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________________ ११ इसके बाद हमें तैयारी और सुशोभन का विस्तीर्ण वर्णन मिलता है । राजकुमारी को स्नान कराया जाता है और स्नान के बाद वस्त्रालंकार सुशोभनों से अन्वित देह चम्पा के पुष्प और सुवर्ण जैसा खिल उठता है, चारों ओर सुगन्ध फैल उठता है। उसी दिन से जगत के लोग कहते हैं कि “सोने में सुगन्ध मिली ।" । फिर हमें मिलता है वेदिका पर बैठी हुई कन्या का विस्तृत अनुपम वर्णन । वसुदेव भी विवाह के लिए तैयार एवं सुशोभित किये जाते हैं, सूर्य के समान सात अश्वोवाले रथ पर आरूढ होकर निकलते हैं । राजमार्ग पर पुरांगनाएँ निकल पड़ती हैं । वसुदेव के दर्शन के लिए उत्सुक और दर्शनमुग्ध नारियों का वर्णन किया है गया । सर्ग-८ वसुदेव परिणय : महामूल्यवान वस्त्रालंकार विभूषित अनेक राजकुमार अश्वारूढ होकर वसुदेव की बारात में उपस्थित हैं । अत्यंत सुशोभित वसुदेव राजकुमार और नृपगण का वर्णन यहाँ सौन्दर्य की पराकाष्ठा पर पहुँचता है । वसुदेव का स्वागत करते कनकावती के पिता उनका आलिंगन करते हैं। अपनी पुत्री का वे पूरी प्रसन्नता के साथ कन्यादानविधि सम्पन्न करते हैं, मानों हिमालय ने गौरी का, समुद्र ने लक्ष्मी का कन्यादान दिया । बाद में विवाह सम्पन्न होता है । वसुदेव को और अन्य सभी को समुचित भेटों से सम्मानित किया जाता है। तीन चार दिन के बाद अपने परिवारजनों के साथ बारात अपने गृह प्रति गमन करती है । कनकावती को वसुदेव स्वयं रथारूढ करते हैं । थोड़े अन्तर तक वसुदेव परि. वार तथा सेना को लेकर साथ जाते हैं । इसके पहले कन्या की बिदा का प्रसंग करुण मिश्रित शान्त रस से अन्वित है। बिदा करते समय पिता पुत्रीको वसुदेव को अपना सर्वस्व मानकर, परमात्मा मानकर उनकी नवधा भक्ति के साथ सेवा करने का उपदेश देते हैं। इस सर्ग में विभिन्न वर्णनों में कवि ने उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, रूपक, आशी, श्लेष, सूक्ष्म आदि अनेक अलंकारों का सफल प्रयोग किया है । सर्ग-९ वनविहार वर्णन : विवाह के बाद पति-पत्नी मथुरा के मार्ग में वन विहार कर रहे हैं । एक दूसरे के संग में वसुदेव एवं कनकावती अत्यन्त सुन्दर, परस्परानुरूप लगते हैं । प्रियतमा की प्रसन्नता के लिए वसुदेव वनयुगल दिखलाते हैं, इनका वर्णन करते हैं । इन युगलों में मुख्य हैं सारस-सारसी, हंस-हंसी, चक्रवाक-चक्रवाकी, मयूर-मयूरी । फिर क्रमानुगत ऋतुवर्णन दिये गये हैं। कवि वसन्तवर्णन से आरंभ करके शिशिर तक आते हैं । वर्णन सुन्दर, तादृश एवं वैविध्यपूर्ण तथा प्रसन्न कर हैं । सर्ग-१० विजयश्री वरण : वसुदेव कनकावती के साथ मथुरा प्रस्थान कर रहे हैं। अरिष्टपुरके वाहर रुकते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002642
Book TitleYadusundara Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorD P Raval
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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