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________________ बाद में अवन्तिराज, गौड़राज, काशिराज, और साकेतराज का वर्णन-प्रशंसन किया जाता है । उसका मन तो परब्रह्म में लीन साधक-सा वसुदेव में ही लीन है । सर्ग ५-मुद्रितनृपकुमुद : स्वयंवर मण्डप में राजओं का वर्णन आगे बढ़ता है। पाण्ड्यराज, कलिंगराज, नेपाल के राजा, मलयदेश के राजा, कांची के राजा, कीटकराज, मिथिला के राजा आदि का वर्णन सुवदना करती है, परन्तु कनकावती की आँखें तो वसुदेव को ही खोज रही हैं । सर्ग ६-वसुदेव वरण : स्वयंवर वर्णन आगे बढ़ता है । अब कुबेर का वर्णन आता है, और फिर आता है यादवकुलभूषण का विस्तीर्ण वर्णन । उसके गुण, जवानी, रसिकता आदि का वर्णन अनेकविध कल्पनों के साथ कवि करते हैं । इस लेषमय, हृदयंगम वर्णन में कवि का कविस्व खिल उठता है ।। मगर वसुदेव कुबेर जैसे भी लगते हैं। किन्तु मानव होने के कारण वसुदेव धरातलस्पर्शी हैं, उनके शरीर पर प्रस्वेद बिन्दु दिखाई देते हैं, उनके कण्ठ में शुद्ध सोने में रत्न जदित शंगार कल्पलता है, वसुदेव के नयन सनिमेष हैं, उनके कण्ठ की पुष्पमाला मुरझा रही है । इन प्रमाणों से वसुदेव का परिचय हो जाने पर कनकावती सच्चे कुबेर के पास प्रार्थना करती है, सनाथा बनना चाहती है । वसुदेव को कुबेर आज्ञा देते हैं, अंगुलीयक दूर होते ही वसुदेव अपने सच्चे स्वरूप में प्रगट होते हैं। पहले अन्तःपुर में दर्शन हुआ था, यही वसुदेव हैं वह । कनकावती उनके कण्ठ में माला पहनाकर वसुदेव का वरण करती है । नगर में आनन्दघोष होता है, वाद्य बजते हैं, राजागण श्याम पड़ जाता है । सारा वातावरण आनन्दविभोर हो जाता है । युगल सर्वथा परस्परानुकूल है। उसके वर्णन में कवि सम, उपमा, व्यतिरेक आदि अलंकारों का प्रयोग करते हैं। राजकुमार-राजागण अपने निवास प्रति गमन करते हैं । सर्ग ७-वरालंकरण : कमनीय रूप से अन्धित, वरवर्णिनी स्त्रीओ से घेरे हुए वसुदेव राजगृह जाते हैं। मार्ग में उनके गुणगानरत बन्दीजनों को प्रभूत धन देते हैं । वे वसुवारि की वर्षा कर रहे हैं । " इस वरसे उभय श्रेष्ठ कुलों की शोभा बढ़ेगी " ऐसा कहकर राजा हरिश्चन्द्र शुभलग्न की तैयारी करने का अपनी रानी को कहते हैं । ज्योतिषीयों को विवाह का मुहूर्त पूछा जाता है । वे श्रेष्ठ मुहूर्त निकालकर देते हैं, जो उदयास्त-निर्मल और सूर्य, चन्द्र और गुरु से बलान्वित है । इस पर दूत द्वारा बमदेव की सम्मति पायी जाती है । उचित समय पर कन्या के पिता उनके आगमन पतीक्षा करते हैं। रानी के मार्गदर्शन में शुभलग्न की त्वरित तैयारी हो रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002642
Book TitleYadusundara Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorD P Raval
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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