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________________ तुम्हारा नाथ तो हृदय में ही बिराजमान है फिर इतनी व्यथा क्यों ?" फिर भी राजपुत्री विलाप, मूर्छा इत्यादि का अनुभव करती है तब सखियाँ कमल, चन्दन, शीतजल, शीतोपचार आदि से उसे सान्त्वना देने का प्रयत्न करती हैं । वसुदेव भी अपने मित्र चन्द्रातप के साथ उस नगर में आते हैं । कनकावती के पिता उनका सत्कार करते हैं । तदनन्तर चन्द्रातप के साथ राजा के प्रमदवन में प्रवेश करते ही वसुदेव को शृंगार रसाभास से उपवन के विभिन्न तत्त्वों में क्रीडाएँ दृष्टिगोचर होती हैं । ये तत्त्व हैं—अशोक, प्रवाल, चम्पक, पाटल, रसाल क्रकचदल, पलाश, भ्रमर, पराग इत्यादि । वसुदेव अन्तरंग मित्र एवं प्रासंगिक नायक के साथ केलिक्रीडा करते हैं । उसी समय पुष्पक विमान में बैठकर राजराज किन्नरेश, गुह्यकेश्वर, हरसखा, वैश्रवण, पौलस्त्य, नरवाहन, श्रीद, विद्याधरेन्द्र, पुण्यजन आदि विशेषणों से अन्वित यक्षराज कुबेर उस उपवन में उतरते हैं । कुबेर वसुदेव के साथ सन्मानपूर्ण वर्ताव करते हैं, और कनकावती के साथ विवाह हो इसमें वसुदेव की मदद चाहते हैं । विनम्रता के भाव के साथ दूत्यकर्म की प्रार्थना करते हैं । यहाँ कवि याचक की स्वार्थपूर्ण दृष्टि का निरूपणं सुन्दर शैली में करते हैं । कुबेर याचना के भावके साथ दुबारा दूत्यकर्मकी विज्ञप्ति पेश करते हैं । इस कार्य के लिये वसुदेव को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से कुबेर अनेक सुबोध वचन कहते हैं (४९ से ५७) । कुबेर वसुदेव के रूप एवं वाणी से अहोभाव का अनुभव करता है । दूतकर्म का स्वीकार करके अन्तःपुर में जाने के लिये तत्पर वसुदेव को कुबेर एक ऐसी विद्या देते हैं जिससे वह सबको देख सकते हैं और कनकावती सिवाय और कोई उन्हें नहीं देख सकता | विद्या का स्वीकार करके वसुदेव कनकावती के महल में प्रवेश करते हैं । यहाँ महल के अन्यान्य भागों का वर्णन हमें मिलता है । अन्तःपुर के वर्णन में कवि अपना पूर्ण कलाकौशल दिखलाते हैं; कनकावती के कक्ष का वर्णन तो सचमुच सर्वोत्कृष्ट है । यहाँ वसुदेव एवं कनकावती का प्रथम मिलन होता है और वे परस्पर भावानुरागी बनते हैं । उसी समय कामदेव शरसंधान करता है । (९७ से १०१) वसुदेव के आगमन से नायिका खुश जरूर होती है, मगर बाद में पूछती है - "भाप इस रक्षित महल में किस युक्ति से प्रवेश पा सके ?" आगे वह कहती है- " आपके जन्म एवं निवास का स्थल कोई भी हो, यह आपके जन्म से सचमुच कृतार्थ हो गया हैं । आपकी वाणी, आपके गाम्भीर्य. औदार्य आदि सचमुच सर्वातिशायी हैं।" फिर परिचय देने की विज्ञन्ति वह करती है तब सचमुच तो कनकावती के मधुर वचनों से वह खूब प्रभावित हुआ है । फिर भी वह तो आया है कुबेर के दूत के रूप में । इस सन्दर्भ में वसुदेव कुबेर के बारे में प्रशंसावचन कहते हैं— कनकावती के गुणों के श्रवण से कुबेर मुग्ध हैं । इसी के चिन्तन में निद्रा खो बैठे हैं, इत्यादि । आगे वसुदेव कनकावती को कहते हैं - " सूर्य के संग से कुन्तीमाता देवांगना बनीं, उसी रीति से आप भी कुबेर के साथ विवाह करें और देवांगना बने ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002642
Book TitleYadusundara Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorD P Raval
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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