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जिनालयों में नादब्रह्म का तादात्म्य सिद्ध होता है । महलों के शिखर चन्द्रकान्त एवं सूर्यकान्त मणियों से सुशोभित हैं । विशेष में वर्णित हैं-यमुना का शीतल पवन, भामिनीओं का केवल रतिक्रीड़ा में भुजबन्धन, प्रवाल तथा अशोक से सुशोभित गृह एवं वन, महाजन तथा वन में विपल्लवता, अरविन्द में एवं विट में मधुपत्व, काव्य तथा साधुओं में सुवृत्तता इत्यादि ।
यदुवंश वर्णन १९ से ३८ :
यदुवंश के इतिहास प्रसिद्ध सुवीर नामक सूर्य-चन्द्र के
इस सर्वोत्कृष्ट मथुरानगरी के चन्द्रवंशी राजवंश में राजा के पुत्र शूर का जन्म हुआ । शूर के यहाँ शौरि तथा समान दो पुत्र हुए । शौरि का पुत्र अन्धक हुआ और उसके समुद्र आदि दस पुत्र हुए । इसी कारण से यह राजवंश धनुर्धारी दशाह के नाम से ख्यात हुआ । समुद्र ये सब से छोटे भाई वसुदेव इस महाकाव्य के नायक हैं । राजा शौरि ने अपने भाई सुवीर को जो युद्ध का मूल है ऐसा राज्य सौंप दिया; वे तपश्चर्या करके मोक्षमार्गी बन गये । सुवीर अपने वंश का एक प्रसिद्ध राजा था । उसके पुत्र का नाम भोजवृष्णि था, जिसके पुत्र उग्रसेन का पुत्र कंस था । इस दुराचारी कंस का विवाह जरासंघ की पुत्री के साथ हुआ था । विवाह के बाद उसने अपने पिता उग्रसेन को राज्य से दूर किया, बन्दी बनाया: अपराजित तेज से युक्त और साभिमान धनुष का टंकार करनेवाला वह राजा बन गया ।
वसुदेव के दर्शन से मुग्ध पुरांगनाओं की शृंगार चेष्टाएँ :
इस ओर वसुदेव कामदेव के समान तेजस्वी एवं मोहक थे । इसी कारण से मथुरानगरी की तमाम स्त्रियाँ उन से मोहित थीं । इस मुग्धता का वर्णन भावोदय अलंकार में किया गया है । कोई नारी नेत्र से उनका पान कर रही रही है, अन्य नारी की गति में स्खलन आ जाता है, और अन्य संगरंग का आरोपण करके मानो उनका आलिंगन कर रही है । एक स्त्री तूटी हुई मालाओं का गुम्फन कर रही है, अन्य रागमण्डन । एक नारी स्तनपान करते बालक का त्याग कर देती है, दूसरी हाथ में रखे हुए दर्पण में पड़े हुए प्रतिबिम्ब का आलिंगन कर रही है। एक स्त्री उनके सामने कटाक्ष नीलोत्पल फेंक रही है, अन्य स्त्री शीत वायु के कम्प के साथ सीत्कार तथा पुलकित रोमाञ्च का अनुभव कर रही है । वसुदेव भी ऐसा भाव प्रगट करते हैं, मानों ओष्ठ का विदारण कर रहे हो । एक नगरजन समुद्र राजा के पास फरियाद करते हैं कि वसुदेव पुरांगनाओं का शीलभंग कर रहे हैं" (४५-४६) । बड़े भाई समुद्र राजा अपने छोटे भाई वसुदेव को बाह्यपरिभ्रमण छोड़कर, महल में रहकर शास्त्राभ्यास करने का, विद्याविशारद एवं सदाचारी बनने का उपदेश देते हैं (४७-४८ ) । परन्तु वसुदेव ज्ञानी, मर्मज्ञ तथा शब्दतत्त्ववेत्ता थे । अतः मथुरानगरी का छोड़कर चले जाने की इच्छा प्रगट करते हैं । ( ४९-५३) । वसुदेव गृहत्याग - प्रस्थान करते हैं । अपने क्षत्रियत्व के स्वाभिमान का रक्षण करने के लिये शस्त्र धारण करके उत्तर दिशा में प्रस्थान करते हैं । पुर, ग्राम, पर्वत, नदी, सुशोभित प्रदेशों में विहार करते हैं और अन्त में विद्याधरनगरी में
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वन - उपवन से प्रावष्ट होते हैं
(५४-५५) ।
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