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महल के सबसे ऊपर के कक्ष पर खेल रही है तब हंस का रूप लेकर चन्द्रातप उसके पास जाता है । प्रकाशपुञ्ज के समान और ब्रह्माजी के वाहन जैसा हंस आया तो उसे अपने करकमल में लेकर उसका मार्जन करती है और हंस भी उसके अंगों के साथ लीला करता हआ आनन्द मनाता है । राजकुमारी कनकावती इस हंस को सुवर्णमय पिंजड़े में रखने की बात अपनी सखियों को कहती है तब गीर्वाण वाणी में
आतिथ्य के लिए कलकण्ठी को वह धन्यवाद देता है और कहता है कि वह सुवृत्तमौक्ति रुमाला कंठ में धारण करे और उसे मुक्त रखे । इस वाणी से प्रभावित बाला क्षमा की प्रार्थना करती है और उसके मनोभावों का वर्णन चाहती हैं (४९ से ५९) । विद्याधरनगरी के लालित्यादिके वर्णन से आरंभ करके हंस यदुवंश में जन्म पानेवाले वसुदेव का प्रभाव एवं प्रताप, वक्षःस्थल एवं बाहु, सुन्दरता, गुण और यौवन आदि का वर्णन करके कहता है कि राजकमारी एवं वसुदेव का युगल कोकिला के पञ्चम स्वर के समान, चन्द्र एवं पूर्णिमा जैसा और मनुष्य जन्म को फलदायी बनानेवाला होगा । चन्द्रातप आगे कहता है कि स्वयंवर में यदि वह उपस्थित हो जाय तो उसकी पिछान के लिये उसका चित्र तैयार करके लाया है । कनकावती वसुदेव का चित्र देखती है, (६० से ६७) । देखते ही वह वसुदेवमय बन जाती है और कहती है कि "उस नाथ से मैं सनाथ बनें।" उसके लिये हंस चिन्तामणि, कामधेनु, कल्पवृक्ष एवं कल्पलता जैसा और जीवनदाता लगता है। हंस के स्वरूप में स्थिर चन्द्रातप उसे धैर्यवान बनने को कहता है । कनकावती का सौन्दर्यवर्णन वह पुण्यामरवृक्ष, धनुर्वेद आदि के रूपकों के द्वारा करता है और पूरी श्रद्धा एवं आशा के साथ कहता है कि कनकावती अपने रूपलावण्य से कामदेव के समान सुन्दर वसुदेव को अवश्य ही जीत सकेगी । (६८ से ८१)
इस रीति से कनकावती के मनमें वसुदेव के प्रति पूर्णभाव एवं पूर्वानुराग का प्रादुर्भाव करके वह विद्याधर नगर में वापस लौटता है ।।
इस ओर वसुदेव के विरह में कनकावती सच्चिदानन्दरूपी अद्वैत ऐसे वसुदेवब्रह्म में तन्मय हो जाती है। (८२) चन्द्रातप वसुदेव के समक्ष राजकन्या का सन्देश पेश करता है (८३)। वसुदेव मी सब बातें सुनकर विरहतप्त होते हैं, पुलकित-रोमाञ्चित बन जाते हैं। बार बार वे कनकावती के बारे में पृच्छा करते हैं और प्रेमकथारूप सुधा का पान करते करते तृप्त नहीं होते । बातें सुनते-सुनते कनकावतीमय बन जाते हैं; कामदेव की माया से भ्रमित वे निद्रा भी नहीं पाते (८४)। केवल कनकावती की स्मरणभक्ति में तल्लीन ऐसे वे निजपरके भेद का विस्मरण पाते हैं अद्वत ब्रह्मलीन समाधिस्थ बनकर वे केवल कनकावती में अन्तिम एवं चौथे सायुज्यमुक्तिपद की प्राप्ति करते हैं । (८५) सर्ग ३. वसुदेव-कनकानुलाप :
___ इस सर्ग के आरंभ में कनकावती के दैहिक सौन्दर्य एवं मनोभावों को ध्यान में रखकर उसकी विरहावस्था का वर्णन किया गया है । यहाँ उसकी कृशता, महाधि, तनुलता, वियोगक्षणों की कालगणना, विरहमूर्ति, चन्द्रोपालम, अश्रपात, इत्यादि का वर्णन किया गया है। विरहानल से दग्घा राजपुत्री को सखियाँ इन शब्दों में धैर्य धारण करने को कहती हैं- हे सुदति !
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