभूदिह भूपुरन्दरो मुदा समुल्लेषुरुदारवैभवः । न यस्य देहावयवास्तदीक्षणो . भविष्णुरोमाङ्करदन्तुरान्तराः ॥४५।। दिवः पतद्भिः सुरपुष्पवर्षण स्तिरोहितं तद्रमरैस्तदाननम् । भियाऽथ भुग्नं न ददर्श राजकं प्रियेषु विघ्ना बहवो विधेवंशात् ।।४६।। प्रसादरम्याननपङ्कजा युव-- स्वरूपनिध्यानविनिद्रलोचना । व रैकलाभप्रणया महीभुजा-- मवातरत्संसदि देवतेव सा ॥४७॥ तदङ्गताऽऽदर्शतलेषु भूषण-- प्रभासु सङ्क्रान्तनिजाङ्गकैतवात् । न केवलं चारुतनौ दृशा हृदा - ममज्जुरङ्गरखिलैमहीभृतः ॥४८॥ . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित सभ्याधिवासकृतसौरभधूपधूम भूमभ्रमर्मुदिरवृन्दमिवाकलय्य । मायूरमारचितताण्डवडम्बरेण केकारखं किल करोति विमुक्तकण्ठम् ॥४९।। काश्मीरजन्मघनचन्दनचन्द्रपक मङ्गल्यमाल्यपरिकर्मजगन्धलुब्धैः । भृङ्गैरुपयुपरि राजकमापतद्भिः धत्ते स्म तत्समदवारणराजलक्ष्मीम् ।।५०।। उच्चैस्ततान ततमत्र घनं घनं वा नद्धं ननाद सुषिरं श्रुतिरन्ध्रपेयम् । सन्मागधाः स्फुटमुदस्तकरा निपेटु नानृपालकुलपौरुषकीर्तनानि ॥५१।। पुलक्षणा सकलभूपतिभूरिवंश वीर्यानुभावकथनप्रवणा विदग्धा । संव्याजहार किल दक्षिणपक्षसंस्था कन्या कनत्कनकवेत्रवतीति नारी ॥५२।। एषा सभा मखभुजां विजिगीषयेव सेना स्मरस्य जगतां ननु नैकरूपा । रम्भोरु ! ताववरं वृणु कञ्चनैक मात्मीयचित्तपरिचिन्तितमप्यमुष्याम् ॥५३।। दृष्टेनिसर्गजमुदीक्षणतो निमेष राहित्यमेषु न च तन्वितया मुखेन्दोः । द्वधा सपीतिरधरामृततर्पणाद्वा देवेष्ववन्ध्यमपि जन्म तथाविधंस्तान् ॥५४।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य ७१ क्रीडागिरिः सुरगिरिः किल पारिजाता येषामभीष्टफलदा वनपादपास्ते । चिन्तामणिः सुरगवी बहु सन्निधत्ते । तेषां विलासललितैरमरी भव त्वम् ।।५५॥ वाला स्वमूर्ध्नि करकुड्मलसञ्जनेन गीर्वाणवृन्दमुपनम्रशिरोधराऽऽसीत् । भीत्या चलं निजगं चलमादधानां । ___ तामन्वमस्त चलितुं करुणारुणं तत् ॥५६॥ ते वीक्ष्य चन्द्रवदनामुखचन्द्रपाना न्तर्धानतः सुरगणाननकैरवालीम् । म्लिष्टामनैषुरपरं विषयान्तमेनां मेघावली नु पवना इव यानवाहाः ॥५७॥ सा तामवीभणदथ प्रतिहाररक्षा राकानिशाकरसगर्भमुखारविन्दे । सौन्दर्यतर्जितरतीशसुरेन्द्रचन्द्रा निन्द्रानथ क्षितितलस्य निशामय त्वम् ॥५८॥ एष द्विषत्कुमुदकाननदैन्यमुद्रा सम्पादनप्रवणविक्रमविश्वचक्षुः । श्रीमानवन्तिपतिरुज्ज्वलकीर्तिपूर कपूरपूरितदिगाननपंक्तिरास्ते ॥५२।। सिप्रासखी सलिलकेलिकलासु तत्र संश्लिष्यतु प्रबलतुङ्गतरङ्गहस्तैः । त्वां कामसागरतरीमिव गाहमानां फुल्लारविन्दनयनेन निमालयन्ती ।।६०॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित तत्र स्वपत्युरतिहार्दतया हृतार्द्ध-- देहा विदग्धरमणी रमणीयमूर्तिः । गौरी त्ववन्तिविषये तरुणि ! त्वयेष्टा __ भूयादवन्ध्यवरदा वरदानदक्षा ॥६॥ गौरीपतेः शिरसि चन्द्रकला विधत्ते विक्रष्टशब्दनिगदाध्ययनान्तरायम् । यत्राङ्गनासु नृपतेः कृतविप्रियस्य तद्बाहुपाशविनियन्त्रणमेव शिष्टिः ।।६२।। दग्धं हि पल्लवयतु स्मरमेष तत्ते पाणिग्रहात्पुलककण्टकिताङ्गयष्टिः । चण्डीशचन्द्रकिरणामृतपूरसेकैः __ लब्धाङ्कुरं किल सदातनमेव तत्र ॥६३॥ तं भूपुरन्दरसुता स्मररूपभूपं नाङ्गीचकार कुटिलेक्षणवीक्षणात्ताम् । जन्यः परत्र च निनाय जनीमिवास्मा च्चान्द्री कलां बहुलपक्षतिरकविम्बात् ।।६।। दौवारिकी पुनरभाषत भामिनि ! त्व-. माखण्डले सकलगौडवसुन्धरायाः । डिण्डीरपाण्डुरयशःप्रसरत्प्रतापे लीलाकटाक्षविकटायितमारभस्व ॥६५॥ एतत्समीकभुवि वाजिखुरोत्थधूली-- धारान्धकारितनभोऽपि धरायतेऽथ । एतच्छरक्षतरिपुक्षितिपालवृन्दैः स्वर्गाङ्गनापरिवृतैस्त्रिदिवायते भूः ॥६६॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य गौडावनीन्द्रबलवाहचयस्य वैर.. ___ मासीत्सपत्नधरणीधवयौवतस्य । आद्यश्चिचीपति खुरोद्धतरेणुराशि-. मन्यन्निरस्यति निजाश्रुजलपवाहैः ।।६७।। आदत्त यो धरणिमण्डलमाशुवैरि राजवजस्य सुरमण्डलमुत्ससर्ज । आच्छिद्य हारमथ तद्रमणीगणस्य निःसूत्रमश्रुकणमौक्तिकतारहारम् ॥६८।। एतत्करालकरवालनिकृत्तकुम्भि ___ कुम्भश्छलोच्छलिंतशुक्ति जकैतवेन । स्वेदोदविन्दव इवारिजयेन्दिराया निर्यान्त्यमुष्य करचण्डकरप्रतापात् ॥६९।। एतत्कीर्तिसितीकृते जगति यद्वीचिस्वनैः स्वर्धनी - मीशः शेषमशेषपन्नगगणः फूत्कारतारारवैः । सुत्रामा पटुबंहितैर्निजगजं वेदाथ जिज्ञासया ताराभिस्तदकारि लाञ्छनमयं श शशाङ्केऽक्कनम् ॥७॥ एतेन गौरि ! नवमेदुरमेघमाला . संकाशमेचकरुचेव तडिल्लतायाः । । शोभां बिभर्तु परिरम्भविजृम्भितं ते . लीलाचमत्कृतचलाचललोचनायाः ॥७१॥ सश्रीकमप्यजडभावमपास्तदोष सा भूपमैक्षत न कैरविणीव मित्रम् । रम्यः स वा न च युवा किमियं न विज्ञा . यद्वा गरीयसितरा नियतेः समीहा ॥७२॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित एतां ततोऽपि विमुखी सुमुखीं निरीक्ष्य जन्या नृपान्तरमथो गमयांबभूवुः । पात्रं स्वभूमिपरिवर्तनतोऽन्यभूमि शैलालिनः परिषदीव विचित्ररङ्गम् ।।७३।। तां द्वाःस्थिता मुहुरथ स्त्रितमामवादी दुत्फुल्लनीलनलिनाभलसत्तमाक्षि ! । त्वं काशिमण्डलपुरन्दरमिन्दिराया लीलालयं कलय कोमलदर्शनेन ॥७४।। मुक्ता मुमुक्षव इति द्वितयेऽपि यस्यां ब्रह्मकताननिलयं पदमक्षरं तत् । अध्यास्य काशिरिति साऽस्य निरूपयन्ति ब्रह्मोत्तमेव जगदेकरसानुविद्धम् ॥७५।। आरूढयोगिचरणव्यतिषङ्गपूता तस्मादियं विषयिणामपि मुक्तिहेतुः । ज्ञानात्मनां शुभवती भवतीव्रभोग स्वभॊगमोक्षफलदां पुरमस्य पश्य ।।७६॥ चूडामणिः शिवपुरी वसुधाङ्गनाया मन्दाकिनी विमलमौक्तिकहारयष्टिः । सन्नायकः शिव इति त्रितयं चकास्ति देशे जगज्जनमहोदयहेतुरस्य ।।७७।। त्रिस्रोतसो ललितवारिविहारकेलौ हारभ्रमं वितनुतां जलबिन्दुवृन्दम् । पीठे लुठत्तव कठोरकुचद्वयस्य रगत्तरङ्गभरभङ्गजमम्बुजाक्षि ! ॥७८॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य दुर्वारवैरिनृपवारिधिमाथमन्थ शैलः पुरि स्वयमय स्मर एव मूर्तः । भूत्वा त्वमस्य रतिरेव विराद्धपूर्व मीशानमाशु भज तं किल वां प्रसत्यै ॥ ७९ ॥ मैवेयकप्रति सरप्रतिमैरकुण्ठ श्रीकण्ठकण्ठकरवेष्टनभुग्नभोगैः । भोगीन्द्रभङ्गिभजनैरिव भोगिलोकः स्वर्लोकमासददिवास्य विभाति पुर्याम् ||८०|| अस्योर्वीपतिभालभूषण मणेर्यद्दानशौण्डात्करान् निष्णाता करवालकल्पलतिका सङ्कल्य तल्पातिगम् । या प्रत्यर्थिमहीक्षितां क्षितितलप्राग्भारभोगार्थिनां सौव विततार सारसुखद साम्राज्यमत्यद्भुतम्॥ ८१ ॥ आरादाराधने तत्क्षितिपतिकरणत्राणकोटीरकोटी रत्नच्छायानिखातक्रमनखरमयूखद्युतिद्यततेऽसौ । अस्या जिक्षेत्र वा जिव्रजखुरखुरलीखेलनोद्भुतधूली धारा स्वर्गापगायाः कनककमलिनीकन्दनिः स्यन्दहेतुः ॥८२॥ स त्वां कनत्कनक केतकगर्भगात्रि । किञ्चित्समीरणसमीरितसारसाक्षिम् ! आश्लिष्य बाहुविनियन्त्रणजातरेराम - हर्षः प्रकर्षसुखसम्मदमादधातु ॥ ८३ ॥ प्रोल्लासयन्कुवलयं सुदृशोः प्रमोद मापादयन्स विबुधानपि सत्कलश्च । राजा तथाऽपि तमथो सुदती निरासे चातुर्यचारिमसुधानिधिमब्जिनीव ॥ ८४ ॥ ७५ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पद्मसुन्दरसूरिविरचित वैरनिकीमथ विलोक्य विलोलनेत्रा - मन्यं नृपं समनयन्ननु यानधुर्याः । द्वीपान्तरं ननु निशामुखमाप्य सद्यः सौ विलुलितामिव सौरवाहाः ||८५ || चान्द्रीकलेव शितिपक्षदिन क्षणं य भूमाधवं व्यतियती सुदती जगाम । सोऽनादृतः स्वपरिभावतमिस्र सख्य- वैमुख्यमाप निजदुर्यशसा चिरेण ||८६|| भूयः सरोरुहमुखीमवरोधरक्षा सावीवदन्नृपनिरूपणबद्धकक्षा । साकेत भूपरिवृढे दृढमस्ति चित्तं चेत्त्वं कुरङ्गचपलाक्षि । विचिन्तयाशु ॥८७॥ वैवस्वतान्वयपयोनिधिवर्द्धनेन्दु रेष प्रतीतरघुवंशकुलप्रदीपः । यत्पूर्वजः सकलभूतलभूमिपाल - भाकभूषणमभूद्भुवि रामचन्द्रः ||८८|| सोऽयं जगज्जनविलोचनचारुचन्द्रः यदोः प्रतापकुलिशाग्निरमित्रकान्ता प्रत्यर्थिपार्थिवतमित्रसहस्रभानुः । — नेत्राम्भसाऽपि न च शाम्यति दुस्सहाचिः ॥ ८९ ॥ आकारौऽभ्यवहारसन्निभ इति प्राचान्द्रिवाचां प्रथा तथ्यैतस्य नृपस्य शत्रुघरणीसंक्रन्दनैणीदृशाम् । नेत्राणां किल कज्जलं कवलयत्कालः करालस्तरां विस्फूर्ज करवाल एष समभूतस्मादकस्मादपि ॥९०॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य एतद्दोर्द्वयकीर्तिदेवसरिता धाराजलश्यामला कालिन्दीकरवालिका समगमद्वेणीत्रये तत्र च । दीनद्वेषिसरस्वतीमिलितया राजन्यवीरबजैः स्नात्वाऽकारि सुराङ्गनासुरतजक्रीडारसोलनम् ।।९।। एतद्दोर्दण्डचण्डद्युतिकरनिकरत्रासितारातिराज स्तस्थौ यावद्विशङ्कोभकुसुमलताकुञ्जपुजे निलीय । वीक्ष्योतन्नामधेयाङ्कितनिशितशर ध्वस्तपञ्चाननस्यो द्भशताङ्कः करत बजतु विवशधीः कां दिशं कान्दिशीकः ।।९२॥ तत्र स्तनातटपरिस्खलितोमिसान्द्र मन्द्रावोऽस्तु तव सारवहावगाहः । एतत्पुरी तव महायशमड्डुवाह्य नृत्याङ्गहारमिव तेन निदर्शयन्ती ॥९३॥ अस्योगपतपत्प्रतापतपनो विश्वत्रयव्यापिनी: किं मूर्तीरकरोदभूदभिन भस्ताराऽनुकाराकृतिः । यभूमण्डलमण्डनं मणिगणैः कपूरकुन्देन्दुभि डिण्डीरेण फणीश्वरेण गहनः पारेजगद्गाहते ॥९४।। एष त्वदीयकुचमण्डलचन्द्रमौलि _ मर्दुन्दुभै खपदैस्तमलङ्करोतु । यद्वा त्वया सह मिथः स्मरमल्लयुद्ध मभ्यस्यतु स्तनयुगप्रतिमल्लघातैः ।।९५।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ पद्मसुन्दरसूरिविरचित इत्येवं वरवर्णिनी समतुषन्नो वर्णनाकर्णना द्भूभर्तुर्मनुवंशजस्य परतो भ्रूक्षेपमातन्वती । अद्वैतं हृदि संविदं चितचिदानन्दं गिरां विस्तरा - न्निस्तीर्णे नु विदाञ्चकार परमं ब्रह्मेव शौरिं मुदा । ९६ ।। इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तम श्रीपद्ममेरुविनेय पण्डितेशश्रीपद्मसुन्दर विरचिते श्रीयदुसुन्दरमहाकाव्ये कनकवतीस्वयंवराडम्बरो नाम चतुर्थः सर्गः ॥४॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पंचमः सर्गः ॥ तामिन्दुसुन्दरमुखीं शिविकाधरस्थाः सद्यो नृपान्तरमथ स्म नयन्ति विज्ञाः । लेषोक्तिमाशुक्रवयः कवितानुभावाद् __ भावान्तरं समुदितां विविधैरिवाथैः ॥१॥ द्वा:स्था जगाद जगदेकमुदे तवास्तु पाण्ड्येन पाणितलपीडनमीश्वरेण । लेखेव काञ्चनमयी भवती विभातु रुच्येन मेचकरुचा निकषोपलेन ॥२॥ अध्यैष्ट यः सकलकामरहस्यशास्त्र मभ्यस्यताद्रतिरहस्यमनगरङ्गात् । अङ्गे तवेव नखखण्डनमण्डनेन रागारुणेन नयनेन सरागलक्ष्म्याः ॥३॥ अस्यारियौवतकुचौ वनकुम्भिकुम्भ बुद्धया हरिः प्रविददार पुनारुदत्याः । शौकेन दाडिमकणप्रतिमान्निभाल्य . दन्तान्मुखं वरतनात दश्यते स्म ॥४॥ नेदं गर्जितमूर्जितं रणरणत्तूर्यस्वनाडम्बर स्तस्येयं करवालिका नवतडिन्नवाम्बुदाः कुम्भिनः । एतत्सैन्यरणाङ्गणादरिगणस्त्रैणानि भीतद्रुता न्येवं वारिदवारमेत्य मुमुहुर्वन्यासु नेशुर्मुहुः ।।५।। अस्योद्दन्तुरदन्तिनः परिलसत्कादम्बिनीश्यामलान् सिन्दूरारुणकुम्भविभ्रमभृतः सङ्ग्रामरङ्गोद्धरान् । तत्सायन्तनरागसक्करतमः संलक्ष्य शङ्काकुलाः साहस्रारिभुजासहस्रकिरणाः शङ्केऽस्तमीयुतम् ॥६॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० पद्मसुन्दरसूरिविरचित अस्योद्दामचरित्रचित्रिततनश्चित्रं यशो जृम्भते सद्यस्त्रीणि जगन्ति पाण्डुस्यति प्राग्भारभामण्डलैः । तत्तादृक्प्रतिपक्षपक्षवदनं नीलीचकार क्षणा - द्रक्तानि प्रकरोति तानि सुहृदां हृद्भक्त्रपद्मान्यपि ||७|| प्रत्यर्थिक्षितिपालवंशविपिने संस्फोटसङ्घट्टतः सम्भूतोऽस्य भुजप्रतापदहनो जागर्ति विश्वत्रये । यस्येमाः स्फुटविस्फुलिङ्गकणिका भास्वान्भिदुर्भैरवे भास्वद्भालविभावसुश्च हुतभुग्वारांनिधौ वाडवः ॥ ८॥ अस्मिँस्ततस्तरुणि ! तारतरङ्गितानि दृष्टेः प्रसादय रसादनिमेषितानि । क्षोणीभुजि क्षणविभारुचिभासुराङ्गि ! श्यामाङ्गभाजि भज भूषणभूण्यभावम् ॥९॥ अस्य स्तुतिं सुवदना वदनान्निपीय राज्ञो न राजतनया रजति स्म तस्मिन् । अन्याहते हि पुरुषे परुषायते वा वाचस्पतेरपि वचो रचितप्रचारम् ||१०| जन्याजना नृपसुतां विरतां विमृश्य निन्युर्नृपान्तरमथान्तरलक्ष्यदक्षाः । भङ्गान्तरं शशिकरा इव वाद्धिवेलां लब्धोदयास्तरलितां नु वलक्षपक्षे ॥ ११ ॥ तां दर्शकाऽथ निजगाद कुरङ्गनेत्रेऽमुष्मिन्नुदारचरिते चरितार्थयाशु | स्वं यौवनं किल कलिङ्गधराकलावा नानन्दयत्वममूं तव दृक्चकोरीम् ॥ १२ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य ख्यातो महेन्द्रधरधीरमहेन्द्र एष कालिङ्गकुञ्जरघटापरिघट्टनेन । स्वापीनतुङ्गकुचचूचुकविभ्रमाभां शोभा नु पश्य दयितस्य भुवोऽस्य शैले ॥१३॥ एतस्योद्धरसिन्धुरैरपि मृधे कान्तां पुनर्जङ्गमै र्जानानो धरणीधरैः स्म धरणीं धीरः पृथुः पार्थिवः । एतत्सङ्गरसङ्गताऽमरसमज्यामध्यमध्यासितो भूयो भूधरभूरिभारहरणे मेधां विधत्तेतराम् ।।१४।। एतत्तुङ्गतुरङ्गसंहतिखुरोल्लेखकृतक्ष्मातल क्षेत्रेषु क्षितिभर्तुरुज्ज्वलयशो बीजं करः किक्किरन् । निस्त्रिंशक्षतवैरिवारणगलद्रक्ताक्तमुक्ताकण व्याजादस्य निरस्य दस्युयवसान्युद्गाढमुद्गाहते ॥१५।। एतत्प्रतापदहनोत्थितधूमभूम लेखैव यत्किल करे करवाल एषः । चेदन्यथा कथममुष्य सपत्नपत्नी-- नेत्रेषु कन्दलयति स्रवदश्रुबिन्दून् ।।१६॥ यस्मादैवतरात्रिवासरपरीवाहस्थिति किनां यस्यास्ति प्रतिमानमौर्वदहनोऽम्भोराशिसर्वकषः । नूनं यः पतिपक्षपक्षजयशो नक्षत्रभानंशकृत् स प्रोद्यत्तमसत्प्रतापतपनो विश्वेऽस्य विद्योतते ॥१७॥ एतत्संयुगसांयुगीनविलसद्दोर्वल्लिभल्लाहत द्वेषिस्त्रीकरकम्बुकङ्कणविशच्छेदाशनैकस्पृहा । अस्यामित्रकलत्रनेत्ररुदिताम्भोनिझरे खेलति क्षोणीमण्डलमण्डन किल यशो हंसालिरिन्दूज्ज्वला ।।१८॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनसुन्दरमरिविरचित तामालिरालपदथो तदभीप्सितज्ञा क्रीडाशुको मुकुटलोहितरत्नराशौ । स्वत्रोटिकोटिमवलोकय दाडिमाना। भ्रान्तः कणान्क्षिपति भा मिनि ! मारमानः ।।१०। अप्रस्तुतेन लपितेन ततः सदस्या ___स्तस्या बभूवुरभिनेयविलासहास्याः । मम्लौ महेन्द्रधरशेखर एष वीक्षा पन्नो विपन्न इव तेन निराकृतोऽभूत् ।।२०॥ बालामनैषुरपरं च परंतपं ते विज्ञाय चेष्टितमतोऽथ विमानवाहाः । पद्माकरात्सुरभितां मकरन्दशीता देशान्तर मृदुतरा इव गन्धवाहाः ॥२१॥ तां भू पुरन्दरसुतामवदत्सुवेत्रा भूपान्तरं तरलितेन विलोकितेन । स्वापारङ्गततरङ्गतरङ्गितेन नेपालपालमसितभु ! निभालयामम् ॥२२॥ नीवृत्यमुष्य मृगनाभिसनाभिगन्ध- . स्तत्त्वन्मुखानिलनिभो ननु वाति वायुः । त्वत्कामकेलिकलितश्रमवारिबिन्दून् मन्दं मुदेव नुदतात्परिचारकोऽसौ ।।२३।। पङ्केन तन्मृगमदस्य विचित्रपत्र वल्ल कुचमण्डलमण्डनाय । स्वापराधशमनाय तवानुराग वल्ली नु पल्लवयतादयमत्र मूर्ताम् ॥२४॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य जन्येऽदःपरिपन्थिनिर्भरगलद्दानाम्बुदश्यामल-- प्रोद्दामद्विपकुम्भतां व्यदलयच्चण्डांशुचण्डासिना । चण्डि ! त्वामनुनेतुमेव तदसौ तां त्वत्कुचस्पर्धिनी . मत्वाऽस्या वरिवस्ययाऽस्य किमु नो सद्यः प्रसादोद्यता ।।२५। निःशेषक्षितिपालशेखरमणे ! प्रेम्णाऽनुनीय त्वया ___ संश्लिष्टा विजयेन्दिराऽनवरतं नाहं पुनर्जातुचित् । इत्येनं विगणय्यनिर्गतवती भी मिनी कोपिता शत्रूणां रणरङ्गमङ्गसपदि स्मोज्जासयत्यञ्जसा ॥२६॥ मूर्ता वीररसोऽयमस्य युगपद्वीरस्य मूतौ ध्रुवं युद्धायोद्धतकन्धरस्य निरगात्सेना यतः सात्त्विकी । रोग्णां कोटिरियं स्वमौलिमुकुटालङ्कारलक्ष्या महान् पारे वा गुरुविक्रमस्य महिमा च्छेकैन कैर्वर्ण्यते ।।२७। गुञ्जाहारमपास्य मौक्तिकलता किं कण्ठभूषा कृता त्यक्त्वा वल्कलवाससं सुतनु ! ते कोऽयं दुकूलग्रहः।। मायूरच्छदरीढयेति नलिनं किं कर्णपूरीकृतं हीहीत्यस्य वने वनेचरशतैः स्त्रैणं द्विषां हस्यते ।।२८|| एनं ततः स्मरशरप्रसरत्प्रताप सन्तापितं निजगं चलचापलेन । निर्वापय त्वमयि ! सन्मृगनाभिमिश्र ___ कर्पूरपूरपरिवाहनिभेन भीरु ! ।।२९।। तस्मात्तिरश्चरशिरःपरिभावनेन सम्भाव्य तामुपरतां शिविकाधुरीणाः । शत्रुतपं परमथ स्म नयन्ति पद्मात् फुल्लश्रियं कुमुदखण्डमिवेन्दुपादाः ॥३०॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तत्सम्मुखे न च मुखेन निरूपयन्ती राजन्यमन्यमथ वेत्रवती बभाण | एनं वृणीष्व मलयाद्विमहेन्द्रमिन्द्र मातङ्गगामिनि ! महेन्द्र परार्ध्यशोभम ॥३१॥ एष त्वदीयमुखमारुत सौरमर्द्धि संस्पर्द्धिनं मलयजं विधुरीकरोति । पाषाणघर्षण कुठारभिदाप्रयासै— स्त्वद्वासितश्वसनपानविलासलुब्धः || ३२॥ त्वां चन्दनद्रुमवनीं परिरब्धुकामः सभोगभागिव भुजङ्गमपुङ्गवोऽयम् । प्रत्यङ्गसङ्गकृतरङ्गतरङ्गितेन शोभां बिभर्तु मुखमारुतपानपीनः ||३३|| अभ्यर्णमस्य नगरस्य विदूरशैलः क्रीडाचलस्तव भवत्वविदूरवर्ती | यः संततं मुदिरमेदुरगर्जितेन रत्नाकरोत्पुलकितानि तनौ तनोति ॥ ३४ ॥ धत्ते मौनमृजुत्वमाश्रुतिपथं गन्ता परेषां पर रक्तानि व्रतयत्यरक्तजनतारागाय बद्धादरः । तद्विश्रम्भविधायिचेष्टितचणो मुख्यक्षितेरीशितुः काण्डस्त[ण्डवयत्यद्दो ! व्रतविधौ दग्भं महादाम्भिकः ।। ३५।। दुग्धाम्भोधीयवेलावलयनिलयितश्चन्द्रिका चन्द्रबिम्बे कम्बुः प्रांशुप्रालेयशैलस्तरलतररुचस्तारकास्तारहारः । किं वा सुरेभः फणिपतिफणता स्वर्गगङ्गातरङ्गा दिङ्नागा विष्टपेऽस्य प्रविलसति लसत्कीर्तिमूर्तिप्रकाशः ॥ ३६ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य एतद्वैरिक्षितीशक्षयचकितवधूः कन्दरामन्दिरान्त लीना नीलालिमालां द्रुमकुसुमरसास्वादलीनां निपीय । भ्रान्त्या जम्बूफलानां क्षुधितशिशुभृशाश्वासनोदस्तहस्ता यावद् गृह्णाति तानि प्रययुरथ दिशस्तावदुड्डीय भृङ्गाः ।।३७॥ भ्रभङ्गभङ्गुरमुखी परिपीय राज्ञां ___ भूषामणिष्वनुकृतां शिबिकां वहन्तः । तां निन्यिरेऽन्यनृपति शशिनः समुद्रा-- लेखां ललाटमिव शिल्पविदेोऽष्टमूर्तेः ॥३८।। साऽवीभणद्धरणिशक्रसुतां प्रतीत्य राजान्तर कनकवेत्रधरोचितज्ञा । काञ्चीपुराधिपतिरेष धिनोतु चित्त काञ्चीविमुद्रणपटुस्तव काञ्चनाभः ।।३९।। एष त्वदाननसुधां वसुधासुधांशु नेत्राम्बुजैः किल पिपासति कोमलानि । अस्याङ्गकान्तिसरसीषु विजृम्भतां वा नीराजनाय तव नेत्रसरोजराजी ॥४०॥ एतेन द्विविधोऽपि मार्गणगणस्वार्थः कृतार्थीकृत स्त्यागेन द्रविणस्य जीवितधनत्यागेन विद्वेषिणाम् । एतस्यैव गुणो द्विधाकृततनुः कर्णान्तगामी बभू . वाद्यश्चाथ परो विसारिविभवो विश्वत्रयं व्यानशे ॥४१॥ वासिष्ठाम्बुभरो महेभमकरः खङ्गस्फुरद्वाडवः सेनोल्लोलचयः पदातिलहरी पूरोऽस्य जन्यार्णवः । प्रत्यर्थिक्षितिपैस्तदाशुगवशैश्चित्र त्वरित्रं विना भेदे यत्तरणेरपि स्फुटमहो ! तीर्णः सकर्णैः परम् ।।४२।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित एतत्प्रतापतपनोप्मभरैस्तपर्तु रुज्जृम्भतेऽरिसदनेषु सदोप्रतापैः । तत्र प्रपामरिवधूः शुशुभे वहन्ती नेत्राश्रुपूर्णकुचकुम्भमयीं सुपुण्या ।।४३।। मन्दारो नात्युदारो बहुलफलभरैर्भङ्गुरः शाखिकल्पो मावा चिन्तामणिर्वा पशुरमरगवी या पयोदानदक्षा । एतेनैवार्थिसा वितरणविभवैर्यत्कृतार्थीकृतस्तत् सन्ति व्रीडाजडाभाः सुरविटपिनिभास्ते तिराभूय भूयः ।।४४।। आजानुबाहुजनितोऽपि जगन्ति गन्ता __सद्यश्चतुर्दशमहोभिरहो ! विसारी । प्रोद्यत्प्रतापतपनोऽस्य तवारिनारी हृत्सूर्यकान्तमणिषु प्रतिबिम्बितोऽभूत् ॥४५।। प्राज्ञाऽथ सा क्षितिपतौ गरिमालयेऽपि दृष्टि बबन्ध न च रागिणि तत्र चित्रम् । यद्वा विरुन्धति विधौ गुणिनां गुणोघः स्फारोऽपि न स्फुरति हा ! परिहारदक्षे ! ॥४६।। तामन्यवीक्षणपरां सुतरां समीक्ष्य जन्यो जनस्तदपरं नृपमानिनाय । नापेक्षते हि करणीयविधौ प्रचार वाचामहो ! सहृदयो हृदयोदितज्ञः ।।४७।। भूयः कनकनकदण्डधराऽऽह तन्वीं संज्ञाप्य भपमपरं नयनाञ्चलेन । द्राक्कीटकाधिपतिग्मकरी विधत्तां त्वत्कायकान्तिहदिनीषु विवर्तनानि ॥४८।। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य भ्रामं भ्रामं दिग्भवदन्तावलंदन्तान् ____ कामं काम चन्द्रमहेन्द्रेभफणीन्द्रान् । कार कार चैतदरिस्त्रैणकपोले विश्रान्तैतत्कीर्तिपरिस्फूर्तिरिहाङ्कम् ॥४९।। जिह्मत्व सविधे दधाति समरे विभ्रत्पराचीनता मुच्चै?रकठोरनिस्वनचयं मुञ्चत्यजस्र .धनुः । तत्तस्यापि गुणग्रहप्रवणधीधुर्यो गुणग्राहिणा मेष प्राप्तविशेषशेखरशिखारत्नैर्न कैर्वर्ण्यते ॥५०॥ एतस्य चन्द्रकरसान्द्रयशःप्रकाशैः प्रदाविता द्विषदकीर्तिमषीतमिस्रा । दिक्चक्रवालचरमान्तमियाय चक्र वालस्य भूभृत इव श्रियमुद्वहन्तम् ।।५१॥ तद्विश्वविश्वमपि विश्वजनीनवीर्य विश्वम्भरोदरदरीगतमाशु भृत्वा । रतद्यशांसि निरगुः किल पद्मनाभ नाभीसरोरुह मिषादतिपाण्डुराणि ॥५२।। हृन्मू द्विषदभिमानभूमिरेखां हित्वाऽन्यान्सदयमयं शरैः प्रतीकान् ।। तद्वैतं किल विददार दूरदर्शी नीतिज्ञो न खलु निरागसः क्षिणोति ॥५३।। एतत्खड्गोद्वारितारिस्त्रियः स्वाग ___ वक्षोधाता व्यग्रहस्ताग्रटकैः । प्रोत्तुङ्गासु स्वस्तनाधित्यकासु स्मैतत्कीर्तेः सुप्रशस्तिं लिखन्ति ।।५४।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित स्वीये मुखाम्बुरुहिनालमिवाङ्गुलिं सा सद्यो ददौ तदुदितं प्रतिषेधयन्ती । मत्वाऽथ जन्यजनताऽन्यमजीगमत्तां भूपं मधुःश्रियमिवाशु वनान्तराणि ॥५५।। द्वाःपालका नृपकनी कमनीयवाचा सा प्रत्यपीपददथ प्रतिभा प्रगल्भा । एतं नितम्बिनि ! रही मिथिलाक्षितीन्द्र मानन्दय स्वनयनाञ्चलचन्द्रिकाभिः ॥५६॥ त्वद्वक्त्रसारसरसीरुहसौरभाढ्य सौन्दर्यमञ्जमकरन्दमिलामहेन्द्रः । एष स्वदृग्मधुकरीयमलेन पीत्वा स्वर्भोगिभोगभरताविमुदं मिमीताम् ।।५७॥ एतत्कीर्तिविवर्तशुभ्रपटलैराप्लाविते विष्टपे - तारास्तारकराजमुत्तरलिताः सम्मायन्ति ध्रुवम् । शम्भुः स्वं च भुजङ्गपुङ्गवमिभं भ्रान्तो दिवीन्द्रो मृगं चन्द्रो मार्जति दुग्धसिन्धुमधिकं धैर्यण ताक्ष्यध्वजः।। ५८।। द्विषत्कीर्तिवातं कृतकमपि पुञ्जीकृतमसौ जगन्मूषागर्ने मिहिरकरजालोज्ज्वलतरैः । । स्वतेजोऽग्निज्वालैधमति कमनीयं समभव ___ यशस्तारं सारं गुरुतरममुष्य स्म निचितम् ॥५९।। . इदमरिधरणीधवाः सदाराः किल गहनाद्गहनान्तरं प्रयान्तः । अथ कथमपि काननायमानं स्वपुरमगुः सशिवारवं क्रमेण ॥६०॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समागमदयं किल प्रचुरपौरलोकादिति ध्वनिः श्रुतचरः शुकैर्मुहुरपाठि वन्यासु सः T अदः समरसङ्गरद्रुतविपक्षिपक्षो मुधाऽ- विशद्वनमभूद्विभातमिव घट्टकुट्टयां पुनः ॥६१॥ स्थाने स्थेम्णा स्थितिमुपगतोऽहमणिर्नेककाष्ठां कुञ्जे दावं द्रुतमनुययौ दाववह्निर्निलीय । युक्तं चैतद्भुजभुजगजस्वप्रतापप्रकाशा- यदुसुन्दर महाकाव्य एतत्प्रध्वस्तहस्तिप्रतिभटसुभटाग्नेयसार्द्राङ्गकाष्ठ व्रातैतद्दोः' : प्रतापानल मिलनलसद्धू मलेखा किमेषा । नन्वेतद्वा जिराजिप्रखरतरखुरक्षुद्यमानक्षमोत्थ प्रारब्धोप्रप्रघातप्रचुरतरर जोराजिराजत्तमिस्रम् ||६३|| ततो जनीजननयनामृताञ्जनं दौर्वानि धिक्खलजलशरण्याश्रितं भूरिभीत्या ।। ६२ ।। इति सभाजयन्त्यभिमतशौरिमेक कं १२. सभाजनं स्वरुचिमरीचिवीचिभिः । श्रीमत्तपागच्छनभानामणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितेशश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरनाम्नि महाकाव्ये मुद्रितनृपकुमुदो नाम पश्ञ्चमः सर्गः || ५ || हृदा स्मरन्नयननिमीलनेन सा ॥६४॥ ง Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ षष्ठः सर्गः ॥ राजव्रजादपगमय्य जनीं वहन्तो __ वैनीतकं विनतबन्धुरकन्धरांशाः । तां निन्यिरे धनदयुग्ममिवावशिष्ट __ प्रीतिं रथाङ्गमिथुनं हरिदश्वपादाः ॥१॥ उत्सारिका पुनरभाषत राजराज एष स्वयम्वरमहे तव राजमानः । त्वं राजपुत्रि ! नवरागपरागरज्य न्नेत्राब्जभङ्गिभिरमुं न च वीक्षसे किम् ॥२॥ अस्यालकापुरपुरन्दरसुन्दरस्यो दीचीपतेरिव शची भव सारसाक्षि ! । तत्रेन्द्रनीलमणिकुट्टिमरम्यहर्म्य वापीषु तेऽस्तु मुखमम्बुजविभ्रमाय ॥३।। सोमार्धधारिखपुरर्धहरा मृडानी सौभाग्यवत्प्रणयिनीनिवहेषु सीमा । तां त्वं प्रसाद्य दयितप्रियतारहस्य विज्ञास्यसि प्रदिमवश्यमवश्यभाव्यम् ॥४॥ एतस्य पूर्हरशिरःस्फुटचन्द्रिकाप देशोन्मिषन्नयनभङ्गिभिराशु वीक्ष्य । त्वां गुह्यकेश्वरविमानशिरःपताका लोलाञ्चलैः समभिनेष्यति सा सहर्षम् ॥५॥ एतद्विमानपरिणाहिवितर्दिवर्ती मन्दार एव तव दास्यति कर्णपूरम् । कारोत्तम नयनविभ्रमदानदक्षं क्षौमं सरागमणिमञ्जुलमण्डनानि ।।६।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य अस्याक्रीडे लीनसन्नीलरत्न क्रीडाशैलः स्वर्णरम्भापरीतः । तत्रानेनामावहन्ती विहार किं नाभिख्यां लप्स्यसे स्वर्वधूनाम् ।।७।। अस्यारामेऽशोकतरुः पल्लवसूति धत्तां शिञ्जन्मञ्जुलमञ्जीरसनाथैः । पादाघातैर्विभ्रमवत्या नु भवत्या हर्षोद्रेकाद्रोमततिं तामिव सद्यः ।।८।। पुष्पोभेदं प्रमदवने चाम्पेथो मत्तस्त्वत्तो वदनसुरागण्डूषम् । तत्रामुष्य प्रणयवती प्रेमाई • स्वादं स्वादं वहतुतरां गौरश्रीः ॥९।। त्रस्यच्चकोरचिकुरां दृशमाकलय्य तस्या घटप्रतिभटस्तनविभ्रमायाः । मूर्त्यन्तरं हरसखस्य निदर्शयित्वा सा दण्डिनी पुनरभाषत भाषितज्ञा ।।१०।। अद्भुतं नु वरवणिनि ! मन्ये किन्नरेश्वरममुं न वृणीषे । एष वै भवसखो नरधर्माs ___ गण्यपुण्यजनतामहनीयः ।।११।। चारुचामरनिकायपीतो यः स्वदानविदितोरुचरित्रः । कुञ्चितभ्रु ! नरवाहनशाली राजराज इति राजति सोऽयम् ॥१२॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित श्लिष्टां गिरं ननु निपीय नरेन्द्र पुत्री . दोलायितेन मनसा विचिकित्सति स्म । कि किन्नरेश्वरमु वाव नरेश्वरं वा सेयं मदर्थितपतिं नु परार्थगूढम् ।।१३।। शौरियंदा किमु धनाधिपरूपधेयं धत्तेऽथ हन्त किमहं नु वहे विमोहम् । यद्वा चकास्ति किल गुह्यकदिव्यका य च्छायच्छलव्यवहितो दयितो ममैषः ॥१४॥ आः । कालकूट कलना किमियं सुराणां. यन्मानुषोषु कृतकैतवनाटकानाम् । तेऽभ्यर्थिता हि दयितं दयितं ददन्ते - प्रत्यूहयन्ति यदि कृत्यमिहौचिती का ।।१५।। 'दिण्टेन यश्च यदलीकतले व्यलेखि सोऽहोऽपि गर्हिततमोऽस्य भिदः स्पृहायाः । उप्रैः प्रभाकरकरें मुमुदेऽरविन्द मोषं प्रयाति घनसारनिभैस्तुषारैः ॥१६॥ सद्वा[क]परां क्षितिपुरन्दरनन्दिनी सा. सम्भाव्य भाषितुमुपाक्रमत प्रगल्भा । कि निश्चलेन मनसा किल निश्चिकाय नामुं सुकेशि ! भवती जगतीमहेन्द्रम् ।।१७।। भ्रान्तिः का नु मृगाक्षि ! शुक्तिशकले रूप्यभ्रमोऽज्ञानतः सारूप्यादथ चेन्न धर्मिणमतिक्रम्यापि धर्मप्रथा । व्यक्तिः स्फूर्तिरिति द्वयोः खलु पथक्तत्त्वं तु निर्णीयतां भूस्पर्शादपि भू पुरन्दरममुं विद्धि स्वमोहं जहि ॥१८॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यसुन्दरमहाकाव्य विश्वत्रयीविदितयादवतुङ्गवंश मेनं स्थिता विशदकीर्तिविलासिकाश्वित् । रङ्गाङ्गणे त्रिजगतां किल नतीति। कुन्देन्दुहारहरहासहिमाङ्गहारैः ॥१९॥ अस्याङ्गजेन जनतामवताऽवतारै - गोवर्धनोद्धरणबन्धुरदोधरेण । विश्व द्रुहां किल कुलं निहनिष्यते द्रा गि त्यायतौ विदुषि ! कालविदो वदन्ति ।।२०।। येन स्वतोऽनुभवता भवतारकेण ज्ञानेकताननिलयां परमात्मविद्याम् । मायामिषाद्विषयिणाऽपि तटस्थितेन मोक्ष्यन्त उतिभिरहो रमणीयगोप्यः ।।२१।। युग्मम्॥ एतत्कुलेऽथ कलिकालकलङ्कपक्क प्रक्षालनत्रिपथगासलिलप्रवाहः । नेमिस्त्रिकालकलिताऽखिलविश्ववेदी तीर्थाधिपः प्रसवितेति विदुः पुराणाः ॥२२।। प्रांशुप्रतिक्षितिपतिस्फुटदर्पसर्प प्रद्रावणप्रवणविक्रमवैनतेयः । अध्यास्त एष मथुरां पृथिवीमहेन्द्र __ श्चन्द्रावदातगुणमौक्तिकहारहारी ।।२३।। सन्माथुरीसवनवारिविगाहधौत नेत्राञ्जनप्रचयमेचकितप्रवाहा । वेणीव भूमियुवतेर्यमुनाऽस्य पुर्या श्वित्कालकालियशिखामणिमण्डिताऽस्ति ॥२४॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.४ पद्मसुन्दरसूरिविरचित विस्रस्तमाल्यनवपल्लव तल्पगन्धो द्गारौ भासुरया सुरभीणि तत्र । दिव्याङ्गनासुरतकेलिमुदीरयन्ति गोवर्धनाचलनितम्ब गुहागृहाणि ॥ २५ ॥ मायूरबर्हमुकुटाङ्कितवल्लवानां उन्नालनीलनलिनाभतमालभाले हुकारजोदजसमीरितगोगणानाम् । वृन्दावने त्वममुना कुतुकानि पश्य ॥२६॥ तत्र प्रतीरवनकुञ्ज निवासिवान प्रस्था कलिन्दतनया नु विगाह्यमाना । लीना लिफुल्लनलिनीकलनीयलीलां सा वावही तु तदनेन समं भवत्या ॥२७॥ तत्र द्रुमान्ततिभिः स्तबकस्तनीभिः । संश्लेषितान्किशल्याधरमञ्जुलाभिः । आजृम्भमाणपवमानचलाचलाभि रेतेन हृद्यदयितेन निभालयाशु ॥ २८॥ योऽधीती कामशास्त्रे सुभगनरशिरः शेखरः सत्कुलीनों मूर्तः शृङ्गार एषोऽद्भुतसकलकलाम्भोधिपारीणसम्वित् । नीलरागो भवत्या करिदशनलसत्कङ्कणाभ्यां भुजाभ्या माश्लिष्टस्तत्र चित्रं वहतु रविसुता नीरवानीरकुञ्जे ॥२९॥ रोचिः कोशा द्रुचीनां शुचिरुचिरचयं सर्वमादाय नूनं वेधा व्याधूतमोहो विदध इव मुखं चन्द्रबिम्बानुबिम्बम् । शेषैः पङ्काङ्कशङ्कां कचनिचयममुष्योत्तमाङ्गे दधानै- धन्ये मन्ये रुशैरहमहमिकया केक़िबर्हातिगर्हाम् ||३०|| Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य निर्भीकोऽप्येष भीति वितरति समरे वीरवैरिप्रभूणा ___ माराद्वयोमारविन्दात्परिमलमिव तद्वर्गसर्गाद्यशो सत् । शुम्भच्छुभ्रांशुधामाद्भुतधवलतरस्फारहारातिगौर चित्रं चित्तेव चञ्चत्तरशफरचलल्लोचनेऽमुं निधत्स्व ।।३१।। एतस्यारातिवारः शरनिकर इति द्वैतमास्तेऽभियुद्धं सन्नद्वं वेपथु वा कथमपि च न सीत्कारमावीःकरोति । वैमुख्यं प्राप नापि क्वचन किमपि ना धीरतां वा परं तच् चित्रं मित्रं विभेदैक इति तदपरोऽमित्रमत्यन्तगामी ॥३२।। एतत्तेजो हव्यवाहे पतनो होता पातादेव मत्वेति वेधाः । तत्तत्तापव्यापनिर्वापणार्थ चक्रे वारांनाथपाथः परीतिम् ।।३३।। ज्याघटनोच्छतिणमुपरागं वैरिकुलेन्दुव्यसनसरागम् । पश्य शयेऽस्य स्फुटमधिरागं यूनि ! किमस्मिन्भजसि विरागम् ॥३४॥ व्योमन् ! स्वं तनु विस्तृणन्तु ककुभः पृथ्वि ! प्रथिम्णो भरं ____यायाः पूर्वयशोऽतिशायि निरगात्स्वैरं नु शौरेर्यशः । वीक्षध्वं परिपक्वसत्कणगणोच्छ्रवासादिव स्फोटति ब्रह्माण्डं किल दाडिमीफलमिति द्वारेऽस्य बन्दिध्वनिः ॥३५॥ एतद्वैरियशो रसेन्द्ररसनाद्भूयोऽणुभिः पुञ्जितो भेजे मन्दर एष दोषकलुषां दुर्वर्णवर्णश्रियम् । भूयोऽदःप्रतपत्प्रतापदहनाध्मातः परीपाकत श्चञ्चत्काञ्चनरोचिराशुरुचिरं धत्ते नु जानीमहे ॥३६॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित एतत्काम्बोजवाहप्रखरतरखुरक्षुण्णधूलीतमिर रुर्भास्वाननुष्णैर्वहति विधुतुलां रात्रितां वासरश्रीः । धौभूमीभूय भूयः किमु जगदजगभाति भाति क्रमाद्वा कूपारः प्राप्तपारः कृतकृतकमहासेतुजस्कन्धवन्धः ॥३७।। अदसीययशःस्कुटारविन्दे .. गगनं भृङ्गनिमां विभां विभर्ति । रिपुकीर्तिखटीस्तृणेढि चैत द्गुणताया गणनाङ्कवर्गलेखः ॥३८॥ मथुरा त्वमरावती महेन्द्रः किल शौरिस्त्वमथो जनी मघोनी । ललताललनैः सुलालितस्व ललनानां तुलनामिलातलेऽपि ।।३९।। हरिणा किमयं यदूद्वहश्चे न्ननु नाकः किमदःपुरी यदा सा । तदलं भिदुरेण भासते चे दिदमीयज्वलदुज्ज्वलप्रतापः ॥४०॥ विषयोऽस्य महेभ्यलसन्नगरो नगरं च बहुक्षणवन्निलयम् । निलयाः किलिकिञ्चितवत्प्रमदाः . प्रमदाः समदद्विपसद्गतयः ॥४१॥ इह सारतरं नरजन्म ततः सुभगं करणं शुभरूपमतः । मिथुनीकरणं तदिदं सदृशं सदृशे सदृशं हि बिभर्ति विभाम् ।।४२। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य सनिर्देशानेष विद्याधराणां वत्रिः कन्याः कौतुकं चक्रिराभिः । तन्नीवृद्भ्यश्चाचलिस्त्वां पिपासुः सत्यां सन्धां वावहिस्ताद्विवोढा ।।४३।। श्रुत्वा कुमारविदुषी गिरमेतदीयां सायंतनी कुमुदिनीं दरदन्तुरश्रीः किञ्चित्स्फुटा मुकुलिता च जिगाय भर्तु लाभादपहववशात्सविषादहर्षा ।।४४।। अस्पृष्टभूतलमुदैक्षत यक्षकायं शौरिं क्षितिक्षितमथ क्षितिमासजन्तम् । साक्षादबुद्धविबुधं च बुधं धवं सा सानन्दमन्दपुलकाङ्कुरविच्छुराङ्गा ॥४५॥ स्वेदोदबिन्दुरिव यादवपुङ्गवाङ्गे निर्वापयन्विरहजज्वरसज्वरातिम् । तन्न्या व्यलोकि नवहेमनि हीरदीप्तः शनारकल्पलतया न तया कुबेरे ।।४६॥ सद्यो मणीवकमयीं धनदस्रजं सा म्लायद्रुचि यदुपतेरुपकण्ठमालाम् । आलोकते स्म वरणस्रजमेष धर्ता मां नादरीव नु दरादिति शङ्कमानाम् ।।४७॥ तन्निर्दिधारयिषया प्रतियातनाया यक्षेश्वरस्य पुरतः स्म नतेन मूर्ना । बद्धाञ्जलिं तमनुनाथति नाथ ! भिक्षां देहीति मे नृपकनी त्वदनुग्रहाय्याम् ॥४८॥ १३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित सद्यः प्रसद्य निजगाद यदुं नृधर्मा दूरीकुरु प्रतिकृतिप्रवणां स्वहस्तात् । तामूर्मिकां सवति मे महती हृणीया दीनं विलोक्य किल वीरयते न वीरः ।।४९॥ तस्याज्ञयाऽथ यदुसूनुरनूनसम्प न्मुद्रां करात्समुदतारयदाशुहृष्टः । नैसर्गिकी तनुरुचं विदधत्स भूमे रुत्सर्जनान्नट इव स्फुटमुद्दीदीपे ॥५०॥ तद्रूपसम्पदमकृत्रिमशोभनीयां नेत्राञ्जलीभिरभितः परिपीय बाला । क्षेत्रे सुधोक्षणवशात्पुलकाङ्कुराणि सा बिभ्रतीव सुदती सुतरां ललास ॥५१।। उत्कण्ठयत्यविरतं यदुकण्ठपीठे कामः स्म सद्वरणदाम निधातुमेनाम् । व्रीडा पुनः शयकुशेशययुग्ममस्याः संस्तंभवत्यहह ! दोलितमानसायाः ॥५२॥ दोलायिते मृदुतनोर्हदि हीम्मराभ्या मुत्तम्भितप्रवरवृष्णिकुलातपत्रे । अध्यासितः स्फुटमिवान्यरसातिशायी शृङ्गार आभ्युदयिकीमधिराजलक्ष्मीम् ॥५३॥ दुद्राव हृद्रुतमहो दयितं नु तस्या श्चक्षुर्गतागतमपत्रपया चकार । तदूपदीप्तिझरसङ्करपक्कदुर्ग खजीभवत्किमिव सामिपथ प्रयाति ॥५४॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य हृत्सङ्गतं दृशि तिरस्करिणीव लज्जा निह्मोतुमेनमभितोऽपि बभूव यावत् । उद्भिद्यमानपुलकैर्विषमेषुरस्या लक्ष्यीचकार विशिखैरिव वर्म तावत् ।।५५।। मन्दाक्षमन्मथरसद्वयविभ्रमेण द्वैरथ्यरङ्गमनुभूतवती वरोरुः । द्वैराज्यसज्जनगरीव गरीयसीनां __ शङ्काधियामनुपदं निरपादि पद्या ॥५६॥ उत्पिञ्जलामथ जनीं विनिशम्य सम्यक् तां शौरये कनकवेत्रधरा निनाय । तस्योपकण्ठमुपनीय वधूः कर सा कण्ठे वरस्य वरणस्रजमुत्ससर्ज ॥५॥ दूर्वाकुरैः शवलितां किल पुष्पमाला ____ कण्ठेन भूपरिवृढो विभरांबभूव । स्वीकारवर्णरचनां परिणीतवध्वाः कामो यदूद्वहहृदीव लिपीचकार ।।५८॥ दूर्वाञ्चितां नवसुमस्रजमस्य कण्ठे . शृङ्गारमूर्तिमिव सोत्पुलको लसन्तीम् । सा साभ्यसूयमवलोक्य नताननाब्जा भाति स्म भावकलुषा किल भामिनीव ॥५९।। सद्यस्ततः पुरपुरन्ध्रिगणः सहर्ष मुत्कण्ठितः परभृतप्रतिमानकण्ठः । उद्गायति स्म कलमङ्गलगीतिमालि वृन्दैरुलूलुमधुरां मधुरस्वरेण ॥६॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित वार्ष्णेयवक्षसि मणि प्रतिभासमाने मध्ये कियत्प्रतिमितं च कियदहिःस्थम् । शोभां बभार सुममाल्यमिव प्रसून--- बाणस्य बाणततिरर्धनिमग्नभागा ।।६१।। प्रोद्यत्प्रमोदपुलकाङ्कुरविच्छुराङ्गी मध्यास्यया स्मरधनुर्धर एष शौरिम् । लक्ष्यीचकार विशिखाऽभ्यसनैकवेदी तन्वीमिवेति किल सा सुतरां बभासे ॥६२।। तस्यास्तनूरुहततिः प्रवरां वरस्य लक्ष्मी निरीक्षितुमिव स्फुटबालभावात् । उग्रीविकामकृतसम्मदसम्प्रकाश प्रत्युज्जिहानपुलकाङ्कुरिताङ्गयष्टेः ॥६३।। प्रादुर्बभूव यदुपस्य करे नवोढा विन्यस्तदाम्न इह यत्किल धर्मवारि । निःपश्यमानकरपीडनमङ्गलस्य कामः करोदकमिव स्वयमुत्ससर्ज ॥६४॥ चेत्पुष्पचापशरमारुतदोलनेन । तूलायिता मृदुतनोस्तनुरस्तु कम्पा । भूभृद्यदा यदुपतिर्बत वेपते त च्चित्रं स्म काममितरत्र महत्यनास्था ।।६५।। स्पर्शात्करस्य नवकुड्मलकोमलस्य स्तम्भो वरस्य सुतनोरजनिष्ट यश्च । मन्ये प्रसूनशरनव्यशरव्यदम्भ स्तम्भो नवप्रणयिनीप्रणयप्रसूतः ॥६६॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य चन्द्रः कुहूमिव तथा जरसं वयस्थः सम्राड्दरिद्रपदवीं निशमब्जिनीव । स्राक्कालिकां सकलराजकमापदेनं दृष्ट्वा वृतं कनकया वसुदेवदेवम् ॥६॥ राकामिवामृतकरी नलिनीमिवार्को गीर्वाणवारण इवाभ्रमुमभ्रमेण । व्याकौशितां सुमनसं किल चञ्चरीको लब्ध्वा यदुश्च कनकां भृशमुल्ललास ।।६८॥ अच्छोद्य किन्नरपतिर्यदुमच्छसूक्तैः स्नेहामृतस्तिमितनिझरचाटुगभैः । स्वीयं यशश्च यमिवार्जितमभ्यवर्षत् - पुष्पोच्चयं सुरतरुपभवं नभस्तः ।।६९।। पौलोमीशक्रयोर्वा सितकरकुमुदिन्योर्विवस्वन्नलिन्यो स्ताम्बूलीपूगयोः किं द्वयमुत शिवयोरर्णवस्वर्गनद्योः । अद्वन्द्वं द्वन्द्वमेतद्यदुपकनकयो! तुला विश्वविश्वं हीत्यानन्दोर्मिसान्द्रा दिवि नु दिविषदां दिव्यगीः प्रादुरासीत् ।।७।। एतत्सर्वाभिसारप्रसरशरभरच्छन्नमुन्नीय सेधा सङ्काशं व्योम चैतद्रिपुनिवह इतो भीतभीतोऽयमानः । कान्तारे यावदास्ते शललचलचलान्धाविधोऽप्यत्र वीक्ष्य व्यग्रोऽभूद्वा प्रतीके शरणमपि शरण्यं भियां भागधेये ॥७१॥ त्वं भूभृवृष्णिसू नुमलयगिरिरहो ! त्वद्भुजश्चन्दनद्रुः साक्षात्कौक्षेयकोऽस्मिन्निव निवसति यद्वयालकालः करालः । एष त्वद्वैरिवारस्फुटविटपिदृढस्कन्धसङ्घट्टनाभि.. ोमव्या पिप्रमुञ्चत्यतिधवलमलं लोकनिकमार त् ।।७२। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पद्मसुन्दरसरिविरचित एवं भूकश्यपोऽसौ पटुनिनदवदैवन्दिभिः स्तूयते स्म ___ दध्वान स्फारतारध्वनिभिरभिनभो दुन्दुभिदुन्दुगीतैः । दिव्यस्त्रीकण्ठकूजत्कलखकलितैः स्पष्टमस्पष्टवाद शंसत्साराविणं तत्समभवदिव किं ब्रह्म वा द्वैतमेतत् ।।७३।। विशेषकम् ॥ श्रीदः स्वां पुरमन्वगात्स च हरिश्चन्द्रोऽथ तौ दम्पती भूपालाश्च निजं निजं च शिबिरं यान्तः क्रमेणापरे । चक्रे चक्रतुरत्र चक्रुरधिकश्रीभावुकं भावुक सान्द्रानन्दनरेन्द्रनन्दितमहे पाणिग्रहेऽस्मिन्मुदा ।।७४।। इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितेश श्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरनाम्नि महाकाव्ये वसु __देववरणं नाम षष्ठः सर्गः ।।६।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। सप्तमः सर्गः॥ अथ वृष्णिसू.नुरुपकारिकामगाद् वरभानुरूपवरवर्णिनीवृतः । पठतस्तदीयगुणवंशशंसनं पटुबन्दिनः पथि ददद्घनं धनम् ॥१।। करवारिदः कनकविद्युता लस न्नधिवर्षति स्म वसुवारि तत्तथा । यदपस्य मार्गणगणैमनोरथा तिगमुज्झितं जवसवद्यथा पथि ॥२॥ अधिमूनिनाय मिथुनं करग्रह प्रतिकर्मनिर्मितिविधेविधित्सया । अवरोधमस्य समयोचितक्रियाः प्रमदाः सृजन्त्विति जगाद बल्लभाम् ॥३॥ वर एष भामिनि ! वरेण्य उज्ज्वला न्वयसन्धया स्म जननं पुनाति नः । निजरूपसम्पदतुलश्रिया स्मर स्मयमेव निम्नति किं बहु ब्रुवे ॥४॥ विधाम लौकिकविधिं पुराविदा मुदितं यथाश्रुतमुपश्रुतं जने । विनिगद्य चेति निरगादगारतः स धराधवः परिणयोद्धवोद्धरः ।।५।। गणकानुवाच स च लग्नमुत्तमं निगदन्तु दन्तुरितमंशशंसनैः । जगदुस्त एतदुदयास्तनिर्मलं . सुरसूरिसूरशशिवीर्यवत्तमम् ॥६।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित स इयेष दातुमथ तां सुतां तदा यदुर्ग स्वदूतवचसेत्यचीकथत् । तव पाचवारि किल मन्मनोरथा-- कुरमद्य पल्लवयताद्गृहागमात् ।।७।। अनुगृह्यतां कनकवत्यथो कुल द्वयमेव मे किल भवत्पदार्पणैः । क्व च माशा हि भवतः सुराचल प्रतिमस्य पीठपरिकल्पनक्षमाः ॥८॥ स ततो निपीय नृपदूतजल्पिता न्यहमेमि तत्प्रणमनाय पादयोः । स्वगुरोरुदीर्य तमिति व्यसर्जयद् यदुपः प्रयातुमथ तं प्रचक्रमे ।।९॥ श्रुतदूतवागवनिपो यदं तदा गमयांचभूव कलितेक्षणक्षणम् । स शिखावलः किल गमीरगर्जितं विनिशम्य वारिदमिवोर्ध्वकन्धरः ॥१०॥ अथ धीरधीः पुरुपुरन्ध्रिनायिका कृतदारकर्मकरणीयकर्मठा । समयस्पृशं विधिमुपादिशद्गृही गृहिणी प्रमाण इह कर्मणि ध्रुवम् ॥११॥ अधिवासनाय पटवासकस्य हे न सुकेशमानिनि ! चिरं विलम्बय । अयि । वर्तिवस्तुकरवर्तमुत्सुके ! तनु वर्तयेति विनिनाय साऽपराः ॥१२॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुषि ! ग्रथान वरवर्यशेखरं त्वमथो मृदान मृदुचूर्णमुत्तमे न च पारिणेत्रवसनानि सीव्यसि यदुसुन्दरमहाकाव्य अपराऽङ्गरागपरिकर्मकर्मठा त्वये स्म संलपति हेति यौवतम् ||१३|| स्मयशैलशृङ्गमपि भूपतेर्मनः गरिमाsभिमानपदवीमुपेयुषी । पुरगोपुराणि मणिपुञ्जमञ्जलो प्रतिसंस्क्रिया पटुतराऽऽरुरोह सा ॥ १४ ॥ ૧૪ स्वमरीचिवारिभिरिवार्धमादधु च्छ्रिततोरणानि नितरां विरेजिरे । दुपादयोरुपपथं प्रवाहितैः ||१५|| नवशुक्तिजस्तबकवन्दनस्रगु जनताऽङ्गभूषणविभूतिभिः पुरी ज्ज्वलहासभासितमुखा गृहा बभुः । परिवृत्तचित्रबहुरङ्गभूमिका गृहभित्तयः किल लसन्ति लासिकाः । ननु भूर्बभूव मणिकुट्टिमत्विषा परिवर्तितोपमतनूरनूनया ॥ १७ ॥ यदुपागमात्पुलक कञ्चुकाञ्चिता ॥१६॥ प्रतिचत्वरं कृतचतुष्कमण्डना शुचिशुक्ति जैस्तरलितोच्छ्रितध्वजैः । भुवना गैरभिनयाय नर्तकी नगरीव रङ्गभुवि सादरैक्षत ||१८|| १०५ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ पद्मसुन्दरसूरिविरचित सिचयच्छिदा कृतसुमैरकालजैः सुपरिष्कृता ततवितानसंहतिः । प्रतिसौधमुच्छ्रिततरा मधुश्रिया किल भूषितं नभ इवान्वभाव्यत || १९ ॥ मुरजस्त्रिधाऽत्र निननाद सादरं ततमाततं घनमरीरणद्द्घनम् । शुषिराणि तुङ्गशुषिराणि राणिभिः प्रतिनादमेदुरतराणि चक्रिरे ||२०|| कलगीतिरत्र पिदधे न वल्लकीं न च साऽपि शर्झरमयं न मर्दलम् । न च सोऽपि डिण्डिमडमत्कृतिध्वनिं न हुडुक्कमेष न स चापि दुन्दुभिम् ||२१| कलमन्द्रतारनिनदप्रतिश्रुता परिमूच्छितो विविधवाद्यजन्यया । जनताऽम्बुधेः कलकलस्य डम्बरो बधिरीचकार वसुदिग्गजश्रुतीः ||२२|| अथ शातकुम्भशतकुम्भमालिकाः सचतुष्कवेदिचतुरस्रमण्डले । समुदस्य राजतनयां पुरन्धयः स्नपयांबभूवुरनघां यथाक्रमम् !|२३|| कनका कनत्कुचयुगेन निर्जिताः कुटपङ्क्तयो दरनतानना हिया । अपि लम्भिताः किमुदहारकर्मणि स्फुटमा मञ्जरियुता नु त बभुः ॥ २४ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य स्नपिताऽथ सा सित दुकूलवाससा विरराज राजदुहिता वृताऽधिकम् । शरदः प्रकाशशुचिका शहासिनी किल पूर्णिमेव विमलाम्बरा निशा ||२५|| सुदृशः शिरस्यकचपाशमञ्जरी गलितोदबिन्दव इवाभिषेकजाः । वदनेन्दुतर्जिततमिस्रमण्डली - रुदिताश्रुपूरपृषता बभासिरे ||२६|| मृदुपक्ष्मलांशुकमृजाभिरुज्ज्वला सुतनोस्तनुर्नु सुषमां दधौतमाम् । सुकलादशिल्पिधृतशाणतेजना प्रतियातनेव रुचिरा हिरण्मयी ॥२७॥ अथ वर्णकाञ्चनविसारि सौरभं पुरेतदीयमधिकं विदिद्युते । रुचिरं हि हेम यदि सौरभोचितं जनवाद एष विदितस्तदाऽभवत् ॥ २८ ॥ क्षितिपात्मजां शुचिवितर्दिकान्तरं विनिवेश्य मण्डनकलासु पण्डिताः । अतिनिद्रमादरपरा विनिर्ममुः प्रतिकर्मकर्म निखिलाङ्गमङ्गनाः ॥२९॥ इयमुद्धरूपसुभगा प्रसाधिता सुभगाभिराप सुषमां गरीयसीम् । किमु भूषयेयमनयाऽथ साऽद्युतत् समगाह ततमिति मन्मनो भ्रमम् || ३० ॥ १०७ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित कृतबन्धुजीवकसरोरुहार्हणं शशिनं नु चम्पकसुमोपहारितम् । सरदच्छदे क्षणमिवैतदानन - सुमनःशिलातिलकितं जिगाय तम् ॥३१॥ अपराऽभिकस्मरमदान्ध्यतामसी तिमिराम्बरप्रचयवाणितन्तुताम् । सुदृशो जुगुम्फ मृदुकैश्यमञ्जरी मसितागुरुप्रवरधूपधूमिताम् ॥३२॥ वदनाम्बुजं मृदुतनोइंगम्बुजे __ वरबर्हिबर्हचयगर्हणाः कचाः । अधरारुणं तरलिते सुमेचका व्यतिभात आकृतिनिसर्गसर्गतः ।।३३।। अथ काऽपि धूपभरधूम गुम्फन चिकुरभ्रमाद्विदधती सखीजनैः । स्मिततर्किता तदलकच्छटोच्चयं निबन्ध सस्मितमुखी चिराय सा ॥३४॥ इदमीयवेणिरसमेषु वाहिनी-- प्रभवत्तमः पटलनीलिमच्छविः । स्फुटमेव नव्यकुसुमैः परिष्कृता मदनेषुभिः शवलितश्रिय दधौ ॥३५॥ अदसीयभालफलके कचाम्बुद क्षणभाविभा कनकपट्टिका व्यभात् । वदनामृतद्युतिसुधाऽशनादिव स्थिरतामशिश्रयदिह श्रिया चिरम् ॥३६॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १०९ उविशेषकं तदलिके समौक्तिक भ्रमरालके श्रियमुदश्चितं दधौ । त्रिजगज्जयी नु समत्त सायकं मदनोऽथ मुक्तपदवीजिगीषया ।।३७।। जनयांबभूव किल तल्ललाटिका शितिचूर्णकुन्तलकलापवल्लरी । सुमनःशिलातिलकदीपकार्चिषः __ समुदस्तकज्जलशिखालताभ्रमम् ।।३८।। सुदृशो दृशौ शितिकनीनिकामणेः किरणैर्गतागतविवर्तवर्तिनः । समरञ्जि नाञ्जनचयैः सखीकरा ञ्जनलेखिनीलिखनजैर्नु मन्महे ॥३९।। किमु यौवनेन नवशिल्पिनाऽमुना धृतसूत्रमञ्जनविलेखरेखया । समकेति वर्द्धयितुमेधमानया सुदृशो दृशोर्युगमपाङ्गतः परम् ।।४।। घनमेचका नजरेखयाऽङ्कन समुपेत्य नीरजयुगस्य तद्दृशौ । सुषमामवापतुरनगधन्विना विशिखीकृतस्य किणनीलिमस्पृशः ।।४।। वरवर्णिनीश्रवणयुग्ममीक्षण द्वयसञ्जनेन कृतबाधमुच्चकैः । किमलञ्चकार सरसीरुहद्वयं किल कर्णपूरमिषतो द्विषत्तमम् ।।४२।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पद्मसुन्दरसूरिविरचित ननु तद्वतंसधृतवारिजद्वयं नवकामुकस्य कमनान्धताभृतः । नयनाम्बुजद्वयमिदं नु कर्णयो य॑गलत्तमां किमिव कस्यचिद् ध्रुवम् ॥४३॥ कुसुमायुधः किल तदीयकर्णिका मणिदीप्तिकिंशुकसुमात्तकार्मुकः । कृततद्विलोचनसरोजसायको वसुदेवमेव हि शरव्यमैक्षत ॥४४॥ सुदतीमुख कनकरत्नकुण्डले श्रुतिवल्लिपाशयुगलेन सागसी । शशिमण्डले इव ननाह तत्तुला द्वयवादिनी किमु विभुत्वशक्तितः ॥४५|| सुमुखीमुखामृतकरस्य कुण्डल द्वयमध्यगस्य यदुमन्मथोद्भवे । न्यपतत्तरां दुरधुराभिधो ध्रुवं . किल योग एष विषमेषु भूतिदः ॥४६॥ मधुराधरे मृदुतनोरलक्तक द्युतिदीप्तये विनिहितं वयस्यया । मदनं विधूय मधु तत्सलालसं विललास वस्तुमिह किं सुधानिधौ ॥४७॥ किल वल्लकी मधुरगीस्त्रिरेखया सुतनोर्बभूव मृदुकण्ठकन्दली । सितसप्तशुक्तिजसरानुपेत्य सा परिवादिनीव विरराज मञ्जुला ॥ ४८ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १११ करिदन्तजेन खलु तद्भुजद्वयी नवककणेन विसिनी जहास या । वदनप्रभाऽपहृतसारचन्द्रमः परिपूर्णमण्डलमिवानुकुर्वता ।। ४९ ।। नवयावकद्रवजरागरञ्जना दरुणौ तदीयचरणौ रराजतुः । उपगूहनात्तरुणपङ्कजे उष स्यरुणद्युतेरिव चिरेण जाग्रती ॥ ५० ।। कृतमन्तुरेष मदनानलः पुरा प्रसमीक्ष्य भाविदयितं मृगीदृशः । स सरागमूयमभितः पदद्वये __भजति स्म यावमिषतः किमु स्फुटम् ।। ५१ ।। पदहंसको नु किमु राजहंसको सविलासमन्थरगतानि शिक्षितुम् । किल मत्तवारणगतेरुपासना मिव चक्रतुर्मधुरझकृतिध्वनी ॥ ५२ ॥ घनचन्द्रचन्दनजपङ्कपिच्छिले शुशुभे मणिग्रथितहारमञ्जरी । किरणच्छलात्स्खलितचिह्निता जग_ युवचेतसां सुवदनास्तनातटे ॥ ५३ ।। किमु भूषणैः किल निसर्गसुन्दरेऽ पधनोत्करे वरतनोरलङ्कृतम् । शितिमञ्जिमा ननु कनीनिकामणे रनुपाधि सिद्ध इह चेत्किमञ्जनैः ।। ५४ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित सुतनोरथोत्तरतराऽधिभूषण द्युतिराद्यभूषणरुचीरबाधत । स्फुटजातिसंविदमिवार्थसूत्रितां सुविशेषसंविदसमानलक्षणा ।। ५५ ।। वियति प्रसन्नमिव चन्द्रमण्डलं निजमाननं मुकुरमण्डले वधूः । विनिभालयन्त्यतन ललितभ्रमं प्रतिमिता बभार सा ॥५६।। मणिमण्डनद्युतिपलाशमालिका भ्रमरजसङ्गतशिलीमुखा बभौ । सुतनोस्तनुः किमवनाय धन्विना कुसुमायुधन धनुषां शतैर्वृतः ॥५७।। व्रततिः सुमैः सुरधुनीव वीचिभि नलिनी घडतिभिरिव स्तुतिगुणैः । नृपता नयैर्नु विनयविनेयता विरराज भूषणगणैः सधर्मिणी ॥५८।। सपदि प्रसाधनकलासु कोविदै रनुजीविभियंदुपतेः प्रसाधनम् । समपादि माङ्गलिकमुज्ज्वलोचित प्रवितायमानपरिकर्मनिर्मितम् ॥५९।। . अथ ककृतस्य मजया प्रसाधिता जनमेचका कचकलापवल्लरी । शिखिबहकान्तिचयचौरिकाचणा किमबन्धि तैरुचितविद्भिरस्य सा ॥६०।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋजुरायता स्मरशरासनस्य सा यदुसुन्दरमहा काव्य व्यलसत्तरां सुमललामकैरलं ननु शिञ्जिनी नृपशिरोजमञ्जरी । नवरत्नखचितेन मौलिना किमजिह्मगैर्नु परितः परिष्कृता ।। ६१ ।। दिविषमः किमु बमौ स जङ्गमः घृणिपुञ्जमञ्जतरमञ्जरिद्युता । roh बभौ कनकवीरपट्टिका - कमनोत्सवे सुरभिणा विनिद्रितः ||६२॥ १५ मिषतस्तदास्यनलिन जिताम्बुजम् । तिपुञ्जपिञ्जरपरागमण्डिता नवकुङ्कुमद्रवविमिश्रचन्दन स्फुटचित्रकं तदलिकं सभाजनैः । उदयाद्रिकूटशिखरोदितं विधो तपवारणं नृपतिलक्षणं दधत् ॥ ६३ ॥ यदुनन्दनस्य वदनेन बाधितौ fa Haiमृतकरौ नु कुण्डले । तदुपासनां विदधतुः पराभव रिव सामिबिम्बमुदनीयत स्फुटम् ||६४ | यदुगण्डमण्डलयुगानुबिम्बिता fro बिभ्रतौ ललितदोलनच्छलात् ॥ ६५॥ समभाव्यत द्विगुणवक्रचङ्क्रमः लसति स्म या कनककुण्डलद्वयी । किल मान्मथो रथ इति भवं तया ॥६६॥ ११३ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित उपकण्ठतारतरहारमञ्जरी .. नतकन्धरस्य चिबुकांशचुम्बिनी । नृपतेरभादिव मुखेन्दुचन्द्रिकाs तबिन्दुवृन्दकरतुन्दिलापगा ॥६७।। भुजवल्लरी स्तपकिताङ्गुलीनखै नेनु हैममुद्रिकतया सपल्लवा । वलयालवालकलिता फलेपहि जगदर्थिनां वितरणैर्यदोर्वभौ ॥६८॥ सितहीरवीरवलयाऽस्य दोर्द्वयी किल तत्प्रतापयशःसीकरोत्करैः । किरति स्म मण्डनमणिच्छविच्छलो च्छलदच्छवारिधरविन्दुवृन्दजैः ।।६९।। निजरत्नभूषणमणिप्रभासुर द्युतिचक्रवालनिचयेऽनुचुम्बितम् । वपुषोऽनुबिम्बमवलोक्य लोकपो निचकार चारुमुकुरग्रहाग्रहम् ।।७।। अपि भूषणानि मणिपुञ्जमजुलो न्मिषदम्बकैयुगपदेव सुन्दरम् । वसुदेवरूपमपिस्तदा तदा तनलोकलोचनमुदः किमु स्तुमः ।।७१।' कृतसर्ववैरिगणशावरक्षितिः क्षितिमण्डलप्रसृतकीर्तिदीधितिः । स च जन्ययानमुदितः समारुहत् किल सप्तसप्तिरिव सप्तिवाहनम् ॥७२।। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य ११५ तमथो पुरस्य जगतीपुरन्दरं प्रमदागणः क्षणनिरीक्षणोन्मनाः । स यियासुराशु विहितप्रसाधनः समलञ्चकार चतुरश्चतुष्पथम् ।।७३।। अथ काऽपि कौतुकविलोकनाकुला . पवमानसामिविधुतस्तनाम्बरा । पुरतश्चलन्त्यकृतमङ्गलोचिता मुदकुम्भसम्भृतिमिवाशु शौरये ।।७४।। अपराऽऽलिमीक्षणपरां यदूद्वह किमुदस्तहस्तलतिकाङ्कदेशतः । किल दर्शयन्त्यनवधानतस्त्रुटत् तरहारमौक्तिककणैरवर्द्धयत् ॥७५।। पुरयौवतस्तननिपास्यपङ्कज स्मितसूनसन्नखरदर्पणावली । किल शस्तवस्तुततिरास सैव त विकाय भूमघवतो यियासतः ॥७६।। स च पौरयौवतविनिद्रवारिज द्युतिचुम्बिनेत्रनिकुरम्बजस्रजा । परिचुम्बितो यदुरहो दिदृक्षुभिः । किमु भद्रकुम्भ इव जङ्गमः पपे ॥७७।। परया रयान्निजकराम्बुजस्थितं नवनागवल्लिदलमाददानया । लपने स्वकेलिकमल निचिक्षिपे वदनप्रभारिपुधियेव पश्यया ! ७८॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पद्मसुन्दर सूरिविरचित अपरायणामवलभीपरम्परा यदुदर्शनोत्सव विनिद्रलोचना | सुदती सती व्यतियती सुराङ्गना विभ्रमं स्म दघते रसोर्ध्वगा ॥ ७९ ॥ जनमेलके यदुपवीक्षणक्षण प्रहितेक्षणेऽप्युपपतिनितम्बिनी । अपरा समाश्लिषदथान्तरान्तराऽऽ नकदुन्दुभीक्षणमहो मुहुर्मुहुः ||८०|| भुवनाग्रचुम्बिकमनीयकामिनी मुखबिम्बम्बरितमम्बरं दिवा । शतचन्द्रसान्द्रमिव तदिदृक्षया समलक्ष्यताखिलजनैर्नु सङ्गतैः ॥८१॥ नवह जालक मुखानि सुन्दरी क्षणसुन्दराणि मधुसारसौरभैः ! कलितानि तानि दधिरे नु तन्महे किल मन्महे शतदलाम्बुजश्रियम् ॥ ८२॥ विधिना विधानविहितैकतानता परिपाकिमाभ्यसन कौशलेन किम् ! मिथुनं तदेतदनयोः परस्पर व्यतिषङ्गिणोर्नु निरमाथि निर्भरम् ॥ ८३ ॥ किमु काम एष कनकातपःफल स्फुटशिल्पिकल्पित इयर्ति मूर्तिमान् । यदुनन्दनः किमुत नन्दनद्रुमो मनुजीभवन्ननु भवादवातरत् ॥८४॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य अनया सखि ! स्त्रितमया महौचिती-चतुरस्रविच्चतुरया धनाधिपः । सुमना अपि स्फुटमकारि दुर्मना यदुपस्वरूपमनुभूयमानया ॥ ८५ ॥ शुभौवताभ्युदयसार्वभौमता T पदवीमुपेयुषितरा कुतस्तराम् । उपवीजितेयमयि यादवेक्षणा ञ्चलचामरैः सुभगताऽऽतपत्रिता ॥८६॥ इति वाहवाहनगतं सुवासिनीजनलाजमोक्षणविधानवर्द्धितम् । सुभगं निरीक्ष्य पुटभेदनाङ्गनाः पथि संकथां समुदिता विनिर्ममुः ||८७।। ॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ काभिश्चित्प्रसृतस्वदृक्प्रसृतिभिर्भूपस्वरूपामृत पीत काभिरदः किरीटमणितासहस्रनेत्र भ्रमात् । सुत्रामेति किमिन्दुमण्डलमदोवक्त्रप्रभामण्डल संश्लिष्टः स्वधिया पराभिरभितो नेत्रे निमील्य प्रभुः ||८८ || इति श्रीमत्तपागच्छन भोनभोमणिपण्डित ोत्तम श्रीपद्ममेरुविनेय-पण्डितेश श्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्री दुसुन्दरे महाकाव्ये वरालङ्करणं नाम सप्तमः सर्गः ॥७॥ ११७ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || अष्ठमः सर्गः ॥ राजन्यकैस्तरलतुङ्गतुरङ्गधारा पारीण केलिकलितैः परितः परीतः । आकल्पकल्पितमहर्द्धिपरार्द्धयशोभैः श्वाशुर्यमन्दिरमथो यदुपः प्रतस्थे ॥ १ ॥ वाराङ्गनाकमलनालमृणालमञ्ज दोर्वलिचारिचलचामरवीज्यमानः । राजा रराज पुरराजपथे जिहानः ॥ २ ॥ आशीःप्रवादपटुमङ्गलमाददानो नासीरचारिधरणीधवमौलिमाला रत्नद्युतिद्विगुणदीपकदीप्तिचकैः । शौरेश्च मूचतुरवीतिखुरोत्थधूलि - ध्वान्तं शशाम निशि जन्यजनप्रयाणे ॥ ३ ॥ पीठालयप्रभुरुदीक्ष्य करग्रहस्य नेदिष्टमंशकमथ प्रजिघाय दूतम् । आहूतये सकलराजकमण्डलस्य द्राक्स स्वसैनिकवृतोऽत्र समुच्चिकाय ॥४॥ चीनांशुकपचयकल्पनकल्पितेभ कीशर्क्षकेसरिलता सुमशालवृन्दैः । तद्वाहिनीबहुलहास्तिककर्णताल वातोद्धुतैरपि वियद्विपिनायते स्म ॥५॥ वातप्रवेल्लितसुतोरणभङ्गुरभ्र व्याजादमान्नु कनकेरितशम्भलीपूः । याssमन्त्रणाय यदुपस्य तदेव तस्याः स स्वैर्बलैर्बलजभूमिमुपाजगाम ॥ ६ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य सार्होरुकैरिव चलैः कदलीदलैस्तै स्तित्सखीरचितमङ्गलमण्डनश्रीः । अभ्राजतास्य कृतरिष्टसुखानुयोगा तत्तूरतारनिनदैः सितहारहासा ।।७।। मन्नीतिचञ्चुनिजनायकशङ्किनोऽत्र सनादनुद्धततरध्वजिनीद्वयस्य । आश्वीयहास्तिपकहास्तिकसादिपद्ग ध्वानस्ततान सकलाम्बरकम्बुचुम्बी ।।८।। स्वान्सन्निवेश्य बहिरेतु यदुं तमित्या ख्यातं पुरोऽभ्यगमदर्द्धपथं नरेन्द्रः । सद्योऽवतीर्णमथ सौधमुखेऽश्वयानात् प्रावेशयत्कृतसपर्यमयं विलोक्य ॥९॥ भूनायकस्तमथ नायकमनजाया __ भद्रासनोस्थितचरः सुविसारिदोाम् । शिश्लेष भूधरमिवाध्वगतं प्रवाहो गानो द्विधाकृततनुहिमवत्प्रसूतः ॥१०॥ स स्वामजामथ यथाविधि राजवंश्य भूकश्यपाय विततारतरां क्षितिक्षित् । गौरी गिरीन्द्र इव वा गिरिशाय पद्म नाभाय पद्मनिलयां किल दुग्धसिन्धुः ।।११।। शौरिविधाय मधुपर्कजसग्धिमेत - माध्वीकमुग्धमधुराधरलोभलोलः। स्वाराज्यमेव बुभुजे स भुजङ्गराज राजदभुजो भुवि तया जयवाहिनीशः ।।१२।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पद्मसुन्दरसरिविरचित शौरेः. करः परपरासनबद्धकक्षो जन्याः शयः किल कुशेशयभूतिदस्युः । राजन्वतीति विषये कुशबन्धनार्हा वेतौ व्यधान्नयचणो ननु तत्पुरोधाः ॥१३॥ जायाकरं यदुकरोपरिसन्निविष्टं संपश्यमानपुरुषायितमस्मयन्त । पश्याः पुरन्ध्रिविसरा अपि तद्वयस्याः सम्भाव्य तत्र तमुदर्कवितर्कविज्ञाः ॥१४॥ भूपः प्रसन्नधनदार्पितदिव्यहार मुद्गच्छदच्छतरलच्छविचाकचिक्यम् । सच्चन्द्रहासमसिमुद्धतवैरिवार निर्वापणप्रवणमुत्सृजति स्म तस्मै ॥१५॥ कर्णीरथानथ सपुष्परथानदभ्र शृङ्गीसुवर्णमणिमञ्जुलपुजपूर्णान् । उच्चैर्निगालकलितान्जवनाँस्तुरङ्गान् द्राक्कूकुदः शतमदाद्यदवे महेभान् ।।१६।। माणिक्यरत्नमयमुद्यदखण्डचण्ड रुग्मण्डलप्रतिममुद्धपतग्रहं सः । हैमी स्थगीं वरमणीरमणीयदीप्ति प्रादात्तथा श्वशुरराङ्दुहितुर्वराय ॥१७॥ तत्राशुशुक्षणिमथो परितः परीत्य तज्जम्पतिद्वयमतीव पुपोष लक्ष्मीम् । बिम्बं सुमेरुपरिवर्तिसुधाकरस्य श्विद्रोहिणीपरिवृतं किल शारदीनम् ॥१८।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाला दुकूलसिचयाञ्चलबद्धवासाः यदुसुन्दर महाकाव्य नश्यन्निवैष किल कामशरप्रचारा शौरिर्यधायि निपुणेन पुरोहितेन । तद्गाढरागरचनामिव पुष्पधन्वा सारादविश्वसनतापरिशङ्कितेन ॥१९॥ प्रादुश्चकार यदि वा स्वयमुज्जिहीते तदम्पतिद्वयपराञ्चलसञ्जनेन । १६ पत्याऽभ्यधायि दयितागुडूलिसूचनात्त्व मौत्तानपादिमुनिधिष्ण्यमुदस्य पश्य । दृष्टिं निजां ध्रुवमयि ! ध्रुवमस्तु तत्ते सौभाग्यमेतदनिमेषनिभालनेन ॥२१॥ प्रन्थिस्तयोः प्रणयजोऽथ बहिः स्म साक्षात् ॥२०॥ साऽरुन्धतीमथ वरेण वधूरदर्शि त्वं तामणीयसितरां नु मणि सतीषु । साक्षान्निशामय निशाकरसुन्दरास्येऽ मुष्याः सतीव्रतदृढत्वनिमित्तमीक्षा ॥२२॥ भास्वत्तराणि किमु भानि नभोन्तराले कि होमधूमलतिकाकुसुमानि लाजाः । तस्याः करादिव हुताशनदैवतास्ये तत्रोल्लसन्निगमधूमजरा जिरस्याः सा गण्डयोर्मृगमदश्रियमाततान । अक्ष्णोर्घनाञ्जनविभां श्रवसोनु कर्ण शुक्ला रदाः शुशुभिरे मुहुरापतन्तः ॥ २३॥ पूरायिता लमलिकेऽलकवल्लिलीलाम् ॥२४॥ १२१ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पन्नसुन्दरसूरि विरचित व्रीडाभरोपनतधर्मजवारि जाया पत्योः करे वितरणाम्बुभिराप लोपम् । आनन्दजाश्रुभरनिर्झरवारिधाराs पालोपि धूमशितिवल्लिजवेल्लितेन ॥२५।। सदक्षिणां वितरति स्म स दक्षिणीयान् भूपो वनीपकमनीषितकल्पशाखी । भूकश्यपः कृतसमग्रविधिस्तदानी मागास कौतुकगृहं सुपुरोहितेन ॥२६॥ .. तत्सम पद्ममिव जालदलं पुरन्ध्रि लोलेक्षणभ्रमरराजिविराजिशोभम् । सवालवायजनिबद्धतलाम्बुभूषा हेमस्फुरत्करपरागमराजत स्म ॥२७॥ वन्द्वेन तेन निरशेषि हिया नतेन नो बन्धुता समुदयस्य पुरोऽशनाया । नादशि दीर्घमथ तत्र मिथो यथाव निकामकेलिशयने अहमप्यशायि ॥२८॥ सोत्प्रासमस्य समिती यदुनन्दनस्य श्यालः सुकेलिवचनैर्हसति स्म जन्यान् । सग्धिं विदग्धपुरुषायितवारमुख्या वृन्दैरकारयदमीषु च सापलापम् ॥२९॥ रुच्यं हि वाच्यमिह वः खलु दास्यति स्व-~-- रागादियं बहुकरी मदनालयादि । एषा वरामचिरा कनका सगभीन् संश्लिष्य काममिति वाचमुवाच जन्यान् ॥३०॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १२ यत्काममोदनमथो कमनीयमिष्टं श्वित्सर्वतो मुखमतीवपिपासुभिर्वा । अस्या जनीसहजपक्षजनः स्म वाक्यं सश्लेषमाह यदुनन्दनजन्यलोकैः ॥३१॥ यूना पराऽनु लपिता स्त्रितमाऽसि मे त्व मेषाऽथ साऽस्य निजमौक्तिकदाम कण्ठे । क्षिप्त्वा चकर्ष तमिहैहि पशुक्रियाव न्नुदानमेव विहितं त इति ब्रुवाणा ॥३२।। साचीकृतस्वधमनियुवती युवान मन्यं निरक्षत निजाक्षिविकूणितेन । सा रागपश्यममुना हृदया विधा स्म चित्रीयते न किमसम्मुखवेध्यवेधात् ॥३३॥ प्रासिस्विदव्यजनवेलितबाहुवल्ले: संवीजनवरतनोर्वदनं विलोक्य । उग्रीव एव घनधर्ममिषादपश्यत् ___ कश्चिद्विपश्चिदनिमेषशा वयःस्थः ।।३४॥ रागाईसान्द्रतरदृष्टिपथेऽथ यूनि तन्व्याः स्मितं कृतकटाक्षनिरीक्षितं वा । हीनम्रताचतुरिमा वचनस्य तस्याः । स्वीकारकारणमभूत्प्रतिभूरिवैतत् ॥३५॥ कश्चित्परां सपुलकः स्मरघूर्णमान दृष्टिस्खलद्गतिविलासवशां नु पश्यन् । कामेषु भीलुक इवाशु विवेश पाद्यं नीत्वाऽऽगतां चरणयोर्नखविम्बितोऽस्याः ॥३६॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पद्मसुन्दरसूरिविरचित अन्यः स्फुटस्फटिकचत्वरसंस्थिताया स्तन्व्या वरानमनुबिम्बितमीक्षमाणः । सामाजिकेषु नयनाञ्चलसूचनेन सांहासिनं स्फुटमचीकरदच्छहासः ॥३७।। काचिन्निरीक्ष्य तरुणं तरुणी निजालि-- मालिङ्ग्य गाढभुजबन्धनमण्डलेन । आचष्ट सम्मुखमभीककलाभृतं तो सा स्पृष्टकस्फुटविचेष्टितमेव रागात् ।।३८।। तत्तत्कटाक्षतरलेक्षणभावहाव हेलाविलासमृदुवाम्भवभङ्गिरजैः । यूनोमियो मुदिह सा समभून्न यत्र सञ्चारिका परिचयप्रणयप्रचारः ॥३९।। बद्धाञ्जलिः खलु खलोऽथ पिपासुरम्भः क्षिप्तं कयाऽपि पिबति स्म न चास्यमस्याः । तत्तत्प्रतिप्रतिमितं प्रसमीक्ष्य चुम्ब-- न्नाह स्म चुकृतिरवेण तदाप्तिभिक्षाम् ।।४।। ते वारयात्रिकजना ललनाविलास स्यावच्छटाः शुचिरसप्रभवा निपीय । आवेशनं रतिपतेर्नलतन्तुनद्ध वीतंसवद्धनभसङ्गमतामिवापुः ॥४१॥ वैडूर्यवज्रखचितेषु हिरण्मयेषु पात्रेष्वभित्तकणमच्छमभोजि भक्तम् । जन्यैः सबाष्पमथ मार्दवताधुरीण सन्माधुरीपरिणतं परिपाकिम तैः ॥४२।। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १२५ प्राज्याज्यभिन्नपरमान्नमदभ्रशुभ्र खण्डप्रकाण्डरसवत्तरमस्वदन्त । ते तेमनं जतुकजीरकचुक्रकृष्णैः सार्पिष्कमीषदविकालवणेन सिद्धम् ।।४३।। तत्रावसेकिमकदम्बकमिन्दुबिम्ब मानं सुधाम्बुधिधियेव विभज्य मूर्तीः । जक्षुस्तरां त इति दाधिकमाकादि सद्वेषवारपरिपूरितगर्भमागम् ।।४४।। अदश्वितं धवलतण्डुलपिष्टसिद्धं सोपस्कर समलिहन्नथ ते प्रलेहम् । आदम्परेऽपि दकलावणिकानि राजि कायोगतः कृतचमत्कृतिचुम्बित नि ॥४५॥ मौद्गीं परास्य वितुषां परेवेश्य दालि मूर्ध्वामिमां चतुर आह तदिङ्गितज्ञः । रुच्योदनेन घटयेत्युदिता विहस्य सा तं ततः स्म परिवेशयति स्वरागात् ।।४६।। खण्डं परो घतवरस्य रदागवर्ति कृत्वा पुरःस्थसुमुखीं कितवः कटाक्षैः । संसूचयत्यधरदंशमियं स्म बिम्ब शाकं हियाऽभ्युपगमाय दधावमत्रे ॥४७॥ काचिन्निमीलितशा रजनीं विनिद्र दृष्टया पराऽपि समकेतयदित्यहश्च । अन्याऽधरस्थितकरा कमितुः प्रदोष मानन्दसान्द्रहृदसौ बुभुजेऽथ भोज्यम् ॥४८॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पद्मसुन्दरसरिविरचित कश्चित्स्वभाजनगतामपिबद्रसालां नो रामणीयकमुखानुकृतां रमण्याः । यभूश्चचुम्ब स च हीणतरा पराऽपि चेलाञ्चलेन चतुरा लपनं जुगोप ।।४९।। नाकूतमेव मम वेद किमिनितज्ञा नादृत्य मां गतवतीयमिति प्रतयं । स्तब्धस्य तस्य विनिवृत्य स कास्वकाक्ष काण्डैर्ददार हृदि हार्दहलाहलात्कैः ॥५०।। सम्भाविनीति कियदुच्चकुचेयमस्मिन् व्याहृत्य तस्थुषि पटावृतहृद्वरोरुः । श्रुत्वाऽथ सोत्तरयति स्म करद्वयस्थ भृङ्गारधारणमिषेण तदग्रतोऽपि ।।५१।। वृत्तं निधाय निजभोजनभाजनेऽसौ सन्मोदकद्वयमतीवपुरःस्थितायाः । सन्धाय वक्षसि दृशं करमर्दनानि चक्रे त्रपानतमुखी सुमुखी बभूव ।।५२।। वाले ! पिपासुरहमित्युदिता खलेना दृतेन साऽपि कनकालुकयाऽथ पाथः । यावद्वरस्मितविकस्वरसृक्कणिः स्रा क्सख्याऽनयन्निव वृते हसितः स तावत् ।।५३!। प्रागर्थयन्निकृत एष विलासवत्या तत्सम्मुखं विटपतिः स भुजिक्रियायाम् । क्षिप्त्वाऽङ्गुलीः स्ववदने ननु मार्जिताव लेहापदेशत इयं परितोऽनुनीता ॥५४।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ यदुसुन्दरमहाकाव्य आरालिकैः पचनपेषणकर्तनाद्यैः संस्कृत्य तादृशमिदं निरमायि भोज्यम् । नानारसं सुरभि यत्समयातिवर्ति सभ्यैरवर्णि परिहासरसातिशायि ॥५५।। रागासान्द्रनयनभ्रमिभनितान्ध्य वन्ध्यावलोकनपरं चतुरं विभाव्य । सा पुत्रिकां मृतसिताघटितां विहस्य । चिक्षेप भाजन इमां भज वादिनीति ।।५६।। पक्वान्नगर्भगतकण्टकशूककीट प्रादुःकृतिप्रहसनैः मुहिताः सदस्याः । सौरस्यसौष्ठवपटिष्ठमपीपदन्न ते भुञ्जते स्म कवलं प्रतिसन्दिहानाः ॥५७।। राजाहधूपघनसारसुवासितेन शीतानिलेन परिशीलितगर्भमम्भः । आस्वाद्य जीवनमहो ! विधिना व्यधायि तथ्यं हि तुष्टबुरितीदमिदं पियास्ते ॥५८॥ स्त्यानीकृता किमु सुधाऽथ सिता सिता वा चान्द्रेर्दलै हिमघना किल चन्द्रकान्तिः । आकण्ठमेव दधिवाष्कयिणं त आशु प्राशुस्तरां सुमधुरं तदिति स्तुवन्तः ॥५९॥ जन्यैरभोजि नवमण्डकचीनवासाः __ सद्वृत्तमोदककुचोज्ज्वलकूरहारा । क्षीरावसेकिममुखी घृतचारुनेत्रा जग्धिक्रिया युवतिरच्छपयस्यहास्या ॥६०॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ पद्मसुन्दरसूरिविरचित षङ्भीरसैरिह न पल्लविकास्तथाऽऽपुः सौहित्यमुत्तमतमेन यथारसेन । स्त्रैणप्रयुक्तकिलिकिञ्चितसम्भवेन ते सप्तमेन परिहासविलासभाजा ।।६१॥ यः प्रार्थनाचटुशतानि पुरा प्रकुर्व न्नत्याकृतः सुभगमान्यपि मानवत्या । प्रक्षालनस्य निभतोऽञ्जलिमाससञ्ज क्षीरक्षिपाभिरनया स युवाऽवकम्पि ॥६२।। श्यालप्रयुक्तनवनागलतादलानि तेभ्योऽर्पितानि पटमण्डपवासितेभ्यः । ते ज्योतिरिक्षणयुतानि च तानि दृष्ट्वा - जारभ्रमेण विजहुर्दरदष्टपूगाः ।।६३॥ सत्येतराणि पृथगप्युपदीकृतानि रत्नानि लान्तु गदिता इति कूकुदेन । ते तेष्वथैक इह कूटमणिग्रहीता स इत्यह हास्यदाक्ष्यम् ॥६४॥ यद्योतकादिनिखिलं मिथुनोचितं त-- स्प्रादान्नृपः सकलकृत्यविदां वरेण्यः । दाक्षिण्यवानुचितदक्षिणयाऽर्थिनोऽपि प्रामोदयविदितबन्धभिगीतकीर्तिः ॥६५॥ शौरिस्ततस्त्रिचतुराणि दिनानि तत्रो षित्वा स्वयं श्वशुरयोरुपरुन्धनेन । सानन्दमिन्दुकुरु विन्दनिभेरथेऽसा-- वारुह्य बान्धववृतोऽथ पुरः प्रतस्थे ।।६६।। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १२९ आरोहयत्स कनकां स्वयमत्र चान्य संश्लेषशङ्कितमना विरहेण पित्रोः । अस्राकुलां सपुलकां प्रियसङ्गमेन द्वैरथ्यरागमनुरागवतीं दधानाम् ।।६७।। पत्युः प्रगाढपरिरम्भनिपीडितेन - खिद्यत्तनुः किल भविष्यति कोमलाङ्गी । मत्वा वधू वरयितारमिवात्मयोनिः श्विद्रोमहर्षमिषतः कठिनीचकार ।।६८।। आबालभावपरिशीलनताविनीत-- स्वापत्यवत्सलतया स्पृहणीयशीलाम् । तां च प्रहित्य पितरावनुजो वियोग __ दूनान्तराः कियदहानि भृशं विषेदुः ।।६९।। हरिश्चन्द्रः शौरि निजसुभटसेनापरिकरः कियदूरं स्मेरश्चटुचटुलसंलापचतुरः । अनुव्रज्य प्राज्यप्रथितमहिमानं स्वदुहितुः पतिं व्यावर्तिष्ठ प्रणयनतमौलिनिजपुरीम् ॥७०।। अये ! सर्वस्वं ते नयननलिनोल्लासमिहिरो मनस्तुष्टेः कर्ता विदुषि ! यदुभर्ता किमपरम् । परं ब्रह्मेवाऽयं श्रवणमननध्यानपरया समाराध्यः साक्षादहमिह न कोऽप्यस्मि दुहितः ।।७१।। १७ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तनूजन्मानं स्वामिति गदितशिष्टिश्चटुगिरा समाश्वास्य स्वान्तं स्वमथ कनकायाः परिवृढः । रुदत्या बाप्पाम्भः स्नपितलपनः स्वं पुरमगात् प्रियालापैः प्रेयान्प्रियसहचरी सान्त्वनमधात् ॥७२।। इति श्रीमत्तपागच्छनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितेशश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरे महाकाव्ये वसुदेव. परिणयो नामाष्टमः सर्गः ॥८॥ ॥छ।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। नवमः सर्गः।। प्रान्तरेऽथ शुचिपुष्परथस्थौ दम्पती दधतुरद्भुतशोभाम् । प्रावृषेण्यशरदभ्रकदम्बे शकचापतडिताविव किं तौ ।।१।। आननश्रियमपीयत दृग्भ्यां नासया श्वसनसौरभमस्याः । अङ्गः सपुलकैर्नु तदङ्गा वच्छटालवणिमानमजस्रम् ॥२॥ विप्रकृष्टचलचक्रतुरङ्गा स्कन्दितोद्धतरजःकणराजी । निःपतन्त्यरुचदस्य शरीरे चूर्णमुष्टिरिव दिग्वनितानाम् ।।३।। सान्त्वनैर्वरयितुर्बत तस्या मातृजो विरहवाडववह्निः ।। रुच्यरागजलधौ हृदि शोक ज्वालजालजटिलो न शशाम ॥४॥ आधिवल्लिलवनाय सुदत्याः शौरिरप्युपचचार चटूक्तैः । किं न चन्द्रमृगनाभिसगर्भ दृक्त्रिभागमनुकम्प्य ददासि ॥५।। सारसस्य मिथुनं सरसस्तत् सारसाक्षि ! मनु पश्य तटस्थम् । एकपद्मबिसभुक्तिमिषेण द्वन्द्वरागमिव वक्ति भवस्याः ॥६॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित मन्यते विधुमरालमृणालं __भानि पुष्करकणानलिमालाम् । तामसी स्वदयिताविरहार्तः पश्य पद्मबिसमत्ति न कोकः ।।७।। शर्वरीविरहभीरुरयं ते निस्तलस्तनजविभ्रमशोभी । कान्तयाऽऽतपमपि त्रिदशद्रु च्छायमेव मनुते ननु तेन ॥८॥ पमिने निजकरेण करेणु सल्लकीकिशलयानि ददानाम् । वीक्ष्य भामिनि ! निभालनभङ्गी विभ्रमैरनुगृहाण निजैर्माम् ।।९।। किन्नरः स्वदयिताऽधरबिम्ब चुम्बति स्वललनापरिरम्भम् । त्वं निशामय मयुः कुरुतेऽसौ तौ मिथो रतिमथ स्पृहयन्तौ ॥१०॥ कृष्णसार इह कृष्णशिरस्ये ___ स्वाननस्थयवसेन कुरङ्गया । सग्धिमिच्छति तदीयविषाण प्रेमघर्षणनिमीलितदृष्टया ॥११॥ कुन्दसुन्दरदरस्मितमुग्धे ! पश्य मञ्जमकरन्दकदम्बम् । एकतामरसपात्रनिलीनं साऽलिनी यदलिना पिबति स्म ॥१२॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य चक्रचंक्रमसमुद्धृत डम्बराम्बुधरदुर्दिनबुद्धया । मुक्तकेक इह कामिनि ! केकी नतीति दयिताऽनुगतोऽयम् ॥१३।। चित्रमत्र सरसीरुहरेणु त्यिया विततपीतपताकः । रेणुदुर्दिनघने घनमार्गे चञ्चलाविलसितानि विधत्ते ।१४॥ नवनलिनपरागरा जिरुच्चैः सुरुचिरसौरभंसम्पदं ततान । नवनलिनपरागराजिरुच्चैः “सुरुचिरसौ रभसं पदं ततान ॥१५॥ ।।अर्द्धयमकम्।। करभोरु ! भाति सरसि स्फुटपमं विततालिकेलिकमरालमरालम् । अथ भूरिभङ्गुरिततुङ्गतरङ्ग विततालिकेलिकमरालमरालम् ॥१६॥ कलितकोकनदं दरदन्तुरं - सुदति ! पद्मसरः सरसीरुहैः । कलितकोकनदं दरदन्तुरं - पुलिनमस्य विहङ्गमपुङ्गवः ॥१७॥ जलजं श्रियोषितमदो जलज कुमुदं दधाति न दिवा कुमुदम् । सरसीह वारिमरुता सरसी रुहता तरङ्गविशरारुहता ॥१८॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्नसुन्दरसूरिविरचित परिणाहिसौरभरसं भरसं ___ भृतसीकरेण मरुता मरुता । न च तत्सरः सुपुलिनं पुलिनं चलर्मिहंसकलित कलितम् ॥१९॥ कान्तालता विचकिलैः कमलैनितात कान्तालता गिरिमृगारिमृगावरुद्धा । कान्तालतामिह समाश्लिषदेष यक्षः कान्तालतामहह ! गायति किन्नरीयम् ।।२०।। चञ्चद्वनाम्भोजकदम्बलेखां रम्या वनाम्भोजपरागराजिः । शाला वनाम्भोजनितालवालै मूर्तेव नाम्भोजतया किमु श्रीः ॥२१।। रुद्धं विहङ्गमगणैर्गगनान्तरालं पश्य स्फुरत्सरसिजैरिह नान्तरालम् । त्वां मां सुकेसरततिः किमु नान्तरालं सद्योऽपतत् सुरभितापघनान्तरालम् ॥२२।। शालीनशाली न किमत्र चक्रः । कान्ता न कान्ता ननु यद्यदूरे । सद्योऽवसद्योऽवतरत्प्रतापे कामानुकामानुगतोऽतिधर्मे ।।२३।। स्फारस्फुरन्मदकलोदकलोलहंस द्वन्द्वं सदागति सदागतिचञ्चलोमि । ईषत्प्रतापपवनोपवनोपशोभि __ भाति स्म भामिनि : सरोजसरो जलौघैः ।।२४।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य वारिवाहपरिमुक्तमदभ्रं वारिवाहविशदोर्मिसरस्याम् । कोमलो वहति वायुरिहाब्जान् - कोमलो बत जहाति विधुन्वन् ॥२५॥ वनेऽत्र वानीरततिविभासते सरस्सु वा नीरजपङ्क्तिरुज्ज्वला । पिकस्य कान्ता रणति स्म निर्भर मधौ न कान्तारगिरं मुदोऽदधाम् ॥२६।। बिभर्ति कादम्बकदम्बराजितां तटं तटाकस्य भवत्पराजिताम् । न भीरु ! भूमीरुहतातरङ्गिणी तटे किमुल्लोलरयैस्तरङ्गिणी ॥२७॥ अयि । प्रकाण्डैर्जरठेऽपि भूरुहा ङ्गणे गणे या धुरि सा रसालता । न नागवल्लेरपरातिशायिनी व्यलोक्य तत्क्वापि महारसालता ॥२८।। सारङ्गता तरलतारतरङ्गसारा सारङ्गता तरलतारतरङ्गसारा । सारङ्गता तरलतारतरङ्गसारा सारङ्गता तरलतारतरङ्गसारा ॥२९॥ ।। महायमकम् ।। मन्दारवैभवभृतोऽत्र तरुप्रकाण्डा 'मन्दारवैधुतदला मलयानिलौघैः । नानारतं दधति किन्नरौवताति नानारतं स्थिरतरा युवतेति मत्वा ॥३०॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित स्मारं धनुः किमु पलाशतरोः सुमानि . मानिन्यथो तरलया सुकटाक्षबाणान् । बाणानुसन्धिनिरता मदनो नितान्तं तान्तं स्वमद्य मनुतां किमु नोन्मदिष्णुम् ॥३१॥ अयि ! मधुसमये मयेह सार्ध विचर रविमलयालयान्निवृत्तः । अथ धनददिशं दिशन्ति सौरा हयविसरा विशरारुवल्गनानि ।।३२।। । एकोनविंशतिभिः कुलकम् ।। कृतपुबाणगण एष किल । स्मरधन्विनो नवसुमप्रसवः । प्रसवत्यथो किशलयं तरुताs स्य नु तेजनाय नवशाणमिव ॥३३।। मधुपा मधौ नु नलिनीमधुपा रचयन्ति झकृतिमिवारचयन् । नवशखनिस्वन इयानवशं हृदयं वियोगिन उरो हृदयम् ॥३४॥ पिककाकलीकलकलः कलयन् अथ तारतारतरतूररवम् । अभिषेणन चलचलबलव न्मदनस्य किं पटुपटूकृतवान् ॥३५॥ नवरसालरसालयमञ्जरी 'मुकुलिताकुलितालिततिर्घना । वनरमा धवमाधवसौष्ठवात् प्रवितता विततालिरथोऽम्बरे ॥३६॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १३७ सपुलका पुलकाकुलकामिनी कलितदोलनदोलितदोलया । ननु विभाति विभाऽतिभरादियं गहनभूरणुभूरिविभूतिभिः ॥३७॥ ॥सुरभिवर्णनम् ।। अयि ! पिपर्नु तपतुरुपागत स्तव मनोजमनोरथमद्भुतः । सजलजां जलजां किल शीतता मतितरां स्पृहया स्पृहयालुकः ॥३८॥ वहति वारि कृशं नु भृशं कृशा - दयितवर्षणवर्षवियोगिनी । सुनलिनी मलिनीकृतवारिभिः खगकुलैबकुलैः सवनीधुनी ॥३९॥ न पथिकः पथिकी पथि रागिणीं स्पृहयतीह विलोलविलोचनाम् । प्रतपनात्तपनस्य पनायितां गिरमुदारमुदा न वदोऽवदत् ।।४।। कृतविशालरसालदलस्थिति मधुकरी न करीरमरीरमत् । न भुजगी भुजगीकृततच्छविः स्पृशति वहिणवहंगतोरगम् ।।४।। न च शिरो द्वयसन्द्वयसङ्गत स्त्यजति तज्जनिमज्जनसज्जनः । वनगजो नगजो नगयोनिज ___ जलमलं सरसीः परिशीलयन् ॥४२॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ पद्मसुन्दरसूरिविरचित मृगयते मृगतृष्णिकया मृग स्तरलितो ललितोदकपल्वलम् । इह हि फुल्लति मल्लिमतल्लिका पटु पपाट न पाटलमत्र किम् ॥४३॥ अथ घनाघनगर्जितमूज्जितं कृतकलाऽपि कलापिकलस्वरम् । अयि ! निभालय भालयमायुधं सुरविभो रविभोदितमम्बरे ॥४४॥ अयि । तडित्तनुतेऽतनुतेजनं घनघनान्तरितः परितः शशी । सकमलानि मलानि दधुस्तरां किल सरांसि परां शितितां क्वचित् ॥४५॥ सकलहं कलहंसततिः समा नयदमानममानससंश्रयम् । किमु न केतकमेत कमीक्षसे सुतनु ! सौरभ सौरभ सौरसम् ॥४६॥ अयि ! कदम्बकदम्बमुदञ्चति स्फुटसुमानि सुमानि निधारयत् । सुमनसां मनसामिव सन्तति ॥ ग्रीष्मवर्णनम् ॥ र्न सुमनाः सुमनाशमिता सिता ||४७ || किमु समीरसमीरणझाकृति स्वनवशंकर सङ्करशीकरः । स विससार ससारसनिम्नगा तटमटत्पटहध्वनिडम्बरः ||४८|| Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १३९ दूरमारसरः पूरः . स्फारतारतरस्वरः । सारसारवरः पार चारसारतरस्तरः ॥४९॥ षोडशदलं कमलं गोमूत्रिकाचित्रं च ।। तमालविततच्छाया तरुच्छुरितभू युतम् । सरो रविप्रबुद्धया नलिन्याऽरिपुतां गतम् ॥५०॥ ॥चतुष्कारं चक्रम् ॥ ॥वर्षावर्णनम्।। शरदि नीलमणीरमणीयता __ नभसि भास्वति भास्वति भाति भा । कमलताऽमलता जलता स्थिता विशदयाऽऽशुदया सुहितां दृशम् ॥५१॥ तरुणकिरणरोचिश्चण्डमार्तण्डविम्बं । सरसि सरसिजौघः प्राप सामोदमोदम् । विसविशसनलुब्धो मानसं मानसौकाः शरदजनि जनीवोन्निद्रचन्द्रावतंसा ॥५२॥ तरुणतरणिरुच्यं वीक्ष्य दिग्वारवार स्त्रिय इति रतिरागात्काशहासत्वमापुः । अमलकमलचीनाः स्वच्छगुच्छस्तनोद्धा हिमहिमकरबिम्बादमादर्शयन्त्यः ॥५३॥ शरदजनि जनोराट् सान्द्रचन्द्रातपत्रा शुचिरुचिचमरौ धैर्वीजिता काशहासैः । विमलकमलपीठादभ्रशुभ्राभवासा विशकिशलयलक्ष्म्याऽलङ्कृताऽलङ्कृता सा ॥५४॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० पद्मसुन्दरसरिविरचित असकलकलमाग्रं चारुवन्दारुचञ्च्वा शुकततिरतिहृयामाददाना तनान । घनघनपटलान्तश्चारुचुम्बीन्द्रचाप श्रियमुपवनवीथीमध्यमध्यासितेयम् ॥५५।। अथ कथमपि बहीं बहमुज्झाञ्चकार त्वदलकलतिकायाः स्पर्द्धया कान्तिगर्धी सह सहचरमाने नापमानावरीणो रुचिररुचिरमपि स्वैश्चन्द्रकैश्चन्द्रकान्तैः ।।५६।। सरससरसिजानामिष्टगन्धप्रबन्धान् मधुरमधुकरोक्तिस्फारझकारगीतान् । प्रथयति पवनः स्मागण्यसौजन्यपुण्यः सहृदयहृदयान्तश्चिच्चमत्कारकारान् ॥५७।। सारसा रखसारा सा रुचा ता नवकारिका । कारिकाऽवनता चारु . सारा सा वरसारसा ।।५८।। अनुलोमप्रतिलोमः॥ ॥शरद्वर्णनम् ।। हिमगिरिपरिरम्भस्फीतशीतप्रकर्षों मदकलकलहंसं पद्मखण्डं विधुन्वन् । युवनिधुवनखेदस्वेदविच्छेदकर्ता . . सुतनु ! न तनुमान हैमनो वाति वातः ।।५८।। पुलकयति शरीर भीरु ! दन्दस्यते वा मधुरमधरमेष श्लेषसंरम्भदम्भात् । प्रथयति पृथुरङ्गे कम्पसम्पत्तिमुच्चै रयमयमयि ! वायुहेमनः कामनः किम् ।।६०॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य इह दहति हिमानी पुष्कर पुष्करिण्या मिह मरुवकगुल्मः पल्लवोद्भेदमापन् । अयि ! समयवशाः स्युः सम्पदोऽसम्पदो वा विधिविलसितलास्यं प्रायशो नैकरूपम् ।।६।। रजनिरजनि दीर्घा त्वद्रहः केलिसान्द्र स्तनजघनघनाङ्गश्लेषविश्लेषभीत्या । दिनमथ लघुदीनं भीतभीतं नु शीता न्ननु गुरुरगुरुर्वा कोऽपि कस्मिन्विवर्ते ॥६२।। यवशिरसि शरारुश्चारुकिंशारुरेषां खगमुखरमुखानां सस्यसम्पद्विधायी । विलसति नु विलासिस्मारयुद्धात्मरक्षी ___ तव करकरजः किं बालनालाग्रचुम्बी ।।६३॥ किरद्विचकिलाब्जौधं किल सत्केकिराजितम् । वरं शुचिवलाकौघं विलसत् के सरः स्थितम् ।।६४॥ ॥तुरगपदबन्ध, कपाटसन्धिबन्ध, चतुष्कारचक्र, गौमूत्रिकादि नानाचित्रावधानबद्धं पद्यम् ।। हेमन्तवर्णनम।। तव नवभुजवल्लीसौकुमार्य शिरीष द्रुमकुसुमसमूहः स्पर्द्धया गर्द्धतेऽस्मिन् । कथमिव युवभृङ्गाश्लेषमेष प्रतीच्छ त्यथ मधुमधुरोक्तैस्तावकैधित्कृतद्धिः ॥६५॥ इह नहि मिहिकांशुदृश्यते छादितेऽस्मिन् । नभसि मिहिकयाऽभ्रभ्रान्तिबाधां दधत्या । अहनि मिहिरबिम्बोदामधामापि लुप्तं भज निजभुजबन्धं शैशिरा वान्ति वाताः ॥६६।। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Đર पद्मसुन्दर सूरिविरचित अमलकमललक्ष्मी: प्लोषिता कुन्दवल्ली मुकुलकुलमाय ! त्वदन्तदीप्ति ततान । इह किल मृगनेत्रारात्रयः किं मृगाक्षि ! त्वमपि मृगयसे नो मद्विधं मृभ्यमीषत् ॥६७॥ पिककुलकलकण्ठात्काकलीक्वाणरम्यः कलकल इह शान्तः काककोलाहले यत् । निबिडजडवितुण्डाडम्बरे प्रस्तुतेऽत्र क्व च पटुचटुवाचां सत्प्रवाचां प्रकाशः ॥ ६८|| नयननलिनलीलाऽपाङ्गरङ्गत्तरन स्फुटतरतरलत्वं खञ्जनस्ते व्यनक्ति । मधुकरनिकुरुंबोद्धूतपङ्केरुहश्रीः स्थलकमलतटस्थो वल्गुवल्गत्तमोऽयम् ||६९॥ ।। शिशिरवर्णनम् ॥ तरुणि ! तरुण तेऽयं तुङ्गशृङ्गारभङ्गी शिखरिशिखरसिन्धुः केलिकल्लोललोला । किमुत रतविलम्बस्त्वत्पदोः पापति में स्फुटमुकुटमणिश्रीमञ्जरीमञ्जुपुञ्जः ||७०|| इति मधुमधुरेण प्रेमपीयूषसार स्वतलहरिभरेण प्रेयसी श्रेयसी सां । दयितदयितसूक्तेनानुनीता स्मितेन स्फुटनिधुवनधाराघोरणि व्याजहार ।। ७१ ।। अथ मृदुयदुवाणीपञ्चवाणीसहायो रतिपतितिमानप्रौढिमानं दधानः । सुतनु ! नयनभङ्गीभङ्गुरभ्रूविला सै- . व्यधित धनुरनुस्वं चारुवन्दारुचूडम् ।। ७२ ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य सतनसुरतरङ्गोत्तुङ्गशृङ्गारभणी नवनवयुवलीलानर्ममर्माणि तन्वन् । यदुपति रतिरङ्गप्रेमपीयूषवापी कृतरतिजलकेलिः कान्तयाऽसौ तयाऽऽसीत् ॥७३।। प्रिय इति सततानि तानि तन्वन् प्रियतमया समया स्वमेकयाने । नवयुवललनानि वेद मार्ग न गतमरिष्टपुरं क्रमात्समापत् ॥७४॥ इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेय-- पण्डितेशश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरनाम्नि महाकाव्ये वनविहारवर्णनो नाम नवमः सर्गः ॥९॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः स स्वयं विभुररिष्टपुरस्यो पद्वारं स्वशिबिरं विनिवेश्य । तच्चतुष्पथमपावृतवृत्याऽ लञ्चकार पदचारविहारैः ॥१॥ रोहिणी रुधिरराजतनूजा या स्वयम्वरवरे कृतसन्धा । तत्करग्रहमहे समुदीतं . ' राजकं स समुपेत्त्य ददर्श ।।२।। कोऽपि कण्ठमणिदीप्तिकदम्बे ... चुम्बितं स्वमुखबिम्बमुदीक्ष्य । अनसनतमनङ्गमिव स्वं मन्यमान इह मानमुवाह ॥३।। कोऽपि दर्पणकरः स्वकिरीट विच्युतं किमपि मौलिशिखाग्रात् । अध्यतिष्ठिपदहयुरखर्व गर्वपर्वतशिरः स्वमथायम् ॥४॥ लीलया सरसिजं स्वकरेण । . भ्रामयन्निह परो मुखलक्ष्म्या । स्पर्द्धमानमुपतर्य स नूनं तत्तिरस्करणमेव ससर्ज ।।५।। कस्यचिद्विकचवारिजजिष्णू राजशेखरमणेर्मुखपद्मः । चारुभात उत भङ्गुरभङ्गी विभ्रमैरपि च लोचनपा ॥६॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य कस्यचिच्चटुलवाक्चतुरस्य स्मेरपङ्कजसनाथकराब्जे । शालिनी मृदुलमञ्जुललक्ष्म्या किं न सम्मदमदं न विधत्ताम् ॥७॥ एककस्य मुकुटाच्छमरीची बीचयोऽन्यनृपतेर्हृदि हारः । कुण्डले श्रवणयोरपरस्या प्यद्भुताद्भुतरसं ननु गाते ||८|| कुन्दसुन्दररुचीनिचितश्रे- णीनिबद्धशुचिरागरहस्यम् । राजराजिरथ तत्कुलपक्षौ १९ तद्यशांसि जगदेकमुदेऽपि ॥ ९ ॥ कोऽप्यनङ्गमदघूर्णनपूर्णा दृष्टिमारचितसाचितरङ्गाम् । सन्निधाय विदधावनुलापं कण्ठलम्बितभुजो निजभृत्ये ॥१०॥ कश्चिदुन्नमितकन्धर एव प्रेक्षत स्वनववेषविभूषाम् । कोऽपि नागलतिकादलपूगं लीलया दशति मन्दमन्द्रः ॥। ११ ॥ इत्यवेक्ष्य यदुरद्भुतवेषं राजकं कनकपीठशिरः स्थम् । विधयाऽथ परिवर्तितरूपः स्वैरमेष निषसाद समाजे ||१२|| १४५ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तत्क्षणादवततार कुमारी रोहिणी रचितमङ्गलवेषा । आलिभिः परिवृताऽप्यथ मध्ये राजकं वरणदामकराऽसौ ॥१३॥ सा किमुज्ज्वलरसाम्बुधिवेला यौवनेन्दुकलयोद्वलितेव । स्मारचापसशिलीमुखमौर्वी कामिमानससरोजमराली ॥१४॥ चित्तभित्तिषु नरेन्द्रसभायाः पुत्रिका किमुदटकि नु टकैः । कामकारुविदुषा निपपे ते राजभिः स्वनयनाञ्जलिपायैः ॥१५॥ ॥ युग्मम् ॥ तत्सदस्यनृपवंशचरित्र स्फूर्तिकीर्तिगुणकीर्तनमस्याः । शंसति स्म शुचिसौष्ठवग: . वैत्रिणी पटुतमा पटुसूक्तैः ॥१६॥ . तत्तदुज्ज्वलकुलानि बलानि स्फारतारचरितानि नृपाणाम् । सुश्रुतान्यपि मुदे न नलिन्या-- श्चन्द्ररश्मय इवासुरमुष्याः ॥१७॥ पौरुषं कमनवत्कमनीयं रूपमद्भुतकलाकुशलत्वम् । ही विधिविघटयत्यखिलं तत् प्राणिनां व्यवसितं प्रतिकूलः ॥१८॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ यदुसुन्दरमहाकाव्य सूक्तयो जडिमभाजि सदस्येऽ थाञ्जनादिशिखरे शशिभासः । ऐयरुपगुणा विफलत्वं वैमनस्यजुषि राजसुतायाम् ॥१९॥ भूपभूमभगणेऽथ कथञ्चित् सातिग यदुकुलाचलचन्द्रम् । अद्वितीयमनघातमपश्यत् _पूर्वपक्षविमताविव तत्त्वम् ॥२०॥ रोहिणीव विधुबिम्बमखण्डं रोहिणी यदुमदूरतरस्था । प्रेममेदुरदृशा मदिराक्षी वीक्ष्य सम्मदमदं परमाप ॥२१॥ कोऽपि दृष्टिमहिमाद्भुतधर्मा संस्तुतानपि च तानवधूय । अप्यपूर्वपुरुषेऽत्र निमज्ज्या __नन्दसुन्दरपदं प्रमिमीते ।।२२।। सा तदा वरणदामसुकण्ठी कण्ठपीठ उपकण्ठमुपेत्य । यादवस्य निदधे विदधे तं वेध्यमाशु विशिखैविषमेषुः ॥२३॥ विद्यया विकृतविग्रहमेतं वीक्ष्य राजसुतया वृतमाशु । अक्षुभप्रलयवारिधिवत्त .. द्राजकं स्मयसमीरणकम्प्रम् ॥२४॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ पदमसुन्दरमरिविरचित अस्मकास्वहह सत्सु महत्सु क्षुद्र एष किमु राजसुतार्हः । वारलाऽर्हति मरालविलासा-- वच्छटो बलिभुजा न परीष्टिम् ॥२५॥ द्राक्तदेनमुपमृद्य बलेना च्छिद्यतां वयमुरीकराम । चक्रिरे प्रतिघदष्टनिजोष्ठा स्तद्वधोद्यममिति प्रवितयं ॥२६॥ अत्यहं किमु करग्रहकृत्यं स्यादिति प्रणिगदन्नृपवर्गः । सम्मिमेल परिवाह इवाब्धौ __ यादवप्रशमने हदिनीनाम् ।।२७।। तत्पदं जगति गन्तुमशक्ता दुर्जना हि महतामवहेलाम् । तन्वते द्युतिपतेरिव धाम्नां तामसद्विजकुलान्यमलानाम् ॥२८॥ सत्कलावति जगज्जननेत्रा नन्दने धवलयत्यपि विश्वम् । पूर्णिमाशशिनि सूचकदृष्टि लाञ्छनं पटुतया विवृणोति ॥२९।। मोदते शुकगिरा न बिडालो नो हरिमंगमदेन मृगस्य । ताण्डवेन शिखिनो मृगयु! किं गुणैः खलु खलस्य शससेः ॥३०॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य इत्यवेत्य यदुरद्भुतविद्याऽऽ विःकृतस्वचतुरनावलौघः । ढौकते स्म समरेऽथ विशक्कः कर्कशेषु मृदुता नहि नीतिः ॥३१॥ तत्र तेषु मगधाधिपतिः स्वान् दन्तवक्त्रमुखभूपतिमुख्यान् । आदिदेश हत राजगर्द्धि स्पर्द्धिनं द्रुतममुं समितीति ॥३२॥ संननाह मिलिताऽथ नृपाणां मण्डली यदुपतेरुपकण्ठम् । सोऽपि कार्मुकमधिज्यमभीकः __ संविधाय शरवृष्टिममुश्चत् ।।३३।। काण्डवद्भिरथ तैर्लघुहस्तं काण्डवृन्दमभिमुक्तमजस्रम् । स्वार्द्धचन्द्रविशिखैः सह युध्वा तश्चकतं यदुरन्तरतोऽपि ॥३४॥ स्राक्शराशरि परस्परमासी युद्धमुद्धतरुषां द्वितयानाम् । भूभृतामथ गदागद शस्त्रा शस्त्रि चास्यसि भुजाभुजि भीमम् ॥३५।। गन्धसिन्धुरघटाभिरथोभा ___ दन्त्यघाटि समदं तुमुलं तत् । गर्जितोर्जितरवैरिह तासां .. व्यानशे जगति शब्दविवर्तः ॥३६॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्नसुन्दरसूरिविरचित शौरिणा निजशरासनमुक्तै राशुगैरकृतमण्डपमुच्चैः । स्वीयकीर्तिलतिकोस्थितिहेतो विस्तृतं वियति लब्धवितानम् ॥३७॥ सादिनि प्रतिभटे युधि सादी __ स्याद्रथी युधि यदू रथिरोऽसौ । पादचारिणि च पादविहारी न्यायचञ्चुरकरोन्नययुद्धम् ।।३८।। वाजिपत्तिरथकुम्भिबलानां ___ वल्गतामिह बलादुभयेषाम् । प्रोच्छलद्बहुलधूलिवर्ते भूरुपागतवती दिवि मन्ये ॥३९।। द्राग्दिवाकरपरासनदक्षोऽ थादधच्चरणडम्बरमुच्चैः । वारिसंवृतिधरः परसैन्यं गाहते यदुबलस्य करेणुः ।।४०॥ ।। वर्णच्युतकम् ।। कोशव्यकौशसम्बन्ध मलीमसहृदाविलम् । बद्धमुष्टिं सदादाने कृपणं कोऽत्र नाश्रितः ।।४१।। ।। मात्राच्युतकम् ।। घृतकुन्ततोमरकृपाणा भासुरा ततपत्रिचञ्चुपुटकोटिकुट्टना । कृतवीरपानवरवीरविक्रमा किल राजति स्म समिदुभटैर्भटेः ॥४२॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य इह नन्दिनीवृत्ते प्रतिपादमाद्याक्षरद्वयपाते रथोद्धतावृत्तेन समरवर्णनम् ।। वर्णद्वयच्युतकम् ।। वृत्तद्वयश्लेषश्च ॥ लसत्कटकता तीक्ष्णा करजावलिवद्घना | राजत्याजीरजोराजी धूसरश्रियमाश्रिता ॥४३॥ ।। इह कण्टककरपादाब्दिन्दुच्युतकम् ॥ कुः काङ्ककङ्ककैकाकि काकिकाककुकैकिका | काकाङ्ककककाकाक ककाकुः कङ्ककाकका ||४४ || || एक व्यञ्जनचित्रम् । काकोलकालकङ्काल कीलालालककाकुला । कुः कालिका ललल्लोलेs लीका कलकलाकला | ४५|| || द्वयक्षरचित्रम् ! | स्वक्षुरप्रविशिखैरपि कस्य छत्रमन्यनृपतेस्तु पताकाम् | चिच्छिदे यदुरथान्यतरेषा मग्रहीन्मुकुटकुण्डलभूषाम् ॥४६॥ कोऽपि खड्गलतया निजकण्ठं लोठितं वरणदामवृतं च । अप्सरोभिरभितो मुदिताभि दिव्यपश्यदिह दिव्यशरीरः ॥४७॥ सङ्गता दिविजता दिवि नादं दुन्दुभेः सुरतरुप्रसवानाम् । वर्षणं कृतवती जितशत्रो मूर्ध्नि यादवपतेरुपरिष्टात् ॥४८॥ १५१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ पद्मसुन्दरस्वरिविरचित वीक्ष्य तत्र मगधावनिशको विक्रमं यदुपतेरसदृक्ष । स्वं पराजयमुवाच सशङ्को द्राक्समुद्रविजयं स्वजयाय ॥४९॥ प्रातिहारिकनरो जितकाशी कोऽप्ययं द्रुतममुं निगृहाण | यद्विडम्बयति विष्टपवित्र क्षत्र वंश्यनृपकीर्तिपताकाम् ||५०|| अष्टभिः सह समुद्रनृपोऽथाऽ भिक्रमं विदधते स्म सगोत्रैः । तत्प्रचक्र करिबृंहितसिंह ध्वानडम्बरितमम्बरमासीत् ॥ ५१ ॥ तत्प्रयाणमुरजस्वनझञ्झा - झाकृतिप्रसृमरप्रतिनादैः । मुद्रिताः सपदि दिग्गजकर्ण स्कारकोरकुटीतटदेशाः ||५२ || अभ्यमित्रमभिवीक्ष्य समुद्रं सैन्यपूरपरिभूतसमुद्रम् | स्वीयबन्धुजनसङ्घटनाभि -- र्यादवः परमसम्मदमाप ||५३ || दर्शयामि निजपौरुषमेषा मित्युदीर्य धनुषः स्वनितेन । आजुहाव समराय स वीरा शंसने सपदि वीरकरीरान् ॥५४॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य तद्वयोरथ मिथोऽधिकमिद्ध स्पर्द्धयोः पृतनयोर्मधमासीत् । सद्भटेन सुभटस्य च शस्त्रा शस्त्रि कावचिकभिन्नमहेभम् ।।५५।। ध्यूढकङ्कटभटः किल बाणै-- रिवाणभिदया क्षतवक्षाः । गन्धधूलिपृषतैरिह रेजे कुङ्कुमद्रवनिदिग्ध इवान्यः ।।५६।। काण्डपृष्ठ इह कश्चन व्ययितशस्त्रविभूतिः । धावति प्रतिभटं स्वशिरस्त्रं शस्त्रमेव कलयन्करलानम् ॥५७।। क्रन्दनैः प्रतिभयं यहेषा वेडया तुमुलमाकुलमाशु । सारसारसनबन्धकबन्धो. द्दण्डताण्डवमतीव बभूव ।।५८।। सिन्धुराम्बुधरगर्जितमस्र व्यूहवारिपरिवाहमुवाह । धन्वशक्रधनुषाऽसितडिद्धिः प्रावृषेण्यरुचिलक्ष्म मृधं तत् ॥५९।। सांयुगीनमथ जित्वरमेनं वीक्ष्य यादवममस्त समुद्रः । विद्यया प्रतिवलं स्वबलं त च्छस्त्रभङ्गुरवलं विषसाद ॥६॥ २० Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तावतैव कनकोपयमे यो ... लब्धदानविभवः स च बन्दी । व्याजहार यदुकीर्तिपताका कीर्तनं शृणुत रे जगतीन्द्राः ! ॥६१।। विद्याविक्रमरूपताऽद्भुतगुणैस्त्रैविद्यविद्याधर श्रेणीसर्वसुपर्वपार्वणविधुश्रीगर्वसर्वतषः । यः स्वैरी स्वभुजारणिप्रमथनप्रोद्यन्प्रतापानलैः प्लोषत्युद्धतवैरिवारवनिताहृत्काननानि द्रुतम् ॥६२॥ यो दर्पोद्भुरकन्धरानपि धराधीशान्मधे धीरधी धुर्यो धीरिमधुर्यधैर्यविधुरानिद्धो विधत्ते ध्रुवम् । सोऽयं शौरिरलं विलम्ब्य युगलेकर्मीण वीर्योऽवनी __पालास्तत्पदनीरजेऽस्य मुकुटै राजनं कुर्वताम् ॥६३।। बन्दिनेति गदिते निजनाम्ना मुद्रितं यदुरमुद्रितमुद्रः । श्रीसमुद्रपदयोः शरमने चिक्षिपेऽथ सशिरः प्रणमय्य ।।६४।। यः स्वैरं निरगात्खगेश्वरकनीरुद्वाह्य भूमण्डलं भ्रान्त्वाऽथ क्षितिपात्मजां च कनकां पीठालये पत्तने । तत्रातस्ततभूरिभूपतिगणे पश्यत्युपायंस्त स ___ स्वानन्दाद्वसुदेव इत्यभिधया नन्ता त्वदीद्वयम् ॥६५॥ वाचयन्निति समुद्र इवेन्, __ स्वानुजं समुपलक्ष्य समुद्रः । वेल्लितः प्रमदपूरतरङ्गैः सस्वजे श्रुतमिवार्थसमूहः ॥६६॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य यत्प्रभूष्णुरपि मूरिविनीतः कोविदः सुहृदि सौहृदशाली । सद्गुणः परगुणस्तुतितुष्टः प्राप कोऽपि भुवि भूषणभूयम् ।।६७।। इत्युदीर्य स समुद्रमहीन्द्र स्तं निनाय सविधं मगधानाम् । . वासवस्य स निरस्य रुषं त स्वागतं वपुषि वार्तमपृच्छत् ।।६८।। स स्वमब्दशतदेशविहार स्फारकौतुकविलोकनवृत्तम् । उज्जगौ सकलमप्युपराज तस्थिवत्सु निजबन्धुषु शौरिः ।।६९।। सम्भ्रान्तैरिह रोहिणीयदुपयोः स्निग्धैस्तदा बान्धवै ___ रुद्वाहो महता महेन विदधे सम्भूय भूयस्तराम् । सौभाग्यं सुभगस्य भाग्यमहिमप्राग्भारतावर्णितैः स्फारस्फूर्जदमन्दसम्मदसुधासान्द्रोमिपूराप्लुतैः ।।७।। सर्वे माङ्गल्यनादप्रसृमरपरमामोदमेदस्विनोऽत्र स्थित्वा कालं कियन्तं क्षितिपतिनिवहास्ते जरासन्धमुख्याः। जग्मुर्देशानथ स्वान्सह सहजनृपः कंसमुख्यैस्तदानीं सद्यः शौरिः प्रतस्थे निजपुरमवनीपालमालाऽभिवन्द्यः॥७१॥ इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितेशश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरनाम्नि महाकाव्ये विजयश्रीवरणं नाम दशमः सर्गः ॥१०॥ ॥छ।। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमः सर्गः स स्वसैन्यपरिबर्हसंवृतः सञ्चचार मथुरां पुरी यदुः । भूमिजानिरपि नद्धभूषणो भूषयन्परिधिचक्रवालताम् ॥१।। लम्भयन्स शिबिराणि सैनिकान्-- श्रेषयन्प्रसरणैर्द्विषत्पुरः । सज्जयञ्जनपदान्सदाश्रवा ___ नाजगाम पुरगोपुर क्रमात् ।।२।। इन्द्रनीलवलभीकचा यदु केतनाक्षतललाममण्डिता । पश्यतीव किल सौधमण्डली जालकीलितदृशा पुरीवधूः ।।३।। तोरणालिकलिताकपालिका शस्तयामुनजलौघसप्तकी । लोलवन्दनकलापकम्पिनी कामुकी यदुमिवाप्य पूर्वभौ ।।४।। तं कलिन्दतनयाऽम्बुजेक्षण र्वीक्ष्य वीचिरचिताकपालिभिः । तद्वियोगमिषमेचकच्छविः श्लिष्यतीव यदुमागतं चिरात् ।।५।। तां दुकूलकलिताट्टमालिकां यौवताध्युषिनचन्द्रशालिकाम् । वीथिकाततवितानशालिनी सौधमूर्द्धधृतकुम्भकेतनाम् ।।६।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य स्वस्तिकाजिरतलेषु मौक्तिक स्वस्तिकै रचितचारुमण्डनाम् । वद्धितो युवतिलाजमोक्षणैः प्राविशन्निजपुरी यदूद्वहः ॥७॥ ।। युग्मम् ।। जालकेषु पुरसुन्दरीदृशां निर्निमेषविनिपातकुल्यया । पीयते स्म यदुरूपचातुरी __ चारिमाद्भुतसुधारसद्रवः ॥८।। पौरनायनमरीचिभृङ्गता सङ्गता यदुमुखारविन्दजाम् । सुन्दरत्वमकरन्दमाधुरी नौज्झदन्तिकचरी सुपीवरी ॥९।। द्राक्कुमारनिपुणाः पुराङ्गना __ लाजमोक्षणपुरस्सराशिषः । कुम्भसम्भृतिकृतोरुमङ्गला स्तेनिरेऽथ जयशंसिनीयदोः ॥१०।। पारिजाततरुम मञ्जरी पिञ्जराः कुसुमपुञ्जवृष्टयः । विद्रुता दिविषदा जगश्रियो मूर्द्धनि प्रतिभुवो बभुर्विभोः ।।११।। काचिदच्छमुखचन्द्रचुम्बिनीं कान्तिनिर्भरसुधां यदुप्रभोः । संस्तवादपि निपीय कामिनी चन्द्रकान्तमणिवद्व्यदुद्रवत् ।।१२।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ पनसुन्दरसूरिविरचित पूःस्त्रियोऽथ कनकाऽऽननाम्बुजं लोललोचनशिलीमुखं मुहुः । स्वं निनिन्दुरुपनम्रकन्धरा वीक्ष्य रूपगुणरामणीयकम् ॥१३॥ सा वधूः पुरपुरंध्रिलोचन श्रीमसारमणिमण्डिता भृशम् । तां कनकनककान्तिभास्वरां - भासते स्म दधती तनुं तनुम् ॥१४।। यादवः कुसुममाल्यशेखरो मुग्धमूर्द्धधृतधर्मवारणः । चारुचामरवितानवीजितो __बन्दिवृन्दवचनोपबृंहितः ।।१५।। सृष्टमङ्गलविधि __वाद्यमङ्गलनिनादवद्धितः । जायया सह जयेति शंसितोऽ - भंलिहं स निजसौधमाविशत् ॥१६॥ तच्च निष्कुटतटस्फुटस्फुट ज्जातिकोरकविसारिसौरभम् । मेचकागुरुजधूपधूमतो द्गारिगर्भगृहजालजालकम् ॥१७॥ तत्क्वचिन्मृगमदागरुद्रव च्चन्द्रचन्दनजपक्कसङ्करम् । क्वापि कुन्दकुरुविन्दमालिका मेलकाञ्चितसचित्रभित्तिकम् ॥१८॥ पकसकरम् । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाव्य कुत्रचिद्रचितशा लिभञ्जिकालास्यहास्यकलितोरुमण्डपम् । कुत्रचित्कनककेतकीदला सन्महारजतराजिराजिता - मोदमेदुरिततल्पकल्पनम् ॥१९॥ भित्तयो रजतपट्टिकाभृतः । यस्य नैकविधघरत्नकुट्टिमा श्वाकचिक्कलिता भुवो बभुः ||२०|| यत्पृथग्विधमणिप्रभाभरे दर्शदर्शिततमांस्यपाकरोत् । चद्रकान्तकृत चन्द्रिकाऽमृतै स्तापताऽपनयनाय यत्तपे । २१ ।। शौरिसूनशयनीयवासितै— र्यस्य मायकुसुमोत्तरच्छदैः । भूमयः किल ललामभूषणी भूतभालफलका बभासिरे ||२२|| यत्र हाटकविटङ्कमङ्कजै रुज्ज्वलस्य निरटकि भूरिभिः । शिल्पिभी रतिपतिश्रुतोदित द्वन्द्वकेलिपरिरम्भविभ्रमैः ॥२३॥ अध्युवास किल नागदन्तकान् च्छेक के कि कलविङ्कमण्डली । यत्र जम्पतिरतोत्सवप्रथा कारिकाsस्ति शुकसारिकाद्वयी ॥२४॥ १५९ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित यत्र वैणविकणिकैः कृता । वेणुवैणरवतारझक्कतिः । गीतिरीतिरपि नात्रुटन्मृगो-- तुङ्गशृङ्गभरभङ्गिभङ्गुरा ॥२५॥ यत्र मौरजिकधोकृतिध्वनिः पाणिघस्य तलतालताडनम् । नाटकेषु विरराम न क्वचिद् व्यञ्जकस्य पटुवृत्तिचा तुरी ॥२६॥ तत्र सौधशिखरक्षणान्तरे संस्कृताभिनवमत्तवारणे । वृष्णिभूकनकयोस्तदा तदाविर्बभूव रतकेलिकौतुकम् ।।२७॥ ।। द्वादशभिः कुलकम् ।। दीपदीपकशिखोन्मिषत्विषो रेजिरेऽत्र किमु कामभूभृतः । विष्टपत्रयजप्रथोल्लसद् दोःप्रतापतपनस्फुरत्कराः ॥२८॥ हावभावललितास्तदा तयोः कामकामकमनीयकेलयः । प्रादुरासुरपि वा कृशाश्विनां ये विशारददृशां न गोचराः ॥२९॥ तां रिरंसुरथ सोऽप्यहर्दिवं पापमाप किमु तत्त्वविक्वचित् । ज्ञानिनां किल कलङ्कपङ्कता लिम्पते न विषयस्पृशामपि ॥३०॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य सद्विपाकफलितानि तद्विदां लेषहेतुरिव नाप्य तद्विदाम् । रिलष्यते हि हविषा यथा करः किं रसज्ञरसनाऽपि तावता ।।३१।। स्वस्वकालपरिणामसम्भवा कर्मजा किल विपाकवेदना । ब्रह्मशर्मदधतो नु तद्विदो भोक्तुरप्यथ रुणद्धि नो मनः ।।३२।। वस्तुनोरिह निमज्जतोभिदा स्त्येककेऽपि किल पङ्कसङ्करे । किं कनत्कनककिङ्किणी मृदि प्रावृतेव विरजीभवेत्कुशी ॥३३॥ साऽथ चाटुवचनैरुपाहृता शौरिणा निजभुजाकपालिभिः । कोपनेव न च तदिदशं तदा पश्यति स्म शयने पराङ्मुखी ।।३४।। संकथाऽर्थमुदिता न चाब्रवीद् भर्तृचाटुशतहारिहूतिभिः । पाणिकोकन दचुम्बितोऽथ सा मार्दवद्रुतमनाः किमप्यभूत् ॥३५।। वल्लभो निधिनिधये मोहितो मे हृदीति सुदती विचिन्त्य किम् । तं पुरःस्थमिति नादरिण्यभूद् बिभ्रतीतरधियं पतिव्रता ॥३६।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ पद्मसुन्दर स्ररिविरचित मानभङ्गुरतरभ्रुवा स्मरो धन्वभृद्वरतनोश्वलद् दृशा । काण्डवानथ च हुङ्कृतैरहो बाणराणिभिरुपासनं व्यधात् ||३७|| प्राक्चुचुम्ब तदलीकमानतं भीरु ! चारुवदनं विमुद्रय । इत्युदीर्य निजपाणिनोद्धृतं तन्मुखं स दरशङ्कितः पपौ ||३८|| शातकुम्भनिभकुम्भसम्भृतिः कण्ठदाम ननु काममर्हति । इत्यनूध निजकण्ठकन्दली हारमेतदुरसि प्रभुर्न्यधात् ।। ३९ ।। नीविचुम्बि करकुमलं यदोः साऽरुणत्स्वभुजवल्लिवेल्लनैः । त्वत्सखीजन इवाम्यहं ततः स्वाङ्गमङ्ग किमुतापलप्यते ||४०|| स ब्रुवन्निति तदाच्छिनतदा नीविबन्धनमुद्रीत सम्मदः । तावकोरुकदलीपरिष्टितां मत्करो नु विदधातु पातुकः || ४१ ॥ बाधितोऽस्मि सुतरामुदन्यया तत्पिपासुरधरामृतं तव । उन्नमय्य मुखमित्यवेक्ष्य स स्वादु तन्मुखसुधाविधामधात् ॥४२॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १६३ क्षीय एष वदनासवात्तव स्वावदंशदशनं समीहते । संलपन्निति ददंश चाधरं मत्तमत्त इव विभ्रमं दधत् ।।४३।। त्वन्मुखस्य भृतिभुक्पुनर्जनो भृत्यकृत्यकरणाय कल्पते । तत्त्वदूरुभुजवत्समर्दनं सम्प्रतीति करवाणि वाणिनि ॥४४॥ स्थातुमेनमनिरीक्ष्य नाददात् सुभ्रुवो रतिपतिनं च पा । वीक्षितुं वरयितर्यनारतं तदृशौ विदधतुर्गतागतम् ।।४५।। सा तदोन्मिषितमेव सम्मदाद् बीडया निमिषितं च बिभ्रती । सङ्कुचद्विकचसूनशालिनी सालिनीव नलिनी विविद्यते ।।४६।। स्वालिभिः कथमिवोपवेशिता सिमिये स्मितवति प्रभौ न सा । जल्पति स्म न च जल्पति स्मयात् सा च साचिवदना स चुम्बति ।।४७।। शायिताऽथ शयने विनियंती साऽऽलिभिः सहचरी सहान्वगात् । नो सनीडमभजत्सभाजिता पर्यभावि स तयाऽन्वभावि च ।।४८।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तां सिसान्त्वयिषति स्म सान्त्वनैः स प्रियः प्रियवचो निमन्त्रणैः । कामकामपरिरम्भलम्भने रानयन्निजवश वशंवदः ॥४९॥ हीपिधानपिहितेन कुञ्चित स्वौजसा सितमथ स्मराग्निना । तेन रुच्यचटु वाग्विमुद्रणो न्मुद्रितेन झगिति प्रजज्वले ॥५०॥ मन्मथतशतेष्वधीतिना सा क्रमेण यदुनाऽन्वनीयत । स्वं धनुः स्मरधनुर्धरः प्रिया वीडया सह मनागनामयत् ॥५१॥ निस्तलत्वमयि ते स्तनद्वये हारशुक्तिजकणेऽथवाऽधिकम् । पश्य भीरु ! करवै परीक्षणं तन्निगद्य कुचमार्जनं व्यधात् ॥५२॥ कुङ्कुमणमदचर्चिते कुच द्वन्द्वशम्भुशिरसि न्यधापयत् । पाणिशूकशकलेन्दुरेखितं भूष्य औपयिकमेव भूषणम् ॥५३॥ सद्वयोरथ मिथोऽभवद्भुज द्वन्द्वगाढपरिरम्भविभ्रमः । न्यग्बभूव गिरिजागिरीशयोः पूगनागलतयोविचेष्टितम् ।।५४।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १६५ तां वुभुक्षुरथ सम्भुजिक्रिया माचचार पटुचाटुचञ्चुरः । आविरास मणितोपसङ्कुल प्रक्वणत्कनककिङ्किणीरवः ॥५५॥ स्विद्यति स्म विधुबिम्बमम्बर तारकाविलुलितं व्यभासत । सुप्तसूननलिनीव मुद्रिते न्दीवरेव सरसी रतिस्तयोः ॥५६।। विद्रुमस्यललितैर्नु विद्रुतं मन्दितं मलयमन्दमारुतैः । कोकिलस्य किल काकलीरवै मुद्रितं समभवद्रतं हि तत् ॥५७।। सा प्रबुद्धतरबुद्धिवैभवा कामकेलि कलहटत्तरम् । तारहारमपि वेद नो चिरात् स्वेदबिन्दुपदतुन्दिले हृदि ।।५८॥ सुन्दरा अपि सुवृत्तशालिनः शुक्तिजाः स्वगुणवैभवच्युताः। सुभ्रु ! वो हृदि न शेकुरासितुं तद्गुणो हि महिमानमर्हति ॥५९।। शौरिदत्तनखरक्षताकितं __ तत्तदूरुयुगलं प्रशस्तियुक् । स्तम्भयुग्ममिव हैममद्युत द्रगोत्रज नु रतिकामयोरिदम् ॥६०।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पद्मसुन्दरसूरिविरचित सा मुहुर्मुहुरुदीक्ष्य भर्तृजै रङ्कितं नखपदैः कुचद्वयम् । सस्मितं च यदुमप्यसूयया कुञ्चितकुटिभेव चक्रुषी ॥ ६१ ॥ आकलय्य स च तां तथाऽब्रवीत् क्षन्तुमर्हसि न मन्तुमद्य मे । कोपलोपनकृतेऽथ कोपने ! त्वन्नखव्रणितमस्तु मे वपुः ।। ६२ ।। सुभ्रु ! किं न घटते पयोधरे शक्रचापमिव मन्नखाङ्कनम् । तन्मयेति विगणय्य निर्ममे कोप एष यदि तेऽस्त्वनुग्रहः ॥६३॥ त्वद्रते विदुषि ! खण्डशर्करा - माधुरीपरिणते स्पृहाकरम् । तन्मिथो नखविलेखनं कटु - स्वादु किं न मरिचावचूर्णनम् ||६४|| किन्तु मन्तुकर एष मे करः किं न ते व्यजनवाहनाकरः । किङ्करः वलमभरालसेक्षणे ! स्वापराधशमनाय नायकः ||६५॥ व्रीडनीडशरणं तवोचितं साध्वि ! साधु मम नव्यसङ्गमे । सोऽहमेव निरपत्रपो मुहुः प्रार्थये त्वदनुषङ्गनर्म यत् ||६६ || Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १६७ घूर्णमाननयनं श्लथालकं हीतमुत्पुलकमस्तयावकम् । तत्प्रियामुखमुदीक्ष्य संलपन् सान्द्रशर्मजलधौ ममज्ज सः ॥६७॥ त्वत्कटाक्षविकटायितक्षणो मत्सुधारसनिमज्जनक्षणः । यत्प्रसादविशदोक्तिताण्डवं चण्डि ! मे विजयडिण्डिमायितम् ।।६८॥ यस्त्वदीयपरिरम्भसम्भ्रमः सार्वभौमपदलम्भन मम । यस्त्वदङ्गरतरङ्गसङ्गमो ब्रह्मशर्मपदसम्मदोदयः ॥६९॥ या त्वया मयि भृशं ममत्वधी धीयते सुदति ! सा मया त्वयि । नेति चेन्मम शिरःशिखामणिः पादयोः स पतयालुरस्तु ते ॥७॥ इत्युदीर्य पतितेऽथ पादयोः प्रेयसि स्वपदपङ्कजं प्रिया । सजुगोप पतिमस्तकं मुदा हस्तयोरधृत चुम्बितालिकम् ॥७१ ।। तं कृतार्थयति सा स्म सस्मर स्मेरसान्द्रकिलिकिञ्चितद्रवैः । तत्प्रियप्रणयमेव जातुचित् सान्तरायमकृतान्तरान्तरा ||७२।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पद्मसुन्दरसूरिविरचित साङ्गरागकलिताङ्गवासना भूषणांशुकचयैः पृथग्विधैः । नित्यमेत्यथ नवोढसुन्दरी विभ्रमं स्म दधती हृदीशितुः ॥७३॥ जातुचित्प्रणयिनि प्रियार्थनां कुर्वति व्यधित सा स्ववामताम् । कोपरोपिणि च सानुकूलता मातदीहितमथो व्युपारमत् ॥७४॥ - तं च कोकनदचुम्बिषट्पद श्रीधरं तदधर विलोक्य सा । सिष्मिये स्मितनिदान पृच्छक प्रत्युवाच मुकुरार्पणात्करे ||७५ || यस्तदीयमणिमण्डनैः क्वचित् सन्तुतोष विषसाद स क्वचित् । वल्लभः स्फुटतदङ्गरोचिषां सन्दिदृक्षुरपिधाविधायिभिः ॥७६॥ तत्त्वदङ्ग परिरम्भचुम्बना कामिनीं स चकमेऽथ कामुको स्वादवीक्षणरतोत्सवद्रवैः । नासकृत्क्वचिदवाप तर्पणम् ॥७७ || इत्थं निर्भरचा टुगर्भवचनैराश्वास्य विश्वासिनीं तामुद्यतमसान्द्रसम्मदमदो रामां स चारीरमत् । तौ सान्द्रद्रुमकाननाद्विशुषिरप्रासादभूमीरत व्यायामस्मरहारिहासललनैः सान्द्रा भृशं चक्रतुः ||७८|| श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरु इति विनेयपण्डितेश श्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरनाम्नि महाकाव्ये कनकानिधुवनं नामैकादशः सर्गः ॥ ११॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वादशः सर्गः ॥ रणरणकतः सायं सायंतनीं सुषमां यदुः __ प्रसृमरतरां प्रक्षाचक्षुर्निरीक्ष्य स चक्षुषा । करिपरिलसत्सिन्दूराभां तभिरविमिश्रणा . दिव नववधूं नीत्वोपालोकयत्सविधं च ताम् ॥१॥ अरुणतरुणः स्फारस्फारैः करैरनुरागवान् वरुणककुभं कान्ते ! कान्तामुपाश्लिषदलथः । नवधवपरीरम्भारम्भादिवोत्तमकुङ्कुम द्रवनवरसैदिग्धा मुग्धा विभात्यपरावधूः ।।२।। इह हि मिहिरः पायं पायं भरादिव वारुणी स्वरुचिविभवं दायं दायं कृशानुकृशाश्विने । प्रथयतितरां तैलम्पातां . तमिस्रकणान्किरन् स्खलितललितक्रीडाब्रीडागतं दधदम्बरे ।।३।। तरणितरुणश्लेषे सैषा विशेषलसत्तम श्चिकुरनिकरेऽमुष्मिन्नायल्लकं किल लोहितः । द्युतिपरिकरैः प्रत्यक्काष्ठा नवोढवधूरहो सुदति ! दधती शोभारम्भं बभार निभालय ॥४॥ दशशतकरोऽप्युच्चैयाधामतोद्धतधामभि र्धवलितधरो ध्वान्तध्वंसी प्रतापपरंतपः । अपि विधिविधौ वामे ! वामेतरव्यवसायधी रजनि रजनिप्रारम्भे हा रविः स गलच्छविः ॥५॥ दिवसकरिणं सन्ध्या सिंही जघान सपद्मकं प्रखरनखरैरस्तक्ष्माभृच्छिरस्युदगादियम् । दिवि भृशमसृग्धारासारप्रवाहपरम्परा विदुषि ! विदुजास्ताराकराः स्फुरन्त्यथ शुक्तिजाः ॥६॥ २२ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित नय नयनयोः पद्यां सन्ध्यां नरीनृतती नटी .. मरुणसिचयाकल्पां रङ्गाङ्गणे सुरवर्त्मनि । अयि परिलसत्ताराहारावलीरजनीकर-- स्तरलिततरां तस्या भूषा विलोलविलोचने ।।७।। निकषमिषतां बिभ्रत्यस्ताचलस्तु शिलातले द्रुतकनक पिण्ड क्रीत्वा विकर्तनमण्डलम् । जलनिधिरये दत्ते साक्षात्परीक्ष्य पितृप्रसू हुतभुजि नभोहस्ते तारावराटककोटितम् ।।८।। इदमयि ! वियत्स्वर्गङ्गायाः प्रवाहपरम्परा विलसतितरां यस्या यादास्युडूनि चरन्ति हि । मकरमिथुनग्राहाः सध्यंकुलीर इतोऽप्सरः सवनधुवनत्रासादासादितानि निमग्नताम् ।।९।। अजनि रजनी योगिन्येषा सुसिद्धिमती ध्रुवं कमनमजिजीवद्या पद्माकर सममूमुह्त् । जगदपि खपुष्पीयत्ताराऽनुकारि विभूतिभि निरधिकरणं दृष्टादृष्टाभिराभिरदीदृशत् ॥१०।। प्रणयिनि ! वियद्गङ्गारङ्गद्रथाजनितम्बिनी--- कुलविरहजाश्रूणां मन्ये गलज्जलबि. दवः वियति विचरन्तीमास्ताराः स्फुरत्तरमौक्तिक __ भ्रमभरभृतो धारास्तासामनुक्रमसङ्कमाः ।।११।। सुरमिथुनताव्यामोहाय प्रसूनशरस्य किं प्रहितविशिखाः संलक्ष्यन्ते विहायसि तारकाः । प्रतिफलतु वा पञ्चेपूक्तिः प्रपञ्चनिरुक्तिका । श्रुतपथि यथारूढा पञ्चाननध्वनितार्थता ।।१२।। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य दिवसकलितालित्वव्यापादनादतिरंहसा दिशि दिशि तमःपारावारस्त्रिविष्टपमानशे । इह हि मलिनाः प्रायः सीमक्रमव्यतिलङ्घना न्मलिनमलिनाचाराः स्वैरं चरन्ति विशृङ्खलाः ॥१३॥ प्रसरतितरां प्राचीमूलारिकमभ्रमुवल्लभ स्फुटकटगलद्दानोद्दामप्रवाहभरस्तमः । दशशतकरस्तब्धः किं वा रवेः परिभावतो गगनभवनाभोगः सद्यः पपात भुवस्तले ॥१४॥ उपरि लसति न्युजे शालाजिरप्रतिमेऽम्बरे दिनमणिदशाकर्षज्वालावलिभ्रमिभिधृता ।। विगलति गुरुभूय ध्वान्तं तदञ्जनपुञ्जजा प्रसृमरतरा व्यालुम्पन्ती जगज्जनितार्थताम् ।।१५।। सुतनु ! जनतागावः पर्यायताव्यवधाभिधाः __ स्वयमधिकृतैर्गासाहौरनायिषतामुना । तदवतमसान्नांध्यं गोस्वामिना सह नेति चेद् । नयनविषयं कस्माल्लोको घटादि न चेक्षते ॥१६॥ अयि ! परिचितास्तारैस्तारैः प्रसूनशरेषु नि-- गमदनिभैवन्ति दिग्धाः स्फुरन्त्यसिताम्बराः । निशि शशिवियुक्तायां मा भूमयि त्वमसूयिनी किमपि हि समन्दाक्षा मन्द दिशोऽप्यभिसारिकाः ।।१७।। तमसि तदलं द्रव्यत्वादिव्यवस्थितिसन्धया मतमतितरामौलूकं तत्परीक्षणताक्षमम् । अयि ! किल कुलं नोलूकानां प्रकाशयति स्फुटं जगति सकलं वस्तुस्तोमं तमोनिचितेऽपि हि ।।१८॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पद्मसुन्दरसूरिविरचित तम इव निजारातौ घने पदार्थगणस्य किं प्रतिपदचरीश्छायाचारीः प्रचारगवेषणे । निखिलभुवने मन्ये प्रावेशयत्तदिति प्रभौ गदति झगिति प्राची किर्मीरितांशुभिराबभौ ॥१९।। कुमुदवदने ! स्वभ्रातृव्यप्रशस्तिमसासहिः किमु कुमुदिनीकान्तः प्राचीमुखादुदगादिव । तदयमदयं शोणः क्रोधादिति स्वकरोत्करैः किल विघटयन्विश्वद्रीची तमोरिपुसन्ततिम् ।।२०।। कुचगिरितटीदुर्गे मानःस्फुटे मयि मानिनी जनहृदि किमद्यापि म्थेयान्क्रुधेत्यरुणो विधुः । विकचवदनाभृङ्गश्रेणीलसत्करवालिकां __ प्रसृमरकरः कर्षत्युच्चैः सुकैरवकोशतः ।।२१।। उदयशिखरिप्रस्थोच्छायच्छलप्रतिसीरया व्यवहिततनुश्चन्द्रश्चञ्चच्चकोरदृशोरपि । विकिरति सुधाधारासारानिव स्वकरैरयं कुमुदविशदस्मेरा दृष्टिं प्रसादय सादरम् ॥२२॥ हरिहयहरित्कुम्भीन्द्रेण स्वसोदरताधिया शिरसि विधृतः सिन्दूरेणारुणो विधुरुद्गतः । किमु सुरववधूवृन्दैबिग्वं तदीयमचुम्बि तैः ___ स्ववदनतुलारागाद्यावद्रवारुणिताधरैः ॥२३॥ निविडरजनीपीतं व्योम क्षणाक्षणदाकर द्युतिभरसुधाव्यासङ्गेनारुणत्वमवाप यत् । स्वकरकठिनीघर्षेः सम्मार्जयन्नमृतद्यती रजनिरचितां ध्वान्तस्योडुप्रशस्तिमदीदिपत् ॥२४॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यसुन्दरमहाकाव्य दिनमणिमणि सायाह्नस्तु प्रतारणतापटुः सुरुचिरुचिरं क्रीत्वा व्योम्नो व्यतीतरदेष यम् । कृतककनकं चान्द्रं बिग्बं जहाति सहा स्वयं स्फुटमरुणतां पाण्डुच्छायः क्रमाद्रजतीभवन् ।।२५।। प्रथममभवन्सायच्छायासुकुङ्कुमपङ्किला स्तदनु च तमःकस्तूरीभिर्विभूषितविग्रहाः । सुदति ! विचरच्चञ्चच्चन्द्रद्युतिव्यतिचुम्बिते रिव शुशुभिरे काष्ठावध्वश्चिता हरिचन्दनैः ।।२६।। विधुमणिविधादुग्धे मुग्धे ! विवर्द्धयितुं विधु जलनिधिमपः कोकीशोकाकुलेक्षणमण्डलीः । निजकरसुधाऽमन्दस्यन्दप्रवाहमरहयत् फलति हि सतामृद्भिः पूज्यक्रमापचितिक्षमा ॥२७॥ तपनतनयापूराकारे विहायसि चन्द्रिका त्रिदशतटिनीवाहव्यूह। व्यगाहत तत्र च । सुचरितपदे वेणीसङ्गे निमज्ज्य दिवंगताः किल सुकृतिनस्ताराकारा धुवं विनिमीलिताः ।।२८।। तिमिरगरलास्वादादेता निमीलनतामिता __ निजकरसुधासेकैराशावधूः समजीजिवत् । विधुरथ नभःपारावारेऽन्तरीपनिभो बभौ प्रसरविसरज्ज्योत्स्नाजालस्फुरज्जलपूरिते ॥२९।। सुरपथसरःपूरे ज्योतिर्वलज्जलसम्भृते किमपि मुकुलैस्तारैः श्यामालताश्रियमावहत् । नलिननयने ! शके पङकेरुहश्रमविभ्रम शशधर इहाधत्ते हासप्रकाशनसौरभः ॥३०॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित हरगलगरवालाशान्त्यै कलामपि षोडशी व्यतरदनिशं पीयूषान्धः सुपर्वगणाय यः । जगति जनताजीवजीवेक्षणाय घृणिच्छटा: सुरतरुतुलां कैः कैरंशैनिजैन विधुव्यंधात् ।।३१।। जठरनिहितस्या कन्यकोर्वधाय नु सिंहिका तनय उदित भूयो भूयो जघास विधोर्वपुः । अपि निजतनुग्रासान्नासावदान्निजमङ्कगं प्रमुदितहदा तेनेत्येव व्यमुच्यत स ध्रुवम् ।।३२।। कुमुदवनजाहासद्योतिद्युतिः किल कौमुदी न यदि शशिनि प्रत्यक्ष वा दिवा किमु नोदिता । ननु नयनयोः सध्रीचीयं चकोरपतत्त्रिणा मयि जलनिधेर्धकुंशस्याथ ताण्डविकाऽपि का ।।३३।। पितृगुणतुलां धत्ते पुत्रः सतीति जनश्रुतिः खलु जलनिधेवृद्धिहासौ सितासितपक्षयोः । स्वयमनुपदं वोढा वंश्यः स एष सुधाकरो धुरि किल कलापारीणानां कलानिधिरित्यभूत् ।।३४॥ क्वचन विशदज्योत्स्नाच्छाया क्वचित्प्रविज़म्भते जनकजनितं जन्ये प्रायो लसत्युपलक्षणम् । इह धवलिमा मुग्धा दुग्धाधिकस्य सुधानिधे-- यदिति सितिताकिरित्वं कलङ्कजमङ्कनम् ।।३५॥ विधुरिति सुधैवासीदाप्यायनाय सुधाभुजां ___ मखमुखहविर्दानादुन्नीयतेऽच्छतरच्छविः । इह हि कियदप्यक्के पङ्क शशाङ्कमुखि ! ध्रुवं विलसतितरां साक्षात्तत्प्रोक्षणक्षणजं हृदि ।।३६।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १७५ रजनिरजकी चन्द्रागाधहदामलचन्द्रिकाप्रसरविर यत्सकलाम्बरम् । तिमिरनिकरच्छायानीलीमलीमसमातत-- स्मरहरशिरःसिन्धूतानप्रवाहसहोदरः ॥३७।। कुमुदनिकुरम्बाणामारूढयोगिपदस्पृशां किल विदधतामन्तर्मोदं जडेषु विरक्तताम् । अयि ! सुरवधूर्योत्स्नी ताराकटाक्षशशिस्मितै श्चिरपरिचिता ज्योत्स्नाकल्पैर्बभञ्ज समाधिताम् ।।३८।। ननु सहगतः शुभ्राङ्गत्वं बिभर्ति तमिस्रया शितितनुविधामेप ज्योत्स्नी निशाऽथ निशाकरः । असितसितयोः शोभाभूत्यै कृशोदरि ! पक्षयो-- गैदति हि बहिर्बुद्धिलॊकस्तमऋविटक्कितम् ।।३९।। यदि स भगणानेकीकृत्य प्रगल्भतया विधि घटयति विधुं नव्यं तद्व्यञ्जयत्यकलकितम् । अधरमधुरास्वादं साक्षात्त्वदास्यसुधाकरं कथमिव तुलां धत्तां चन्द्रः कलङ्कविडम्बितः ।।४।। विधिरिह गुणानादात्सौधाकरादपि मण्डला न्मुखविधुविधौ यत्ते दोषाकरोऽयमभूत्ततः । अनुशशिमृगात्सारं नीत्वा त्वदक्षियुगं व्यधात् स्थित इति गताक्षोऽसौ तस्मिन्निरस्य भवन्मुखम् ।।४१।। मुखमिति सुधासारं यत्ते विधिनिरमात्ततः खलु खलकृतं पिण्डं तस्यावशिष्टमखण्डितम् । स किल सकले लोके ख्यातः शशाङ्क इति स्फुट कलय सकलं विम्बं पङ्कच्छविच्छलपिच्छिलम् ॥४२॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ पद्मसुन्दरसरिविरचित प्रथयति करानादित्सुस्ते मृगाक्षि ! मुखप्रभा विधुरथ दिवा फुल्लाम्भोजान्करानपि पद्मिनी । सुषमसुषमेऽप्येकत्रार्थ द्वयोः किल लुब्धयो रिति कमलिनीतारापत्योस्तदास सपत्नता ।।४३।। न भगणपरीवारो नामुं महौषधयः स्त्रियः किमपि च जरामृत्युच्छेत्री सुधा न सुधाकरम् । द्विजपरिषदामाशी/जी न वा सरिताम्पतिः क्षयसमयतस्त्रातुं कोऽपि प्रभूष्णुरभुन्नहि ।।४४ ।। अयमथ तमिस्रायामेकादशापि कला निजा विसृजति शशी रुद्रेभ्योऽथ स्मराय च पञ्च ताः । शरधिविधये कृत्वा भूतिं स्वकामिति पात्रसा न्मुहुरलमलञ्चके स्वाभिः कलाभिरिलातलम् ।।४५।। शशधरसुधाकुण्डादकस्फुरच्चषकक्षिपां नभसि भगणो वध्वापानोऽमृतस्य सपीतये । कलयतितरामच्छातुच्छस्फुटस्फटिकोपल प्रघटितदले शके पङ्केरुहाक्षि ! निरीक्षसे ॥४६॥ किल कमलभूर्वक्त्राम्भोजं त्वदीयमिदं यतो __नयननलिनद्वन्द्वाधानात्प्रतीक्ष्यमपूजयत् । तदिति शशिनो म्लानिच्छायामषीकलुषं मुखं नहि शशमृगाद्यकाशङ्कालवः प्रमिमीमहे ।।४७।। अयि ! कुमुदिनीभर्ता स्थाने चकार करग्रह सरसिजकराग्लेषादेषा जहास कुमुदती । नवधवपरीरम्भामोदप्रमोदभरदवत् तरमधुरसस्वेदार्दाि तनूमनुविभ्रती ॥४८॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १७७ अविरततमः पौरोभाग्य समीक्ष्य सुधाकर तदिति सुदति ! ग्रासत्रासात्तवाप सुधाधरम् । अरुणिमपुरस्कारादारात्सितत्वमपहनुते सुमुखसुषमास्पर्धागर्दी विधुः किमु दुर्विधः ॥४९।। विकिरति करैः पीयूषांशुःसुधा स्वसुधा विधां __स्वदधरसुधां मुग्धे ! मुग्धां विलोक्य मुहुर्मुहुः । हृदयविलसन्मुक्ताहारस्फुरत्तरलद्युति प्रतिकृतिमिषात्सेवाहेवाकितामिव दर्शयन् ॥५०॥ शशधरसुधासारस्फारस्फुरज्जलविज्जले हरिहयखुराकारास्तारा न भान्ति नभोगणे । तव मुखतुलां भूयो भूयो विधाय विधिविधुं । व्यघटयदमुं दर्श दर्श गुणैरनुकल्पितम् ॥५१॥ मनसिजसितछत्रं रत्याः स्फुरत्करकन्दुकं त्रिदशतटिनीफुल्लाम्भोजं निशाहसपुञ्जितम् । शुचितरसुधाकुम्भं काष्ठाऽङ्गनाऽऽननदर्पणं गगनतिलकं सान्द्र चन्द्रं निभालय भामिनि ॥५२॥ सुतनु ! वितनु स्मेरां दृष्टिं त्वदाननपङ्कजा __ बहुतृणमसावेणश्चन्द्रं मरीचिकया मृशन् । तत इह विशश्रामाश्रान्तं सुधामरुमण्डली तरलितमनाः प्रायोऽऽहार्यः पशुभ्रमविभ्रमः ॥५३।। विधिरथ सुधासारं मुग्धे ! विधाय तवाननं स्मितविलसितज्योत्स्नाजालप्रसादसदोदितम् । स्वकरकमलद्वैतप्रक्षालनप्रगलत्सुधाऽs विलजलमयं चन्द्रं मन्ये चकार निकारतः ।।५४।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पद्मसुन्दरसरिविरचित अथ निगदति प्रेयस्येवं प्रियप्रमदा मुदा नयनमनयन्निद्रामुद्रावशं भृशजागरात् । कृतदृढपरीरम्भारम्भौ मिथो मिलिताधरौ द्रवदभिनवामन्दानन्दाविमौ च निदद्रतुः ।।५५।। प्रियसहचरीपीनोरोजस्फुरत्तरपत्रता स्वकरिमकरीमुद्रीभूतस्तनान्तरमण्डलः । विभुरिह बभौ पर्यकाङ्के मिथः श्वसनानिल व्यतिकरमिलद्रूपं द्वन्द्वं सुखं तदसू षुपत् ।।५६।। निशि शशिरुचा यान्त्यामान्त्यां दशामथ तारका स्तरलतरलच्छायामायामिता व्यगलन्निव । हरिकरहरित्रासादासादितश्चरमां दिशं तिमिरकरिराट् कामं कामं मरुत्पथकाननम् ॥५७।। अथ कथमपि प्रेक्षाचक्षुर्विवक्षितविग्रहाः कुशलकुशलारब्धा दृब्धा गुणैरिव मालिकाः । स्फुटमतितरामेते वैतालिका जगदुगिरो यदुकुलपतेर्जागर्यायै प्रचारपुरस्सराः ॥५८।। जय जय जगज्जैत्रक्षात्रान्वयाम्बरचन्द्रमः स्वरसविसरत्कीर्तिज्योत्स्नाप्रसादितविष्टप । सुमुखसुषमा भग्ना मग्ना कलङ्कनिषद्वरे मलिनमलिनच्छायां त्वत्तो दधौ विधुमण्डली ॥५९।। सुररिपुरिपोर्वक्षो लूताऽऽतपत्रितकौस्तुभं सितबिसलतातन्तुच्छन्नं स्वपक्कजमन्दिरम् । विधुमथ जही मत्वा लक्ष्मीः शिलीन्ध्रमिवासनं तव यदुपते ! स्थाने स्थेम्णा कराम्बुजमाश्रयत् ।।६।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य धुमणिकिरणस्फूर्तावुन्निद्रतां नयनद्वयी नलिनवनतास्फारामिन्दिदिरैर्दधती तुलाम् ।। पियसहचरीनेत्रापातैर्निपीतरसा रसा द्भवतु भवतः शय्योत्थायं प्रमोदविभूतये । ६१॥ शतमखशचीद्वन्द्विकान्तव्यवायविवर्तन ___च्युतसुमनसस्तारास्तारा नभस्तलिमे बभुः । अशकलशशी गण्डाभोगोपबर्ह मिहार्हति प्रसृमरकरस्तोमक्षौमोत्तरच्छदतां दधत् ।।६२।। शिशिरकिरणे रन्तुं याते जलेशदिगङ्गनां व्यपगतवसुः सोऽयं चक्रेऽनयाऽपि कलानिधिः । इति हरिहरिददर्श दर्श' जहास विकासिनी परिभवपदं प्रायोऽस्वीयः परिग्रहसमहः ॥६३॥ तरणितरुणः प्रातःसन्ध्यां विवोढुमिवारुण __ प्रतिसरकरः संबिभ्राणां सुमङ्गलमण्डनम् । परिसरलसज्ज्योतिर्लाजाहुतिं दधतीमिमा मरुणिमबृहद्भानौ सानौ किलोदयभूभृतः ॥६४।। विबुधमिथुनानङ्गक्रीडात्रुटच्छतयष्टिक प्रेकरविकिरन्मुक्ता मुक्ता जवादुडुसंहतीः । इह बहुकरैः सम्माष्टिं स्म ध्रुवं गगनाङ्गणे ___ दशशतकरः प्रातः प्रीतः शतक्रतुनोदितः ।।६।। हरिहयपुरस्तारादीपाक्षतैश्च तमोरुहा शवलकवलैः मृष्टातिथ्यो घनाश्रयसज्जनः । वितरित शशिग्रासं भूयस्तरामुदसकतुजं प्रसरविसरत्पाद्यं ज्योत्स्नाजलं परिशीलयन् ॥६६॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० पद्मसुन्दरसूरिविरचित अशिशिरको रोषाददोषां जघान निशापतौ गलितहास ध्वस्ते निस्तेजसि सङ्ग्रहे । शितितमतमः केशग्राहं ननूदयभूधरे तदरुणमसृग्वाहं संवावहीति हरेर्हरित् ||६७।। रजनिरजनिक्षिीणा तारा विनेशुरथ क्षणा दपि कुमुदिनी निद्रामुद्रां नितान्तमुपेयुषी । द्रुतमपि नयत्सान्द्रश्चन्द्रः प्रियाविरहाद्द्भुत - स्तदयमदयोऽथाश्मः साक्षात् ध्रुवं प्रमिमीमहे ॥ ६८॥ मिहिरहरिणा ध्वान्तोदामद्विपः स्वकरोत्करप्रखरनखरैर्भिन्नस्तत्कुम्भजैर्ननु शुक्तिजैः । नवकुशशिखा सूचीप्रोतैस्तुषारकणैरियं सृजति निजकं हारं सन्ध्या नवोढवधूरिव ॥ ६९ ॥ करशरभरक्षेपाद्रात्रौ तमः सहयुध्वना रजनिपतिना खेदक्षीणौजसोषसि मन्दितम् । उषितममुना स्वांशभ्रंशाद् गिरीशजटाच्छा त्रिदशतटिनीतीरच्छायातरुव्यतिषञ्जनम् ॥ ७० ॥ — उदयतितरां धर्मज्योतिः कलानिधिरस्ततां व्रजति कमलान्युज्जृम्भन्ते निमीलति कैरवम् । प्रियमतिरसात्कोकी कोकं वृषस्यति तामस द्विजकुलमगाद्बाधां नानाविधा हि विधोर्विधाः ॥ ७१ ॥ कुमुदवनताबन्धुः सिन्धोः सुतोऽथ कलानिधिविघटिततमो दस्युस्तोमस्तमीदयितापतिः । भुवनजनता नेत्रानन्दी द्विजोऽत्रिज एव यो हतविधिहतः सोऽस्तं यातोऽमृतद्युतिरद्युतिः ॥७२॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दर महाकाव्य स्वदनविरहात्क्षीरस्यन्ति स्वधैनुकतर्णका उषसि मणिमन्थग्रावभ्यस्तथा लवणस्यति । समज इह ते जात्याश्वानां कुमारकमण्डली कवल मवलम्ब्येयं हस्ते दधिस्यति संस्पृहम् ॥ ७३ ॥ | त्यज निजभुजाश्लिष्टामेनामपि स्त्रितरां वधूं भ भगवतोऽद्वैतानन्दात्मकस्य कथाप्रथाम् । घुसृणमसृणाः स्तोकान्मुक्ताः करप्रकरा खे गगनभुवनाभोगं लिम्पन्त्यमी जगतीपते ! ॥७४|| किमु किमुदिनी द्वेषात्सूर्य न पश्यति तत्परं किमपि विदितं शब्दग्रन्थे निमीलनकारणम् । कृतभणित योऽसूर्यपश्या भवेयुरसंशयं प्रथितमहतो राज्ञो दारा निगूढनिजेङ्गिताः ।। ७५ ।। यदयमदयश्चन्द्रश्चन्द्रातपैर्निरदीघरत् स्थलकमलिनीं भास्वत्कान्तां स्वभर्तृवियोगिनीम् । विकचकुमुदैस्तामप्येषाऽहसीत्कुमुदिन्यत— स्तरणिररुणो रोषाद्वैतं विजित्य विजृम्भते ॥७६॥ उद्यन्नुद्योतिताशः शितिमतमतमो दुर्दिनेरंभदाभः प्राचीमूलादुदञ्चत्करनिकरशतैः पाटयन्पाटलाभान् । दम्पत्योः श्लिष्टवक्षोद्वयमुकुलदलैः सार्धमम्भोजमुद्रां चक्रद्वन्द्वैः सहार्कः समघटयदयो कैरवाणां मुखानि ॥७७॥ श्यैनंपातां वितन्वन्दिनमुखमृगयुश्चण्डमार्तण्डबिम्ब- श्येनं प्राचारयत्स्वं स गगनगहने जातशङ्कः शशाङ्कः । । त्रातुं विद्मः सशंङ्ख जलधिमधिगतो ध्वान्त का काः प्रणेशुस्तारापारापतानां कुलमभजदथोड्डीनसण्डीनकृत्याम् ||७८ | १८९ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ पद्मनसुन्दरसूरिविरचित यः पौरंदरमुग्धसौधशिखरे माणिक्यरत्नप्रभा प्रारभारान्वितशातकुम्भकलशभ्रान्ति विभर्ति स्फुरन् । भानुर्भानुविभूतिभूषिततनुबन्धूकबन्धुद्युतिः प्राचीकुण्डलमण्डलं ननु लसत्येन्द्रे महे मन्महे ।।७।। कोकानां मिथुनान्यशेषविरहं शीतांशवे सञ्ज्वरं सम्प्रत्यर्कमणिभ्य एव विजहुः स्वानन्दसान्द्रोत्सवम् । सार्ध तैरथ संविभज्य च भिथः पद्माकरैर्वीक्ष्य तं कर्कन्धूकुणशोणमम्बरमणि व्यातेनिरे मङ्गलम् ।।८।। अरुणकिरणैः कालिमन्या मधुव्रतमण्डली किमरुणमणेः शोभारम्भं बभार विसारिभिः । दरविकसितं पद्मा पद्माकर कुमुदान्मुदा विनिमयमयं मन्दं मन्दं निजासनमासदत् ।।८१।। विश्वस्मिन्नपि कामकेलिजलधेः पारीणमेकं स्तुमः चक्रद्वन्द्वमिदं वियुज्य सततं सम्भुक्तिमन्विच्छति । प्रेमारोचकरोगरुग्णवपुषा चण्डीश्वरेणानिशं . किं नाकारि रसायनायितगरग्रासोरुविस्फूर्तये ।।८२।। निद्राणामरविन्दिनीं मधुकराः प्रौद्बोध्य सांराविणैः सानन्दं मकरन्दमेव निपपुङ्गीसखाः सम्प्रति । स्वादुकारमथो मधूकमधुरं वध्वा निपीयाधरं । __ श्येनी पद्मवनी क्षणाद्रविकरैर्गुञ्जानिकुञायिता ॥८३।। सौर: कुङ्कुम पङ्कसङ्करकरैराश्लिष्यतेऽभ्रंकषा सौधश्रेणिरसौ गवाक्षविवरालीनाङ्गुलित्वं गतः । दीप्तिभर्तृवियोगिनी शिखिशिखामाविश्य याऽस्तं गतं सा स्वःस्था पतिमुज्जहार मिहिरं साध्वी किमुर्वीतलात् ।।८४॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य १८३ साहस्रांहिरसौ सुमन्थरगतिः कस्मादकस्माद्रवि विद्मो मन्दसुतस्य पङ्गुजननात्पङ्गुत्वमस्मिन्न किम् । यद् वा त्वत्तरुणप्रतापमहसां व्योमावगाहस्पृशां - सौ रे लङ्घितुमक्षमः क्षतगतिर्मन्दं समुत्सर्पति ।।८५।। आनैश्वर्यमयं विभर्ति भवतः प्रोद्यत्प्रतापार्कत स्तेन द्वेषिमषीमलीमसतमाकीर्तिस्तमीन्न्यकृता । मार्तण्डः करचुम्बिनीमपि तरोश्छायामयीं तामसी मकस्थामपनेतुमक्षमतमः स्वीयैः सहस्रः करैः ॥८६॥ सुत्रामा स्वशचीविवाहनमहे शाततव्यादिशा कुम्भं कुङ्कुमपक्कसक्करममुं प्रीत्या समानाययत् । क्षोणीशन ! तवाभिषेचनमहं घस्रोदयेऽहस्कर निर्मातुं विमलोस्रवाहनिवहैः साहस्रधारेजलैः ॥८७।। सद्यस्तावथ दम्पती प्रमदतः प्रात: प्रबुद्धौ निजं नेपथ्यं मगधेभ्य एव ददतु: प्रातोषिकं स्पर्शनम् । तेऽपि प्राप्य मुदं दधुः परिदधुस्तद्दत्तमुत्तम्भितै-- दोर्दण्डैर्वसुदेवकीर्तनमयं प्रावर्तयन्मङ्गलम् ।।८८॥ आनन्दोदयपर्वतै कतरणेरानन्दमेरोर्गुरोः शिष्यः पण्डितमौलिमण्डनमणिः श्रीपद्ममेरुर्गुरुः । तच्छिष्योत्तमपद्मसुन्दरकविः संदृब्धवाँस्तन्महा . काव्यं श्रीयदुसुन्दरं सहृदयानन्दाय कन्दायताम् ।।८९॥ इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितेशश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीयदुसुन्दरनाम्नि महाकाव्ये सन्ध्यो पश्लोकमङ्गलशंसनो नाम द्वादशः सर्गः ॥१२।। ॥ समाप्तं चेदं श्रीयदुसुन्दरं नाम महाकाव्यम् । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ यदुसुन्दर महाकाव्य में प्रयुक्त छन्द अनुष्टुभू ९.४९, ५०, ५८, ६४ / १०. ४१, ४३-४५ इन्द्रवज्रा ९. २१, २३ कलहंस ९. १६ कालभारिणी ६ २८, ३९, ४० जलधरमाला ६. ९ तोटक ६.४१, ४२ द्रुतविलम्बित ३. १-३४ / ९.१७, २६-४८, ५१ पुष्पिताग्रा ५ ६०/९.१५, ३२, ७४ पृथ्वी ५. ६१ प्रबोधिता १० ४२ प्रमिताक्षरा ९ १८, १९, ३३, ३४, ३५ प्रहर्षिणी ३. ४१-७७ / ५.५३ मञ्जुभाषिणी ७ १-८७ मत्तमयूर ५४९ / ६. ८ मन्दाक्रान्ता ५. ६२ मालिनी १७० / ९५२-५७, ५९-६१, ६५-७३ रथोद्धता ११. १-७७ रुचिरा ५.६४ वसन्ततिलका १ ६२-६९ / २.७३-७६ / ३. ७८-१९२ / ४. ४९-६९, ७१-८०, ८३-८९, ९३, ९५ / ५. १-४, ९-१३, १६, १९२४, २९-३४, ३८-४०, ४३, ४५-४८, ५१-५२, ५५५७ / ६. १-६, १०, १३-१७, १९-२८, ४४-६९ / ८. १-६९ / ९. २०, २२, २४, २९-३१ वंशस्थ १. १-६२ / २. १-७१ / ३. १९३-१९५ / ४. १-४८ / ९. २६-२८ शार्दूलविक्रीडित] २ ७९ / ३.२०३ / ४.७०, ८१, ९०, ९१, ९४, ९६ / ५. ५-८, १४ १५, १७- १८, २५-२८, ३५, ४१, ४२, ५०, ५८ / ६. १८, ३५, ३६, ६४ / ७. ८८ / १०. ६२, ६३, ६५, ७० । ११.७८ / १२.७९, ८०, ८२-८९ / शालिनी ३. ३५-४० / ५.५४ / ६.७, ३२, ४२ / शिखरिणी २ ८५ / ५.५९ / ८. ७०, ७१, ७२ । सान्द्रपद ६. ३४ स्रग्धरा २.७२, ७७ ७८, ८०-८४ / ४. ८२, ९२ / ५. ३६, ३७, ४४, ६२ / ६. २९-३२, ३७, ७०-७१ / १०. ७१ / १२.७७, ७८ / स्वागता ६. ११, १२ / ९. १-१४, २५ / १०. १४०, ४६-६१, ६४, ६६-६९ / हरिणी १२. १-७६, ८१ / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.jalinelibrary.org