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________________ विद्याधरनगरी का वर्णन (५६-६२) : भ्रान्तिमान अलेकार का प्रयोग करते हुए कवि विद्याधरनगरी का अत्यन्त मनोहर वर्णन करते हैं । रत्नमय भूमिओवाले महलों में चन्द्रकान्त मणियों में से द्रवित पीयूष का पान करके भ्रमर-पंक्तियां कमलराजि के मधुद्वपान की इच्छा नहीं रखती हैं; वेदिका पर रखे हुए आरस सभ रात के समय चन्द्रज्योत्स्ना में रजतकुम्भ की भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं । जिनमन्दिरों में से निकलते हए धूपसमूह के कारण वर्षाकाल की कल्पना करके मयूर निरन्तर केकारव करते हैं। मणिमण्डप में पतिवेष्टित कोई वल्लभा पति को प्रतिविम्बत मिथुन का दर्शन कराकर उसे कह रही है मानो कि "आप अन्य स्त्री में आसक्त हैं ।" लाल माणिक जडित कण्ड में बर्फ जैसा शीत जल भरा हुआ है, फिर भी दयितागण तृषित होने पर भी उसका पान नहीं करता है, क्योंकि उसे भ्रम होता है कि इससे तो लाल रक्तमय जल का पान हो जायेगा । मरकतमणि जहित मार्ग तथा विशाल शालवृक्ष की छाया में जल का भ्रम होने के कारण अनेक प्रकार के पक्षी भिन्न-भिन्न दिशाओं में से उतर आते हैं । वसदेव के अनुपम सौंदर्य के कारण तिरस्कृत विद्याधरों की मण्डलियाँ अणिमा आदि आठ भूतिओं में छिप गई हैं। वसुदेव का शरीरसौन्दर्य देखकर विद्याधर युवतियाँ आकृष्ट एवं मोहित हो जाती हैं और रसपूर्वक उनका सांगोपांग नेत्रपान आकंठ कर रही हैं । रोहिणी आदि उनसे विधिवत विवाह करती हैं (६४-६६) । यहाँ खगविद्या के ज्ञाता चन्द्रातप नामक विद्याधर के साथ वसदेव की मित्रता जमती है। विद्याधर चन्द्रातप नायक वा अन्तरंग मित्र बन जाता है (६७-६८) । कथानायक वसुदेव अनेक विद्याधरीओं के साथ सुरत-सम्बन्ध में रत होकर कामशास्त्र का अभ्यास करते हैं । तृतीय पुरुषार्थ में निष्णात एवं रत होकर अनेक आमोदप्रमोद के विहार के स्थानों में से विहरते हैं और केलि क्रीडाएँ करते हैं (६९-९०) । यहाँ हमें शंगाररस के अभिव्यंजक भाव-विभाव-अनुभाव-संचारीभाव का कमनीय वर्णन मिलता है । सर्ग-२. चन्द्रातपसंगमन : पीठालय नगरी के राजा हरिश्चन्द्र की कनकावती नामक एक कन्या है । इस कन्या के सौन्दर्य का सविस्तर वर्णन हमें इस सर्ग में मिलता है । नखशिख इस वर्णन में कनकावती के हरिणनेत्र, कचपाश एवं कुन्तल से शुरू करके ऊरुयुग्म, जंघायुगल, चरणक्रमाम्बुज तथा मरालगति एवं सुधागिरा का क्रमिक वर्णन किया है । कनकावती सर्वविद्याविशारद थी और मेधा में साक्षात् भारती और कान्ति में साक्षात् रति के समान थी (२ से ४७) । वह जब अत्यन्त रूपवती, लावण्यवती, और रति को भी लज्जाशील बना दे ऐसी नवयौवना बन गई, तब उसके लिये सुयोग्य वर प्राप्त होने के बारे में पिता चिन्तित रहने लगे । उसने निर्णय किया कि वे उसके स्वयंवर की रचना करेंगे ।(४८) वसुदेव के मित्र और खगविद्या के ज्ञाता चन्द्रातपके मन में निर्णय होता है कि यह कन्या वसुदेव के लिये योग्य है। इसी विचार से प्रेरित होकर, जब कनकावती अपनी सखियों के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002642
Book TitleYadusundara Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorD P Raval
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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