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परन्तु इन बातों पर ध्यान देने के बजाय कनकावती तो वसुदेव का परिचय ही चाहती है। वसुदेव कहते हैं कि उनका नामोच्चारण निंद्य है। फिर भी वे कहते हैं कि आप यदुवंश के वसुदेव हैं और इस समय तो कुबेर के दूत हैं। सखी द्वारा कनकावती कहती है कि राजहंस और श्वेत बगली, सच्चे मोती और काचमणि, मदोन्मत्त हस्ती और नाजुक हरिणी का योग संभव नहीं, वैसे कनकावती का योग कोई देव के साथ संभव नहीं । फिर आगे सखी से कनकावती स्पष्ट कहती है कि वह वसुदेव को छोड़कर इन्द्र का वरण भी नहीं चाहती; उसके शरीर का स्पर्श या तो वसुदेव करेंगे या तो अग्नि करेगा । वसुदेव फिर से दूत की वाणी में बात करते हैं तो कनकावती क्रुद्ध हो जाती है, रोने लगती है।
- ऐसी परिस्थिति में दूतकर्म की चिन्ता छोड़कर वसुदेव कामदेव की आज्ञा के वशवर्ती बन जाते हैं और कनकावती को सान्त्वना देते हुए कहते हैं-"जैसे चन्द्र का जीवन रात्रि है, वैसे ही तुम मेरा ।"
वसुदेव प्रमदवन में वापिस आते हैं । दूतकार्य तो किया, मगर कनकावती का सन्देश देते हैं कि "आप सचमुच महान हैं और मेरे पूज्य हैं ।" मित्र के चित्तशुद्धियुक्त कार्य से वसुदेव के प्रति कुबेर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं । सर्ग-४ कनकावती के स्वयंवर का वर्णन :
इस सर्ग में कनकावती के स्वयंवर का वर्णन पेश किया जाता है । अलग-अलग देश के अद्भुत वेषपरिधानयुक्त, अहंकारी, पराक्रमी, कामदेव जैसे सुन्दर राजकुमार अपने अश्व, रथ इत्यादि पर आरूढ होकर आगे बढ़ जाने की स्पर्धा करते-करते वहाँ आते हैं। नगर के मार्ग इन राजकुमारों के अश्व, हस्ती, पायदल, रथदल इत्यादि से भरे पड़े हैं । वसुदेव समक्ष तिरस्कृत कुबेर भी आते हैं । कुबेर वसुदेव को एक ऐसा अंगुलीयक देते हैं जिसके पहनने से वे बराबर कुबेर जैसे दिखाई देते हैं। सारा नगर अनेक राजा, राजकुमार और उनके रसाले से स्वर्ग समान खिल उठा था ।
अतिथिसत्कार के बाद राजाओं को सुन्दर महलों में निवास दिया गया है। इस सर्ग में राजपुत्रों का वर्णन सुन्दर शैली में किया गया है । महलों में राजपुत्री के चित्रों की प्रदर्शनी है, जिसे देखकर तमाम राजपुत्र सविशेष उस्कण्ठित बन जाते हैं। फिर आता हैं अत्यन्त मनोरम स्वयंवर वर्णन और स्वयंवर प्रवेश करती हुई राजकुमारी का वर्णन । उसके अंगप्रत्यंग एवं अलंकारों का अत्यन्त मनोरमवर्णन करने के साथ इसे देखकर किस रीति से तमाम राजपुत्र कामविह्वल बन गये इसका निरूपण भी दिया गया है। साथ-साथ स्वयंवर मण्डप का भी वर्णन कवि चारुरीत्या करते हैं ।
कनकावती स्वयंवरमण्डप में प्रवेश करती है। उसकी सखी सुवदना सर्वप्रथम देवों का परिचय देती है और किसी देव का वरण करने का सूचन करती है। कनकावती देवों को प्रणाम करती है, वरण न होने के कारण देव श्याम पड़ जाते हैं ।
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