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कथासाहित्य में सुप्रसिद्ध वसुदेव की विषयवस्तु को ले कर यदुसुन्दर की रचना की गई है । इस तरह क्षत्रिय वर्णके चन्द्रवंशीय राजा से सम्बद्ध यदुसुन्दर की कथावस्तु है । वसुदेव महाजनपद मथुरा के राजा और श्रीकृष्ण के पिता थे । वसुदेव कनकावती और अनेक विद्याधरीओं को अपने गुणों से जीत कर परिणय में प्राप्त करता है। वसुदेव धीरोदात्त प्रकार का नायक है । परोपकारी, धर्मनिष्ठ, वीर, उदार, कामदेवसरूप, युवांगनावल्लभ, कामशास्त्रवेदी, सकलकलाज्ञ, दानशूर, आनन्दी, कुलीन, सौभाग्यशाली, पुण्यशाली, आर्वपुरुष, मुमुक्षु, उदासीन, ब्रह्मानन्दी आदि विशेषण उनको दिये गये हैं। नायक का अन्तरङ्गमित्र है चन्द्रातप, कुबेर को प्रति. नायक कहा जा सकता है । नगर, पर्वत, समुद्र, नदी, सरोवर, ऋतु, सूर्योदय, चन्द्रोदय, जलक्रीड़ा, रतोत्सव, लग्न, वियोग, कुमारजन्म, युद्ध, रात्रि, यज्ञ आदि के वर्णन रसभावयुक्त और शन्दालङ्कार प्रचुर हैं । कथावृत्त न तो बहुत विस्तृत है, न तो बहुत संक्षिप्त है । प्रधान रस शृङ्गार है । हास्य, करुण, वीर, रौद्र आदि रसों का निरूपण भी चमत्कृतिपूर्ण है । बीज आदि पाँच अर्थपकृतियाँ, आरम्भ आदि पाँच कार्यावस्थाएँ और मुख आदि पांच संधियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं । संवादों से महाकाव्य रोचक बना है। वसुदेव-चन्द्रातप, चन कनकावती, कनकावती-वसुदेव और कुबेर-वसुदेव संवाद काव्यदृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । अत्रतत्र सज्जनप्रशंसा और दुर्जननिन्दा की गई है । महाकाव्य का शीर्षक 'यदुसुन्दर' नायक के नाम तथा वर्ण्य विषय पर से रखा गया है । यदुसुन्दर महाकाव्य का विषयवर्णन प्रथमसर्ग-वसुदेवप्रस्थान :
जैन धर्म के विद्वान कवि श्री पद्मसुन्दर इस महाकाव्य के रचयिता हैं । जैन धर्म के मूल तत्व का भारतीय अद्वैतवेदान्त दर्शनशास्त्र में वर्णित मूल तत्त्व के साथ ऐक्य साधकर आप अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण शब्दों में उसी तत्व की उपासना करते हैं, जो गायत्री-त्रिपदा मन्त्र की वैदिक व्याहृतियाँ में वर्णित है । फिर स्तुति निर्देश के साथ कवि ने मंगलाचरण किया है। प्रसंगवश कवि नायक, चन्द्रातप, विद्याधर तथा हंस का निर्देश करते हैं और मुद्रालंकार का प्रयोग करते हैं । मथुरापुरी वर्णन २ से १८ :
भारत की सात मोक्षदायिका पुरीओं में से एक महान मथुरापुरी का वर्णन कवि विलक्षण रूप से करते हैं । यह मथुरा नगरी स्वर्ग से भी विशेष सुखदायी, शोभापूर्ण एवं समद्ध महानगरी है। कवि ने समुचित शब्दों के प्रयोग के साथ सूक्ष्म निरीक्षणपूर्वक नगरी का वर्णन किया है। इससे कवि की पूर्ण विद्वत्ता का परिचय हमें मिलता है। मथुरा की पवित्रता, सम्पत्ति एवं गरिमा, अंगनाओं का रूप, यादवों की सुन्दरता, शाल वृक्ष की उच्चता एवं गगनचुम्बी महल, यमुना का तट, महलों के महोत्सवों के वाद्यस्वर, विलासिनीओं के वस्त्राभरण की सुषमा इत्यादि वर्णित हैं। मथुरा की रमणिओं के सवर्ण कर. कमल में लक्ष्मी एवं रक्त मुखकमल में सरस्वती, मलिन-श्याम पंक में से उत्पन्न नीलश्वेत कमल को यानी अपने शाश्वत निवास स्थान को छोड़कर खेल रहे हैं । पूजा के समय
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