Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MERUSUNDARAGANI-VIRACITA ŠĪLOPADESAMĀLA-BĀLĀVABODHA L. D. SERIES 77 GENERAL EDITORS DALSUKH MALVANIA NAGIN J. SHAH EDITORS H. C. BHAYANI R. M. SHAH GITABAHEN L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD-9 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oblon दलपत भ www 1 ਸਵਾਗਤ अहमदाबाद MERUSUNDARAGANI-VIRACITA SILOPADESAMĀLĀ-BALAVABODHA L. D. SERIES 77 GENERAL EDITORS DALSUKH MALVANIA NAGIN J. SHAH EDITORS H. C. BHAYANİ R, M, SHAH GITABAHEN L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD 9 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FIRST EDITION October 1980 PRICE RUPEES Printed by Mahanth Tribhuvandas Shastri Shree Ramanand Printing Press Kankaria Road Ahmedabad-380022. "Printed with the financial assistance of the Government of Gujarat." Published by Nagin J. Shah Director, L. D. Institute of Indology Ahmedabad-380009. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित शीलोपदेशमाला-बालावबोध संपादको ह. चू. भायाणी र. म. शाह गीताबहेन प्रकाशक FRE ED S . लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर अहमदाबाद ९ reer हाबाद Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान-संपादकीय जयसिंहसूरिशिष्य जयकीर्तिए (विक्रमनी दसमी शताब्दी?) महाराष्ट्री प्राकृत भाषामां आर्या छंदमां ११४ गाथामां रचेली 'शीलोपदेशमाला' उपर मेरुसुन्दरे वि. सं. १५२५मां (=ई. स. १४६९मां) मांडवगढमां रचेलो बालावबोध, मूळ 'शीलोपदेशमाला' साथे, सौप्रथम प्रकाशित करता आनंद थाय छे. संस्कृत-प्राकृत भाषामां रचायेली महत्त्वपूर्ण धार्मिक, शास्त्रीय के उपदेशात्मक कृतिनो जूनी गुजराती भाषामां करवामां आवेल विवरणात्मक गद्य अनुवाद ए बालावबोध कहेवाय छे. बालावबोधसाहित्य ई. स. नी १३मी सदीना उत्तरार्धथी मळे छे. आ साहित्यनु अध्ययन गुजराती गद्यना विकास पर सारो प्रकाश पाडे छे. मेरुसुन्दरनो प्रस्तुत बालावबोध विक्रमनी १६मी शताब्दीनी कृति होई ते समयना गुजराती गद्यनो सारो परिचय आपे छे. एनो मोटो भाग ४३ कथाओए रोक्यो छे. एटले कथाविकास अने कथाघटकोना अभ्यासीओने पण ए उपयागी नीवडशे भाषाशास्त्रीय दृष्टिए एनो अभ्यास करनारने महत्त्वनी सामग्री पूरी पाडवानी एनी क्षमता छे. आम अनेक दृष्टिए एनु प्रकाशन महत्त्व पुरवार थशे. विद्वान संपादकोए छ प्राचीन हस्तप्रतोने आधारे 'शीलोपदेशमालाबालावबोध'नु चीवटपूर्वक संपादन कयु छे. उपरांत, पहेलां छपायेल मूळ 'शीलोपदेशमाला'नी गाथाओ अशुद्धप्राय होई, संपादकोए आ संपादनमा विविध हस्तप्रतो तेम ज छंदने आधारे पाठशुद्धि करी छे. वळी, अभ्यासपूर्ण भूमिकामां तेमणे बालावबोधसाहित्यनो परिचय अने तेनु महत्त्व, मूळ 'शीलोपदेशमाला' अने तेना कर्ता, शी. मा. बालावबोधना कर्ता मेरुसुदर अने तेमनी कृतिओ, शी. मा. बालावबोधगत कथाओ, प्रतिपरिचय अने संपादनपद्धति, शी. मा. बालावबोधनी भाषाकीय लाक्षणिकताओ वगेरेनु रोचक अने समुचित निरूपण कयु छे. प्रस्तुत संपादन संशोधकोने उपकारक बने ए हेतुथी तेमणे 'शीलोपदेशमाला'नी गाथाओनी अकारादिसूची, 'शी.मा. बालावबोध'मां उद्धृत संस्कृतप्राकृतपद्योनी अकरादिसूची अने महत्त्वना शब्दोनी सार्थ सूची तैयार करी आपी छे जे ग्रन्थना अन्ते छापी छे. आम आ संपादनने अनेक दृष्टिए उपयोगी बनाववा तेमणे खूब काळजी लीधी छे, ते बदल आपणे सौ तेमना ऋणी छीए. जूनी गूजराती साहित्यकृतिओना प्रकाशनमा सहकार आपवा बदल गूजरात राज्यना भाषानियामक श्री जोषीपुरानो हुं अंतःकरणपूर्वक आभार मानु बुं. आ ग्रंथना प्रकाशनमा आर्थिक सहाय करवा बदल गुजरात सरकारनो हु आभारी छु. ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद : ३८०००९ १ ओक्टोबर, १९८० नगीन शाह अध्यक्ष Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम भूमिका १-२८ प्रास्ताविक (पृ. १), मूल प्राकृत शीलोपदेशमाला अने तेना कर्ता (२), शीलोपदेशमालानी संस्कृत अने गुजराती टीकाओ (२-३), मेहसुन्दर उपाध्याय अने तेमनी कृतिओ (३-५), शीलोपदेशमाला-बालाधबोध (६-८), प्रप्त-परिचय अने संपादन-पद्धति (८-१२), बालावबोधो (१२-१३), शीलोपदेशमाला-बालवबोधनी भाषाकीय लाक्षणिकताओ (१३-२५), उपसंहार (२८) शीलोपदेशमाला-बालावबोध १-१८२ (मूळ प्राकृत गाथाओ तथा तेमनो गुजराती बालावबोध) बालावबोधगत कथाओ: गुणसुन्दरीनी कथा (पृ. २-४), द्वीपायन ऋषिनी कथा (६-७), विश्वामित्र ऋषिनी कथा (७-८), नारद मुनिनी कथा (९-१३), रिपुमर्दन राजानु दृष्टांत (१४-१५), इन्द्रनु दृष्टांत (१७), विजयपाल राजानु दृष्टांत (१८-१९), हरिनी कथा (२०), हरनी कथा (२०), ब्रह्मानी कथा (२०-२१), चन्दनी कथा (२१), सूर्यनी कथा (२१), इन्द्रनी कथा (२१-२२), आर्द्रकुमारनी कथा (२४-२८), नंदिषेणनी कथा (२८-३०), रथनेमिनी कथा (३१-३२), नेमिचरित्र (३४-४६), मल्लिनाथ-चरित्र (४७-५०), स्थूलभद्र-चरित्र (५१-५६), वज्रस्वामिचरित्र (५६-६३), सुदर्शन श्रेष्ठिनी कथा (६४-६७), वंक-चूलनी कथा (६८-७१), सती सुभद्रानी कथा (७३-७५), मदनरेखा सतीनी कथा (७५-७९), सती सुन्दरीनु दृष्टांत (८०-८२), अंजनासुन्दरी-दृष्टांत (८२-८७), नर्मदासुन्दरी-कथा (८७-९२) रतिसुन्दरी-कथा (९३-९६), ऋषिदत्ता कथा (९६-१०४), दवदंतीनी कथा (१०४-११६), कमला सतीनी कथा (११६११९), कलावतीनी कथा (११९-१२३) शीलवतीनी कथा (१२४-१३१), नंदयंतीनी कथा (१३१-१३३), रोहिणीनी कथा (१३४-१३५), कूलवालआनी कथा (१३७-१३९), द्रुपदीनी कथा (१४०-१४२), नूपुरपंडितानु दृष्टांत (१४३-१४८), दत्तदुहितानी कथा (१४८-१५०), अगडदत्तनी कथा (१५४-१६१), प्रदेशी राजानी कथा (१६१-१६२), सीतानी कथा (१६७-१७८), धनश्रीनु दृष्टांत (१७९-१८२). शीलोपदेशमालानी गाथाओनी अकारादि सूची १८३-८४ शीलोपदेशमाला-बालावबोधमां उद्धृत संस्कृत-प्राकृत पद्योनी अकारादि सूची १८५ महत्त्वना शब्दोनी सार्थ सूची १८६-१९२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रास्ताविक : प्राचीन गुजराती साहित्यमा गद्यनुं खेडाण पण विपुल प्रमाणर्मा थयेलं ते हवे सिद्ध हकीकत छे. आ गद्यनो मोटो भाग 'बालावबोध' प्रकारनी रचनांभोमां मळे छे. ' 'बालावबोध' एटले संस्कृत - प्राकृत भाषामां रचायेल महत्त्वपूर्ण धार्मिक – शास्त्रीय के उपदेशात्मक ग्रंथोनां जूनी गुजराती भाषामां करेल विवरणात्मक अनुवाद. 'बाल' मां अक्ष के अल्पज्ञ गृहस्थ अने नवदीक्षित के बालवयना मुनिनो अर्थ समायेल छे के जे संस्कृत - प्राकृत भाषाना ज्ञानथी वंचित होय. आवा बालजनोने तेमनी पोतानी भाषामां धर्म-रहस्यनो बोध करावया विद्वान जैन मुनिराजोए अनेक बालावबोधोनी रचना करी छे. बालावबोध-साहित्यनो प्रादुर्भाव छेक ई.स. नीते रमी सदीना उत्तरार्धथी थयेल जोवा मळे छे. पण दीर्घ अने परिष्कृत कही शकाय तेवी कृतिओनी परंपरा चौदमी शताब्दीथी शरू थाय छे. खरतरगच्छीय तरुणप्रभसूरिकृत 'षडावश्यक - बालावबोध' (वि. सं. १४११, ई. स. १३५५ ) ने आवी आद्य रचना कही शकाय. ४ त्यारबाद तपागच्छना प्रसिद्ध आचार्य सोमसुंदरसूरि ( ई. स. १३७४ - १४४३ ) ना रचेला उपदेशमाला, षडावश्यक, योगशास्त्र, आराधनापताका, नत्रतत्त्वप्रकरण, भक्तामर स्तोत्र, षष्टिशतकप्रकरण ब. अनेक ग्रंथो परना महत्त्वपूर्ण बालावबोधो मळे छे. तदुपरांत खरतरगच्छना आचार्य जिनसागरसूरि-प्रणीत षष्टिशतक - बालावबोध ( वि. सं. १५०१, ई. स. १४४५ ) अने बीजा जैन मुनिओ द्वारा केटलीक बाला० रचनाओ मळे छे. पंदरमा शतका प्रारंभमां अनेक ग्रंथो पर विशद बालावबोधो लखनार मेरुसुंदर उपाध्याय आवे छे. तेमना रचेला षष्टिशतक - प्रकरण अने वाग्भटालंकारना बालाववोघो आ पूर्वे प्रगट थई चूक्या छे. अहीं जयकीर्तिमूरि-रचित प्राकृत गाथाबद्ध से लोवएसमाला ( शीलोपदेशमाला ) ना बालावबोधनी संशोधनात्मक आवृत्ति आपी अमे तेमां एकनो उमेरो करीए छीए. आ शीलो. बाला. नुं महत्त्व बे रीते छे - एक तो ते पंदरमी सदीनी गुजराती भाषा पर प्रकाश फेंकवा माटे अत्यंत उपयोगी ने प्रचूर सामग्री पूरी पाडे छे, बीजुं तेमांनी कथाओ कथासाहित्यना इतिहास अने कथानकोनी परंपराना अध्ययन माटे मूल्यवान छे. १. प्राचीन गुजराती गद्य अने बालावबोध साहित्यना वधु परिचय माटे जुओ: गुजराती साहित्यनो इतिहास, गुजराती साहित्य परिषद, ग्रंथ -१ प्रकरण ८ तथा ग्रंथ - २ प्रकरण - २१. २. जैन गूर्जर कविओ, मो. द. देसाई, भा-३, पृ. १५७१-१७०३ ३. " " 35 ४. षडावश्यक - बालावबोध, संपा. डॉ. प्रबोध पंडित, सिंधी जैन ग्रंथमाला, मुंबई १९७६. ५. बन्नेना संग डो. भोगीलाल ज. सांडेसरा, प्रका. म. स, विश्वविद्यालय, वडोदरा, प्रका. वर्ष- क्रमे १९५३, १९७५. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ शोलोपदेशमाला - बालावबोध मूळ प्राकृत शीलोपदेशमाला अने तेना कर्ता : अहिंसा, सत्य, क्षमा, दया, तप, सम्यक्त्व, शील आदि गुणाना पालननो सरळ प्राकृत गाथाओमां सीधो उपदेश अने ते ते विषयमां अनुकरणीय व्यक्तिओना चरित्रनो निर्देश - ए प्रकारनो धर्मोपदेशात्मक गाथाबद्ध कृतिओनी एक परंपरा प्राकृत साहित्यमा जोवा मळे छे.' धर्मदास गणिनी उपदेशमाला, हरिभद्रसूरिनी उपदेश रद, जयसिंहसूरि-रचित धर्मोपदेशमाला इत्यादि आनां प्रसिद्ध उदाहरणो छे. शीलोपदेशमालाने पण आ परंपरामां मूकी शकाय. शीलोपदेशमालामां शीळ एटले के (जैन साहित्यना रूढ अर्थमां ) ब्रह्मचर्य - पालन विषयक उपदेश आपवामां आत्र्यो छे दृष्टांतरूपे तेमां शीलपालन करनार अनेक महान स्त्रीपुरुषोनो निर्देश छे, शीलभंगथी थती हानि अने शीलपालनथी थतां लौकिक-अलौकिक लाभोनुं वर्णन प्रचलित उदाहरणो द्वारा करो सामान्य जनोंने शीलनुं महत्व समजावबानो कविनो आमां उद्देश छे. महाराष्ट्री प्राकृत भाषामा, आर्या छेदमां ११४ गाथामां रचायेली शीलोपदेशमालाना कर्ता जयसिंहसूर - शिष्य जयकीर्ति नामे छे. गुरु-शिष्य विशे अन्य कई माहिती प्राप्त थती नथी. जयसिंहसूरि नामक एक आनाये धर्मदासगणि रचित उपदेशमालानुं अनुसरण करीने धर्मोपदेशमाला नामक प्राकृत गाथाबद्ध रचना अने तेनुं विवरण करेल छे. कृष्ण मुनिना शिष्य आ जयसिंहसूरए पोतानो धर्मोपदेशमालानुं विवरण नागोरमां वि.सं. ९१५मां पूरुं कर्यानो उल्लेख छे. * संभव छे के शीलोपदेशमालाना कर्ता जयकीर्ति आ जयसिंहसूरिना शिष्य होय अने गुरुनी धर्मोपदेशमालानुं अनुकरण करी शोलोपदेशमालानी रचना करी होय. जो आम होय तो जयकीर्तिनो समय विक्रमनी दशमी शताब्दी अनुमानी शकाय. शीलोपदेशमालानी सेंकडो हस्तप्रतो जैन ज्ञानभंडारोमां मळे छे ते हकीकत एनु केट महत्त्वपूर्ण स्थान हतुं तेनो निर्देश करे छे. अत्यार सुधीमां शीलोपदेशमालानी बे आवृत्तिओ छपाई प्रसिद्ध थई छे. ई. स. १९०० मां अमदावादनी विद्याशाळा संस्थाए शीलोपदेशमाला मूळ अने तेनो गुजराती अनुवाद तथा तेनी शीलतरंगिणी नामक टीकानो मात्र गुजराती अनुवाद प्रकाशित करेल अने ई. स. १९०९ मां श्रावक हीरालाल हंसराजे जामनगरथी शीलतरंगिणी टीका सहित शीलोपदेशमाला प्रकाशित करेल. आ बन्नेमां मूळ गाथाओ अशुद्धप्राय छपायेल छे अमे अहीं विविध हस्तप्रतो तेम ज छंदना आधारे पाठनिर्णय करी शुद्ध पाठ आप्यो छे. शीलोपदेशमालानी संस्कृत अने गुजराती टीकाओ : शीलोपदेशमाला जैन साहित्यमा औपदेशिक रचनाओमां महत्त्वपूर्ण स्थान घरावती होवानुं एना परनी अनेक टीकाओथी पण सिद्ध थाय छे. जिनरत्न कोशमां शीलोपदेशमालान। चार संस्कृत टीकाओनी नोध छे. - (१) आ. सोमतिलकसूरि रचित शोलतरंगिणी, (२) ललितकीर्ति-कृत टीका, (३) पुण्यकीर्ति-कृत अने (४) अज्ञात - कर्तृक वृत्ति, आमांनं १ जुओ-जैन साहित्यका बृहद् इतिहास ( पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, १९६८ भा. ४, प्रकरण- ३. २. एजन, पृ. १९६. ३. जिनरत्नकोश, ह. दा. वेलकर, पुना, · १९४४, पृ. ३८५. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता लेखन भूमिका प्रथम शीलतरंगिणी सिवाय बाकीनी त्रण विशे नामोल्लेख सिवाय कशी माहिती मळती नथी, ज्यारे शीलतरंगिणी आगळना पेराग्राफमां जणाव्या प्रमाणे प्रकाशित थई गयेल छे. शीलतरंगिणीनी रचना रुद्रपल्लीय गच्छना आ० संघ तिलकसूरिना पट्टशिष्य आ. सोमतिलकसूरि, अपरनाम विद्यातिलके वि. सं. १३९४ (ई. स. १३३७) मां करेल छे. तेमना रचेला अन्य ग्रंथोमां वीरकल्प, षड्दर्शनसूत्रटीका, लघुस्तवटीका अने कुमारपालदेवचरितना नामो मळे छे.' शोलतरंगिणी टीका अहीं विशेष उल्लेखनीय एटला माटे छे के मेरुसुंदर उपाध्याय आ संस्कृत टीकाने अनुसरीने बालावबोधनी रचना करी जणाय छे. शीलतरंगिणीमां जे जे कथाओ के ते बधी ज कथाओ ते ज क्रमे अने लगभग सरखा विस्तारथी बालावबोधकारे गुजरातीमा आलेखी छे.. जुनी गुजरातीमां शोलोपदेशमाला पर अनेक बालावबोध जुदा जुदा समये रचायेला मळे छे, जेनी यादी आ प्रमाणे छे रचना हस्तप्रत-संग्रह अने संवत संवत स्थळ अज्ञात १४६६ हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर, पाटण १५२१ मेरुसुंदर १५२५ अनेक संग्रहमा সয়ার १५३० पूर्व १५५१ छाणी १५८८ १६१६ हेमचंद्राचार्य ज्ञान मंदिर, पाटण १६४० १९२१ - प्र. कान्तिविजयजी संग्रह, वडोदरा आ यादी परथी जणाय छे के मेरुसुंदर उपाध्यायनी पहेलां पण शीलोपदेशमाला पर बालावबोधो रचाया हता. पण आ बालावबोधोमां मेरुसुंदरना बालावबोध जेटली प्रसिद्धि बीजाने नथी मळी. मेरुसुंदर उपाध्याय अने तेमनी कृतिओ: शोलोपदेशमाला-बालावबोधना कर्ता उपाध्याय मेरुसुंदर विक्रमना सोळमा शतकना पूर्वाधमा थई गया. तेओ खरतरगच्छना प्रसिद्ध आचार्य जिनभद्रसूरि (वि.सं.१४४९-१५१४)ना पट्टशिष्य आ जिनचन्द्रसूरि (वि.सं.१४८७-१५३०) ना शिष्य वा० रत्नमूर्ति गणिना शिष्य हता. १. जैन परंपरानो इतिहास, ले. त्रिपुटि मुनि, भा. र, पृ. ४३६. २. शीलो. बाला. नी रचना पछी दश वर्षे (वि. सं. १५३५ मां), शीलो० बाला. ना रचनास्थळ मंडपदुर्गमा ज लखायेली शोलतरंगिणीनी एक हस्तप्रत ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरना हस्तप्रत-संग्रहमां छे. ते पण शीलतरंगिणी ते समय अने प्रदेशमा प्रसिद्ध होवानो आडकतरो पुरावो पूरो पाडे छे. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोंपदेशमाला-बालावबोध मेरुसुंदर उपाध्याय तेमना रचेला बालावबोधोने कारणे प्रसिद्ध छे. अत्यार सुधीमां तेमना रचेला चौद जेटला बालावबोध जाणवा मळेल'. शीलो. बाला० नी हस्तप्रतोनी शोध करतां अमने तेमना रचेल बे वधु बालावबोधनी जाण थई छे-एक धर्मदासगणिनी उपदेशमाला परनो अने बीजो छे नंदिषेण-कृत अजितशांतिस्तवन उपरनो. प्रथम बालावबोधनी प्रत रोयल एशियाटीक सोसायटीनी मुंबई शाखानी लायब्ररीमा छे२ अने बीजानी प्रतो पाटणना हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमंदिरमां तथा अमदावादना ला. द. विद्यामंदिरना संग्रहमा छे". आ रीते अत्यार सुधीमां कुल सोळ बालावबोध तेमना रचेला उपलब्ध थाय छे. ते बधानी विगते सूचि नीचे आपी छेक्रम कृति रचना-संवत विशेष नोंध १. शत्रुजय-स्तवन बालावबोध १५१८ अप्रकाशित २. पुष्पमाला-प्रकरण १५२३ ३ षडावश्यक-प्रकरण आ तथा पछीना बे बाला ४. शीलोपदेशमाला नी रचना मंडप दुर्गमां थई छे. ५. षष्टिशतक-प्रकरण १५२७ प्रकाशित ६. कर्पूरप्रकर-स्तोत्र १५३१ अप्रकाशित ७. वाग्भटालंकार १५३५ प्रकाशित ८. भक्तामर-स्तोत्र अज्ञात अप्रकाशित ९. भावारिवारण-स्तोत्र " १.. कल्प-प्रकरण ११. पंचनिग्रंथी-प्रकरण १२. योगशास्त्र १३. विदग्धमुखमंडन १४. वृत्तरत्नाकर १५. उपदेशमाला १६. अजितशांतिस्तवन , वओ, भा० १, पृ०६०१-२, भाग-३, पृ. १५८२-८५ तथा डो. भो. ज. सांडेसरा संपादित षष्टिशतक प्रकरण, प्रस्तावना पृ. १५-१६. २. Descriptive Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts in the Library of the Bombay Branch of the Royal Asiatic Society, Bombay, Vols. iii-lv, 1930, p. 404 (Ms. n. 1570) 3. Catalogue of Manuscripts in Shri Hemachandracharya Jain Jnanamandira, Patan, Part. 1, 1972 p. 563 (Ms. no. 12969) and p. 564 (Ms no 12994). ४. ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावादना पुन्यविजयजी आदि संग्रहमा हस्तप्रत क्रमांक-२२०४०. ५. षष्टिशतक-प्रकरण, संपा० डो. भो. ज. सांडेसरा, प्राचीन गुर्जर ग्रंथमाला, म. स. युनि०, वडोदरा, १९५३. ६. वाग्भटालंकार, संपा० प्रका० उपर मुजब, १९७५. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका आ बालावबोधो उपरांत हेमचन्द्राचार्य ज्ञान मंदिर, पाटणना संग्रहमा मेरुसुंदर उपाध्यायना नामे प्रश्नोत्तर-पदशतक नामक एक गुजराती रचना' तथा ६ जेटलां नानां नानां संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश स्तोत्रो पण मळे छे. बालावबोधोनी यादी जोतां जणाय छे के उपाध्याय जीए विविध विषयोना संस्कृत-प्राकृत ग्रंथोने गुजरातीमा उतार्या छे. वृत्तरत्नाकर, वाग्लट लकार ने विदग्धमुखमंडन जेवा जैनेतर ग्रंथोना बालावबोधो पोताना शिष्योने काव्य अने अलंकारनी समज आपवा तेमणे रच्या होई शके. ज्यारे षडावश्यक, शीलोपदेशमाला, उपदेशमाला आदिना वालावबोधो नवदीक्षित शिष्यो तेम ज साधारण ज्ञान धरावता श्रावकोने धर्मनी तत्त्वोनो बोध कराववाना उद्देश्यथी रच्वा जणाय छे. भव्य एटले के मुमुक्षु जीवोने बोध आपवाना हेतुथी पोते आ बालावबोधनो रचना करी छे एम तेओए स्वयं शौलो० बाला० नो प्रशस्तिमां कह्य छे. ___ उपाध्यायजी समक्ष ते समये आदर्शरूपे तरुणप्रभसूरि, सोमसुन्दरसूरि, जिनसागरसूरि आदि रचित बालावबोधो हता. षडावश्यक बाला. नी प्रशस्तिमा तेमणे जणाव्युं छे के तरुणप्रभसूरि-रचित षडा. बाला.ना अनुसार पोते आ बाला. रची रह्या छे.४ मेरुसुन्दरनी विशिष्टता एमना लाघवमा रहेली छे. निरर्थक लंबाण विना ज तेओ मूळना अर्थने गुजरातीमां सचोटताथी अने सरळताथी उतारी शक्या छे. तेमना उपलब्ध बोलावबोधोमां मात्र ७ना रचना-वर्षनी नोंध छे. तेमांधी प्रथ स्तवन बाला० नी रचना वि. सं. १५१८ नोंध'इ छे अने वाग्भटालंकार-बाला नी रचना वि. सं. १५३५. बाकीना पण आ समयगाळानी आजुबाजु ज रचाया होवान कही शकाय. वळी पडावश्यक, शीलोपदेशमाला अने षष्टिशतकप्रकरण ए त्रणना बालावबोधो मंडपदर्ग (हालना मध्यप्रदेशमा आवेल मांडु के मांडवगढ ) मा रहीने तेओए त्रणेक वर्ष ना गाळामां रच्या छे." १. हेमचन्द्राचार्य ज्ञान मंदिर, पाटण, हस्तप्रत नं. १२३६६. २. हेमचन्द्राचार्य ज्ञान मंदिर, पाटण, हस्तप्रत नं. ११५०१. ३. जुओ पछीनो पेरेग्राफ. ४. Descriptive Catalogue of Sans. Pkt. Mss. in the Library of the B. B. R. A. S., Bombay, Vols. III-IV p. 400 ( Ms. no. 1535 ) ५. षष्टिशतक प्रकरणनो बालावबोध मेरुसुंदर उपाध्याये बनारसमा रही रच्यो होवार्नु पोताना षष्टिशतक प्रकरणना संपादनमां डॉ. सांडेसराए नोंध्यु छे. (प्रस्तावना, पृ. १५). 'वणारीस' शब्दनो 'बनारस' एवो भळतो अर्थ करवाथी आ भूल थई जणाय छे. वणारीस'नो अर्थ अहीं 'वाचक' के 'उपाध्याय' एवो छे. अने मेरुसुन्दरना विशेषण तरीके ते पद अहीं तृतीया विभक्तिमा प्रयोजायु छे. वळी ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरना सग्रहमांनी नं. ३६५९नी षष्टिशतक प्रकरण-बालावबोधनी प्रतिनी प्रशस्तिमां तेनी रचना मंडपदुर्गमां वि. सं. १५२७ मां थयानु स्पष्ट जणावेल छे. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध शोलोपदेशमाला-बालावबोध शीलो. बाला.नी एक हस्तप्रतमाथी श्री मो. द. देसाइए बालावबोधना अंतमां आपेली लेखकनी स्वरचित प्रशस्ति नोंधी छे.' ते आ प्रमाणे छ श्रीमत्-खरतरगच्छे बहु-गुण-संबुध-राज-विदिते । षत्रिशत्-गुण-सहिता श्रीमज्जिनभद्रसूग्योऽभवन् । तत्राट्टाचल-शृङ्गार-हार-नायक-सन्निभाः । श्रीजिनचन्द्रसूरीन्द्राः जयन्ति सपरिच्छदाः । तेषां गुरूणामादेशं प्राप्य श्री-जय-मन्दिरं । श्रीमद्रत्नमूर्ति-गणि-वाचनाचार्य-शिष्यकः । श्रीमेरुसुन्दर-गणेगुण-मत्ति-परायणः । नाना-पुण्य-अनाकीर्णे दुर्गे श्री-मण्डपाभिधे । उदार-चरित ख्यात- श्रीमालज्ञाति-सम्भवः । संघाधिप-धनराजो विजयोऽस्ति दयापरः । तस्याभ्यर्थनया भव्यजनोपकृति-हेतबे । शोलोपदेशमालाया बालावबोधो मया रचितः । तावन्नन्दतु सोऽयं यावज्जिन-वीर-तीर्थमिदम् ॥ आ प्रशस्ति परथी शीलो. बालानी रचनानो समय, स्थळ अने उद्देश त्रणे स्पष्ट थाय छे-. सं. १५२५ ( ई. स. १४६९) मां बाला. भी रचना मेरुसुन्दर गणिए मंडाहर्गमां करो. श्रीमाल ज्ञातिना संघरति धनराजनो प्रार्थनाथी भन्यजनोना उपकार माटे लेखके आ रचना करी. मळ गाथा आपी एनो अनुवाद करवो अने वच्चे वच्चे अघरा शब्दोनी समजूति आपता जवी एवी खास करीने बालावबोधनी परिपाटि होय छे. अहीं पण ए ज पद्धति मेरुसंदरे, अपनावी छे. विशेषमा मूळ गाथाओमा आवतां दृष्टांतोने विस्ताराने संपूर्ण कथा रूपे रजू कर्या छे. आथी मूळ ११४ प्राकृत गाथाओनी व्याख्यानो विस्तार ६००० ग्रन्थान जेटलो मोटो थयो छे. आम बालावबोधनो मोटो भाग आ दृष्टांतो अने कथाओए रोक्यो छे. कथाप्रकतिओ अने कथाघटकोना अभ्यासनी दृष्टिए उपयोगी होई आ बधी कथाओनी विषय-निर्देश, कथा-क्रमांक अने पृष्ठ-संख्या सायेनी यादी नीचे आपी छे. , कथा-क्रमांकावटकोना से शाल ७ -८ १ गुणसुंदरीनी कथा पृ. २४ शीलभ्रंश उपरि २ द्वीपायन ऋषिनी कथा ३ विश्वामित्र ऋषिनी कथा १. जैन गूर्जर कविओ मा. ३, खं-२, पृ १५८३. २. शीलो. बाला. ना प्रस्तुत संगदनमां उपयोगमा लीधेली हस्तप्रतोमा मात्र एक B प्रतमां, जूज शाब्दिक फेरफार साथे, आ प्रमाणेनी ज कवि-प्रशस्ति मळे छे. पण ते अधूरी छे. जुआ प्रते-परिचय. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ९ -१३ १८-१९ २.-२१ २१२१-२२ २४-२८ २८-३० ३१-३२ शील उपरि ४ नारद मुनिनी कथा स्त्री-दासत्व उपरि ५. रिपुमर्दन राजानु दृष्टांत ६. इन्द्रनु दृष्टांत ७. विजयपाल राजानु दृष्टांत ८. हरिनी कथा ९. हरनी कथा १०. ब्रह्मानी कथा ११. चंद्रनी कथा १२. सूर्यनी कथा १३. इन्द्रनी कथा विषयनी प्रबळता उपरि १४. आर्द्रकुमारनी कथा १५. नदिषेणनी कथा १६. रथनेमिनी कथा कामविजेता शीलवंत महारमार्नु चरित्र १७. नेमि-चरित्र १८. मल्लिनाथ-चरित्र १९. स्थूलभद्र-चरित्र २०. वज्रस्वामि-चरित्र २१. सुदर्शन श्रेष्ठिनी कथा २२. वंकचूलनी कथा सती चरित्र २३. सती सुभद्रानी कथा २४. मदनरेखा सतीनी कथा २५. सती सुंदरीनु दृष्टांत २६. अंजनासुदरी- दृष्टांत २७. नर्मदासुदरी-कथा २८. रतिसुदरी कथा २९ ऋषिदत्ता कथा ३०. दवदंतीनी कथा ३१. कमला सतीनी कथा ३२. कलावतीनी कथा ३३. शीलवतीनी कथा ३४. नंदयंतीनी कथा ३५, रोहिणीनी कथा ३४-४६ ४७-५० ५१-५६ ५६-६३ ६४-६७ ६८-७१ ७३-७५ ७५-७९ ८०-८२ ८२-८७ ८७-९२ ९३-९६ ९६-१०४ १०४-११६ ११६-११९ ११९-१२३ १२४-१३१ १३१-१३३ १३४-१३५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला-बालासबोध शीलभ्रष्टर्नु उदाहरण३६. कूलवालूआनी कथा १३७-१३९ सती चरित्र३७ द्रुपदीनी कथा १४०-१४२ असतीनी कथा ३८ नूपुरपंडितानु दृष्टांत १४३-१४८ ३९ दत्तदुहितानी कथा १४८-१५० ४० अगडदत्त ( मदनमंजरी )नी कथा १५४-१६१ ४१ प्रदेशी राजा (नी राणी)नो कथा १६१-१६२ सती चरित्र४२. सीतानी कथा १६७-१७८ ४३. धनश्रीन दृष्टांत १७९-१८२ आमांनी केटलीक कथाओना मूळ जैन आगमो के आगमोनी र्णि, नियुक्ति आदि टीकाओमां रहेलां छे उदा० रथनेमिनी कथा उत्तराध्ययन सूत्रमा अने प्रदेशी राजानी कथा रायपसेगइय नामक आसमां मळे छ केट लीक कथाओ जैन पौराणिक साहित्यमाथी लेवामां आवी छे. उदा. सीतानी कथः, नेमिनाथ - चरित्र आदि. तो केटलीक कथाओ वसुदेवहिंडी ( श्रादत, नर्म र पुदी, ऋषिदत्ता आदि कथा ओ), समराश्च्च कहा ( धनश्रीनु दृष्टांत) जेवा प्राकृत कथा ग्रंथोमांथी लेवामां आवी छे. ___मूळ प्राचीन साहित्यमा मात्र नाम निदेश होय तेवा केटलाय दृष्टांतो पाछळना साहित्यमा पल्लवित थतां थतां लांबी कथानु रूप धारण करे छे. आवा कथा-विकासन, आलेखन एक स्वतन्त्र संशोधननो विषय छे. आगळ नोंध्युं छे तेन शीलोपदेशमा लानी सोमतिलकसूरि रचित संस्कृत टीका शी गिगोनो बालावबोधकारे प्रचूर प्रयोग को जणाय छे. छतां शीलो. बाला. मात्र अनुवाद न बनतां एक स्वतंत्र रचनानी कक्षामां मूकी शकाय तेवी कृति बनेल छे ते उ. मेरुसुंदरती आख्यानकार तरीकेनी सिद्धहस्तताने आभारी छे. प्रत-परिचय अने संपादन-पद्धति : मेरुसुंदरना शीलो० बाला नी घणी मोटी संख्यामां प्रतो अमदावाद, पाटण, जेसलमेर, खंभात, लीमडी आदि अनेक स्थळेना जैन ग्रंथभंडारोमां मळे छे. आ हकोकत कृतिनी लोकप्रियतानी अने व्याख्यान वगेरेमा ब्यापकपणे ते उपयोगी रही होवानी सूचक छे. प्रस्तुत संगदन प्रतोनी प्राचीनता व. ध्यानमां लईने नीचेनी ६ हस्तप्रतोना आधारे करवामां आव्यु छे, जेमनी संज्ञा क्रमे B, C, K, L, P अने Pu छे.' शीलो० बालानी सौ प्रथम नकल तथा पाठांतरोनी काची नांध श्रीमती गीताबहेन रायजीए वर्षों पूर्वे करेली. तेमणे B प्रतिनी नकल करी हती अने L तथा P प्रतोनां पाठांतरो लीयां हतां. संपादन-समये अमारी पासे आमांनी मात्र L प्रति ज हती. आथी पाठनी चोकसाइ १. प्रस्तुत संपादनमा मूळपाठना पृ. १ थी ३२ सुधी B प्रतिनी संज्ञा भूलथी A छपाई छे, ते B समजवी, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका अने निर्णय माटे अमे ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरमांना विविध हस्तप्रत-संग्रहोमां रहेल शीलो० बाला० नी अनेक प्रतोमांथी प्राचीनता अने शुद्धिनी दृष्टिए महत्त्वपूर्ण जणाती K अने Pu प्रतो पसंद करो. तदुपरांत पाछळथी मळी आवेल, B ना जेवी न, बीजी एक C संज्ञक प्रतनो उपयोग कर्यो छे. आ रीते B उपरथी ने घायल पाठने C, K, L, P अने Pu प्रतोना आधारे शुद्ध करेल छे. B अने P प्रतोनो परिचय ते ते प्रतना संग्रहना छपायेल सूचिपत्र परथी अहीं आपेल छे. B घी बोम्बे ब्रान्च ओफ घी रोयल एशियाटीक सोसायटी, मुंबईना हस्तप्रत-संग्रहनी कागळनी हस्तप्रत, नं. १६६४१. माप - १०” × ४.५” (२५.५ x ११.५ से. मी.) पत्र - १६४, प्रतिपृष्ठ लगभग १३ पंक्ति, छेल्लं पत्र (१६५) खूटे छे. लेखनकाळ - अनुमाने विक्रमनी सोळमी शताब्दीनो अंतभाग. आदि :- ॥ ६० || श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री नामेयममेयश्री सुरैश्व सहितैर्हितैः । प्रणिपत्य सत्यभक्त्या अंत :- श्रीखरतर गच्छे बहु-गण-यति-संयुते धरा-विदिते । षट्त्रिंशत् - गुण - सहिता श्रीमज्जिनभद्रसूरयोऽभवन् ॥ तत्पट्टाचल-शृङ्गार-हार - नायक - सन्निभाः । श्रीजिनचन्द्रसूरीन्द्राः जयन्ति सपरिच्छदाः ॥ तेषां गुरूणामादेशाः (शं) प्राप्य श्रीजयमन्दिरं । श्री मद्रत्नमूर्ति-गणि-वाचनाचार्य सेवकः ॥ गुरु-भक्ति-परो नित्यं मेरुसुन्दर आदरात् । प्रतनुं छेल्लं पत्र न होवाथी प्रशस्ति अधूरी मळे छे. C. श्री ला द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अमदावादना शेठ श्री भाणंदजी कल्याणजो संग्रहनी कागळनी प्रति, नं० १२६२१. पत्र - १७६, माप- १०.५” X ४५” ( २६ x ११.५ से. मी.) प्रति पृष्ठ पंक्ति १३, प्रतिपंक्ति अक्षर ५० लगभग स्थितिसारी, शुद्धप्राय. लेखन - समय: विकमनी सोळमी सदी अनुमाने. आदि - ||६० || नमो वीतरागाय । ॥ श्री वामेयममेय...... ९ अंत आ प्रतनो उपयोग २९ मी ऋषिदत्तानी कथा (पृ. ९६ ) थी करेल छे. प्रशस्ति विना ज, अपूर्ण. १. जुओ- A Descriptive Catalogue of Sans and Pkt. Mss. in the Library of the Bombay Branch of the Royal Asiatic Society, Vols. III-IV, Compl. by H. D. Velankar, Bombay 1930, p. 426. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला-बालावबोध ___K. श्री ला. द, भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर. अमदावादना श्री कीर्तिमुनि संग्रहनी कागळनी प्रति नं० १०१३७. पत्र- ११०, माप- १०. ५" x ४. ४” (२६x१० से. मी.) प्रतिपृष्ठ पंक्ति १७ लगभग, प्रति-पंक्ति अक्षर ५५ लगभग. स्थिति-सारी, लेखन-समय:- वि. सं. १६७२. आदि- ॥६०॥ श्री गुरुभ्यो नमः ॥ ॥श्री वामेयममेय... अंत- इति श्री शीलोपदेशमाला-बालावबोधः संपूर्णः ॥ श्री खरतर-गच्छे श्री जिनचन्द्रसूरि- शिष्य वा. मेरुसुन्दर-गणि-विरचितः । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोश्च ।। . तत्व २५-व्रत ५. चन्द्र १- मिते वर्षे सन्मेरुणा रचित एषः। तावन्नि(न)दतु सोऽयं यावज्जिन-वीर-तीर्थमिदं ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यद(दि) शुद्धमशुद्ध वा मम दोषो न दीयतां ॥ संवत १६७२ वर्षे भाद्रवा श्रुदि ११ गुरौ अहम्मदाबाद-वास्तव्य श्राविका रही आदे[१श]ई शीलोपदेशमालनु(मालाना) बालाविबोधनी प्रति साधवी(वी) रंगवृद्धिनई नेशालीआनई मजीई प्रति वहिरावी पुण्यार्थे ॥शुभं भवतु ।। ____L. शेठ आणंदजी कल्याणजी जैन ज्ञानभन्डार, लीमडीनी कागळनी प्रति. नंबर२५६६. पत्र १३१, प्रतिपृष्ठ पंक्ति- १५, प्रतिपंक्ति अक्षर- ५२ थी ५४. माप-१२" x ४.८" (३०. ५४ १२ से. मी.), लेखन-समय- वि.सं. १६०८. आदि- ॥६०॥ श्री जिनाय नमः ।। ॥श्री वामेयमामेय... अंत:- इति श्री शीलोपदेशमाला-प्रकरण बालावबोधः समाप्तः । ग्रंथाग्र ६००० । संवत १६०८ वर्षे पोष वदि २ बुधे सधि(सिद्धि) योगे। अद्य श्री स(सु)लतानपुरबंदरे बा. श्री व(वी)नित तिलक-स(शि)ध्य-मुनि-राजत( तिलक लख्य(लिखि) तं । श्व(स्वयं पठनार्थः (थे) ॥ शुभं भवतु ॥छ।। P. भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च ईन्स्टीट्युट, पूनानी कागळनी प्रति नं. १२६० (१८८७-९१ना संग्रहमांनी), पत्र-- ३०३. लेखन-समय : वि. सं. १६१७. आदिः-॥श्री सर्वज्ञाय नमः ॥ श्रीवामेयममेय ----- अंतः- इति श्री शीलोपदेशमाला । वा० श्री मेरुसुन्दरोपाध्याय-विरचित श्रीशोलोपदेशमाला-बालावबोधः समाप्तमिइ(१)ति ॥ श्री ॥ शुभं भवतु लेखकस्य ।। संवत १६१७ वर्षे माघमासे शुक्लपक्षे पूर्णातिथौ भृगुवासरे ।। शाखीराज्ये । पा० जल्लालदी(लुद्दीन अकबर(रे) राज्य सा(शा)सति । श्री फतिहाबादपुर-मध्ये चंडालिया गोत्रे चउ० जींदा । तत्पत्र च० नानिग । श्री शीलोपदेशमाला-[बाला]वबोधस्य पुस्तक(क) लिखापितं । मांगल्यं ददातु ॥छ। यादृशं पुस्तक(के) दृष्ट्वा(ष्ट) तादृशं लिखितं मया । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ||१|| तैलाद्रक्षं (क्षेत्) जलाद्रक्षं (क्षेत्) रक्षेत् सिथ (शिथिल - बन्धनात् । मूर्ख हस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तके (कं) ॥२॥ ग्रं. ६००० । तदुपरि श्लोक पञ्चशतानि ५०० । तदुपरि श्लोक द्वाविंशति २२ ॥ श्री ॥ श्री ॥ छ ॥ Pu. श्री ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अमदावादना मुनिराज श्री पुण्यविजयजी हस्तप्रत-संग्रहनी कागळ्नी प्रति, नं ३८०४ पत्र २ थी १२६ (प्रथम पत्र खूटे छे.) भाप - १० X ४.२ (२५.५ ×१०.५ से. मी. ) प्रतिपृष्ठ पंक्ति १६, प्रतिपंक्ति अक्षर- ५० लगभग. स्थिति:- मध्यम लेखन समय:- वि. सं. १५६८. आदि-पत्र १ लुं नथी. ११ अंत - इति श्री शीलोपदेशमाला-प्रकरण - बालावबोध समाप्तः । संवत १५६८ वर्षे चैत्र वदि नवम्यां तिथो भृगु-वासरे लिख्य (खि) तं || शुभं भवतु || श्री श्री बृहद्गच्छे पूज्य श्री श्री श्री श्री श्री मतिसुन्द [र] सूरि तरपट्टे श्री श्री श्री श्री श्री पद्मासागर सूरि...... शुभं भवतु || श्री श्री ॥ मडाहडीय गच्छे भट्टारिक श्री मतिसुन्दरसूरि श ( शै) क्ष मुनि मही सुन्दर पठनार्थं ॥ श्रीरस्तु || देवी (व्यै नमः ॥ उपरनी छये प्रतोमां एक मात्र K. पाछळनी (सं. १६७२) केटलांक नोधवालायक परिवर्तनो थयां छे. ज्यारे बाकीनी बीजी पांचे निकटनी होई पाठनी बाबतमां लगभग एकरूप छे अने तेथी ज लहियाओनी बेदरकारीने कारणे अत्रतत्र भाषाविषयक भूलो नजरे चडे बालावबोधनी विशिष्ट शैलीने ध्यानमा राखीने प्रस्तुत संपादनमां अमे नीचेना नियमोने अनुसर्या छीए : छे. ( १ ) मूळ प्राकृत गाथाओ घाटा टाइपमां मूको छे अने तेना संख्यांक सळंग ( १ थी११४) आप्या छे. ग्रंथना अंते आ मूळ गाथाओनी पण अकारादि सूची आपी छे. मूळ गाथाओनी शुद्धि माटे बालाववोधनी ज प्रतो पर आधार नहीं राखतां मूळमात्रनी अनेक प्रतो जोईने पाठशुद्धि करेल छे. (२) मूळगाथा पछी 'व्याख्या' एवा शीर्षक नीचे गुज० बालावबोध आपेल छे.बालावबोधमां आतां प्राकृत- संस्कृत उद्धरणाने सादा टाइपमां मूक्यां छे अने नंबर आप्या नथी. तेनी अकारादि सूची ग्रंथांते आपी छे. बालावबोधमांना दृष्टांतो अने कथाओने ( १ थी ४२) क्रमांक ओपी ते दरेकनी शरूमां चोरस कोष्ठकमां शीर्षक आपी अने अंते फूदडी मूकी जुदा तारवी आपेल छे. (३) बालावबोधना सळंग गद्यने परिच्छेद पाडी जरूरी विरामचिह्नो मूकवा उपरांत शब्दार्थ- समजूती खातर लेखके आपेल पर्यायाने बराबर ( = ) ना चिह्नथो दर्शाव्या छे. वळी परप्रत्ययो स्पष्ट करवा शब्द अने प्रत्ययनी वच्चे हाईफन (-) मूकी छे. उदा. -भणी, - माहि, - लगी, पाहि छे अने तेना पाठमां प्रतो लेखकना समयनी प्रमाणभूत पण छे. मात्र (४) अशुद्ध शब्दादिनु शुद्ध रूप गोळ कोष्ठमां ( ) अने अमे उमेरेला शब्दादि चोरस [ ] कोष्ठमां मूक्या छे. संदिग्ध शब्दादि पछी (१) प्रश्नार्थ मूकेल छे. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालोपदेशमाला-बालावबांध (५) तिसई-तिसई, कन्हइ-कन्हलि, पाहि-पाहिंति, लगो-लगइ, आव्या-आविआ, हुआ-हुआ इत्यादि रूपोमांबे के वधु रूपो अनेक वार मळतां होई ए बधां रूपो प्रचलित होवान अनुमानी शकाय छे. अमे बन्ने के वधु प्रकारना रूपो यथावत् राख्यां छे. १६ मार्च, १९८०. -र. म. शाह अमदावाद बालावबोधो प्राचीन गुजराती गद्यसाहित्य घणु ज विपुल छे,' अने तेमां कथाप्रधान बालाबचोधो सौथी विशेष महत्त्वना छे. चोदमी शताब्दःथ आ प्रकारनी कृतिओ मळे छे. तेमांनी कथाओ पूर्ववर्ती प्राकृत-संस्कृत कथाओ पर आधारित होवा छतां घणी वार ते केवळ यांत्रिक शब्दानुबाद नहीं, पण जुदा श्रोताओने लक्षमा राखाने, मूळ कथामां जरूरी फेरफारो करी नवेसरथी कहेली होय छे. आथी तेमने धणे अंशे स्वतंत्र कथाकथनना गद्य तरीके लई शकाय. 'षडावश्यक', 'उपदेशमाला', 'शीलोपदेशमाला', 'पुष्पमाला', 'योगशास्त्र', 'भवभावना', जेवा औपदेशिक प्रकरणो परनी दीकाओ कथाकोशो जेवो हती, तेथी तेमना परथी संख्याबंध बालाबबोधो रचाया छे. आ उपरांत 'ज्ञाताधर्मकथा' जेवो कथाप्रधान आगमग्रंथ, 'जंबुचरित्र, 'पांडवचरित्र' अने 'कल्पसूत्र' (तीर्थकरचरित्रो) जेवो चरित्रप्रधान कृतिओ अने 'पंचतंत्र' जेवी लोकप्रिय कृतिओ पण कथाप्रधान बालाबबोधो माटे अनुकूळ नीवडयां छे. आमांथो केटली कतिओ पर तो उत्तरोत्तर अनेक हाथे नवनवा बालाबबोघ-पांचसात के आठदस सुधी पण रचाता रह्या छे. तरुणप्रभ, सोमसुन्दर, हेमहंस, माणिक्यसुन्दर, मेरुसुन्दर, आसचन्द्र वगेरेनुं आ विषयमा महत्त्वन अर्पण छे. प्राचीन पद्यसाहित्यनो सरखामणोमां गधसाहित्यना सम्पादन, संशोधन उपर घj ज ओछ लक्ष अपायु छे. मुनि जिनविजयजीना 'प्राचोन गुजरातो गद्यसंदर्भ' (ई.स.१९३०)थी आ दिशामां पहेल थई.' तेमां तथा ते पछीना चारपाँच प्रयासों द्वारा अद्यावधि प्रकाशित कथायुक्त गद्यकृतिओनी विगतो नीचे प्रमाणे छः षडावश्यक-बाला. १३५५ तरुणप्रभ जिनविजय संपादित 'प्रचीन गुजराती गद्य (केटलोक अंश) संदर्भ'मां उपदेशमाला-बाला० १५ मीनो पूर्वाध सोमसुन्दर (केटलोक अंश) योगशास्त्र-वाला (केटलोक अंश) षडावश्यक-बाला० १५ मीनो हेमस केटलोक अंश . मध्य भाग उपदेशमाला-बाला १४८७ नन्न टी. एन. दवे सम्पादित (१९३५) १.मो. द. देशाई, 'जैन गूर्जर कविओ', भाग ३, खंड २ (१९४४) पृ.१५७२-१७०३; भो. ज. सांडेसरा, 'गुजराती साहित्यनो इतिहास', ग्रंथ१ (१९७३), पृ. २९३-२९८; ह. च. भायाणी, 'गुजराती साहित्यनो इतिहास, ग्रथ २-(१९७५), पृ. ६६७-६६८, ६७५-६७८. २. ते पहेलो तेस्सितोरोए तेमना 'नोट्स ओन ग्रामर ओव ओल्ड वेस्टर्न राजस्थानी' (१९१४)मां बालावबोधोमांथो योडोक अंश आ'यो हतो. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पंचाख्यान-बाला० १६ मी शताब्दी यशोधर सांडेसरा अने पारेख संपादित (१९६३) (पहेलु तन्त्र) षडावश्यक-वाला० १३५५ तरुणप्रभ प्र.बे. पण्डित संपादित (१९७६) 'शीलोपदेशमाला' पर पंदरमी शताब्दीथी लईने सत्तरमी शताब्दी सुधीमां पांच-छ बालाबबोधो रचाया छे. मेरुसुन्दर उपाध्यायनो प्रस्तुत बालाबोध मुख्यत्वे तो रुद्रपल्लीय गच्छना संघतिलकसूरिना शिष्य सोमतिलकसुरिए चौदमी शताब्दीना मध्य लगभग रचेली 'शीलतरंगिणी' टीकानो मुक्त अनुवाद छे. शोलोपदेशमाला-बालाबबोधनी भाषाकीय लाक्षणिकताओ शी. बा. नो भाषा उपर थोडेक अंशे प्राकृतनो (मूळग्रंथनी भाषा) अने संस्कृतनो (आधारभूत टीकानी भाषा) प्रभाव छे. संस्कृत प्रभावना द्योतक अनेक शब्दोमा विशेषे नीयेना जेवा तत्सम के तत्समप्राय) क्रियापदोनो समावेश थाय छे. प्रसद, अपहर्, विसर्जु , नमस्कर् , आश्रय् , उन्मूल् , उपशम् , अवगाह, अभ्यस्, संतोष , व्यामोह, आलोच, आच्छाद्, प्रतिबोधू, अवगण, प्रयुज् , पडिलाभू , आव , विराध् , ध्या, कलं, क्षाभ् . वळी रसवती, अधिष्टायका वगेरे संख्याबंध शब्दो पण आ प्रभावना द्योतक छे. प्राकृत प्रभावना द्योतक केटलाक शब्दोः धातु-संपज् , पडिवज् , अहिआस् , आलोय, प्रतिबूझ, पच्चक्ख, उपाय, भख, वक्खाण्, अन्य शब्दों: आकुट्टी, तहात्त, कलाबइ (तेम ज कलावती). केटलाक फारसोमांथी स्वोकृत शब्दोनो वपराश पण नोंघपात्र छे : कागल, कारखानउँ (५२), खरच, बगल, बंदोवाण, बंदोखाणउं, मजूद. अवारनवार मेरुसुन्दरे लोकप्रचलित कहेवतोनो उपयोग पण कर्यो छे. पण समग्रपणे लेतां. शी.मा.बा.ना गद्यने तत्कालीन कथाकथनना गुजराती गद्यन प्रतिनिधिरूप गणी शकाय. शैली एक तरफथो आलकारिकता अने प्रस्तारने टाळे छे, तो बीजी तरफथी ते केवळ मुद्दानोंध के कोरी रूपरेखा बनवाथी बचे छे अने वर्णन, भावनिरूपण, संवाद वगेरेनो पण मापमां आश्रय ले छे. बेत्रण स्थळे ता प्रासबद्ध ढूंका वर्णकोनो पण उपयोग कर्यो छे, जेम के पा. ६८ (वर्षाकाळनुं वर्णन), पा. ७८ (युद्धवर्णन), पा. ९८ (योगिनीवर्णन), पा. १३२ (विरहिणीवर्णन) मेरुसुन्दरगणि उपाध्याय होवा छतां पांडित्यनो प्रभाव 'जितकासी' जेवा थोडाक शब्दप्रयोगो पूरतो ज पड्यो छे. शी. बा.नी भाषाविषयक नोचेनी नोंधनो उद्देश व्याकरणदृष्टिए थोडीक विशिष्टताओ टपकाववानो छे, व्यापक प्रयास माटे तो वधु व्यवस्थित रीते अने मेरुसुन्दरना बोजा बालावबोधोने पण आवरी लईने सामग्री तारववी आवश्यक छे. वळो साहित्यिक दृष्टिए आ गद्यनो विचार करवान अहीं सहेज पण बन्यु नथी. ____. ध्वनितत्त्व (१) क्वचित् इ नो अः वरिस अने वरस, परिणू अने परण, पडिल अने पडखू , थिकउ अने थकउ, बहिनि अने बहिनि, जि अने ज, अधिकरणना .इई अने अड, सामान्य कृदंतना इवउ अने ०अवउ; धातुस्वर अ के ओ पछी ०इवर नो इ कोई वार लुस थयो छे: जोइवा, थाइवा तेम ज रोवा, थावा, जावा. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध (२). इ नो यः भूतकृदंतना ०उनी पहेलां (क्वचित्): आव्यउ, कान्यउ, जणाव्यउ, भूख्यउ. भूतकृदंतना ०आ नी पहेलां (व्यापकपणे) : कर्या, आव्या, मोकल्या वगेरे. क्वचित् रहियां, वीटिया. भविष्यना सिइ न स्यइ (क्वचित्) : हुस्यइ; अन्यत्र : सिउ उपरांत स्यूं(अने सू). एकबार विणासिउं ने बदले विणासू. - (३). क्वचित् अइ नो इ : नइ अने नि, कन्हइ अने कन्हि. (४). अउ नोउ : अउरतउ अने उरतउ, कउतिग अने कुतिग, कउण अने कुण, नउ अने ०नु, जउ अने जु, तउ अने तु. भूतकृदंतनां विस्तारित अंगोमाः कहिउ, आविउ, कराविउ वगेरे. क्वचित् अउ नो ओ : वरिसिजो, वसाविज्यो, हलाविज्यो, पामउ अने लहु, सम्बोधन ब. व. मां लोकउ अने प्रधानो. ___ (५) अंत्य अनुनासिक लुप्त करवानुं वलण : करण विभक्तिना ० इई ने बदले ० इड,अकारान्त नपुंसकलिंग प्रत्यक्ष विभक्ति एकवचनना ०उं ने बदले ०उ, बहुवचन आँ ने बदले आं, त्रीजा पुरुष बहुवचनना ०ई ने बदले ०३ वगेरे (६) बे स्वर वच्चेना हकारनी, आसपासना अक्षरोना स्वर पर विविध असर: अनुवर्ती अ नो इ के उ, पूर्ववर्ती नासिक्य व्यंजन के लू पछीनां अ नो लोपः विहिच, रहिती, कहिवराव, पुहची, मुहतउ, मुंहतउ, महुतउ, मुहुर; ए (एह) अने तूं (तुहुं) जेवामां हकारनो लोप थयो छे. (७) प्रकीर्ण फेरफार : शय्या नुं शिय्या, करण नुं किरण, बालावबोध र्नु बालाविबोध, तरिस न तिरस, पट न पुट, कंचुकीनू कुंचकी, कडछउनु कुडछउ, अनइ नुं नइ, मयणहल अने मीणहल, चीतराविवा न चीतरावा, फेरविवा नुं फेरिवा अने करणवार तथा कणवार. कुणहइ मां हकार तेहइ, जेहइ ना सादृश्यप्रभावे छे.. - (८). संस्कृतमांयी स्वीकृत शब्दोमां (तत्समोमां) संयुक्त व्यञ्जन क्वचित् विश्लिष्ट बन्यो छः सनेह, महातमा, महातम्य; बे स्वर वच्चेना क् नो ग थयो छे : कुतिग, वणिग, आगर, नरग, मरगी, उपगार, उपगरण, सुगाल;ष्ठ नो ष्ट थयो छे : काष्ट, वशिष्ट, श्रेष्ट, अधिष्टायका स् नो शू थयो छेः शीता, सहश्र; क्षना उच्चारणमां यकार भळयो छेः दीक्ष्या, शिख्या. २. रूपतत्त्व : साधक प्रत्ययो (१) विशेषण परथी भाववाचक नाम बनावतो पणउं प्रत्यय केटलीक वार तत्सम साधित भाववाचक नामने लाग्यो छे (ने एम बेवडो प्रत्यय जोवा मळे छे.): पौरुषपणउं, गौरवपणउं, सौर्यपणउं, सौभाग्यपणउं, पुरुषार्थपणउं, धैर्यपणउं, धीरिमपणउं, लघुत्वपणउं, प्रभुत्वपणउं, देवत्वपणउँ, यौवनपणउं, उपरांत विकारपणउं, विश्वासपणउं. - (२). अण प्रत्यय वाळा आख्यातिक नामने हार लागीने कर्तृवाचक (भविष्य कृदंतनी अर्थछाया धरावा) नाम सधाय छे: करणहार, धरणहार, कहणहार, वहणहार, वसणहार, देणहार, करावणहार, लगाडणहार, जाणहार, पालणहार. (३). क्वचित् अ प्रत्यय नाम परथी विशेषण बनावतो जोवा म छे : तापसउ वेष, श्रावकउ धर्म. (४). भूतकृदंतना रूपने (विशेषे निरपेक्ष रचनामां) अण- लागीने निषेधवाची रूप बने छः अण देखाडिइ, अणआलोइ, अणविचारिइ, अणजीतउ, अणजणावतउ, अणबोलिउ. विण- पण वपराय छे विणभोगवी. . Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (५). कुत्सावाचक -ई र प्रत्ययः सियालीउ; -इल : थोडिलउ. (६) राजल मां विशेषनामने टुंकाव'ने ल प्रत्यय लगाडेलो छे. (७) कउतिगीयाल मां कउतिगीउ एवा मत्वर्थीय ईउ प्रत्ययने फर थी मत्वर्थोय आल लाग्यो छे. (८) पूर्विलडं, जातिलउ (= जातवान). (९) ससंभ्रांत अने सकोमल मां तत्सम संभ्रांत अने कोमल ए विशेषणोने स्वार्थे स- लाग्यो छे. ३. नामिक अंग (१) नीचेनां नामो स्त्रीलिंग छे : आगि, अग्नि, दुंदुभि, राशि, मणि, महिमा, दृढिमा, वस्तु ='चीज'), पाखंड, थाप (Dथापो); देवता पुलिंग छे : देवता अदृश्य हुउ. (२). नोचेनां साधित स्त्रीलिंग अंगो ध्यानपात्र छः कउणि : ए कउणि ? प्राणनाथि : हे प्राणनाथि ! युक्ती (=योग्य) : राखिवा युक्ती नही. लेणहारि : दीक्षा लेणहारि छइ. जाणी (जाण उपरथी) अधमि, नीचि, निस्नेहि महिला. (३). नीचेनां अंगो अकारान्त छ : गर (= गरु), शांतन (= शांतन). ४. आख्यातिक अग कर्मणि अंग जून ई प्रत्ययवाळु अंग केटलीक वार वपरायु छे, परंतु ते मोटे भागे तो अकर्तृक रचनामा क्रिया करवानी भलामणना अर्थमां वपरायुं छे. अने तेमांथी वर्तमान पहेला पुरुष बहुवचन- ईइ वाळु रूप नीपजवा लाग्युं छे. नवा कर्मणि अंगनों प्रत्यय -आ- छे. कर्मणिनो -आ लागतां समराह मां धातुस्वरना आ नो अथयो छे. प्रेरक अंग -आव् प्रत्ययः धोआवइ, जोआवइ, कहावइ. आव् प्रत्यय लागतां परावइ भां धातुस्तरना आ नो अ थयो छे. .... -आर् प्रत्यय चीतारइ मां पण मळे छे. आर् प्रत्यय लागतां धवारइ मां धातुावग्ना आ नो अ.थयो छे. -राव् प्रत्यय : देवराव् , लेवरो, कहिवगव् , सहिवराव् .. प्रेरकनां कर्मणि रूपः देवराइ, लेवराइ, कहिवराइ, सहिवरासिइ. प्रेरक- प्रेरकः चडावाविउ, वधराविउ. .. दूषविवा मां अव् प्रत्यय छे. चिंतवू , पूरव, गोपवू मां अव् प्रत्यय प्रेरणार्य नथी, रीसाव् मां आव् प्रत्यय प्रेरणार्थ नथी. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ५. संधि नअर्थक न (सामान्य) अने म (आज्ञार्थ रचनामां) पछी आ थी शरू थतु क्रियारूप आवतां केटीक वार अ+आ नी संधि थईने आ परिणम्यो छे : नावलं, नावइ, नापलं, नापइ, नादरलं, नाचरोइ मापिजो, माणेसि, मावेसि ६. निपातो -नइ, -न संबधक भूतकृदंत -ई प्रत्ययान्त छे, पण केटलीक वार ते रूपने -नइ लगाडीने विस्तरण कराय छे. ते ज प्रमाणे आज्ञार्थना रूपने अनुरोधदर्शक -न के -नह: सबंधक भू. कृ. जोईनइ, हसोनइ, करीनई, विचारीनइ वगेरे . आज्ञार्थः कहि-न, कहि-नइ, जोइ-न, जोउ-नइ, नामिक अंग अने अनुगनी वच्चे जि अनेछ मुकाय छे : शील जि नउं महातम्य, कर्म जि नउं फल, नाद जि नइ विषड, धर्म जि नइ विषइ, हाथ जि माहि, जगाविवा जि भणी, सार-इ-नउ संदेह, प्राण-इ-पाहइ. ७. पर्याय-समास एक स्वीकृत शब्द (संस्कृतमाथी के फारसीमांथी) अने बोजो तेना समानाथर्क के तदेवार्थक चालु वपराशनो शब्द-ए बेना समासनां थोडांक उदाहरण मळे छे. उच्च शलीना पण अजाण्या शब्दनो प्रयोग चालु शब्दथी समजाववानी वृत्तिमांथी तथा व्याख्यानशैलीमांथी (के क्वचित अनुवाद-प्रवृत्तिमांथी) आ वलण उद्भबे छे. अन्य अर्वाचीन भारतीयआर्य भाषाओमां पण आ प्रकारना समस्त शब्दो मळे छे. कागळपत्र, मालसामान, धनदोलत वगेरे अर्वाचीन गुजरातीमां वपराय छे. आ उपरांत चालु वपराशना समानार्थे के लगभग समानार्थक शब्दोना समासनां पण बेचार उदाहरण मळे छे. श्रीफळ-बीलउं, खग-पांखीउ, शिवा-फेकारी, सीमा-सेढउ, उद्यान-वन, कपिवानर, वस्तु-भांड, जाण-वेत्ता, पति-भर्तार, उचित-योग्य, मान-अहंकार, सम-शपथ, प्रभातइ-सवारइ, गरहीती-निंदीती, हीन-दयामणउ, सारणा-वारणा, काज-काम, ग्वाही-साखीआ. ८. आख्यातिक समास आमां परस्पर संकलायेला अर्थ वाळा बे क्रियारूप संयुक्तरूपे वपरायेलां होय छे. उदाहरणोः हस्तींद्रइ कांइ चेयइ-वेयइ नही; नलराजा कांइ चेयइ-वेयइ नही; जाइ-आवइ, जईइ-आवीइ,भणती-गुणतो, गरहीती-निंदीती, सूतां-बइसतां, हीडता-फिरतां, लालिउपालिउ, दीठी-सांभली. छूटो प्रयोग पण बोलइ नही, चालइ नहीं एवो मळे छे. एक रचनामां वरि अने भलउ एकार्थक साथे वपराया छे, तेमां बरि थी, शरू थती पर्व प्रचलित रचना अने अंते भलउ वाळी नवी रचना-ए बेनो संकर थयेलो छ : वरि अजायउ पुत्र भलउ. ते ज प्रमाणे त्रिहु त्रिभुवन एवा प्रयोगमां त्रि बेवडायो छे. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ९. समस्त क्रियापदो पोताना मूळ अर्थमां नहीं, पण कशाक गौण अर्थमां, अन्य आख्यातिक धातुना संबंधक भूत कृदंत, सामान्य कृदंत वगेरे जेवां रूपो साथै मुख्य क्रियापद तरीके वपराता क्रियापदो वाळी ( अर्वाचीन भारतीय भाषाओना वर्तमान स्वरूपमा घणी जाणीती ) रूढार्थ रचनाओ शी० बा • मां गणनापात्र संख्यामां मळे छे : लागू : करिया लागउ अने ए ज प्रमाणे धरिखा, कहिवा, चालिवा, पूछिवा, मानिया, लीजिवा, जावा वगेरे साथ लाग् मांडू : करिना मांडी, कहिवर मांडिउ. दे : करिव दिइ (अने ए ज प्रमाणे राखित्रा, मरिवा, आविवा, जावा, लेवा वगेरे साथे), वहिची दीधउ. मूं बांधी मूंकि, भरी मूकिड, बारणां देई मूक्यां, सोखवी मूकी छइ, राखी मूकी, घाती मूकिड. जा : लेइ गया, करावी जाइ, नीकली गयउ, नासी गयउ, वीसरी गयउ . आव् : मिली आवड, लेइ आविउ, पूछी आवड, जोई आवीई. ऊठ्र : हणवा ऊठया. बइठू : रोवा बइठी. रहू : करत रहइ (=कर्या करे ), रोतउ जि रहइ (= शेयां ज करे ), सुई रहिउ . छांडू : मूंकी छांडिउ. आ ज संदर्भमां मुख्य क्रियापदना संबंधक भूतकृदंतनी साथे कर् ना भूतकृदंतना ( संलग्न इतर क्रियार्थना सूचक) प्रयोगनां उदाहरण नोंधीए : हसी करी, ऊठी करी, जाणी करी, लेई करी, विमासी करो. लहू ने पाम् धातुओ अन्य क्रियापदना सामान्य कृदंत साथे शकवु ना अर्थमां वपराय छे ए पण अहीं ज नोंधी लईए : पइसिवा न लहइ, आवित्रा न लहइ, ते लेवा लहइ, जावा लहिसिउ. १० सहायक क्रियापद हू ने था बने सहायक क्रियापद तरीके वपराया छे. हूनो प्रयोग वधु प्रमाणमां थयो छे, अने हिंदोनी जेम ते थाना अर्थमां पण वारंवार करायो छे. नीचेन वाक्योमां हू बने अर्थमां एक साथे वपरायो छे : नहीतरि मरण हूउ न हूत, पुत्र हूइ न हुई, नहुतउ हूउ. ११. संयुक्त काळनां रूप पामउ छउ आवउं छडं रहइ छइ बोलइ छ १७ भमउ छउ आविउ हूं त मोकलिउ छइ आणी छउ दीधी छन् मूकिउ छड़ गया छइ मेल्ही हुसिइ पडया हूँता कहि हू देता हूँता, सांभली हूंती, सूती हूंती नहूत मूंकत Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध जावउं छ नथी दीघउ लीजइ छइ १२. कर्मणि रूपो : जाणीसिइ, देखाडीसिइ, पामीइ, रचीइ प्रज्वालीइ, मोकलीइ जाईइ, सारीई, जगाडीइ, जाणीइ, वालीइ, काढीइ, मागीइ, जिपाइ, लोपाइ, अवाइ, जवाइ, शकाइ, घसाइ, हणासिइ. १३. कृदंत : कर्मणि वर्तमान कृदंत : पालीतउ. भूत कृदंत : केटलांक आगळ्थी ऊतरी आवेलां 'सिद्धावस्थ' भूत कृदंतनां रूप मळे छे : लागउ, छूट उ, बेटउ, उभगउ, थाकउ. __ क्वचित कूबरि जीतउ, कदंवि हारिउ एवी भूतकृदंतने कमणि गणती जूनी रचना मळे छे. पण घणुखरु अकर्मक क्रियापद साथे कर्तरि रचना होय छे. ___कर्मणि भूतकृदंत : बंधाणउ, झलाणउ, रोसाणउ, भराणउं, थंभाणउ, दूखाणउ, दूहवाणउ, पचाणी, मूकाणउं, संतोषाणउ, छेदाणउ, प्रतिबोधाणा. १४. अनुगो अने नामयोगी इई के -इ प्रत्यय उपरांत-लगइ, -इ करो, इसिउं करणार्थ छे. 'साथे' ना अर्था -सहित. -साथिई. -संघातिई वपराया छे. संप्रदानना अर्थमा -नइ,-मादि तथा -नइ अथि (हेति, कारणि, काजि, कीधइ) मळे छे. अगदानना अर्थमां -इतु (-तु), थी, थिकउं, हूंतउ छे. -नउं ने -तणउ संबंधार्थ छे. __ 'पासे' ना अर्थमां-पासि, -पाहिइ,-पाहंति, कन्हइ, कन्हलि, समीपि मळे छे. -पासि,-कन्हह ने समोपि कर्मना अर्थमां पण वपराया छे. -लगइ करणार्थ, अपादानार्थ अने 'सुधी'ना अर्थमां वपरायो छे. 'सुधी' ना अर्थमां लगइ उपरांत सीम अने तांई पण मळे छे. 'पाछळ' ना अर्थमां पाछलि, -केडिई, पूठिई छे. --इतु (-तु) : अपादानार्थ : भव-इतु, मुख-इतु, यंत्र-इतु, उत्संगितु, देवलोक-तु. -उपरांत : अतिरिक्ततावाचक. -ऊपरि : अधिकरणार्थ ('ऊपर'). -कन्हइ (-कन्हि), कन्हलि : (१). 'पासे' (२) कर्मार्थ ('ने') : सारथि-कन्हइ पूछइ, मा-कन्हइ पूछइ, बाप-कन्हइ पूछइ. -केडिई : 'केडे,' 'पाछळ'. -दूकडउं : 'पासे. -तणउं (कवचित ज): संबंधार्थ. -ताई : 'सुधी'--- ता-ताई, उदय-ताई. -थिकउं (-थकउं) : अपादानार्थ-घोडा-थका (='घोडेथो'), तिहां-थिकी, तेह थका, जेह-थका, मगाहि-थकी, -माहि-थिकउ. -थी : अपादानार्थ-देवलोक-थी, तिहां-थी, -माहि-थी. -नइ : कर्मार्थ-हरिणीनइ लेइ; संप्रदानार्थ – तू शिशुपालनइ दीधी, शिष्यनइ भणावे. -नउं : संबंधार्थ. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका -पाखद : 'वगर'. -पाखती : 'आसपास, फरतु .' -पासि (१) 'निकट', (२) लाक्षणिक अर्थमां, (३) कर्मार्थ -पासि पूछइ. -पाहंति : (१) 'पासे', 'पासे थो', (२) '-ना करतां'. -पाहिइ (-पाहई, पांहइ, पाहि, पाहि) : (१) 'पासे', (२) '-ना करतां'. -पूठिई : 'पाछळ'. -प्रति-प्रतिई : 'प्रत्ये'-कन्या-प्रतिइं. --भणी : (१) 'माटे खातर'-उपकार-भणी, भांजिवा-भणी, मिलवा-भणी, करिवा भणी, तेह-भणी ('ते माटे', 'तेथी', 'ते कारणे') (२) 'हावाथी', 'हतो एटले'- वहूना भाई-भणी, गुरुना गौरव-भणी, देवर-भणी, (३) 'तरफ' —तुम्ह-भणी, सिंहल द्वीप-भणी. -माटि : 'माटे' -तेह-माटि. -माहि : 'अंदर'-अंतःपुर-माहि. -लगइ (-लगी) : (१). 'थी', 'वडे'-गर्व-लगइ, विनय-लगइ, स्नेह-लगइ, एह लगइ, शील-लगइ, कर्मयोग-लगइ, लहडपण-लगड, रासोगबश-लगह, बुद्धि-लगी. (२). 'ने लीधे-अधकार-लगइ, सकोमलपणा-लगइ, असूर लगइ (३) 'सुधी' -आज-लगइ, जां लगइ.....तां-ताई. -वडइ : 'वडे', ' ने बदले'. -विण : 'विना'. -समउ : 'सर' -समान : 'सरखं -समीपि : (१). 'पासे'; (२). लाक्षणिक अर्थमां-राजाइ कलाचार्य-समीपि भणिवा मूकिउ, पुत्री महुता-समीपि मागी (३) कर्मार्थ-राजा राणी समीपि वात पूछइ, (राजा) प्रभाति महुता-समीपि पूछइ. -सहित : 'साथे'. -संघातिइं (संघाति) : 'साथे'. -साथिई (साथि) : 'साथे'. -सामुहर्ड (साम्हुं) : 'सामुं'. -सारइ : 'अनुसार'-मनसा-सारइ. -सि (-सु) : 'साथे' —'नारी'-सु. -सीम 'सुधी'---युग-सीम, आज-सीम, मास-दिवस-सीम. -हाथि : ' ने हाथे', 'मारफते', 'द्वारा'-वेश्यानइं हाथि कहाविउ. -हूतउ : अपादानार्थ ('थी', 'माथी')-ऋषि-हू तउ, घर-हू'तउ, माथा-हूतउ, मूल-हूतउ, दृष्टि-हूतउ, द्वार-हूं तउ, शील-हूत उ, तिहां-हूतउ. -ई सिउ(सु) : 'थो' मउडइं सिउं, निश्चई सिउ, छानई सि । -इ करी : करणार्थ ('वडे')-बाणि करो, जीपवइ करी, माहात्म्यइ करी, नामि करी, जाणवइ करी, तिणि करी. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० शीलोपदेशमाला-बालावबोध -नइ अर्थि, नइ हेति,-नइ कारणि, नइ काजि (काजिई), -नइ कोधइ (स्त्री-नइ कीधइ, ताहरइ कोधइ, माहरइ कीधइ, किहनइ कीधइ = 'कोइनाथी'). -नइ पादमूलि '-नी पासे'–सूरिनइ पादमूलि. -नइ विषइ ‘-ने विषे'. -नइ समीपि : अचलपर-नइ समीपि. -नी परिई : '-नी जेम', '-नी पेठे'. आ उपरांत टाली 'सिवाय'ना अर्थमां वपरायो छे. १५. क्रियापदना प्रयोगो : वर्तमान पहेलो पुरुष बहुवचन. आमां एकवचननी जेम -उं प्रत्यय छे. (अम्हे करउ, अम्हे पडिवजउ). आपणपउ (आपणपुं) 'पोते', 'पोतानी जात', 'जात' ए अर्थमां वपरायो छे. जेम के ते मुनि वांदी आपण' ('पोताने') धन्य मानिवा लागी. बीजी तरफ (१) अनेकनो समाबेश करता वक्ता पक्षनी वात, अथवा तो (२) वक्ता श्रोतानी पासे कशी दरखास्त मूके ते, व्यक्तिनिरपेक्ष कर्मणि रचना रूपे पण मूकी शकाती. नीचेनी रचनाओ जुओ : अम्हे यत्न घणउ करउ, पणि जाणी न सकीइ. एक वार ... कन्या मगावीइ. नर्मदासुंदरी मागीइ. घरि जईइ. चालउ जोई आवीइ. आवि, पासे करी वली खेलीइ. चाल तउ, ए बात जोईइ. स्वामी, कुडिनपुरि जईइ. आ साथे नीचेना जेवी रचना मूकी जुओ : पितानउ वियोग सहसिउ, पणि पृथ्वीना कउतिग जोईइ. आपणपे आगइ देसांतरनी मनसा करतां, हिव ते सफल करीइ. आ बधाने परिणामे -ईइ वाळुरूप आपणपे नी साथे जोडायुं अने वक्ताश्रोतानो समावेश करती पहेला पुरुष बहुवचननी नवी रचना उद्भवी : आपणपे जई सांभलीइ. आपणपे जूए खेलीइ. आपणपे बेहू युद्ध करीइ. ईणइ नगरि आपणपे रहीइ. प्रभात-समइ आपणपे जईइ. आपणपे आपण बल जोईइ. आपणपे एक-एकनी बांह नमावी...आपणपे ससरइं दीठा. भविष्यकाळमां पण आ प्रकारनी रचना मळे छ : आपणपे इहां सुईसिइ. आमांथी आपणइ 'आपणे वाळी रचनानो विकास थयो. एनां पण एकबे उदाहरण मळे छ : आपणइ .... जईइ-आवीइ नही. आपणइ ... राज्य भोगवीइ छइं. आ रचनाओमां आपण- वक्ताश्रोताना आखा पक्षनो निर्देश करे छे. आ सिवाय आपणउं 'पोतान', आप 'पोते' (आप सुखी था (तुं) पोते सुखी था') अने आपहणीइ, आफहणी, आफे 'आपोआप' वपरायेलां छे. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ भूमिका १६. विध्यर्थ के भविष्य आज्ञार्थ माटे (अनुरोध के भलामणनो भाव व्यक्त करवा) बीजा पुरुष एकवचनमां -ए प्रत्यय वाळलं रूप मळे छे: धरे, करे, जाणे, रहे, थाए, जाए, मोकले, करावे, भणावे, देखाडे, उपसमावे, आमा 'धरजे', 'करजे', 'भणावजे' वगेरेनेअर्थ छे. -ज् प्रत्यय वाळां रूप पण मळे छ: लेजे, जाणजे, कहिजे, वरिसिजो, वसाविज्या, हलाविज्यो, आविज्यो. अनुगना प्रयोग १७. कर्मार्थ -नइ : सचेतन कर्म मोटे भागे, अपभ्रंशनी जेम, -नइ अनुग विनानुं होय छे मई तू भरतार पडिवजिउ. भार पूछिउ. मई तूं जीवतउ मूकिउ छइ. राजा वीनविउ. हूं आणी छउं. ते स्त्री इहां आणि. हूं मोकलिउं छउं• शीता आणी. शीता मागी. रुकिमणी दीधी. पाडोसणि पूछी. जनक पहुचतउ कीधउ. म्लेच्छ हणी... तू ओलखी. हूं अवगणी. हूं तुहनइं आपी. तू अम्हे पामिउ नही. क्वचित् -नइ अनुग कर्मार्थे वपरायो छ : अज तूंह-नइ शिशुपाल-नइ दीधी. (ते साथे, 'आज रुक्मी-राजाइ तू शिशुपाल-नइ दीधी). अम्हे तूनइ उलखिउ. एक सहश्र वर्षनइ अतिक्रमी ... १७. संप्रदानना -नइ संबंधवाचक तरीके : अर्वाचीन गुजराती प्रयोगो अनुसार अपेक्षित संबंधवाचक -तुं ने बदले केटलाक प्रयोगोमां संप्रदाननो -नइ वपरायो छे. ते नरगनइ अतिथि थाइ. महात्मानइ भक्ति कीधी. नलनइ जय हु. आज माहरइ पग दाझइ छइ. इम दस दिन राजानइ गया. जि को जेहनइ उपदेश दिइ, ते तेहनइ गुरु. रणनइ कउतिगीयाल हूतउ. देवतानइ पूजा-निषेध ... चंडिकानइ पूजा-भणी... पुत्रीनइ वर जोतां... (सुन्दरी) स्वामीनइ पहिली श्राविका हूई. ते पुत्रीनइ भर्तार होसिइ. स्वर्गनइ भाजन हुआ. ऐ ताहरइ पहिलउ गणधर थासिइ. ताहरइ बेटउ तुझनइ सखाईउ हूउ. तु किसिउ माहरइ ए प्राणवल्लभा राक्षसी छह ? उद्यानवननइ रखवालउ. जे कमलानइं शत्रु हूंता ते मित्र हूआ. तुझनइ विडंबना कीधी. तेहनइ आऊख थोडउ. पणि तुम्हारइ गांगेय पुत्र. आ संदर्भमां नीचेना प्रयोगो पण नोंधपात्र छ : सर्वोत्तम पुत्र ताहरइ होसिइ. ताहरइ पुत्र होसिइ. इम दस दिन राजानइ गया. झूझनइ (= 'ने माटे') साम्हा थया. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १८. करण अर्थे -न. संबंधार्थक -नउं विशेषण तरीके वपराता भूतकृदंत पूर्फ करणना अर्थमां प्रयोजायो छ : आर्द्रकुमारनी मोकली...ताहरी वरी नारायण लेई जाइ... विषयनउ वाहिर... रागना वाह्या... स्त्रीनउ वाहिउ.. राजानां दीधां आभरण.. महात्मानउ कहिउ वृत्तांत... लोभनउ लीयउ... वायनउ अंदोलित. ५८. क्रियानाम तरीके वपरातां भूतकृदंत : माहरउ कीध. अम्हार कीध. क्रियानाम तरीके वपरातां विध्यर्थ कृदंतोः करिवउ, देवउ, रोइव १८. काळ्ना प्रयोगो. वर्तमानमा सामान्यतः सहायक छ विनानु रूप, क्वचित छ वाळु रूप मळे छे : घातइ, लोटाडइ, नासइ वगेरे. पाम छ', बोलइ छइ, भमउ छउ वगेरे. वर्तमाननो आसन्न भविष्यना अर्थमां उपयोग : हूं पण ..नाग पूजिवा-भणी मध्याह्नि आवउ छउ. हिव हूं गुरु-कन्हलि जई आलोयण लिउ छउ. हूं चारित्र लिउ छ. आदतवाचक भूतकाळ माटे वर्तमान कृदंतनु रूप वपरायु छे : आगइ हूँ ए तापसवन-माहि रहिती. गौण वाक्यमा वर्तमान, अने मुख्य वाक्यमां भूत : जु महात्मा-कन्हलि आवइ, तु अजी ते महातमा काउसग्गि दीठउ. वर्तमान निषेधार्थमा नथी साथे वर्तमान कृदंत : मिली नथो सकतउ. भविष्य निषेधार्थमां नहीं साथे वर्तमान- रूप : वार नही लागइ. हूँ मनुष्य-लोकि नही आवउ. नही छूटइ. नही दिउ. १९. कृदंतना प्रयोग वर्तमान कृदंत अने भूत कृदंत ज्यारे विशेषण तरीके वपरायां छे त्यारे, तेम ज अन्य विशेषणो पछी पण अनेक वार तेमनी पछी हूंतउ के थिकउ मुकाथु छे : आ हिंदी रचनानी ( दिया हूना दान वगेरे ) याद आपे छे. अर्वाचीन गुजरातीना प्रारंभमां पण रोतुं छत वगेरे जेवा प्रयोगो थता. केटलीक वार ए 'होईने' के 'थईने' नो अर्थ धरावे छे. उदाहरणो : सूडी रोती हूती कहिवा लागो. बीहती हूती...घर-माहि मई. राजा सूतउ हूं'तउ ...सांभलिवा लागउ. मोक्षमार्ग साधीता हूँता ...रोसाणउ हूँ'तउ... पालोती हूंती...वाधती हूंती... ...हसी हूँती रीसाणी. लाजिउ हूतउ...हर्षित हूंती...विलखउ हूतउ... कहणहार हूंतउ भणइ. विरतउ हूंतउ. विरक्त हूंतउ. ऋषिदत्ता सूती हूँती ( =होईने ) ए वात जाणइ नही. सहर्षित सस्नेह हूँती. जे गृहस्थ हूती. जे गृहस्थ हूंता (=होईने ). Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ भूमिका हत-हृदय हूंता समुद्र-माहि बूडइ. राजा गजारूढ हूंतउ रइवाडीइ नीकलिउ. अति विषयासक्त हूंतउ .... मोहिउ थिकउ ...व्यामोहिउ थिकउ ...हर्षित थिकां.. शून्यचित्त थिकउ ...बीहती र्थकी.. आकाशमार्गि जाता थका ...सभाना लोक हाजिविया थिका इसिउ भाइ... सचिंत थिंकउ... वर्तमान अने वर्तमान हूंतउ पण आ रीते वपराय छे : संतुष्ट वर्तमान....संतुष्ट वर्तमान हूतउ.... करण-अधिकरण विभक्ति वाळी निरपेक्ष रचनामां पण क्वचित कृदंत पछी हूंतउ वपरायु छ : इम पूछिइ हूतइ...कहिद हूं तइ.... २० जोईइ वाळी रचनाओ. पालिउ जोईइ, परिहरी जोईइ, नमावी जोईइ, कीधी जोईइ, उतारिउ जोईइ, मोकलिउ जोईइ, हुई जोईइ, दीधी जोईइ, साहियां जोइसिइ. वर्तमान कृदंतनुं -आं प्रत्यय वाळु रूप संबंधक वर्तमान कृदंत तरीके निरपेक्ष रचनामां तेम ज इतर प्रयोगोमां वारंवार वपरायुं छे. उदाहरणो : इम करतां, सर्व देखतां, देखतां जि, धरतां जि, मुझ छतां; पढितां केटली वार लागिसिइ. माहोमाहि युद्ध होतां. मनुष्यना संहार थातां, मू जोयतां एहनइ कुण दूहवइ छ इ. वाद करतां ऊतर नावइ...वस्त्र कापतां हाथ वहइ नही. श्रीमती-नइ दान देतां आद्रकुमार तिहां आविउ. आ प्रमाणे छतांना अर्थमां थकां पण वपरायु छ : सुमित्र-थिकां. तुम्ह-कन्हलि थकां उपरांत नीचेना प्रयोगो नोंधपात्र छ : मुझनइ बलतां राखि. सील पालतां दोहिललं. धर्मकृत्य करतां दोहिला. स्त्री-साथिई वाद करतां सोभइ नही. जातां शोभइ नही. छागनउ वध तपस्वीनइ करतां जुगतउ नही ( ते साथे, जीविवा युगतउं नही). राखतां विचालइ ( अटकावतां वच्चे ज'). कर्ता साथे कृदंतनी करण-अधिकरण वाळी निरपेक्ष रचनाओ ( 'सति सप्तमी') ना केटलांक उदाहरण : नारद अणहणिइ पाछउ आविउ. मिथिला दासतइ... चमर ढालीते..., इम उलंभइ दीधइ · , गीते गाइते..., शील लोपाति...., दान दीजते..., ब्रह्मा रीसाणइ..., क्षुधा उपनीइ..., कारणि ऊपनइ..., यादव आगलि चालते..., लग्न दुकडइ आविइ .., राजानइ अणकहिई... लव अनइ कुश रीसाणे ह्ते, इम पूछिइ हूंतइ..., कहिइ हूंतइ..., वलतइ ऊतरि .., दीधइ हूंतइ..., सान कीइइ हूंतिइ .., एतले राजाए मिले... २१. क्रियाविशेषणना प्रयोगो. जेतलइ-तेतलइ 'जे घडीए', 'जेवो-तेवो'ना अर्थमां वपराय छे : Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ शीलोपदेशमाला-बालावबोध इम जेतलइ देवानी मनसा कीधी तेतलइ.. जेतलइ जिमवा बइठउ तेतलइ.... जिम -तिम रीतिवाचक होवा उपगंत केटलोक रचनाओमां जिम नो 'जेथी' अने तिमनो तेथी' अर्थ थाय छे. अहीं 'जेथी' एटले 'जेथी करीने', 'जेने परिणामे'. अने ते ज प्रमाणे 'तेथी'. उदाहरणो : माहरउ पुत्र आपि, जिम हूं जाउं. तु सखीनइ जगाडि, जिम पम तलांसइ. तिम किमइ वर्णव्या जिम.., तिम देखाडि जिम ते कामात हूउ. तिम किमइ राजा वीधिउ जिम...., तिम व्यवसाय मंडाविउ, जिम....धनवंत हउ. जउ-तउ (ज-त) ( 'जो-तो' ना अर्थमां अने 'पारे-त्यारे'ना अर्थमां). केटलाक नोंध-पात्र प्रयोगो : जु जीव जायउ, तु मरण छइ. भार दर्शाववा तु वाळु वाक्य पहेलां मुकाय छे : गर्व तु भाजइ, जउ बोजी सउकि हुइ. हूं तु स्त्री, जु एक वार.... शील तु पलइ, जउ नारी-सु संसर्ग वजइ. तु माहरी प्रीतिनु प्रमाण, जु एहनइ प्रतिबोध. 'ज्यारे-त्यारे' के 'जेवो-तेवो' (तात्कालिकतावाचक'ना अर्थमां: जउ जागइ, तु मनुष्य मारिउ देखी.... जउ अतिक्रम्या, तु.... जु महात्मा-कन्हलि आवड, तु....महातमा काउसग्गि जि दीठउ. जु पहुचइ, तु....देखी आ ज प्रमाणे जे-ते अने जां-तां (= 'ज्यां सुधी-त्यां सुधी') वाळां वाक्योनो क्रम भार मूकवा उलटावाय छ : यति ते कहीइ, जे संकटि पडया सील राखइ. ते नउ सिउ प्रमाण, जे... संबंधी नइ चमत्कार न ऊपजावइ. हिवइ तूं ते उपाय चीतवि, जे... माहरइ घरि तां मावसि, जां ताहरइ ... पुत्र हूउ न हुइ. एक हूँ अभागीउ छउ, जे विषयनउ वाहिउ चारित्र न लि. जां-तां 'ज्यां सुधी-त्यां सुधी' ना अर्थमां वपराय छे. जां लागइ-तां लगइ पण मळे छे. 'ज्यारे-त्यारे' माटे जहीइं-तहीइं, अने क्वचित जिवारइ-तिवारइ छे. यदा कालि पण एकाद वार 'ज्यारे' ना अर्थमां वपरायु छे. गौण वाक्यना निर्देशक सामान्य रीते जु (जउ), क्वचित् जे के कि : पूछिउ हूंतजउ ...जउ तू एहवी वाचा दिइ जे.., वली इंद्रि वन लेई कहिउ कि... काई (प्रश्नार्थ) 'कारण के', केम के : अश्व लेवा नही दिउं, काइ, जेहन बोज तेहनी वस्तु. नमिइ पणि विनयप्रतिपत्ति कीधी, कांई... बे विकल्प दर्शाववा कई-कई : Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कइ डील दीजइ, कइ अधिक धननी राशि आणीइ. किसिउं 'शु ?' – तुझनइ किसिउ वीसरिउ. भार दर्शाववा बने विकल्पना निषेध वाळां वाक्योमा आरंभे न : न नंदराजा दान दिइ, न प्रधान वर्णवइ. २४. विशेष्यनी पछी विशेषण विशेषण - विशेष्य एवो सामान्य क्रम केटलीक वार उलटाय छे, अने विशेषण (के विशेषणीय. खंड) विशेषणनी पछी लगोलग मुकाय छे, अथवा तो ते क्रियापद पछी, वाक्यने छेडे मुकाय छे. (१) विचालइ नदी एक महांत आवी । युग्म एक वसइ । दिन बि गया । वात सर्व ... 1 ए प्रतिज्ञा दोहिली कांइ कीधी ? राज आपणउ ... माली एक आपणउ विश्वासी तेडी.... प्रतिज्ञा आपणी... च्यारि कुंडल रत्नना देई ... वयर बालक आठ वरस नउ संघाति लेई ... (२) पुत्र प्रसविउ सूर्य-समान । पुत्र जन्मिउ सर्व - लक्षण - संपूर्ण । घणा अश्वकिसोरा हूया बहुमूल्य । एसिड सांभलीइ छइ लाजनउ कारण ? चिहि रचावी चंदनना लाकडानी । लोक घणा कउतिगीयाल मिल्या छइ नगरीना । २५. क्रियाविशेषणीय खंड वाक्यान्ते क्रियाविशेषणीय खंड वाक्यमां अनुकूळता प्रमाणे गमे त्यां पण क्रियापदनी पूर्वे मूकवाना ब्यापक वलणनी साथसाथ तेने वाक्यान्ते – एटले के क्रियापदनी पछी — मूकवानुं वलण पण अनेक वार देखाय छे. (१). अनुग वाळो खंड ते सोनारनइ दीघां समारिवा-भणी । तात कथीर पीधरं शोधि होवा-भणी । चारित्र लीधर साचउ सनेह पालिवा-भणी | सांझइ पाछउ वलिउ घर-भणी । दूत मोकलिउ स्नेह - लगइ ं । पारणउ न करइ माया - लगी ( ? ) । चारित्र लोधउ सहस्र क्षत्रियकुमार - साथि । एह नाम तेह-भणी पडिउ परमार्थ - इतु । करावि ऋषि - पाहइ । २५ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध दूत मोकलिउ वरणानइ काजि । कन्या मागी धनगिरिनइ कीधइ । बुद्धदास जिनदासनइ घरि आविउ वाणिज्यनइ हेति । कांइ कउतिग दीठ पृथ्वी-माहि ? अतिथि जमाडीइ शालि, दालि, मोदके करी । इतर - बांधी मूकिउ छइ लोहने भारसहस्त्रे । शिला चूर थइ बालकनइ प्रहारिई। विहार करतां आव्या नर्मदापुरि । वली थापिइ तीणइ थानकि । त्यां नमि अनइ मल्लिनाथ प्रणम्या महा-प्रासादि । तेह-नल ध्यान करइ छइ रातदिवस । पतिव्रता कहिवा लागी हाथ जोडीनइ । नमि ए नाम दीधउ बालकनइ । वृष्टि कीधा सर्व देखतां । हु आंबइ चडी छ आंबा खावानी वांछाइ । तेहनी हूं बेटी गंगा एहवइ नामि । २६ संबंधक भूतकृदंत वाळा वाक्यखंडनु क्रियापद अकर्मक होय अने मुख्य क्रियापद सकर्मक होय (अथवा तेथी ऊलटी परिस्थिति होय) त्यां भूतकाळनी बाबतमा अर्वाचीन प्रयोगथी मध्यकालीन प्रयोग जुदो पडे छे. कर्तानु रूप वाक्यखंडना क्रियापद अनुसार (नहीं के मुख्य क्रियापद अनुसार) 'करण विभक्ति' ना प्रत्यय ले छे के नथी लेत. जेम के नारायणि पाणिग्रहण करी रुक्मिणीनइ कहिवा लागउ । पर्वतक...आवी वात कही। शिशुपाल-राजाइ सर्व सामग्री करी कुडिनपुरति उद्यानिवनि आविउ । पुण्यपालि प्रयाणभंभा देवराधी पाछ उ चालिउ । गुणसुदरी नीकली रसवती राजानइ परीसी । पल्लीपतिई गलइ कुहाडउ करी शंखकुमारनइ शरणि आविउ । सुमित्र आवी कुसुमनी वृष्टि कीधी । अंतेउरीए ते आचार्यनी रूपसंपदा सांभली.... गुरुनइ वांदिवा आवी । तिणि अन्यदा कमलानुरूप सांभी कान-विह्वल हूउ । पिताइ आवी जाणो सामुह आव्यर । क्वचित कनु पुनरावर्तन कगयु छे, ता क्व नन जुदा जुदा क्रमे होय छे. तिसिइ गुरे ते पाषाण आवत जाणी गुरु दली अलगा हुआ । कुमार केतलाएक दिन तिहां रही.... रात्रि बेहू चाल्या । शंखकुमार ... वांदी, पूजी पछइ मणिशेखरि विद्याधरि कुमार कनकपुरि आणीउ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका २७. पूर्ववर्ती -नउ अनुग वाळा के तेव' बीजा पूर्ववर्ती वर्धक वाळा नामने अनुग सीधो नथी लागतो, पण तेना निर्देश करता दर्शक सर्वनामने लागे छे. जेम के चंद्रगतिनउ पुत्र भामंडल, तेहनइ रूप देखाडिउ. सावध व्यापारना योग, तेहनउ वर्जन. आपणु मित्र अभयकुमार, तेहनइ मिली आवउ. राजा मृगनु आहेडउ, तेहनइ विषइ रसिक हूंतउ. जनु नाम विद्याधर, तेहनी हु बेटी.. गुरुनु पुत्र पर्वतक, तेहनइ मिलवा-भणी आविउ आपणी चंद्रमती प्रिया, तेहनह वधराविउ. दक्षबुद्धिना लक्षण, तिणि करी विराजमान. लक्ष्मी श्रेष्ठिनी पुत्री, तेहनउ रूप देखी... विक्रमराजानउ पुत्र धन, तेहन ए रूप. परमेश्वरनी प्रतिमा, ते पणि चडावी. ते पद्मना मित्र कुटुंबी, तीणे प्रधाननई घणउ कहिउ. माहरी पुत्री चंद्रवती, तेहनइ बहिन हुअइ. माहरा पुत्र महेश्वरदत्त, तेहनइ हेति.... चंद्रयश राजाना जण, तीणे झालिउ. वीतरागनी प्रतिमा, तेहनइ पूजी... ए अंजनासंदरीनउ पुत्र, तेहन नाम घटइ. आपणउ पति खर राक्षस, ते-कन्हलि..... ऋषिदत्त मंत्र, तेहनइ योगि... आ रचनाओं मूळ तो 'जे...ते' वाळी रचनाओ छे, जेमांथी 'जे' अनुक्त रह्यो छे. जे ते वाळी रचनाओ पण मळे छे : हिवइ जे रामलक्ष्मण, तेह इ शीतानइ लेई आपणइ नगरि आव्या. आपणु पिता जे बुद्धिसागर, तेहनइ कहइ. जे तपस्वो शील-सहेत, तेहनउ कारण कहइ. जे सुसाधु चारित्रीया, तेहनइ..... जे लेकीक देवता, तेहनो विडंबना कहइ. जे स्नेह, ते जाइ नही. २८. पूर्ववर्ती गौण वाक्यमांनु विशेषनाम, उत्तरवर्ती मुख्य वाक्यमा पण सर्वनामयी निर्दिष्ट न थतां पुनरावर्तित थयु छ : जक्खाइं जेतलइ एक वार सांभल्या, तेतलइ जक्खाई राजा देखतां पाठ दीधउ. जु महात्मा-कन्हलि आवइ, तु अजी ते महातमा काउसग्गि दीठ उ. हिव बुद्धिदास सुभद्रा-सहित सुखिइ युगलीयानी परिइं सुख अनुभवतां अन्यदा बुद्धिदास चीतवइ. २९. थोडीक संकुल रचनाओनां नोंधपात्र उदाहरण : एहवाइ पाडोसी, जेहनर मनुष्य हणिउ हूतउ, ते जउ जागइ तु मनुष्य मारिउ देखी कोलाहल कीधउ. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ शीलोपदेशमाला-बालावबोध अथवा मुझनइ धिधिकार हु, जे मइ जिनधर्म छांडइ हुंतइ हूं कुटुंबिई छांडी. नीचेनी रचनामां ए किसिउ अंते आववाने बदले वच्चे आव्यु छ : तूं मुनि- पुत्रिका हुईनइ सांप्रत ए किसिउ राक्षसी थई ? ३० नामिक वाक्यो : विधेय तरीके कोई पूर्ण आख्यातिक रूप होवाने बदले आ प्रकारनां वाक्योमा नाम, विशेषण वगेरे होय छे. प्रश्नार्थ वाक्यो : ए कउण स्त्री, कउण बालक ? कहि-नइ, तूं कउण? तू कहिनी बेटी ? बलिभद्र-नारायण अम्हे इ, कि ए लव नह कुश ? एकली आवास-माहि कांइ ? नेमिकुमार ए नाम स्या-भणी ? किसिउ देवांगनानउ रूप, किंवा मनुष्यनउ रूप ? ताहरउ जीवतव्य सिइ काजि ? पगे पडतां स्यउ दोष ? ए वात नउ किम ? आपणइ ए स्! कांतणउं ? ते नल किहां अनइ तू किही ? ओळखाण के चोकस माहिती देतां वाक्यो : हू' ब्रह्मचारी. हूतउ ब्रह्मचारी. हूं तु स्त्री. एह तउ माहरउ जेठ, ए तु ताहरी बहिन. तेहनी राणी विदेहराणी. तू तु लघु. तुम्हे तु एकाकी. ए इम अनइ ते तिम. ए आवास, ए नगरी, ए क्रीडावन. रोहिणीनु रूप-लावण्य अमृत तेहनी कूई. ए घोडउ तु माहरा पितानउ. बेटी मानी, बेटउ बापनउ. ए प्रताप सर्व तुम्हारउ. सघले आपणउ स्वार्थ जि वाल्हउ. भार दर्शावता संकुल वाक्यो : जे स्नेह, ते जाइ नही. धन्य ते, जे चारित्र पालइ. जेहन बीज, तेहनी वस्तु. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जेहन बोज, तेह जि धणी. जां ए स्त्री-रत्न ताहरइ घरि नही, तां ताहरउ जन्म फोकट. ते प्रदेश नही, ते स्थानक नही, जिहां कोई न देखइ.. तु हूं, जउ एहनइ शील-हूंसउ पाड. अन्य उदाहरणो बिहुनइ डील-इ जूजूआं, पणि जीव एक जि. पणि तुम्हारइ गांगेय पुत्र. सत्यवतीना पुत्रनई राज्य. तेह-भणी माहरउ मन नही. तेहनइ आऊखउ थोडउ. जउ जोइ, तु न ते खांड, न ते स्त्री. ३१. केटलाक रूढिप्रयोगो : घण किसि. १ 'वधु शु' कहीए ?' 'किं बहुना." हिव स्यू चालइ ? 'हवे शुं वळे ?' मई सिउ चालइ ? 'माराथी शुवळे ?? वाहरइ चडया 'युद्धमां मददे आव्या', 'वारे चडया' तु इम जाण 'तो मने एम लागे छे-थाय छे...' इम जाणीइ 'जाणे के...' जाणइ छइ जु ... (एमने) एम थाय छे के...' जिम मेलीइ आवइ 'जे रीते मेळ पडे...' जे एवडा इ मान-अहंकारना धणी '...मान-अहंकार धरनारा' वार नही लागइ 'वार नही लागे' आपणपानई एहवर अधम कर्म करिवा नावइ'...करवुन घटे' बालक प्रसविइ, इहां रहिवउ नावइ '...रहेवु न घटे'. बारणा देई मुक्या 'बारणां बंध करी राख्या'. तेहनइ हाथि भद्रा वेची. 'तेनी मारफत ...' केहनइ घरि जई रही घटइ 'कोई ने घरे जईने रही होवान संभवे छे'. ए अंजनासुंदरीनउ पुत्र तेहनु नाम घटइ. सर्पइ खाधउ 'सर्प करडयो', 'एरू आभडयो'. जीविवउ वांछइ 'जीववा इच्छे छे'. तुझनइ किसिउं वीसरि ? 'तने शुभुलाइ गयु ?' अंजनानइ तृषा बुभुक्षा वीसरी गई. राखिउ इ रहइ नही 'राख्यो तो ये रहे नहीं'. हिवइ ईणइ अधिकारि सरि 'हवे आ अधिकार बस थयो'. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाल-बालावषोध . सई 'सो' संबद्ध नाम साथे संबंधार्थ अनुगथी जोडाईने वपरायो छे : घांटना सई. महात्मा पणि भण्या जाई 'महात्माओ पण भणीने जाय'." दिहाडीनी भेटि 'दररोखी भेट'.. भावइ जिम (='गमे तेम करीने) ता कुलनी वृद्धि कीधी जोइह. जाते दिहाडे 'दिवसो जतां-वीततां', 'जाते दहाडे'. तउ वहिलउ था 'उतावळ कर, जलदी, कर'. . परहु छउ 'दूर थाओ', 'दूर रहो'. ईणइ सि विणासि ? 'एनो शु वांक ?' (लाक्षणिक). तेहे सिविणासि छइ ? कर्म महारउ सिउ करिइ ? ('...मने शुनुकशान करशे १') जोइ-न, जोउ-न 'जोने, जुओने-श्रोतानुं खास ध्यान खेंचवा, भार मूकवा वाक्यारंभे तेम ज वाक्य वच्चे पण वपराया छे. प्रस्तुत संपादनकार्यमां भाग लेनार संशोधकोना कर्तृत्वनी विगतो नीचे प्रमाणे छ: गीताबहेन : B हस्तप्रतनी प्रतिलिपि; L अने P प्रतोना महत्त्वनां पाठांतरोनी नोंध. र. शाह अने ह. भायाणी : C, K अने Pu प्रतोनां उपयोगी पाठांतरोनी नोंध, पाठनिर्णय; समग्रपणे ग्रंथपाठनी निष्पत्ति, प्राकृत गाथाओना पाठोनी हस्तप्रतने आधारे चकासणी; संपादित पाठनी गोठवणी अने रजुआत; प्रूफ सुधारवां. र. शाह : भूमिका पृ. १-१२ तथा अंते आपेली गाथासूची (पृ. १८३-८५.) ह. भायाणी : भूमिका पृ. १३-२६; महत्त्वना शब्दशेनी सार्थ सूची (पृ. १८६-९२); समग्र कार्यनु मार्गदर्शन अने देखरेख. गीताबहेने १९५६-५७ मा जे कामनो संशोधननी तालीम मेळक्वा आरंभ करेलो, परंतु तेमां विशेष प्रगति थाय ते पहेलां जे छोडवानु थयेलु, ते काम छेवटे १९७९मां फरी अमे हाथ धरी अने पूरू करी शक्या : आनो यश ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामदिरना भूतपूर्व संचालक दलसुखभाई मालवणियाने तथा वर्तमान संचालक डो. नगीनदास शाहने तथा गुजरात सरकारने (तमना तरफथी मळेली आंशिक आर्थिक सहायने कारणे) घटे छे. अहीं अमे तेमना प्रत्ये तथा हस्त-प्रतोनो उपयोग करवा देवा माटे नीचेनी संस्थाओ प्रत्ये अमारी आभारनी लागणी व्यक्त करीए छीए : . (१) ला.द भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद. (२) भांडारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिट्युट, पूना. (३) एशिआटिक सोसायटी, मुंबई. (४) जैन ज्ञानभंडार, लींबडी.. युनिवर्सिटी कक्षाए प्राचीन गुजराती गद्यसाहित्यना अध्ययनमां आ संपादन थोडंक उपयोगी नीवडशे एवी आशा अस्थाने नहीं गणाय. १०-१०-८०, अमदावाद. . . हरिवल्लभ मायाणी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दर गणि-विरचित शीलोपदेशमाला-बालावबोध Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित शीलोपदेशमाला-बालावबोध श्रीवीतरागाय' नमः । श्रीनाभेयममेयश्रीसहितं महितं सुरैः । प्रणिपत्य सत्यभक्त्याऽनन्तातिशयशालिनम् ॥१ श्रीजिनचंद्रगुरूणामादेशान्मेरुसुन्दर-विनेयः । शीलोपदेशमालां विवृणोति शिशुप्रबोधाय ॥२ धुरि इष्टदेवता नमस्करी शीलोपदेशमालाना बालाविबोध-भणी आदि-गाथा कहइ आबाल-बंभयारि नेमिकुमारं नमित्तु जय-सारं । सीलोवएसमाल वुच्छामि विवेग-करिसालं ॥१ व्याख्या - आबाल-ब्रह्मचारी, आजन्म चतुर्थव्रतधारो श्रीनेमिकुमार बावीसमउ तीर्थकर नमस्करी, शीलरूप उपदेश तेहनी मालानु बालाविबोध मूर्खजनना उपकार भणी हूं कहिसु । नेमिकुमार ए नाम स्या-भणी ? जे गृहस्थावासि पत्रिणि सई वरिस घरि रही, राज अनइ राजीमती परिहरी, कुमारपणइ चारित्र लीधउं। वली केहबउ छइ १ जयसारं जय कही। त्रिभुवन तेह-माहि शीलरूप धरिवानु ए सार प्रधान छइ, अथवा बाह्य अनइ अंतरंग वइरी जीपवई करी सार छई। वली, विवेगकरिसाल विवेकरूपीउ करि-हस्ती जिम हस्ति-शाला "आश्रइ तिम विवेक शीलवंत पुरुषनई आश्रइ ॥१ - हिवइ शीलनउ उपदेश कहइ निम्महिय-सयल-हीलं दुहवल्ली-मूल-उक्खणण-कीलं । कय-सिव-सुह-संमीलं पालह निच्चं विमल-सील ॥२ व्याख्या - तुम्हे विमल निर्मल शील नित्य-सदा पालउ । पणि शील केहवउं छइ ? निम्म० सघलाई मिथ्यात्वनी हीला-पराभव जीणइं मंथाणानी परिइं मथ्या-फेडथा छई । दुह० दुखरूपिणी वेलि मूल-हंती उन्मूलिवानइ कारणि तीक्ष्ण खीला-समान । कय० कृत-कीधी शिवसुख= मोक्षसुखनी प्राप्ति छइ, एहवउं उत्तम शील पालउ ॥२ हिवइ शील-लगई इहलोक नइ परलोकनां फल कहणहार हतउ भणइ लच्छी जसं पयावो माहप्पमरोगया गुण-समिद्धी । सयल-समीहिय-सिद्धी सीलाओ इह भवे वि भवे ॥३ परलोए विह नर-सर-समिदिमवभजिऊण सीलभरा। तिहुयण-पणमिय-चरणा अरिणा पावति सिद्धि-सुह"॥४ १. K. श्रीगुरुभ्यो नमः. P. श्रीसर्वज्ञाय नमः L. श्रीजिनागमाय नमः २. K. °सहितं सेव्यमानममरगणैः. A. सुरैव सहितैः हितैः. ३. P. कहियइ. ४. K. मालानु श्रेणिनु. ५. P. त्रिन्नि. L. त्रिणि. ६. P. केहवा. ७. A. आश्रई, P. आश्रय. ८. P. कहियइ, ९. A. थकउ, १०. P. सीलधरा. ११. P. परमपचं. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित ए बिहं गाथानी व्याख्या-ईणइ भवि शील-लगइ एतला बोल संपजई : गृहांगणि लक्ष्मी, चक्रवर्ति वासुदेव बलदेव मंडलीकादि तणी ऋद्धि संपजइ, यश पणि वाधइ । प्रताप, आज्ञा कोइ लांघी न सकई, महात्म्य शीलना प्रभाव-लगइ सीह रीसाणउ-इ सीयाल-सरीखउ थाइ, आगि फीटी पाणी थाइ इत्यादि । आरोग्यपणउं-रोगरहितपणउं, गुणनी समृद्धि-घणउं किसिउं ? सकल समीहित मनोवांछित फलनी प्राप्ति शील-लगइ इहलोकि इत्यादि फलनी प्राप्ति हुई। हिवइ परलोकि नर=मनुष्य, सुर-देवतानी समृद्धि भोगवी शील-लगइ त्रिभुवने प्रणमित-चरण हूंता जीव मोक्षसुख पामई । इणि कारणि अरिणा प्राक्तन शुभाशुभ कर्मरूप वेदनी-कर्म क्षयि घातिउं तेह भणी अरिण-क्षीण समस्त कर्म, इम शील-लगइ मोक्ष पामइ । एतलउ बिह गाहनउ अर्थ हउ ३-४॥ हिवइ जे उत्तिम शील पालइ ते भवांतरि गुणसुंदरीनी परिइ संपदा पामइ ते कथा कहीई [१. शील-ऊपरि गुणसुदरीनी कथा ] लक्ष-योजन-प्रमाण जंबूद्वीप, तेह-माहि भरतक्षेत्र, तिहां श्रीभद्दिलपुर नगर। तीणइ नगरि राजा श्रीअरिकेसरि राज्य करइ । तेहनइ शीलादिक गुणे अलंकृत कमलमाला नामिई पट्टराणी । ते बिन्हइ घणां सुख अनुभवतां देवदेवता मनावतां । घणे दिहाडे गुणसुंदरी एहवइ नामिई पुत्री जाई । ते गुणसुंदरीनउ जन्ममहोत्सव राजाई पुत्रजन्मनी परिई महाविस्तरि कीधठ । पछइ पांच प्रकारिई धात्रीए पालीती हूंती, जिम मेरुपर्वतनी चूलिकाई कल्पवेलि वाधइ गुणसुंदरी वाधती हूंती, कलाचार्य-समीपि चउसठि कला, गीत नृत्य शास्त्र देशभाषा लिपि गणित बाद्य इत्यादि शास्त्र शीखती, यौवन-भरि आवी देखी, माताई सालंकार साभरण करी पिता समीपि मोकली । पिताइं पणि हर्ष स्नेह-लगइ उत्सगि बइसारी, पुत्रीनलं रूप अनइ आपणी राजऋद्धि देखी, गर्व-लगइ पृथ्वी तृण-समान मानतउ, समस्त सभालोक आगलि इसिउं वचन बोलइ, 'अहो लोको ! तुम्हे जे संपदा ऋद्धि पामी ते प्रमाण कहिनु ?' तिसिई सभाना लोक "हाजीविया थिका इसिउं भणइ, 'स्वामिन् ! ए सर्व तुम्हारु प्रसाद ।' तेतलइ गुणसुंदरी कन्या लोक छांदूआ बोल बोलता देखी माथउं धूणी हसिवा लागी । तिरिइ राजा पुत्रीनउं हासू देखी पछिवा लागउ, 'हे वच्छि! तू काइ हसी ?' तिसिई गुणसुंदरी कहइ, 'आम तात! ए सर्व लोक अलीक बोलई छई। जिणि कारणि जीविइं जेहवउं कर्म बांधिलं हूइ तेहवउ फल पामइ, इहां संदेह न जाणिवेउ'। इम पुत्रीनउं वचन सांभलो वली राजा कहइ, 'तू कहिनई प्रमाणिई सुख पामइ छ?' गुणसुंदरी कहइ, 'हूँ आपणा कर्मनइ प्रमाणिइं सुख 'पामउं छउं । ए वात सांभली राजा रीसाणउ हंतउ पुनी उत्संमि-तु"नांग्खी प्रधाननइ कहा, 'जाउ, तुझे नगर-माहि जि को गाढइ दुःखी काष्टभारनउ वहणहार पुरुष हुइ ते ल्यावउ ।' तेतलइ प्रधाने ऊठी करी कठीआरउ''एक आणिउ । राजाई पुत्रीनां आभरण वस्त्र सर्व ऊदाली ते कठीआरानई पाणि १. P. L. "यश पणि वाधई' नथी. २. L. K. लोपो उलघी. ३. K. कहीड छह र कहियइ. ४. L. कमला, ५. P. पटराज्ञी. ६. P. धात्री करी. ७. P. आजीवकानड अर्थि. L. नथी. ८. p. 'अनई राजानना भय लगई', एटलु वधारे. ९. P. आणिवउ, L. जाणवउं. १०, P. भोगवउं छउं । बली गाथा कहइ। गाथा - सव्वो पुव्वकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेस गुणेसु य निमित्तमित्त परो होइ ॥१ ११. K. उत्संग तु, P. उत्सगि थकी; L. उत्सगि तु लांखो. १२. P. गाम मांहि सोधा पुरुषु एक. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ग्रहण करावी, आपणी दृष्टि-हूं ती अलगो करी' कहिलं, 'जा, आपणउं कर्म भोगवि' । तिसिई प्रधाने प्रणाम करी राजा वीनविउ, 'स्वामी ! एवडउ कोप पुत्री-ऊपरि न कीजइ ।' तुहा राजानउ कोप उपशमइ नहीं । तेतलई गुणसुंदरी आपणपउं धन्य मानती ते काष्टहार-संघातिइं जिहां जीर्ण घर पडिउं छइ तिहां आवी, भर्तारनइ आसन मूकी, हाथ जोडी, आगलि ऊभी रही । पछइ काष्टवाहक इसिउं कहइ, 'हे भद्रि! तू आपणी इच्छाई जिहां विचारि आवइ तिहां "जा । सोन जिहां जाइ तिहां गौरवपण लहइ।' ए वात सांभली गुणसुंदरी कहई, 'स्वामिन् ! इणिइ भवि चिंतामणि समान मई तूं भरतार पडिवजिउ । आज पछ। ए वात न कहिवी ।' पछइ काष्टवाहकनइ माथइ वेणी करिवा-भणी मस्तकना अलक विरला वरिवा लागी । तेतलइ बावन्ना चंदननउ परिमल आविउ । आपणी उत्पातिकी बुद्धिई भर्तार पूछिउं. 'स्वामिन् ! आज काष्टनउ भारउ किहां वेचिउ ?' तेणिइ कहिउं, 'मई भोजन-माटि कंदोईनइ हाटि मूंकिउ छइ ।' पछइ गुणसुंदरीइ भर्तार-सहित तेणई हाटि जई, कांई एक भोजननउं मूल देई, काष्टनउ भारउ घर-माहि आणिउ । ते बावन्ना चंदननां काष्ट खंडोखंडि करी, सुरहिया गांधीनई हाटि खंड एक वेचिवा मोकलिउ । तेणिइ सोना-समतोली चंदन लीधउं । पछह तेणिई सोनइ वस्त्र आभरण सर्व नवां कीधां। वृत तंदुलादिके घर संपूर्ण भराणां । पछइ राजसुताई भरतारनइ स्नान कराविउ । हवई ते रांकनइ राजसुताना लाभ-इतु पुण्यपाल इसिउं नाम लोके दीध। तिवार-पछई राजसुताई ते पुण्यपाल-पासि ते चंदनवृक्ष अणावी ख डउ खंडि करी “ओरडउ भरी मूंकिउ । मउडई मउडई ते सर्व चंदन वेचावी, व्यवहार" सीखवी, धनराशि एकठी करी, नगर-माहि व्यवसाय मंडाविउ । पणि लेख न जाणइ, अक्षरमात्र समझइ नहीं । पछइ नगर टूकडउं गाम एक छइ तिहां गुणसुंदरी पुण्यपालनइ लेई माई-प्रमुख सर्व सूत्र'२, अंक, सर्व व्यवहार, सर्व परीक्षा थोडाइं दिवस-माहि सीखवी । तिवार-पछई संघातनी रचना करी तिहां हूंतां पोतनपुरि गयां । तेणई नगरि पुण्यपालपाहिई तिम व्यवसाय मंडाविउ जिम थोडा दिवस-माहि अति धनवंत हउ । तिसिइ गुणदरीई पूर्विला पुण्य लगइ जूना घर-माहि वहीयावट एक लिखिउ लाघउ । ते वाचिवा लागो । तिहां साते ऊखवे ईटवाह सोनानउ हुइ एहवा प्रयोग देखो हर्षित हंती, संयोग मेली, सुवर्णनी राशि करी, राजा-समीपि भूमिका मागी, उत्तंग-तोरण प्रासाद कराविउ । पछई कांई एक मन-माहि विचारी, पुण्यपाल-पाहई घणा प्रवहण वस्तु भरावी, सिंहलद्वीपभणी पुण्यपाल नई गुणसुदरो चाल्यां । वाटई महांत यश उपार्जतां अनेक धर्मकार्य करतां. सिंहलद्वीपि आव्यां । तिहां धननइ बलिई अनेक तुरंगम, भद्रजाती हस्ती, अनेक मणि माणिक्य रत्न मुक्ताफलना संग्रह करावी. पुण्यपालनइ इसिउं कहि', 'स्वामिन् ! ते धननउंसि प्रमाण जे स्वजन-संबंधीनइ चमत्कार न ऊपजावइ ? एह-भणी भद्दिलपुरि पिता अरिकेसरी राजाई जे हूं सभा माहि अवगणी तूं हनइं कर्मनां फल जोवा-भणी आपी, तेह-भणी तिहां जई कर्मनउं फल देखाडउ ।' इम कहिइ हूंतइ पुण्य-पालिई प्रयाणभंभा देवरावी पाछउ चालिउ ।। १. P. कीधी; L. तेडी. २. P. जाहि. ३. L. आपणं. ४ P. जाहि. ५. B. भरिनइ आगलि. ६. A. राजसुताई पुण्यपाल. ७. K. पाहिइं. ८. P. 'उरडउ...ते' नथी. ९. L. नथी. १०. P.L. वेची. ११. P.L. नथी. १२. L. नथी. १३. P. अवगणी हूंती. १४. L. नथी. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • मेरुसुन्दरगणि- विरचित मार्गि अनेक धर्मकाज करतां भद्दिलपुरनइ उद्यानवनि आवी, सर्व हस्ती अस्व तिहां राजी, सप्तभूमिक आवास करावी, पछइ अनेक बहुमूल्य वस्तु भेटि लेई, राजानई मिलिउ । तिसिइँ राजाईं ते तेहवी अपूर्वं वस्तु देखी हर्षित हृतउ घणउ मान दीघडं । तिसिहं प्रधानइ 'ऊठी राजा बीनविउ, 'स्वामिन् ! ईणइ पुण्यपाल नायकिईं जे घोडा हाथी आण्या छई ते आपणपs तिहां जई जोईइ, द्रव्य देई लीनइ ।' ए वचन सांभली पुण्यपाल राजानई प्रणमी कहइ, 'स्वामिन् ! धन - पाखइ जि कांई जोईइ ते भंडारि अणावउ, अनइ ईई मिसिई एकवार घरि आवी अम्हारा मनोरथ पूरवउ ।' पछई राजा अनइ पुण्यपाल बेहू गुणसुंदरीनह आवासि आव्या | पछइ स्नान-मज्जन' देवार्चन करी जेतलइ राजा भोजनशा लाई आवी जिमवा बइठउ, * तेतलइ सुवर्ण स्थाल, सुवर्णमय वाटली आगिलि मांडी । तिसिह पूर्वदिसिना द्वार - हूंती गुणसुंदरी नीकली, स्वेत वस्त्र स्वेत आभरण पहिरी, फलफूल सूखडी लेई, राजानइ स्वली गुणसुंदरी दक्षिणद्वार हूंती नीलां वस नीलां आभरण पहिरी रसवती राजानई परीसी । वली उत्तरनइ द्वार हूंती पीलां वस्त्र पीलां आभरण पहिरी, पकवान परस्यां । पछइ पश्चिम दिसिनइ द्वारि रातां वस्त्र रातां आभरण धरती, गोरसादिक परीसी करी, गुणसुंदरी पछी गई । पछइ जेतलइ राजा भोजन करी पुण्यपाल-संघादि स्नेहमइ वात करइ * तेतलइ गुणसुंदरी पितादत्त पूर्विल्ड वेष पहिरी राजानहं प्रणाम कीधउ । तेतलइ राजाईं पुत्रिका ओलखी, लाजिउ हूँउ दीनपणइ रहिउ । पछइ पुत्रिकानई उत्संगि बइसारी कहिवा लाग3, ' वत्सि ! ताहरउ स्वरूप देखी कर्मनउ फल मई साचउ मानिउ । जि कांई जीव दुख नइ सुख पामइ ते सहूं कर्म-जि-नूं" फल ।' इसिउ कही राजा कहर, 'मई भोजन करतां तू ओलखी नहीं, हवs तूं आपणउ वृत्तांत कहि । ए पुण्यपाल कउण " तिसिहं गुणसुंदरी सान कीधइ हूंति प्रतिहारिणीइं मूल हूंत चंदननउ वृत्तांत कहिउ । पछइ मातापिताए पणि अतिस्नेह-लगइ पुत्री - जमाई ओलखी, आप अनइ जमाई - पुत्री सर्व हाथीइ बइसारी, महा महोत्सव नगर-भणी चलाव्यां । तेतलइ अंतरालि श्रीवर्द्धमान-सूरि भविकजननई उपदेश देता देखी, राजा जमाई सहित गुरुनई वांदी, उपदेस सांभलिवाभणी आगलि बइठउ । तिसिइ गुरु कहइ, 'यतः लक्ष्मीर्यशः कुले जन्म प्रतापः प्रियसंगमः । श्रीधर्मकल्पवृक्षस्य फलमेतज्जिनोदितं ॥ १ ॥ - एहवउ उपदेस दीघउ । वली गुरु कहइ, "जे गुणसुंदरी भवांतर शील पालिउ तेहनउ ए फल ला उं, क्रमिई मोक्ष पणि पामिसिह ।' इत्यादि श्री गुरु- मुखि राजाई गुणसुंदरीनउ पूर्वभवस्वरूप सांभली, वैराग्यरंग पूरित हूंतउ, जमाई पुत्री ई परवरिउ, राजा नगर-माहि आविउ । अनेक धर्मकार्य करवा लागउ । पछइ श्रीपुण्यपालनई आपणउं राज देइ अरिकेसरी राजाइ चारित्र लीघउ । पछइ ते अखंड राज्यश्री पालतां पुण्यपाल नई गुणसुंदरीनइ सुलोचन नामिईं पुत्र उ । गृहांगणि घणा वधामणा हूया । सकल कला क्रमिई अभ्यसी कुमार राज्यभारनई योग्य हू । तेतलइ राजाई ते सुलोचन - पुत्रनइ राज देई, पुण्यपाल-गुणसुंदरीई चारित्र महा महोत्सवि लेइ निःकलंक व्रत पाली, मोक्षसुखनउ भाजन हुआ । इम शील ऊपरि गुणसुंदरीनी कथा जाणिवी ॥ १ ॥ १. L. मर्जन, २. A. बइसइ. २. A. वाटला, P वाटुली. ४. P करई छइ. ५. P. कम्मनउ, L. कर्मनू. ६. L. ते कुण. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध हिवइ समग्र गुणे सहित पुरुष शील-पाखइ शोभइ नहीं ते कहइ - देवो गुरू य धम्मो वयं तवं गुत्तिमवणिनाहो वि । पुरिसो नारी वि सया सील-पवित्ताई अग्छति ॥५।। व्याख्या-देव कहीइ शासननउ कारक; गुरु=धर्माचार्य; धर्म दयारूप; व्रत दीक्षारूप: तप बाह्य अभ्यंतर बार भेदे; गुप्ति-मन-वचन कायन राखिवउं; अवनिनाथ नरेंद्र; 'अपि' शब्दइ तु द्रमक भीखारी धर्माधार' पुरुष, नारी स्त्री सदा निरंतरशीलन प्रमाणिई-अर्थीइ: शीलिई पवित्रित हंतां गौरवपणु पामई, मोक्षनइ योग्य थाई ॥५ शील पालतां महा दुष्कर तेह-भणी बिहुँ गाथाए* करी कहइ - दायारसिरोमणिणो के के न हुया जयम्मि सप्पुरिसा । के के न संति किं पुण थोव च्चिय धरियसीलभरा ॥६ छट्ठमदसमाइं तवमाणा वि हु अईव उग्गतव । अक्खलिय-सील-विमला जयम्मि विरला महामुणिणो ॥७ व्याख्या-ए जग-त्रय-माहि दातार-शिरोमणि कउण कउण सत्पुरुष नथी हुआ ? जीमूतवाहन-सरीखा अपि तु घणाइ कर्णादिक हुआ। वली कउण कउण दातार नथी जे कृपा-लगइ आपण जीवितव्य तुलानइ विषइ तोलइ ? जिम श्रीशांतिनाथनई जीविई वज्रकुमारिइं पारेवउ राखिउ, इम अनेक अभयदान देवानई दातार दीसई छई । अनइ वली कउण दातार नहीं हुई? पणि शोलवतना धरणहार पुरुष जग-त्रय-माहि थोडिला' जि दीसई, जिणि कारणि सर्व व्रत-माहि शीलबत मुख्य ॥६॥ लट्रम०- छह अट्ठम दसमादि, पक्ष-क्षपण मास-क्षपणादि महांत उग्र तपना करणहार घणाहदीसइं, पणि अस्खलित शील-अखंड ब्रह्मवतना पालणहार विरला जि जयवंता दीस इं । जिणि कारणि सिद्धांतिइं इम कहिउं - अक्खाणसणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभवयं । गुत्तीण य मण-गुत्ती चउरो दुक्खेण जिप्पंति ॥१ इम शीलवत दोहिलङ छइ, उपकोशाना परि वसणहार महात्मानी परिई । जिम महात्माई सालदेशि जई रत्न-कंबल स्त्रीनइ वचनि-आणिउ इत्यादि घणाइ दृष्टांत जिनशासनि छह ॥७॥ वली एह जि शील-ऊपरि लौकिक ऋषिना दृष्टांत देखाडतु कहइ जं लोए चि सुणिज्जइ निय-तव-माहप्प-रंजिय-जया वि । दीवायण-विस्सामित्त-पमुह-मुणिणो वि पब्भट्टा ॥८ व्याख्या --जे लोक-माहि इसिउं सांभलीइ जे आपणा तपनइ महात्म्यइ करी जगत्रय रंजवी होला विश्वामित्र ऋषि प्रमुख पारासरादि पर-सासनि एवडा ऋषि हुआ. ते पणि स्त्रीना बार भाव, कटाक्षक्षेप, वचन, शंगार देखी शील-हंता भ्रष्ट थया । पणि ते ऋषि केहवा छडं १ सकर सेवाल, सूकां पलासनां पत्र, कंद, मूल भक्षण करता छई। एहवा ऋषि शील-हता चूका ॥८॥ हिवइं इहां ते ऋषिनी कथा कहीइ - F धारी. २. P. गाहई. A. गाहे ३. P. नही. ४. P. ताकडिइ. ५. A. तोलीइ. ६. K. थोडाइ. ७. APL. रइणहार. ८. K. महिमाई ९. 'पर-सासनि...देखी' पाठ A. मां नथी. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित [२. शीलभ्रंश - ऊपरि द्वीपायन ऋषिनी कथा ] fus भरतक्षेत्र हस्तिनागपुरि शांतन राजा राज्य करइ, आपणी प्रजानई सुखिई पालइ | परं राजा मृगनु आहेडउ, तेहनइ विषइ रसिक हूंतउ । एकदा हरिण देखी राजाई घोडउ मूंकिउ । तेतलइ हरिण हरिणीनइ लेई वन-माहि नाठउ । राजाइ वन- माहि जातउ जातउ सात भूमिकानउ' एक आवास दीठउ | पछइ राजा अश्व मूंकी आपण आवास माहि सातमी भूमि जेतलइ चडइ, तेतलइ रूपवंत कन्या एक पाणीनउं पात्र लेई राजा साम्ही आवी, राजानई आसन मूंकिउ, घणउ विनय साच विउ | पछइ अति संतोषिक हूंतउ राजा कन्या - प्रति पूछइ, 'हे सुभगि ! तू कहिनी बेटी ? एकली आवासमाहि कांइ ?' इम पूछिइ हूंतइ बालिकाई कहिउँ, 'राजन् ! सांभलि, जनु नामा विद्याधर, तेहनी हूं बेटो गंगा एहवई नामि । माहरइ पिताई पूर्वि नैमित्तिक पूछिउँ हूंतउं जउ, " पुत्री गंगानई वर कउण होसिइ ?” तिसिइ नैमित्तिक कहिउं, "ए गंगानई पांडुक-वनमाहि वरनी प्राप्ति होसिइ ।” पछइ पिताई ए सप्तभूमिक आवास करी हुं इहां मूंकी ते वचन आज सफल थयउं ।' एहवां कन्यानां अमृत ससनेह - कारीयां वचन सांभली, तिहां जि गांधर्वविवाहि पाणिग्रहण गंगा कन्यानरं कीधउं । पछइ सांतन राजा महा ऋद्धिनइ विस्तारि गंगानइ नगरि लेई आवि । पंच प्रकारे विषयसुख भोगवतां अनुक्रमिदं पुत्र जायउ । नाम गांगेय दीघउं । बीजना चंद्रमानी परिहं वृद्धि पामतउ, बहुत्तरि कला अभ्यसतउ, विशेषतः धनुर्विद्या सीखी । इम अनेर प्रस्तावि तेह जि हस्तिनागपुर - समीपि यमुना नदीनइ उपकंठि पारासुर ऋषि तप करतां धीवर ऐकनी पुत्री मच्छगंधा इसिई नामिई दीठो । अति-सरूप देखी पारासुर ऋषि ध्यानहूंतउ चूकउ । मच्छगंधा घरि आणी । केतले दीहाडे संतानप्राप्ति हुई । बेटउ जायउ । मच्छगंधाइ तेहनइ द्वीपायन नाम दीघउं । मोटउ हूउ पछइ द्वीपायनि तापसी दीक्षा लीधी, तप तपिवा लागउ | ए स्वरूप आगलि कहीसिइ । हिवइ मच्छगंधा १ योजनगंधा २ सत्यवती ३ ए त्रिणि नाम हूयां । एहवइ प्रस्तावि हस्तिनागपुरनउ स्वामी शांतन राजा क्रीडा करिवाभणी नावइ बइसी यमुनानदीनइ कांटइ आविउ । तेतलइ शांतन राजाई तेह जि सत्यवती, धीवरनी पुत्री वडी दीठी | महांत रूप देखी सराग हूंत शांतन राजा तेहना पितानई कहइ जउ, 'ताहरी बेटी मुझनइ आपि' | तिवारई वरि कहिउं 'तुझ सरीखउ जमाई लाभइ किहां ? पणि तुम्हारइ गांगेय पुत्र । तेह तां माहरी पुत्रीना पुत्रनई राज न हुइ । जउ तू एहवी वाचा दिइ जे "सत्यवतीना पुत्रनइ हूँ आपणउं राज दिउँ" तउ हूं आपणी बेटो तू हनई दिउँ' । इणि वचनि राजा सचित थिकउ' घरि गयउ' । राजा राजनी कणवार न करइ, भोजन पणि न करइ । एहवइ प्रस्तावि गांगेयई जाणिउं जउ राजा एह भणी चिंता करइ छइ । पछइ गांगेय धीवर कन्हलि जई, सत्यवती पुत्री मागी, एहवउं वचन दीघउ जउ, “सत्यवतोना पुत्रनई राज्य । हूं ब्रहाचारी । मई राज सही परिहरिउं ।' एहवी वाचा देतां देवताए जय-जयारव करतें फूलनी वृष्टि कीधो । गांगेयं भीष्म उग्र कर्म कीधउं तेह-भणी भीष्म ए नाम हूउं । तिवारइं घीवरिइं योजनगंधा पुत्री दीधी । शांतन राजा परिणिउ । क्रमि योजन गंधाई बि पुत्र जन्म्या, "चित्रांगद १ चित्रवीर्य २ | छह बेहु" बालक यौवनाभिमुख हूंता सर्व कला अभ्यसी, राजयोग्य "हूआ तेतलई शांतनराजा परोक्ष १. P. सातभूउ. २. A. थया. ३. P. सारोखउ ४ P तुझनइ K तुम्हनइ. ५. P. हूंत उइ. ६. P. L आविउ. ७. K. करणवार ८. A. कन्तइ ९. K. एह नाम दोषड १०. P. चित्रांगज. ११. A. त्रिए; M. P. वेबइ. १२. A. थया. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीळोपदेशमाला - बालावबोध उ । चित्रांगदन चींतविड, राज्य दीधउं । इम केतलई कालिई नलांगद वइरी साथिई झूझ करतां चित्रांगद पडिउ | पछइ चित्रांगदनइ पाटि चित्रवीर्य बइसारिउ | तेहनई अंबिका अंबालिका अंबा र त्रिणि स्त्री सहित भोग भोगवतां, राज पालतां संतानविण चित्रवीर्य पणि परोक्ष हूउ । तिसिहं गांगेयईं 'भावइ तिम तां कुलनी वृद्धि कीधी जोईइ, अनइ हूं त ब्रह्मचारी | भूमिका रूप त्रिणि स्त्री तउ छई, अनइ बीजनउ संभव जोईइ' । तेह-भणी चित्रवीर्यनी वडी भार्या अंबिका, पारासुर ऋषिनउ पुत्र सत्यवतीनउ पहिलउ बेट द्वीपायन एहवइ नामिई जे महा उग्र तपी मासक्षपणनइ पारणइ सूकउ सेवाल पलासन पत्र कंद-मूल भखी, बीजउं मासक्षपण करइ, पारणइ सूकउ सेवाल लिई - एहवउ जे ऋषीश्वर तेह समपि अंबिका मोकली | तिवारई अंबिकाई चींतविडं, 'ए तु माहरउ' जेठ' इसी लाज-लगइ वस्त्रनइ थानकि सूकडिं सर्वागि लगाडी, शृंगार करी, द्वीपायन-कन्हलि गई । तिसिईं द्वीपायन पणि रूपि मोहिउ थकउ अंबिकानइ आदरई । पछइ द्वीपायनि कहिउ', 'ताहरह पुत्र होसिइ, पणि पांडरइ वर्णि होसिइ ।' बीजइ दिनि पणि स्नाननइ अवसरि अंबालिका मोकली | द्वीपायन - समीपि तिणि लाज-लगी आंखिई पाटा बांध्या । पछइ ऋषि कहर, 'ताहरइ पुत्र होसिइ, पणि अंध होसिइ ।' वली त्रीजइ दिनि अंचा मोकली । तिणि अबाइ आपणह ठामि लाज-लगी दासी मोकली । इम त्रिहुंनइ पुत्र जनम्या, पांडु १ धृतराष्ट्र २ विदुर ३ एहवा नाम हूया | तु जोउ एहवाइ ऋषि स्त्रीना संसर्ग * लगइ शील-हूंता चूका । तु एहवा महा विषय " विषम छइ । इहां द्वीपायननउं स्वरूप कहिउं ||२ हिव विश्वामित्रनउ स्वरूप कहीइ [३. शीलभ्रंश - ऊपरि विश्वामित्र ऋषिनी कथा] गाधिराजान पुत्र विश्वामित्र एहवइ नामि क्षत्रिय वंश-मंडन । तिणि वशिष्ट ऋषिनी स्पर्धा अहंकार लगइ तापसी दीक्षा टीवी' । सूका सेवाल, नीरस आहार, मासि मासि पारrs करइ । सूर्य साम्ही दृष्टि, चिहुं पासे अग्निना च्यारि कुंड बलई-इम महा दुस्तर तप करइ । ते विश्वामित्रनइ तप-लगइ अनेक शक्ति हुई । एकदा प्रस्तावि वशिष्ट - विश्वामित्रनह विरोधि, कोई एक अंतिज - समान पुरुष आवी वशिष्टनइ कहइ, 'मुझनइ याग करावउ ।' तिवारइ वशिष्ट कहइ, 'तूं पतितनइ हूं याग नही करावउं ।' पइ विश्वामित्र - कन्हलि जई प्रार्थना कीधी । तिवारइ विश्वामित्र वसिष्टनी स्पर्धा-लगइ कहिउ', 'तुझनइ हूं याग कराविसु ।" पछइ सर्व उपस्कर मेली सर्व ऋषि तेड्या, याग कराविउ, पणि वशिष्ट' नाव्यउं । पछइ याग हूया -पछs विश्वामित्र कहिउ, 'तू' स्वयं देहि स्वर्गि जा' ।' जेतलइ ते स्वर्गि गयउ, तेतलइ देवताए मिली इंद्र वीनविउ । इंद्रि कहिउ', 'तू' पाछउ जा' ।' पछइ निर्भर्रिसउ हूँउ पाछउ आवी ऋषिनई कहिउं । ऋषि वली मोकलिउ, वली इंद्रि वज्र लेई कहिउ कि, "जा, नहीतर मस्तक - छेद करिसु ।' पछइ बीहतउ पाछउ आवी ऋषिनइ कहिउं । पछइ ऋषिनइ देवता - सिउं वयर ऊपनउ । तिहांथिकी विश्वामित्र नवी सृष्टि करवा मांडी । १. P. माहरइ. २. ५. P. विषय महा. ६. A. या, P. जाजे. १०. P. जाहि. P. हूंतउ. ३. A. ताहरउ. L. लेई. ७. विशिष्टनी. ११. P. जाई. ४. P. संग, L. संगम, ८. L. विशिष्ट. ९. A. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित पछइ देवताए मिली विमासिउं जउ, 'ए विश्वामित्र ब्रह्मानी सृष्टी ऊथापी आपणी सृष्टि थापई। तिवारइं तेत्रीस कोडि देवताए मिली मेघ राखिउ, तु विश्वामित्रि कूआ नवा करी भूमिका-हंतुं पाणी कादिउ । पछइ वली जउ गाई दूध देती राखी, तु भइंसि नवी कीधी । माणस पणि नवा करिवा मांडया, तु नालिकेरु मस्तकनई ठामि कीघउ, कोहलू हईआनइ ठामि कीधळं, दूधीया हाथनइ ठामि कीधा । इम करता देखी सर्व देव बीहना । पछइ पगे लागी ऋषि मनाविउ। पछइ मनुष्य न कीधा । एवडी शक्ति ऊपनी । इसिइ सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञाननइ बलि तपनन महातम्य जाणो मन-माहि बोहनउ जु 'ए ऋषि तपबलि माहरी इंद्र-पदवी पणि लेसिइ, तु कीणइ उपाइ तप-हूंतउ पाडउ।' इम चीतवी मेनिका देव-कन्या तेडीनइ इंद्रिइ कहिउं जउ, 'विश्वामित्रनइ तप-हंतउ पाडि ।' पछइ मेनिकाइ इन्द्रनउ वचन पडिवजी, जीणइ आश्रमि विश्वामित्र छइ तिहां आवी, वसंत-ऋतु अवतारी । अदार भार वनस्पती मउरी, कोइलि टहका करइ, भमरा रुणझुणाट करइ, आंबानी' मांजरइ परिमल वाघिउ, मलयाचलनउ वाय वायउ-इत्यादि वसंत-ऋतु अवतारी, मेनिका देवांगनाइं ऋषि-आगलि नाटक मांडिउ । आपण मूलगउं रूप देखाडी सोल भेद शृंगारना करी कोकिल-स्वरि पंचम-राग-गर्भित गीत गान, वेणवंस-वादन, नृत्य हाव भाव, कटाक्ष, रूप बाण-विक्षेप, अंगना स्पर्श तिम किमइ करवां मांडयां, जिम विश्वामित्र ध्यान-हूंतउ चूकउ, विवेक नाठर, मन खलभलिउं । जेतलइ नेत्र ऊघाडयां, तेतलइ कंदर्पने बाणि वोंधी ऋषि जाजरउ कीधउ । काम-विह्वल हंतउ मेनिका सेवी, घणउ काल विषय-लुब्ध रहिउ, सर्व तप-ध्यान-हूंतउ चूकउ। तु एहवाइ क्षत्रीय-जात तपि करी शोषितदेह द्वीपायन-विश्वामित्र-जमदग्नि-रेणुका-प्रमुख घणाइ पारासुर-वसिष्टादिक लौकिक ऋषि ते ही ध्यानहंता पड्या । एह-भणी शील पालतां दोहिल। ए ऋषिना विस्तार महामारत-हूंता जाणिवा । ए कथा त्रीजी जाणिवी ॥३॥ ४अन्यानता-लगइ जे शील-हूंता भ्रष्ट थया तेहनु स्यूं कहीइ ? अनइ जे परमतत्त्व जाणइ, विषय विष-समान मानइ, तेहनइ शील पालतां दोहिललं --- जाणंति धम्मतत्तं कहंति भावंति भावणाओ य । भव-कायरा वि सील धरिउं पालंति नो पवरा ॥९ व्याख्या - जाणइ-बूझइ यथोक्त वीतरागनउ भाषित मार्ग। ते किसिउं १ एकलूं जाणी जि रहइ, अनेराइ जीव आगलि धर्मनउं तत्व कहइ-उपदिसइ, अनइ बारइ भावना आपणइ चित्ति भावइ, अनइ भव-संसारना जे अनेक जरा-मरण-जन्मादिक भय छ। तेह-थका घणउं बीहइ, तिणि करी. कायर छइ, एहवा-इ हूंता शीलब्रतनउ अंगीकार करी पाली न सकइ । एह अक्षरार्थ कहिउ । अथ वली आगम-माहि शील पालिवा-ऊपरि च्यारि भांगा कहिया ते कउण ? एक, जीव सीहनी परिइं व्रत आदरइ, सीहनी परिइ पालइ - ए भांगउ सर्वोत्तम १। सीहनी रीतिइं लिइं. सीयालनी रीतिइं पालइ-ए मध्यम भांगउ २ । सीयालनी परिई लेई, व्रत सीहनी परिई पालइ-ए ही भांगउ वारू ३ । सीयालनी परिइं व्रत लिई, सीयालनी परिई पालइ-ए अधम भांगउ ४। ए चतुर्भगी-माहि बि भांगा उत्तम, बि भांगा मध्यम जाणिवा ॥९ हिवइ सघलां-इ धर्मकृत्य करतां दोहिलां, परं तेह-पाहि सील पाला घणउ दोहिलउ वली तेही जि कहइ - दाण-तव-भावणाई-धम्माहिंतो सुदुक्करं सील । : इय जाणिय भो भव्या अइजत्तं कुणह तत्थेव ॥१० १. P. आंबा मउरिवा लागा. २. P. थकी. ३. A. गात्र. ४. अजाणपणा-लगइ ५. P. पाहंति. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला-बालावबोध व्याख्या :-दान-तप-भावनादिक-धर्म-पाहइ शीलबत पालतां दुक्कर-दोहिलङ इसिउं जाणी, भो भविको, तेह जि शील ऊपरि अति यत्न-परम आदर करउ। इम गाहनउ अर्थ ॥१०॥ शील ऊपरि जे एवडउ आदर ते कहइ - तं दाणं सो अ तवो सो भावो तं वयं खलु पमाण । जत्थ धरिज्जइ सीलं अंतर-रिउ-हियय-नव-कीलं ॥ ११ व्याख्या:-दान तेह जि लेखइ गणीइ, तप तेह जि लेखइ गणीइ, भावना तेही प्रमाण, व्रत पाल्यउं तेह प्रमाण, जिहां दानि तपि भावि व्रति एहनइ विषइ जे मिर्मल शील धरीइ । तेह जि प्रमाण, पणि ते शील केहवउं छइ ? अंतरंगरिपु= वइरी रागद्वेष-रूप, तेहनद हीब नवा खोला समान । इणि कारणि सर्व धर्म-माहि मुख्य शोल जि ॥ हिवइ शीलनउ महातम्य कहइ - कलिकारओ वि जनमारओ वि सावज्ज-जोग-निरओ वि। . जं नारओ वि सिज्झइ तं खलु सीलस्स माहप्पं ॥१२ व्याख्या:-कलिगारउसंग्राम, झूझनउ करावणहार, इणि कारणि घणा लोकनइ मरायणहार, एकनी स्त्री बीजा-पाइई' अपहरावइ, संयोग-वियोग करइ, यली सउकिनउ करणहार, इषि कारथि सावद्ययोग करिवा कराविवा निरत-सावधान । अनेराइ जीव-हिंसादि व्रतनइ बिषइ शिथिल-दीलड इ हूंत उ एड्वउ जे नारद सोधमोक्ष-फलनउ भोक्ता हूउ ते खलु-निश्चइ शीलनउ प्रमाण= महातम्य जाणिवउ ॥१२॥ ए नारदना केतलाएक अवदात कहीई, पणि तथापि पहिलङ नारदनी उत्पत्ति कहीइ - - [४. शील-ऊपरि नारदनो कथा ] चेदि देशि शुक्तिमती नामि पुरी । तिहां अभिचंद्र राजा राज्य करइ । खोरकदंब उपाध्यायकन्हलि राजानउ पुत्र वसु, उपाध्यायनउ पुत्र पर्वतक,त्रीजउ नारद ए त्रिणइ वेद भणई। अन्यदा आकाशमार्गि चारण श्रमण महात्मा जाता थका वात करिवा लागा जु, 'ए उपाध्यायनइ बि शिष्य नरकगामी, एक स्वर्गगामी ।' ए वात सांभली उपाध्याय खेद धरतउ, पछइ परीक्षा-भणी कणकना कुकडा करी प्रच्छन्न दीधा, कहिउं 'जाउ, जिहाँ कोई न देखइ तिहां जई हणिज्यो।' पछइ त्रिगइ शिष्य नीकल्या । वसु नइ पर्वतक किहाँ ईक सूनइ घरि जई ते कृकडा हणी, पाछा आव्या, अनइ नारद अणहणिइ पाछउ आविउ । गुरुनइ प्रणाम करी कहइ, ' तुम्हारउ आदेस पामी नीकलिउ, पणि ते प्रदेश नही, ते स्थानक नही, जिहां कोई न देखा। सघले वीतराग त उ देखई"। पछइ उपाध्याय नारद योग्य जाणी संपूर्ण विद्या भणाविउ । पर्वतक नइ वसु नरकगामी जाणी वैराग्यइ3 दीक्षा लेई आपणउं काज सारिउ । पर्वतक बापनइ थानकि नेसालीआ भणावइ । नारद आपणइ स्थानकि गयउ । अभिचंद्र-राजाइ दीक्षा लोधी, तेहनउ पुत्र वसु राजि बइठउ सुखि प्रजा पालइ । एतलइ अवसरि मृगना आहेडा भील एक नीकलिउ । मृग देखो आकांत बाण मूकिउं । फटिक-सिलाइ ते बाण खाले । पछह तीण फटिक-शिला जाणी प्रच्छन्न राजा आगलि आवी वात कही। राजाइ ते शिला फटिकनी अणावी शिला-सिंहासन घडाविउं, ए सूत्रधार हणिउ, जिम वात बाहरि न फूटइ। पछइ तिणि सिंहासनि राजा १. L पाहंति २. P. 'माहरउ आत्मा देखइ आकाशगामी जीव देखा' एटा वषारे, ३. L. वैराग्य तु. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित बइसइ । आसन-टूकडउ कोई आविवा न लहइ । पछइ लोक-माहि एहवी महा महिमा वाधी जु सत्यवचन-लगी वसुराजानउं सिंहासन आकाशि रहइ । ___ अन्यदा नारद गुरुना गौरव-भणी गुरुनु पुत्र पर्वतक तेहनइ मिलवा-भणी आविउ । तिसिई 'नेसालीआनई पर्वतक भणावइ छइ । तिहां इम कहिउं जउ, “अजैर्यष्टव्यं' इति ऋग्वेदनउं पद नारद देखता भणाविवा लागउ जु. 'अज कहतां पशु, तीणे याग करिवउ' | एहवउं पर्वतक वखापतउ देखी नारदि. आपणा कान ढांकी कहिउँ, 'गुरे तु अज त्रि-वार्षिक = त्रिहुं वरसना व्रीहि. कयाः हूंता । तिसिई पर्वतक कहइ, 'अज छाग कह्याता , जु न मानइ तु वसुसजा , साखीउ सहाध्याई कीजइ । वली एहवउं पण कीजइ जे कूडउं बोलइ तेहनी जीभ छेदीइ । पछइ नारद ते वचन प्रमाण करी देव पूजवा निमित्तइ घरि आविउ । तेतलइ माता-सहित पर्वतक एकांति वसुराजा-कन्हलि आवी वात कही जउ नारद संघाति ए पण बोलिउं छह । वसु कहइ, 'नारदइ कहिउं ते साचउं। गुरे अज त्रिहुं वरसना व्रीहि जि कह्या हंता। तई अयुक्तउं कांइ कहिउं ?' पछइ उपाध्यायनी भार्या वसुराजानइ कहिवा लागी जु, 'पुत्र-मिक्या दिह तु पर्वतकनउं वचन साचलं करि।' पछइ दाक्षिण्य-लगइ वचन पडिवजिउं । प्रभाति नारद-पर्वतक आव्या । सभामाहि वसुराजा-प्रत्यक्ष आपणी आपणी वात कही । तिहां दाक्षिण्य लगइ वसुराजाई असत्य वचन बोलिउं । देवताइ तेतलई सिंहासन-हूंतु वसुराजा नांखी मारिउ, नारदनइ जयजयकार कीधउ। पछइ ते नारद एकदा प्रस्तावि द्वारवती नगरीइ गयउ । तिणि द्वारवतीइ कृष्ण वासुदेव राज्य करइ । तेहनइ सत्यभामा पट्टराणी छइ । तेह साथि विषय-सुख अनुभवतां, एक दिनि नारद-ऋषि नारायण-कन्हि आविउ । नारायण साम्हउ ऊठिउ, पंचांग प्रणाम करी. आसनि बइसारी धन-कनकादिके करी संतोषिउ । क्षण एक रही नारद-ऋषि नारायणना अंत: पुर-माहि आविउ। तिणि प्रस्तावि सत्यभामा शगार करी, आपण मुख आरीसा-माहि जोती हूंती, सखी-साथि वात करिवा लागी । सत्यभामाइ ते नारद आविउ जाणिउ नही, भक्ति बहुमान न दीधउं। एह्वइ प्रस्तावि ऋषि मन-माहि चींतवइ, 'जोउ, मुझनइ जे देवता छह ते ही मानइं, पछइ मनुष्यनउ स्यउं कहीइ ? पणि ए सत्यभामा नारायणनइ इ. धन-योवननह गर्वि मुझ साम्हउं इन जोइ । तु किमही एहनउ गर्व ऊतारिउ जोईइ । ए स्त्रीनउ गर्व तु भाजइ, जउ चीजो सउकि हुइ ।' तु इम चीतवी कौतक-प्रिय नारद तिहां-हूंतउ आकाशि ऊपडयउ', कुंडिनपुर नगरि आविउ । तिहां रुक्मी राजा राज्य करइ । तेहनी बहिनि रुक्मिणी एहवइ नामि महा रूपवति यौवन-भरि छ । तेह समीपि नारद आविउ । रुक्मिणीइ आसन-बहुमाने करी ते ऋषि गाढउ संतोषिउ । पछइ तिणि आसीस दीधी, 'हे पच्छि! त्रिखंड-भोक्ता नारायणनी वल्लभा होज्ये'। तिसिइ रुक्मिणीइ पूछिउं, 'ऋषिराज ! ते नारायण किहां छइ १ कउण छइ ? किसिउ छइ ?' इम पूछिइ हूंतइ नारद-रिषि नारायणनउ रूप सौभाग्य गुण तिम किमइ वर्णव्या, जिम रुक्मिणी नारायण-ऊपरि सानुराग हुई । पछइ ऋषि १. P लेसालिआ. २. P. बोकडा. ३. P. पर्वतकनी माता ४ L. सिंहासनि थकउ ५. P. L कन्हलि. ६. P. उडिउ, L. ऊडिउ, : Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालाघबोध क हउं, 'पुत्रि! चिंता म कार, तूहनइ भार नारायण होसिई।' इम आश्वासना देई, चित्रगरपाहई' रुक्मिणीनउं रूप लिखावी, नारद-ऋषि द्वारकाई आवी, नारायणनइ मिलिउ। __नारायणि बहुमान देई ऋषि पूछिउं, 'कांई पृथ्वी-माहि कउतिग, आश्चर्य-वात काई दीठीसांभली ?' तिसिइं ऋषिइं प्रस्ताव जाणी ते चित्रामनउ पुट दीधउं । नारायण ते देखी कहिवा लागउ, 'ए' किसिउं देवांगनानउ रूप, किंवा मनुष्यनउ रूप १' इम पूछिह, रुक्मिणीनी वात सर्व कही । वली काहवा लागउ, 'ताहरु जन्म सफल तहीई जि जहाई, ते रुक्मिणी परणेसि । जा ए स्त्री-रत्न ताहरइ घरि नही, तां ताहरउ जन्म फोकट ।' इत्यादि वचन सांभली सांभली, चित्रामनउं रूप जोई जोई, सानुरागपगइ नारायण नारद-प्रति इसिउं कहइ, 'अहो ऋषीश्वर! तिम करउ, जिम रुक्मिणी माहरइ घरि आवइ। जिम कल्पद्रुम सेविउ निःफल न हुइ, तिम तुम्ह आगलि प्रार्थना कीधी निःफल न हुइ' । पछइ नारदि कहिउँ, 'तिम किजिसिई, जिम तुम्हारउ मनोरथ सफल थासिई। पणि एक वार रुक्मी-राजा-समीपि दूत मोकला कन्या मगावीइ' । इम कहो नारद रुक्मोराज-कन्हलि गयउ । पछइ नारायणि दुत मोकली रुक्मो-राजानइ कहाविउं जु, 'ताहरी बहिन रुक्मिणी मुझनइ आपि ।' दूति जई ए वात कही जेतलइ, तेतलइ रुक्मा-राजा रीसाणउ, कहिवा लागउ, 'हूं गोवालाना पुत्रनइ आपणी बहिन नहीं आपउं। मई शिशुपाल-राजानइ बहिन दीधी छइ ।' इसिउं वचन दूत-आगलि कहो दूत पाछउ मोकलिउ। तेतलइ रुक्मिणीनी धा वमाताई रुक्मिणी-आगलि जई कहिउं जु, 'आज तूंहनइ शिशुपालनह दीधी' । पछइ रुक्मिण। 'असमाधि करवा लागी । तिवारई धाविमाताई कहिउं, 'अइमुत्तइ केवलीइ इम कहिउं हंतउं जु"रुक्मिणी नारायणनइ घरि अग्रमहिषी हुस्यइ।” ए वात इम मइ सांभली हंती, अनइ आज तु रुक्मी-राजाइ तूं शिशुपालनइ दीधी। अनइ नारायणि पणि जणं मोकलिउ हूंतु, तेहनउ बोल न मानिउ । हिव स्यूं चालइ ? अथवा वली केवलीना बोल अन्यथा म हइ' । पछइ रुक्मिणो कहइ, 'मइ पणि इणि भवि प्रतिज्ञा कीधा. ज भर्तार. त नारायण. नहींतरि नहीं'। एहवउ निश्चय जाणी, धाविमाताई शिशुपालनउ लग्न-दिवस आवतउ जाणो, छानउ एक दूत नारायग-सनीपि मोकली, वीवाहनउ दिवस जणाविउ जु, 'तुझे आठमिमइ दिनि सही आविज्यो । गुप्तपणइ हूं पणि नागदेवतानइ भुवान नाग पूजिवा-भणी मध्याहि आवर्ड छउं'। ए संकेत-ऊपरि जेतलइ नारायण बलदेव-सहित रथि बइसी प्रछन्न . आविउ, तेतलह शिशुपाल-राजाइ विवाहनी सर्व सामग्री करी कुडिनपुरनइ उद्यानि वनि आविउ, रुक्मी-राजा सामहउ आवी आवासि ऊतारिउ । तेतलइ नारद कलहप्रिय आवी नारायणनइ कहा, 'ताहरउ प्रस्ताव छइ ।' तिसई रुक्मिणी धाविमाता-सहित संकेत-स्थानकि आवी । तेहनउं रूप देखी नारायण चीतवइ, 'जेहवी नारदि वर्णवी हूंती, तेह पाहई अधिक रूप एहनउं दीसइ छह ।' पछइ तिहां जि नारायणि गांधर्व-विवाहि पाणिग्रहण करी रुक्मिणीनइ कहिवा लागउ'", है RL. पाहंति. २. P. मां आना बदले आ पाठ : 'माहरउ जन्म तउ हो सफल जउ ए स्त्री माहरड आवइ । तिसइ ऋषि कहइ...' ३. A जे. ४. P. सखिइं. ५. 1 विलाप. ६. A. जे. ७. P. दूत. ८. A. कहिउ, P. रुक्मण) धाविमातानई कहिउ: L कहि. ९. L. पाहि; A. पांहिते. १०. P. कहिउ, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मेरुसुन्दरगणि-विरचित भद्रि ! ताहरा कीधइ दूर पंथ अवगाही रागवश-लगइ हूं इहां आविउ, तु हिवइ तुम्हे विलंब म करउ, ईणइ रथि बइसउ' । पछइ रुक्मिणी रथि बइठी । रथ पवनवेगि चालिउ । धाविमाताई आपणा माथा-तउ' बोल ऊतारिवा-भणी मोटइ सादइ पोकार कीधी, 'अहो लोको! धाउ धाउ', जोउ जोउ, कोई विद्याधर अथवा मनुष्य रुक्मिणीनइ लेई जाइ छइ ।' तेसलाइ नारायणि पंचयज्ञ नाम शंख पूरी, आपणपउं जणावी, रथ खेडाविउ । तिसिइ नारद कलिप्रिय शिशुपाल समीपि आवी कहवा लागउ जउ, 'ताहरी वरी नारायण लेई जाइ, तु ताहरउ जीवतव्य सिह काजि इसिई रुक्मी-राजानइ पणि शुद्धि हुई । पछइ बेवइ रुक्मी अनइ शिशुपाल-राजा अमित सैन्य मेली वाहरइ चड्या । पछइ वयरीना समूह आवता देखी रुक्मिगी कहिवा लागी, 'हे प्राण ना! तुम्हे तु बि जणा एकाकी, ए तु चतुरंग कटक मेली केडइ आव्या । हिवइ माहरइ कीधइ तुम्हनइ विणास ऊपजिसिइ । तु इम जाणउं, कुलनी क्षयकारिणी ई आज 'हुई। तिसिई रुक्मिणी कायर देखी नारायण आपणउं बल देखाडिवा-भणी महांत एक वृक्ष एकणि बाणि करी छेदिउ । पछइ वली हाथि मुद्रिकारत्न हूंतउ हीरा जडित, ते कपूरनी परिइं चूर्ण करी कहिवा लगउ, 'हे प्रिये ! ते बापडा मुझ आगलि किम ऊभा रहि इसिइं रुक्मी-शिशुपाल दूकडा आव्या देखी बलिभद्र कटक-सामहउ मुकिउ, आपणपइ नारायण रुक्मिणीनइ रथि बइसारी चालिवा लागउ । तेतलइ रुक्मिणीइं कहिउं, 'माहरा भाईना जीवदान देज्यो'। पछइ बलिभद्र नारायण-रुक्मिणीनइ विसर्जी मंथाणानी परिई वयरी दल मथिवा लागउ। हलि करी, मुसलि करो हणतां, अनेक सुभट पड्या । तिसिइं शिशुपाल साम्हउ अठिउ । रणतूर वाजइ छइ । इसिइं बलिभद्रइ मुसल-सिउं शिशुपाल तिम किमइ ताडिउ, जिम नासी गयउ । इसिइ नारद कलि-कुतूहली आकाशि नाचिवा लागउ, हाथि ताली बात कहइ. “अरे शिशुपाल | कांड नासइ ?' तिसिई रुक्मीराजा पणि रणे-भूमिकानइ विषइ अति रीसाणउ हंतु बलिभद्र-साथइ झूझ करिवा लागउ। अनेक आयुध मूंकइ । तिसिई बलिभद्रि तीक्ष्ण क्षुरप्र-बाणि करी "रुक्मीनां हथीआर सर्व काप्यां। माथइ दाढीइ नावीनी परिई बाणि करी मुंडन कीधउं । पछइं बलिभट रुक्मीनइ कहिवा लागउ, 'मइं तूं वहूना भाई-भणी जीवतउ मूकिउ छई । भीखारीनी परि पेट भरि, फोकट म मरि ।' पछइ असमर्थपणइ नीचउं माथउं घाती रहिउ। तिहां बलिभद्रि स्तंभ रोपी.जैत्र-पदवी पामी, द्वारावतीइ पाछउ आविउ । नारायणनइ ते सर्व वृत्तांत कहिउ। पा नारायण रुक्मिणोनइ इसिउं कहइ, 'ए देवता-कृत आवास, ए देवतानी नीपाई रावती नगरी, ए क्रीडावन । इहां तू मननी इच्छाइ सुखिइ रहि ।' इसिइ प्रस्ताव लही रुक्मिणी नारायण-प्रति कहइ, 'स्वामिन ! जिम सेवक कोई झाली आणीइ, तिम हूँ आणी छउं । न आणीब, माहरउ निर्वाह किम होसिइं? कांई सउकिनां वचन-हासा"सहियां जोई सिइ'। तिसिई नारायण इसी करी रुक्मिणी-प्रति कहइ, 'सघलीइ सउकिनइ धुरि हूं तुझनइ करिसु' । ईणि वचनि किमणी संतोषाणी । नारायण केतला-एक दिन तेह जि वन-माहि रहिउ । पछइ नारायणि ते वन-माहि वसंतसमइ महालक्ष्मीनइ देहरइ आगिली प्रतिमा ऊठाडीनइ तेहनइ ठामि सालंकार साभ १. L. थु. २. P. पुकार, L. पुकार कीधी. ३. P धावउ धावउ ४ L शशिपाल(ए प्रमाणे अन्यत्र पण) ५. P. किसइ ६. L. थई. ७. L. जीवतदान. ८. P. क्बावतउ; L देतु. ९ A. ऋण. P. रुण; L. रणि. १०. L. रुक्मीया (अन्यत्र पण) ११. P. सांसह्या. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध रण करी रुक्मिणी' बइमारी, अनइ नारायण नगरि-माहि आविउ । तिसिइं सत्यभामाइं पूछि उं, 'स्वामिन् ! मायावी! कहि-न, ते कण कन्या तइ आणी छइ ?' तिसिइ माधव कहिवा लागउ, 'मइ वन-माहि लक्ष्मीनइ भुवनि ते मूको छइ ।' पछइ सत्यभामा सउ केइ परिवरी तिहां जोत्रा आवो, चउ-पखेर देहरउं जोइ पणि देखइ नही । पछइ लक्ष्मोनि वरांसह ते रुक्मिणीने पगे लागी कहिवा लागी, 'हे मात! नारायणि मुझ ऊपरि सउकि आणी छई, पणि तिम करि, जिम सउकिनउ दुख मुझनइन हुइ । माहरा मनना मनोरथ पूरि।' इम कहती पगे लागी। देहरा-माहि चउ-पखेर जोवा लागी, तुहइ न देखा। पछइ पाछी आवी नारायण-प्रति कहइ, 'हे धुतेशिरोमणि ! तइं प्रिया किहां मूकी छइ ?' नारायण कहइ, 'चालि देखाडउं'। तिसिई लक्ष्मीनइ ठामि बइठी रुक्मिणी देखाडी । तेतलइ सत्यभामा रीसाणी नारायण-प्रति कहइ, 'ए पाखंड तई जि सीखवी'। जोइन, हूं एवडी वडी इ तेहनइ पगे पाडी।' तिसिइ नारायण हसीनइ कहि वा लागउ, 'बहिनने पगे पडतां स्यउ दोष ? एह जि तुझनई संतुष्ट हूंती मनोवांछित फल पूरिसिइ ।' इणि चनि रीसाणी सत्यभामा नीचङ माथउं घाती रही । तिसिई नारद आवी कहइ, 'तहींई तई माहरी अवज्ञा कीधी, तु जोइन', सउकिनउं संकट तुझन हूउ।' पछइ नारायणि सघली सउकि देखतां पट्टराणी रुक्मणी थापी। एहवउ नारद संभेडानउ लगाडणहार, जीणई द्रूपदी परदीपि मोकली, अनइ नारायणि जिणि रीतिइ वाली इत्यादि केतला नारद ना संबंध कहींइ ? एहबउ जे नारद मोक्षि गयउ, ते केवलउं शील जि नउं महातम्य जि जाणिव । इति सील-ऊपरि नारद-ऋषिनी कथा ॥४॥ हिवइ जे तपस्वी शील-रहित तेहनउं कारण कहइ - दाया वि तवस्सी वि हु विसुद्ध-भावो वि सील-परिभट्ठो । न लहइ सिवसुहमसमं ता पालह दुक्कर सीलं ॥ १३ व्याख्या :-दातार सदाइ दान दिइ छइ, तपस्वी सदाइ तप करइ छइ, निर्मल भावनासहितइ, पणि शीलि करी रहित, शोलभ्रष्ट प्राणी असम-असामान्य शिवसुख न पामइ । तेह-भणी दुक्कर शील, अहो लोको ! तुम्हे पालउ ॥ १३ ॥ अनेराइ विसमां काज करतां घणाइ दीसइ, पणि सील पालतां विरला जि केई दीसइ - ए संबंध बिहुँ गाहे करी कहइ - दीसंति अणेगे उग्ग-खग्ग-विसमंगणे महासमरे । भग्गे वि सयल-सिन्ने मंभीसा-दाइणो धीरा ॥१४ दीसति सोह-पोरिस-निम्महणा दलिय-मयगल-गणा य । मयण-सर-पसर-समए सपोरिसा किंतु जइ किंपि ॥१५ (युग्मं) व्याख्या :-अनेक-घणाइ उग्र भयना (?) कारक एहवउ उग्र खड्ग, तिणि करी विषम संग्रामांगण=भूमिका जिहां छइ, इस्या महा रौद्र संग्राम-माहि समस्त कटक भाजतां हूंता, 'अहो सुभटो ! म नासउ, म बीहउ' एहवी मंभीस =धीरपणउं, तेहना देणहार, इस्या धीर-पुरुष घणाइ पृथ्वी-माहि देखीइ ॥१४॥ १. L. रुक्मणीनइ. २. L. पखे. ३. A. ठामि छइ बइठी छइ. P. रुक्मणी बइठो. L. 'बइठो' नथी. ४. P. जोईनइं. ५. P. L. भयनइ. ६. A. P. L. बंभीस. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित जे मदोन्मत्त हस्तीना गण-समूह जेणइ निर्दल्या छई, एहवा जे सिंह, तेहना पराक्रम, तेहनइ मथणहार, एहवा पुरुष घणाइ दीसइं, पणि मदनकंदर्प, तेहना जे शर-बाण, तेहनउ प्रसर=प्रस्ताव हुइ जि वारइ, मदन-कंदर्पना वाण विछूटइं, तीणो वेलाइ जे पौरषपणउं धरई, शो-सन्नाह पहिरी आजित अगजोता ऊभा रहई, एहवा पुरुष केई विरलाइ जि छइं, श्रीथूलिभद्र-सरीखा ॥१५॥ वली जे पुरुष संसार-माहि महा सुभट कहवराई, ते पणि रागना वाह्या स्त्रीनउं दासपणउं करई जे नामंति न सोस कस्स वि भुवणे वि ते महा-सुहडा । रागंधा गलिय-बला रुलंति महिलाण चरण-तले ॥१६ व्याख्या:- त्रैलोक्य-माहि जे किहिनइ आपणउं मस्तक नमावइ नही, ते ही महा सुभट रागि करी अंध, गलित-गलिउं जेहनउं बल' छइ, ते हा कंदर्पना वस-लगइ स्त्री.. तेहना पग-तलइ रुलइलाटोकगणा करइ, वली दीणपणउं बोलइ ॥१६॥ वली विशेष कहइ - सक्को वि नेय खडइ माहप्प-मडफरं जए जेसिं । - ते वि नरा नारीहिं कराविया नियय-दासत्तं ॥१७ व्याख्या:-जेह पुरुषनउ महातम्य मडप्फर स्फूर्ति-लगी जे गर्व, जग=संसार-माहि शक्र इंट हु खांडी न सकइ, तु बीजा मनुष्य देवनी केही वात?-एहवाइ सुभट नारी-स्त्रीए आपणउं दासपणउं कराव्या ॥१७॥ हिव ते-ऊपरि भुवनानंदाराणी-रिपुमर्दनराजानु दृष्टांत कहीइ - [५. स्त्रीना दासपणा-ऊपरि रिपुमर्दन-राजानु दृष्टांत ] ईणइ भरतक्षेत्रि सुखावासि नगरि रिपुमर्दन राजा राज्य करइ । तेहनउ प्रधान बुद्धिसागर । तेहनी प्रिया रतिसुंदरी जाणिवी। हिव तेहना घर-हंतउ पूर्व-दिसिइ देवताना विमान-सरीख श्रीआदिनाथनउ प्रासाद । तेहनइ द्वारि सहकार वृक्ष छ। तिहां सूडा-सूडीनउ युग्म एक वसइ । अन्यदा सूडीइ पुत्र जायउ । तिणि जन्मि सूडउ-सूडो महांत आनंद पामतां आपणउ जन्म राजाना जन्म-पाहई अधिक मानवा लागा। अनेरह दिवसि सूडउ अनेरी सूडी-संघाति आसक्त हउ जाणी, ते पुत्रनी माता सूडी सूडानइ मालइ आविवा न दिइ, इसिउं कहा, 'जिहां ताहरि विचारि आवइ, तिहां तू जाइ। पछइ सूउ कहइ, 'माहरउ पुत्र आपि, जिम हूं जाउं।" तिवारइ सुडी कहइ, 'एक आगइ अन्याय करइ, वली बेटउ पणि मागइ ?'| इम झगडउ करतां घणा दिन गया। पछ। कीर-युग्मि राजानी सभाइ जई कहिउं जु, 'स्वामिन् ! अम्हारउ विवाद' भांज" इसिउ कही आपणउ आपणउ वृत्तांत कहिउ । तिवारई जे प्रधान छइ, तीणे कहिउं जउ, 'स्वामी! बेटी मानी, बेटउ बापनउ ।' एहवउ न्याय करी सूडानइ पुत्र अपाविउ । सूडी निरास रोती हती कहिवा लागी, 'राजन ! तइ तउ ए. विवाद इम भांजिउ, पणि रूडउं न कीधउं । हिव ए न्याय तुम्हे वहीइ लिखावउ, जउ, आज पछी बेटउ बापनउ, अनइ बेटी मानी' । पछइ राजाइ वहीइ ए न्याय लिखाविउ । १. P. बल पराक्रम. २. L. महिला स्त्रीना. ३. P. लोटीगणा. ४. P. दासपणे किंकरपणउं कराव्यउं. ५. A. L. पाइ. ६. P. झगडउ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध तिवार पछी सुडी आंबइ जई बइठी । तेतलइ आंबा-तलइ श्रुतज्ञानी दीठउ । तिणि सूडीइ ते ऋषि वांदी वैराग्य-लगी आपण आऊखउं पूछि । तिसिई ते श्रुतज्ञानी कहइ, 'तू मनुष्य-आयु बांधी, आज हूंतइ त्रीजइ दिनि तूं मरीनइ महुतउ बुद्धिसागर, तेहनी भार्या रतिसुन्दरी, तेहनी कुखइ अवतार लही पुत्रीपणउं पामेसि । पछइ क्रमिई तूं राजानइ घरि वल्लभा थाएसि'। इम वचन सांभली, महातमानउ कहिउ वृतांत देहरानी भीतिइं सर्व लिखिउं । पछइ आराधनापूर्वक महातमा-समीपि अणसण लेई, विधिइ पाली, तिहांथी चवो रतिसुंदरीनी अवतार लीधउ । तिहां भुवनानंदा ए नाम दीघउं । पिताइ पुत्रीनइ जन्मि महा महोत्सव कीधउं । पुत्री वाधिवा लागी । मउडइ मउडइ सर्व कला अभ्यसी । पूर्विला पुण्यनइ प्रमाणि पितानइ घरि रहिती । अनेरइ दिवसि बालिका-माहि रमती श्रीआदिनाथनइ देहरइ गई । तिहां परमेसरनइ प्रणाम करी देहरउं जोवा लागी । तिसिई भीतिइं जे सूडीनइ भवि अक्षर लिख्या छइं, ते अक्षर देखी, कन्याई जाती-स्मरण ज्ञान पामी, पूर्विलउ भवंतर अनइ राजानउ न्याय, पुत्रनउ वियोग सर्व दीठउं । पछइ चींतिवा लागी, 'एह जि आदिनाथनइ प्रसादि मई मानुषउ जन्म लाघउ, तु एह जि वीतरागनी पूजा करउं ।' पछइ परमेश्वरनी पूजा करिवा लागी । तिसिइं बुद्धिसागरि मुहुतइ महा जात्य तुरंगम एक वेचातउ लीधउ । ते अश्वनी अनेक रक्षा' करइ । एकदा राजाइ वात सांभली जु, महंतानइं घरि जातीलउ घोडउ छह । पछइ राजाई घणी बछेरी जातिशुद्ध मोकली। ते तुरंगम-इतु घणा अश्वकिसोरा हूया' बहुमूल्य । पछइ एक दिवसि राजाई ते सर्व वछेरा माग्या । जण लेवा घरि आव्या । तेतलइ ते महुतानी पुत्री राउला जणानई कहइ, 'हु तुम्हनइ ए अश्व लेवा नही दिउं, कांइ?, जेहनउं बीज, तेहनी वस्तु । ए घोडउ तु माहरा पितानउ । ते-हूंता ए अश्व ऊपना ।' इणि वचने तलारि जई राजा वीनविउ, 'स्वामिन् ! मुहुतानी पुत्री लेवा न दिइ । इम कहइ, "जेहनउं बीज, तेह जि धणी ।” हिवइ स्वामी! जिम तुम्हनइ रुचइ, तिम करउ' । पछइ ए वात भुवनानंदाइ आपणु पिता, जे बुद्धिसागर, तेहनइ पूर्विला भवनउं स्वरूप सघलउं कहिउं । इम करतां वली राजाइ प्रधान मोकली घोडा मगाव्या । तिवारइ भुवनानंदाइ कहिलं, 'जाउ, जोउ राजानी वहीइ स्यु लिखिउं छई ? बेटा बापना इम जु लिखिउ हुइ तु घोडा म लेज्यो, नहों तु आपणा घोडा लिउ ।' पछह प्रधाने जई राजा-आगलि बात कही । राजा वही जोआवी । तिमई जि अक्षर नीकल्या । पछई राजा विस्मयापन्न-चित्त हंतउ कहिवा लागउ, 'ए कांई एक बालपंडिता छइ । हिवइ घोडा म मागिसिउ ।' इम लगार-एक मन-माहि रीस धरी, केतला-एक दिन अन्तरालि घाती, पछइ राजाइ महता-समीपि पुत्री मागी। पाणिग्रहण करीनइ भुवनानंदानइ कहिउं, 'जु तू पंडिता छइ, तु माहरइ घरि तां मा बसि, जां ताहरइ सर्व लक्षण पुत्र हूउ न हुइ ।' तिसिइ भुवनानंदा हसीनइ कहिवा लागी, 'हे प्राणनाथ! पुत्रना जन्म हुया पछी हूं ताहरइ धरि आविसु, इम्हिइ नही आवउं । पणि एक वात सांभलि, हं तु स्त्री. ज एकवार तझ पाहई आपणा धोआवउं', वली आपणा पगनी वाणही तुझ पाहिइ वहावउं' । इसी प्रतिज्ञा करी बापनइ घरि आवी । .. १ P. यत्न २ A. कीजइ. ३. P. नीपना. ४ P. नफरानइं. ५. P. तलांसांउ. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित एकांत पिता तेडी सर्व वात कही । तिवारs पिता कहिवा लागउ, ' हे वत्सि ! ए प्रतिज्ञा दोहिली कांई कीधो ?' पुत्री कहिवा लागी, 'आम तात! बुद्धिवंतनई प्रतिज्ञा सी दोहिली छइ १", तिवारइ पिता कहइ, 'वस्सि ! देवताना बल - पाखइ कांई न चालइ' । तिवारइ भुवनानंदा कहर, 'तात ! कर्मना वश -लगी बुद्धिना संभव हुइ । पणि सांभलि, तात ! राजाना घर-टूकडउ एक श्री आदिनाथनउ प्रासाद मोकलउ' करावि । तिहां त्रिकाल नाटक मंडावि, तिहां पात्रनां घर करावि, तेह-माहि माहरउ पणि घर करावि ।' पछइ ए सर्व मुहतइ कराविउँ । १६ हिवइ तिहां अर्धरात्रिनइ समइ भुवनानंदा नाटक करइ । आपणउं नाम लीलावती कहावइ । इम करतां एकदा राजा धवलगृह माहि सूतउ हूंतउ ते लीलावतीनां गीत सांभलिवा लागउ । पछइ सामान्य राजपुत्रनउ वेस करी रात्रिनइ समइ जिहां लीलावती नाचइ छइ, गीत गाइ छइ, तिहां पश्चिम द्वारि आवी राजा जोवा लागउ । तेतलइ लीलावतीइं नेत्र-कटाक्षबाणे तिम किमइ राजा वींधिउ, जिम प्रति दिवस तिहां राजा रात्रि आवइ, तिहां रहइ । पछइ राजा जे जे चेष्टा करइ, जे जे वात जे जे बोल कहइ, ते ते सर्व पिता - आगलि लीलावती कहइ, अनइ पिता पणि सर्व वहियावटि लिखइ । इम करतां घणा दिन गया । C इम एकदा अर्धरात्रि लीलावती सखीए परिवरी सुखासनि बइसी श्री आदिनाथनइ भुवनि आवइ । राजा पणि आव्यउ । "तिसइ लीलावतीइं राजा आविउ जाणी नाटक विसर्जी लीलावती आपणा पगनी वाणही जाणी करी वीसारी, आपणपइ सुखासन बइसी पाछी वली । तिसिहं राजाई चींतविडं जउ, 'ईणो बापडीइ वरांसइ रत्न खचित " वाणही वीसारी, तु रखे कोई चोर लेई जाइ ।' इम चींतवी राजा आपणपइ वाणही लेई, माथइ चडावी, केडइ जाना लागउ । तिसिइ लीलावती घरि आवी सखीनइ कहइ, आज महं वाणही देहरा - माहि बीसारी ।' तिसिई राजा कहइ, 'मई आणो छइ, तुम्हे लिउ ।' पछइ लीलावतीइ वाणही लेई करी राजानइ कहिउं, 'आज माहरइ पग "दाजई छई । तूं सखीनइ जगाडि जिम पग तलांसई' ।' तिसिहं राजा कहइ, 'कांइ सखी जगाडीइ १ हूं ताहरा पग तलांसउं ।" इम वडी वा "पग तलांसतां लीलावतीनइ निद्रा आवी । तिसिइ सउणामाहि संपूर्ण चंद्रमा मुख-माहि पइसतु दीठउ । पछइ लोलावती जागी राजानई घणउ श्रम देखी इसिउं कहिवा लागी, 'हे प्राणनाथ ! हिवडां मइ सउणा-माहि चंद्रमा मुखि प्रवेस करतउ दीठउ ।' राजा कहर, 'हे प्रिये ! सर्वोत्तम पुत्र ताहरइ होसिइ ।' इसिइ प्रभातनां वाजित्र वाजिवा लागा । राजा ऊठी आपण घरि आबिउ । लीलावती पणि आपणां धर्मकृत्य करो, बाप- समीप आवी, रात्रिनी सर्व वात कही । पछइ घर-माहि सुखिई गर्भ पालइ छइ । बारणां देई मूक्यां । वली बीजइ दिनि राजा तिहां आविउ । पाडोसणि पूछी, 'लीलावती किहां गई ?" ते कहइ, 'हूं न जाणउं' । पछ राजा अति स्नेह - लगइ रात्रि तां मोटइ कष्टि गमाडी । पछह प्रभाति मुहुता - समीपि पूछइ, 'हे मंत्रीश्वर ! तुम्हारs देहरs लीलावती एहवइ नामि विलासिनी जे मूलगी हूंती ते १. P. L. मोटउ. २. A. पात्र नृत्य. ३. AL पणि सदाइ आवह ४. A इम अन्यदा प्रस्ताषि; L. अन्यदा प्रस्तावि. ५. P. पावडी. ६. P झलझलाई ७ A. जगावि., ८. A. पगतला उल्हांसह ९ A. पगतला उल्हांसिसु. १०. A. पगतला उलासतां. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध किहाँ गई ?' तिवारइं प्रधान कहिवा लागउ, 'स्वामी ! तेहना पाडूआ आचार देखी मइ काढी । ते न जाणोइ, 'कहिनइ घरि जई रही घटइ।' पछइ राजा अणबोलिउ रहिउ । इसिइ प्रस्तावि पूरे मासे भुवनानंदाइ सर्वाग-लक्षण पुत्र जन्मिउ, अनइ गुप्तपणइ मुहुतइ राखिउ । अनुक्रमिइं सर्व विद्या सर्व कला अभ्यसावी। पछई मुहुतउ पुत्री-पुत्रनइ लेई राजभवनि आविउ । तिसिइ राजाइ पूछिउं, 'मंत्रीश्वर! ए कउण स्त्री, कउण बालक ?' तिसिइ अवसर लही प्रधान कहइ 'स्वामी! ए ते भुवनानंदा, माहरी पुत्री, ताहरी वल्लभा । ए ताहरउ पुत्र, माहर उ दोहित्रउ बालक ।' इम कहिह हूंतह, जेतलइ राजा कांई वलतू बोलइ, तेतलइ महुतह ते वही काढी राजानइ हाथि आपी। ते वही राजा जोवा लागउ। जे जे बोल बोल्या, जे जे वात कीघी, ते ते चीतवी चीतवी लाज अनइ हर्ष धरतउ, पुत्र उत्संगि बइसारी, राजा कहिवा लागउ, 'वत्स! ए राजऋद्धि सर्व ताहरी छ । ताहरी माताई प्रतिज्ञा ओपणी सर्व निर्वाही । एवडी बुद्धि, एवडा पराक्रम अनेथि दीसइ नही ।' तिसिई प्रधान कहइ, 'स्वामी! चिंता म करउ | ए प्रताप सर्व तुम्हारउ । जे धूलि सूर्यना बिंबनइ आछादई, ते प्रताप धूलिनउ नही, ते वायुनउ प्रताप ।' पछइ राजाइते भुवनानंदा पट्टराणी कीधी, घणउ काल राज पाली, परम वैराग्य धरतउ पुत्रनइ राज देई, आपणपइ चारित्र लेई, परमार्थ साधिउ ।... __ जउ एहवउ इ प्रचंड रिपुमर्दन राजा स्रीनउं दासपणउं करइ, तु बीजा' रोजानु स्यू ॥ इति स्त्रीना दासपणा-ऊपरि रिपुमर्दन-रायनी कथा ॥५॥ मरणे वि दीणवयणं माणधरा जे नरा न जंपंति । ते वि हु कुणति लल्लि बालाण वि नेहगहगहिला ॥१८ व्याख्या:-जेहनइ मान जि धन छइ, एहवा उत्तिम नर=मनुष्य मरणांति प्राणनइ त्यागिइ दीन वचन न भाषई, मरण आगमइ पणि दयामणां वचन न बोलई, एहवाइ जे छई मानवंत पुरुष. अहंकारनु त्याग करी स्नेहरूप ग्रह-व्यंतर तेहनइ ग्रहि करी प्रथिल-विकल परवशि हूंता, बाला स्त्री आगलि लालिपालि करई । रांकनी परिई दयामणां वाक्य बोलई । तु सामान्य मनुष्य कउण मात्र ? जे देवेंद्र ते ही स्त्री-आगलि लालिपालि करई, ते कहीइ छइ - [६. इंद्रनु दृष्टात] कण ही एकि नगरि पोसालइ घणा महातमा रहई । तिहां एक लघु माहातमा पोसाल पुजी काजउ जइणा-पूर्वक सोधिवा लागउ । तिहां जीव सोधतां भाबना भावतां अवधि-ज्ञान ऊपनाउ । तेहनइ प्रमाणि पृथ्वीना स्वरूप देव-लोक देखिवा लागउ । तिणि प्रस्तावि इंट इंद्राणी आगलि लालिपालि करइ छ। तिण समइ इंद्राणीइ इंद्र पग-सिउं ठेली परहउ करिउ देखी महातमा मन-माहि चीतविवा लागउ ' धिम् धिम् ए जीव, जे कंदर्पनु वाहिउ । एवडउ इंद्र किम स्त्रीनइ पगि लागइ छ !' पछइ इंद्रनउं स्वरूप एहवउं देखी चेलानइ हासउँ आवि अवधि-ज्ञान एतलइ जि रहिउं । ए संक्षेपि दृष्टांत कहिउं । इम' शीलव्रत पालतां दोहिलउ॥६॥ वली विजयपालराजा-लक्ष्मीदेवीना दृष्टांत कहीइ - १. L. 'कहिनइ.......घटई' ने स्थाने 'किहाँ छई' P. नथी २. P. ते प्रताप वायरानउ, धूलिनउ नही ३. P. अनेरा. ४. L. पउजी ५. A. हिवइ ६. P. मां 'इति शीलोपदेशमाला वा० हरिकथा' एटलु वधारे Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित [७. स्नेहप्रह-ऊपरि विजयपालरायन दृष्टांत] पुरिमताल नाम नगर । तिहां श्री विजयपाल राज करइ । तेहनइ रंभा नाम पट्टराणी । हिवह अन्यदा प्रस्तावि राजा गजारूढ हंतउ रइवाडीइ नीकलिउ। तिहां लक्ष्मी, ष्ठिनी पुत्री. तेहनउ रूप देखी श्रेष्ठि-कन्हइ मागी राजाइ पाणिग्रहण कीघउं । पछइ अति विषय-आसक्त इंतउ राजा अंतःपुर-माहि थकउ रहइ । विवेक करी विकल राजा राज्यनी कणवार' न करइ। तिसिइ प्रधानि आवी राजा वीनविउ, "स्वामी ! अति विषय-सेवा सोभइ नही । भलउ इ मनुष्य अति विषय लगइ लघुता पामइ । तेह-भणी तुम्हे राजनी चिंता करउ ।' तिसिई राजा वलतुं कहिवा लागउ जे, 'ए मृगाक्षी लक्ष्मी जीवइ तां जि लगइ मुझनइ जीवतव्य छइ ।' एहवउ राजानु अभिप्राय जाणी जेतलइ मुहुता कांई विमासइ तेतलइ राजानी वल्लभा परोक्ष हुई। प्रभात-समइ राजा ए वात सांभली अचेत हुउ । तेतलइ बावना चंदन शीतल जलने उपचारे करी राजा सचेत कीघउ । पछइ रोतउ हूंतउ असंबद्ध वचन बोलिवा लागउ । तेतलइ प्रधान कहिवा लागा 'स्वामिन ! ए देवी परोक्ष हुई । हिवइ अग्निदाघ दीजइ ।' राजा वलतुं कहइ, 'तुझे आपणा माबापनइ अग्निदाघ दिउ ।' इम करतां मध्याह्न समय हूउ तु ही राणी न बोलइ । पछइ राजाई भोजन छांडिउ । इम दस दिन राजानइ गया । तिसिइ प्रधाने काइ एक आलोची पुरुष एक सीखवी राजा-कन्हलि' मोकलिउ जउ, 'महाराज! तुम्हारी प्रियाइ हूं स्वर्ग हूंतउ मोकलिउ । इसिउ कहाविउं छइ जउ हूं मनुष्यलोकइ नही आविउ । इहां अशुचि दुर्गधि तेह-भणी मइ न अवाइ । स्वर्गि तउ संपूर्ण सुख छइ । जु माहरी आर्ति छइ तु तूं वेगउ आविज्ये ।' तिसिइ राजाइ प्रधान पूछया, 'मई स्वर्गि किम जाईइ१। प्रधाने कहिउं, 'स्वामी ! पहिलु तां भोजन करउ, पछइ स्नान विलेपन । पुएयकाज साधउ। जिम ए जण आविउ छइ तिम वली पाछउ वलावीई ।' इम कही राजानई भोजन करावि जिणि कारणि रागांध जीव करणीय-अकरणीय काई न जाणइ । पछइ ते जण प्रधाने प्रच्छन्न राखिउ। दिन बि गया । तेतलइ वली प्रधाने कपूरवासित सोपारी नइ पान ते जण-हाथि मोकल्यां । कहिउं, 'देवीइ मोकल्यां छई।' राजा रलीयात थिकउ* लेई आरोगिवा लागउ । वली दिन बि पडखी अपूर्व फल लेई आविउ । राजा तेहनई पंचांग पसाउ करी संतोषइ । तेतलइ प्रधाने चीतविउं, रखे कोई धूर्त शिरोमणि ए भेद भांजइ तेह-भणी वली कांई आय रचीइ। पछइ भूर्जात्र एक सकोरल कस्तूरिकाई खरडी अक्षर कोरी राजाना कागल लिखी प्रधाने जग हाथि दोघउ । तिणि राजानइ आणी दीधउ । राजा वांचिवा लागउ । तिहां इम लिखिउ छ, 'स्वास्त श्री पुरिमताल-नगर श्री विजयपाल राजान ना नमरी स्वर्ग-हंति लक्ष्मीराणी वीनती करइ छइ, स्वामिन् ! इहां इंद्र आविवा न टिड. तेह.भणी ए जण-हाथि हिवडां आभरण वस्त्र मोकलिज्यो । वली मासि पाखि वस्त्र मोकलिज्यो।' तिसिह प्रधाने कहिउं, 'स्वामी ! देवीनइ कांई मोकलिउं जोईइ । राजाइ प्रधान पूछया. 'ए जण किस जाड छड पछइ प्रधान कहिउं, 'वेदि-माहि आगि प्रज्वालीइ तेह-माहि ए वृद्ध जण पइसइ।' इस जेतलइ प्रधाने कूडउ ऊतर तीधउ तेतलइ पद्म नामा श्रेष्ठि तिणि भेद भांजिवा-भणी राजा आगलि कहिवा लागउ , 'स्वामिन् ! ए वृद्ध एतलउ भार लेई नही सकइ । तेह भणी कोई १. A. करणवार. २. P.L कन्हइ. ३. P. जवाइ. ४. P. पाहइं, L. पाहंति ५. P. थकउ, L. थिउ. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध तरुणउ पुरुष मोकलीइ ।' तिसिइ प्रधाने विमासीनइ कहिउं, एह जि श्रेष्ठि तरुणउ दीसइ छइ । एह जि मोकलीइ ।' राजाइ कहिउं 'इम जि करउ ।' पछइ ते पद्म श्रेष्ठि बलात्कारि झाली बालास्वामिननी परि लीजिवा लागउ । तिसिइ मार्गि लोक पूछा, 'ईणइ सिविणासिउ प्रधाने कहिउं, 'मुखना दोष-लगइ लीजइ छ, पछइ ते पद्मना मित्र कुटुंबी तीणे प्रधाननइ घण उं कहिउं जउ, ‘ए अपराध खमउ ।' पछह प्रधाने ते मूकिउ । ___ अन्यदा राजा प्रधान प्रति कहइ, 'ए लक्ष्मीराणीनइ घणा दिन थआ । हिवइ स्वर्ग हूंती इहां तेडावउ । हूं ते राणी पाखइ रही न सकउं।' पछइ प्रधाने कांई विमासी करी नवयौवना कोई एक विलासिनी, तेह जि राजानां दीधां आभरण पहिरावी, लक्ष्मी एहवउं नाम देई उद्यान-वन-माहि मूकी। प्रधाने राजा वीनविउ, 'स्वामिन् ! स्वर्गि जण एक मोकलिउ छइ ।' वली बीजइ दिनि प्रधाने राजा वीनविउ, 'स्वामी ! वधाविउ । देवी लक्ष्मी वन-माहि आवी छइ ।' राजा तत्काल मेह देखी जिम मोर नाचइ तिम ते वात सांभली नाचिवा लागउ । सर्व सयरनां आभरण पसाइ दीधां। __ पछइ मोटइ विस्तारि राजा वन माहि राणी सामुहउ गयउ । राणी गौर-वर्ण देखी प्रधान प्रति राजा कहइ, 'ए तउ पहिलडं कांई श्यामवर्ण हूंती, हिवडां गौर दीसइ छइ ।' तिसिइं प्रधाने कहिलं. स्वामी! एहवी सी भ्रांति आणउ छउ ! इंद्रि संतुष्ट होइ वर्तमान सालंकार-साभरण सर्वांगसंदरी करी मोकली छइ ।' पछइ राजाइ ए वात साची मानी , गजेन्द्रि बइसारी नगर-माहि आणी । हिवइ राजा ते राणी-समीपि स्वर्गनी वात पूछइ । प्रधाने ते सीखवी मूकी छह । ते विलासिनी तिम किमइ राजानउ चित्त रंजवइ जिम ते राजा सर्व साचउ करी मोना । इम करतां राजानइ घणां वरस वउल्यां । घरि पुत्रना जन्म हुया । पछइ राजा आऊवाना क्षयि मरण पामी नरकादि दुख पाया । तु तोउ जे एहवाइ मान अहंकारना धणो ए कंदर्पना कहा-लगद एवडी लालिपालिनां विलसित कीधां ॥ इति स्नेहग्रह ऊपरि विजयपालरायनउ दष्टांत ॥७॥ जे पंडित हुइ तेहइ स्त्रीनां वचन सांभली चूकइ ते कहइ - जे सयलसत्थ-जलनिहि-मंदरसेला सुएण गारविया । बाला लल्लर-वयणेहिं ते वि य जायंति हयहियया ॥१९ व्याख्या :-जे समस्त शास्त्ररूप समुद्र ते अवगाह भणी मेरु-पर्वत समान हुइ अनइ सिद्धान्तना रहस्य मर्म जाणवइ करी गवें-संयुक्त हुइ, एहवाइ पुरुष बाला % स्त्री तेहने लल्लर-वचने हावभाव विलास सहित वाक्ये हतहृदय हूंता रागसमुद्रमाहि बूडई, तु अनेरा जीवनउ स्यू कहिवउं ? हिवइ जे लोकीक देवता तेहनी विडम्बना कहइ - हरि-हर-चउराणण-चंद-सूर-खंदाइणो विजे देवा । नारीण किंकरतं करंति धिद्धी विसय-तन्हा ॥२० व्याख्या:-हरि= नारायण, हर = ईश्वर, चतुरानन = ब्रह्मा, चंद्र, सूर्य, स्कंद कार्तिकेय प्रमुख जे देव तेही नारी - स्त्रीए आपणउं दासपणउं कर.व्या, तु धिग धिग ए विषय-तृष्णानइ कारणि । १. P. बालीनी L. बालीनी. २. P. किसउं. ३.P. हुआ. L. हूया. ४. P. विलासिनी सीषवी. ५. P. जोवउ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० मेरुसुन्दरगणि-विरचित ते इही धुरि हरिनी कथा कहीइ - [ ८. हरिनी कथा ] द्वारवती नगरी नारायण आपणउं राज्य पालइ । अन्यदा छ मासनइ पारणइ दुर्वांसारुषि वन-माहि आविउ । तिहां पारणानइ अर्थि नारायण तेडिवा गयउ । तिसिई दुर्वासा कहिवा लागउ, ' रथ आणि । तिहां जु एकणि पासइ रुक्मिणी, एकइ पासइ तूं जाइ तु रराथे बइसी ताहर घरि आवउं ।' पछइ नारायणि पडिवजिउं । रुषि रथइ बइठउ । पछइ बेहू रथि जूता । मार्गि चालतां रुक्मिणी सकोमल-भणी चाली न सकइ । तृषा ऊपनी । तिसिहं नारायण - सामु जोइ तृषा आपणी जणावी । तिसिहं नारायणि अंगूठइ करी भूमिका चांपी पाणी काढिउं । रुक्मिणीइ पाणी पीधउँ । तेतलइ रूषि रीसाणउ । नारायणनो आंखि माहि पराणउ खोयउ' । तिवार पछी पुंडरीकाक्ष एहवउं नाम हूडं । एतलइ हरिनो कथा कही ||८|| हिवर हरनी कथा कहीइ [ ९. हरनी कथा ] यदा कालि दक्ष नामा प्रजापति सउ कन्यानउ प्रदान करवा लागउ, तिवारई सत्तावीस कन्या नि दीधी । इम सघलीइ कन्या देतां देतां एक कन्या रही । कोई वरन देखइ । ईश्वर भस्मांगी, गलइ रुंडमाला, हाथि खप्पर वाहन वृषभ एहवउ देखी कन्या गोरी ईश्वरनइ देई निश्चित हूउ । तिवार पछइ दक्ष प्रजापतिइ जाग मांडिउ । तिहां सर्व जमाई तेडया । आपणी आपणी रुद्धि सर्व आग्या । पणिरुषि ईश्वर न तेडिउ, जाणिउं - एहवइ कुरूपि जमाई आविद अमारी माम जासिह । पछइ अनेक व्रीहि जव तिल समिधादि सर्व यागना उपकरण मेल्या । मनुष्यनां सहस्त्र मिल्या छं । ब्राह्मण व्यास त्रिवाडी दवे ओझा पंड्या आचार्य मिश्र रुषि जोसी तिहां सर्व मिल्या छर्इं । तिसिहं नारद-ऋषि पणि न तेडिउ, जाणिउँ कलह करिसिंह । पछइ ए बात नारदिई जाणी । नारद ईश्वर - समीप गयउ, 'जोउनइ दक्ष नामा प्रजापति सहू तेडिउ, पणि तूं एक ज न तेडिउ । तु आज ताहरी माम जासिइ ।' ईश्वरि कहिउं, 'ऋषि ! स्युं कीजइ ?' कहिउं, 'जई आपणु पराक्रम देखाडि ' पछइ ईंश्वर गौरी - सहित तिहां आविउ, तुहीं दक्ष प्रजापतिइ बोलाविउ नही । पछ६ गौरीइ अपमान पामी अग्निकुण्ड-माहि झां शस्त्र मूकिउं, तिणि प्रलयकाल - सरीखउ अनिदाघ ऊनउ । यागना लोक सर्व दिसोदिसि नाठा | sus प्रस्तावि गौरीनउ विरह अणसहतई अमृति करी ते अग्निकुण्ड सींचिउं, गौरी जीवाडी, स्नेह लगइ आपण अर्ध अंग दीघउ । तिवार पछी अर्द्धनारीनटेश्वर ए नाम हूउ ए बीजी कथा || ९ || दीधी । तिसिई ईश्वर रोसाणउ, आग्नेय * [ १० ब्रह्मानी कथा ] हिवइ ब्रह्मा प्रजापति संसारनउ असारपणउं देखी वन- माहि जई अढार कोड वरस दुक्कर तप करवा मांडिउं । तिसिहं इंद्रिइ सभा-माहि अवधि ज्ञाननई बलि ब्रह्मा तप तपतउ देखी मनि-माहि बीहनउ, 'जउ ए रुषि रीसाइ तु मुझनइ पणि पाडइ ।' हिवइ इंद्रनइ भय लगइ समाधि नही । पछइ रंभा -तिलोत्तमादिक इंद्राणी हाथ जोडी वीनती करवा लागो, 'स्वामिन ! तुहाइ असाध्य तु कांई नथी, एवडी चिंता ते कांई ? प्रसाद करी कहउ । अथवा आलोचनइ योग्य न हुइ स्त्री, तथापि सुखदु:ख प्रकासिई खोडि नही ।' तिवारइ इंद्र कहर, 'ईणइ ब्रह्मा चउद युग १. P. पुरानी चभोई Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध २१ ताई तीन तप करिवा मांडिउ, तिणि माहरु मन कांपइ-जु रखे इंद्रपद लिइ ।' तिसिई इंद्राणी कहि, 'स्वामिन ! ए ऋषिनइ तप हूंता पाडतों केतली वार लागिसिइ ?' पछइ इंद्रि इंद्राणी सर्व तिहां मोकली। तिसिइ देवांगनाए गीत-गान-नाद-गर्भित नाटक तिम किमइ मांडिउ, जिम ब्रह्मा सकल इंद्रियनी चेष्टारहित हिरणनी परिई एक नाद जि नइ विषइ लीन हुउ। पछइ ब्रह्मा ते नाटक देखी ठउ देवांगना प्रति कहइ, 'वर मागउ ।' तिसिई देवांगनाए कहिउ, 'स्वामिन ! जु तूठउ तु हिवद ए छाग' ए कादंबरी मदिरा अनइ अम्हनइ आदरु ।' तिसिई ब्रह्माई कहिउं, 'तुम्हारा संसर्ग-लगइ तर जाइ, छागनउ वध तपस्वीनइ करता जुगतउ नही । पणि ए मदिरा पाणी-सरीखी, ते-भगी तुम्हारइ ववनि ए मदिरा आदरिसु।' पछइ यथेष्ट मदिरापान कीधउं । तेतलइ ब्रह्मानइ उन्माद ऊपनउ, क्षुधा ऊपनीइ छाग हणी मांस-भक्षण करी देवांगना साथी क्रीडा कीधी । पछइ देवांगनाए चींतविडं, 'एहनउ तप तु गमाडिउ । हिवइ जे घणा वरसनउ तपनउ पोतउं ते नीठाडिवउं ।' इम चीतवी ऋषि-हूंतउ दक्षिण-दिशिइ नाटक मांडिङ । लाज लगी जोई न सकइ । तिसिह कहिउं 'वर्ष कोटि तपना प्रभावइ दक्षिण-दिशिइ मुख थाउ।' ते तपनइ प्रमाणइ मुख थयउं। इम कोडि वर्ष कोडि वर्ष विहचतां च्यारि मुख ब्रह्मानइ हृया। पछइ देवांगनाई आकाशि नाटक मांडिउ । अर्ध कोडि वर्षनइ प्रमाणी रासभना मुख सरोखउ मुख नीकलिउ । पछइ तेत्रीस कोडि देवतानी प्रार्थनाइ ईश्वरी नखि करी पांचमउ मुख छेदिउं । देवांगना हसी स्वर्गि गई । तु जोउ, जे ब्रह्मा ते ही चतुर्मुख हूउ, स्त्रीनउ दासपणउं पामिउं ।। इति ब्रह्मानी कथा ॥ १० ॥ [११. चंद्रमानी कथा ] चंद्रमा पणि यदा कालि सर्व देवताए मिली ज्योतिश्चक्र-माहि वडाई दीधी । सर्व नमस्करिवा आल्या । तिसइ बृहस्पतिनो भार्या अति रूपवती देखी चंद्रमाइ भोगवी । तिहां बुध पुत्र जन्मिउ । ए चउथी कथा ॥ ११ ॥ [१२. सूर्यनी कथा] हिव सूर्य सहस्र किरण धरतउ पृथ्वी-माहि फिरइ । तिसिइं रन्नादे देखी व्यामोहिउ प्रार्थना करइ । तिसिई रन्नादे कहइ, 'स्वामिन ! मइ ताहरउ तेज सहवाइ नही । तेज ओछउं करउ" पछइ विधात्रा-समीपि जई सूर्य कहइ 'रूप ओछउं करि ।' विधात्राई कहिउं, 'जां तू मुखि नहीं बोलइ, तां-ताई ताछी रूप ओछउं करिसु ।' पछइ संघाडउ आणी, यंत्रई सूर्य चडावी, ताछिया मांडिउ । पग-ताई ताछतां सूर्य दूखाणउ'। मुखि बोलिउ । ब्रह्मा रीसाणइ यंत्रइतु सूर्य ऊतारी मूकिउ | आघउ न ताछइ । पछइ सूर्यइ पगि मोजडा घाती रन्नादे आदरी । तु जोउ, स्त्रीना स्नेह-लगइ एवडउ इ सूर्य एवडो पीड सहइ ॥ ए पांचमी कथा ॥१२॥ ३. इंद्रनी कथा] इंट्रिइ जिवारइ गौतम रूषिनइ रूपि अहिल्या सेवी, तिवारइ रुषि द्वारि आविउ । तिहां इंद्र मारिनइ रूपि नीकलतउ देखी शराप दीघउ, 'सहस्र-भगो भव' । पछइ देवताए मोटि कष्टि मनावी सहस्रनेत्र एहवउं नाम कराविउ ऋषि पाहइ । इम स्त्रीना वश-लगइ एवडउ इंद्र १. A. P. दूषीणउ . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ मेरुसुन्दरगणि-विरचित कष्ट पामइ इत्यादि घणा लोकीक देवता इम स्त्रीना वशीया हया किंकरपणउं पाम्या । तु ए विषयतृष्णानइ धिगूधिक्कार हु ॥ ए छठी इंद्रनी कथा ॥१३॥ वली विशेष कहइ - पूइज्जति सिवत्थं केहिं वि जइ कामगद्दहा देवा । गत्ता-सूयर-पमुहा किं न हु पूयंति ते मूढा ॥२१ व्याख्या :- जु किमइ एहवा मिथ्वात्व-मादेराइ गतचैतन्य हूंता कामि करी गर्दभ-समान । हरि हर ब्रह्मादिक देव मोक्षनइ हेति जे पूजइ, ते जीव मूढ अज्ञान गर्ता सूकर = भुंड, सूकर-प्रमुख कहता छाग स्वानादिकन कांइ न पूजई ? तेहे सूं विणासिउं छइ १ । कामनी व्याप्तिइ करी ए पुणि सरीखाइ छइ । संसार-गर्ता माहि पडया छइ । तेहनई गर्ता-सूकरनी पूजा कीधी जोईइ, ते पणि मोक्ष देसिइ । इति उपहास वाक्य ।। हिव कामातुर देवतानइ पूजा-निषेध उपहासपूर्वक कहइ - विसयासत्तो वि नरो नारो वा जइ धरिज्ज गुरुभावं । ता पारदारिएहिं वेसाहिं वा किमवरद्धं ॥२२ व्याख्या :-विषयासक्त = कामातुर नर व्यास विश्वामित्र वशिष्ट ब्राह्मण अथवा कामभोगनइ विषइ आसक्त नारी स्त्री हुई पार्वती अरुंधती रेणुका गंगादिक तेहनह विषइ गुरुनउ भाव धरीनइ गुरुगुरुणी करी जु मानीइ, तु पारदारिक वेश्यादिक गुरु-गुरुणी करी कांई न मानउ ? हे सूं विपासूं? जइ तेह-माहि विशेष गुण कांई दीसइ नहीं । हिव एकणि शोलवत आकुट्टी लगी भागइ अनेरां व्यारि व्रत भाज। एहवउ त्रिह गाहे करो कहइ । तिहां पहिला गाह कहीइ मेहुण-सन्नारूढो नवलक्ख हणेइ सुहुम-जीवाणं । इअ आगमवयणाओ हिंसा जीवाणमिह पढमा॥२३ व्याख्या:--मैथुन-संशाई आरूढ-अब्रह्म-सेवापर पुरुष सूक्ष्म जीव छदमस्थ नइ अगोचर केवलीए दृष्ट नव लाख जीव हणइ इस्या आगम-वचन तु पहिली जीवहिंसा एह जि प्रकट जाणिवी । एह जि जिणि कारणि आगमि इसिउं कहिउं छइ - इत्थीजोणीए संभवति बेइंदियाइ जे जीवा । इक्को व दो व तिन्न व लक्ख-पहुत्त व उक्कोस ॥१ पुरिसेण सहगयाए तेसिं जीवाण होइ उद्दवणं । वेणुग-दिहतेण तत्ता य सिलागनायेण ॥२ पंचिंदिया मणुस्सा य एगनरभुत्तनारिगब्भम्मि । उकोसं नवलक्खा जायति य एगहेलाए ॥३ नवलक्खाणं मज्झे जायइ इक्कस्स दोण्ह व समत्ति । सेसा पुण एमेव य विलयं वच्चंति तत्थेव ॥४|| इत्थीजाणिमज्झे गब्भगया य हवंति नवलक्खा । उप्पज्जति चयंति य समुच्छिमा ते य असंखया ||५|| असंखइत्थिनरमेहुणाउ मुच्छंति पंचिंदियमाणासाउ । निसेस-अंगांण विभक्ति चंगे भणइ जिणो पन्नवगा उवैगे ॥६॥ इत्यादि । इम शील-भंगि जीवनइ प्राणातिगत-बानउअहिल भंग ऊपजइ । वली शील-भंग करता बीजु व्रत भाजइ तेह कहा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध नो कामीण सच्चं पसिद्धमेयं जणस्स सयलस्स । तित्थयरसामिपमुहादत्तं पि हु तत्थ खलु हुज्जं ॥२४ अबंभ पयडं चिय अपरिग्गहियस्स कामिणी नेय । इय सील-वज्जियाणं कत्थ वयं पंचवयमूलं ॥२५ व्याख्या :-विषयाभिलाषी कामीजननइ सत्य वचन न हुइ ए वात सर्व-लोक-प्रसिद्ध छ । ए-भणी बीजउ मृषावाद-व्रतनउ भंग ऊपजइ । वलो कामीजननइ त्रीजउ अदत्तादाननउ भंग पणि हुइ ते कहइ । तित्थयर-तीर्थकरे सर्व प्रकारि मैथुन-सेवा निषेधी छई। स्वामी राजाइ पणि मैथुन-सेवानउ आदेस नथी दीधउ । प्रमुख शब्द-लगइ माता पिता स्वजन-वर्ग तेहे पणि आदेश नथी दीधउ । ते-भणी अदत्तादान-तणउ पणि भंग हुई। - वली कामीनइ चउथा व्रत,पांचमा व्रतनु भंग ऊपजउ ते कहइ- अबंभं : कामी विषयाभिलाषीनइ अब्रह्म-सेवा प्रकट जि छइ । विषयाभिलाषी पुरुष मनसा वाचा कर्मणा करी स्वदारपरदारनी सेवानि करतउ जि रहा, इणि कारणि अब्रह्म-सेवा प्रकट जि हुइ । विषयाभिलाषीमइ अपरिगृहीत परदार विधवा वेशा दासी स्त्रीनइ विषइ कामना = अभिलाष हुइ, आसेवना पणि हुइ । एह-भणी सील-रहित मनुष्यनइ पांच व्रतनउ मूल किहां रहइ ? शीलवत लोपाति पांचइ व्रत लोप्या आकुट्टि-लगइ भाजइ पणि । अथ शील पालिवानइ विषइ उपदेस कहइ - ता कह विसय-पसत्ता हवंति गरुणो तहा पुणो तेहिं । भग्गा जिणाण आणा भणियं एअं जओ सुत्ते ॥२६ व्याख्या:-तु अहो लोको ! कह उ विषयनइ विषइ आसक्त गुरु किम हुइ ? अपितु न हुइ । एक शीलवतनइ भंगि सर्व व्रत भागा जि । ते-भणी शीलवंत गुरु सेविवा । अथवा कर्मना योग-लगइ दुःशील भाव करइ, तु तिणि जिन-वीतरागनी आज्ञा भांजी। ते किसी आशा, जिणि कारणि सूत्र=सिद्धांत-माहि इसिउं जिनेश्वर कहिउं छइ, ते सिद्धांतना वचन कहीइ छ न वि किंचि अणुनायं पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं । मुत्तुं मेहुणभावं न तं विणा रागदोसेहिं ॥२७ व्याख्या :-जिनवरेंद्रे-तीर्थ करे साधुमहात्मानई सावद्य-योग अनइ सापद्य-व्यापार करणकारावण अनुमति-अनुज्ञा न दीधी। अनइ वली कारणि ऊपनइ अपवाद-पदि सावद्य परमेश्वरे पणि निषेधिउ नथी । जिणि कारणि पूज्य श्रीजिनवल्लभसूरि गुरे इसिउं कहिलं - 'संघरणम्मि असुद्धिं दुण्ड वि गिण्हंतदिंतयाण हियं । __ आउरदिहतेणं तं चेव हियं असंघरणे ॥' वली कहइ -'देवगुरुसंघकज्जे चुन्निज्जा चकवट्टिसिन्नं पि'। इत्यादि । परं एक मैथुनभाव टाली अपरं सर्व उत्सर्ग-अपवाद-पदि कीजइ, पणि एक मैथुन नही । तिहां एकांत निषेध जि कहिउं छइ । ते रागद्वेष विण न हुइ । ते तु रागद्वेष संसार-वृक्षना बीज, ते सर्वथा न करिवा। रागद्वेष-लगइ संसार वाधइ । 'को दुक्ख पाविज्जा०'... । हिवइ शीलनउ सर्व उपदेश कहइ - ता सयलइयरकट्ठाणुट्ठाणसमुज्जमं परिहरेउं । इक्कं चिय सीलवयं धरेह साहीणसयलसुहं ॥२८ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित व्याख्या:--तु सकल समस्त इतर बीजां कष्टानुष्ठान-तप परीसह क्रिया-कलाप प्रमुख ए सर्व उद्यम परिहरी, एक अद्वितीय शीलवत धरउ=पालउ, पणि ते शीलनत केहवउं छह-साहीणस. -स्वाधीन हाथ जि माहि । बार देवलोक, नव अवेयक, पांच अनुत्तर मोक्षना अनंत सुख जेह थका छइ एहवउ शील, अहो भविको ! पालउ । हिव ते शील तु पलइ, जउ नारीनु संसर्ग वर्जइ । जिम अग्निनइ योगि मीण गलइ तिम नारी=स्त्रीना संसर्ग-लगइ पुरुष शिथिल थाइ। सावज्जजोग-बज्जण-सज्जा निरवज्ज-उज्जया वि जए। नारीसंगपसंगा भग्गा धीरा वि सिवमग्गा ।।२९ व्याख्या :-जे पुरुष सावध व्यापारना योग तेहनउं वर्जन परित्याग करिवा-भणी जे सज्जसावधान छइ, वली निरवद्य-सुद्ध शीलादि निःपाप कर्म साधिवा-भणी ऋजु-सरल छइ, जगत्रयमाहि एणइ प्रकारि मोक्षमार्ग साधिवा-भणी धीर छइ, तेही नारी स्त्रीना प्रसंग परिचय-लगइ मोक्षमार्ग साधीता हूंता भाजइ=पडई । यतः - संसार तव पर्यन्त-पदवी न दवीयसी । अंतरा दुस्तरा न स्युर्यदि रे मदिरेक्षणा ॥१ हिव नारीना संग-लगइ जीव पडइ ते-ऊपरि दृष्टांतगर्भित गाथा कहइ - संवेगगहियदिक्खो तब्भवसिद्धी वि अद्दयकुमारो । वयमुज्झिय चउवीसं वासे सेविंसु गिहवास ॥३० व्याख्या:--जीणइ संवेग-वैराग्य-लगइ दीक्ष्या लीधी. तब्भवसिद्धिगामी तीणइ जि भवि मोक्ष जाणहार आर्द्रकुमार तेही स्त्रीना प्रसंग-लगइ चारित्रवत मूकी चउचीस वरस गृहस्थावासि विषयसुख अनुभव्यां । ते भावार्थ कथा-हूंतउ जाणिवउ । हिवइ ते कथा कहीइ - [१४. विषयसख-ऊपरि आर्दकुमारनी कथा ] आदननामा देस । तिहां आदनपुर नगर । तिहां आदनराजा राज्य करइ । तेहनी भार्या अग्रमहिषी आद्रिका । तेहनउ बेटउ आद्रकुमार जाणिवउ । अतिहिं गुणवंत जीवदयानइ विषइ आर्द्र जेहनउ मन एहवउ छइ । समग्र कला अभ्यसतउ यौवनाभिमुख हूउ । हिवइ एहवइ प्रस्तावि राजगृह नगरि । राजा श्रीश्रेणिक परम जिनभक्त। तेहनउ बेटउ अभयकुमार । इम आगइ आदनराजा नइ श्रेणिकराज.नइ माहोमाहि महा प्रीति छ । तेह-भणी राजा श्रेणिक आपणा प्रधान-हाथि आदनराजानइ घणो मेटे मोकली। तिणि प्रधानि सभाइ जई आदनराजा आगलि सउंचल लोंचपत्र कंबलादिक घणी वस्तु मूकी । पछइ राजाई महाआदरि भेटि लेई श्रेणिक राजानी कुशल-क्षेमवार्ता पूछो जउ, 'राजा लोक सह समाधि छइ ?' इम पूछतां आर्द्र कुमार बाप-कन्हइ पूछइ, 'तात ! ते कउण मगधाधिप ?' तिसिइ राजा कहिवा लागउ. 'आर्द्र कुमार ! सांभलि । मगधदेसनउ अधिपति श्रेणिक राजा। तेह-साथि आपणइ चिरंतन प्रीति छइ । क्रमागत चाली आवइ छइ । तेहनि कुलि अनइ आपणइ कुलि प्रीतिइं अतर नही ।' ए वचन सांभली आर्द्र कुमार प्रधान-प्रति पूछिवा लागउ, 'राजा श्रेणिकनइ बेटउ कोई छई, जेड्-साथि हूं पणि प्रीति मांडउं ?' तिसिई प्रधान प्रणाम करी कहिवा लागउ, 'अहो! समग्र बुद्धिनउ निधान, पांच सई मुहता-मांहि मुख्य, दक्षबुद्धिना लक्षण तिणि करी विराजमान एहवउ अभयकुमार राजा श्रीश्रेणिकनउ पुत्र छ । ते किसिउ तुम्हे Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध २५ सांभलिउ नथी ? सघले देशे प्रसिद्ध विख्यात छइ ।' ए वात सांभलि मनि हर्ष घरतउ प्रधान प्रति कहइ, 'जिवारइं पिता आदनराजा तुझनइ चलावइ तिवारई मुझनइ मिली चालिज्यो ।' __ पछइ आदनराजाई ते प्रधाननई घणउ बहुमान देई, मुक्ताफल-प्रभृति घणी वस्तु भेट देई, प्रधान पाछउ वलाविउ। वली संघाति आपणउ प्रधान एक मोकलिउ । तिसिइ ते प्रधान आर्द्रकुमार-समीपि आवी कहिवा लागउ जउ, 'हूं राजा: चलाविउ ।' तीणइ पणि मुक्ताफलप्रभृति घणी वस्तु अभयकुमार-भणी चलावी । केतले दिने पंथ अवगाही राजगृह-नगरि आवी राजा श्रेणिक-आगलि ते सर्व भेटि आणी मूकी। ते देखी राजा संतोषाणउ । तिसिई प्रधानिइ अभयकुमारनइ आर्द्रकुमारनी मोकली भेटि दीधी, संदेसा सर्व कह्या । पछइ अभयकुमार मन-माहि चींतवइ 'सही कोई विराधित-चारित्रीयउ अनार्यदेशि ऊपनउ छइ । पणि इम जाणीइ ते जीव भव्य छइ, जिणि कारणि मुझ साथिई प्रीति तुह जि करइ छइ, जउ उत्तम जीव छइ । तु हिवइ माहरी प्रीतिनु प्रमाण, जु एहनइ प्रतिबोधउं ।' इसिउं विमासी वलती भेटिनइ मिसिई श्रीवीतरागनी प्रतिमा रत्नमय महांत आचार्यनी प्रतिष्ठि एहवी एक मजस-माहि घाती । वली पूजानउ उपगरण-घांटी, रस, धूपधाणां, चमर, अष्टमंगलीक इत्यादि सर्व तेह-माहि घात्यां, बारणइ तालू देई मुद्रा आपणी दीधी। बीजी घणी भेटि संघाति देई प्रधाननइ कहिउं, 'ए माहरी भेटि आदनराजा-छानी आर्द्रकुमारनइ देज्यो, अनइ कहिज्योएकांति ए भेटि हलाविज्यो ।' पछइ ते प्रधान( १ नि) आदनराजानइ श्रेणिकराजानी मोकली भेटि दीधी । आर्द्रकुमारनइ छानी मेटि मजूस सर्व दीघी, अनइ संदेसा सर्व कह्या । पछइ आर्द्रकुमार एकांति बइसी जु मजूस हलावइ तु माहि-थकी रत्नमय श्री वीतरागनी प्रतिमा नीकली । ते जोई मन-माहि चींतववा लागउ, 'माहरइ मित्रि मुझनई आभरण मोकलिउं छइ ।' माथइ, हाथि, खवइ प्रतिमा मकह पणि किहांई बंधि नावइ । पछइ चीतवई, 'एहवी प्रतिमा मई आगइ किहां दीठी हूंती ?' इम ईहापोह करतां जातीस्मरण ऊपन । पूर्विलउ भवांतर दीठउं । - ए भव-इतु त्रीजइ भवि, मगहदेशि वसंतपुरि सामायकाभिध कुणंबी हूंतउ । भार्या बंधमती-सहित सुस्थिताचार्य-समीपि धर्म सांभली दीक्षा लीधी । बंधुमती महासती-सहित गुरु-साथि विहार करिवा लागउ । इम एकदा प्रस्तावि बंधुमती महासती, तेणइ सामायकाभिधि महातमाई दीठी । पूर्विला स्नेह-लगइ अनुराग ऊपनउ । ए स्वरूप' महासतई जाणिरखे ए मर्यादा मूंकइ । ए पछइ तिणि बंधुमती शील राखिवा-भणी अणसण लोपउं, प्राण छांडया। ए वात तिणि माहात्माई सांभली जउ, 'माहरइ कीधइ बंधुमतीइं प्राण छांड्या ।' पछइ ते साधु असमाधि करई । 'धन्य ते महासती जीणइ शील राखिउं, प्राण छांडया । तु हिव मुझनई जीविवा युगतउं नही, जे हूं भग्नव्रत हूंतउ शोल पाली न सकउं।' पछइ ते महातमा अणसण लेई देवता हूउ । १. P. L. बीजी महासतीए जाणी बंधुमतीनई उपदेस दीधर । पछई बंधुमती चींतिवा लागी-जउ समुद्र मर्यादा मूंकइ तउ स्यउं चालइ । हिव अनेरी महासतीए जाणिउ रखे ए मर्यादा मंकड । पछई तिणि बंधुमतीई अणसण लीधउं, शील राखिवा-भणी प्राण पणि छांडया । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मेरुसुन्दरगणि-विरचित तिहां-हूंतउ चिवी अनार्य-देशि हूं आर्द्रकुमार हूउ । तु धन्य ते अभयकुमार जीणइ हुँ प्रतिमानइ मिसिइ प्रतिबोधिउ । पणि अजी माहरइ पोतइ घणा पाप छइ, जे अभयकुमारना हूं मिली नथी सकतउ ।'-इम मनोरथ करइ । प्रतिमानइ एकांति सदा पूजइ ।। एकदा राजा प्रति कहइ, 'हे तातपाद ! जु कह[3] तउ एक वार आपणु मित्र अभयकुमार तेहनइ मिली आवउं ।' तिसिइ राजा कहइ,' वच्छ! आपण प्रोति ठामि जि थकां छई, पणि जईइ आवीइ नही ।' ए वात सांभली आर्द्रकुमार गाढेरउं अभयकुमारनउं ध्यान धरइ । सूतां-बइसतां एह जि चीतवइ, 'जु पांख हुइ तु ऊडी जाउं । ते केहवउ मगदेस छइ, केहवउ राजगृह छइ, ते अभयकुमार केहवउ छह ?' पछई आदनराजाई चीतविठं जउ, 'ए आर्द्रकुमार तु चलचित्तउ दीसइ छइ । इम जाणीइ घरि नही रहइ ।' पछइ पांचसई सुभट पाषती रखोपइ मूंक्या, देहनी छायानी परिई केडि न मूंकइ । तिसिई आर्द्रकुमारि आय मांडिउ । आप घोडइ असवार थई वहीआलीइ जाइ, घोडा फेरवइ, वली पाछउ आवइ। इम दिनि दिनि वेला जालवइ, घडी बिघडी प्रहर अंतरालि करइ । वली ते राजाना सुभटनई आवी मिलइ । तिसिइ आर्द्रकुमार आपणा मित्रपाहइ प्रवहण सज्ज करावइ, रत्ने करी प्रवहण पूरावई । परमेश्वरनी प्रतिमा ते पणि चडावी । वली घोडानइ मिसिइ वहीयालीइ घोडा फेरवतां पांच सई सुभट केडिइ मुंकी आणि प्रवहणि बइठउ अदृश्य हउ । पछइ आर्यदेशि आवी, प्रतिमा अभयकुमारनइ मोकली, धन सर्व साते क्षेत्रे वेची. यतिलिंग जेतलइ ऊचरिवा लागउ तेतलइ आकाशि देवता बोली, 'अहो आर्द्रकुमार! तूंह जि दीक्षा लिइ छइ ते पडिखि । अजी ताहरइ भोगहली कर्म घणउं छह । पडिखि। चारित्र म लेसि । मोगफल भोगवी चारित्र लेजे। तिणि भोजनि स्यु कीजइ जे पेट-माहि रहइ नही ? एहवां वचन सांभली तेही अवगणीनइ चारित्र लीघउं। ते प्रत्येक-बुद्ध मुनि चारित्र लेई वसंतपुर-नगरनई बाहरि देवकुल छह तिहां आविउ । तीणइ नगरि धनावह श्रेष्ठिनी धनवती भार्या, इसिई नामिइं पुत्री हुई। क्रमई यौवन पामी । अनेरइ दिवसि पांच-सात सखी-सहित नगरनह परिसरि देवकुल छह तिहां रमिवा लागी । तीणे एकेकउ थांभउ बालस्वभाव-लगह पुरुषपणइ वरिउ । तिहाँ आर्द्रकुमार मुनि प्रतिमाइं कायोत्सर्गि रहिउ देखी पूर्वभवना स्नेहलगी थांभानी भ्रांतिई आर्द्रकुमार जि वरिउ । तिसिइ देवताइ कहिउं, 'भलउ वर वरिउ ।' इम कहइते रत्ननी वृष्टि कीधी। तिसिइं घनगर्जित देवी श्रीमती बोहतो हूंती पगे वलगी रही। तिसिह महात्मा उपसर्ग सानुकूल देखी, पग मूंकावो, विहार कीधउ । तिवारइ श्रीमतीइ कहिउं जु, 'इणि भवि भर्तार तु तूंह जि, अनेरउ नही ।' पछइ श्रीमती घरि आवी । हिवइ तिहां रत्ननी वृष्टि कीधी हूंती ते देखी राजा लोभनउ लीयउ रन लेवा आविउ तिसिहं देवताई कहिउं. 'ए रत्त सर्व अम्हे कन्याना वरगइ दीघां छइ ।' तिसिइं राजा विलखउ हंतउ पाछउ गयउ । पछा ते धन श्रीमती लेई पितानइ घरि आवी । तिसिई श्रीमतीना वरणा-भणी घणा श्रेष्ठ मागिवा आवह। पणि श्रीमती कहइ, 'मुझनइ इणि भवि तेह जि पति भरतार, अवर कोई नही ।' तिवारइ अष्टि कहइ, 'हे वरिस ! ते वर किम लामिसिइं? तेहनउ स्युं नाम तिसिई श्रीमती कहा, 'तेहनउं नाम न जाणउं । पणि मेह गाजतइ बीहती थकी जिवारइ ते मुनिनइ पगि बलगी १. L. पाहंति २. L. वाहिड़ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला - बालावबोध २७ तिवारई पनि पद्म दीठउं हूंतु ते अहिनाण छ ।' पछह श्रेष्ठि कहिउ, 'जे के मुनि आवश् तेहनइ तूं दान दिई अनइ पग जोती रहे । ' पछइ श्रीमतीनइ दान देतां बारमा वरसनि प्रांति ते आर्द्रकुमार तिहां आविउ । तिसिई श्रीमती ओलखिउ । पछइ धाई महातमानइ पगि वलगी', 'स्वामिन ! तहीइ मुझनइ तूं भोलवी गयउ, पणि हिव किमइ जाए से ?' पछ३ आर्द्रकुमारइ ते देखी देवतानउ वचन मन-माहि आणी, भोगफल जाणी, आर्द्रकुमारि श्रीमतीनउं पाणिग्रहण कीधउं । इम घरि रहितां त्रीजइ • वरसि बेटउ जाय । जेतलइ नव वरसनउ बेटउ उ तेतलइ आर्द्रकुमार श्रीमतीनइ कहिवा लागउ, 'विताहरइ बेटउ तुझनइ सखाईंउ हूउ । हिव हूं दीक्षा लिउं ।' पछ्इ श्रीमतीइ बुद्धिलगी कांतिवउ मांडिउँ । तिसिहं बालक आवी कहिवा लागउ, 'हे मात ! आपणइ ए स्यूं कांतणउ १ तिवारइ माता कहित्रा लागी, वत्स ! तूं तु लघु । ताहरु पिता तउ जाइ छइ ।' इसिह पुत्र कहिवा लागउ, 'मात ! आपि सूत्र, जिम बाप बांधी राखउ ।' ए वात आर्द्रकुमार कपटनिद्रामाहि सर्व सांभल छइ । पछइ आपणइ मनि निश्वर की उ, 'जेतला वड पग पाखती वींटिसिहं तेतां वरस हूँ घरि रहिसु ।' तिसिईं बालक तांतणा लेई बापना पग- पाखती तांतणा वीत मानइ कहइ जउ, 'मई बाप बांधिउ छइ । किम जासिइ ?' पछइ आर्द्रकुमार जउ पग जोइ, तु बार वड बालकि पग पाखती वीटया छइ । तेह-भणी बार वरस घरि रहिउ । इम चउवीस वरिस घरि रही, रात्रि चींतविवा लागउ, 'आगिइ तां मनि करी चारित्र विराधिउं, तेहलगइ अनार्यदेशि ऊपनउ । हिवइ तु मई कायाइ करी चारित्र विराधिउं, तु हिवइ हूं किम छूटिसु ?" इम विमासी श्रीमतीनइ पूछी, प्रतिज्ञा पूरी । वली मुनिवेष लीधउ । पछs पृथिवी-माहि विहार करवा लागउ, राजगृहनगर-भणी चालिउ । तिसिइ अंतरालि आपण सामंत पांच सइ चोर परिवरिउ देखी पूछइ, 'ए तुम्हे सिउं मांडिउ ?' तिवारs ते सामंत कहिवा लागउ, 'जिवारइ तुम्हे आदनपुर- हूंता चाल्या, तिवारइ अम्हे चोतविडंपाछा राजा - कन्हइ जासिउं तु ए राजा मारिसिइ । पछइ तुझ केडिइ अम्हे नीकल्या | पणि तूं अम्हे पामिउ नही । निर्वाह तु हुइ नही । पछइ अम्हे चोरी मांडी । आज अम्हे तूनइ उलखिउ वांदिउ । हिव धर्म देखाडि, जिम अम्हे पडिवजउं ।' पछइ आर्द्रकुमार चोर-प्रति कहइ, 'ए संसार माहि दसे दृष्टांते करी मनुष्यनउ जन्म • दोहिलउ छइ । वली तिहां धर्मनी सामग्री दोहिली | तेह-भणी प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह- हूंता विरमउ ।' इत्यादि उपदेश सांभली तेह हलकर्मी जीव पांच सद चोर चोरी मूंकी आर्द्रकुमारनइ कहा, 'आगइ अम्हारइ तूह जि स्वामी हूंतु । हिवडां पणि तूंह जि स्वामी ।' इम कही चारित्र लेई श्री माहावीरनइ वांदिवा-भणी जेतलइ राजगृह दूकडा आवई', तेतलइ अंतरालि गोसालउ मिलिउ । तिसिह ते साथि वाद करी आर्द्रकुमारि ते निरुत्तर कीधउ । पइ आईऋषि हस्तितापसाश्रमि आव्यउ । हिवइ तिहां जे तापस छइ ते इम कहइ, 'घणा जीवना वध - पांहि एक जि मोठा जीवनउ वध भलउ ।' इसिउं मन माहि आणी एक मोटउ हाथीउ हणिउ छइ, एक आणी बांधी मूकिउं छइ लोहने भार- सहस्रे । तिसिद्धं ते हाथी आई. कुमार आवत देखी चींतवइ जउ, 'किमद्द ए मुनिनइ हूं वांदउं ?" तिसिहं मुनिना प्रभाव लगी हस्तीनां सर्व बंधन त्रूटां । पछइ हस्ती महातमा भणी घायउ । लोक हाहाव करवा लागउ । तेल हस्तो प्रणाम करी ऋषि- आगलि ऊभउ रहिट । ए स्वरूप देखी सर्व तापस हर्षिया १. A. लागी २. L. पाहृति Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ मेरुसुन्दरगणि-विरचित हंता आर्द्रकमुनिनई प्रणाम करी उपदेस सांभली प्रतिबोधाणा हंता श्री महावीरना समवसरणभणी चाल्या । ए वात सांभली राजा श्रेणिक, अभयकुमार · सर्व ते मुनिनइ वांदो करी कहिवा लागा जउ, 'महात्मन ! ए आश्चर्य गाढउं, जे हाथीनां बंधन छूटां ।' तिवारई ऋषि कहिवा लागउ, 'ए सर्व सोहिलउं, पणि जे बेटइ सूत्रना तांतणा पग-पाखती वीटया ते त्रोंडी न सक्या ।' पछइ आर्द्रकुमारि आपणउ मूल-हूंतउ संबंघ कहिउ । सर्व सभा हर्षित हुई । अभय प्रसं सवा लागउ । तिसिइ मुनि कहइ, 'तई जे अनार्यदेशि प्रतिमा मोकली तेह-लगइ तुहे मुझनइ कउण कउण उपगार न कीधउ ? अपि तु सा कीधर । अनई मई जे धर्म उलिखिउ, मई जे चारित्र लीधउं, ए सर्व अभयकुमार ! ताहरउ प्रसाद ।' पछइ राजा श्रेणिक, अभयकुमार मुनि वांदी आपणइ आपणइ स्थानकि गया | आर्द्रऋषि समवसरणि आवी सम्यग चारित्र पाली मोक्षनु भाजन हूउ । पत्थावि 'ते पयावो खिप्पं गच्छंति अमरभुवणाई' --हिव जे सामान्य जीव चारित्र-हूंता पाडीइं तेहनउ स्युं कहिवउ ? जेहनइ परमेस्वरनइ हाथि दीक्षा हुई तेह इ विषए पाडया ॥ इति श्री खरतरगच्छे श्रीजिनचंद्रसूरिनइ आदेसि वा० मेरुदरगणिना विरचित श्री शीलोपदेशमालाबालाविबोधि श्री आर्द्रकऋषि कथा समाप्ता ।। १४ ।। पइ-दिवसं दसदस-बोहगो वि सिरि-वीरनाह-सीसो वि । सेणीय-सुउ वि सत्तो वेसाए नंदिसेण-मुणी ॥३१ व्याख्या :- प्रति-दिवस-दिवस प्रति दस-दस जीवनइ प्रतिबोधनउ देणहार, श्री महावीरनउ शिष्य श्रेणिकनउ पत्र नदिषेण ऋषि एहवउइ वेशानइ घरि बार वरस रहिउ। ते भावार्थ कथाहूंतउ जाणिवउ । हिवइ ते नंदिषेणनी पूर्वभव-सहित कथा कहीइ - [१५. नंदिषेणनी कथा ] कुणिहि एकणि देसि को एक ब्राह्मणइ याग करिवा मांडिउ । पछइ ते यज्ञपाटकनी रक्षा भणी कोई एक दास राखिउ । पणि ते दास जिनधर्म-वासित छ । तीणइ ब्राह्मणनह कहिलं. 'हैं तउ चीतवउं, जउ तुम्हारइ याग करतां अन्नादिक जे कांई ऊगर इ, ते मुझनई जउ दिउ तउ रह।' पछइ तिणि बाम्हणिई पतगरिउं। तिसिइ तिणि ब्राह्मणि जे विद्वांस, जे वेदना भणणहार, जे यागक्रियानइ विषई कुशल छइ, ते तेड्या मधुपर्कादिक योग्य । तेह-पाहि हवनविधि करावीइ, अतिथि जिमाडीह शालि, दालि, मोदके करी। इम जिमाडतां जि कांई प्रासुक आहार ऊगरइ ते दास लहइ । पछइ ते दास जे सुसाधु-चारित्रीया तेहनइ आपणा भाग-माहि दान दिइ। अन्नन-वस्त्रादिक यथा-योगि अवसरिइ दीधा पछी बाँदीनइ वली कहइ, 'वली अनुग्रह करिज्यो ।' पछइ ते दास आयुनइ क्षयि मरी देवलोकि देव ऊपनु । तिहांना सुख भोगवी प्रातुक-दाननां फल-लगी राजा श्री श्रेणिकनइ घरि नंदिषेण एहवइ नामि पुत्र हउ। क्रमिइ यौवनावस्था पामी । तिसिइ राजाइ नंदिषेणनइ पांचसइ कन्या परिणावी । इसिइ प्रस्तावि गजेंद्र एक पांच सई हस्तिनीइ परिवरिउ सल्लकी-वन-माहि क्रीडा करइ । तिसिई हाथोइ मन-माहि चीतविउ, “रखे कोई नवउ हस्ती जन्मीइ जे मुझनइ' हणीनइ यथनउ नायक हइ ।' तेह-भणी जे जे हस्तिनी पुत्र जन्मइ ते ते विणासइ । इसि ते यागनउ १. P. L. मझनइ K मोनइ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध करणहार ब्राह्मणनउ जीव मरी हाथिणीनी कुखिह अवतरिउ तेणइ हाथिणीइ 'चीतविउं, 'जेतला मई पुत्र जिण्या, तेतला इणि हाथीइ मार्या । तु हिव हूं कीणइ कइ उपाय करी ए गर्भ राखउं ?' पछइ' तिणी हाथणीइ माया मांडी, पगि खोडी हुइ । हाथीइ जाणिंउ-एहनउं पग दुखइ छइ । पछई एक दिन अंतरालि करी हाथीनइ मिलइ, बि दिन, त्रिण्णि दिन करी-इम हाथीनइ वेसास ऊपजाविउ । ईणी स्त्रीए कउण कउण न वंचीइ ? इम प्रसवनइ समइ तृणनउ पूलउ माथइ करी हाथिणी तापसनइ आश्रमि आवी । तापसनद पगे लागी आपणउ भाव जणाविउ । तापसे जाणिउं जउ-ए अम्हारइ शरणइ आवी । पछइ आस्वासना देइ कहिउं, 'वरिस ! सुखिइं निर्भय थकी रहि' । इसिइं हाथिणीइ पुत्र जायउ । ते पुत्र आश्रमि मूकी हाथिणी यूथमाहि गइ । पछइ तापसे ते हाथीउ पालिउ । एक एक दिननइ अंतरालि हाथिणी दूधपान करावी जाइ । इम करतां मउडइ मउडइ हाथीउ वाधिवा लागउ । पछइ जिम तापस वृक्षनइ सीचइ, तिम ते हाथीउ सूडि पाणी भरी झाडनइ सीचइ । पछइ तेहनइ सेचनक ए नाम तापसि दीघ । सात हाथ ऊंचउ, त्रिणि हाथ पहुलउ, लघु-गावडि, पिंगल-नेत्र, सप्तांगसुन्दर, च्यारि सई चऊंआलिसे लक्षणे संयुक्त, भद्रजाती, मदोन्मत्त - एवउहाथीउ हूउ । तिणि समइ पिता हस्ती आपणइ जूथि परिवरिउ नदोनइ तटि पाणी पीवा-भणी आविउ । तिसिई सेचनक पणि तिहां आगइ पाणी पीतउ हूंतउ । तिणि आवतु देखी रीस-लगइ सबलपणि यूथनउ अधिपति हाथी हणी आप यूथनउ नायक हउ । पछइ सेचनकि मातानु पूर्विलउ संबंध जाणी मन-माहि चौतविउ, 'जिम हूं ए आश्रम-माहि छानउ राखिउ, तिम मुझ ऊरि कोइ हस्तिनो पुत्र राखिस्यई । जिम मई पिता विमासिउ,तिम मुझनई पणि कोई विणासिसिहे । तेह-भणी ए आश्रम भांजउं ।' एहवउं विमासी सेचनक हस्ती आश्रमि आवो वृक्ष पाडिवा लागउ, तापसनां घर भांजिवा लागउ । पछइ तापसे जई राजा श्रेणिकनई कहिउं, 'वन-माहि सर्व-लक्षण-सम्पूर्ण हाथीउ एक आव्यउ छइ ।' ए वात सांभली चतुरंग-बल-सहित राजा वन-माहि आवी, अनेक पास सज्ज करो, हाथीउ बांधी नगर-माहि महा आलानस्तम्भ छइ तिहां आणी बांधिउ । पछइ हाथीनउ पराक्रम सर्व भागउ । आंखि मीची रहइ । तिसिइ ते तापस हाथी-समीपि आवी कहिवा लागा, 'तई जउ अम्हारा आश्रम भांजां, तु तू जोइ-न ईणइ स्तंभि बांधिउ । अम्हे तूंनइ लालिउ-पालिउ, अम्हनइ ज तूं आपणउ न हूउ, तु ए फल भोगवि ।' तिवारइं हस्तीइ चोंतविडं, 'हूं जे बंधाणउ, ते ए तापसनउ प्रमाण ।' पछइ रीस ऊपनी । स्तम्भ उन्मूली, बन्धन तोडी, वली आश्रमि आवी उटज-वृक्ष सर्व भांजिवा लागउ । तेतलइ राजा श्रेणिक तारसना आश्रम राखिवा-भणी हाथीयानई झालिवा-भणी गजारूढ हूंतउ वन-माहि आविउ । पणि हाथीनइ कोई झाली न सका । तिसिइं श्रेणि कनउ पुत्र नंदिषेण कुमार तिहाँ आविउ । तिसिइ भवांतरनउ संबंध देखी जातीस्मरण ज्ञान ऊपनइ नंदिषेण नइ वसि हाथीउ हुए। पछइ नदिषेणई हाथोउ नगर-माहि आणी आलानस्तंभि बांधिउ । पछइ राजाइ सर्व लक्षण-संपूर्ण जाणी सेचनक पट्टहस्ती कीधउ । अन्यदा श्री महावीर राजगृह-नगरि गुणसीलइ चैत्य आवी समवसर्या । तिसिइ राजा श्रेणिक सांतःपुर पुत्र-पौत्र-परिवरिउ स्वामीनइ वांदी आगलि बइठउ । जगन्नाथइ धर्मोपदेश दीधउ । १. K मां 'पछई.......ऊपजाविउ ।' एटलो पाठ नथी. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित ते उपदेश सांभली श्रेणिकि सम्यक्त्व लीघउ, अभयकुमारादिके श्रावकनउ धर्म आदरिऊं। पछेह सपरिवार आपणइ घरि आविउ । तिसिई नंदिषेण पितानइ प्रणाम करी कहिवा लागउ, 'स्वामिन! एतला दिन तुम्हे लालिउ-पालिउ, परिणाविउ । हिवइ श्री महावीर-समीपि जई दीक्षा लेसु।' पछद मातापित ए समझाविउ तुहइ बलात्कारि समोसरणि जई दीक्षा लेवा लागउ । तेतलइ आकाशि देवताए वाणी बोली जउ, 'भोगहली कर्म भोगव्या पाखद नही छूटइ । दीक्षा म लेसि । घर रही भोग-कर्म भोगवि ।' तिसिई नदिषेग साहस-लगी कइ. 'कर्म माहरउ सिउं करिसिइ ?' एहवउ साहस करी दीक्षा लीधा । जगन्नाथइ पणि कहिउं तुही कहइ, 'हाथीनइ दांत सामुहा हुइं पणि पूठइ न हुई ।' पछइ महा तपि करी डील शोषिवा लागउ। जेतलइ भोगनी इछा ऊपजइ, तेतलइ रूधीनइ प्रेतवन-माहि जई आतापना काइ, पण निवर्तइ नही । पछह मरणांत आय चोतवइ, पगि मरइ नहीं । पछइ कुडिनपुरि नगरि छठनइ पारणइ एकाकी वेश्यानइ घरि जई धर्मलाभ कहिउ । तेतलइ पणि गणिका कहइ, 'अम्हारइ धर्मलाभ न बोईइ, ट्रम्यलाभ जोईइ ।' तिसिइ नदिषेणि नेव हूंतउ तृणउ एक काढी नांखिउ । तेतलई बार कोडि सुवर्णनी राशि पडी । पछइ नदिषेण जावा लागउ । तेतलई धाई पगे वलगी इसिउ कहइ, 'स्वामिन ! हिव किमइ जावा लहिसिउ १ ए धनराशि भोगवउ ।' पछइ तेहनइ वचनि भोगहली कर्मनइ उदयि देवतानउ वचन चोंबारी, जाणतउ इ हूंतउ तेहनइ घरि रहिउ । पणि 'दिन प्रति दस-दस जीवनई प्रतिबोधउं तु भोजन करू, जहीइ न प्रतिबोधउ तहोइ हूं दीक्षा लेउ' -एहवउ अभिग्रह लेई नदिषेण ते वेश्यानइ घरि रहिउ, भोग पंचविध भोगवइ । हिवइ दिन प्रति दस-दस जीव प्रतिबोधी स्वामी-कन्हलि मोकलइ । इम घणउ काल गिउ । आपणइ धर्म सघउ पालइ । इम एक दिनि नव जीव प्रतिबोध्या, दसमउ टाक-देशनउ जीव आविउ । तेहनइ घणउ समझावइ, पणि समझइ नही । तेतलइ रसवती नीपनी। वेश्याई दासि-हाथि कहावित 'स्वामी! रसवती ताढी हई छइ, तुम्हें आवउ ।' तेतलइ नंदिषेणइ कहिउँ, 'नव जीव प्रतिबोध्या, पणि दसमउ जीव थाकइ ।' इसिइ कर्म क्षय गयउ । तिसिई वेश्याइ हासा लगी कहिउं, 'स्वामी ! आज दसमा जीव तुम्हे जि हृया, दीक्षा लिउ ।' इणि वनि श्रेणिकपुत्र नदिषेण श्री महावीर-समीपि जई, आलोचना लेई, चारित्र आदरी, दुःसह परीसह सही, देवलोकनां सुखनउ भाजन हुआ। तु जोउ, विषय एहवा इ सत्पुरुषनइ विडंबना ऊपजावइ, तु अनेरान सिङ कहिवउ १ ॥ इति नदिषेण-कथा संपूर्णा ॥ १५ ॥ वली विषयनइ दुर्जयपणउ देखाडतउ कहइ जउ-नंदणो महप्पा जिण-भाया वयधरो चरम-देहो। रहनेमी राइमई(? इइ) रायमई कासि ही विसया ॥ ३२ व्याख्याः - यादववंश-मंडन, समुद्रविजय-नंदन, महात्मा, उपशांत-चित्त, जिन श्री नेमिनाथनउ लघु भ्राता, व्रतनउ धरणहार, चरमदेह-तीणइ जि भवि मोश्च जासिइ, एहवउ इ रथनेमि बउ राजीमती-ऊपरि राग करइ, तु ए विषयनइ ही इसिइ खेदिई धिग् धिक्कार हु । जीणइ ए इंद्रीने विकारे एहवउ रथनेमि विकारपणउं पमाडिउं, तु ते विषय किम जीपाइ? ते भावार्थ कथाहुंतु जाणिव । हिव ते रथनेमिनी कथा कहीइ - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध [१६. रथनेमिनी कथा] द्वारिका-नगरीइ श्री नेमीश्वरि राजीमती परिहरी, जिवारइ श्रीगिरिनारि जई दीक्षा लीधी, तिवारइ पाछलि रथनेमि राजीमतीनइ विषइ अनुरक्त हूंतउ खादिम, स्वादिम, वस्त्र, अलंकार इत्यादि राजीमतीनइ मोकलइ । पणि राजीमती तु सरल स्वभाव-लगइ जाणइ जउ - मुझनइ देवर भणी 'बोलबांह दिइ छ । इम एकदा प्रस्तावि रथनेमिइ राजीमती-आगलि कहिउं, 'नेमिनाथइ तु दीक्षा लीधी अनइ अजी तूं तु कुंआरी छइ, मुझ साथिइ पाणिग्रहण करि ।' तिसिइं राजीमतीइं रथनेमिनउ एहवउ मनोरथ देखी रथनेमिना पतिबोध-भणी खीर, खांड, घी जिमी, पछइ मयणहलनउ गंध लेई, तत्काल स्वर्णना-थाल ऊपरि ते आहार वमिउ। पछइ रथनेमि तेडीनइ कहिउं जउ, 'ए आहार जिमिइ ।' ईणइ वचनि क्रोध लगइ रथनेमि कहिवा लागउ, 'हे सुभगि ! हूं किसिउं स्वान-पाहिइं अधिकउं हउ, जे वमिउ आहार जिमु? तिसिइ राजीमती कहइ, 'तुम्हारउ वडउ भाई श्री नेमिनाथ, तीणइ आठ भव- तांई माहरउ अंगीकार करी, नवमइ भवि हूं त्यजी, तु है वम्या आहार सरीखी छ, किम तुम्हे माहरउ अंगीकार करिसिउ १ जोउ नइ, हाथीइ चडी रासिभि किम चडीइ ? अमृतपान करी विषनउं पान कउण करई ? सुवर्ण मूकी काच-कथीर कउण पहिरई ? तिम नेमिकुमार मंकी अनेरानी कउण वांछा करइ ?' इत्यादि दृष्टांते करी रथनेमि प्रतिबोधिउ । तिसिइं श्री नेमिनाथनइ श्री गिरिनारि-ऊपरि केवल ज्ञान ऊपनउं । पछइ राजीमतीइ स्वामीनइ ज्ञान ऊपनउं सांभली, राजीमती नेमिनाथ-कन्हइ जई दीक्षा लीधी । रथनेमिइं पणि चारित्र लीधउं । इम एकदा प्रस्तावि विहार करतां वरसालइं श्री नेमिनाथ गिरिनारि आवी समोसरिया। रथनेमि पणि स्वामी साथिई आविउ । पछइ श्री गिरिनारिनी गुफा-माहि जई काउसम्ग करी ध्यान-संलीन हूंतु, तप करिवा लागउ । एहवइ प्रस्तावि वर्षाकाल-समइ राजीमती परमेश्वरनइ वांदिवा-भणी पर्वति चडिवा लागी । तेतलइ मेह आविउ, राजीमतीनां सर्व वस्त्र भीनां । पछइ राजीमती निवरडं जाणी तेह जि गुफा-माहि पइठी। तिहां अन्धकार-लगइ रथनेमि मा ह न दीठउ । पछइ निवर जाणी राजीमतीइं आपणा अंगनां सर्व वस्त्र ऊतारी विरलां घात्यां। तिसिइं रथनेमि गुफा-माहि निरावरण राजीमती देखी कामांध हूंतउ मनि चीतविवा लागउ, 'माहरउ जन्म सफल तु, जउ हं एहनउ अंगीकार करउं ।' पछइ रथनेमि आगलि आवी राजीमतीनइ आपणउ अभिप्राय जणाविउ । तेतलइ राजीमती तत्काल वस्त्र पहिरी रथनेमिना प्रतिबोध-भणी कहिवा लागी, 'भो महानुभाव ! गृहस्थावस्थाई जु मई तूं नादरिउ, तु हिव जोइन, चारित्र लीधइ किम तं आदरिसं? पणि रथनेमि ! आपणइ हीयइ विमासि, तू केणई कुलि ऊपनु छ ? कहिनउ पुत्र ? कहिनउ भाइ ? पिता तउ समुद्रविजय, माता तउ सिवादेवी, भाई तु श्री नेमिनाथ, कुल तु अंधकवृष्णिर्नु । अनइ हं तु भोजगरायनइ वंसि ऊपनी । तु आपणपानइं एहवउं अधम-कर्म करिवा नावइ । पाधरा जे गधननइ कुलि ऊपना सर्प, ते ही वमिउं विष प्राणनइ त्यागिई पाछउं न लई । तुत किसिउं साप-पाहिइ अधम छइ, जे कउण भोग वली वांछइ १ श्री दसवैकालिक सिद्धांतमाहि कहि १. K. बोलावइ छइ २ K. मनोगत भाव जाणी रथ० । ३. K पाहंति ४. K लगइ ५. L. K जाणी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ मेरुसुन्दरगणि-विरचित पक्खंदे जलिय जोई धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति तय भोत्तुं कुले जाया अगंधणे ॥१ धिरत्थु ते जसो कामी जो तं जीविय-कारणा ।। वतं इच्छसि आवेउ सेअंते मरणं भवे ॥२ अहं च भोगरायस्स तं च सि अंधगवहिणेो । मा कुले गंधणा होमो संजमं निहुओ चर ॥३. जइ तं काहिसि भावं जा जा दच्छसि नारीओ । वायाविद्धो व्व हढो अटिअप्पा भघिस्ससि ॥४ भो महापुरुष ! दोहिलउ मनुष्य-भव पामी, वली चारित्र तिहां दोहिल पामी, असार काम-भोगनी वांछाई जन्म कांइ हारइ १ बाटी-वडइ अरहट कांइ वेचइ ? कउडीइं काजि कोडि काइ हारिइ ? अनइ विशेषि महासतीनइ व्रत-भंगि नरगगति पामीइ । यतः चेईय-दव्व-विणासे रिसि-घाए पवयणस्स उड्डाहे । संजय-चउत्थ-भंगे मूलग्गी बोहिलाभस्स ॥ तेह-भणी अहो उत्तम पुरुष ! धीरपणउं आदरी सूधउं चारित्र पालि' ।' एह्वां अमृतरस-सरीखां वचन सांभली रथनेमी मन-माहि चीतवइ, 'ए राजीमती स्त्रीइ हुँती धन्ये, अनइ ई पुरुष हूंतउ अधम जे एहवी वांछा करउं । अथवा जात्यरत्नन मूल कउण जाणइ ? तु हिवइ एह जि राजीमती मुझनइ गुरुणी, एह जि सगी, एह जि मित्र, जीणइ हूं नरकरूप कुआ-माहि पडत राखिउ ।' इत्यादि घणा उपदेस मन-माहि आणी, श्रीनेमिनायना चरण-समोपि आवी, आपणा पाप आलोई, निंदी, गरही, च्यारि वर्ष-सइनई प्रांति एक वरस छद्मस्थपणउं पाली, पछइ केवलशान पामिउं । पांच-सइ-वरस'-ताई एवंकारइ नवसई एक वरस एतलऊँ सर्व आयु पाली, रथनेमि मोक्ष पहुतउ ॥ इति श्री रथनेमि-कथा समाप्ता ॥ ११ __ तु जोउ, एहवउ उत्तम चरम-सरीरी रथनेमि तेही विषए पराभविउ, तु बोजा जीवनी कउण वात? मयण-पवणेण जइ तारिसा वि सुरसेल-निच्चला चलिआ । ता पक्क-पत्त-सरिसाण इयर-सत्ताण का वत्ता ॥३३ व्याख्या:- मदन-कंदर्प, पवन वायु तिणि करी सुरशैल-मेरुपर्वत सरीखा छइ जे निश्वल= धीर पुरुष आर्द्रकुमार, नंदिषेण, रथनेमि प्रभृति महामुनि तेहवा इ जु चलाव्या, तु बापडा अपर जोव पाका पान सरीखा मदन-वायइ कांपतां सन्मार्ग कइ, वृक्ष-हंता खडहडी पडइ, तेहनी कउण वात १ तेहनइ पडतां वार कांई न लागइ । यत: वायुना यत्र नीयन्ते कुराः षष्टिहायनाः । गावस्तत्र न गण्यन्ते मशकानां च का कथा ॥ हिवइ कंदर्पनइ जीपी न सकीइ ते कहइ जिप्पंति सुहेणं चिय हरि-करि-सप्पाइणो महाकूरा । इक्कं चिय दुज्जेओ कामो कय-सिवसुह-विरामो ॥३४ १. L. पालउ । २. L.A. मां 'एह जि सगी' नथी. ३. K. जेणीइ ४.K..लगइ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध व्याख्या:- महाक्रूर = दुष्ट हिंसक जीव हरि=सिंह, करि= हस्ती - साप प्रमुख सर्व जीव सुखि जीपीइ = वशि कीजइ, पणि एक कंदर्प जि दुर्जे : =जे जीपी न सकीइ । पणि ते कंदर्प केहवउ छइ ? - 'कय - सिवसुह-विरामो' = कीधां मोक्षसुखनइ अंतराय छइ = मोक्षसुख पामिवा न दिइ । हवइ जे एहवा कंदर्पंनइ जीपइ तेहनइ माहरउ प्रणाम । ते कहइ तिहुयण-जगडण - उब्भड - पयांव- पयडो वि विसम-सर- वीरो । जेहिं जिओ लील ए नमो नमो ताण धीराणं ॥ ३५ व्याख्या:- जीणइ महात्माए त्रैलोक्यनइ जगडण= पीडणहार, उब्भट = प्रचंड प्रताप, तिणि करी विख्यात एहवउ विषमसर = कंदर्परूप वीर=सुभट एकांगवीर जीणे भाग्यवंते जीतउ छइ तेहनइ नमस्कार हु । त्रैलोक्य माहि यश शीलवंत जि नउ विस्तरइ | निय - सील - बहुल - घणसार परिमलेणं असेस - भुवणयलं । सुरहिज्जइ जेहिं इमं नमो नमो ताण पुरिसाणं ||३६ व्याख्या: निज=आपणउं शील= मन, वचन, काय त्रि-करण-सुद्ध, बहुल, सीलनतरूप उज्ज्वल, घनसार= कपूर जस-रूपीइ, परिमल = वासि करी, असेस = समस्त पृथ्वीमंडल सुगंध कीजइ जीणइ पुरुषे ते सत्पुरुषनइ नमस्कार हुँ । वली शील पालतां दोहिलं ते कहइ - रमणी - कडक्ख- विक्खेव तिक्ख बाणेहि सील - सन्नाहो । जेसि गउ न भेय नमो नमो ताण सुहडाणं ॥ ३७ ३३ ते पुरुषनउं शीलं सन्नाह = ब्रह्मचर्यरूप कवच, रमणी=त्री, तेहना कटाक्ष-बाण व्याख्या:तीखा, तेहे करी शील-सन्नाह भेदाणउ नही जेह सुभटनउ, तेहनई नमस्कार करिया योग्य | वो एह जि दृष्टांति करी दृढइ निव - धूंआ नियख्वावहत्थियासेस सुंदरी - वग्गा | घण- सोहग्ग-निरुवम-पेम्मा लावन्न रुइ रम्मा ॥३८ जर - जज्जर-थेरी इव परिहरिआ जेण नेमिनाहेणं । बंभवय-धारीणं पढमोदाहरणमेस जए || ३९ ( युग्मं ) व्याख्याः- नृप=राजा श्री उग्रसेन, तेहनी बेटी राजीमती, निज=आपणई रूपिई करी, जीती = निर्जणी, सकल रंभा - तिलोत्तमादि देवसुंदरी = देवांगनाना समूह छइ । वली केहवी १ 'घणसोहग्ग' = घणउं सौभाग्य, तिणि करी सहित छइ । वली केहवी ? निरुत्रमपेम्मा = उपमातीत नव भवनउ प्रेम = स्नेह जे साथइ बांधिउ छइ । अनइ वली लावण्य- सहित सरीरनी रुचि= कांति, तिणि करी रम्य = मनोहारिणी । एहवी इ राजीमती जीणइ श्री नेमिकुमारि हेलाई परिहरी = त्यजी । कहिनी रीति ? 'जर जज्जर० ' = जरा कहीइ वृद्धपणउ तिणि करी जाजरउं, इंद्रियनी निबलाईइ करी वली पलित तिणि करी ढीला हूया छइ अंगना अवयव एहवी जे वृद्धा स्त्री, तेहनइ जिम पंचवीस वरसनु पुरुष परिहरइ, तिम श्री नेमिनाथि राजीमती परिहरी । एहवा ब्रह्मव्रतधारी श्री नेमिनाथ, तेहनूं पहिलउं उदाहरण जाणिवउं । एतलई गाथानउ अर्थ हूउ । हिव विस्तर अर्थ कथा- हूंत जाणिव । ते नेमिचरित्र नवभवगर्भित संक्षेपई करी कहीइ ५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित [१७. नवभव-गर्भित नेमि-चरित्र ] जंबूद्वीपि भरतक्षेत्रि अचलपुर नगर। तिहां विक्रम राजा राज्य करइ । तेहनइं गृहांगणि धारिगो भार्या, सकल स्रोने गुणे करो अलंकृता । अन्यदा रात्रिनइ समइ निद्रा-माहि सहकारनउ वृक्ष एक दीठउ । पणि वली कोई एक दिव्य पुरुष आवी धारणोनइ इसिउं कहइ जउ, 'ताहरई आंगणइ सांप्रत ए वृक्ष वाव छ । वली केतलइ कालि अनेथि वाविसु । इम ए वृक्ष नव वार वावीसिइं अनइ एहनां फल उत्कृष्टां दिनि दिनि वाधतां होसिइं ।। इसिइ धारणी जागी । प्रभाति राजानइ सउणानी वात कही । पछइ सुपनपाठके कहिउं, 'तुम्हारइ पुत्रनी प्राप्ति होसिइं । पणि नव वारनउ अर्थ जाणी न सकीइ । ए वात तु ज्ञानी जाणइ ।' पछइ धारिणी गर्भ धरती पूरे मासे भलइ दिवसि पुत्र जायउ । पछइ राजाई दस दिवस पुत्र-जन्मना उत्सव करी धन एवढं नाम दीधउं । पछइ बालक वाधतउ वाधतउ यौवनावस्थाई आविउ । एहवइ प्रस्तावि कुसुमपुरि नगरि, राजा सिंह विमलाराणी सहित सुखिइं रहतां, धनवती एहवई नामि पुत्री जाई । ते पणि धनवती वाधती वाधती सकल कला अभ्यसती यौवनावस्थाई आवी । इम एकदा उद्यान-वन-माहि क्रीडा-भणी' गई, तिहां धनवतीइं क्रीडा करतां कोई एक पुरुष हाथि पाटो लीधइ दोठउ । तिसिई धनतीइं ते पुरुष-कन्हलि बलात्कारि पाटी लीधी । पछडा तिणि पाटीइ लिखिउ छइ जे रूप ते जोई पुरुष-प्रति कहिवा लागी जउ', 'ए रूप कहिनउ आश्चर्य-कारक ते कहइ ?' तिवारइ तिणि पुरुषिई कहिउं, "अचलपुर नगरनउ अधिपति विक्रमराजानउ पुत्र धन, तेहनउ ए रूप ।' पछइ ते धननउं एड् रूप देखी रोमांच अगि ऊपनउ । वली-वली रूप-सामहउं जोती मदनने बाणे पीडी हुंती कमलिनी सखा प्रति कहा, 'एहवलं रूप मई कहीइं दीठउं नहीं । ए रूप जोतां मुझनइ जे आनंद ऊपजइ छइ ते परमेश्वर जाणइ ।' पछइ कमलिनी सखी साथिई धनवती घरि आवी, पणि बोलइ नही, चालइ नहा , सड नही । एहवउ स्वरूप देखी कमलिनी पूछा, 'हे सखि ! ए सिउ जे तू बोलह नही ? मुझ आगलि तु ताहरइ कांई गोप्य नथी ।' तुहइ धनवती बोलह नही । पछइ कमलिनीइं कहिलं, 'जाणिउं, ते धन जे चित्रि लिखिउ दीठउ, तेहन ध्यान करइ छइ रात्रिदिवस ।' इणई वचनि धनवतीइं नीचउं माथउं कीधउं । पछइ कमलिनी कहइ, 'सखि ! धीरपण आणि ।' तिवार पछी धनवती मा-कन्हइ आवी । तिसिंई माई सालंकार साभरण करी पिता-समीपि मोकली । पुत्री देखी पितानइ वरनी चिंता ऊपनी । तेतला पुण्यना योग-लगा विक्रमराजानउ दूत राजकाज-भणो आविउ । ते जेतलइ राजकाजनी वात कही ऊभउ रहिउ, तेतलइ वली राजाई पूछिउं, 'दूत ! कांई कउतिग दीठउं पृथ्वी-माहि ?' तेतलइ दूत प्रणाम करी कहिया लागउ, 'राजन ! राजा विक्रमनउ पुत्र धन अन: ताहरी पुत्री धावती ए बिना संयोग जउ मिलइ तु एतला उपरांत कांइ कुतिग नथी ।' लिवारइं राजा कहिवा लागउ, 'अहो दूत ! तई माहरा मननी वात जाणी । जु ए वात कही तु हिवइ ए वात सफल करि ।' पछइ ए वात सखीना मुख-इतु धनवतीइं सांभली मनि हर्ष धरइ। तिसिई दूतनई राजाई कुंकुम अणावी लेख लिखी दीधउ । पछइ दूति जई अचलपुरि राजा विक्रमनई ए १. K. क्रीडानइं. २. K. जइ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला-बालावबोध वात कही जउ, 'धन अनइ धनवतीनई ए संयोग मेलउ । आगइ तुम्हारइ स्नेह छइ । विशेष तु धनवतीनई संयोगि स्नेह गाढेरउ वाधिसिइ।' पछइ राजाईए वात पडिवजी, लेख लिखी, तेह जि दूत पाछउ चलाविउ । तेतलइ धनकुमार पोलिई बइठउ देखी दूति प्रणाम करी सर्व वृत्तांत कहिउ । पछइ धनकुमारि पणि धनवती-भणी आपणउ मुक्ताफलनउ हार अनइ लेख ते दूत-हाथि छानउ दीधउ । पछइ दुति सिंहराजानई आवी सर्व वात कही संतोष ऊपजाविउ । पछइ दूतिई प्रछन्न धनवतीनइं लेख अनइ मोतीनउ हार दीघउ । धनवतीई लेख वांची हार आपणइ गलइ घातिउ, मननइ कहइ, 'धनकुमारि मुझनइ ए संचकार दीधउ ।' पछइ दूतनई 'अपार-संतोषि दान देई विसर्जिउ । पछइ सिंहराजाई आपणउ प्रधान सज्ज करी अनेक हस्ती-तुरंगम-धन-कनक-मणि-माणिक्यमुक्ताफल-सहित धनवती स्वयंवरा चलावी । मार्ग उल्लंधी क्रमिइं अचलपुरि आव्या । पछइ भलइ दिवसि पाणिग्रहनउ उत्सव हूउ । आपणपत्रं कृतार्थपणउं मानता महा रुद्धिनइ विस्तारि घरि आव्या । सुख अनुभवतां एकदा प्रस्तावि राजा विक्रम धन-धनवतीई परिवरिउ गजेंद्रि बइसी जेतलइ वन-माहि गयउ, तेतलइ तिहां चतुर्मानी श्री वसुंधराचार्य वन-माहि देखी राजा विक्रम पणि सपरिवार तिहां वांदिवा आविउ । उपदेस सांभली देसनानई प्रांति राजा विक्रम ज्ञानी-कन्हइ पूछइ, 'स्वामिन ! धन जहीइ गर्मि आविउ, तहीइ मातानइ सउणा माहि आवी एक पुरुष इसिउं कहइ, 'एकवार आंबउ आंगणइ वावउं छउं, वली आठ वार वावीसिइ ' इम जे कहिलं, तेहनउ कउण विशेष ?' ज्ञानी कहइ, 'ए नव भवनउं स्वरूप सूचविउं ।' पछ्इ राजादिक सहू आपणइ आपणइ घरि आविउ । अन्यदा धन-धनवती उद्यानवन-माहि आव्या । तिहां एक महात्मा मूर्खाइ अचेत पडिउ देखी सीतल जल-वायुने योगे सचेत कीधउ । पछइ ते महात्मा. कन्हइ धर्मोपदेस सांभली, घरि तेडी, दूध वहिराविउं । मास-दिवस राखी महात्मा-कन्हलि पूछइ, 'तुम्हे अचेत थई कांइ पडिया हूंता ?' तिसिइ महात्मा कहइ, 'संसार-हूंतउ थाकउ, तेह-भणी प. डिउ परमार्थ इतु । द्रव्य-इतु वात सांभलउ । नामि करी हूं मुनिचंद्र । संघात एक आवतउ हंतउ ते साथि आवतां वाट-हूंतउ भूलउ । तृषाक्रांत इहां आवी पडिउ । ति वार-पछी तुम्हे जे उपचार कीधउ तिणि हूं सचेत हूउ । हिव तुम्हे गृहीधर्म, द्वादशव्रत-मूल सम्यक्त्व पडिवजउ ।' पछइ धन-धनवतीइ ते महात्मा-समीपि सम्यक्त्व लीघउं । पछइ विक्रमराजाइं आपणउं राज ध. नकुमारनइ देई चारित्र लीघउं । पछइ केतलउ काल राज भोगवी धनवतीनउ पुत्र जयंत, तेहनइ राज देइ, धन-धनवतीइ दीक्षा लेई, केतलउ काल आचार्यपद भोगवी, प्रांत-कालि मास-दिवससीम अणसण पाली, धन-धनवती मरी सौधर्मइ देवलोकि इंद्र-सामानिक देव हूया । इसिइ वैताव्यपर्वति उत्तर श्रेणिइ सूरतेजपुरि, सूर-नामा विद्याधर, विद्युन्मती भार्या, तेहनी कूखिइ धननउ जीव देवलोकतु च्यवी ऊपनउ । पूरे दिवसे पुत्रनउ जन्म हूउ । नाम चित्रगति दीघ । हिव ते वाधतउ वाधतउ संपूर्ण कला अभ्यसइ । इसिइ ईणइ बैतादिय दक्षण-श्रेणिइं अनंगसिंह राजा, शशिप्रभा भार्या, तेहनी कूखिइं सौधर्म देवलोक-इतु धनवतीनउ जीव चवी, रत्नवती एहवइ नामिइं, घणा पुत्र-ऊपरि पुत्री हुई, संपूर्ण गुण-सहित वाधती वाधती यौवनावस्थाई आवो । तिसिइ राजाइ पुत्रीनइ वर जोतां नैमित्तिक पूछिउं । तिसिइं १ L. P. अपारि संतोषि, K. पारितोषिक दान. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित नैमित्तिक कहइ, 'राजा ! सांभलि । जहीइ झूझ करतां ताहरा हाथ हूंतू खांडउं जे लेसिई अपहनतीश्वरे जेडई माथी फनी वृष्टि होसिदं, ते ताहरो पुत्रीनउ पति भतार होसिइ ।' ए वार सांनी राजाई नै मेत्तेक दानि करी संतोषिउ । इसिई भरतक्षेत्रि चक्रपुरि, राजा सुग्रीव, तेहनउ बि भार्या छइ, एक यशश्विनी, बीजी भद्रा । ते बिहुनई सुमित्र अनइ पद्म एहवइ नामि बि पुत्र हया । भद्रानु पुत्र पद्म यशश्विनीनउ पुत्र सुमित्र । हिव भद्रा चीतवइ, 'सुमित्र-थिकां माहरा पुत्रनइ राज नही हुइ ।' तेह-भणी भद्राई सुमित्रनइ विष दीध। सुमित्र आकुलउ हूउ, तेतलइ राजा तिहां आविउ । अनेक मंत्रतंत्र कीधा, पणि गुण न ऊपजइ । तिसिई लोके वात प्रकट कीधी जउ, ' भद्राई सु मेत्रनइ विष दीधउं ।' ए वात सांभली भद्रा नाठी । राजा सुमित्रनइ धर्मोषध कराविवा लागउ । वली सुभत्रना गुण चीतवी चीतवी रोवा लागउ। तिसिह कउतिगीयाल चित्रगति विमानि बइठउ ते नगर-ऊपरि आविउ । नगरना लोक दुःखी देखी तिहां आवी लोकना मुख-इतु वात जाणी। जेतलइ मंत्र गुणी पाणीइ सुमित्र छांटिउ, तेतलइ सुमित्रनउ विष ऊतरिउ । सुमित्र बइठ 3 हउ । लोकना बंद देखी कहइ, 'एवडा लोक मुझपाखती कांइ मिल्या छइ ?' तिसिई राजाई विष-प्रदान भद्राई जिम दीध अनइ चित्रगृतिई जिम विष वालिङ इत्यादि सर्व वृत्तांत कहिउँ । तिसिई सुमित्र ऊठी विनयपूर्वक चित्रगतिनई' कहइ, 'तई जे उपगार कीधउ, तीणई ताहरउ कुल जाणिउ । परं तथापि आपणउ कुल प्रकासउ ।' इसिइ चित्रगतिनइ सेवकइ सर्व वात कहो । पछइ सुमित्रिइं चित्रगतिनइ भोजनादिक घणउ विनय साचविउ । इसिइ चित्रगति चालिवा लागउ । तिसिइ सुमित्र कहइ, 'हे मित्र ! सुयशा नामिइ केवली इहां आवणहार छई ते वांदी पछइ घरि पहुचिज्यो ।' तिसिई केवली आविउ । राजादिक सर्व लाक वांदिवा गया । केवली उपदेस देवा लागउ । तिसिइ चित्रगति गुरुनइ वांदी सम्यक्त्त पडि वजइ । तिसिई सुग्रीव गुरुनइ वांदो पूछिवा लागउ जउ, 'भद्रा सुमित्रनइ विष देई किहां गई ?' तु केवली कहइ, 'नासता चोरे झालो । सर्व वस्त्र आभरण लेई पालि-माहि लेइ गया । तिहां वणिजारा आव्या, तेहनइ हाथि भद्रा वेची । वली ते वणिनाराहंती नाठी। वन-माहि दविई दाधी । पछई मरी, पहिलइ नरगि गई । तिहां-हूंती तियच-माहि भमी, चंडालनइ घर भार्या हुई । तिहां संउकिनइ संबधिई मरी, वली त्रीजइ नरगि गई । इ. त्यादि अनंत दुक्ख पामिसिइ ।' इत्यादि उपदेस सांभली वैराग्य-लगइ सुग्रीव-राजाइ दीक्षा लीधी, सुमित्रनइ राज्य दीधउं । चित्रगति आपणइ नगरि आविउ । पछइ सुमित्रइ ते पद्मभाईनइ के. तलाएक गाम दीधां । पणि तु ही रीसाणउ हूंत उ नीकली गयउ । एहवई प्रस्तावि अनंगसिंहनउ पुत्र कमल नामिई विद्याधर, सुमित्रनी बहिन कलिंगराजानी भार्या अपहरी । तिसिई सुमित्रनी प्री ते मनि आगी, चित्रगतिई कमल विद्याधर-साथिइं संग्राम मांडिउं । वेटानइ सखाथति अनंगसिंह आविउ । तु ही तिहां चित्रगतिइं रणांगणि सर्व शस्त्र नीठालियां । तिरिई रत्नवतीनउ पिता देवतादत्त खड़ग लेई वइरी चित्रगति-प्रतिइं कहा, 'अरे ! नासि नासि, नहीतरि ईणइ खांडइ ताहर उ मस्तक-छेद थासिइ ।' तिसिई चित्रगति | L. Pu. गति प्रति, २. L. नीठव्यां P नीठव्या. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमास-बालावबोध हसीनइ कहिवा लागउ, 'अरे ! तइ न सांभलिउं जउ - कायरना हाथन शस्त्र वीरनई मंडन हुइ १ इसिउ कहितउ जि'चीतरानी परिई ऊलली, चित्रगत्इिं अंधकार विकुर्वी तेहना हाथनउ खांडउ लीध । अनइ सुमित्रनी बहिन पणि लीधी । क्षणांतरि जउ जोइ, तु ने ते खांडउ, न ते स्त्री । पछइ क्षण एक विषाद करी ते ज्ञानीनउ वचन चौंतारिउ'-'जे ताहरउ खांडउ लेसिई, ते पुत्रीनइ भर्तार होसिइ' । पछइ हर्ष धरतउ चीतवइ, 'हिवइ ते खड्गनउ हरणहार मइ किम जाणीसिइं? वली तां एक अहिनाण देहरई कुसुमवृष्टिनउ छइ ।' तिसिई चित्रगति सुमित्रनी बहिन अखंड-शील लेई आविउ । तिसिई सुमित्र भगिनीनइ विरहइ पुत्रनइ राज देई आपणपे चारित्र लीधउं । नव पूर्व किंचित् न्यून सुमित्रिइं भण्या । तिसिई सुमित्र गुरुनी अनुज्ञा पामी विहार करतउ मगध-गामबाहरि काउसग्गि रहिउ । तिसिइ उरमाई पद्म जे पूर्विई रीस-लगइ बाहरि नीकलिउ हूंतउ, तीणई ते मुनि दीठउ । तेतलइ वयर जागिउं । तेण पनि आकर्णात बाण मंकी महात्मा हीइ तिम वीधिउ, जिम ते पद्म नरगि गयउ । ए भाव पछइ ते रुषि चीतवइ, 'ए अपराध माहरउ, जे मई एहनइ राज नापिउं ।' वली आपण सर्व-जीव-साखिइं 'मिच्छामि दुक्कड' देतउ मरीनइ ब्रह्म-देवलोकि देव इउ । पद्म तिहां-हंतउ जातउ सापिइंडसिउ। पछइ मरी सातमी नरक-पृथ्वीइ गयउ । सुमित्रनउँ मरण जाणी चित्रगति असमाधि करतउ नंदीश्वरि यात्रा-भणी गयउ । तिहां रत्नवती-सहित अनंगसिंह, बीजा इ विद्याधर, देवता, सर्व तीर्थयात्रा-भणी मिल्या छई । तिसिई चित्रगति शाश्वतां तीर्थनी पूजा करी, भावस्तुति भणी वीतरागनां स्तवन कहिवा लागउ । तिसिई सुमित्र ब्रह्मलोक-हंतउ आवी चित्रगति-ऊपरि कुसुमनी वृष्टि कीधी । पछइ अनंगसिंह ते फूलनी वृष्टि देखी खांडानउ हरणहार जाणि उ, अनइ पुत्रीनउ वर पणि एह जि एहवउ निश्वय करो, मनि हर्ष आणिउ । तेतलइ रत्नवतीइ चित्रगति दृष्टिइं दीठउ । भवांतरनउ स्नेह जागिउ । पछइ पिताई हिां जि लान लेई पुत्री रत्नवती चित्रगतिनइ परिणावी । जिम सोना नई हीरानउ संयोग मिलिउ सोभइ, तिम रत्नवती नइ चित्रगति शोभिवा लागां । पछइ घणउ काल गृहस्थावास पाली, रत्नवतीनु पुत्र पुर दरनइ राज देई आपणपे चारित्र लीघउ । पछइ घणउ काल चारित्र पाली माहेंद्र-देवलोकि देवतापण पाम्यां । इति श्री शीलोपदेशमालानइ बालावबोधि श्री नेभिच रत्रि च्यारिभवनउ वर्णन कहिउ ॥ हिवइ इसिई प्रस्तावि, पश्विम-विदेहि, पद्मविजयि, सिंहपुर नगरि, हरिनंदी राजा अनई प्रियदर्शना भार्या । तेहनी खिई माहेंद्र-देवलोक-इतु चवी अपराजित-पुत्रपणइ अवतरिउ । हिव ते मउडई मउडई वाघतां सर्व कला अभ्यसी । इम एकदा महुतानउ पुत्र विमलबोध अनइ अपराजित कुमार बेहं मित्र घोडइ चडी वहियालिई घोडा फेरिवा लागा । तिसिई तिणे दृष्ट घोडे बेहूं महा अरण्य माहि लीधा । जेतलई वेहू मित्र घोडा-थका ऊतरइ, तेतलइते बेहूं घोडा पडया । पछइ राजकुमार अनइ प्रधानपुत्र तलावि पाणी पीई, सुत्था थई, कहिवा लागा, 'आपणपे आगइ देसीतरनी मनसा करतां, हिव ते सफल' करीइ । पितानउ वियोग सहसिउं, पणि पृथ्वीनां कउ. तिग जोईइ ।' पछइ बेहूं नवनवां कउतिग जोतां जावा लागा । १. L, वीतरागनी B. वानरनी २. Pu. करां Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ मेरुसुन्दरगणि-विरचित तेतलिई 'राखि' 'राखि' करतउ कोई एक पुरुष जत उ आवी कुमारनइ सरणइ पइठउ । तेतलई कुमारि कहिउं, 'म बीहि' । एतलइ 'हणि' 'हणि', 'मारि' 'मारि' करतां राजाना पुरुष आवी कहइ, 'ए चोर । ईणई धणा लोक 'मुस्या छइ, अम्हे तु मारिसिउ ।' तिसिइं कुमार हसीनई कहिह्वा लागउ, 'इंद्र जउ आपणपइ आवइ, तु ही एहनइ हूँ नापउं ।' तिसिई ते जण कुमारनई हणवा ऊठया । तेतलई कुमार साहमु थयउ । सर्व नाठा । पछई राजानई जई वात कही । तिसिई सुकोसल-राजाई आपणउं घणउ सैन्य मोकलिउ । ते ही कुमारि भांजिउं । पछई राजा आपणपई आविउ । झूझ करतां सुकोशल राजाई आपणा मित्रनर पुत्र कुमार ओलखी युद्ध निवारिउं । पछई अपराजितनइं आपणइ घरि लेई आविउ । राजाई कुमारनई आपणी बेटी कनकमाला परिणावी । कुमार केतलाएक दिन तिहां रही, देसांतरनां कउतिग जोवा-भणी, राजानइ अणकहिई, रात्रिइ बेहू चाल्या । मार्ग उल्लंघतां नगर दुकडी एक कालिकादेवी छइ, तेहना भुवन-मांहिं जेतलई आव्या, तेतलई कुमारि रुदन सांभलिउं । पछइ खड्ग हाथि लेई शब्द-केडिइ जि नीकलिउ । तिसिई तिहां एक आगिनउ कुड, ते-समीपि स्त्री एक, पुरुष एक खड्ग हस्ति, देखी कुमार कहइ, 'अरे दुरात्मन ! ए स्त्रो मूकि, नही तु झूझ करि ।' तिसिई विद्याधर अनइ कुमार झूझ करतां विद्याधर हारिउ । पछई कुमारि ते रत्नमालानउं पाणिग्रहण कीघउ । केतलउ काल तिहां रही पृथ्वी-मांहिं परिभ्रमण करतां कंडनपुरि आव्या । तिहां केवलज्ञानी देखी, भाव-सहित केवली वांदी, उपदेस सांभली, पूछिवा लागा, 'स्वामिन ! अम्हे भव्य, कि अभव्य ' तिसई केवली कहइ, 'तुम्हें भव्य छउ, कुमार ! सांभाल, जिणि कारणि ए पांचमा भव-हूंतउ नवम भवि तूं श्री नेमि-नामा तीर्थकर थाएसि । अनइ ए मंत्री-पुत्र ताहरइ पहिलउ गणधर थासिइ ।' ए वात सांभली बेहू हर्ष धरता पृथ्वी-मांहिं कउतिग जोई छई । इसिई आनंदपुरि, जितसत्रु-राजा, धारणी प्रिया, तेहनी कुखिइ माहेन्द्र-देवलोक-इतु रत्नवतीनउ जीव चवी, प्रीतीमती नामि पुत्री हुई। अनुक्रमिई वाधती, सकल शास्त्र भणी, यौवनावस्थाई आवी । तिसिई पिता-आगलि प्रतिज्ञा कीधी, 'जे मुझनइ विद्याइ करी जीपिसिइ, ते माहरउ' पति भार होसिइ । एहवी प्रतिज्ञा जाणी पिताइ स्वयंवरा-मंडप मंडाविउ । तिहां सकल राजा भूचर खेचर तेडाव्या, अनइ सर्व तिहां आव्या । इसिई मित्र-सहित अपराजित कुमार पणि आविउ । तिणि मनि एहवउ चीतविउ जउ, 'रखे अम्हनइ कोई ओलखई। तेह-भणी मुखि गुटिका द्याती रूपनउ परावर्त कीधउ। तिसिइ प्रीतिमती कन्या हाथि वरमाला धरी, आगलि प्रतिहारिणी सर्व राजाना अवदात प्रगट करती, सभा-मांहिं आवी । तेतलई सर्व राजा तेहनइ रूपि मोहिआ हंता स्तंभनी परि हुआ। तिसिइं प्रीतिमतीइं प्रश्नोत्तर मांडया । पणि वलतउ उत्तर कोई न दिइ । तिवारइं लोके कहिउं, 'विधात्राइं एहनई सरीखउ वर वीसारिउ ।' पछइ राजा सचिंत हउ, 'एतले राजाए मिले जु कन्यानउं मन न मानिउं, तु हिव सिउ कीजिसइं?' इसिइ हरिनंदन (?) अपराजितकुमार चीतवइ, 'स्त्री-साथिई वाद करतां सोभइ नही, पणि तथापि कांई आपणउ पराक्रम देखाडीइ ।' पछइ कुमारि पूतलीनइ माथइ हाथ देई पूतली बोलावी। पुतली कन्याप्रति कहइ, 'कुण गुरु ? कुण देव ?' इत्यादि पृच्छा-उत्तर करतां राजकन्याइ हारिउ । तिसिई १. L. लुस्या २. Pu.K. मारहइ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ३९ पूतलीइ कही जउ, 'वरमाला माहरा स्वामीनइ गलइ घाति ।' तिसिई कन्याई पूर्व-भवना स्नेह-लगइ जे कुमार कापडीनइ वेषिइ छइ, तेहनइ कंठि वरमाला घाती । ते देखी सर्व राज. कुमार रीसाणा हंता, हथीआर लेई झूझवा लागा। तिसिईएकलउ कुमार झुझिवा तिम लागउजिम सर्व राजकुमार भागा । तिसिइ सोमप्रभ माउलउ अपराजितनइ ओलखी कहिवा लागउ. जउ. 'घणे दिहाडे आज तू दीठउ। भमरानी रीतिइं तुम्हे काई भमउछउ १ मातापिता तुम्हारी माधि घणी करई छई। सोमप्रभिइ बीजा सर्व राजा समझाव्या । पछइ स्वाभाविक रूप करी, भलइ लग्नि पाणिग्रहण कीघउं । अनइ वली जितशत्रुराजाई आपणा मुंहतानी बेटी विमलबोधनइ देवरावी । केतलउ काल तिहां रहिया । तिसिई कुमारनी सुधि जाणी, हदिनंदनराजाई आपणउ प्रधान कीर्तिराज मोकली, अपराजित तेडाविउ । पछइ कुमा.रई खेचरी-भूचरी सर्व स्त्री परिणी हूंती ते एकठी करी, स्वसुरानई पूछी, तिहां-हूंतउ चालिउ । थोडे दिहाडे सिहपुरि नगरि आवी मातापिता प्रणम्या । पछइ हरिनंदन-राजाई पुत्रनइ राज देइ आपणपे दीक्षा लीधी। चारित्र पाली, मोक्ष पहुतउ । पछइ अपराजित राजा विमलबोध महुता-सहत सुखिइ राज पालतां, अवसर जाणी, अपराजिति आपणा पद्म-पुत्रनइ राज देई, स-कलत्र चारित्र लीघउं । केतलउ काल चारित्र पाली, प्रांत-समइ अणसण लेई, आरण-देवलोकि ईद्र-सामानिक हउ । इसिइ ईणइ द्वीपि हस्तिनागपुरि, श्रीषेण राजा, श्रीमती भार्या, तेहनी कृखिइ अपराजितनउ जीव, इग्यारमा देवलोकतु चवी, शंख-स्वप्न-सूचित हूंतउ अवतरिउ । पूरे दिवसे पुत्र जायउ । एहव नाम सउणानइ अनुसारि दीधउं । इसिई विमलबोधनउ जीव पणि सुबुद्धि महुता नइ घरि मतिप्रभ एहवइ नामिइ पुत्र हर | एहवइ प्रस्तावि देसनो सीमना लोक राजानइ आवी पुकार करई जउ, 'स्वामी ! विशाल-शगि डूगरि समर नामा पल्लीपतिई सर्व धन अम्हारा लूटी लीधां । अम्हे तु वसी न सकउं ।' पछइ राजाई प्रयाण-ढक्का देवरावी । जेतलइ राजा चालिवा लागउ, तेतलइ शंखकुमार राजानइ प्रणमी कहइ, स्वामी ! कीडी-ऊपरि तुम्हारी सो कटको ?' पछइ राजाई कुमारनइ आदेश दीधउ । तिसिई शखकुमार सर्व कटक एकठडं करी पालिनइ सीमा-सेढइ गयउ । तेतलइ पल्ली-पतिइं शंख आवतउ जाणी झूझ करिवउं मांडिउं । तिसिइं शंखकुमारि तिम किमइ युद्ध कीधउं, जिम पल्लीपतिइं गलइ कुहाडउ करी शंखकुमारनइ शरणि आविउ । पछइ जे जेहनी वस्तु हूंतो, ते तेहनी देवरावी । दुर्ग आपणइ वसि करी, शंखकुमार पाछउ वलिउ । तिसिइं अंतरालि आवतां, रात्रि सुखनिद्राइं सूतां, एक स्त्रीनउं रुदन सांभली, कुमार स्त्री-समीपि आवी पूछइ, 'हे स्त्री ! तुझनइ कउण दुक्ख ?' तिसई स्त्री कहइ, 'अगदेशि चपानगरी, जित' रि राजा, कीर्तिमती प्रिया, तेहनी पुत्री यशोमती जेतलइ यौवनावस्थाई आवी, तेतलइ श्रीषेणर जानु पुत्र शंखकुमार, तेहना गुण सांभली यशोमती अनुराग धरवा लागी । ते वात राजाई पणि सांभली । पछइ श्रीषेणराजा-भणो हस्तिनागपुरि संबंध करिवा-भणी जण मोकल्या । तेतलई मणिशेखर-विद्याधरि, जे आगइ कन्या मांगी हूंती, तोणइ ए वात जाणी यशोमतो आहरी । तेहनी बांहिइ वलगी हूं इहां-ताई' आवी । तिसिई तिणि पापीई बलात्कारि हाथ १. K इहांलगइ. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० मेरुसुन्दरगणि-विरचित विछोड़ी हूं इहां मूंकी । हिवई हूं तेहनी धाविनाता, ते मुझ-पाखइ किम रहिसिई ?' ए वात सांभली कुमार कहइ. ' म रोइ धीरपणउं आदरि । हूं हिवडां ते खेचरनइ हणी, कन्या पाछो वालउं छउ ।' इम कही सूर्यनइ उदयि विशालशील शुंग पर्वतनी गुफानइ चारणइ जेतलइ आवइ, dies कुमारीन प्रार्थना करत विद्याधर देखी, शंखकुमार खड्ग काढी विद्याधर प्रति कहइ, 'अरे पानी, परस्त्रीना पापनउं फल आज देखाडिसु ।' तिसिई विद्याधर धनुष लेई सामुहु ऊठिउ । तेतलई कुमारिइं हाथ-हूंतु धनुष ऊदाली पाटूई तिम किमई आहणिउ, जिम वृक्ष भुई इतिम ते भुंई पडिउ । पछइ कहिवा लागउ, 'आज पछइ हूं ताहरउ सेवक । पणि तिम करउ जिम एक वार देव वांदिवा-भणी आवउ ।' पछइ कुमारि ए वात पडिवजी । हस्तिनागपुर आपणउ वृत्तांत जणावी, धाविमाता कन्यासहित अणावी, अनेक खेचरे परिवरिया वैताढ्य पर्वति आव्या । तिहां यशोमतो - सहित शंखकुमार शास्वतां चैत्य वांदी, पूजी, पछइ मणिशेखरि विद्याधरि कुमार कनकपुरि आणीउ । वस्त्र आभरणे बहुमानी, अनेक विद्याधरनो पुत्री सहित, यशोमतीइं अलंकृत कुमार, श्री जितारिराजाईं चंपानगरीइ अणाविउ । तिहां शंखकुमारि महारुद्धिन विस्तारि पाणिग्रहण कीधउं । वली श्री वासुपूज्यनी यात्रा करी, स्वसुरानइ पूछी हस्तिनागपुर आविउ । तिसिई श्रीषेणराजाई शंखकुमारनइ राज देई, आपणपे चारित्र लेई, केवलज्ञान पामी, भविकंजननई उपदेश देतां, हस्तिनागपुरि आव्या । तेतलई शंखराजा अंतपुर सहित आविउ । तिहां श्रीषेण केवलीना मुखतु उपदेस सांभली, वैराग्य ऊपनइ, संसारनु असारपणउं चींतवतउ' शंखराजा केवली - समीप पूछइ, 'हे स्वामी ! यशोमती - साथिई एवडुं जे स्नेह, ते कांइ !' केवली कहई, 'पहिलई धननइ भवि एह जि धनवती प्रिया ताहरईं हूंती । पछइ पहिलई देवलोकि संबंध । वली चित्रगति - रत्नवती । पछइ महेंद्र देवलोकि । वली प्रीतिमती - अपराजित । वली आरण देवलोकि सातमइ भवि | सांप्रत शंख-यशोमती । वली इहां हूंता अपराजित - विमानि देव । वली नवमइ भवि तूं नेमिनाथ होइसि अनइ ए राजीमती होसिइ । एह-भणी तुम्ह बिहुनइ पूर्वभवनउ स्नेह छइ ।' इत्यादि पूर्व संबंध सांभली पुंडरीक पुत्रनइ राज देई, यशोमती प्रिया - सहित श्री शंखराजा चारित्र लेई, वीस स्थानकादि तप करी, तीर्थंकर नाम-कर्म निकाचित बांधिउं । पछइ अणसण लेई, आराधना करी, मरण पामी, अपराजित विमानि बेहू देवता हुआ । इसिई जंबूद्रीपि भरतक्षेत्रि सोरीपुरि नगर, समुद्रविजय राजा, शिवादेवी राणी, तेहनी कूखिई कार्तिक वदि बारसिनी रात्रि चित्रा नक्षत्र माहि कन्याराशिदं शंखनउ जीव अपराजित - विमानतु चवी त्रिहुं ज्ञानि सहित, चऊद सउणे सूचित, परमेश्वरिई अवतार लीघउ । माता जाग्या पही भर्त्तार - प्रति सउणानु फल पूछिउं । तिसिहं समुद्रविजय कहइ, 'ए सउणानइ अनुसारि पुत्र होसिइ ।' तु ही नैमित्तिक पूछिया । नैमित्तिके विचारीनइ कहिउं, 'तुम्हारउ पुत्र बावीसमउ तीर्थंकर होसिइ ।' ए वात सांभली शिवादेवी हर्षी हूंती गर्भ धरिवा लामी | तिसिई इंद्रनउ आसन कंप उ | पछइ इंद्रि अवधि ज्ञानि करी बावीसमउ जिन जाणी, प्रणाम करी शक्रस्तव भणी यथास्थानि पहुतउ । परमेश्वरनइ अवतारि राजानइ भंडार कोठार सहू धनि करी वाध्यां । गर्भनइ प्रमाण बंदीवाण सर्व मूकाणा । १. L. पणउं जाणी शंख ०. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला- बालावबोध पछइ मातानई जे जे डोहला ऊपजई ते ते सर्व इंद्रादिक देव पूरवइ । इम करतां सार्द्धष्ट [ दिन नव मसवाडा हुया । इसिइ श्रावण सुदि पांचमी दिन चित्रा नक्षत्र - माहि स्वामीनउ जन्म हूउ । तिसिहं इंद्रनई आसनकंप हूउ । पछइ इंद्रि स्वामीनउ जन्म जाणी, अवस्वापिनी विद्या देई, पांचे रूपे करो परमेश्वरनइ मेरु-पर्वति लेई आविउ । तिहां अति-पांडु कंबलशिला - ऊपरि योजन- मुख कलसे करी परमेसरनइ जन्म महोत्सव करी, पूजी अर्ची, अत्रस्वापिनी विद्या अपहरी, स्वामी माता- समीपि मूक्या । देवताए सुवर्ण-रत्ननी वृष्टि कीधी । पछइ परमे. स्वरनई अंगूठइ अमृत संचारिउँ । इंद्र परमेश्वरनई वांदी, खमावी नंदीश्वरि पहुतउ । इसिइ प्रभातनउ समउ हूउ । सूर्य ऊगिउ । जउ माता जागई, तु पुत्र सालंकार, साभरण देखइ । तेतलइ दासीइं राजानइ वधामणी दीधी । पछइ राजाई पुत्रनइ जन्मि पारितोषिक दान देई, सर्व बंदीवाण मूं कावी महा महोत्सव कीधउ । पछइ छट्ठि दिनि छट्ठी कीधी । बारमइ दिहाडइ सर्व कुटुंब जिमाडी, अरिष्ट विलय गयां गर्भनइ प्रमाणि ते-भणी अरिष्टनेमि नाम दीघउं । पछइ पंच प्रकार धात्री पालीतउ मोटउ हूउ । स्वामी मनोरथने सए वाघिवा लागउ । इसिइ जरासिंधि दूत मोकली समुद्रविजय राजानइ कहाविउं जु, 'वैताढ्य - पर्वत - समीप सिंहपुर सिंहरथ राजानइ बांधि जि को आणिसिह तेहनइ हुं जीवयशा बेटी अनइ मनोवांछित नगर आपिसु ।' तेतलइ वसुदेव प्रणाम करी कहइ, 'ए काजु हूं करिसु ।' तिसिहं समुद्रविजयि कहिउं, 'ए अवसर ताहरउ नही ।' तु ही वसुदेव रहइ नही । पछइ वसुदेव चलाविउ । तिहां सिंहरथ पणि सामहु आविउ । युद्ध हुडं । वसुदेवनइ कंस सारथी हुई बइठउ छइ । तिसिइ वसुदेव सिंहरथनउं कटक भांजी, सिंहरथराय पाडी, कंस पाहइ बंधावी, आपणइ नगरि पाछउ आविउ । तेतलइ समुद्रविजयह वसुदेवनइ एकांति बइसारीनइ कहिउं जउ, 'क्रोष्टिक - नैमित्तिकि इसिउं कहिउं छइ - जे जीवयशानउं पाणिग्रहण करिसिई, तेहना कुलनड क्षय होसिहं । हिवइ तूं ते उपाय चींतवि जे कंसनइ माथइ ए पवाडउ घाती, आप सुखी था । पछइ वसुदेव जरासिंधु - कन्हइ जई कंसनइ जीवयशा देवरावी, मथुरानगरी पणि दधी । इत्यादि बहु वक्तव्य छइ । नारायणि जिवारइ कंस हणिउ, तिवारइ जीवयशा जलांजलि न दिइ । पछइ जरासिंधइ ए वात सांभली दूत मोकलिउ । तीणइ ते दूत अवगणी यादवे क्रोष्टिक पूछिउ, तिवारइ कहिवा लागउ, 'त्रिखंड-भोक्ता कृष्ण-राम होसिहं । पणि पश्चिम- दिसिहं श्री विंध्यगिरि-सन्मुख समुद्र छड़ तिहां जई रहउ । नारायणनी प्रिया सत्यभामा बि पुत्र प्रसवसिहं । तिहां तुम्हे नगरी बसाविज्यो । ' छह सर्व यादव सोरीपुर हूंता नीकल्या सात कुल कोडि साथई, अनइ उग्रसेन इग्यार कुल sts साथि नीकली, पंथ अवगाही, विंध्य पर्वत- दूकडा जेतलइ आव्या, तेतलइ काल-महाकालप्रमुख जरासिंधुना पांच सह पुत्र वाहरइ आव्या । तिसिहं यादवकुलनी अधिष्टायकाई त्रिणि चिहि रची डोकरीनइ रूपिदं रोवा बइठी । तिसिहं कालि-महाकालि पूछिउं, 'तुं कांइ रोइ ?' ते कहर, 'तुम्हारइ भए बीहता यादव सर्व आगि माहि पइठा । ए वात सांभली काल- महाकाल कुमर पणि आणि-माहि पइठा । ए वात यादवे सांभली । पछइ अइमुत्तउ पूछिउ जु, 'हिव किम कीजिसिइ ?' तिवारइ कहित्रा लागउ, 'जेहनइ कुलि एक महापुरुष हुइ, ते कुल गंजाइ नही । पछइ त्रिणि महापुरुष तुम्हारे कुले, तुम्हे कांह बीहउ ?" १. K नवमास अनइ सादा आठ दिन हुआ । ५ ४१ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ मेरुसुन्दरगणि-विरचित इसिइ सोरठदेस-माहि आवतां सत्यभामाइं बि पुत्र प्रसव्या, भानु अनइ भामर एहवइ नामि । पछइ कृष्णि तिहां त्रिण्णि उपवास करी सुस्थित लवणाधिप आराधिउ । पछइ प्रत्यक्ष हुइ, पंचयज्ञ नामा शंख देई कृष्ण-प्रति कहइ, 'स्यूं करउं ?' पछइ कृष्णि कहिउं, 'नगरनइ ठाम आपि ।' पछइ संतुष्ट 'हुंतइ नवबारही नगरी करी दीधी । अढार हाथ ऊंचउं गढ, बार हाथ पहुलड, नव हाथ उंडी पाखती खाई, एहवउ खाई-सहित गढ करी दीधउ । माहि अनेक आवास करी दीधा । पछइ वासुदेवनइ काजि अढार भूमिकानु आवास करी दीधउ । बीजां सर्व घर एक रात्रि-माहि धनदि कीधां । पछइ तिहां द्वारवतीई कृष्णनइ राज्याभिषेक कीधउ । इसिइ श्री नेमिकुमार त्रिहुं ज्ञाने सहित रामति रमिवा लागउ । यादव सर्व नवनवी रामति खेलावई । इम बाल्यावस्था अतिक्रमि श्री नेमिकुमार यौवनावस्थाई आव्या । वज्रऋषभ-नाराच-संहनन-सहित दस धनुष ऊंचा एहवाइ नेमिकुमार विषय-थकी विमुख हया । - इसिई वणिजाग रत्नकंबल लेई आव्या । पणि थोडउ लाभ देखी राजगृह नगरि गया । तिहां जीवयशानइ देखाडयां । मूल करतां कहिउ, 'अधलाख कांबलनउं मूल ।' तिवारई ते वणिआरा कहई, 'अम्हनइं द्वारवती नगरीई लाख द्रव्य देता हूंता । पणि अम्हे न वेच्यां । तिवारइ जीवयशा पूछइ, 'ते द्वारावती नगरी किहां छइ तिवारई वणिजारे कहिउं, 'धनद-यक्षनी स्थापी द्वारावती धनधान्ये करी भरित-पूरित छइ, अनइ राजा कृष्ण राज करइ छइ ।' ए वात सांभली भूताधिष्ठित पुरुषनी परिइ रोती हूंती पिता-कन्ह लि जई कहिवा लागी जउ, 'माहरउ वडरी अजी जीवह छह ।' ए वात सांभली त्रिखंड-भोक्ता जरासिधु कहिवा लागउ. 'हे वत्सि ! सस्तो था माहरउं कीघउं जोइ ।' पछइ प्रयाण-भंभा देवरावी, सहदेवादिक पुत्रना सई, दुर्योधन-शिशुपालादिक राजाने सहस्रे वारीतउ, अपशुकने निवारीतउ हूंतउ, जरासिंधु पश्चिम दिसिई चालिउ । तिसिई नारद-ऋषी रणांगणनइ कुतिगियाल हूंतउ जरासिंधुनइ कहइ, 'तूं कृष्ण साथि पुहची नही सकइ ।' इमरीस ऊपजावी। पछइ कृष्ण-समीपि आवी कहिउं, 'जरासिंधु आवइ छइ, तूं सज्ज था।' ए वात सांभली नारायण(? णि) हूंकारउ मूंकी पडहउ वजाविउं । पछइ दसइ दशारनां कटक सज्ज हयां । अऊठ कोडि पुत्र सन्नाह पहिरवा लागा । तिसिइ उग्रसेन पणि आपणा कटक मेली आविउ । महासेन सांतन राजादिकनां, पांचइ पांडवनी पत्नीना सुसरानों, एतला सर्व कटक आवी मिल्यां। भले सुकने, अनेक वाजित्र वाजते, कृष्ण रथि बइसी चालिउ । क्रोष्टिक-नैमित्तिकि महत दीधउं । इम कृष्ण सैन्य मेली जेतलइ सीमइ आवइ, तेतलइ जरासिंधु सामहु आवी चक्रव्यूहपणइ आपणउं कटक राखिउं । सहस्र-आरा एहवउं चक्र, तीणइ आकारि एकणि-एकणि आरइ सहस्र-सहस्र राजा, बि सहस्त्र रथ, सउ हाथी, पांच सहस्र अश्व, सोल सहस्त्र पायक, पांच सहस्त्र राजा चक्रनइ मुखि । कौरव गांधार राजानां कटक केडिइं, आपणपई पुंठिइ रहिउ । वात सांभली कृष्ण पणि गुरुडम्यूहिई उतरिउ । तिहां पंचास-लाख कुमर गुरुडव्यहनई मखि रहिया । गोविंद-बलिभद्र माथइ रह्या । कटक सर्व बिहु पासे रहियां । इसिईए बात अवधिनई बलिइं इंद्रिई जाणी, आपण रथ अगइ मातुल सारथी, आपणउ सन्नाह अनइ सर्व शस्त्र नेमिकुमार-भणी मोकल्यां । १. K संतुष्ट हूइ हुंतइ Pu. L संतुष्ट वर्तमान. २. Pu. दशोदशनां कटक. ३. K आ प्रमाणे पाठ छे-पांच पांडव जिमणई पासई रहिया । बीजा डाबई पासई रहिया । कटक...... Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला-बालावबोध इसिई बेहू दल मिरई, सुभट किलकलारव करइं, हाथिए गुडि ढलई, घोडे पाखर पडई) सुंभट सन्नाह पहि। ई, माहोमाहि वरणी वरइ । हाथीउ हाथीआ साथिई, घोडु घोडा साथिई, रथ रथिई, पायक पायकिइं, भथाइत भथाइतिइं, सींगणीउ सींगणीधा साथिई, अनेक सल्ल. वावल्ल-भल्ल-तोमर-नाराचे करी माहोमाहि झूझ करतां आकास धूलिई छायउं । लोहीनी नदी वहिवा लागी। सुभट पडिवा लागा । खङ्ग ने झारकारे आकासि उद्योत होइवा लागउ । सींगिगिने टणत्कारे आकाश गाजी रहिउ । एहवी आरेणि होता नारद आकासि नाचतउ, बिह दलनइ धरिम देतां जि, गदाई करी जरासिंधुई राम तिम हणिउ, जिम मुखि लोही नाखतउ पडिउ, केसव बाणे करी तिम ढांकिउ, जिम देखइ कोई नही । यादवनउ सर्व सैन्य भागउं। जरा-विद्यानइ बलि सर्व कटक अचेत ह । तिसिइ मातुल सारथी श्री नेमिकुमार-प्रतिइं कहइ, 'स्वामी ! यद्यपि तुम्हे निरीह निरहकार छउ, कहिनी करणवार न करउ, पणि तथापि ए यादव निवेंस जाता उद्धरउ । आपणउ पराक्रम देखाउ ।' इस कहिइ हूंतइ, श्री नेमिनाथइ धनुष हाथि लेई जरासिंधुना कटकनी. ध्वजा सर्व कापी, सर्व शस्त्र छेद्यां । तिहां संखेसरउ पार्श्वनाथ प्रगट कीधउ । तेहना पखालन जलि जरा-विद्या गई । यादव सर्व पाछा वल्या । तेतलई जरासिंधु बोलिवा लागउ, 'अरे गोपाल ! माहरउ जमाई हणी तूं पश्चिम समुद्रई नासी गयउ सीयालनी परि, तु आज तझनई हणी जीवयशा-पांहि जलांजलि देवराविसु ।' इणिई वचनि कृष्ण बोलिवा लागउ. 'तड बहिलउ था । ताहरा मायबापनइ साथिई तूझनई मेलिसु ।' इम कहतां बेहू झूझ करा, ते शस्त्र नही, ते विद्या नही, जे तिहां प्रयुंजी नही । इम झूझ करतां, जरासिंधुनां सर्व शस्त्र खूटा। तिसिई जरासिंधु राजाई चक्र-रत्न स्मरिउं, तेतलइ ज्वालामाला कराल करतां चक्र आविर्ड। तिसिई नारायण भणो मूकिउं । हीयइ जेतलइ लागउं, तेतलइ कृष्णना भाग्य-लगई हाथि आदि बइटउं । नारायणि चक्र वलतू मूकी जरासिंधु हणिउ । तिहां देवताए जयजयारव कीचड. नवमउ वासुदेव एहवी उद्घोषणा कीधी, कुसुमनी वृष्टि कीघी । पछइ मातुल सारथी आप. णइ ठामि पहृतु । त्रिखड साधी नारायण द्वारवतीई आविउ । संख १ खड्ग २ धनष ३ चक्र ४ वनमाला ५ कौस्तुभमणि ६ गदा ७ – ए सात रत्ने सहित नारायण राज्य करिता लागउ । अनइ श्री नेमिकुमार विषय-विमुख-हंतु सुखिई रहइ । इसिइ साब-पजून विद्याधरनी, राजानी पुत्रीए परिवरिया वन-माहि क्रीडा : श्री समुद्रविजय शिवादेवी श्री नेमिकुमार प्रतिई कहइ, 'वत्स ! तु गुणे करी संपूर्ण यौवनवई आविउ हूंतु इ जे स्त्रीनउं पाणिग्रहण नहीं करतउ, तिणि करी अम्हे महा दुहवण आणउं छउँ जिम भलउं इ माणिक्य हेम-विण न सोभइ, तिम स्त्री-विण तूं सोभतउ नथी । तेह-भणी एक वार परणि. जिम अम्हे वह' लोचने देखू ।' ए यात साभली नेमिकुमार कहा, 'आम तात ! ए स्त्रीना संग्रह परमार्थवृत्तिई दुखदायक छइ । तेह-भणी माहरउं मन नही। . इसिह यशोमतीनउ जीव अपराजीत-विमान-तु चिवी, उग्रसेननी भार्या धारणी, तेहनी कखि अवतरी. राजीमती एहवइ नामि पुत्री हुई । क्रमिइं वाधती वाधती यौवनावस्थाई आवी । इसिई नेमिकुमार आयुधशाला-माहि फिरता फिरता आव्या । तिहां सारंग धनुष. पंचयज्ञ संख देखी हाथि लेवा लागा । तेतलइ रखवाले कहिउं, 'स्वामि ! न वाइवलं, परहुं छउ । १. K बिहुँ २. K परिग्रह, Pu. संसर्ग ३. L पंचजन्य, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित किंतु ए शंख नारायण टाली कोई हाथि लेई न सकइ ।' तिसिइं श्री नेमिकुमारिइं पंचयश शंख लेई, राखतां विचालई मुखि करी वायउ । तेहनइ नादिइं रखवाला अचेत हुई भुइं पडिया । द्वारवतीमउ गढ पणि कांपिवा लागउ । नारायण संखनउ नाद सांभली ससंभ्रांत चउ-पखेर जोइवा लागउ । 'ए' किसिउं आश्चर्य १ वली मन-माहि चिंतविवा लागउ, 'बीजा खंड-हंतउ बीजउ नारायण आविउ कि स्यूं ?' तेतलई पाहरीए जई कहिउं, 'स्वामी ! श्री नेमिकुमार आव्या हता । तीणे राखतां विचालई शंख लेई वायउ ।' ए वात सांभली नारायण बीहिवा लागउ, 'जिम दांतिइं कष्टिई करी मोदक भांजइ अनइ जीभ हेलाई लाभ लिइ, तिम मई त्रिणि सई साठि संग्राम करी त्रिहइ खंड साध्यां, पणि नेमिकुमार हेलाई राज लेसिई ।' इसिउं चीतवी नारायण आप आयुधशाला-माहि आविउ । मन-माहि बीहतउ नेमि प्रति कहइ, 'बांधव ! ए संख तुम्हे पूरिउ ?' नेमिकुमारिई कहिउं, 'हा, ए संख मई पूरिउ ।' तिसिई नारायण कहइ, 'आवउ, आज आपणपे आपणउं चल जेईइ ।' इम कहिई बेहू मालाखाडइ आव्या । तेतलई नेमिकुमार नारायण प्रतिइं कहइ, 'बांधव ! माहोमाहि आपणपे झूझतां सोभइ नही । पणि एक एकनी बांह 'नमावी जोईइ, अनइ बलिभद्र साखीउ कीजइ ।' इणि ववनि नारायणि बांह लांबी कीधी । तिसिई नेमिनाथिई जिम कमलनाल नमावीड. तिम नारायणनी बांह नमावी । पछइ नेमिकुमारिइं आपणी बांह लांची कीधी, तेतलई नारायण सर्व बलिई करी विलगउ, वानरनी परिइं हीचिवा लागउ, पणि लगारइ नमावी ने सकइ । तिसिई हरि कहिवा लागउ, 'धन्य अम्हारउं कुल, जिहां एहवा महा बलवंत पुरुष वली बलदेव-प्रतिई कहइ हरि जउ, 'एहवउं बल आज चक्रवर्ति-माहि नथी, तु ए कांड छड खंड साधइ नही ?' ए वात सांभली बलिभद्र नारायणना मननी भ्रांति ऊतारिवाभणी कहइ, 'बांधव ! एहनइ जि बलिई आपण राज्य भोगवीइ छइ । तुझनइ किसिउं वीसरिलं. जहीइं जरासिंधु साथिई झूझ करतां जराविद्या ऊतारी ? अनई वली नैमित्तिकि कहिउँ कर ए बावीसमउ तीर्थ कर होसिई । राज तु नरकन कारण छइ, तेह-भणी एहन राजनी मनसा नथी । ए बाल-ब्रह्मचारी ।' ए वात सांभली गोविंद हरखिउ अंतःपुर-माहि आवा कहिवा लागउ जउ, 'नेमिकुमारनइ अंतःपुर-माहिं आवतां आडी लाकडी न देवी ।' वली रुक्मिणी-सत्यभामानइ कहिउ, 'तुम्हे आपणा देवर आवर्जिज्यो ।' पछइ नेमिकुमार एकलउ इ अंतःपुर-माहि जाइ-आवइ । एहवइ शिवादेवी कहइ नारायणप्रतिई जउ, 'तुम्हे नेमिकुमारनइ मनावउ, जिम अम्हे एक वार वीवाहनउ उत्सव देखउं।' पछड नारायग-प्रमुख सर्व यादव मनावई, पणि नेमिकुमार मानइ नही । इसिई एकदा वन-माहि खडोखली' झीलतां, पाणिग्रहण बलात्कारिई मनाव्या श्री नेमिकुमार । तेतलई नारायणि उग्रसेन. राजानइ घरि जई राजीमती मागी, क्रोष्टुकि तेडो लग्न 'जोआविउं । तिसिई कोष्टक कहा 'हरिनाशयनि वोवाह जुगतउ नही ।' तेतलइ नारायण कहइ, 'हूं तु साक्षात्कारि छउं, तु ए दोष नही ।' बली नेमिनाथ तु अधूत छ, पहिडतां वार नही लागइ ।' तु नैमित्तिक कहइ, 'श्रावण सुदि छठिइ लगन छइ ।' ए वात सांभली उग्रसेन-समुद्रविजप वीवाहनी सामग्री करिवा लागा । १. Pu. ए सिउ. २. Pu. कि सउं. ३. K नमाडी ४. Pu. जोवराविउं । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध बिहुने घरे जवारा वाव्या । पापड-वडीना मुहूर्त कीधां । बिहुंने धरे गीत गाईइ । तोरण 'वंदरवालि मंडावी। समग्र सामग्री हुई। लग्न इकडइ आविइ, श्री नेमिनाथनइ सिंहासनि बइसारी, गीते गाइते स्नान-मजन-पीठीना आचार करी, पारिणेत वस्त्र पहिराव्यां । तिसिइं उग्रसेन-राजानइ घरि पणि कन्यानइ स्नान-मज्जन विधि करी, गीते गाइते । राजीमती आपणपत्रं धन्य मानती भवांतरनउ पति पामी, रात्री सुखिइं अतिक्रमावी । इसिई प्रभातनइ समइ सूर्यनइ उदयि श्री नेमिकुमारनइ स्नान विलेपन सर्व आभरण पहिरावो, मस्तके छत्र धररावि, बिहु पासे चमर ढालीते, लूग ऊतारीते, गीत गाइते, गोविंदादिक सर्व यादव आगलि चालते, रथिई आम्ही पगि पगि दान दीजते जेतलइ उग्रसेनना घर दूकडउ तोरण-समीप नेमिकुमार आविउ, तेतलइ राजीमती उदार स्फार श्रंगार करी सखी प्रतिज्ञ कहइ, 'हे सखि ! जोइ ए श्री नेमिकुमार आवइ छई' इम कहती गउखे बइठो राजीमती वली वली जोवा लागी । तेतलइ जिमणउं लोचन, जिमणउ खवउ फुरिकिवा लागउ | ए स्वरूप देखी सखी-प्रति कहइ, 'हे सखि ! नेमिकुमारनउ मेलापक दीसइ नही ।' तिसिई जलचर-थलचर-खचरादिक सर्व जीव गउरव-भणी आण्णा छइ तेहनउ विलाप देखी जाणतउ इ नेमिकुमार सारथी कन्हइ पूछइ, 'कहि-न, ए प्राणी कहिनइ हेति दुःखी कीजइ छई?' तिसिइं सारथी कहइ, 'स्वामी ! तुम्हारा गउरव-भणी ए जीव आण्या छइ।' ए वात सांभली रथ पाछउ वालिउ । जीव सर्व मूकाव्या । यादव सर्व आडा हूया, पणि स्वामी कहइ. 'जिहां एवडा जीवनउ विणास, तिहां केहउं सुख ? ' तिसिई मानाप विलाप करतां कहइ, 'वच्छ ! एक बार पाणिग्रहण करि । पछइ जिम मेलि* आवइ तिम करे । एक वार बोल मानि ।' तिसिई नेमिकुमार कहइ, 'हूं ए जीवनउ वध देखी विरतउ हुउ । तुम्हारइ रथनेमि-प्रमुख घणा पुत्र छई । ते तुम्हारा मनोरथ पुरवसिई। पणि हूं चारित्र लिउं छउं ।' ए सांभली मातापिता विलाप करतां कहई, 'जिम पसू-उपरि दया कीधी, तिम अम्ह-ऊपरि दया कांइ न करइ ?" पछई ए वात सांभली राजीमती विलाप करिवा लागी, 'हे प्राणनाथ ! हे स्वामिन ! आठ भवनउ नेह पाली, नवमइ भवि तूं नीटर कांड हउ कहि-न ? इम विलाप करती घणइ कष्टि राखी । तिसिइ सखी कहड. 'ए जउ गयउ, तु वली घणा इ क्षत्रीय-कुमार छइ ।' तिवारइ वलतउं राजलि कहइ, 'ज किम्हई नेमिनाथइ पाणिग्रहण न कीधउं, तु ही माहरइ एह जि गुरु, एह जि स्वामी । जे गति एहनइ ते मुझना ।' तेतलई लोकांतिक देव आवी कहइ, 'स्वामी ! दीक्षानु समय इड छह ।' तिसिई स्वामी सांवत्सरिक दान देई, स्नान करी, सिबिकाइ बहसी, इंद्र माथह छत्र धरइ, बिहुं पासे चमर ढलइ, देवतानो कोडिइ परवरिउ, मनुष्यने सहस्र, यादवने समूहे, वाजित्रने लाखे वाजते, पगि पगि दान दीजते, श्री गिरिनारि सहस्राम्रवन-माहि स्वामी शिबिका-तु ऊतरी, सर्व आभरण मूकी, छठ तर करी, त्रिणिसई वरस घरि रही, चित्रा नक्षत्रि, श्रावण सुदि छठई, पूर्वाह्न स्वामीइ चारित्र लीधउं, सहस्र क्षत्रियकुमार साथि । पछई राम, कृष्ण, पांडवादिक सह वांदी वांदो नगर-माहि आव्या । बीजइ दिनि स्वामी वरदत्त ब्राह्मणनइ घरि परमान्नि करी पारणउं कीधउं । तिहां देवताए पुष्पवृष्टि, रत्नवृष्टि, स्वर्णवृष्टे कीधी । देवदुंदुभिनउ नाद हछ । १. Pu. वानरवाला २. Pu. मेल. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित पछई स्वामी चउपन दिन छद्मस्थपणइ विहार करतां, असर्ग सहितां रेक्तकाचलि सहसाम्रवन-माहे वेडसवृक्ष-तलइ, अष्टम तपि, आसोज वदि अमावसनइ दिनि, पूर्वाह्नि, चित्रानक्षत्रि केवलज्ञान ऊपनउं । तेतलई इंदनउं आसन कांपिउं । अवधि-बलिई जाणी, इंद्र तिहां आवो, समवसरण कीधउं । स्वामी तिहां सिंहासनि बइसी धर्मोपदेश देवा लागा। तेतलइ उद्यानपालकि जई कृष्णनइ वधामणी दीधी। तेहनइ बार कोडि रूपानी वधामणी आपी । तिवारह कृष्ण आपणपे सपरिवार, सांत:पुर, सनागरीकलोक वांदिवा आविउ । तिहां स्वामीनउ रपदेस सांभलिवा लागउ । तेतलई वरदत्त-प्रमुख वि सहस्र राजकुमार अनइ घणी कन्याए परिवरि राजीमतीइ महा महोत्सवपूर्वक चारित्र लोधउं। एहवइ राजमतीनउ अति अनुराग देखी कृष्ण स्वामो-कन्हलि पूछइ, 'हे भगवन ! तुम्ह-ऊपरि एवडउ स्नेह ते कांइ ?' तिवारइं धनदत्तधनदेव-विमलबोध स्वरूप कहां अनइ आठ भवना स्नेहनउं कारण कहिडं । वरदत्त-प्रमुख इग्पार गगधानी स्थापना कीधी। दस दसार, उग्रसेन, पजून, रामादिके सम्पत्व पडिवजिउं । सिवा, रोहणी, देवकी, रुक्मिणी-प्रमुखे' श्रावकपणउं पडिवांजेउं । इम चतुर्विध संघनी स्थापना करो । बीजो पोरसिई गणधरे धर्मोपदेश दीघउ, तेतलई कृष्णि एक पायउ बलि आणिउं, तेनउ अर्ध देवनार लोधलं, अर्ध राजलोके लीधउं । यक्ष गोमेध द्विमुख नरवाहन स्थापिउ, अनइ सिंयानारूढ कुष्मांडी देवता शासननी रखवालि कीधो । अढार सहस्र महातमानइ दीक्षा दीधी अनई चउआलीस सहस्र महासतीनइ दीक्षा दीधी । श्रावक एक लाख 'इगुण हत्तरि सहस्र, श्राविका त्रिणि लाख छत्रीस सहस्स गुणवंति-इत्यादि संघ प्रतिबोधी, एक सहस्त्र वर्ष आऊखउं पाली, पांच सइ छत्रीस सिउं श्री गिरिनारि पादपोपगम अणसण लेई, आसाढ शुदि आठमि, चित्रा नक्षत्रि, स्वामीनइ निर्वाण हूउं । राजीमती पणि मोक्षि पहुती; अनइ परमेश्वरना माबाप चउथइ देवलोकि पहुता । हिवइ देवनाए गोशीर्ष-चंदने चिहि करी, स्वामीनउ अंग प्रज्वालि, वह्निकुमार देवताए वह्नि कीधी, वायु-कुमार देवताए वायु कीधउ, मेघकुमारे अग्नि उपशमावी । तिसिई इंद्रिइ दाढ लीधी, अस्थि देवताए लीधां, वस्त्र राजाए लीधी, राख सर्व लोके लीधी । पछइ निर्वाण भूमिकाई नेमिनाथनई, इंद्रि मंडर कोधउ । पछइ सधला देव ते ठाम वांदी, पूजो नंदीश्वरि पहुता । इति शीलोपदेशमाला-बालाविबोधे श्री नेमि-चरित्र नव-भव-संबंधि च्यारि प्रस्ताव कीधा ॥१७॥ वरली सील पालवानी दृढिमा देखाडतउ कहइ सिरि-मल्लि-नेमि-पमुहा साहीण-सिवा वि बम-वयलीणा। जइ ता किमण्ण-जीवा सिढिला संसारवसगा वि ॥४० व्याख्याः - जेह भगवंतनइ स्वाधीन शिव-भावीउं मोक्षपद, मोक्षगामी छइ एहवा श्री मलनेमि-प्रमुख ब्रह्मवतनइ विषइ लीन छई, पाणिग्रहण परिहरी ब्रह्मचर्य पालवानइ काजि लीन =तत्पर छई । कांइ शील पालइ? मोक्ष-भणी । ते मोक्षि जाइवानउ तिणिही जि भवि निवड का आणइ छइ जउ-अम्हे इणिइ जि भवि मोक्ष जासिउं। तीणे जु ब्रह्मव्रत पालिङ, पाणिग्रहण न कीघउ, विषयसुख विमुख थया । तउ अनेरा जे जीव संसार-सागर-माहि बूडा छई. जेहनइ मोक्ष दःप्राप छइ, ते जीव मोक्ष-सुख साधवा-भणी कांइ निरुद्यम? तेहे जीवे मोक्ष-सुख वांछते शील जि पालिवउं, मल्लिनाथनी परि । हिव ते मल्लिनाथनउ चरित्र कहीइ १. L. Pu. प्रभृति. २. Pu. पोथउ ३. P. उगणहुत्तरि K. ओगणउत्तरि. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ४७ [१८. श्री मल्लिनाथ-चरित्र ] श्री जंबूद्वीप-माहि सलिलावती-विजयि वीतशोका नगरी । तिहां बल एहवइ नामि राजा राज्य करइ । धारणी भार्या । तेह्नउ पुत्र महाबल । तेह जिवारई योवनावस्थाई आविउ, तिवारइ पांच सई गजानी कन्या परणाविउ ।। हिवइ तेहनइ नगर-माहि छ मित्र छई । वैश्रमण १ अभिचंद्र २ धरण ३ पूरण ४ वसु ५ अचल ६-ए छ मित्र साथि क्रीडा-विनोद करतां काल जाइ । अनेक वावे, तलावि, वाडी एहे मित्रे परवरिउ महाबल हीडइ । एतलइ एकदा उद्यान-बनि बलराजा गयउ । तिहां ज्ञानी आचार्य देखी राजा वांदइ । आचार्य धर्मोपदेश दिइ । राजा ते उपदेश सांभली चीतविवा लागउ, 'अजी राज धरिवानइ कोई समर्थ पुत्र नही, जेहनइ राज देई हु दीक्षा लिउ ।' इम चीतवतु वली पूछइ, 'स्वामिन ! ए चिंता कांइ ऊपनी ? तिसिइं ज्ञानी कहइ, 'जिवारई कर्म सबल हुइ, तिवारई ए चिंता ऊपजइ । जिवारई जीव सबल, तिवारइ चिंता न ऊपजइ ।' इम राजाई विचार सांभली तिहां जि चारित्र लीधउं । पछइ प्रधाने मिली महाबलनइ राज दीधउं । महाबल छए मित्रे परवग्उि राजलीला भोगवइ । इम काल जातई राजानई घरि कमलावती राणीई सर्व-लक्षण पुत्र जन्मिउ । महा विस्तारि पुत्र-जन्म-उत्सव करी बलभद्र नाम दीधउ । मउडइ मउडइ वाधतां सर्व कला अभ्यसी। तिसिई यौवनावस्थाइ आविइ युवराज पदवी दीधी । अ'पणि धर्म-जि-नइ विषइ उद्यमपर हूउ । दान, शील, नप, भावना भावतउ श्री वीर-गुरु-समीरि छ मित्र-साथि महाबलि दीक्षा लोधी । पछइ सातइ महात्गा सर्वतोभद्र. सिंहानिक्रीडितादि तपि करी कम क्षमावता पारगडं करई । पणि महाबल तपनइ प्रांति पारणउं न करइ माया-लगी । इम महाबलि स्त्री-कर्म ऊपार्जि । मोहनउं विउसित जोउ । एवडइ महाबले माया-लगह स्त्रीपगडं पा मेउ । पछ बीस स्थानक महावलि सेव्यां, तीर्थंकर-नाम-कर्म ऊगर्जिङ । चउरासी पूरव लक्ष आयु पालो, सतई मुनि वैजयंति विमानि अनुत्तर सुर, तेत्रीस सागरोपमनइ आऊखइ हआ । इसिई जंबू-दीपि, दक्षिण भरति, विदेह-देशि, मिथिला नगरीइ कुंभ नगमा भूपति प्रभावती राणी-सहित सुखिई काल अतिक्रमावइ । इसिई महाबलनउ जव वैजयंत-विमान-तउचिवी. फागण शुदि चउथिनी रातिई प्रभावती गणीनी कुखिइं अवतार लीधउ। तिहां चऊद सउणा स्वामीनइ अवतार देखी, नैमित्तिकना मुख-तु स्वामीनउ अवतार जाणी, गर्भ पालती. पूरे दिक्से मागशिर सुदि एकादशीनइ दिनि, सर्वलक्षणसंपूर्ण 'पुत्र प्रसविउ । तिसिई क्षण एक नारकीनह पणि सुख ऊपन उ । इसिई छप्पन्न दिसि-कुमारिकाए आपणउ आपणउ अधिकार सूतिकर्मनउ कीघउ । तेतलइ इंद्रना आसन कांग्यां, शाश्वती घांट सुघोषा वागी। तेहनइ नादि चउसठि इंड मिल्या । तत्काल इंद्रनइ आदेशि लाख जोयणनउं पालक-विमान कीध। माहि मणिनी पनिका पांच सई योजन ऊंच विमान, तिहां इंद्र आपणपे बइठउ। देवता सर्व मेरुपर्वति पहता। इंद्र आपणि स्वामीनी मातानइ अवस्वापिनी विद्या देई, करसंपुटि जिननई लेई प्रतिछंद रूप मूकी, पांच कल्याणक समकाल हुई तेह-भणी पांच रूप करी नइ, पांडु कंबलसिला-उपरि जगन्नाथनई आपणई उत्सगि धरी बइठउ। तीर्थोदक आणी योजन-मुख कलसे मात्र अच्युतादिक इंद्रे कीधउं । पछइ गंध काषायक वस्त्रे अंग लूही, बावन चंदने अगि विलेप १. K पुत्रीनु जन्म हूउ. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ मेरुसुन्दरगणि-विरचित की धडं । पछइ कुंडल - मुकुटादिक सर्व आभरण पहिरावी, आरती मंगलीकादिक विधि करी, आराध खनावी, स्वामी करसंपुटि लेई, अवस्वापिनी विद्या अपहरी । माता-समीपि आवी, पट्टकूलयुगल उसीसइ मूंकी, वली रत्नखचित दडउ एक ऊपरी बांधी, पुरंदर इंद्रन आदेशि धनद यक्षि बार कोडि सुवर्ण रत्ननी वृष्टि कीधी पछई इंद्रइ एहवो उद्घोषणा करावी जु, 'जे को परमेश्वरनी माता ऊपरि पाडूउं चींतविसिइ, तेहनई इंद्र वज्रह करी अर्जुन-मंजरीनी परिहं मस्तक बिखंड करिसिहं ।' एहवी घोषणा करी अंगूठई अमृत संचारी, पांच घात्री मूं की, प्रणाम करी इंद्र नंदीश्वरि पहुतउ । तेतलइ माता जागी । आगलि सालंकार, साभरण पुत्र' देखी हर्षी ती कुंभराजानह वधामणी देवरावी । पछइ राजाई तेहनई जीवावधि दान देई जन्म महोत्सव महा विस्तारि कराविउ । बंदि - मोक्ष कराव्या । मान- उन्मान प्रमाण वधार्यां । क्रमिदं छठी कीधी । इग्यारमइ दिवसि सर्व कुटुंब जिमाडी, सर्व कुटुंबनइ वस्त्र, आभरण, अलंकार देई, कुसुममालानउ डोहलउ ऊपन त तेह-भणी श्री मल्लि ए नाम दीध उं । प्राक्तन कर्मना योग लगाइ स्त्री-वेद उ | श्री मल्लि यौवनावस्थाइ आव्या पंचवीस धनुष उच्चैस्तर, त्रिहुं ज्ञाने विराजमान । इसिइ ई इ भरतक्षेत्रिई साकेत - पत्तनि, वैजयंत-तु अवतरी अवलमित्रनउ जीव प्रतिबुद्धि हवनामि राजा हूउ । तेहनइ पद्मावती एहवइ नामि प्रिया । अन्यदा नागनी यात्रा -भगी प्रियासहित जु पहुच, तु आगलि पुष्पनउ मुहुर अनइ पुष्पनउ मंडप देखी, प्रिया सहित वली वली जोइ प्रसंसिवा लागउ जु - एहवी वस्तु आजनइ कालिन दीसइ । एतलइ सुबुद्धि मुहुतई कहिउं, 'बहुरत्ना वसुंधरा, स्वामी ! जेवी कुंभराजानइ घरि मल्लीकुमारिका छइ एहवी त्रिभुवन माहि अनेरी स्त्री नथी ।' ए नाम सांभली भवांतरना स्नेहनइ प्रमाणि आपणउ दूत कुंभराजा-भणी वरणानइ काजि चलाविउ ॥१ एहवइ धरणनउ जीव वेजयंत विमान इनु चिवी पृष्टचपाइ चंद्रछायाभिध राजा हूउ । तेहनइ नयसार नामा श्रेष्ठ जिनधर्मनइ विषइ निश्चल । वाणिजनइ हेति प्रवहणि चडिउ । तिसिइ मिथ्यात्वी देवता एक तेहना धर्मनी निश्चलता जोवा-भणी समुद्र कल्लोलमालाई करी आकलउ कीधउ । प्रवहण बूडिवा लागउं । तेतलइ देवता प्रगट थई कहइ, 'जु जिनधर्म मूकइ अनइ मूझनइ आदरइ तु प्रवहण राखउं ।' इणि वचनि तिलतुममात्र डोलइ नही । तेतलइ देवता प्रगट थई कहिवा लागउ, 'अहो ! ताहरी प्रसंसा इंद्र करतउ देखी मइ मच्छर-लगइ ताहरी प्रसंसा सांप ही न सकी । तेह-भणी मइ परीक्षा कीधी ।' इम कही च्यारि कुंडल रत्नना देई देवता अदृश्य हूउ । पछइ नयसार कुपल-क्षेमि समुद्र ऊतरी मिलानगरीइ आवीउ । कुंभराजानइ बि कुंडल दीघां । तेतलइ मल्ल कुमारी तिहां आवी हूंतो । राजाइ ते कुंडल कुमरीनइ दीघां । पछइ नयसार क्रियाणा सर्व वेत्री चा आविउ । तिहां चंद्रच्छाय-राजानइ मिलिउ | तेहनइ बि कुंडल दीघां । तेतल राजाई पूछिउं, 'बि कुंडल किहां लाधां ?" तिवार नयसार कहइ, 'मइ बि डल मल्लीकुमरीनइ दीघां । पणि ते मल्लीकुमारीनउ रूप जे दोठउ ते एकणि मुखि कहिउं न जाइ । ए वात सांभळी भवांतरना स्नेह-लगइ दूत वरणा भणी मोकलिउ ॥२ K. मुकुर. १. K पुत्री २. P.. मुहर, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला-बालासबोध ४९ इसिई पुरणनउ जीव वैजयंत-तउ चिवी श्रावस्तीइ रुक्मी नामा राजा हउ । धारणी नामि प्रिया । अन्यदा अपणी पुत्रीनउं रूप देखी रजा कुंचकी-प्रति कहइ, जेहवउ माहरी पुत्रीन रूरसंपदा, तेहवू अनेथि नथ ।' तेतलई कुचकी कहइ, 'स्वामिन ! ए गर्व म करउ । जिणि कारणि मि थेलानगरीई कुंभराजानी पुत्री मल्लीकुमरी रूइ. सोभाग्ये करी सुंदर छ। एहवी देवलोकि पण न दीसइ । ए वात सांभली वरण,नइ काजि कुंभराजा-समीपि दूत मोकलिउ पूर्व स्नेहलगई ॥३ इसिइं वसुनउ जीव पणि वैजयंत-इतु चिव वाणारसी-नगरीइ शंख नामा राजा हउ । एतलइ मल्लीनां कुंडल काननां भागां । ते सोनारनइ दीधां समारिवा-भणी । पणि सोनार कहइ, 'स्वामिन ! ए देवतादत्त मई समराइ नही ।' निसिई राजाई रोस-लगइ नगरी-हूंतउ कादिउ । ते सोनार रीसाणउ वाणारसीई आवी राजानइ मिलिउ । राजाई देसनां आश्चर्य कउतिग पूछयां । तिणि सोनारइ मल्लीकुमरीनां रूपनी वात जेतलई कही, तेतलइ पूर्वभवना स्नेह-लगइ वाणा भणी दूत मोकलिउ ॥४ एहवड वैश्रमणनउ जीव वैजयंत-त् चिवी हस्तिनागपरि अदीनशत्र राजा हउ । एकदा मल्लीनउ सहोदर मल्लकुमार, तीणइ चित्रमर-पाह' चित्रसाली चीतरावा मांडी । हिव ते चित्रगर-माहि एक चित्रगरनइ देवतानउ वर छइ । एक अंगनउ प्रदेश देखी सर्व अंगनउ रूप लिखा । इसिइ गउ बनइ अंतरालि मल्लीकुमरीना पगनउ अंगूठउ दीठउ । पछइ तिणि चित्रगरि मल्लीकुमरीनउं रूप जेहबउ हूतउ, तेहवउं संपूर्ण रूप लिखिउं। एहवइ मल्ल-कुमार चित्रशालीमाहि आविउ । तिहां मल्ली देखी पाउ वलिउ । तेतलइ धात्रीइ सम्यग जोई नइ कहिउँ, 'वत्स ! ए तउ चित्रगत मल्लीनउं रूा छन् । साक्षात्कारि नथी ।' पछइ मल्ल रीसाणइ ते चित्रगरनउ हाथ छेदी देस-हूंतउ काढिउ। ते चित्रगर फिरतउ फिरतउ हस्तिनागपुरि अदीनशत्र-राजा-आगलि आवी मल्लीनी वात कही। तेतलइ पूर्वभवना स्नेह-लगइ वरणानइ काजि दूत एक मोकलिउ॥५ एतलइ वली अभिचंद्रनउ जीव वैजयंत-तु चवो कांपिल्यपुरि जितशत्रु राजा हूउ । इसिइ मल्लीकुमरी-साथि को एक पाखंडनी धर्मनउ वाद करतां ऊतर नावइ । तेतलइ ते बाहरि कादो। पकड रीसाणी कांपिल्यनगरइ जितशत्रु राजा-आगलि मल्लीन रूप वर्णविउ । तिणि राजाइ अनुरागना वश-लगी दूत मोकलिउ वरण नइ काजि ॥६ इसिइ श्री-मल्ली पणि अवधिइ करी भवांतरना मित्र पूर्वस्नेहनउ कारण जाणी ते प्रतिबोधवा-भगी आपणा घर- पमीषि अशोकवन-माहि रत्नमय पीठ कराविउ । तिहां सुवर्णमयी पूतली एक करावी । ऊपरि वली दांकणउं करावि । पणि पूतली माहि पोली कीधी छइ । हिवइ जे डाहा छई, तेही इम जाणई जु ए जीवती पूतली छइ । वली पाखती जाली सहित घर कराविउं । बारणा छ जुजुआं कर व्यां । पूतली-पाछलि भीतिइं छिद्र राखिउं । सर्व आहारनी पोडी ते पोली पूतली-माहि मूकावोइ । पूतलीनइ तालूइ आहार मूंकी ऊपरि सोनानउं ढांकणउं दीजइ । सर्व आभरण पहिरावीइ । इसिई छइ राजाना दूत, जे जूजूआ आव्या हता, ते भगजाई पाछा वाल्या । पछइ छइ राजा रेसाणा हूंता आपणां आपणां सर्व सैन्य लेई तिहां आया। मिथिलानगरो वीटी। कुंभराजा आकुलउ हूउ । तेतलइ मल्लीकुमरीइ आपणी बुद्धि करी कुंभराजानइ कहिउं. 'तात ! आज रातिइं एकेकउ जुजउ राजा तेडावउ ।' पछ्इ कुंभराजाई १. L. पाहंति । २. Pu. आहार नीपाई ते पूतली । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरगणि-विरचित छइ राजा जूजूआ तेड्या । तिसिहं राजा छए बारणे जुजुभा जुजुआ पइठा । पणि एक-एकनइ जाणता नथी । ते प्रतिमा देखी हर्षित हूंता साक्षात् मल्लीकुमरी जाणी जेतलइ माथइ हाथ लगाss dres ढांकणउं 'अलगउं हूउं । तिसिद्धं माहि-थकी दुर्गंधि ऊछली । तिसिहं तिम किमइ जिम नाक ढांकी अलगा नासिवा लागा । तेतलई मल्लिनाथ ते राजा बोलाव्या, 'अहो ! जउ सोनानी पूतली एवडउ दुर्गंध, तु हूं मलमूत्रनुं थानक, माहरइ विषई एवडउ स्युं कूडउं व्यामोह ? ए विषयसुख विषप्राय छइ, ए विषय लगी संसार - माहि जीव भमइ छइ' । श्री मल्लिनाथ भवांतरना स्नेह लगी तिम किमइ प्रतिबोध्या जिम ते छइ राजानइ जातीस्मरण ऊपनउं । पछई छइ राजा कहई, 'अम्हनइ दीक्षा दिउ । तेतलई मल्लिनाथ कहइ, 'मुझनइ जिवारइ केवलज्ञान ऊपजिसिहं, तिवारइं तुम्हनई चारित्रनी प्राप्ति होसिहं ।' ए वात सांभली छइ राजा प्रतिबोध्या हूंता नमस्कार करी मल्लिनाथनइं खमावी आपणे आपणे स्थानके पहुता । ५० तिवार पछी सउ वरस जन्म- इतु बउलिइ हूंतइ लोकांतिक देवताए आवी दीक्षानु काल कहिउ । तिसिई वन-माहि के केल्लि - तद-तलइ, शिबका-तु ऊतरी, सर्व आभरण मूंको, अष्टम-तपि दीक्षा Raat | सामायक-सूत्र ऊचर्यां । पछइ मन-पर्याय ज्ञान ऊपनउं । तिणइ जि दिनि केवलज्ञान ऊपन | इंद्रनउं आसन कांपिउ । तिसिहं अवधिनइ योगिइं इंद्र आवी केवल - महिमा कीघउ । समोसरण कीधउ । तिहां श्री मल्लिनाथ धर्मोपदेश देवा लागा, सर्व भाषाइ जिम सर्व जीव समझई । तीणी देसनाई प्रतिबुद्ध तीणे छए राजाए दीक्षा लीधी । श्री कुंभराजाई श्रावक [न] उ धर्म पडिवजिउं । तिहां स्वामीना मुख इतु त्रिपदी पामी अठावीसे गणधरे चऊद पूर्व नवा कीधा । पण पहुर पछी गणधरे पादपीठि बइसी देसना दीधी । तेतलइ कुम्भराजाई कलमशालिनड शाटउ (?) आणिउ । वानित्र वाजते तेहनउं अर्ध देवता लिई, अर्ध सर्व राजादिक लिइ । कणमात्र भुई न पडइ । ते जि को एक कण लिइ, तेहनइ पूर्विला रोग सर्वं जाई अनइ नवा छमास- तांइ न ऊपजई । बीजई दिनि परमान्नि करी विश्वसेननइ घरि श्री - मल्लिनाथनइ पारणउं हूउं । पंच दिव्य हूयां | पछइ स्वामी पृथ्वी -माहि भव्यजीवनइ प्रतिबोध देतां, पंचावन सहस्र वर्ष आयु पाली, पांच सह साधु सर्व सहित, समेत-शिखरि मास-दीह अणसण पाली, फागुण शुदि चारसि दिनि, भरणी नक्षत्र, स्वामी मोक्षि पुहता | इंद्रादिक देव पणि महामहोत्सव करी नंदीश्वरि पहुता । तु अहो भविको ! जिम श्री मल्लिनाथइ शील पालिउ, तिम तुम्हे पालउ । इति श्री - खरतरगच्छ श्री जिनचंद्रसूरिशिष्य वा० मेरुसुंदरगणि विरचित श्री - शीलोपदेशमाला - बालाविबोधइ श्री मल्लिचरित्र संपूर्ण ॥ १८ ॥ जे जीव मल्लि-नेमिनी परिई अदृष्ट- कामभोग ब्रह्मव्रत पालइ ते आश्चर्य कांइ नहीं, परं जे विषय सेवी अनइ शील पालइ ते धन्य । इहां दृष्टांत पूर्वक कहइ - सो जयउ थूलभदो अच्छेश्यक रिचरिय-परिअरीओ । जस्सज्जवि बंभवए जयम्मि वज्जेइ जयढक्का ||४१ व्याख्याः - श्री आर्य - विजयसंभूतिनउ शिष्य श्री-स्थूलिभद्र जयवंतु हु । ते किसिउ छइ १ अछेरय=आश्वर्यकारीउं चरित्र तिणि करो परिकलित=सहित एहवा जे श्री-स्थूलभद्रनउ ब्रह्मव्रतपालनरूप यशपडह जगत्रय-माहि आज लगइ वाजइ छइ । अनइ वली अनेक युग सीम वाजिसि । कंदर्परूप महामल्ल जीप वइरी जवढकहा=जरभेरी वाजइ छ = विद्वांस एकांग वीरपण वर्णव । इति गाथार्थः । भावार्थ कथा-हूंत जाणिवउ - १. Pu परहुँ पडिउ, K, अलगउं थय । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९ स्थूलभद्र-चरित्र ईणइ भरतक्षेत्रि पाडलीपुर-नगरि नंद राजा, शकडाल महुत उ, तेहनी भार्या लक्ष्मीवती । तेहना बि पुत्र-एक श्री-स्थूलभद्र, बीजउ सिरीउ । हिवइ जे सिरीउ, ते नंदराजानउ अंगोलगु, अनइ स्थूलभद्र, ते पूर्व-पुण्य-लगइ पितानइ प्रसादि उपकोशा वेश्या तेहनइ घरि बार वरस रहिउ । इसिई ब्राह्मण वररुचि नामा महा विद्वांस कवीश्वर, ते. सदाइ राजानइ अठोत्तरसउ नवे काव्ये करी स्तवइ । अनइ नंद राजा शकडाल महुता सामहं जोइ । पणि शकडाल मिथ्यात्वी-भणी प्रससा न करइ । इम करतां घणा दिवस गया। न नंदराजा दान दिइन प्रधान वर्णवइ । इसिई वररुचिई चीतंविउ, 'जां शकडालनी भार्या नहो आवर्जउं तां महुतउ दान देवा नही दिइं, कांई प्रवाहिई सर्व विश्व स्त्रीनउं वाहिउं भमइ छइ ।' इम चीतवी वररुचिई लक्ष्मी तिम आवर्जी जिम शकडालिई पतगरिउँ । प्रभाति राजा नंद सभा-माहि आवी बइठउ तेतलइ वररुचि आविउ । तिहां अठोत्तर सउ काव्ये राजानी स्तुति कीधी । राजाइं प्रधान सामहं जोयउं । तेतलाई प्रधानि स्त्रीनइ वचनिई कहिउं जु, 'ए काव्य भलां छइं ।' पछई राजाई संतुष्ट वर्तमान अठोत्तर सउ दीनार देवराव्या । इम बीजइ दिनि पंडित अठोत्तर सउ काव्ये करो वर्णवइ अनइ राजा प्रधान-पाहिति अठोत्तर सउ दीनार देवरावइ । इम घणा दिन गया । ___ अन्यदा महुतई चीतंविउं, 'ए मिथ्यात्वनी वृद्धि मुझ थकी हुई।' पछइ प्रधान राजा प्रतिइं कहइ, 'स्वामी! ए काव्य जूनां । जउ न मानउ तउ माहरी पुत्रीनइ आवइ छड, पूछउ । तुम्हनइ प्रभाति प्रत्यय देखाडिसु ।' पछह जक्खा १ जखदिन्ना २ भूता ३ भूतदिन्ना ४ सेणा ५ वेणा ६ रेणा ७ ए सात पुत्री मुहुतानी। तिहां पहली एक-संथूई, बीजी बि-संथूई, त्रीजी त्रि-संथूई - इम सातइ सात-संथूई । ते राजभवनि आणी, परीअछि बंधावी, माहि राखी । तेतलइ विद्धांस आविउ, काव्य कहियां । जक्खाइ जेतलइ एक वार सांभल्या तेतलइ जक्खाई राजा देखतां पाठ दीघउ । इम साते पुत्रीए अनुक्रमिइ पाठ दीधउ । ए वात जाणी राजाई दान वररुचिनइ निषेधाबिउ । राजा प्रधान प्रति कहइ, 'तिहि जि वर्णव्यां तु मई दान दोधडं।' पछड वररुचि पंडित गंगानइ तटि कपटयंत्र मांडी प्रभाति लोक देखतां कहा, 'हे मात । जु राजा दान न दिइ तु मात तू दिइ ।' इम कही जेतलइ पाणी-माहि यंत्र-ऊपरि पग आहणइ तेतलइ अठोत्तर सउ दीनारनी गांठडी बाहरि पडइ । ते गांठडी सर्व लोक देखता लिइ । इम ले वात प्रसिद्ध हुई । कांई सुप्रयुक्त पाखंडइ कउण कउण विप्रतारीइ नहीं ? हिवइ ए वात राजा आगलि पणि कुणहि एकि कही, 'स्वामी ! गंगा अठोत्तर सउ दीनार दिइ छड ।' राजा । वात साची मानी, कांइ राजा बलद पाणी ए जिम वालीई तिम वलई । इसिई शकडाल प्रणाम करी कहइ, 'स्वामिन ! प्रभात समइ आपणपे जईइ ।' ए वात राजाई पडिवजी । तिसिई संध्याई महतइ जण मोकली वररुचि पंडितनी मूकी छानी गांठडी अणावी । पछइ प्रभाति राजानड संघाति लेई नदीनइ कांठइ आव्या। तेतलह वररुचिई राजा देखतां नदीना अठोत्तर सउ काव्य करी स्तवी, गंगानइ प्रार्थइ, 'माता ! राजा नापइ, तूं आपि' । इम कही पग यंत्र-ऊपरि आह पणि जे महतह कपट करी ग्रंथि लीधी, तेह-भणी कांई न पडइ। इम वार वार पग आहणता को देखता जि शकडालइ आपणी बगल-हूंती गांठडी काढी राजानइ हाथि आपी. कहिवा १. A. लाछलदे । २. K. आवडइ । ३. L. K. संथी । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित लागउ, 'स्वामी ! ए पाखंड आगइ मइ जाणउं हूत उ, पणि आज मइ तुम्हनइ कहिउँ।' पछई वररुचिनी माम गइ । गांठडी वररुचिनइ दीधी । राजा घरि आविउ । व वररुचि सापनी परिइ शकडालना छिद्र जोइ । इम अन्यदा राजाना घर इकडी नेसाल मांडी। तिहाँ मुहताना घरनी दासो एक पंडितिइं आवर्जी। ते-कन्हलि मुहुतानी सर्व वात पूछतां अनेरइ दिहाडइ मईतानइ घरि सिरोआनउ वीवाह मंडाविउ । आपणइ घरि जिमाडिवा. भणी छत्रीसइ कारखाना करावोइ। छत्र, चामर, जरहि, जीणसाल, वाजिन नवानीपजाइ छई। एहवा वररुचि पंडित अवसर लही, सूखडीइं बालक आवर्जी, एक लोक बालकनइ मुखि ऊचरावइ वेत्ति लोको मुढो यत्छकडालः करिष्यति । हत्वा नंदं नृपं राज्ये श्रीयकं स्थापयिष्यति । ए लोक बालक हीडतां फिरतां मुखि ऊचरइ । तिसिई ए लोक राजाइ गउखि बइठा सांभल्यउ । आपणा जण मोकल्या । शकडाल मुहताना घरनउ वरेत्र जोआवो, म.ने चोतवा, 'जे वात बालक ऊचरइ ते अलीक न हुइ । अनइ जउ मइ घर जोआविउं तु सा वी वात दीठी।' पछइ राजा मन-माहि डंस राखी रहिउ। प्रभाति महुतउ राजानइ जेतलइ प्रणाम करइ तेतलइ राजा ऊपराठउ हूउ । ए वात देखी शकडाल घरि आवी, सिरीउ तेडा, कहिव लागउ, 'वत्स! सांप्रत कुणिहि कि अलीक बोली राजा सकोप कीधउ | तु आज आपगइ कुलि उत्सात दोसइ छ । पणि जु हूँ मरउं तु उत्पात टलई। ते-भणी प्रभाति हु राजा-समीप जई जेतलइ प्रणाम करउं तेतलइ तूं मस्तक-छेद करे ।' ए वात सांभली सिरीउ कहइ, 'तात ! ए वात मइ न चाल ।' तिवारड शकडाल कहइ. 'एक वृद्ध मुझनइ हणी आपणउं कुल ऊधरि । ई तालपट विष खाउ छउं । तूं पवाडउ लेजे ।' इम मोटइ कष्टि समझावी, गजा समापि आवी. जेतलई प्रणाम करइ तेतलई वली राजा ऊपराठउ हूउ । तिसिई शकडालि विष मुखि घातिउं, तेतलइ सिरीई खांडइ करी पिताना मस्तकनउ छेद के धउ। राजा 'हा हा' कतिउ सिरीआनई कड्इ, 'ए तई सिउं कीघउ तेतलइ सिरीउ कहई, 'स्वामी! तोणइ सोनइ सिउ को जइ जीणई कान टइ ए वात सांभलो राजा तूठउ, प्रधाननी मुद्रा देवा लागउ। तेतलइ सिरीइ कहिउं. 'माहरउ वडउ बांधव थूलभद्र वेश्यान्इ घरे छइ, ते उदय नइ अस्त जाणतउ नथी । वेश्यानइ धरि बार कोडी सुवर्ण विलसी। एहवउ थूलभद्र तेडावि मुद्रा दिउ ।' पछइ राजाई ते थूलभद्र तेडाविउ, पितानउ मरण कहिउँ अनइ कहिउं, 'राजमुद्रा लिउ ।' तिमई थूलभद्र कहइ, 'विमासउं।' पछइ राजाई कहिउं, 'अशोकवन-माहि जई विमासि ।' पछइ थूलभद्र चीतवई'तां संसारनउ स्वरूप अति असार जे पिता मूउ मई न जाणिउ। तु हिवह ईणह अधिकारि सरि' इम विमासी 'करेमिभंते' अरिहंत-सिद्ध-साखि जेतलई ऊचरइ, माथइ लोच करइ, तेतलई देवताए वेस दीधउ।ते पहिरी राजा-समीपि आवि धर्मलाभ कही न नीकलिवा लांगत। तेतलह राजाई कहिउँ, 'ए सिउं?' तिवारइ मुनिइ कहिउँ, 'इम जि विमासिउं ।' पछइ थूलभद्र नीकालेउ । राजाइ जण मोकल्या, 'जोउ किहां जाइ? तेतलई जिम अंतिजनउ पाड परिहरोई तिम वेश्यावाडउ परिहरी श्री-संभूतिविजय आचार्य-समीपि दीक्षा लीधी । इसिइ राजाई सिरीआनई प्रधान-मुदा दोधी । सिरीउ घरि आवी विमासइ, 'ए तां सर्व विलसित वररु.चन कोउं । तु पितानउ वयर किम वालीसिइ ?' इम विमासी कोशानइ घरि आव थूलभद्रनो कथा मांडी। जिम टंकणखारि सुवर्ण गलइ तिम सिरीयानइ वचनि कोशानउ मन भेदिउं । तिसिइंसिरीउ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध कहइ, 'जे थूलभद्र घर छोडइ ते वररुचिनउ विलसित । तु ए वयर ताहरइ सानिधि वलइ ।' इम कहइ कोशा हसीनइ कहइ, 'ते किम? सिरीउ कहइ, 'ताहरी बहिन साथि वररुचिनइ संबंध छह । अनइ ते-पाहि तेहनइ मदिरापान करावीइ ।' ए वात तीणइ पडिवजी । पछइ सिरीउ घरि आविउ। हिवइ वररुचि अनइ राजा सदाइ एकइ आसनि बइठा वात करइ। इम एकदा सिरीइ अवसर लही राजा वीनविउ 'स्वामिन ! भंडारि तेवडा धन नही ।' तिसिइ राजा कहइ, 'जां गडाल हंतउ तां लगइवांक कांई न हंतउ ।' तिवारई सिरीउ कहइ, 'स्वामी! ते 'मद्यपानी वररुचि ब्राह्मणि फोकट बालकनइ मुखि लोक भणावी तुम्हारउं मन विप्रतारिउ ।' राजा कहइ, 'ते वररुचि बांभण, किम मद्य पीइ ?' तिसिई सिरोउ कहइ, 'स्वामी ! प्रभाति ए कउ. तिग देखाडीसिई।' पछई माली एक आपणउ विश्वासी तेडी तेहनइ सीखवी सिरीउ प्रभाति सभामाहि आविउ । वररुचि पणि आविउ । सामंत मंडलोक सर्व आया। तेतलइ मालीइ कमल आणी राजादिक लोकनइ आप्यां, अनइ मयणहल-भावित जे छइ कमल ते वररुचिनइ पणि हाथि दीघउ । सह को कमल सूंघिवा लागा । तिवारंइ वररुचि पणि ते कमल इंघिउं । ते मयणहल-परिमलनइ प्रमाणि वररुचिनइ वमन हउ । तिसिई सभा-हंतउ नीकलिउ । पणि मदिरा गंधावा लागी जे कोशानी बहिनि पाई हूंती। ते वात राजादिक सघले लोके जाणी। पछई वररुचि तातडं कथीर पीधउं, शोधि होवा भणी। मरण पामउ । इम सिरीइ वयर वालिडं। पछइ सिरीइ सतांग राज्य आक्रमिउ । सर्व मुद्राई प्रधानपद भोगवइ । एहवइ श्री-थूलभद्र द्वादशांगी भणी गुरु-समीपि रहइ । इसि वर्षाकाल आव्यउ । त्रिहुं महात्माए गुरु वीनव्या । एक कहइ, 'च्यारि मास. उपवास करी, सीह-गुफानइ द्वारि ऊभउ काउसग्ग करिसु ।' बीजउ साधु कहइ, 'दृष्टीविष सापनइ बिलनइ द्वारि, च्यारि मास उपवास करी काउस्सग्ग करिसु। त्रीजउ साधु कहइ, 'कूआ-ऊपरि अधविचि काष्ट छइ, तिहां च्यारि मोस काउसग्गि रहिसु ।' तिसिइ गुरे श्रुतज्ञाननइ बलि जाणी आदेस दीधउ । तेतलइ थूल-. भद्र पणि गुरुनइ कहइ , 'हूं कोशानइ घरि छ्इ रस जिमतउ, चित्रशाली-माहि च्यारि मास रहिसु ।' इसिइ संभूतिविजय गुरे योग्यता इंद्रिय-जयन। जाणी आदेश दीधउ । पहिला त्रिण्णि महात्मा आपणइ आपणइ ठामि जई काउस्तग्गि रहिया । थूलभद्र कोशानइ घरि जई धर्मलाभ कही, कोशानी चित्रशाली मांगी थूलभद्र चउमासि रहिउ । तिहां छ रसमइ आहार विहराविउ । पछइ वेश्या नवा नवा वेस पहिरी नव नवे हावभाव-कटाक्ष-क्षेपे वचन-विलासे नव नवे भंगारे श्री थूलभद्रनइ खलभलावइ । पणि लगारइ क्षोभ न पामइ। जिम जातिशुद्ध हीरउ लोहि भेदीइ नहीं तिम थूलभद्र न भेदीइ । पछइ कोशा आवी पगे लागी, 'स्वामिन ! पूर्व-परिचयलगइ मइ अपराध कीघउ । हिवइ ते अपराध खमउ ।' पछइ थूलभद्रइ तिम ते प्रतिबोधी जिम श्रावकउं धर्म आदरिउ अनइ अभिग्रह लीधउ - राजदत्त पुरुष टाली अनेरा पुरुषनउ नेम । इसिइ वरसालउ संपूर्ण अतिक्रमिउ। तिणि महात्मा आपणा आपणा अभिग्रह पूरी जेतलई गुरु-समीपि आव्या तेतलई गुरु कांइ एक आसन-इतु ऊठी, 'दुक्करकारक आवउ' इसिउं कहिउं । तेतलइ थूलभद्र आविउ । तेहनइ गुरु ऊठी बहुमान देइ, 'दुक्कर-दुक्करकारक आवउ।' १. K वररुचि ब्राम्हणि मद्यपानिइं । २. Pu. L. मीडहल, K. मीणहल । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ मेरुसुन्दरगणि-विरचित इणि वचनि महात्मा चीतवइ, 'ए मुहुताना पुत्र-भणी बहुमान दिइं गुरु ।' ते त्रिणि 'हिव आवतई वरसालिइ अम्हे पणि अभिग्रह लेसिउं।' इम अमर्ष हीआ-माहि वहता आठ मास मोटइ कष्टिइ गमाड्या। तेतलई वरसालउ आविउ । सिंहगुफावासी महात्माइ गुरु वीनव्या, 'भगवन ! वेश्यानइ घरि च्यारि मास हूं रहिसु । तप नियम करिसु ।' तिसिइ गुरे ज्ञानोपयोगिइं जाणी कहिउं, 'तई ए अभिग्रह नही पलिई ।' इम कहतां वारतां विचालइ सिंहगुफावासीइं अभिग्रह लेई, थूलभद्रनी स्पर्धा वहतउ उपको शानइ घरि पहुतउ । तिणि जाणिउं जु, 'ए थूलभद्रनी तुडिई आविउ छइ।' पछइ उदार स्फार श्रृंगार करी, महात्मा-समीपि आवी, हावभाव तिम करिवा मांड्या जिम क्षण एक-माहि महात्मा चूकउ । तपक्रिया सर्व मूकी। तिसिइ उपकोशा कहइ, 'धन आणि ।' महात्मा कहा, 'धन मुझ-कन्हलि नथो । तु उपकोशा कहइ, 'नेपाल देसि जा, तिहां नेपाल देशनउ राजा देशांतरीनइ एक रत्नकंबल आपइ छइ, ते रत्नकंबल सवा-लाख लहइ ।' पछइ ते महात्मा कामनउ वाहिउ वरसतइ मेघि नेपालदेस-भणी चालिउ | पंथ अवगाही नेपालदेसना राजानइ मिली, रत्नकंबल लही, वांस एक-माहि गोपवी, पाछउ वालिउ। पणि मन-माहि उपकोशानइ ध्याइ । इम आवतां पालि-माहि सूडानई वचनिइं महात्मा भीले' झालो खउलिउ । पणि कांड न देखइ । तिसिई मूकी दोधउ । तेतलइ वली सूडउ कहइ ‘लाख जाइ, लाख जाइ ।' इसि कह(? हि)इ वली महात्माना मुख-प्रमुख सर्व जोयां, पणि कांई न देखइ। तेतलइ पल्लोपति कहइ, 'अहो महात्मा ! अम्हे ताहरडं काई न लिउँ । पणि कहि, सूडउ साचउ कि कूडउ ?' तिवारई महात्माइ कहिउं, 'ए वांसनी लाकडी-माहि सवा-लाखनउ रत्नकंबल छइ ।' पछइ सत्य वचन-लगइ महात्मा मूंकिउ । हिवइ ते मुनि पंथ अवगाही, उपकोशानइ घरि आविउ । तेतलह उपकोशा पग धोती हूंती । तिसिइ महात्माइ ते रत्नकंचल आणि आगलि मूकिउ । एहवइ वेश्याइ ते कंबल लेई, पग लूही, खाल-माहि चांपिउं । तिवारइ मुनि कहइ, 'एहवउ बहुमूल्य कंचल हेलाई कादम-माहि तइ कांड घातिउं ?' तिवारई कोशा कहइ, 'ए कांबलानी केही वात छड ? जोइन, तई चारित्र रत्न हेलाई माहरइ विषइ किम गमाडिउं छ? कहि-न अल्प सुखनइ काजिइं अनंत सुख कांइ हारई ?' इत्यादि प्रतिबोध सांभली वैराग्य-लगइ कहिवा लागउ, न। तर ४भलउ तारिउ । हिव हूं गुरु-कन्हलि जई आलोयण लिउं छउं । तुझनह धर्मलाभ हु ।' तिसिइ उसकोशा पगि लागी कहइ, 'एतलउ अपराध मइं तुम्हारा प्रतिबोध-भणी कीधउ । ते तुम्हे खमज्यो ।' पछइ गुरु-समिपि आवी, पाप आलोई, तप तपिवा लागउ। इसिइ एकदा राजाई सार्थवाह एक आविउ हूंतउ तेहनइ कोशा दीधी। हिवइ ते कोशा सार्थवाह-आगलि सदा थूलभद्रना गुग वर्णवइ । ते गुगवर्णन देखो थूलभद्र-साथिई मन ऊतारिवाभणी सार्थवाह एकणि बाणि करी, सूतउ हूंतउ, आंबानी लूंची छेदी, बाणिई बाण सांधी, कोशानि हाथि लंच आपइ । आपणउ कुसलपणउं देखाडी, कोशाना मुख सामहउं जोइ । तेतलइ कोशा पणि सरिसवनउ थाल भरी, फूले ढांकी, ऊररि सूई मूंके, नाचिवा लोगी। पणि सईइ पग वौधागउ नही, अनइ फूल पणि खिस्पां नहो । एहवउ स्वरूप देखी सार्थवाह संतुष्ट वर्तमान कहइ, 'मागि, स्यू आपउं ?' तिवारई कोशा कहइ, 'मई सिउं देखाडिउं जे तुं रीझिउ १ जउ १. P सिवाय 'भीले नथी. । २. Pu. षेलि3 L. खालिउ P. झालिउ.। ३. K. हेलाई इम कांई खालि घालिउ । ४. P. L. K भलउ। ५. Pu. 'रषिउ' सुधारीने 'हरषिउ, L. P. रंजिउ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध दुक्कर वस्तु जोईइ तु थूलभद्रनी, जीणइ बार कोडि धन मुझ साथि परिहरी, एहवउ शोल पालिउं ।' इत्यादि श्री-थूलभद्रना गुण वर्णवतां पामी दीक्षा लोधी । कोशा वली आपणई अभिग्रहि रही । इस बार वरसी दुकाल पडिउ । तिणि साधु-संघ महा-कष्टिई दुकाल ऊतरिउ । पणि महात्मानइ गुणवानइ अभावि सिद्धांत वीसरिया । पछई श्री संघ पाडली पुरि नगरि सर्व एकठउ मिलिउ । जेहनइ जि कांइ मुखि आवत हूंत सर्व एकटउं करतां इग्यार अंग पूरा कां । पणि पूर्वनो विद्या जोईइ, तेह-भणी भद्रबाहु स्वामि-समीप, तेडिवा-भणी बि महात्मा मोकल्या | तिसिइ भद्रबाहु स्वामि कहइ, 'मइ तु महाप्राण ध्यान मांडिउं छइ । तिणि करी मइ नही अत्राइ ।' पछs महातमा पाछा आव्या । वही संधिई पूर्वना उद्धार-भणी बि महात्मा मोकली कहाविडं, 'जि को संघनइ न मानइ तेहनइ सिउ दंड ?' गुरु कहर, 'तेहनई संघ बाहरि कीजइ । ' इम कहिई, महात्मा कहई, 'तु तुम्हे जि संघ बाहरि था सिउ ।' इणि वचनि ससंभ्रांत श्री-भद्रबाहु स्वामि कहिवा लागा, 'संघनउ बोल माथा ऊपरि । पणि जु संघ मुझ ऊपरि कृपा करइ तु महात्मा प्रज्ञावंत जि को हुइ ते मोकलउ । तेहनई हूं सात वाचना देसु । इम संघनइ प्रसादिइं माहरउँ कान सीझइ अनइ महात्मा पणि भण्या जाई ।' इणि वचनि संघिई थूलभद्र - प्रमुख पांच सई महात्मा भणिवा मोकल्या | तिहां भद्रबाहु स्वामि- कन्हइ भणिवा लागा । ५५ भोगवी नइ हेलाई हूं ते सार्थवाह प्रतिबोध That कालि महात्मा भणतां भणतां ऊभगा । सर्व पाछा आव्या । एकलउ थूलभद्र तिहां रहिउ भणइ । इम भणतां भणतां दस पूर्व भण्या । तेतलई श्री थूलभद्रनी बहिन दीक्षा लेईनइ वांदिवा आवी । गुरुनइ पूछ्इ, 'भगवन ! थूलभद्र किहां ?' तिसिद्धं गुरे कहिउं, 'देवकुल-माहि सज्झाय गुणि छइ ।' पछइ महासती भाई वांदिवा तिहां आवी । तेतलइ थूलभद्रहं विद्यानहं बलि सिंहनउ रूप कीधउँ । महासती सीह देखी पाछी नाठी । तिहां जई गुरुनइ कहर, 'भाईनइ 'कुशल नही ।' तिसिहं गुरे उपयोग देई जोईनइ कहिउं, 'जाउ वांदउ । कुसल छइ ।' पछइ महासती हर्षी हुंती भाईनइ वांदी आगलि बइठी । तिमिइ थूलभद्र पूछ३, 'सिरीउ किहां ?" तिवारइ महासती कहई, " अम्ह साथिई दीक्षा लीधी । पणि लगारई भूख्यउ रही न सकइ । एकासणउं पणि न करइ । इम करतां पजूसण आविउँ । पछइ महासतीए सिरीयाभाईनइ पोरिसि करावी, पोरिसि पहुती, साढ पोरिसि करावी । इन करतां सांझ झालवी । पछइ महासतीए कहिउं, 'हिवइ राति पडी, प्रभात पारणउं करे ।' इम अर्धरात्रि वउलिई आकलउ हूउ । तिहां आराधनापूर्वक मरण पामिउ । प्रभाति ऋषि - घातना पाप लगइ महासती पारणउं न करइ । इसिइ संघ मिलिउ । सर्व वात संघआगलि कही । संधिदं वलतउ कहिउं, 'तुम्हनइ पाप न लागइ। कांइ तेहनइ तारवा-भणी तुम्हे उद्यम कीधउ ।' तुहइ महासती न मानइ, इसिउं कहइ, 'जउ वीतराग मुखि करी कहई तु पारण काउं ।' छह सर्व मंत्र काउसग्गि रहिउ । तिहां शासन- देवता आवी कहइ, 'कउण काज १' तिसिद्धं संघ कहइ, 'श्री - सीमंधर- स्वामिनइ पूछी आवड - 'महासतीनइ पाप लागउं कि ना ?' तेतलइ शासन- देवता कहइ संघन, 'तुम्हे काउसग रहउ, जिम हूं पूछी आवउं ।' महासनी कहर, 'अहे आपणइ मुखि पूछिसिउं ।' पछइ शासन देवताड़ करसंपुटि महासतीनइ लेई श्री - सीमंधर स्वामि- कन्हइ आणी । तिहां महासतीड वांदीनइ पूछिउं । तिसिहं स्वामी कहर, 'तू निर्दोषि ।' पछः स्वामीह शासन-देवता देखता चूलिका आपी । शासन-देवता यक्षा महा१. K. श्रीमुखिई । २. Pu. नर्दोषइ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित सतीनइ भरतक्षेत्रि लेई आची । तिहां संघनइ चूलिका आपी, श्री-सीमंधरस्वामिनउ वचन कहिउं । पछइ पारणउं सघले कीधउं ।” इत्यादि वात कही महासती उपाश्रयि पहुती । इसिई थूलभद्र वाचना-भणी आचार्य-समीपि आविउ । तेतलइ गुरे कहिउं, 'जा, तूं योग्य नही ।' तिवारइं जउ जोइ तु दिक्षा-दिन आरंभी, आपणउ अपराध न देखइ । पणि एक अपराध जे गुरुनइ अणकहइ सीहनउं रूप कीघउ, ते टाली अनेरउ अपराध नही । पछइ गुरुने पगे लागो आपण उ अराध खमावइ, 'स्वामिन ! ए आराध खमउ । वली अपराध नहीं करउ ।' गुरु कहइ, 'हिवर तूंह नइ व चना नही दिउँ ।' पछइ सर्व संघ मेली, गुरुनी रीस उपसमाविवा-भणी, पगे लागी रहिउ । तुहइ गुरुनी रीस उपसमइ नही । आचार्य कहइ 'अजी तइ समुद्र-माहि एक बिंदु भणिउं छइ, अनइ ते ही विद्या जरी नही, तु आगिलि विद्या किम जरिसिइ ?, पणि जउ संघ वली वली कहइ छइ, तु सूत्रपाठ कराविसु । पणि अर्थ नही कहउं ।' पछइ थूलभद्रनइ च्यारि पूर्व छेहि लां सूत्र-तु भगावी कहिउं, 'आज पछइ तूं दस जि पूर्व शिष्यनइ भणावे, पणि च्यारि म भणावेसि ।' पछइ श्री-थूलभद्र चउद-पूर्व-धर आचार्य-पदवी लही, एकणि नगरि मित्रनइ घरि आविउ । तेतलह मित्रनो भार्या साम्ही ऊठी, पणि दालिद्र-लगइ कांइ भगत करी न सकइ । तिसिई थूलभद्रि पूछिउं, 'ते 'सोम मित्र किहां गयउ ?' तिसिइं स्त्री कहइ, 'धननी आशाई देशांतरि गयउ छइ।' एवइ जूना घर-माहि थांभउ एक देखी एनलउ बोल कहिउ, “ए इम अनइ ते तिम। कहउ ए वातनउ किम ?' इसिउं कही आचार्य उपाश्रये आव्या । पछइ मित्र घरि आविउ। स्त्रीइं आचार्यना वचन कहियां । थांभउ देखाडि उ । पछइ सोमिई ते थांभउ ऊखेडी. भूमि खणी, सवा लाख द्रव्य काढिउं । इम श्री-थूलभद्रनां घणां अवदात छई। इम भविकजननइ प्रतिबोध देई, प्रांति अणसण लेई स्वर्गि गया। . इति श्री खरतरगच्छे श्रीजिनचंद्रसूरी विजयि वा० मेरुसुदरगणिना विरचितं श्री स्थूलभद्रचरित्रं समाप्तं ॥१९॥ हिवइ जे लोभ देखाडिइं शील-हूंता न चूकइ ते कहइ-- तं नमह वयरसामि सयंवरा रयणकोडि-सुसमिद्धी। अवगणिया जेण तिणं व सिट्टि धूआ पवररूवा ।। ४२ व्याख्या :- ते श्रीवयरस्वामिनइ नमउ । जिणि भगवति संयंवरि आवो रूपवंति स्त्री. रत्नकोडि तिणि करि सहित एहवी, धनसंचय श्रेष्टि तेहनी रुक्मिणी बेटी, अनुरागसहित आवी हूंती, जून तृगेनो परिई आगगी:परिहरी। ते जिम लोभि न गया तिम चीजे महापुरुषे स्त्री देखी लोभी न जाइव ।। हिव ते वयरस्वामिनी कथा कहीइ [२०. वज्रस्वामिनी कथा] ईगई भरतार्द्धि, अवंतीदेशि, तुंबवण संनिवेशि, व्यवहारीयानु पुत्र धनगिरि वसइ, पणि महा धर्मवंत । क्रमिई यौवनावस्थाइ आविउ । तेतलइ मानापिताए कन्या मागी धनगिरीनइ कीधइ । तिसिइ धनगिरि कन्याना पिताइ कहइ, 'तुम्हे कांई कन्या द्यउ छर ? हं तु दीक्षा लेसु ।' इसिइ धनपालनी बेटी नामिई सुनंदा ते कहइ 'धन गरि टालो पाणिग्रहण अनेथि न करडं ।' पछह १. K. सोमिल । २. L. सोमिले । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध अणईछतइ ति पिताई धनगिरि परिणाविउ । पणि थोडा दिन घरे रहिउ । तेतलइ पुण्यवंत जीव एक देवलोक तु चिवी सुनंदानी कूखइ ऊपनउ । तेतलइ धनगिरिहं दीक्षा लीधी श्री-सीहगिरि आचार्य समीप । पछइ पत्नीनउ भाई आर्यसमित महात्मा धनगिरिनइ सहाध्याइ हूउ । थोडे दिहाडे श्रुत सर्वं भणिउ । इसिई सुनंदा गर्भ धरती पूरे दिवसे पुत्र जन्मिउ सर्वलक्षण संपूर्ण । जन्म -कालि स्त्री गीत गाई, उत्सव करई, पणि मुखि कहई', 'आज बालकनउ पिता दीक्षा न लिअत तु जन्म महोत्सव विस्तारि करत । स्त्रीइं भलीई स्यूं चालइ ?' ए वात बालक सांभली चींतवर, 'दीक्षानउ नाम मइ किहाइ सांभलिउ छइ ।' इम ईहापोह करतां जातीस्मरण ऊपनउं, पूर्व भव दीठउ । पछइ बालक चतवइ, 'माहरा गुणरूप जउ ए देखसिइ तु माता दीक्षा लेवा नही दिइ । ' इम विमासी बालक रोवा लागउ । रात्रि नइ दिवस रोतउ जि रहइ । राखिउ इ रहइ नही । पछइ माता ऊभगी कहइ, 'जिम ताहरउ बाप गयउ, तिम तूं पणि जा । इम कहतां छ मास गया । तेतलइ घनगिरि श्री. सीहागिरि आचार्य साथि आर्यसमित सहित आव्या । पछइ धनगिरि गुरुनइ वांदीनइ कहइ, 'स्वामिन ! जउ आज्ञा हुइ तु संसारीयां वंदावी आवउं ।' पछइ आर्यसमित सहित धनगिरि जेतलई गुरुनई प्रणाम करी नीकलिउ, तेतलई गुरे कांई सउण विचारीनइ कहिउं, 'आज तुम्हनइ मोटउ लाभ होसिइ । तुम्हे सचित्त अचित्तनउ निषेध म करिज्यो । पछइ 'तह त्ति' करी सुनंदानइ घरि जई धनगिरि 'धर्म - लाभ' कहिउ । तेतलइ सखीइ जि कहिउं, 'हे बहिनि ! धनगिरि आविउ छइ । तूं कहिती बेटउ बापनइ आपिसु तु आपि । ' सुनंदा पणि ऊभगी हूती घनगिरिनह कहइ, 'आपणउ पुत्र लिइ । जिम तूं गयउ तिम पुत्र लेई जा ।' पछइ धनगिरिइं साखीया कीधा, मतउं लिखाविउ । पछइ सुनंदा बिहुं हाथे पुत्रनइ लेई कहिवा लागी, 'एतलड काल मइ पालिउ, हिवs तूं पालि । इम कही पुत्र दीघउ । वली घनगिरिइ कहिउं, 'हिवडां तू रभसपणइ आपइ छइ, उता करे ।' सुनंदा कहइ, 'माहरइ खप नथी ।' इम कही बालक झोली-माहि मूंकिउ, तेतलइ शेतउ रहिउ । पछइ बेहू महातमा पोसालइ आव्या । तेतलइ गुरु साम्हा आवी कहिवा लागा, 'झोली भारे छइ, अम्हनइ आपि । तु वीसामउ लिइ ।' पछइ धनगिरि गुरुन झोली आपी । ते माहि ते बालक- रत्न देखी गुरु कहइ, 'माहि किसिउं वज्र छइ, जे एass भार ?' इम कही वली बालकना मुख सामहुं जोई कहिवा लागा, 'ए बालक मोटउ युगप्रधान होसिइ । ए यत्नइ करी राखिजो ।' तिहां वज्रसार' एहवडं नाम दीघउं । पछइ बालक महासतीनइ समोपिउ, कहिउं, 'रूडी परि राखिज्यो ।' महासतीए सिज्यातर श्राविकानइ भलाविउ । ते स्त्री बालकनइ धवारइ, पालइ, लालइ, नानाविध क्रीडा करावइ । एक स्नान करावइ, एक आंखि आजइ, एक स्तन्यपान करावइ । इम सर्व आपणी आपणी भक्ति करतां ते art- बालक तिम किमइ बोलाइ चालइ, जिम सर्व संघ प्रमोद पामइ । हिव सुनंदा ते वयरबालकनs देखी लोभ-लगी श्राविका प्रतिइ कहइ, 'ए तु माहरु पुत्र, मुझनइ आपउ ।' पछइ श्राविका कहइ, 'ए गुरुनी श्राणि छइ, अम्हे नही आपउं ।' इणि वचनि सुनंदा शाखा - पतित वानरीनी परिहं निरास हुई । तुहर पुत्रना स्नेह - लगइ किवारइ किवारइ आवीनइ धवारइ, किवारइ आपइ उत्संगि धरइ । १. Pu. वज्रकुमार । ५७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित इसिइ अचलपुरनइ समीपि नदी एक बिहुं भागे थई । ते-माहि बेट एक' छइ । तिहां तापस वसई । तेह-माहि एक तापस पादलेप-विद्या जाणइ । ते सर्व तापसनइ पगि पादलेप करी लोक देखता जि पगि करी नदी ऊतरइ । लोकनइ महा विस्मय ऊपजइ । पछइ घणा लोक तापसनी महिमा देखी भगत थया । पछइ ते लोक श्रावकनई कहइं, 'तुम्हारइ शासनि कोई एहघउ छइ कि ना ?' तिसिई श्रावक अणबोल्या रहई । इम करतां अन्यदा प्रस्तावि वयरस्वामिना माउला श्री-आर्यसमित आचार्य तिहां आव्या । श्रावक सर्व वांदिवा आव्या । गुरे पूछिउं, 'समाधि छइ १ तिसिइ श्रावक कहई, 'आज-कालि तापसनी महिमा अधिकी छइ । तिणि करी तापसना भक्त जे छई, ते श्रावकनइ हसई छई ।' पछइ गुरे ज्ञानबलिई तापसनउ पादलेप जाणी जे सम्यक्त्वधारी श्रावक हूंता, ते तेड्या । कहिउँ, 'आज तुम्हे पारणउं करवा-भणः तापसनइ घरि तेडउ पछइ श्रावक प्रभाति अई तापस निहंतरिआ। लोके जाणिउं-तापसे श्रावक पालटया। पछइ सर्व लोके परवर्या तापस श्रावकनइ घरि आव्या । तेतलइ श्रावके दूध आणी झांबडा लेई तापसना पग धोवा मांड्या । तिम किमइ जेहवां पुष्करनां पत्र हुई तेहवा कीधा । पछई चंदनई करी लिप्या । इम करतां तापसनां मुख श्याम हुआं । भोजन वीसरी गया। पछई भोजननइ अंति सर्व तापस लोके परिवयाँ नदीनइ कांठइ आव्या । ते तापस पादलेप-पाखइ पाणी-माहि बूडिवा लागा । तेतलइ लोकनां सहश्र हाथि ताली देता कहइं, 'एतला दिन अम्हे लेपनइ बलिई भोलवी वंच्या ।' तिसिइ नगरनउ राजा तिहां आविउ । तेतलई गुरु पणि तिहां आव्या। ते तापसनी अपभ्राजना देखी सर्व लोक देखतां नदीनइ कहिउं, 'अम्हे पेलइ पारि जासिउं । तू माग मूकि ।' इम कहतां नदी बि-खंड हुई । राजा, तापस, गुरु सर्व पेलइ पारि आव्या । तिहाँ तापसे एवडी गुरुनी शक्ति देखी दीक्षा लीधी। तेहनई केडइ नइ ब्रह्मद्वीपी साखा नाम हूउं । इसिई वयर-बालक त्रिहु वरसनउ हूउ । तेतलइ धनगिरि-प्रमुख साधु तुंबवण-संनिवेसि आव्या।। तेतलइ सुनंदा आवी कहइ, 'माहरी थापणि आपउ।' तिसिइं धनगिरि वह इ. 'ए वात हिव म कहेसि । तहीइं तां ग्वाही-साख आ कीधा छई। हिवइ तूं मागती लाज नहीं?' सुनंदा कहइ, 'आपणी वस्तु मागतां सी लाज ? हूं माहरु पुत्र लेसु ।' इम विवाद करतां राजभवनि जई सकल श्रीसंघ धनगिरि सह जिमणइ पासइ राजानई बइठा । अनइ सुनंदानउ पक्ष तु राजानइ डाइ पासइ बइठउ । भोजराजा बिहुं पक्षना वचन सांभली कहिउं, 'ए विवाद मइ न भाजइ, पणि जेहनउ तेडिउ बालक आवई' ते लेवा लहइ ।' ए वात चिहुं पासे मानी । तेतलइ सुनंदा कहइ, 'पहिलङ हूँ बालकनइ तेडिसु ।' इम कही सूखडी, खेलणा, चित्रगत पाटी, साकर, टोपरां, खारिक इत्यादि सखडी लेई सुनंदा कहइ, 'वत्सं! एक वार आवि । ए सर्व तूं लिइ। वली घणी सूखडी ण वचनि वयर चीतवइ, 'यद्यपि माता लोपी न जोईइ. पणि हिवडां जउ मानइ मानिसु, तु संघनी अवहीलना होसिइ।' इम चीतवी माता सामहुन जोयउं। तेतलइ धनगिरि श्रीसंघ देखतां रजोहरण हाथि लेई कहिउ, 'बालक! अम्हारइ तु ए धर्मध्वज ओघउ छई। जउ वांछा हुइ, तु आवि।' तेतलह वयर-बालक ऊलाला करी आघइ विलगउ । सकल श्रीसंघनइमनि उत्साह ऊपनउ । तेतलह सुनंदा क्षण एक विलाप करी कहिवा लागी, 'पहिलउ तां भाईइ दीक्षा लीधी । पछद भरतारि १. L एक कन्यापूर्ण, Pu. कन्यावर्ण । २. K. तापसनु । ३. K. तेहनु बालक हुई । ४. Pu. लेषणी । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध ५९ दीक्षा लीधी । पछइ वली पुत्रिई दीक्षा लीधी । तु हिवइ हूं घरि रही स्युं करउं ? मुझनइ पणि दीक्षा दिउ ।' पछइ श्री - सीह गिरि-सूग्निइ पादमूलि दीक्षा लीधी । पदानुसारिणी प्रज्ञाई श्री वयर पालणइ पउढिइ महासतीना मुख- इतु इग्यार अंग अणाव्यां । अन्यदा गुरु वयर बालक आठ वरसनउ संघाति लेई अवंती-भणी चाल्या । तेतलइ अंतरालि मेघ आविउ । ते अपकायना निषेध-भणी यक्षन भवनि रह्या । तेतलइ वयरना भवांतरी मित्र देवता वयरनी परीक्षा भणो मंद वृष्टि विकुर्वी, संघात एकनी रचना करी, देवता श्रावकनइ वेषि आवी आचार्य वीनव्या, 'स्वामिन ! वयर बालक वहिरवा मोकलउ ।' गुरे जेतलइ मोकलिउ, तेतलइ अंतरालि मेघ आयउ । वली मेघ संहरिउ । वलो गुरुनइ आदेशिइं वयर आप बीजी वार आवस्सही करी नीकलिउ । जिहां संघात छइ तिहां जउ आवइ, तु एक जूनउ तृणान छापरउं देखइ । तेह-तलइ अनेक शालि-दालि-कोहलानां व्यंजन देखी वयर बालक चींतव द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावनई मेलिहं, 'ते द्रव्य जे शालि रांधी छह, ते तु हिवडां नीपनी न हुई । क्षेत्र जउ जोईइ तु ए वाट ऊजेणीनी-इहां एतली सामग्री किहां ? काल जउ जोईइ तु कोहलानउ ए काल नही । भाव जठ जोईइ तु देणहार श्रावक आंखि मेषोनमेष नथी करतां । तु इम जाणीई छइ, ए देवता घटइ । तु देवतानु पिंड महातमानइ न कल्पइ । ' इम चींतवी जेतलइ पछिउ वलइ तेतलइ देवता पगे लागी, खमावी, वैक्रियलब्धि देई अदृश्य हुआ । ए वात सांभली गुरु चमत्करिया । वली तेह जिं जृंभक देवता वणिक-रूप जेष्ठ मासि घृतपूर वयरनइ देवा लागो । तिहां पणि देवपिंड जाणो पाछउ वलिउ । तेतलइ देवता प्रकट हुई आकाशगामिनी विद्या देई अदृश्य हुआ । इम वयर बालक जे जे महातमा सिद्धांत भणइ ते ते सर्व सिद्धांत जलोनी परिइ संग्रहइ । इम एकदा गुरु बहिर्भूमिकाई पहुता । वयर चालक एकलड पोसालइ चींतवइ । तेतलई बालकस्वभाव-लगइ उपधि सर्व आप पाखती मूंकी, वाचना देवा लागउ । तेतलइ गुरु आव्या । तिहां बालकनी वाणी सांभली बारणइ छाना रहीनइ सांभलइ तु इग्यारह अंग बालकनई मुहडइ अस्खलित आवडतां जाण्यां । मनि हर्ष्या । पछइ गुरे संचल कीधउ । तेतलइ वयरि उपधि सर्व जूजूई मूकी गुरुना पग पूंजिवा सामहउ आयउ । गुरे पछs महात्मानइ जणाविवा-भणी आसन्न एक गाम छइ तिहाँ भणी चालिवा लागा । तेतलइ महातमा आवी कहई, 'भगवन ! अम्हनइ वाचना करण देसिइ ?' तिसिहं गुरे कहिउं, 'ए वयर बालक तुम्हनइ वाचना देसिइ ।' इम 'तहत्ति' करी मानिउं । पछइ प्रभाति बइसणउँ वयरनइ मांडिउ । तिहां बइसारी वाचना मांगी । तेतलइ वयर विधिवत् वाचना देवा लागउ । जे शिष्य परीछता नही, ते-हू परीछिवा लागा । जे गुरु मासे वाचना देता, ते वर एकइ दिनि दिइ । तिसिइ महात्माए चींतविउ, 'जइ गुरु मउडेरा आवइ, तु अम्हारइ भगवं वारु चालइ ।' इम करतां गुरु आव्या । महात्मा पूछया जु, 'वाचना चालइ छइ ?' तिसिह महात्मा सर्व गुरुनइ वीनवई, 'स्वामिन ! ए जंगम सरस्वती भंडार । एतला दिन अम्हे न जाणिउं । जे अम्हे अवज्ञा कीधी, ते खमउ ।' पछइ गुरे कहिउं, 'तुम्हनइ जणाविवा जि भणि अम्हे चाल्या हूंता । ' पछs वाचनाचार्यपद देई महात्मा भणाविवानु आदेस दीघउ । आचार-कल्प वयरनइ गुरु भणावइ । जेतलउ गुरुनइ दृष्टिवाद आवतड हूंतउ, तेतलउ सर्व वयरनइ भणाविउ । पछइ गुरु दसपुर आया । तिहां वयरनइ कहइ, 'वत्स ! दसपूर्वघर श्री भद्रगुप्तसूरि अवंतीइं छइ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित ते-कन्हलि तेहवउ कोइ शिष्य नथी, जे पूर्वनी विद्या लिइ । ते-भणी तूं ऊजेणीइ जई दस पूर्व पुरा भणि। जिवारई दस पूर्व पुरा थासिई, तिवारिइं शासन-देवता सांनिधि करिसिइ ।' ए वात श्री-वयरिइं पडिवजी, ऊजेगि-भणी चालिउ, पंथ अवगाही सांझइ ऊजेणीइ आविउ । प्रभाति गुरुनइ वांदिसिइ एहवइ । पाछिली रात्रिइं श्री-भद्रगुप्तसूरि सउणउं देखइ जु, 'कोई परहुणउ आवी, अम्हारा हाथ-हंतउ खीरनउ पंडगह लेई पीई, तृप्ति पामी।' इसिउं सुहणउं सज्झाय करतां महात्मा-प्रतिइं गुरु कहइ जु, 'आज कोई आपणइ परहुणउ आविसिइ, ते अम्हारी सर्व विद्या लेसिइ।' इम वात करतां प्रभाति श्री-वयरस्वामि आव्या । गुरुनइ वांदी आगलि बइठा। तेतलइ गुरे अति बहुमानपूर्वक संयमनइ विषयि कुसल पूछिउं । वली पूछिउं, 'श्री-सीहगिरि-सूरिना चरण-कमल मूंकी ईहां किम आव्या ? तेतलइ वयर विनयपूर्वक कहइ, 'श्री-गुरे तुम्ह समीपि दश पूर्व भणिवा-भणी मोकलिउ छउं। ते पूर्व तुम्ह कन्हइ छई, अनेथि नथी। एह भणी प्रसाद करी मुझनइ भणावउ।' पछइ वयर गुरुनइ प्रसादिई, सिद्ध-सारस्वत-चूर्णनइ प्रमाणिइं दस इ पूर्व थोडा काल-माहि भण्या । पछइ श्री-भद्रगुप्त-सूरिनइ आदेसिइ दस पूर्वनी अनुज्ञा पामी, दशपुरि आवी श्री-गुरु प्रणम्या । तिसिई श्री-सीहगिरि-सूरि वयरनइ संतुष्ट-वर्तमान आचार्यपद देई गणनी अनुज्ञा दीधी । तिणि अवसरि बुंभक-देवताए महा-महोत्सव कीधउ, आकासि-इंतु कुसुमनी वृष्टि कीधी। श्री-सीहगिरि-सूरि चारित्र पाली अणसण-पूर्वक मरण पामी स्वर्गनइ भाजन हुआ। हिवइ श्री-वयरस्वामि पांच सइ माहात्माए परिवर्या जिहां जिहां विहार करइ, तिहां तिहां श्रावक संघ नवनवा महोत्सव करई । इसिई श्री-वयरस्वामिनी महासती पाडलीपुरि नगरि धनश्रेष्टिनी यानसालाई आवी रही । तिसिई ते विवहारीआनी पुत्री रुक्मिणी महासती-कन्हइ भणइ, महासती-कन्हइ बइसइ । तिसिइं महासती श्री-वयरना गुग वर्णवइ । रूप-लावण्य विद्या वर्णवतां रुक्मिणीनह अनुराग वयरस्वामि-ऊपरि हूउ । पछइ प्रतिज्ञा करइ, 'मुझनइ इणि भवि वयर जि भरतार ।' तिवारइ महासती कहइ, 'ते तु नीराग निस्पृही, काम-हूंता विरतां छई । तेह ऊपरि ए मनसा म करेसि ।' पछइ रुक्मिणी कहइ, 'हिवइ तां वयरना पग शरणि ।' ते रुक्मिणीनह चित्ति वज्रलेपनो परिइं वयरनउं नाम रहि । अन्यदा पाडलीपुरि श्री-वयरस्वामि विहार करता आया । तिहां नगरना लोक सर्व वांदिवा गया । राजा पणि वांदिवा आविउ । तिसिइ गुरे विद्यानइ बलिई आपणउ रूप सउ महात्मानइ विपर कीघउं। पांच पांच महात्माए संघाडउ कीधउ अनइ संघाडइ संघाडइ वयरस्वामि जजआ दीसह । तिवारई लोक, राजा सहू विस्मयापन्न, महात्मानइ पूछइ, 'तुम्ह-माहि श्री-वयरस्वामि कउण?' तिवारइ महातमा कहई, 'जेहनइ महांत तेज, ते जाणिज्यो वयरस्वामि ।' इम सर्व महात्मा आव्या । पणि अजी ओलखी कोई न सकइ । तेतलइ क्यरस्वामि विद्याबलिई अपूर्व रूप करी नगरनइ परसरि आवी धर्मापदेस देवा' मांडिउ । तिसिइ राजादिक लोके गरु ओलख्या । सघले वांद्या । पछइ धर्मेनउ उपदेश सांभली सहू आपणइ आपणइ स्थानकि पर अंतेउरीए ते आचार्यनो रूपसंपदा सांभली, राजानइ कही गुरुनई वांदिवा आवी । तिसिइं साकमणी पितानइ कहइ, 'तात ! ए वयरस्वामि आविउ छइ, अनइ मह तु एहवी प्रतिज्ञा कीधी छइ जउ, इणि भवि वयर भरतार । तेह-भणी चालउ जोई आवीइ । जाए त देशांतरी छ । ऊठी अनेथि जासिइ । पछइ मुझनइ आगि जि शरणि हसिइ ।' का सांभली धनश्रेष्ठि रुक्मिणीनइ साथिई सउ कोडि धन लेई, अनेक वस्त्र-अलंकार १. Pu.पडघलु, K.पडघु । २. Pu. K. देवउ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला -- बालावबोध ६१ संघातिई लेई श्री - वयर - समीपि आविउ । तेतलइं श्री वयरि स्त्रीना चित्तनउ क्षोभ निवर्त्ताविवा-भणी सामान्य रूप कीधउ । तिवारई सर्व लोक कहिवा लागा, 'एवडा अतिशय, एवडी विद्या, पणि विधात्राएं रूप न कीधउं ।' तेतलइ भगतना चित्तनई हर्ष ऊजाविवा-भणी वली स्वाभाविक रूप कीधउं । पछइ धर्मोपदेश श्री-वयरस्वामिई दीघउ । इसिइ धन मन-माहि चींतवइ, ' माहरी पुत्री धन्य, जीणइ एहवइ ए स्थान कि अनुराग कीधउ छइ ।' इम कन्यानइ दानिइ, वरनइ ध्यानिह गुरुनी देशना धन न सांभलइ । तिसिह देसनानइ अंति धन गुरुनइ वीनवर, 'स्वामिन ! ए रुक्मिणी पुत्री तुम्हारा गुण स्मरती एतला दिन रही, पणि हिवइ पाणिग्रहण करी मनोरथ सफल करउ । नही तु अग्नि-सरण करिसिइ । एहनइ घणाइ वर आल्या, पणि ताहरइ सोभाग्यह करी रुक्मिणोइ सर्व वरनउ निषेध कीधउ । तेह-भणी हाथ 'मेल्हावण'इ सउ कोडि धन हूं आपिसु । पणि हिवइ पाणिग्रहण करि ।' तिवारइ वयरस्वामि कहइ, 'अहो धन ! कल्पवृक्ष मूंकि एरंडउ कउण आश्रइ ? चिंतामणि परिहरी काच कउण लिइ ? तिम चारित्र परिहरी धन अन कन्या उण आदरइ ? ए भोग विष-समान, जेह-लगइ चिहुं गतिना दुक्ख पामीइ । ए तु धन अनइ स्त्री नरगनउ कारण । अनइ जे चारित्र, ते मोक्षनउ कारण । जउ एहनउ अनुराग साचउ छइ, तु चारित्र लिउ, जेह-लगइ अनंत सुख पामीइ ।' इत्यादि श्री - वरना वचन सांभल रुक्मिणी चारित्र लीधडं साचउ सनेह पालिवा-भणी | तिम घणे श्राव के दीक्षा लीधी । इसिइ श्री - वयरस्वामिनइ जृंभक - देवताए आकाशगामिनी विद्या दीधी । ते विद्यान बलि वयर अगंजनीय हुउ । इम श्री वरस्वामि विहार करतां, प्रतिबोध देतां, सुखिई रहई छई । इसिई बार - वरिसी दुक पडिउ | माता बेटानउ वेसास न करइ, पिता पुत्रनइ न वीससइ । एहवइ दुकालि श्री - संघिइं गुरु वीनव्या, 'स्वामिन ! हाथीइ चड्यां जउ स्वान भसई, तु किम सोभइ ? तिम तुम्ह सरीखा गुरु, अन श्री संघ दुकालि दुखो थाइ ए वात शोभती नथी । पछइ श्री-वयरस्वामि चक्रवर्तिनी परिइं पट विस्तारी, संघ सर्व बइसारी, विचि आपणपे बइठा । विद्या स्मरी हूंकारउ जेतलइ मूकिउ, तेतलाइ पद आकाश चालिउ । तिसिइ दत्त नामा ब्राह्मण शय्यातर कण मांगिवा-भणी गयउ हूंतउ । एहवइ श्री वयर आकासि जाता देखी ऊंचइ सादि कहिवा लागउ, ' एता दिन शय्यातर डूंतउ, हिव साहम्मी थाउं छउं । मुझन कांइ मूंकउ छउ ? ए वचन सांभली श्री-वयरिहं दयालगइ ते-हू पटि बइसारिउ । पछइ पवनवेगि पट चालिउ | ते पट श्री संघनइ विस्मय ऊपजावतां - माहेश्वरि पुरि श्री वयरस्वामि आव्या । तिहां बौद्धभक्त राजा राज्य करइ । तेहनइ मिली श्री-संघ सुभिक्ष-भणी तीणइ देसि रहिउ । तिहां जैन अनइ बौद्ध एका रहितां स्पर्धा ऊपाजेवा लागी । जैननी पूजा - महिमा देखी बौद्ध राजा वीनविउ, 'राजन् ! ए जे जैन आव्या, ते तु सर्व फूल लेई जाई । आपण देहर कांई फूल लावइ नहीं। तेह-भणी माली वारीई ।' पछइ राजाई सर्व माली तेडीनइ कहिउं जु, 'श्रावकन फूल मापिो । पछ३ मुहगा ई फूल सोनानह मूलि नापइ । तिवारइ श्रावक पंचवर्ण रत्न, कपूर, कस्तूरीए करी पूजा करहूं । पणि जहवी फूलनी पूजा करतां लागइ, तेहवी इच्छा अपुचत, अनेक उपाय श्रावक चींतवई । पणि उपाय लहई नहीं । इम उपाय चींतवतां पजुसण १. P. मेलावणीइ २ Pu. P. पजुसरण । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित आविउं । तिवारई संघिई वयरस्वामी वीनव्या, 'स्वामी ! कारिमे कुसुमे पूजानु हर्ष न पहुचइ । तु स्वामि ! तुम्ह सरीखा गुरु, अनइ संघनी इच्छा न पहुचई, तु ए वात साची-घरि रत्नमय दीवा बलई, अनइ अंधारउं पराभवइ । तेह-भणी संघनु हर्ष पूरउ, जिम 'पजसण सरंग हुइ ।' पछइ श्री-वयरस्वामि प्रभावना अंग-फल जाणी आकाशगामिनी-विद्यानइ बलिइं माहेश्वरी-नगरीइ आव्या । वह्निदेवनइ आरामवनि धनगिरिनउ जे छइ मित्र तडितामिध माली, ते-समीपि आव्या । तिणइ मित्रनउ पुत्र देखी भक्तिपूर्वक वांदी कहिवा लागउ, 'काइ काजु हुइ ते कहउ ।' तिवारइ गुरु कहई, 'संघनु काज एक मोटउं छइ, तेह-भणो हूं फूल लेवा आविउ छउं ।' तिवारइ माली कहइ, 'ईणी वाडीइ वीस लाख फूल दिन प्रतिई ऊतरई । जेतलां जोईइ तेतलां लेई पहुचउ ।' तिवारइ गुरे कहिउं, वीस लाख फूल मजद करि, जेतलइ हूं आगलि जई आवउं।' इम कही आपणि क्षुद्र हिमवंति पहुता । तिहां शाश्वतां चैत्य वांदी 'पद्मद्रहि आव्या । तिहां श्री-लक्ष्मी राजहंसि बइठी । बिहुं हाथे कमल । भमरे रुणझुणाट करती, एक कमल हाथि लेई, पद्मदेवनी पूजा-भणी चाली । तेतलइ वयरस्वामि दीठा । लक्ष्मी प्रणाम करी कहइ, 'कमल जोईइ तेतलां तुम्हे लिउ ।' तिहां लक्ष कमल लक्ष्मीई दोधां । पछइ गुरु वह्निदेवनी वाडीइ आवी रत्नहेममय, देवतानी परिई विमान बिकुर्वी वीस लाख फूल माहि मुक्यां । एक लक्ष कमल माहि मूकी आप माहि बइठा । जमक देवतानउ जेतलइ स्मरण कीधउं, तेतलइ देवता आव्या । ते देवताने वृंदे परवरिया अनेक वाजिब वाजते, घांटना सई रणझणाट करते, अनेक ध्वज लहलहते, आकाशि आविवा लागा । तेतलई बौद्धे चीतविउ, ए विमान अम्हारइ देहरइ आवइ छइ ।' तेह-भणी राजादिक लोक सर्व मिली देहरानइ बारणइ ऊभा रह्या जोइ छई । तेतलइ विमान ते देहरउ परिहरी जैन प्रासादि आविउं । माहि श्री-वयरस्वामि अनेक देवताने वृदे परिवर्या विमान-तु ऊतरी, परमेश्वरनइ प्रणाम करी, संघनइ कहइ, 'पजूसण-उपरि फूल तु आव्या छई । तुम्हे आपणी इच्छा पूरवठ।' पछइ श्रावक-संघ आपणी भक्तिई टोडर लेई लेई वीतरागनइ पूजई । एहवी महिमा श्री-जिनशासननी देखी राजादिक सर्व लोक जैनभक्त हुआ । पछह श्री-वयरस्वामि दक्षिण देशि आव्या । तिहां वली बार-वरसी दुकाल ऊपनउ जाणी, महातमा सवें सीदाता देखी, विद्यानइ बलि अन्न आणी करी ऊद्धरिवा लागा । एतल वयरस्वामिनइ लेष्मा ऊपनउ । तिसिई महातमाए सुठि आणी आपी । गुरे प्रासुक देखी केतलीएक लीधी । गांठीउ एक भोजननइ अंति लेवा-भणी कानि मूकी छांडिउ । वार कीधी, पणि गांठीउ वोसरी गयउ । वली सज्झाय करतां संध्याई प्रतिक्रमण-वेलाइ आलोयणउं आलोयतां ते संठि कान-इती पडी । तिवारइं आपणउ प्रमाद जाणी चीतवइ, 'जु मुझनइ एवडउ प्रमाद ऊपनउ, तु रूडा कारण नहीं । तेह-भणी अगसण लीजइ ।' एहवइ श्री-वयरस्वामिई सर्व महातमा तेडी कहिउँ, 'ए जे मंत्रपिंड लीजइ छइ ते तु पाप हुइ छइ. अनइ ए तु बार-वरसी दुकाल । तु ए असार सयरनइ कीधइ कउण संयम विराधई ?' इस विमासी, पछइ वज्रसेन शिष्य तेडो, गच्छनउ भार आपी, कहिउँ, 'जिहां लक्ष धननउ व्यय करी एक हांडो जिहां चडिसिइ, तिहां जाणिज्यो सुगाल होसिइ ।' ए वात कही, वली महात्मानइ कहिउं, चाल उ, कीणइ एकि चही अणसण लीजइ ।' इम कही केतलाएक महातमाए परिवरियां पर्वति चडिवा लागा । तेतलइ १. Pu. P. पजुसरण २. P. L. पद्मदेवीनई द्रहि आव्या । ३. K. पद्मादेवी पूजा । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध ६३ चेes एक बालक देखी बलात्कारि पर्वत-तलइ मूंकी आप पर्वति आरुहिआ । तेतलाइ चेलड चतवइ, 'मइ ऊपरि चडिई रखे गुरुनइ असमाधि ऊपजइ । ' तेह-भणी चेलउ तल रही आरा धना अणसण लेई शिला-परि काउसग्ग कीधउ । जिम 'आगइ घी वीघरइ, तिम तडकs चेलान सयर वीघरिडं । क्षण एक-माहि कर्मनउ क्षय करी स्वर्गतइ भाजन हुउ । तिहां देवताए महिमा कीजइ । ते देखी वयरस्वामि महात्मानइ कहइ, 'जोउ, थोडइ कालि किम आपणपु साधिउं । तु आपणपे आलस कांइ कीजइ ११ पछइ सघले महातमाए समकालि अणसण लीधउं । तेतलइ मिथ्यात्वी देवता एक श्रावकनु रूप करी महात्मानइ मोदक देखाइ, पाणी देखाडइ | पछइ श्री - वयर स्वामि चतवइ, 'ए मिथ्यात्वा देवता महात्माना मन पडावइ । तु अनेथि जई काज साधीइ ।' पछइ श्री बयरस्वामि दस सहश्र महातमाए परवरिया बीजइ पर्वति चडी आपणउं काज साध | तिहां सम्यग्दृष्टी देवतानु अनुग्रह मागिउ । सुखिई अणसण पाली सर्व साधु स्वर्गनइ भाजन हुआ । तेतलइ देवताए ते वात इंद्र- आगलि कही । तु इंद्र आपणपे जृंभक देवताए परिवरिउ आवी रथि बइसी, पर्वत - पाखती त्रिणि प्रदक्षिणा दीधी । तेह-भणी रथावर्त पर्वतनउं नाम हूउं । तिहां अंत्य-क्रिया करी, स्वर्णमय स्तूप करी, श्री वयरस्वामिनी प्रतिमा पूजी, इंद्र आपण ठामि पहुतु । । इसिई वज्रसेन सोपारई बार वरसनइ प्रांति गुरुनी शिख्या हीयइ घरी आविउ । तेतलइ जिनदत्त श्रेष्ठ, ईश्वरी भार्या, तेहना च्यारि पुत्र चंद्र १, उद्देहिक २, नाग ३, विद्याधर ४ - इत्यादि कुटुंबे परवरियां दुकाल जालवई पणि अन्न न लाभई । पछइ एक दिनि लाख द्रव्यनउ व्यय करी हांडी एक चडावी, अनइ विष वाटी ढांकणीइ घाति मूकिउं छइ । तिसिहं कुटुंब तेडी जिणदत्त कहइ, 'कुमरणई मरण होसिहं ते पाहईं आराधना अणसण ऊचरी जउ ए विष लगइ मरीह, तु दुःख न देखीइ ।' इम कही जेतलई अराधना ऊचरावइ, तेतलइ वज्रसेन आवी 'धर्मलाभ' कहिउ । तिसिइ ईश्वरी ऊठी आपणउं धन्य मानती कहा, 'भलउं हूउं जे भाग्य लगइ तुम्हे इहां आया। संविभाग करावउ । अजी विष तु नथी घातिउं । ए तेतलई गुरुवचन स्मरी वज्रसेन कहइ, 'तुम्हे म मरउ । प्रभाति लई मरण-हूंता निवर्त्या तेतलइ प्रभातिइ धानना वाहण आव्यां सुगाल हूउ । तिवारणं श्रेष्ठिने चिहुं बेटे दीक्षा लोधी । व्यारह समग्र विद्या भण्यो । चिहुंनइ आचार्यपद दीघां । तिहां च्यारि गच्छनी स्थापना कीधी । 1 तु हवा श्री - वयरस्वामि छ मास घरि रही, आठमइ वरसि वाचनाचार्य पदवी लही, ४४ वरस व्रतार्याय पाली, ३६ वर्ष आचार्यपद पाली, जिनशासन महांत प्रभावना करी, धननी कोडिइ जे लोभि न गया । श्री-वयर स्वामिचरित्र समाप्त ॥ २० ॥ # खीर लेई अम्हनइ तारउ ।' सुगाल होसिई' । इम जेत हिवs शीलवंत पुरुष मान्य हुइ, पणि जे स्त्री शीलवती हुइ, ते पणि पूजनीक हुइ-इसिउं दृष्टांतपूर्वक कहइ छइ - पालति निय-सीलं ठावंति सुद्ध धम्म - मग्गमि । रहनेमि मुणि पि जए सा पुज्जा रायमइ अज्जा ॥४३ १. K. अग्निहं घी वीघराइ २. Pu. इंद्र ३ उद्देहिक ४ नागेन्द्र ५ विद्याधर ४ । A. इंद्र १ चंद्र २ नाग ३ | Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुन्दरगणि-बिरचित व्याख्या :- निज आपणइ डीलिई सूधउं शील पालती, अनइ रहनेमिनह उन्मार्ग पडतो धर्म विषs स्थापती हूंती एहवी राजीमती महासती जगत्रय-माहि पूजिवा = वांदिवानंद योग्य हुई । श्री नेमी दीक्षा लेतां श्री नेमिनउ लघु बांधव रथनेमी प्रार्थना करतउ राजीमती प्रतिबोधिउ । इम शोलनइ प्रधानपणइ राजीमती पूज्य हुई। कथा तु आगइ कही छइ । हिवर जे ऋषीश्वर शील पालई ते धन्य । वली जे गृहस्थ हूंता शील पालई ते गाढेरा धन्य । ते कहर - ६४ = ते धन्ना गिहिणो वि हु महरिसि - मज्झम्मि जे उदाहरणं । निरुवम सील-वय-रया पावति पसिद्ध-माहप्पं ॥४४ व्याख्या : - खलु = निश्चई ते गृही धन्य, जे गृहस्थावासि वसता हूंता - सुदर्शन श्रेष्टि प्रमुख - निरुपम शील पालिवानइ विचारि ब्रह्मव्रतनी परीक्षा करतां, महर्षि गरुआ श्री-स्थूलभद्रादि मुनि-माहिं दृष्टांत जगत्रय - माहि हुआ । शीलनइ महातम्यइ करी महर्षि समान हुआ । ते गृहस्थ किस्या छ ? प्रसिद्ध = समस्त लोक विरूपात महातम्य जेहनउं छह, एहवा ते गृहस्थइ धन्य = वंदनीय हुई | हिवइ ते शीलवंत गृहस्थनां नाम पूर्वक देखाडीइ छइ सील - प्रभाव - पभाविय, सुदंसणं तं सुदंसणं सेट्ठि । कविला - निवदेवीहिं अखोहिअं नमह निच्चपि ॥ ४५ व्याख्या:- आपणा सुद्ध शीलनइ प्रभाविई = महातम्यई करी, दीपाविउँ = उद्योतवंत कीधउं, सुष्ठु = प्रधान दर्शन = सम्यक्त्व अथवा जिनशासन जाण्यउ छइ जेणइ । एहवउ जे श्रेष्टि सुदर्शन श्रावक = गृहस्थ- धर्मिदं वर्तमान, मुनीश्वरनी परिई कपिलनी भार्या कपिला ब्राह्मणी अनइ राजानी पट्टराणी अभयादेवी ए बिहुए हावभाव-लोभ- भयादिक अनेक प्रकारि अब्रह्मसेवना भणी क्षोभवी इ हूंतउ पणि क्षोभि न गयउ, शील हूंतर चूकउ नही । मरण आंगमिउं, पणि शील भांजिउ नही । एहवा सुदर्शन श्रेष्ठिनइ नमस्करउ = सदा प्रणाम करउ । एहवां वांदिवा योग्य हुई । इति गाथार्थः । विस्तरार्थ कथा हूंत जाणिवउ । हिवs ते सुदर्शन श्रेष्ठिनी कथा कहीइ [ २१ सुदर्शन श्रेष्ठिनी कथा ] अंगदेशि चंपानगरीइ दधिवाहन राजा अभय प्राणवल्लभा सहित सुखिई दिवस नीगमइ । हिवइ तिणि नगरीइ ऋषभदत्त श्रेष्टि वसइ । तेहनी प्रिया अर्हदासी जाणवी । तेहनइ सुभग नामा भइसिन पालनहार सदाइ गाई - भइंसि वेडि- माहि जई चारs, पाइ । इम एकदा सांझइ पाछउ वलिउ घर-भणी । तिसिहं प्रतिमाइ रहिउ महात्मा एक वस्त्ररहित शीत परोषह सहत दीठउ । ते सुभग घरि आविउ । पणि ते महात्मानु कष्ट चींतवतां रात्रि मोटइ कष्टि गमाडी । प्रभाति सवारइ ऊठी, गाइ-भई सिनइ आगलि करी, जु महात्मा - कन्हलि आवइ, तु अजी ते महातमा काउसगिंग जि दीठउ | आहार करिवा लागउ तलई सूर्य उग | 'नमो अरिहंताणं' कहतउ ते चारणऋषि काउसग्ग पारी आकाशी ऊडिउ । पछइ सुभग चीतवह, 'नमो अरिहंताणं' ए आकाशगामिनी विद्या घटइ । पछ रात्रि नई दिवस मन हूंतउ ए पद न मूं कह । तिसि इ श्रेष्ठिई पूछिउ, 'आजकाल तूं सिउ as छ ?' तीणइ कहिउं, 'आकाशगामिनी विद्या जपउ छउं ? हि' 'तु मुझनइ कहई ( १ हि ) । ' तिबारह 'नमो अरिहंताणं' ए पद कहिउं । तिसिई श्रेष्ठि कहर, 'बापडा ! एह लगइ अनेक Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला - बालावबोध ६५ विद्या सीझइ ।' पछइ एका वर्षाकालि आवि हूंतइ गाई-भई सि चारिवा गयउ । तेतलई आडी महापूरि नदी आवी, गाईभईसि तरी पइलइ पारि गई । सुभग उलिइ तटि रहिउ atras, 'मुझन तां आकाशगामिनी विद्या आवडइ छह, आज परीक्षा जोड । इम चोंतवी ऊंची भूमिकार चडी 'नमो अरिहंताणं' कही झांप दीधी, तेतलइ पाधरउ नदी -माहि पडिउ । तलइ खयरन खूटउ हूंतउ, तेणइ पेट व घाणउं । नवकारनइ ध्यानि मरी अर्हदासीनी कूखिई अवतार लीघउ । ते गर्भनइ प्रमाणि धर्ममय डोहला ऊपनई, अनइ श्रेष्ठि सर्व डोहला प्रवई । इम पूरे दिवसे पुत्र जन्मउ, ते सर्वांग सुंदर देखी सुदर्शन नाम दीघउ । मउडइ मउडइ कल्पवेलिनी परिहं वाधवा लागउ । सघलीइ कला अभ्यसी, क्रमिदं यौवन पामिउ । पिताई मनोरमा कन्या परिणाबिउ | पंच प्रकारि विषयसुख अनुभवतां सुगुरुनइ योगि परस्त्रीनउ नेम लीघउ । हिव तेह जि नगर-माहि कपिलनामा पुरोहित वसइ । ते साथिई सुदर्शननह प्रीति ऊपनी । अनेक श्लोक-कथा- विनोद करतां दिवस जाइ । एकदा कपिलनी भार्या कपिलनई पूछइ, 'स्वामिन ! सर्व घरना काम की तुम्हे रात्रि-दिन किहां रहउ छउ ?" तिवारइ कपिल कपिलानइ कहइ, 'ऋषभदासन पुत्र सुदर्शन, ते साथि माहरइ मित्राचार छइ । तेहनी संगति हूं मूकी न सकउं । ' ए वात सांभली कपिला सुदर्शन देखिवा-भणी मनसा करइ । एकदा राजानइ आदेसि कपिल ग्रामांतरि गयउ अनइ अवसर लही कपिला सुदर्शननइ घरि आवी । मित्रनी पत्नी -भणी सुदशनि बहुमान आगता - स्वागत की उं । तेतलइ कपिला सुदर्शनन रूप जोती कामनी वाही इस्या वचन कपटमइ बोलाइ, 'अहो सुदर्शन ! तुम्हारा मित्रनइ. शरीरि कांइ असुख छइ । तुम्हे तु पूछना इ नावउ । प्रीति किसी जे सुखि दुखि नावीइ ?' तिवारइ सुदर्शन मित्रनी प्रीति मन-माहि धरत कपिलनइ घरि गयउ । पूछइ, 'मित्र कहां ?' कपिलाइ कहिउं, 'निवाइ सुतउ छइ ।' तिसिहघर माहि आवी पूछिउं, 'किहां छइ ?' तु वली कहइ, 'उरडा-माहि छइ ।' सुदर्शन जेतलई उरडामाहि आवइ तेतलइ कपिलाइ बार दीघां । तिवारइ सुदर्शनइ जाणिउं जु, 'ए स्त्रीना कपट हुई ।' मनि चतवइ, ' स्युं थयउं ? माहरु मन किसिउं एहनइ पाडिसिइ ?' मेरु पर्वतनी परिइं छ ।' तिसिह कपिला अनेक हावभाव करती, कामना भाव देखाडती, नवनवा शृंगार करती, आलिंगन देती, अंगोपांग सर्व फरसती, घणाइ बोल बोलइ । पणि जिम महिषनइ शृंगि मसान डंक न लागइ, अभव्य नइ जिम जिननउ उपदेश न लागइ, तिम कपिलाना बोल सुदर्शन नह न लागईं । तिहां आपणि काउसग्गि रहिउ । वली जु बोलावइ तु कहइ, 'सुभगि ! मुझन पुरुषार्थपणु नथी । जोइ न ताहरे वचने तो पाषाण भेदीइ, तु मनुष्यनी केही वात ?" इत्यादि वचन सांभली सत्यवचन मन-माहि आणी पछइ बार उघाडी जावा दीघउ । जिम कोई घाडिनइ हाथि चडिउ हुइ अनइ छूटउ हूंतउ नासी जाइ तिम सुदर्शन नासी आपण घर आविउ । पछइ पारकइ घरि एकला जाइवानउ नीम लीघउं । हिवर एक दिवसि दधिवाहन राजा अंत:पुर - सहित, राजलोके परिवरिउ, सुदर्शन श्रेष्ठि पणि आणइ परिवारिइं परव रड, बीजाइ नमस्त लोक उद्यानवनि इंद्र - महोत्सव करवा-भणी जावा लागा । तिसिई अभया रागा सुबामनि बइठी कपिला सहित वन माहि जाती हूंती । एहवइ मार्गि सुदर्शननी भार्या मनोरमा पांचे पुत्रे परिवरी, रथि बइठी, पान आरोगती दीठी । तिवारइ कपिलाई १K पाडि छइ, 1 Pu एहनइ पाडि छ । २. Pu डस, L. डंस | ९ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि विरचित अभया पूछी, 'हे देवि ! ए स्त्री इंद्राणी सरीखी पुत्रवती कुण ?' तिवारई अभयाई कहिउं, 'श्रेष्ठि सुदर्शननी ए भार्या । एहना पांच इ पुत्र।' तिवारइ कपिलाई हसीनइ कहिउं, 'नपुंसकनई पणि किसिउं पुत्र हुइ ?' तिसिइ अभयाई कहिउं, 'ए वात तूं किम जाणइ ?' इम पूछीइ अति स्नेहलगह आपणी प्रछन्न वात कही, अनइ सुदर्शननउ सर्व वृत्तांत कहिउ । तिवारइं अभयाराणी कपिला हसी, 'तु तुं एहवीइ चतुरि हूंती पणि ईणइ धूर्ति तू वंची । ते तु परस्त्रीनइ संगि नपुंसक छइ पणि घरि तु नथी । किवारइ गाढाइ डाहा घासई।' इम हसी इंती रीसाणी कपिला कहइ, 'बहिनि ! तूं गाढी चतुरि छइ पणि जाणीसिइं जउ तु सुदर्शनइ भोलवेसि ।' इणि वचनिई अभयाराणी अहंकारि चडी प्रतिज्ञा करइ, 'तु हूं जउ एहनइ शील-हंतउ पाडउं।' इम अभयाई प्रतिज्ञा कीधी, आपणइ घरि आवी, धाविमाता-ओगलि आपणी प्रतिज्ञानी वात कही। तिवारह माताई कहिलं, 'चिंता म करेसि । ए प्रतिज्ञा ताहरी है पूरविसु ।' इम कही ते धावि सुदर्शन श्रेष्ठिना छल बिलाईनी परिई जोती रहइ, पणि छल लहइ नही । इसिइ सुदर्शन, आठमि प्रमुख पर्वतिथि पोसह लेई सूना घर-माहि आवी, काउस्सग्ग करइ । (ए स्वरूप तीणी धाविइ जाणिउं । पछइ एक दिनि कौमुदी-महोत्सव आविउ । अनइ जिन-शासनि चउमासउ आविउं । तिसिइ राजा नागरीक-लोके परिवरिउ क्रीडा-भणी वन-माहि जावा लागउ । इसिह सुदर्शन राजानइ वीनवी पोसह लेवा-भणी घरि रही, पोसह लेई सूना देवकुल-माहि काउसग्गि रहिउ । ए वात अभयाराणीइ जाणी, धाविमाता-सहित घरि रही । हिव आगइ सुदर्शन श्रेष्ठि सरीखी काष्टमय प्रतिमा छम-लगा करावी छइ, तहना अलंकार सुदर्शन सरीखा करावी, पालखीइं बइसारी, प्रतिमा गाजतइ वाजता सखीए परिवरी ते धाविमाता पोलिई लेई नीकली क्रीडाभणी। तेतलइ पोलीआ ऊठी जोई तु काष्टनी प्रतिमा। वेसास ऊपनइ कोई करणवार न करइ । इसिइ तीणइ कौमुदीनई दिनि राजा बाहरि गयउ हूंत उ, अनइ धाविमाताई तेह जि सुदर्शन पालखी घाती अभयाराणी-समीपि आणिउ । अभया ही हूंती अनेक हावभाव करी क्षोभिवा लागी। पणि तेहनउ एक रोम मात्र हालइ नही । मेरुनी परिहं निश्चल देखी अभया तु ऊभगी। सुदर्शन श्रेष्ठ चारि पुहर काउसग्ग करी रहिउ । तिसिई अभयाई भय देखाडिया, तुह इ क्षोभ न पामइ। अभयाराणी खिन्नखेद हुई। पणि रोम मात्र भीजिइ नही । पछइ प्रभात होवा लागउ । राजानई घरि आविवानी वेला हुई । तिसिइं राणी रीसाणी हंती आपणउं डील आपणीइ विलूरी. वस्त्र फाडी पोकार करिवा लागी । तेतला पाहुरी गमे गमे धाया। आवी जु जोइ तु आगलि सुदर्शन काउसम्गि रहिउ दीठउ । पाहुरीए ते झालि । तेतला राजा आविउ। पूछि । तिसिई अभयाई कहिउं, 'स्वामी ! ईणइ पापीइ घर-माहि पइसी ईणइ प्रकारि हू विडंबी ।' तिवारई रामाई चीतविउं, 'जु अमृत-हूंतुं विष ऊठइ तु ए-हुती ए वात हुई । ए सुदर्शन पुण्यवंत,एहूंतउं ए कर्म न घटइ।' पछई राजाइ सुदर्शन पूछिउं, पणि अभयानी दया-लगी कांई न बोलइ । तिवारइं राजाई चीतविउं, 'जु ए न बोलइ तुमही ए अन्पाई संभावीई ।' इम चीतवी राजा रीसाणउ कोपि चडिउ, तलार तेडी कहिउं, “एड्नई विडंबानई सूली दिउ।' तिवारइ ते तलार यमदूत सरीखा आवी, जटाई झाली, बाहरी काढी, माथइ भद्र करावी, गलइ कगयरनी माल घाती, रतांजणीनां टीला काढयां, सूपडानां छत्र माथई करी, रासभि चडावी, आगलि डूंडे वाजते, मारवा-भगी चलाविउ । 'अंतःपुर-माहि पारध कीघउ तेह-भगो राजाई एडवर अ देश दीघउ' इम लोक-आगलि वात ते तलार कहई। ए वात मनोरमाइ सांभली। मनोरमा चोंतवइ, 'चद्रमा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ६७ हूंता किवारइ अंगार पडई, पणि ए वात सुदर्शन श्रेष्ठि-हूंती न हुइ ।' पछइ घरनइ देवालइ जई, देव पूजी कहिवा लागी महासती, 'अहो शासनदेवताउ ! ए सुदर्शननइ निःकारण जु आल दीधउं छइ तु सानिध्य करिज्यो । नहीं करउ तउ मुझनइ काउसम्ग पारिवानउ नीम।' इम कही काउसम्ग कीधउ । तेतलइ आकासि देवलानी वाणी ऊपनी, 'हे महासति ! म करि चिंता । अम्हे तेहना शोल-लगइ सानिध्य कारसुं ।' इसिइ सुदर्शन गाम-माहि फेरवी, अनेक विडंबना देखाडी, लोकनइ हाहाकार करतां सुदर्शन सूलीई चडाविउ । तेतलइ शीलना प्रभाव-लगइ सम्यग्दृष्टी देवताए आवी, सूली फेडी सिंहासन कीधउं । तेतलइ तलार स्त्रांडाना घाय मूकइ, ते घाय फीटी आभरण थाइवा लागा । ए आश्चर्य देखी तलारे राजा-समीपि जई वात सर्व कीधी । राना साश्चर्य गजेंद्रि बइसी नागरीक-लोके परिवरिउ कउतिग-लगइ तिहां आविउ । सुदर्शन सिंहामनि सालंकार साभरण बइठउ देखी हर्षित हूंतउ राजा प्रणाम करी कहइ, 'अहो सत्वनिधि ! तू आज मइ लोचनई करी दीठउ। मइ मूढिइ स्त्रीनई वनि एवडी आपदा देखाडी । पणि तुझनइ ते सर्व संपदा थई । जिम गाई क्षार-जल पीई पणि दध दिइ तिवारइ मिष्ट थाइ, निम समुद्रनइ जलइ नालेरी सीचीई अनइ आपणइ गुणि करी मिष्ट थाइ, तिन नुसनई अहे आपदा कीधी, पणि ताहरा शीलनइ गुणे करो संपदा जि हुइ ।' इम राजा सुदर्शननइ स्तवी, पूजी, हाथीइ बइसारी नगर-माहि आणी, घरि पहुचाडिउ । तेतलइ सुदर्शन देवालइ आवी मनोरमानइ काउसग्ग परावइ । इसिइ राजाइ सर्व वृत्तांत पूछी, वस्त्र-अलंकारे करी बहमान दे, आपणउ अपराध खमावी, घरि आवी अभयाराणीनइ देसवटउ देवा लागउ । तिसिइ सुदर्शन आवी पगे लागी, रानानइ मनावी, अभयाराणीनइ अभयदान देवराविउ । इम सुदर्शन जैन धर्मनइ विषइ प्रभावना करी धर्म-ध्यान करइ छइ । एहवइ अभयाइ मननी संकाइ बीहती गलइ पाशी देई प्राण छांडया। अनइ अभयानी धाविमाता नासी पाडलीपुरि देवदत्ता वेश्यानइ घरे आवी रही । जिणि कारणि एहवा कामना करणहारनइ एहवां जि ठाम हुई । हिवद ते धावि सुदर्शनना शोलनी प्रसंसा देवदत्ता गणिका. आगलि करइ । इनिइ सुदर्शन संसार-हूंतउ विरक्त, दीक्षा लेई विहार करतउ पाडलीपुरि आविउ। तिहां अभयानी धाविई ओलविउ । पछइ धावि कपट-श्राविका थई, पारणानइ मिसिइ देवदत्तानइ घरि लेई आवी । तिहां बारणउं दीधउं । देवदत्ताई ते मुनि घणउं कदर्थिउ, पणि ध्यान हूंतउ चूक नहो । तिसिइ सांझइ आपहणी मूंकिउ । पछइ सुदर्शन विरक्त हूंतउ वन-माहि जई प्रतिमाह रहिउ मसाण-भूमिकाई। हिवइ अभया मरीनइ व्यंतरी हुई ते तिहां आवी। वयर पोषती अनेक उपसर्ग करतां शुभध्याननई बलिई केवलज्ञान पामिउ । तेतलह देवताए केवल-महिमा कीध। सहश्रपत्र कमल रची देवताए विचिइ बहसारिउ । धर्मोपदेश देवा लागउ। द्विविध धर्म प्ररूपिउ । तिहां घणे लोके य तेधर्म आदरिउ, घणे श्रावकनउ धर्म आदरिउ । तिहां अभया पती पणि जैन धर्म आदरिउ । अनि वली देवदत्ताइ, धाविमाताइ श्रावरुन उ धर्म आदिरउ । इम सुदर्शनन चरित्र सांभली अहो भविको!शील जि पालउ, जिम हेलाई मोक्ष-सुख पाम। इति शीलोपदेशमाला-बालाविबोधि श्री. सुदर्शन-श्रेष्ठ-कथा समाप्ता ॥२१ हिवइ जे श्रावक शील पालई तेहनु स्यु कहीई' ? पणि चोर हूंता शील पालई ते धन्य । तेह जि कहइ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित जो अन्नायरओ वि हु निव-भज्जा-पत्थिओ वि न हु खुद्धो । सील-निअमाणुकूलो स वंकचूलो गिही जयउ ॥४६ । व्याख्या :- ते वंचल राजपत्र जयवंतउ हह। छह जे केहवउ १ अघाई पर-द्रव्याउ हरणहार अनइ नृपराजानी भार्याइ प्रार्थिक हूंतउ पणि क्षोभिउ नहीं'। वली केवउ छइ ? 'शोलभंग करिवानउ नीम, राजपत्नो माता समान ।' इसिउ अभिग्रह पालिवा भणी अनुकूल = सावधान छइ । इति गाथार्थः । विशेष कथा-हूंतउ जाणिवउं । हिवइ ते वंकच्लनी कथा कहीइ [ २२. वंकचूल-कथा ] रथनूपुर नगर, तिहां विमलयश राजा, सुमंगला पट्टगणी, तेहनी खिइ वकचल पुत्र, वंकचूला पुत्री हुई । ऋमिई यौवनवस्थाई आव्या । अवसरि राजानी पुत्री रोहणी कोई एक कुमरनइ परिणावी, पणि वकचूला लहुडपण-लगइ विधवा हुइ । इसिइ राजा उरमाई भाई लघ. तेहनइ राज देवानी मनसा करवा लागउ । तिवारइ वंकचूलिइं ते वात सांसही न सकी। तेह-भणी राजानइ अणकहिई जि वंकचूल नौकलिवा लागउ । तेतलइ भाईना स्नेह लगइ वंकचूला पणि मोकली। पछह वकचल पंथ अवगाहतइ पालि-माहि आविउ । तिहां भीले आकारेगित-चेष्टाई राजकुमार जाणी, प्रणाम करी, विवानउं कारण पूछिउं। पछइ कुमारि सर्व वृत्तांत कहिलं। पह ते सर्व भील प्रणाम करी कहई, 'स्वामिन ! अम्हारइ स्वामी हूंत उ ते परोक्ष हुउ । हिवः स्वामी तुम्हे थाउ ।' इम कही अभिषेक कीधउ । पछइ पालिनउ अधिपति वंकचूल हूउ । इसिइं श्री चन्द्रयशसूरि पृथ्वो-माहि विहार करतां, अनेक जोवनई प्रतिबोध देतां आवह छह । एहवइ वरसालउ आविउ। तिहां धुरि आविउ आसाढ, अंतर गण संबाढ, काटीई लोह, बांभतणा निरोह, छासि खाटी थाइ, माटी व्याइ, पाणी भाभलीइ, गउडो गूजरी'वर्ण सांभल इं, रात्रि अंधारी, लवइ तिमरी, ऊगतउ स्वच्छ, पश्चिम दिसिइ मच्छ, दिसि अंधार घोर, नाचई पंचविध मोर, पहिलउ सूसूआट, लोकनउ कूकूआट, विसमी छांट, भूमि कलहाट, परनाल ख ठहलई, नेत्र तडतडई, खोलडां खडहडई, क्यारा गाहीइं, दंताल वाहीइं, वणसती वस्तु राखीइं, भीजता घरि आवीइंएहवउ वर्षाकाल आविउ जाणो आचार्य पालि माहि आव्या । तिहां वंकचूल-कन्हइ उपाश्रय मागिउ । तिवारइ वंकचूल कहह, 'जउ धर्मनउ उपदेस कहिनइ न दिउ तु रहउ । काई अम्हा२६ तु चोरी-वंच-द्रोह-पाखइ निर्वाह न पडइ। चोरी जि अम्हारइ आजीविका । तेह-भणी तुम्हे धर्मकथा न कहिवी ।' पछइ आचार्य वचन मा ने। तिहां च्यारि मास धर्मध्यान करतां, संयम पालतां, सुखइ रहो, वकचूलनइ कही वषोंकालनइ प्रांति चालिवा लागा । तेतलइ वकचूल खड्ड सखायत करी गुरुनइ संप्रेडिवा-भणी आपणी सीम तांई आविउ । पछइ गुरुनइ कहिउं, 'एतला आधो पारकी सीम, मइ अवाइ नही । तेतलइ गुरु पारकी सीम-माहि ऊभा रही वंचूलनइ कहइ, 'अहो क्षत्रिय कुमार | हिव कांई धर्म कहीइ ।' तिवारइ वकचूल कहइ, 'जुकाइ मई पलहते कहउ।' गुरु कहई, जिवारई जीव-वध करइ तिवारइ सात पग पाछउ उसरो घाउ देज्ये। एक ए नीम १, बीजउ जे फलनउ नाम न जाणइ ते फल म खाएसि २, त्रीजउ राजानी पट्टराशी मातासमान गणिजे ३, चउथउ काग-मांसनउ नीम ४।' ए च्यारि नीम गुरे दीधा । वकचूल 'वह ति' करी नीम पडिवज्या । गुरे विहार कीधउ । १. Pu. L. शोभिउ नहीं चूकउ नही । २. राग । ३. K. हुई । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ६९ वंकचूल घरि आवी कुणिहि गामि हेरू करी, सर्व भील एकठा मेलो, घाडइ चालिउ । तेतलई तीणइ गामि सुद्धि हुई ते गाम ऊचलिउ । वंकचूल तिहां गयउ पछइ सर्व भील पाछा वलिया। भूख्या तरस्या वन एक-माहि जइ केई सुता, के बइठा, केई क्नफल सोधिवा लागा। इसिइ विषनइ वृक्षि फल लागां देखी सघले ते फल लेई वंकचूलआगलि आणी मुंक्यां । तिवारई वकचूल पूछा, 'एड्नउ सिउं नाम ?' ते कहई, 'अम्हे न जाण' तिवारई गुरु-दत्त नीम 'चीति आविइ कहइ, 'जां एहनउ नाम न कहउ ता मुझनई खाइवा नीम छह'। पछद सेवक कहई, 'स्वामी ! नीम पछइ पालिज्यो । आज भूख्या, सिउं नीम ? तुहइ वकचूल न मानइ । पछइ सर्व सेवक एकांति जई सर्व फल खाई सूता । एक सेवक भक्ति-लगइ चींतवइ, 'आज आपणउ स्वामी भूखिउ तु किम फल मुखि घात ?' तेह.भणी ते रहिउ । रात्रि प्रहर एक गई तेतलई कुमार ऊठी सेवकनइ कहइ, 'ए सर्व ऊठाडि, जिम घरि जईइ।' जेतलइ सेवक ऊठाडइ तेतलइ देखइ, सिउ ? सघलाइ प्राण-हूंता मकाणा । आवी वंकचूलनइ कहिउं, 'ए तु सर्व मूआ दीसई छई।। तेतला वकचूल सेवकना मरणनू दुक्ख अनइ आपणउ नीम फलिउं ते हर्ष धरतउ खड्ग लेई घरि आविउ । एहवइ घरना कमाड दीधां दीठां । कमाडनइ छिद्रि माहि जोइ तु भायाँ परुष-सहित सुती दीठी । रीस ऊपनीइ, खड्ग काढी, उपरि चडी घर-माहि आविउ । बिहनइ एका खांडिइ करी हणिसु इम चौतवी जेतलइ घाय मू कइ तेतलई नीम चीति आविउ । पद्ध सात पग पाछउ उसरिउ । तेतलइ खांडउ भारवटि लागउं, खटकु हउ । बहिन वंकचूला जागी हती कहइ, 'जीवउ वकचूल ।' एहवउ बहिननउ स्वर ओलखी खड़ग पाछउं साती प्रछिवा लागउ, 'हे बहिनि ! पुरुषनइ वेषि तूं कांइ सूती ?' तेतलइ बहिन बोली, 'सांभलि भाइ | जिवारइ तूं धाडइ चडिउ तिवारइ केडिइ पेखणीया आव्या । उसर मांडिउ । मइ चीतविउ-जउ इम कहीसिंह वकचूल घरि नथो तु ए अनेथि जई कहिसिइ ‘पालि सुनी छइ ।' इम कही रखे कोई आवी लूसइ, तेह-भणी ताहरां वस्त्र पहिरी सभा-माहि रातिइ हूँ जई बइठी। वडी वार तिहां बइसी दान देई, पेखणीआ विसा । असुर-लगइ ऊतावली ईणइ जि वेसिह भउजाई-कन्हलि आवी सूती ।' इम सांभली वकचूल कहइ, 'ते गुरु धन्य जीणे मानह पहवा नीम दीधा । मुझनई बि नीम तु फल्या । एकणि नीमि तां जीवतु ऊगरिउ जे अजाणिउ फल न खाधडं । बीजइ नीमि आज तां बहिननी हत्या अनइ पत्नीनी हत्या-हूं तउ छूटिउ । ए महातमा आप नइ परनइ तारक छइ । मई तां महात्मानी भगति लगारइ न कीधी।' इम वात करतां केतला एक दिन पालि-माहि रही विमासिउं, 'भील तु सर्व मूभा । हिवइ रखे मुझनइ कोई हणई ।' एह-भणी पालि मूकी ऊजेणीई आवी कोई एक श्रेष्टिनइ घरि बहिन नदु भार्या मूकी, आपण चोरी करिवा लागउ । इम करतां घणा दिन गया । एकदा प्रस्तावि चीतवह. 'जे बापडां दुबला नीठ रुली पेट भरई छई तेहना धन लेतां मुझनइ महा पाप लागड छह । पणि जउ चोरी कीजइ तु राजानइ घरि भली, कांई कइ डील दीजइ कइ अधिक जननी राशि आणीइ ।' इम चीतवी वरसालइ गोह एक मोटी झाली सीखवो । पछइ तेहनइ पछि मिलगी रात्रिनइ समइ राजानइ घरि चोरीइ पइठउ। एहवइ राजा राणीनइ माहोमाहि प्रेम-स्नेह- अपनाउ । राजा रीसावी अनेथि घर-माहि जई नष्ट-चर्याइ राणीनां कउतिग जोइ छह । १. Pu. 'चीतविउ K. संभारिउ । २. K. साद । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित इसिई वंकचूल गोहनइ प्रयोगिइ जिहां राणी छइ तिहां आविउ । राणीइ वंकचूल दीठउ । ते वंकचूलनु रूप देखी राणी व्यामोही हुती प्रार्थना करिवा लागी, 'अहो पुरुष ! ऊकरडउ खग तां जिम रत्नराशिनी प्राप्ति सुखदायक तिम तू आज चोरीइं पइठउ अनइ माहरी प्राप्ति तुझनइ हुई । तु इम जाणीइ देव तुझनइ तूठउ । पणि कहिनइ तूं कउण ?' वंकचूल कहा, 'हूं चोर ।' 'तु स्या-भणी आविउ छइ ' ते कहइ, 'हू मणि-रत्न-धन लेवा-भणो आविउ छउं ।' तिसिई राणी कहइ, 'जु माहरी वात मानइ तु ताहरा मनोरथ पूरवउ ।' वंकचूल पूछइ, 'सुभगि ! तूं कउण ?' ते कहिइ, 'हूं राजानी पट्टराणी । जेहन तूस तेहनई राज आपउं, जेहनइ रूस तेहनउ जीव लिउँ ।' तु वंकचूल कहइ, 'तू तु माहरी' माता, इणि कारणि शास्त्र इम बोलिइ छइ राजपत्नी गुरोपत्नी मित्रपत्नी तथैव च । पत्नीमाता स्वमाता च पंचैते मातरः स्मृताः ॥१ वली राणो कहइ, 'माहर वचन मानि ।' वंकचूल कहइ, 'तु तू माता । ए वात न हुइ ।' तु राणी कहइ, 'हिवइ माहर' कीघउं जोए ।' पछइ राणोइ आपणां वस्त्र फाडयां, अंग विलूरी पोकार कीघउ, 'अहो सुभटो ! धाउ धाउ । माहि कोई चोर पारदारिक पइठउ।' तेतलइ सुभट 'हणि हणि' 'मारि मारि' करतां धाया । हिवइ राजाई बारणइ ऊभां ए वात सांभली आश्चर्यमइ हुउ छइ । एहवइ सुभट जे बारणइ आव्या तेहनइ राजाई कहिउ, 'एहनई कोइ घाउ म देज्यो, प्रभाति साही मुझ कन्हइ आणिज्यो ।' पछइ तलार घर-माहि आव्या । राणीइ कहिउं, 'ए ते पारदारिक। झालउ, बांधउ, मारउ।' पछइ तलारे वकचूल झाली राखी मूकि। हिवइ राना स्त्रीना चरित्र मन-माहि विचारइ, 'नोउ एहनइ एवडउं तोछडपणउं ।' अनइ वंकचूलना गुण स्मरब, "जोउनइ एवडाइं वचन कह्यां, पणि लगारइ मन मेदिउं नहीं । तु कोई ए उत्तम पुरुष छह ।' प्रमाति राजा सभा-माहि आवी बईठउ, चोर अणावी पूछिउं, 'तू' कउण ? स्या-भणी आन्यउ ? वंकचूल कहइ, 'हूं चारी-भणी आविउ हूंतउ पणि राणीइ दीठउ । राणी बीहतीई पोकार कीधउ अनइ हूं झलाणउ।' राजाई चीतविउं, 'एहनी धीरिमा जोउ - आपणउ दोष लीघउ, पणि राणीनउ दोष लगारइ मनि नाणिउ । तु ए माहरइ पुत्रनइ ठामि ।' इम चौतवी राजाई वंकचूलनी परीक्षा-भणी कहिउं, ‘ए राणीनइ तूं लिइ, मइ तुझनइ आपी ।' तिवारइ वकचूल कहइ, 'ए माहरी माता ।' पछइ राजा रीसाण उ तलारनह कहइ, 'जाउ सूलीई दिउ, दुर्मरणिइं मारिज्यो ।' तु ही वकचूल राणीनइ पडिवजइ नही। तिसिईतलार वकचूल नइ लेई नीकल्या । सूली-समीप आणिउ तु ही न मानइ। पछइ राजाई वंकचूलनउ सत्त्व जाणी, पुत्रपणइ पडिवजी, युवराज-पदवी दीधी। वंकचूलइ बहिन-भार्या तेडावी। वारू सात भूमिनउ आवास दीधउ । तिहां आपणा कुटुंब-सहित सुख भोगवइ । मन-माहि चीतवइ वली जउ, 'एकवार गुरु मिलई तु जन्म सफल थाइ।' इम विमासतां अनेरइ दिवसि गुरु आव्या । भावपूर्वक वंकचूल तिहां जई गुरुनइ प्रणाम करइ । गुरु पणि धर्म-उपदेश दिई । पछइ वंकचूलिई श्री-सम्यक्त्व पडिवजिउं, गीतार्थ श्रावक हूउ। इसिइ ऊजेणी-समीपि सालिग्राम । तिहां जिनदास श्रावक । ते साथि वकचूलनइ मित्राचार हउ । इसिइ भीम नामा चरड देसनइ संतापइ । तेहनी राव लोके आवी किधी। तेतलइ राजाई प्रयाण-भंभा देवरावी । राजा आपणि नीकलिउ। एहवइ वंकचूल राजानइ प्रणाम करी कहा, 'स्वामी ! कीडी-ऊपरि तुम्हारी सी कटकी ? ए वितू हूं करिसु ।' पछइ राजाई १. K. मांहरइ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध वंकचूल चलाविउ । वंकचूलइ तिहां जई भीम पल्लीपति साथिइ महायुद्ध करी बांधिउ । पणि बांधतां वंकचूलनइ प्रहार गाढा लागा। वंचूल जय पामी घरि पाछउ आविउ, पणि घाउ रूझाइ नहीं। पछह वैद्य तेडी राजाई कहिउं 'ए किम साजउ थाइ ?' तिवारइ वैद्य कहइ, 'जउ मांस लिइ तु गुण हुइ ।' पछह वकचूल कहइ. 'मुझनइ कागमांसनउ जावज्जीव नीम छइ ।' तिवारइ राजा कहइ, 'वच्छ ! जीवन्नरो भद्र-शतानि पश्यति । एकवार लिइ, पछइ वली नीम पाले ।' तिवारइ कुमार कहइ, 'वरि माहरा प्राण जाउ, पणि कागमांस न लिउं ।' तिवारइ राजाई सेवक पूछया, 'एहनइ को मित्र छइ ?' सेवके कहिउं, 'स्वामी ! शालिग्रामवास्तव्य जिनदास एहनइ परम मित्र छइ ।' तिवारइ राजाई जिनदास तेडाविउ । ते मार्गि आवतां जिनदासि बि स्त्री रुदन करती दीठी, पूछिउं, 'कांई रुदन करउ ?' तेतलइ देवांगना कहई', 'ए वंकचूल कागमांस लेसिइ, तु 'अम्हारइ पति भर्तार न हुइ । तूं तु एहनउ मित्र छ। जु अम्हनइ दया करइ । तु कागमांस लेवा म देजे ।' ए वचन जिनदास पडिवजी वंकचूलसमीपि आविउ । राजाइ कहिउं, 'वकचूल मनावउ।' जिनदासि आवी वकचूलनी नाडि जोई। राजा-प्रत्यक्ष कहिवा लागउ, 'एहनइ हिवइ धर्म जि ऊषध करावउ । विलंब म करउ ।' पछइ आराधनापूर्वक अगसण लेवरावी दुकृतनी गरिहा. सुकृतनी अनुमोदना करावा, नवकार गुणावतां दिवंगत हूउ । वंकचूल मरी बारमइ देवलोकि देवता हूउ । वंकचूलना ऊर्ध्व कार्य करी, जिनदास जउ पाछउ आवइ तु देवांगना तिम जि रुदन करती देखी पूछइ, 'हिव काई रोउ ? मई तुम्हारई वचनि कागमांसनउ परिहार कराविउ ।' तिवारई देवांगना कहई, 'तइ तिम निर्जराविउ जिम वंकचूल मरी बारमइ देवलोकि गयउ । अम्हारी आस निराम हुई । तु जोउ एहबउ वंकचू ल जे देवभव पाम ते शीलनउ माहात्म्य । इति श्री-वंकचूलनउ चरित्र समाप्त ॥२२॥ एतलइ गृहस्थ जे शीलवंत पुरुष हुआ तेहनी स्तुति कही । हिव जे स्त्री शीलवंत हुई ते कहा अक्खलिय-सील-विमला महिला धवलेह तिन्नि वि कुलाई। इह-परलोएसु तहा जसमसमसुहं च पावेइ ॥४७ व्याख्या:-अस्खलित = खंडना-रहित शील पालवई करी जे विमल = निर्मल छ महिला =स्त्री एहवी त्रिह कुलनई धउलइ = निर्मल करइ, पिता-माता अनइ सुसराना गोत्रादिक प्रगट करइ, त्रिहं गोत्रना पूर्वजनइ अजुयालइ । किसिउं स्त्री एकला कुल जि नइ अजुआलइ ? ना, इहलोकि सर्वविश्व-माहि पण महाजस पामइ । वली परलोकि शील पालिवानह प्रमाणिई यश = कीर्ति, असमसुख = असामान्य सौख्य- बार देवलोक नव ग्रेवेयक, सर्वार्थसिद्धि, मोक्षनां अनंत सुख-ते पणि लइइ । वली शीलवंत महासतीनी स्तुति कहइ जा निय-कंत मुत्तुं सुविणे वि न ईहए नरं अन्नं । आबाल-बंभयारीणं सा रिसीणं पि थवणिज्जा ॥४८ । व्याख्या :- जे स्त्री निज = आपण उ, कांत = वल्लभ मूंकी, सउणा इ माहेि अनेरउ = पर-पुरुष मनि-वचनि करी वांछइ नही, आजन्म मन-वचन-कायनी शुद्धिई जे भर्तार जि नई ध्याइ ते महासती, आबाल-ब्रह्मचारिणी स्त्री, तेहनइ महर्षि = महान्त ऋषीश्वर तेह इ स्तवई, महातमा इ ते स्त्रीना शीलगुण वर्णवई । बिहूं गाहनउ अर्थ हउ । १. K.अम्हारइ भतरि कुण हुसीइ १ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित हिवइ कुलवधू अनइ दुश्वारिणीनउ अंतर कहइपर पुरिस सेविणीओ कुल-रमणीओ हवंति जइ लोए । ता वेसा-दासीणं पढमा रेहा कुलबहूसु ॥४९ व्याख्या :-जउ किमइ कुलवधू परपुरुषनी सेवा करइ तउ लोक-माहि जे वेश्या-दासी, जे सदाइ परपुरुषनी सेवा करइ, तेहनइ पणि कुलवधूनइ धुरि पहिलो रेखा हुई जोईइ । बिहुंनइ अंतर किसिउ ? जे वेश्या ते परपुरुषनो सेवा करती रहइ अनइ जे कुलवधू ते परपुरुषनी वांछा इ न करइ । इणइ क रणि कुलवधूइ पर पुरुषनउ संग सर्वथा वर्जिवउ । तुच्छा वि रमणि-जाई पसंसणिज्जा सुरासुर-नराण । विहिया महासईहिं काहिंचिय विमल-सीलाहिं ॥५० व्याख्या :-अति तोछडी अगंभीर, निंद्य इसी जे स्त्रीतणी जाति ते जाति किणिही एक लान कोडि-माहि एकि 'कुणिई स्त्रीइं महासतीइं विमल शीलनइ पालिवइ करी देवदानवनइ प्रशंसनीयवर्णनीय कीधी ।पणि प्राहइ स्त्रीनी जाति तोछडी-निंद्य सर्व विश्व-माहि कही। घणे प्रकारे निंद्य स्त्रीनी तुच्छ जाति हुइ । अथ कुणि कुणि शील पालिवइ करी स्त्रीनी जाति प्रशंसनीय कीधी ? ते दृष्टांत-पूर्वक कहइ निय सील-महामंतेण पबल-जलणं जलं कुणंतीए । सीलुग्घोसण-पडहो अज्ज वि रुणझुणइ सीयाए ॥५१ व्याख्या :-निज आपणउं शील पालिवा तणउं घोसणरूप जे पडह -वाजित्र ते अजी-आजसीम, जगत्रय-माहि रुणझुणायमान% प्रसिद्ध छइ। आज-सीम समस्त- लोक ऋषि इम कह-जउशीताना शीलनइ प्रमाणिई अग्निकुंड फीटी जलनउ कुंड पद्मसरोवर समान हउ । यदाकालि श्रीरामदेविई दशकंधर रावण हणिउ, शीता पाछो लोधी, तिवारइ शीलभंगनी शंका फेडिवा-भणी सुर, असुर, मनुष्य समक्ष खयरना अंगार भरी खाई, तेह-माहि शीता-माहिई धीज कराविउ । जिम शीताइ खाई-माहि झांप दोधी तिम शीलनइ प्रमाणिई अंगार फाटो पाणी थयां, विचालइ कर्णिका हुई, ते ऊपरि शीता जई बइठी । तिहां देवदेवतां जयजयारव करता शीलनु महिमा वखाणिवा लागा । इत्यादि गाथानउ अर्थ हउ । विस्तरार्थ कथाहत जाणिव । ते शीता चरित्र आगलि कहीसिइ । वली शील पालिवानउ महिमा विशेष कहइ चालणि धरिय-जलाए संघ-मुहुग्घाडणं कयं जीए । चंपा-दारुग्घाडण-मिसेण नंदउ सुभद्दा सा ॥५२ ।। व्याख्या :-शीलनई प्रमाणिई, काचा सूत्रनइ तांतणई बांधी चालणीइ करी कूआ-माहिशिकलं पाणी काढी, देवताए दीधा छइ जे चंपानगरीनां च्यारि बारणां, तेह-माहि त्रिणि बारणा पाणीसिङ छांटी ऊघाड्या । वली एक बारणउं अणऊघाडिउं राखी कहिउं, 'जउ को स्त्री शुद्ध शोलवंत हई ते बार ऊघाडिज्यो ।' इणि प्रकारिई पोलिना बार ऊघाडिवई करी जिणि संघनउं मख ऊघाडिउं, जिनशासन दीपाविउ, प्रभावना कधी ते सुभद्रा स्त्री चिरकाल-सीम नांदउ । गाथानउ अर्थ हठ । विशेष कथा-ढूंतउ जाणिवउ । ते कथा कहीइ १.Pu.L. कुणहि २. K.-लगइ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध [ २३. शील-ऊपरि सती सुभद्रानी कथा] वसंतपुरि नगरि जितशत्रु राजा राज करइ । तिणि नगरि जिनदास श्रीवक वसइ । तेहनी वल्लभा जिनमति शीलवती । तेहनी सुभद्रा एहवइ नामि पुत्रि शीलादिक गुणे करी विराजमान, वाधती वाधती अनेक विद्याभ्यास करती यौवनावस्थाइ भावी । ते मिथ्यात्वनउ माम न सांभलइ । - इसिइ अन्यदा चंपानगरी-वास्तव्य बुद्धदासाभिध श्रेष्ठि व्यवसायनइ हेति वसंतपुरि आविउ, पणि बौद्धधर्मनइ विषयि ते विशारद छ । ते बुद्धदासे अन्यदा जिनदासनइ घरि आविउ किसिइ वाणिज्यनइ हेते । तेतलइ सुभद्रा सालंकार, साभरण तिहां आवी । तिणि बुद्धदासि दीठी। हिवइ तेहनइ रूपइ व्यामोहिउ हंतउ लोकना मुख-तु जिनधर्मनउ सर्व संबंध जाणी कपट-श्रावक हुउ। भाव-पाखइ सर्व महात्मानइ बांदइ , उपदेस सांभलइ । पर्युपास्ति करतां साधु-संसर्ग-लगइ सम्यक्त्वनो रुचि कानी। जिम चापानइ गधि तिल भाव्या हंता सुगंध थाई, चांपेल कहिवाइं. तिम ते जिनधर्म-वासित हुउ । पछइ श्री-वीतरागनी पूजा-वंदना-आवश्यकादि धर्म निरंतर करइ । रत्ननइ लाभि कउण प्रमाद करइ ? अपि तु न कोई । हिवइ जिनदास पणि बुद्धदासना विनीतादि गुणे रंजिउ हूंतउ योग्य वर देखी आपणी पुत्री तेहनई दीधी। भलइ मुहूर्ति, भलइ दिवसि, महा-ऋद्धिनइ विस्तारि, पाणिग्रहण कराविङ । पछइ महा आनंद ऊपनउ । हिव बुद्धदास सुभद्रा-सहित सुखिइ युगलीयानी परिई सुख अनुभवतां, अन्यदा बुद्धदास चीतवइ, 'मई तु घणउं धन ऊर्जिङ । हिवइ पिता-समीपि जई कुटुंबनइ मिलउं।' इम चीतवी सुसरानइ कहिवा लागउ जु, 'तुम्हे कहउ तु हूं चालउं । पितानइ मिल्या घणा दिन हूया ।' तिवारइ जिनदास श्रेष्ठि कहा, 'वच्छ ! ए वात तु जुगती, जे तुम्हे पितानइ मिलिवा चालउ। उत्तमनउ ए आचार छह । पणि विशेष एक छइ ते सांभल। तुम्हारइ जे मातापिता, ते बीजइ धर्मि अनइ जे सुभद्रा, ते तु जिनधर्मि। तु इम किम निर्वाह थासिई ?' तिवारइ बुद्धदास कहइ, 'हूं तिहां गया पछी पितानई प्रणमी, सुभद्रानइ जइ घरि राखिसु।' इम कहिउँ तिवारइ जिनदासि वचन मानिउं । पुत्रीनई सर्व सीख दीधी। तिहां-थिक बुद्धदास चालिउ । पंथ अवगाही चंपा आविउ। सुभद्रा जई घरि राखी, आप पितानइ प्रणमी, धन सर्व आणी पितानइ दोघउं। मातापिता पूछई, 'वह किहां?' बुद्धदास कहइ, 'मह जड़ घरि राखी छइ ।' पछइ सुभद्रा ऊपरि सासु-नणंद वयर वहइ जिनधर्म-भणी । हिवइ ते छिद्र मोती रहइं अनइ सुभद्रा केवलउ जिनधर्म पालती सुखिई रहइ । इम करतां एकदा माहात्मा एक भात-पाणीनइ हेति मध्याह्न-समइ विहरवा आविउ । तेतला बुद्धदासनइ सुभद्रानी सासू कहइ, 'वत्स ! ए सुभद्रा कुशीलि, सदाइ महात्मा-साथि भावइ तिम हसइ, बोलइ ।' तिवारइ बुद्ध दास कहइ, 'हे मात ! सोनइ किवारइ मल बइसइ, पणि ए-माहि कुशीलपण नही ।' वली सुभद्रानी सासू-नणंद मिस जोती रहई। एहवइ ते महात्मा मध्याहसमयि घर-माहि वहिरवा आविउ । हिवइ तेहनइ सुभद्रा प्रासुक भात-पाणी वहिरावइ छ। एहवा सुभद्रा जु महात्मा-सामहूं जोइ, तु सिउं देखइ ? तु वायनउं ऊडिउं तृणउं एक महातमानी आंखि-माहि पइठउं, पणि ते डोलनइ विषइ निस्पृही हूंतउ काढइ नही, अनइ कढावइ पणि नहीं। एहवउं देखी मिक्षा देतां जि लाघवपणइ करी, जीभइ करी आंखिनउं तृणउं कादिङ । पणि १. प्रतोमां वारंवार 'बुद्धिदास' पाठ मळे छे. २. P. लघुलाघवी कलाइ करी, K. लाघव-लगइ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि- विरचित काढतां सीमंतनउ सिंदूर महात्मानइ माथइ लागउ । महात्मा निस्पृही, तें सिंदूर परहउँ न कीउ । हिवइ सुभद्रानइ मनि कपट तु कोई नही । इसिइ सुभद्रानी सासूइ ए सर्व आचरण देखा बुद्धदास तेडी कहिउं, 'ताहरा घरना आचरण जोइ । एतला दिन न तूं मानतु, पणि आज जोई । अजी ते महात्मानइ माथइ सिंदूर छह ।' पछइ बुद्धदास ते सिंदूर देखी पतीजिउ । हिवइ बुद्धदास ते दिवस लगइ विरतउ उ चींतवइ, 'एहवी इ सुभद्रा जउ 'इणइ आचारि हुइ तुहिन दूषण दीजइ ?' अनइ सुभद्रा पणि निस्नेह भर्तार देखी मनि चींतवइ, 'कारिमा संबंध जु साचा भणी, तु किस ते साचा थाई ? पणि असमाधि एह जि एक, जे जिनशासनि आकस्मिक ए अपवाद ऊपनउ । तु हिव काउस्सग्ग तहीई पारउं, जहीई ए अपवाद टलइ ।' इम चींतवी, देवपूजा करी आगलि ऊभी रही कहइ, 'अहो शासन- देवता ! मुझनइ ए अपवाद ऊपनउ छइ, तु हिव काउसग्ग हूं तही पारिसु, जहीहं माहरउ ए अपवाद उतारिषु ।' इम कही काउस्साग जेतलइ लीधउं, तेतलई शीलनइ प्रमाणि शासन- देवता आवी कहिवा लागी, 'वत्सि ! ताहरइ सत्त्विई, ताहरs शीलि हूं इहां आवी । हिवइ जि कांई ताहरइ कथनीय छह, ते कहि, जिम हूं करउं ।' तेतलइ सुभद्रा काउसग्ग पारी, प्रणाम करी कहिवा लागी, 'मात ! ए जिनशासननइ विष कलंक ऊपन छह ते परहउ करि ।' तेतलई शासन देवता कहर, 'वस्सि ! असमाधि म करेसि । प्रभाति तिम करिसु, जिम ताहरउं कलंक ऊतरिसिइ, अनइ वली जिनशासनि प्रभावना होसिह ।' इम कही देवता अदृश्य हुई । ७४ इम करतां रात्रि विहाणी । इसिइ सूर्यनइ उदयि नगरनी पोलि पोलीया उघाडई, पणि ऊघडइ नही । गाईं, वाछरूया, भइंसि, घोडा - सहू इ तृषाक्रांत बारणइ आवी ऊभां रहियां । इसिइ राजानं सुद्धि हुई । राजा आपणपे आविउ । घण अणाव्या, पणि किमाड हालई नही अनइ भाजई नही । राजा पणि खेद पामिउ । पछड़ राजाई स्नान करी धूपना कुडछा हाथि ले कहिवा लागउ, 'जि को देव-दानव कुपिउ छइ, ते आकाशि आवी, प्रगट थई बात कहउ । अम्हे तर जाउं कांइ नही ।' इणि वचनि आकाशि देवतानी वाणी हुई, कहिउं, 'जि को महासती हुइ, ते काचइ तांतणइ चालणी बांधी कुआ-माहि थी पाणी काठी, किमाड त्रिणि वार पाणीई करी छांटइ, तु किमाड ऊघडई ।' पछइ राजाइ सर्व स्त्री तेडावी, चालणी अणावी. काचर तांत बंधावी । पणि किहनइ बांधतां शूट, किनइ बांध्या पछी हाथि लेतां त्रूटइ, किनई कूआकांठई टाइ, पणि कुआ-माहि किनइ कीधर चालणी न पइसइ । इम सर्व स्त्री लिखी हुई । पछड़ राजाइ पडहउ वजाविउ । पणि पडहउ कोई छबइ नही । लोक, राजा आकुल-व्याकुल थया, पणि पोलि ऊघडइ नही । सघली इ स्त्रीनी परीक्षा जोई । तिसिहं सुभद्रा मधुर स्वरि सासू-प्रति कहइ, 'मात ! नउ आदेश दिउ, तु एकवारे हुँ पणि विनोद जोडं । तिवारई सासू हसीनइ कहर, 'आगइ ताहरउं शील जाणिउं । हिव वली कांड लोक-माहि विगूचई १ जु एतली स्त्रीए पोलि नथी ऊघड, तु तई किम ऊघडिसिंह १ पणि ताहरइ जिनधर्म पाखंड निघणा दीसईं ।' तिवारई सुभद्रा कहर, 'मात ! तउ हिवई मद्द पणि पाँचन आचारि आपणी परीक्षा कीजिसिइ ।' इम कही स्नान करी, निर्मल वस्त्र पहिरी, सुभद्रा घर- हूंती नीकली । तिसिहं सासू, नणंद सर्व वार, पणि बलात्कारि जिहां राजादिक लोक ऊभा रहिया छ, तिहां आवी । पछइ बुद्धदास उदासीन हूंतउ तिहां आविउ । सासू, सुसरा सर्व तिहां आव्या । K. इणइ अनाचारि प्रवर्त्त । १. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ शीलोपदेशमाला-बालावबोध तेतलइ सुभद्राई काचा तांतणा लेई चालणी बांधी । सर्व लोक देखतां ते चालणी कुआ-माहि घाती, माहि-थिकउ पाणी काढिउ । पणि एक बिंदु पाछउंन पडिउं। इम पाणी कूआ-बाहरि काढी राजा आगलि ऊभी रही। तेतलइ राजादिक सर्व लोक' जयजयारव करवा लागा। 'वत्सि ! ए नगरिनी पोलि तहि जि उघडिसिइ ।' इम कहतां मंत्रि, सामंत, भूपाल, पौरलोक सर्व सुभद्रा साथि हुआ। सुभद्रा पणि भद्रहस्तीनी गतिइं चालती, वीतराग हीआ-माहि धरती, नवकार ऊचरती, ते महासती पोलिनइ बारणइ आवी, सर्व-साखि कहिवा लागी, 'जउ मइ बुद्धदास टाली इणि भवि मन-वचन-कायाई करी अनेरउ पुरुष चीतविउ हुइ, तु पोलि म ऊघडिज्यो । अनइ जउ परपुरुष न चीतविउ हुइ, तु पोलि ऊघडउ ।' 'इम कही पाणीई पोलि छांटी त्रिण्णि वार । तेतलइ पोलि ऊघडी । आकाशि देव-दुंदुभि वाजी । देवताए जयजयारव कीधउ। इम सासू-नणंद देखतां त्रिणि पोलि ऊघाडी । हिवइ चउथी पोलि राखी, वली कहिउं, 'जि को बीजी इ सती हुइ, ते चउथी पोलि ऊघाडिज्यो ।' इम कही गाजतइ-वाजतइ सुभद्रा सघले देहरे चैत्य-परवाडि करी, राजादिक लोके परिवरी घरि आवी । इसिई सासू, स्वसुरउ, भर्तार आवी आपणउ अपराध खमावी कहई, 'अम्हे वरास्यां । धन्य जिनशासन, जिहां एवडु महिमा छइ।' पछइ राजा आपणइ घरि गयउ । हिवइ बुद्धदास जिनधर्म-ऊपरि सादर हूउ । पछइ केतलउ काल गृहस्थ-धर्म पाली, अवसरि चारित्र पाली, सुगतिनइ भाजन हुओ। इति श्री-शीलोपदेशमाला-बालावबोधे सुभद्रा-कथा समाप्ता ।।२३॥ निअ-सील-रक्खणत्थं तणं व रज्जं पि परिहरंतीए । सयल-सईणं मज्झे इह रेहा मयणरेहाए ॥५२ व्याख्या:-निज आपणउं शील राखिवा-भणी तृणानी परिइं राजनां सुख परिहरीआं जिणि ते मदनरेखा महासती इहां-पृथ्वीमाहि समस्त सतीनइ धुरि पहिली रेखा हुई । इम संक्षेपिड गाथानउ अर्थ हूउ । विस्तरई अर्थ कथा-ढूंतउ जाणिवउ । हिव ते मदनरेखानी कथा कहीइ - ( २४. मदनरेखा सतीनी कथा ) अवंतीदेशि सुदर्शन नगर । तिहां राजा मणिरथ राज करइ, अनइ युगबाहु युवराज-पदवी भोगवइ । तेहनइ मदनरेखा एहवइ नामिई भार्या हुई । ते मदनरेखा आपणां धर्मकरम करती सुखिई काल गमाडि । अन्यदा मणिरथराजाई मदनरेखानउं रूप दीठउं। व्यामोहिउ थिका मदनरेखा-भणी वस्त्र, आभरण, अलंकार, सुखडी मोकलइ। अनइ मदनरेखा जेठना मोकल्याभणी हर्षित-थिको लिइ । इम केतलाएक दिवस अतिक्रम्या । ____ इसिइं मणिरथराजाई दूती मोकली । तिणिइ दूतीई आवी मदनरेखानइ राजानउ अभिप्राय कहिउ जु, 'हे सुभगि ! जे दिवस-लगइ राजाइ तूं दिठी, ते दिवस-लगइ राजा ताहरइ विषइ सानुराग हुउ । हिवइ राजा कहइ छइ, "माहरउ बोल मानि अनइ राजनी धणीआणी तं था।" इत्यादि वचन साभली मदनरेखा कहइ, 'जे सत्पुरुष छई, ते तउ परस्त्रीनउ नाम लेता संकाई, पछइ वांछा किम करई ? तु जोइ-न राजा पितानइ ठामि । जे वधू-ऊपरि अनुराग करइ, ते किसिउं लाज नथी ऊपजती? वली सगउ भाई जीवइ छइ, तेहनी पणि लाज नथी ? अथवा ए १. 'बय जयारव...पौर लोक सर्व ' सुधी पाठ K मां नथी. २. 'इम कहतां...पोलि ऊघडउ ।' पाठ Pu. मां नथी । ३. Pu. जिन धर्म पाली, K. जिन धर्म पाली गृहस्थावासि । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित वात जु ऊपनी मनि, तु प्रकासी काइ ?' इम दासी निर्भछी हूंती पाछी आवी । राजानइ सर्व वृत्तांत कहिउ । राजा मणिरथ चींतवइ, 'जा लगइ ए भाई जीवई, ता लगइ ए मुझनइ नही तेह-भणी पहिलङ तां युगबाहु मारिवानउ उपाय चीतवीइ ।' इम विमासतां, चोरनी परिई किट जोतां वसंतऋतु आविउ । उद्यानवनि सर्व वनस्पती मउरी। एहवड वनपालि आवी राजा पीनविउ. 'स्वामी ! वनस्पती मउरी ।' ए वात सांभली राजा सहर्ष हउ । तिसिई युगबाहु मदनरेखा सहित वन-माहि गयउ । सघलउ दिवस वसंतक्रीडा करी, केलिना घर-माहि जई जेतलइ निद्रा करइ, तेतलइ मणिरथ राजाई अवसर जाणी, छल लही, थोडइ परवारि परवरिउ, दयपणइं शस्त्र लेई, वन-माहि आविउ । तेतलइ युगबाहुना सेवक ऊभा हुआ । मणिरथ कहइ, 'भाई किहां ? आपणइ तु चउ-पखेर वयर छइ, एह-भणी एकलउ भाई देखी हूं तेडिवा आविउ छउं ।' तिसिइ सेवक कहइं, “ए केलिहरा-माहि छइ ।' पछइ राजा खड्ग लेई केलिहरा-माहि पइसी, कुलधर्म, यश, दया लोपी, खगि करी युगबाह हणिउ । एहवइ मदनरेखा पोकार करती जागी, विलाप करिवा लागी । तेतलई पाहरी गमे गमे जाग्या इंता धाई सर्व एकठा मिल्या । पछइ राजाई कहिउ', 'भाईनइ हूं जगाडतउ हूतउ अनइ वरांसह खांडउ हाथ-हूंतु पडिउं ।' इम कही राजा घरि आविउ । पछइ मदनरेखा युगबाहूना काननइ मूलि आवी कहइ, 'रखे तुम्हे राजा-ऊपरि वयर चीतवउ । ए सर्व तुम्हारा भवांतरीक कर्म-लगइ ए वात आवी घटी। हिवइ जउ तुम्हे लगारइ काचउ थाएसिउ, तु परलोक-हूंतउ चूकिसिउ । एह-भणी मननइ समाघि आणु । श्रीवीतरागनउ शरण कर । ममता मूंकु । कहिना कुटुंब ? केहना भाई ? केहना घर ? सधला इंजीव साथिई मित्राचार पडिवजउ । अरिहंत-देव-सुसाधु-गुरु-जिन-प्रणीत धर्म एह जि पडिवजउ । आपणा पाप आलोउ, निंदु । सिद्ध-साखि जि कोई पुण्य कीघउ हुइ, तेहनी अनमोद । महामंत्र नवकार स्मरु । कांइ जु नवकार गुणतां प्राण जाई, तु जीव मोक्ष पामइ । कदापि मोक्ष न पामइ, तुहइ विमानना सुख पामइ । पांच अणुव्रत, त्रिणि गुणव्रत, च्यारि शिक्षाव्रत-इम बार व्रत आदरउ । तुम्हारइ मित्र, पुत्र, कलत्र कोई शरण नही, एक जि जिन-धर्म शरण । वली ए मनुष्यभवनी सामग्री दोहिली छई, तेह-भणी हिवडा प्रमाद म करिज्यो ।' एहवा मदनरेखानां वचन सांभली कोप उपशमिउ । संवेगरंग-पूरिउ हूंतउ मरी ब्रह्म-देवलोकि देवता हउ। इसिई सती मदनरेखा. पुत्र चंद्रयश, बीजा इसवें परिवार विलाप करतां देखी चींतवइ जु, 'हं गर्भि-हंती विलय कांड न गई, जे माहरउ' रूप एवडा अनर्थनई हेति हुई ? जे युगबाहु विनाश पामइ, तेहनउं मूल हू थई, जिम सूकडिना वृक्षनइ परिमल विणास ऊपजावइ । तु हिव ए वात तां इम हुई, पणि मइ आपणउ शील किम राखीसिइ ते उपाय चीतवउ ।' पछह कांइ एक मन-माहि ध्याई, सर्व पुत्रादिक तृणनी परिई परिहरो, सघलानो दृष्टि वंची, रात्रिन समइ नाठी । पूर्वदिशिइं जाती, गर्भ धरती, संसारनी असारता चौंतवती, पगे डाभनी पीड सहती अटवी-माहि पइठी । तिसिई रात्रि अतिक्रमी । पंथ अवगाहतां मध्याह-समई तलावि आवी पाणी पीधउं, फलफूल आस्वाद्यां, त्रिषा-बुभुक्ष्या उपशमावी, संध्यानइ समह सागार पच्चखाण पच्चक्खी, वेलिना घर-माहि सूती नवकार स्मरती । इसिई रात्रिई सिंह बोलइ महा भयंकर वन-माहि । तिहां सर्वांग सुंदर पुत्र प्रसविउ, जिम पूर्व दिशि सूर्यनइ प्रसवइ । पछइ तलावि आवी, पाणीइ करी सर्व शरीर धोई, बालकरत्न कंबलिइ वीटी, हाथि भतारना नामनी मुद्रिका Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलपदेशमाला - बालाबोध घाती, हर्ष धरती वेलिना घर-माहि बालकनइ मूकी, आपणपइ तलानि पाणी पीवा-भणी जेतलइ आवर, तेतलइ पाणी-माहि-थिकउ जलहस्ती नीकलिङ । तिणि मयणरेखा अपहरी आकाशि ऊलाली । तेतलइ नंदीश्वरि यात्रा -भणी विद्याधरेश्वर जातउ हूंतउ, तिणी मदनरेखा पडती झाली, कामनउ वा हिउ लेई चालिउ । तेतलइ मदनरेखा विलाप करती कहा, 'हे बांधव ! मुझनइ मूकि, जिणि कारण काननवन - माहि जातमात्र बालक मूंकिउ छइ, तेहनइ स्वापद खाईसिहं । वली स्तन्यपानपाखइ बालक मरिसिइ । तेह-भणी कृपा करि मुझनइ तिहां मूकि अथवा ते बालक इहां आणि ' तिवारs विद्याधर कहइ, 'ए वात हूं तु करउ, जु मुझनइ मानह, भर्तापणइ पडिवजइ । एक ए रूडउं हूउं, जे तीणइ हाथीइ तूं ऊलाली अनह मइ पडती झाली । नहीतरि मरण हुउ हुतउं । हिव एक बोल माहरउ मानि । जिणि कारणि हूं मणिचूड विद्याधर - चक्रवर्त्तिनउ पुत्र मणिप्रभ विद्याधर एहवइ नामिइ, पितानइ प्रणाम करवा जातउ हूंतउ एहवइ मइ तूं दीठी । हिव तूं मुझनइ पडिवजी, विद्याधरनो स्वामिनी था । वली ताहरइ जे पुत्रनो आर्ति छइ, तेहनी वात सांभलि । मिथिला नगरीनउ अधिपति श्री पद्मरथ राजा वक्र-शिक्षित घाडइ अपहरिउ, वन-माहि आविउ हूंतउ । तिणि ते बालक रोत सांभलो तिहां आवी बालक लीघउ सर्वाग-सुंदर देखी । पछइ आपण घरि लेई भार्या पुष्पमाला, तेहनइ पुत्र मानोनइ आउ । कहिउ, "आपणइ एह जि पुत्र ।" इम कही सुखि ते पुत्रनइ पालइ छइ । ए वात मुझनद प्रज्ञप्ति - विद्याइ कही । हिव ए विखवाद मूंकि । मुझनइ आदरि ।' तिवारहूं मदनरेखा विषाद करती मन-माहि चतवइ, 'एतला दिवस - ताइ मई आपण शील राखिडं, पणि हिव किम कीजिसिंह ? कउण उपाय चतवीसिइ १ शील तु सही पालिङ जोईइ अनइ ए तु स्मरार्त' । तु कांई कालक्षेप करउं ।' तेह-भणी कहर, 'हे महाभाग ! पहिलउं मुझन नंदीश्वरि यात्रा करावि । पछइ जिम कहेसि, तिम करिसु ।' तिवारइ संतुष्ट वर्तमान मानिउ । ७७ पछइ मदनरेखानइ नंदीश्वरि यात्रा लेईं चालिउ । क्रमिइ नंदीश्वरि आव्यउ | बावन चैत्यदेव नमस्करिया । तेतलइ मणिचूड मुनि चतुर्ज्ञानी तिहां आविउ । तिणि मणिप्रभि आपणउ पिता आविउ जाणी, प्रदक्षिणा देई, आगलि बइठउ । तिसिइ पिताइ तिम कांई उपदेश दीघउ, तेहवउ कांई संसारनुं असारपणउं देखाडिउं, जिम मणिप्रभ ऊठी मदनरेखानई बहिनपणई पडिवजी खमाविवा लागउ, 'बहिन ! हूं वरांसिउं । हिवइ मइ मननउँ कुटिल रणउं मूंकिउं ।' पछइ ज्ञानीमहात्मा-कन्हइ पुत्रनउ सर्व वृत्तांत पूछिउ । ज्ञानीइ मूल-हूंतउ आरंभी सर्व वृत्तांत पुत्रनइ कहिउ । तिहां मणिप्रभि परदारनउ नीम लीघउ | इसिइ आकास- इतु ऊतरी देवता एक महा रिद्धिनइ विस्तारि, मदनरेखा - पाखती त्रिणि प्रदक्षिणा देई, प्रणाम कीधउ | पछड़ मुनिनइ प्रणाम कीधउं । एहवउ असमंजस स्वरूप देखी मणिप्रभ देवता-प्रति कहा, 'अहो देवेंद्र ! चतुर्ज्ञानी उल्लंघोनइ पहिलउं स्त्रीनइ प्रणाम करइ, तु तुझन सिउं कहीइ ?' इम उलंभइ दीघइ वलतउ जेतलई देवता बोलाइ, तेतलइ चारण- श्रमण महात्मा बोलिउ, वत्स ! उलंभउ म दइ । ए तु कृतज्ञ, उत्तम, जिणि कारणि ईणी मदनरेखाइ युगबाहु भरतारनइ जिवारई खड्ग करी आणि वेदनाग्रस्त दीठउ, तिवारइ एहनइ तेहवा कांई उपदेश दीघा, जे उपदेशनइ प्रमाणिइ मरी पांचमइ देवलोक देवता हूउ । पछइ P. कामार्त्त छ । · १. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु सुन्दरगणि-विरचित " अवधि बलि धर्माचार्य गुरुनउ आचार साचवतउ ए मदनरेख! महासतीनइ प्रणमइ । ते ए आचार - इहां दोष कांई नही । जिणि कारणि अणगार अथवा जि को जेहनइ उपदेश दिइ, ते तेन गुरु । इहां संदेह कांई नही । ईणी मदनरेखाइ प्रांतकालि भर्तारनइ सम्यक्व देतां कउण कउण वस्तु न दोघी १ अपि तु सर्व दीघउ ।' ए वात सांभली विद्याघर देवतानां खमावइ । तेतलइ देवता मदनरेखानइ कह ' कहि, सिउं करउं तुझनई ?' तिसिई मदनरेखा कहर, 'मुझनइ मिथिलानगरी लेई मूकि, जिहां ते लघु पुत्र छइ ।' नेतलइ देवताइ क्षण एक माहि तिहां 'लीधी । तिहां नमि अनइ मल्लिनाथ प्रणम्या महा-प्रासादि । पछइ साध्वी कन्हई जई धर्म सांभलिवा लागी । एहवइ देवताए कहिउं, 'आवउ, जिम पुत्र देखाउं ।' तिवारइ मदनरेखा कहर, 'माहरs पुत्रि सिउँ कीजइ १ केता पुत्र आगइ हुआ छ३ । हिवह मुझनइ चारित्र शरण ।' पछइ देवता महासतीनइ प्रणाम करी आपण ठामि पहुत उ । मदनरेखाइ दीक्षा लीधी । हिवर श्री पद्मरथराजाइ ते पुत्र घरि पालतां वइरी सर्व नमाव्या, तेह-भणी 'नमि' ए नाम दीघउं बालकनइ । क्रमिदं बालक वाघतउ योवनावस्थाइं आविउ । तिसिहं पिताईं एक सउ आठ कन्या परिणावो | महांत योग्य जाणी पिताई आपणउं राज दीघउं । पछइ आपणपे पद्मरथराजाई दीक्षा लोधी । क्रमिइ मोक्ष (?) पहुतु । हिवइ मणिरथ युगबाहु बांधवनइ हणी घरे आविउ, रात्रि * सर्पइ खाघउ मरण पामी चउथी नरग-पृथ्वीइ गयउ । पछइ प्रधान मिली युगबाहुनु पुत्र चंद्रयशकुमार, तेहनइ राज दीघउ । ते राज आपणउं सुखिइ पालिवा लागउ । इसिहं नमिराजानउ पट्टहस्ती श्वेत, भद्रजातीय, आलानस्तंभ उन्मूली, वंध्याचल स्मरतउ नीकलिउ । तेतलइ मार्गि जातां चंद्रयशराजाना जण, ती झालिउ । पछइ ए वात चरना मुख इतु नमिराजाइ जाणी, दूत मोकली हाथीउ मंगाविउ । तिवारइ दूत - प्रति चंद्रयश-राजाइ कहिउ', 'नमिराजा नीतिनउ जाण नहीं | कांई परहस्तगत वस्तु फोकट किम लाभइ ? ए वस्तु जेहनइ हाथि चडी, ते तेह जिनी ।' इम कही दूत अवगणी विसर्जिउ । तिणि दूति आवी नमिराजानइ कहिउं, 'तिहां तु तुझनई को न मानइ ।' पछइ नमि प्रयाण - भंभा देवरावी, सर्व - सैन्य मेली नीकलिउ । तिसिईं वली दूत एक मोकली कहाविउं जु, 'हाथीउ आपि, नहीतरि हूं आवउं छउं ।' इस चंद्रयश राजा पणि चतुरंग दल मेली साम्हउ नीकलिवा लागउ । तेतलड् अपशकुन हुआ । प्रधाने वारी राखिउ । पछइ नगर जि माहि कटक मेली रहिउ । तिसिह नमि आवी गढ वीटिउ । सदा युद्ध हुइ, ढीकुली-यंत्र वहई, घणा सुभट रणि रहई, वाचित्र वाज, कायर भाजई, सुभट गाजई । तिसिह महासतीई ए वात सांभली, मन-माहि चींतवर, 'ए बेहू सगा भाई छ, पणि घणा लोकनउ क्षय करिसिईं ।' एह-भणी आर्या पूछी, आपणठ वृत्तांत कही, नमिराजा - कन्हइ महासती आवी । नमिदं पणि विनय प्रतिपत्ति कीधी, कांइ जे स्नेह 'अहो राजेन्द्र ! लक्ष्मी समुद्रना कल्लोलनी संसार देखी एवडुं जे झूझ करउ छउ, ते वडा भाई साथिई झूझ करवा युगतउं नही ।' महासति ! कउण वडउ बांधव ?' महानमिराजा वलतडं कहइ, 'किम ?" तिवारह ते जाइ नही । पछ३ महासती कहिवा लागी, परिहं चाल छइ । तु नमिराजन ! ए असार नरग - जि- नइ हेति । अनइ वली विशेष सांभलि । तिवारई नमि आश्रर्यमइ वचन सांभली कहह, 'हे सती कहइ, 'एह जि चंद्रयश राजा ताहरउ बांधव ।' ७८ १. ४. K. पहुचाडी । २. K. L. पवत्तिणि-कन्हइ । ३. Pu. L. देवरावउं । P. L. सर्पना डंस लगइ मरण । ५. K सर्वत्र 'चंद्रयशा' नाम आपे छे । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-पालावरोध महासतीइ सर्व वृत्तांत-संबंध, जिम युगवाह हणिउ, जिम नमि पद्मरथइ राजाई लीघउ-इत्यादि सर्व वृत्तांत कही, पछइ मुद्रिकारस्न उलखाविउं । रत्नकंबलनउ वृत्तांत पणि पुष्पमाला-इंतु जणावी रोष गमाडिउ । पणि नमिराजा अहंकार न मूंकइ । कहइ, 'हूँ किम नमी दिउं? हिव लोकमाहि शोभा न पाम ।' पछइ महासती चंद्रयश-कन्हइ गई । सघले उलखी। सर्व अंतपुरी पगे लागी । तिहां चंद्रयशराजाई माता उलखी, सघलउ वृत्तांत मा-कन्हइ पुछिउ । कहिलं, 'ते गर्भ किहां ?' तिसिई महासती कड्इ, 'जे नमि आविउ छइ, ते ताहरउ भाई ।' ए वात सांभली, वयर मूंकी, सर्व ऋद्धिनइ विस्तारि भाईनइ मिलिवा-भणी सामुहु आविउ । तेतलइ नमि पणि भाई आवतउ देखी सामह आविउ । बेह भाई मिल्या, चंद्रमा नइ सूर्यनी परिहं शोभिका लागा। ते बेहूं नगर-माहि आव्या । महा हर्षे ऊपनउ। इसिड चंद्रयश राजा कहा, 'भ्रात! सुणा(?णि), घणा दिवस-लगइ माहरी मनसा दीक्षा लेवा ऊपरि हती। पणि राजनइ योग्य कोई नहीं। हिवई बांधव ! ए राज तूं लिइ । मुझनइ दीक्षा लेवा दिइ, जिम आपणउ मनोरथ सफल करउं।' इम कहो नमिनइ राज देई चंद्रयशि दीक्षा लीधी। आपणउ काज साधिउं। पछइ नमिराजाई बेहू राज आपणइ वसि करी अखंड राज पालिवा लागउ। इसिई नमिरायनइ डीलि पूर्वकर्मना उदय-लगइ छमासी महादाघ ऊपनउ । अनेक वैद्य तेड्या, पणि उपशमइ नही । पछइ सूकडिना लेप भगी राणी संघली सूकडि घसिवा बइठा । तिसिइ प्रधान आवी राजा-कन्हइ पूछा, 'स्वामी ! समाधि छइ ?' राजा कहइ, 'ए जे सूकडि घसतां वलयना खटका हुई छई, ते महा मुझनइ असुखदायक छई ।' पछइ प्रधानि आवी सर्व राणीना वलय ऊतराब्यां । एक एक वलय मंगलिक-भणी राखि। सूकडि घसाइ छ । एहवा राजाइ कहिउं, 'हिवडां समाधि छइ । खटका काई नथी हंता १' प्रधान कहा, 'एक जि वलय राखिउं छई, तिणि करी खटका नथो हूंता ।' राजा चीतवह, 'जिहां घणा संबंध, तिहां घणा कर्म-बंध ।' पछइ चारित्रावरणी कर्मनइ क्षयि एवी बुद्धि ऊपनी, 'जोउ, जां घणां वलय हूंर्ता, तां खटका थाता हूंता । हिवडां एकलां वलय कांइ नथी वाजतां । तिम ए संसार-माहि घणा कुटुंब, घणी राजऋद्धि, तां कर्मबंध । जिवारई जीव एकलउ, तिवारइ सुखी । जिम एकणि हाथि ताली न वाजइ, तिम एकलां कर्मबंध न हुइ।' इम मनि विमासी वला विमासइ, 'जु ए वेदना उपशमसिइ, तु हूं दीक्षा लेसु ।' इसिउं चौतवी जेतलइ सूतउ, तेतलइ निद्रा आवी, समाधि ऊपनी । तिसिइ सउणा-माहि मेरुपर्वत-ऊपरि श्वेतगजारूढ आपणपउं देखी जागिउ । जाग्या पछी सर्व कुटुंबनी ममता की प्रभाति दीक्षा लीधी । एहवइं इंद्र अवधिनई बलिई गजाना चरित्रनु सत्त्व देखी परीक्षा-भणी ब्राह्मणनइ वेशि आवीनइ कहइ, 'अहो नमि! तूं दीक्षा लिइ छइ, पणि पाछइ मिथिला-नगरीइं आगि लागी छइ । तु पाछउ बलि ।' वलतूं नमि कहइ, 'मिथिला दाझतइ माहरउं कांई नथी दाझतउ ।' वली इंद्र कहइ, 'जउ चारित्र लेसि, तु पहिलघुपुत्रनई काजि गढ-मढ-मंदिर करावि, पछइ चारित्र लेजे ।' तिवारई नमि कहइ, 'धर तु वाट-माहि न करावीइ । जिहां शाश्वतउं ठाम हुइ, तिहां करावीइ ।' इत्यादि वचने नमिनी द्रढिमा देखी, इंद्र प्रत्यक्ष हुई, प्रणाम करी कहइ, 'अहो ! तू धन्य, जे तई एहवी बुद्धि आणी ।' पछइ आपणउ अपराध खमावी, इंद्र आपणइ ठामि पहुतउ । अनइ नमि आपणउं चारित्र पाली कार्य साधिउं । हिव मदनरेखा महासती पणि आपणउं शील पाली उत्तम पर्द साधिउं । इति मदनरेखा महासती कथा समाप्ता ॥२४|| Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित जिम मदनरेखाइ शीलरक्षा भणी तृणानी परिई राजऋद्धि परिहरी, शील पालिडं, तिम अनेरी स्त्रीए इम जि शील पालिवउं । ते दृष्टांत - पूर्वक कहइ - ८० नंदउ सीलादिय - जणविंदा सुंदरी महाभागा । अंजणसुंदरि-नमयासुंदरि - रइसुंदरीओ य ॥५५ व्याख्या:- ते सुंदरी महासती १, अंजणासुं री २, नर्मदासुंदरी ३, रतिसुंदरी ४ - ए च्यारि‍ महासती चिरकाल - सीम नांदउ । ते किसी छइ ? जीणि शींलि गुणि करी हर्षाव्यां सर्व-जन - लोकना I वृंद = समूह छ । वली किसी छइ ? महाभागा = महा भाग्यवंत ते कहीइ जेहनइ आजन्म-मरणांत-सीम एक इ अपवाद नथी हूउ । एतलउ गाथार्थ थयउ । विशेष अर्थ कथा - हुंत जाणिवउ । तिहां पहिलउं सुंदरीनी कथा कहीइ (२५. सती सुंदरीनुं दृष्टांत) इणी अवसर्पिणीह श्री आदिनाथ, नाभिराजानु पुत्र, विनोता-नगरीइ राज करइ । सुमंगलासुनंदा ए बि भार्या सहित सुखिई काल अतिक्रमावर । अन्यदा सुमंगलाई चऊद सउणां दीठां । पछइ तिणि जई ऋषभदेवनइ कहिउं । स्वामी कहइ, 'ताहरी कुखिहं चक्रवर्ति होसिइ ।' ए वात सांभली गर्भ वहतां सार्धाष्ट नव मास गया । पछs भरत नइ ब्राह्मी युगल सुमंगलाइ प्रसविउं । तिसिह वली सुनंदाइ पणि बाहुबलि नह सुंदरी युगल प्रसविउँ । पछइ वली सुमंगलाई ऊगणपंचास पुत्र - युगल प्रसव्यां । जिम गज वन माहि वाइ, तिम सउ पुत्र वाघिवा लागा । मोटा हुआ। यूथनाथनी परिहं स्वामी पुत्रे वीटिया रहई । तिहां सउ शिल्प स्वामीई लोकना व्यवहार-भणी प्रकट कीधां । भरतनई बहुत्तरि कला भणावी, तिम बीजाइ पुत्रनई बहुत्तरि कला सीखवी । कांई सुपात्र शालिना बीजनी परिहं शतधा विद्या वाइ । पछइ वली बाहूचलिनइ पुरुष, स्त्री, हस्ती, अश्वनां लक्षण संपूर्ण सीखण्यां, अनइ अढाइ लिपि ब्राह्मीनइ सीखवी । सुंदरीनइ पणि गणितादि विद्या सीखवी । इसिह कल्पवृक्ष पणि फलादि देता रहिया । युगलियां सीदावा लागां । एहवइ अग्नि-धर्म प्रकट थयउ । इम एकदा युगलियां श्री ऋषभदेवनइ राज्याभिषेक करवानी वांछाइ गंगार पाणी लेवा गया छ । एहवइ स्वामीनइ राज्याभिषेकनउ समय जाणी, इंद्रह आवी स्वामीनह राज्याभिषेक करी, सोनानी कांब लेई आग'ले ऊभउ रहिउ । इसिइ युगलियां आव्यां । स्वामी सालंकार, साभरण देखी विनय लगइ पाणी पग- ऊपरि नामिउं । तिहां इंद्र तूठउ । पछइ विनीतानगरी की भी । नवी राज्यस्थित सर्व स्वामी कीधी । पछइ स्वामी संसार सुख-विमुख हूंता, भोगफल - कर्मन क्षयि लोकांतिक देव आवी दीक्षानु समय बोलइ जु, 'स्वामी ! धर्मतीर्थ प्रवर्तावर ।' तेतलइ स्वामी ज्ञानि करी दीक्षानु समय जाणी, भरत चक्रवर्तिनइ मूलगू राज्य दीघउं, अनइ बहुलीदेसनु राज्य बाहुबलिन दीधरं । बीजा इ पुत्रनई एकेकउ देस विहिची दीघउ । पछइ स्वामीइ दीक्षा लीधी । आर्य-अनार्य देसि स्वामी विहार करता वरसमइ दिनि श्री श्रेयांसनइ घरि पहिलउं पारणउं इक्षुरसि करी की उं । तिहां थिकउ दान-धर्म विस्तरिउ । देवताए साढीबार कोडि सुवर्णनी वृष्टि कीधी । हिवइ स्वामी छदमस्थावस्थाइं सर्व देसि विहार करता, एक सहश्र वर्षनइ 'अतिक्रमि, अयोध्यानइ परिसरि, पुरिमतालपुरि, शकटमुख उद्यानवनि, ऋषभनाथनइ अष्टम-तपि न्यग्रोध वृक्ष-तलइ फागुण वदी इग्यारसिहं केबलज्ञान ऊपनउं । देवताए समवसरण कीधउं । तिहां इंद्रादिक देवताए केवल - महिमा की उ । १. K आंतरइ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध इसिइ भरत चक्रवर्ति सभा-माहि बइठउ छइ, तेतलइ यमक-समकि बिहुं पुरुषे आवी सभा-माहि भरतनइ वधामणी दीधी , कहइं, 'स्वामी! श्री ऋषभदेवनइ केवल ऊपन।' तेतलइ वली बीज वधामणी दोधी, कहइ. 'स्वामो! आयुधशाला-माहि चक्ररत्न ऊपन छ ।' पछइ ए बेहूं वात सांभली भरत चौतविवा लागउ, 'तां चक्ररत्ननो पूजा संसारनइ हेति छड़, अनइ जे स्वामोनइ ज्ञाननी उत्पत्ति ते तु मोक्षनइ हेति ।' इम विमासीनइ भरत श्रीऋषभदेवनइ वांदिवा-भणी सपरिवार सेनासहित नीकलि उ । पछइ तिहां पूर्वद्वारि समवसरण माहि आवी, त्रिणि प्रदक्षिणा देई स्वामीनइ वांदी, यथायुक्तिइं भरत बइठउ । हिवइ स्वामी सर्व भाषाइ सर्व जीवनइं उपदेश दिइं जु, 'संसार-रूपीया क्षारसमुद्र-माहि जरा-व्याधि-दुर्गति-रूप नक्र-चक्रे संक(व)लित तिहां प्राणीनइ किसिउं सुख छ? पणि तिहाइ केएक जीव सुरस्थलनइ परिई सुख पामई । तु चतुर्गतिक संसार-दुक्ख-रूप-माहि विचरतां मोक्षनी वांछा कीजइ ते यत्निई करिवउं ।' इत्यादि उपदेश सांभली पांच सइ पुत्र भरतना दीक्षा लेषा लागा । सात सइ पोतरा पणि दीक्षा लेवा लागा । तिवारई भरति ब्राह्मीनइ आदेश दीघउ । ब्राह्मीइ पणि दीक्षा लीधी । सुधाकुंड पामी कुण अमृतपान न करइ ? अपि तु सहु-इ करई । तिसिइ बाहूबलिई पणि सुंदरोनइ अनुमति दीधी, 'जा, चारित्र ल्यइ ।' तेतलइ भरति सुंदरी दीक्षा लेती राखी। पछइ स्वामीनई पहिली श्राविका हुई । हिवइ सुंदरीनउं सुंदर रूप देखी स्त्री-रत्ननी वांछाइ सुंदरी रावो मूंकी । भरतइ पणि श्रावकन उ धर्म पडिवजिउ । पछइ चक्ररत्ननी पूजा करिवा-भगी भरत आवशाला-माहि गयउ । तिहां प्रदक्षिणा देई, चक्ररत्ननह नमी. • अष्टारिका महोत्सव करी, भरत दिग्विजय भणी चालिउ । तेतलइ सोल सहश्र यक्ष सेवा करवा लागा। हिव भरत छइ खंड साधि छइ एहवइ वली चक्ररत्न १, खड्गरत्न २, छत्ररत्न ३, दंडरत्न ४-ए च्यारि रत्न आयुधशाला-माहि ऊपनां । पणि च्यारिइ एकेंद्री जाणिवां। हिवइ - कागिणीरत्न ५, चर्मरत्न ६ अनइ मणिरत्न ७-ए त्रिण्णिइ लक्ष्मीनइ घरि पाम्यां । सेनापति ८. गृहपति ९, पुरोहित १०, वार्षिक ११-ए च्यारि रत्न विनितानगरिइ हूआं । गजरत्न १२, अश्वरत्न १३ वैताढय-मूलि पाम्यां । वली स्त्रीरत्न १४ ए विद्याधर-श्रेणिइं ऊपन । - इम चऊद-इ रत्न ऊपनां। हिवइ भरत साठि सहस्र वर्ष लगइ सघलइ दिग्विजय करी पाछउ आविउ पछइ भरत चक्रवर्ति विनीता-नगरीइ आवी बार वरस-लगई राज्याभिषेक कराविउ । एहवइ सुंदरीइ सांभलिडं, 'जे स्त्री-रत्न हुइ ते छट्ठी नरग-पृथ्वीइं जाइ।' ए वात सांभली सुंदरी मनि अपार दुक्ख धरिवा लागी, 'धग माहरा रूपनइ, जे रूप-लगी नरकि जाई । तु तिणि रूपि, स्त्री-रत्ननी पदवीइ किसिउं करिवउं छइ जेह-लगइ नरग पामीइ?' इम चीतवी साठि सहश्र वर्षलगइ सुंदरीई आंचिल कीधां । पणि तपि करी सूकी लाकडी-सरीखी हुई। . ____एहवइ भरत चक्रवर्ति छइ खंड साधी घरि अंतःपुर-माहि आविउ । इसिइ सुंदरी दूबली - दीठी । सूआर पूछया, 'कहु रे ! माहरइ घर किसिउं धान न हुंतु ? किं वा खादिम न हंतां ? किं वा स्वादिम न हुतां १ अथवा कोई कृपण भंडारी हूंतउ, जे देतउ कांई नही ? कि वा वस्त्र अलंकार पहुचतां न हुंतां ? अथवा मू जावतां एहनइ कुण दूहवइ छइ ? किं वा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ मेरुसुन्दरगणि-विरचित काई रोग छइ ? अथवा काइ वैद्य न हुंतउ ? अथवा ऊषध माहरइ घरि लाभतां न हुंतां ? अथवा ए धुरि-लगइ किसिउ दूबली जि छइ ?' इम कहिइ हृतई अधिकारी छइ तीणइ प्रणाम करी भरतनइ कहिउं, 'स्वामी! जे दिवस-लगइ तुम्हे दिग्विजय-भणी चाल्या, ते दिवस-लगइ स्त्री-रत्नपणानी अणवांछाइं साठि सहस्र वर्ष-सीम कर्मना क्षय भगी आंबिल कीधां ।' हिव ए वात सांभली भरत पश्चात्ताप करतउ सुंदरी-समोपि आवी पूछा, 'कहि-न, तूं दीक्षा लेणहारि छइ ?' तिवारई सुंदरीइ कहिउं, 'हा।' तिसिई भरत कहिवा लागउ, 'मई जे तुझनइ चारित्र लेतां विघ्न कीधउं ते खमि । काई धन्य ते, जे चारित्र पालइ । अनइ एक हुँ 'अभागीउ छउं, जे विषयनउ वाहिउ चारित्र न लिउं । तु तु चालि, जिम परमेश्वर-समीपि जई दीक्षा तुझनइ देवरावउं।' इसिइ त्रैलोक्यनउ नायक विहार करतउ अष्टापदि आवी समोसरिउ । देवतानी कोडि तिहां मिली। तेतलइ भरतनइ कुणहि एकणि आवी वधामणी दीधी ज, 'स्वामी अष्टापदि समोसर्या ।' पछइ तेहनइ भरति साढी बार कोडि सुवर्णना आपी वधामणा-भणी । तिसिई सुंदरी कहइ, 'हे भरत ! माहरा मनोरथ फलिया, जे स्वामी आव्या । हिवइ हूँ दीक्षा लिउँ ।' तिसिई भरत सपरिवार, सनागरिक स्वामीनइ वांदिवा चालिउ। तिहां स्वामीई धर्मोपदेश दीघउ । पछइ भरति संदरीनइ दीक्षा-महोत्सव कराविउ । तिवारई सुंदरी साथिई घणी स्त्रीए दीक्षा लीधी। सुंदरी महा हर्ष धरती कहइ, 'स्वामी ! धन्य ते, जे ताहरउ मार्ग आदरइ ।' इम कहती सुंदरी महासती-माहि आवी बइठी। अनइ भरत वांदी अयोध्याई पहुतउ । हिवइ सुंदरी निर्मल चारित्र पाली, घातिया कर्मनउ क्षय करी, मोक्षि पहुती । इम संक्षेपिई सुंदरीनउ दृष्टांत कहिउं ॥२५॥ हिवइ अंजणासुंदरीनउ दृष्टांत कहीइ [२६. अंजनासुदरी-दृष्टांत ] ईणइ जंबूद्वीपि वैताढ्य-पर्वति प्रहलादनपुर नगर । तिहां प्रहलादन नामई राजा, पद्मावती राणी । तेहनउ पुत्र पवनंजय एहवइ नामिई छइ । हिवइ तेहनइ ऋषभदत्त एहवइ नामि मित्र । ते साथिई क्रीडा-विनोद करतां मित्र-सहित सुखिइं काल गमाडइ । ___ इसिई तीणइ जि वैताब्य-पर्वति अंजनपुर नगर । तिहां अंजनकेतु राजा, अंजनावती राणी। तेहनी पत्री अंजनासुन्दरी पणि महा रूपवती, गुणवती, भणती-गुणती सर्व कलानइ पारि पहती ।। वात सघले राजानई देशि प्रसरी जु-'आजनइ कालि एडवर्ड रूप-लावण्य अनेथि नथी।' पछइ सघले राजाए आपणउ आपणउ प्रधान अनइ आपणां आपणां रूपनां पट मोकल्यां । हिवह राजा सर्व पट लोड, पणि एकु-इ रुचइ नही । ईसिई पवनंजयकुमारनउ पट आणि उ । ते देखी अनेरा सर्व हमारना पट नांखी, ते रूप जोवा लागउ । राजा पछइ अंजनासुंदरी अनइ पवनंजयना रूपनड रीवाद देखो प्रधान छिर, 'जोइन, सरी वां रूप छइं ।' तिवारइं प्रधान कहिवा लागउ. 'स्वामी ! रूप जोतां तु देवदत्त-कुमारनउ रूप अधिकउं छइ । पणि केवलीइ कहिउं छह जउ. र वरसि मुक्तिगामी होसिई। एह-भणी ते अल्प-आयु जाणी ए संबंध रहउ । पवनंजयनउ संबंध करउ ।' १. K. प्रमादी छ । २. K. L. Pu. रायतने पसरी । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध हिवइ अन्यदा नंदीश्वरि शाश्वतां चैत्य वांदिवा-भणी विद्याधरनां सहश्र मिल्या छई । तिहां अंजनपुरनउ अधिपति पणि आविउ छ । तिसिई प्रहलादन-राजानउ पुत्र पवनंजय देखी, योग्य जाणी अंजनासुदरी कन्या दीधी। तेतलइ नैमित्तिकि लग्न दीघउं । पछइ बेहूं राजा आपणे आपणे घरे आर्व विवाहनी सामग्री कोधी । अंजनकेतु-राजाई महाऋद्धिनइ विस्तारि सामग्रो करी श्री-प्रहलादन-राजा-भणो लान-पत्रिका मोकली । हिव प्रहलादन-राजाई पणि सर्व कुटुंब तेडी जान चलावी । कांई पुत्रनइ काजिई कहिनइ उत्साह न ऊपजइ ? इसिइ ऋषभदत्त पवनंजयकुमारनइ कहइ, 'हे मित्र ! आपणो मैत्रीनउ स्नेह भाजतउ दोइस छइ ।' तिवारइ कुमार कहइ, 'मित्र ! चालि, कउतिग जोई आवीइ, कन्या केवी छह । कांई स्नेह भाजिसिइ ? चाल तउ, ए वात जोईइ ।' पछइ बेहू मित्र विमानि बहसी प्रच्छन्न रात्रि सुसुरानइ घरि अंधकार-पट पहिरो आव्या। जिहां अंजनासुदरी सखीइं परिवरी वात करइ छह, तिहां आव्या । तिसिइ एक सखी कहिवा लागी, 'हे अंजना सुंदरि ! जे ताहरई कीधई वर जोयउ हतउ, तेहनई आऊवउं थोडउं । ते नात्र तउ रहिउं । अथवा वली तीणइ नात्रइंसि कीजई, जीणइ वियोग हुइ ?' तिसिइ अंजनासुंदरी कहइ, 'हे सखि ! थोडी-इ अमृतनी छटा किहां लाभइ १ ते देवदत्तकुमार किहां मुक्तिगामी ? ए वचन सांभली पवनंजयकुमार सिंहनी परिह कोपारुण-लोचन हूंत उ खड्ग लेई मारिवा ऊठिउ । तेतलइ ऋषभदत्ति हाथ-हूंतउ खांडउं ऊदाली लीधउं, 'हिवडां ए कोपनउ कउण अवसर ? भला मनुष्यनइ ए वात युगती नही । एक वली आपणपे पारकइ घरि आव्या, वलि रात्रि, अनइ ए अणपरिणी पारकी स्त्री कहिवराइ ।' इसिङ कही खांडउं पाछउं घताविउं । पणि कुमार मनि दूहवाणउ । पछइ विरतउ हूंतउ घरि पाछ उ आविउ । तिसिइ अनेक हाथी, घोडा, रथ, पायक मेली पिताइ जान चलावी । गण्या दिन-परिऊ वाटइ अनेक दान दीजइ, गीत गाईइ, सुहासिणि कुमारनउ लूण ऊतारई । कुमार ते स्वपरू देखी मित्रनइ कहइ, “ए आरंभ युगतउं नथी । ए वीवाह दुर्जननी गोष्ठिनी परिई मुझनइ रुचतउ नथी ।' हिवइ ए वात माताई सांभली । माता आवी पुत्रनइ कहइ, 'वत्स ! तई सामान्य लोकनी आशा पूरवी । पछइ मातानइ निरास काई करई ? एक वार मंडाणि विवाह करिवा दिड ।। इसिई वली राजाई वात सांभली । राजा आवी कुमारनइ कहइ, 'ए सिउं इसाभली छइ, लाजनउ कारण ? अम्हारउं कीधउँ काज किहां ढील न हुइ । अम्ह जीवतां ते अनेरउ कउण छइ, जे ए कन्यानइ परिणिसिइ ?' इम सरोष बोलतउ राजा कुमारनइ सर्व आभरण पहिरावइ । पछइ हाथोइ बइसारी माथइ छत्र धराविउ । बिहुँ पासे चमर ढलिवा लागा, सुहासिणी गीत गावा लागी । यान नइ पगि पगि दान दीजइ । पणि कुमार हीया-माहि गूढ कोप धरतउ तंबोल लेवा लागउ । आगलि सर्व जानीया हुआ । वर चउरी-माहि आविउ । तिहां अंजनासुंदरी-पवनंजयकुमारनइ पाणिग्रहण हूउं । दान, भोजन, सन्मान सर्व अंजनकेतु-राजाई कीधां । जिवारई कुमार परिणी घरि आविउ, तिवारई प्रहलादन-राजाई सर्व जानी-लोकनई दान देई संतोष्यां हंतां विसा । आपणे आपणे घरे गया । हिव अंजनासुंदरी कुलाचार पालती आपणे गुणे करी सर्व कुटुंबनइ संतोषइ । पणि भवांतरना कर्म-लगइ पवनंजयकुमार अंजनासुंदरी-सामहुँ दृष्टि-मात्रई न जोइ । परण्या-पछी बोलावी नहीं । • Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ मेरुसुन्दरगणि-विरचित अंजनासुंदरी उत्तम कुलवंतो, शीलवंती, परम भक्तिई करो देवतानी परिई भरिनइ आराधइ, अनइ श्री-वीतरागनउ धर्म एकचित्ति पालइ छइ । इसिइ रावण लंकाधिपति प्रतिवासुदेव-साथि युद्ध करवा-भणी कटक मेलणहार हूंतई झूझनइ सखायत-भणी प्रहलादन-राजानइ तेडउं मोकलिउं । तिसिई प्रहलादन राजा रणनइ कउतिगीयाल हूंतउ जयढक्का देवराविवा लागउ । तेतलई कुमार ए वात सांभली पितानइ कहइ, 'मइ पुत्र 'हूंतइ जे तुम्हे मूझिवा जाउ, ते शोभइ नहीं ।' इम कही कुमारि बीडउ झालिउ । पितानइ प्रणमी, मातानइ प्रणाम करिवा-भणि आविउ । एहवइ अंजनासुंदरी सासूनइ घरि आवी ऊम्मणदूमणी थांभइ उठींगी ऊभी रही । तिसिइ कुमार माताने पगे लागउ । माताई आसीस दीधी, शिक्षा देई पुत्र विसर्जिउ । हिवई अंजनासुदरी थांभइ वलगी पूतलीनी रीतिइ रही, पणि पवनजयइ लगारइ दृष्टि न दीधी । पछइ अंजनासुंदरी शून्य चित्तइ आंखिइं अनुपात करती घरि आवी । हिवइ कुमार चाली, पहिलइ प्रयाणइ मानस-सरोवरनइ कांठइ ऊतरिउ । तिहां रात्रिई पर्यति पंखी आनंद करतां देखी मित्र-कन्हइ कुमार पूछद्द, 'ए पंखीया स्या-भणी पुकारई छई ?' तिवारह मित्र कहा, 'देव | ए चक्रवाक-चक्रवाकी, रात्रिनउ वियोग तिणि करी विलाप करइं. छई।' इसिइ अंजनासुंदरीनउं अंतराय-कर्म क्षयि गवउं । एहवइ पवनंजय चौतवइ, 'जोउ, जे पाथरा पंखीया, तेहनइ एवडां विरह छई । अनइ मई तां अंजनासुदरी बार वरस-माहि बोलावी नथी ! पाणिग्रहण कीधा पछी दृष्टि-मात्रई जोई नथी । तु तेहनउं कउण हाल ? तिवारइ मित्र बलतुं कहइ, 'एतला दिननउ विरह तइ तां मनि नाणिउ ।' तिवारइ पवनंजय कहइ, 'मित्र ! हं पाछउ जई मिली आविसु । हिव मइ विरह सहिवातउ नथी ।' पछइ पवनंजय रात्रिनइ समइ नीकली पाछउ घरि आविउ । बारणइ ऊभउ रही माहि चरित्र जोवा लागउ । देखइ तु अंजना असमाधि करइ छइ । तेतलइ पवनंजयि बार ऊघडाविउ, तिहां अंजनासुदरी आदरी । तहोई अंजनासुदरी ऋतुस्नाता हूंती । तिणि अंजनाई कहिउं, 'स्वामी ! कदाचित संतानप्राप्ति हुसिई, तु सासू-सुसरा विकल्प धरिसिइं ।' पवनंजयि आपणी मुद्रिका नामांकित दीधी । आप वली कटक-माहि गयउ। हिवइ अंजनासुदरी चीतवइ, 'तां अंतराय-कर्म क्षयि गयउ, जे भरिनउ बहुमान लाउं ।' इसिइं त्रीजइ मासि गर्भ प्रगट थयउ । सासू मनि चीतवइ, 'वहू तां असती हुई ।' ए वात सुसरइ पणि जाणी । पछइ गर्भ जिम जिम वाधइ तिम तिम अंजनानइ मनि हर्ष ऊपजइ । अनइ कलंक पणि लोक-माहि वाधिवा लागउ । इम गर्भ वाधतइ सासू-सुसरे पूछिउं, 'ए सिउं ?' तिवारइ ते मुद्रिकारत्न देखाडि, तुहइ न मानइ । तिसिइ मास पांचनउ गर्भ थयउ । पर सुसरउ मनि चीतवइ, 'भर्तारि तां कदापि स्पर्शमात्र नथी कोधउ, जे एहनह गर्भ हूउ । तु निश्चई ए दुश्वारिणी अनइ असती ।' इम चीतवी घर-बाहरि काढी । पछइ बापना घर-भणो चाली । एकाकिनी वाटइ चालती चीतवइ, 'वली तां ए कर्म उदय आविडं । तउ रे जीव ! सहि ।' इम एक दासी सहित अंजनासुदरो मार्गि चालती बली चीतवह, 'माता-पिताना घरि जातां शोभइ नही ।' तेह-भणी वन-माहि आवी । आपणउं १. K. छतह तुम्हे । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौलोपदेशमाला - बालावबोध ८५ शील राखती, कंदमूल आहार लेती, नीझरणना पाणी पीती, किहां एक वन निकुंज-माहि पुत्र प्रसवि सूर्य समान । ते वन-माहि अंजनासुंदरीना शीलरूप शस्त्रनइ प्रमाणई सोह, वाघ, चित्रक, शृगाल, चोर एक इ टूकडा आवी न सकई । इसिई एकदा पाणी जोवा भणी दासी मोकली । तिणि दाइ आवी अंजनासुंदरी वीनवी जउ, 'स्वामिनि ! पर्वतना शृंग- उपरि एक महात्मा काउस्सग्गि ऊभउ रोहेउ छइ ।' ए वात सांभली अंजनानइ तृषा-बुभुक्षा वीसरी गई । पछइ अंजना क-बाल नइ लेई महात्मा-समीप आवी, भक्तिपूर्वक त्रिणि प्रदक्षिणा देई मुनि वांदिउ । तेतलइ मुनि कायोत्सर्ग पारो धर्मलाभ दीघउ । अंजना आगलि बइठी । मुनि उपदेश दिइ, 'हे महाभागि ! ए संसार - माहि जीवन एक धर्म जि शरण छइ । संयोग नइ वियोग कर्म - जि लगाइ हुई । जे जीव परनइदूषण दिइ, ते सर्व फोक । जां जीव कर्म भोगवइ नहीं, तां लगइ जीव छूटइ नही ।' इत्यादि धर्मोपदेश सांभली, वैराग्यरंग ऊपनइ अरिहंतनउ धर्म सांभली अभिग्रह - सहित श्री- सम्यक्त्व लीधउं । पछइ ते महात्मा अतिशयवंत जाणी अंजना पूछइ, 'स्वामिन ! केहा कर्म-लगइ मुझनइ ए दुक्ख ऊपन ?' मुनि कहइ, 'हे भद्रि ! को एक व्यवहारीउ, तेहनइ घरि तूं वल्लभा हु । अन जे ताहरइ बीजी सउकि, ते जिनधर्मि करी वासित । अभिग्रह लीघउ - ' वीतरागनी प्रतिमा तेहनइ पूजी फूल-धूप करी जिमउं ।' अन्यदा मिथ्यात्वाभिनिवेश - लगइ [तईं] प्रतिमा चार प्रहर ऊकरडा माहि गोपवी राखी, अनइ ते सउकि श्राविका देव पूज्या-पाखइ जिमइ नही । इम बार पहुर भूखी रही । पछई तई दया लगइ ऊकरडा-माहि-थकउं बिंब काढी दोघउं । ते कर्मन ए विपाक, जे तुझनइ भर्तार साथि बार वरसनउ वियोग हूउ ।' वली पतिव्रता कहिवा लागी हाथ जोडीनछ, 'स्वामिन ! माहरइ केडइ ए दासी कर्म भोगवइ ते कांइ ?' मुनि कहइ, 'जिवारइ त प्रतिमा गोपवी, तिवारई ईणि कहिउं, "ए अजी उघाडी दीसइ छइ ।” पछ त विशेषत ढांकी । ते कर्म-लगह ए पणि तुझ केडिइ दुक्ख पामइ छ ।' ए वात सांभली सविस्मय हूंती अंजनासुंदरी चीतवर, 'तां सघले-इ कर्म-जि-नइ प्रधानपणउं, जे दुक्ख-सुख पामीइ ।' पछड़े ते महासती सत्त्व अबलंबी पर्वतनइ शिखरि रहीं । एव तेन माउलट सूर्यकेतु नामा विद्याधर नंदीश्वरि यात्रा करी पाछउ घर-भणी वलिउ, dass ऋषिनइ प्रमाणि विमान खलिउं । कांह जिणि कारणि तीर्थनइ लांधिव विमान खलीइ * (१) । तिसिइ सूर्यकेतु विमान हूंतउ ऊतरी, ते मुनि वांदी आपणपुं धन्य मानिवा लागउ | तिसिहं ते देखी साहम्मिणिनी बुद्धिइ 'वांदू' इम कहइ, तेतलइं ते बहिननी बेटी उलखी । हर्षित हूंत ते कन्हई सर्व वृत्तांत पूछी, अंजनासुंदरी बालक - पुत्र - दासी सहित विमान बइसारी, सूर्य केतु चालिउ । तेतलइ विमाननी घांट वाजिवा लागी । ते घांटनउ नाद सांभली बालक योगीनी परिई ध्यानस्थ रहिउ - बोलइ नही, चालइ नही । तिसिह ते बालस्वभाव-लगइ माउलनइ उत्संगहूंत ऊल्ली विमाननी घांटइ वलगउ । तेतलइ बालक भुई पडिउ । - इसिई अंजनासुन्दरी विलाप करती कहइ, अरे दैव ! पहिलउं तां तेहवउं दुक्ख सहिउं, अनइ हिवडां जे बेटानरं मुख जोती सुख पामती तेहीनइ सांसही न सकिउं ?' इम विलाप करती देवनइ उलंभा देती, रुदन करती कहइ, 'पुत्र सिलाई आफलिउ हुसिइ, कि भुंइ पडिउ हुसिइ ?' तेतलइ सूर्यकेतु विमान तु ऊतरी १. K. स्वलिउं । २ P. स्व लीहीइ, L. खलहिह । ३. K. तेह छ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित जीणइ प्रदेशि बालक पडिउ छइ, तीणइ प्रदेसि आविउ । देखइ, तु अंजनाना शीलनइ प्रमाणि बालक पल्यंकनी परिई सूतउ छइ , पणि शिला चूर थई बालकनई प्रहारिइं । पछइ बालकनइ सूर्यकेतु लेइ, चउ पखेर अंग स्पर्शी, बिहुँ हाथ-ऊपरि बहसारी, भाणेजनइ बेटउ आणी दीधउ । पछइ बालक अक्षतअंग देखी माता ही । जिम दालिद्री निधान पामीइ हीड, तिम माता ही । तिहां पुत्रनई नाम शिलाचूरण दीधउं । पछइ उत्सव-पूर्वक सूर्य केतु घरि लीइ आविउ । घणे दिने सगानइं मिली, तेह-भणी सर्व हा ।। हिवइ तिहां अंजनासुंदरी दान देती सुखइ आपणा दिवस गमाडइ छइ । इसिइ अंजनादरीनी सघले वात प्रसरी । एहवइ पवनंजयकुमार पणि' वरुणनइ जीपी जितकासी महोत्सव पूर्वक घरि आविउ । पितानइ चरण प्रणमी, मातानी आसीस लेतु, सुहासिणीए तिलक(?कि) वधावीते' जयजयकार लोकनां वचन सांभलतु, जायानउं मुख जोणहार हूंतउ, घरि आविउ । जिम प्रासाद बिंबविण न शोभइ, तिम प्रिया-विण घर शून्य देखी विरहि करी आकुलउ कुमार हउ । चित्रशाला झालनी परि मानतउ, राजरिद्धि तृण-समान गणतउ, विलाप करिवा लागउ, हे कांते ! हे प्राणनाथि ! कहि, तूं किहां गई ? अथवा धाविमाताइ कांइ न राखो ? अथवा प्रधानो ! तुम्हे कालक्षेप करी कांइ न राखी? हा मातापिताउ! मुझ आवतां-लगइ कांइ न पडिख्या? तु इम जाणीइ, ते घर-हंती काढ्या पछी स्वापदे खाधी हुसिइ । तु हिवइ ए स्त्री-रत्न किहां पामीसिड दुम विलाप करतउ पवनंजय नगरनइ परिसरि चिहि रचावी चंदनना काष्टनी। तेतलई मातापिता आकुल-व्याकुल हूंता पुत्रनइ समझावई, पणि समझइ नहो । इसिइ ऋषभदत्तिई आवी मित्रनइ आलिंगी कालक्षेप-भणी त्रिणि दिन माग्या । अनइ वली कुमारनइ कहिलं, 'ते शील. नइ प्रमाणि जीवती होसिइ । तेह-भणी हूं प्रतिज्ञा करउं छउं ।' पछइ पवनंजय मित्रना वचनलगइ त्रिण दिवस-तांई पडिखिउ । हवइ ऋषभदत्त विमानि बइसी अनेक गाम-नगर जोतउ त्रीजइ दिनि सूर्यपुरनइ उद्यानि आविउ । तिहां स्त्रीनी गोष्ठि इसी सांभली जु, 'शिलाचूरण बालक-सरीखउ सोहागी को दीसह नही ।' ए नाम सांभली ऋषभदत्त चीतवइ, 'ए अंजनासुदरीनउ पुत्र तेहनउं नाम घटइ।' पछइ प्रच्छन्नपणइ सर्व वात सांभली, सूर्यकेतु-राजानी सभाई जउ आवइ, तु अंजनासुदरी पुत्र-सहित दीठी । तत्काल उलखी । पछइ अंजनाइ ऋषभदत्त उलखीउ, लाजी हूंती आसन मूंकी ऊभी थई । तिहां सूर्यकेतुनइ भरिना मित्रनउं स्वरूप कहीं आगता-स्वागत कराविउं । एह ऋषभदत्त कहिवा लागउ जु, 'अंजनासुंदरीनइ विरहि पवनंजयकुमार अग्नि-माहि पइसतउ मह राखिउ छ । त्रिण्णि दिन वोल्या छई । तेह-भणी तुम्हे विलंब म करउ । अंजनानइ चलावउ । हिवइ तुम्हनइ कल्याण हु । तुम्हारउ ए उपगार सय साखे पसरउ ।' पछइ सूर्यकेतु जमाईना मित्र-साथिई अंजनासुंदरी पुत्र सहित चलावी । ऋषभदत्त विमानि बइसारी घरि लेई आवि। तेतलइ राजानइ बधामणी दोधी। अनइ पवनंजय हखिउ। पवनंजयनइ प्रियानइ आगमनि नवउ जन्म हुआ। पछइ प्रहलादन-राजा सपरिवार सामहु आवो अंजनासुन्दरी पुत्र-सहित नगर-माहि आणी। पवनंजयना पुत्रनइ शिलाचूरण जे नाम हूंतउ, ते पछइ वली हनूमंत एवढं नाम दीघउं । राजाई पवनंजयनइ राज देइ आपणपे दीक्षा लीधी । १, P. K. Pu. वधारीते, L. वधारीजते । २. K. जणावी । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध हिवइ पवनंजय राजा राज्य पालइ | अंजनासुंदरी पटराणी कीधी । सुखिई आपणा धर्म साधइं छ्दं । इसिइ हनूमंत पुत्र मोटउ हूउ । ऊदार्य - धीर्य गांभीर्यादि गुणे करी विख्यात उ । इसिइ श्रीमुनिसुव्रतनइ तीथि कोई आचार्य विहार करता तीणइ नगरि आया | राजा पवनंजय वांदिवा आविउ, अंजनासुन्दरी - सहित । तिसिइ गुरे भव- निस्तारक धर्मोपदेश दीघउ । तिहां अंजना दरी प्रतिबूझी हुंती पवनंजयनइ कहइ जु, 'मुझनइ दीक्षा लेवा दिउ ।' पणि पवनंजय प्रियानु स्नेह 'परिहरी न सकइ, तेह-भणी आदेस न दिइ । तु ही अंजना न रहइ । पछइ अति आग्रह अंजनानउ जाणी हनुमंतनइ राज दीघउं । आपणी प्रिया सहित सुगुरु-समीपि दीक्षा लीधी । बेहूं निरतोचार चारित्र पाली देवलोक पहुता । क्रमिइ मोक्ष जासिई । इति श्री अंजनासुंदरी कथा ||६२ || हिवs श्रीनर्मदानी कथा कहीइ * [ २७. नर्मदा सुंदरी - -कथा ] एह जि जंबूद्वीप-माहि वर्धमानपुर नगर । तिहां संप्रति राजा राज्य करइ । तीणइ नगरि ऋषभसेन सार्थवाह वसइ । तेहनी भार्या वीरमती । तेहनइ चि पुत्र- एक सहदेव, बीजउ वीरदास । अनइ ऋषिदत्ता एहवइ नामि पुत्री महा रूपवती । यौवनावस्थाइ आवी तेतलइ घणा-इ महर्द्धिक व्यवहारीया मागई, पणि श्रेष्ठ मिथ्यात्वीनइ नाइ । इसिs महर्द्धिक रुद्रदत्त नामि वणिग-पुत्र वाणिज्य- हेति रूपचंदपुर-हुतउ तीणइ नगरि आविउ । पणि ते कुबेरदत्त मित्रन घरि आवी ऊतरिउ | अनेक व्यवसाय करइ । आपणा घरनी रीति तिहां रहइ । ८७ अन्यदा ऋषिदत्ता सखीइं परिवरी तिहां मत्तवारणई बइठी दीठी । हिवइ रुद्रदत्त रूपिइं व्यामोहिउ हूंतउ ऋषिदत्तानउं ध्यान धाइ । पछइ ए वात कुबेरदत्त मित्र - आगलि कही । तिवा - रई कुबेरदत्त कहइ, 'ए श्रेष्ठ जिनधर्मी टाली अनेरा कहिनइ नापइ ।' तिवारई रुद्रदत्त मिथ्यावी-इ-थिकउ ऋषिदत्तानइ लोभिइ श्रावकनउ धर्म पडिवजिउ । कांई माया लगइ गाढा-इ विवेकीनां चित्त आवर्जीहं । पछद ऋषभसेनइ आपणी पुत्री ऋषिदत्ता रुद्रदत्तनइ दीधी । तिहां पाणिग्रहणमहोत्सव हूउ । केतलाएक मास जउ अतिक्रम्या, तु रुद्रदत्त सुसरानइ पूछी, प्रिया सहित आपणइ नगरि आविउ । तिसिह रुद्रदत्तनउ पिता वधूनइ आगमनि हर्खिउ । पछइ रुद्रदत्ति जिनधर्म छांडिउ । ऋषिदत्ताई पणि भर्तारना संसर्ग लगाइ जिनधर्म छांडिउ । क्रमिदं महेश्वरदत्त पुत्र तीणइ जन्मिउ । सर्व कला क्रमिइ अभ्यसी मोटउ हूउ । इसिइ ऋषिदत्तानउ वडउ बांधव सहदेव भार्यां सुंदरी सहित सुखिइ रहइ छइ । एहवइ तिणि सुंदरी अपूर्व सुहणउं दीठडं । तेहनइ योगि आधान घरिवो लागी । क्रमिदं गर्भ वृद्धि पामतह एहवउ डोहलउ ऊपनउ जाणइ जउ, 'नर्मदा नदी - माहि जई स्नान करडं । ए वात भर्तार१. K. छांडी। २. K. परिणावड़ नही । ३. K. जिनधर्म-वासित टाली अनेरानहं न दिइ । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ मेरुसुन्दरगणि-विरचित आगलि कही । पछइ सहदेव संघातनी रचना करी सुंदरीनइ साथि लेई चालिउ । हिवइ नर्मदानइ कांठइ आवी, पूजा अर्चा करी, नर्मदा-माहि पइसी, जलक्रीडा कीधी। पछइ सहदेव व्यवसायनइ सुखिई तिहां नगरीनी स्थापना करी, नर्मदापुर नाम दीधडं। तिहां जिनमंदिर कराविउं सम्यक्त्व-पिंड पोषिवा-भणी । पछइ सघला-इ व्यवहारोआ आपणा आपणा नगर मूंकी तिहां आत्री वस्या । इसिइ पूरे दिवसे पुत्री जन्मी, पणि पुत्र-जन्म-परिई उत्सव कीघउ । नर्मदासुंदरी ए नाम दीध। क्रमिइ सघली इ कला अभ्यसी यौवनावस्थाइ आवी । ____ इसिइ नर्मदासुंदरीनउं रूप सांभली ऋषिदत्ताइ चीतविउं जउ, 'माहरा पुत्र महेश्वरदत्त, तेहनइ हेति ए नर्मदासुदरी मागीइ । अथवा मुझनइ धिगधिकार हु, जे मइ जिनधर्म छांडइ हूंतइ हूं कुटुंबिई छांडी । जे हूं पर्वतिथिनां नाम-इ न जाणउं, ते माहरा पुत्रनइ किम पुत्री देसीइं(१)?' इम कहती रोवा लागी । तेतलइ रुद्रदत्त आविउ । तिणि पूछि, 'तूं असमाधि काइ करइ ?' तिवारई ऋषिदत्ताई सर्व वृत्तांत कहिउ । एहवइ महेश्वरदत्त पुत्र, मा-बापनी वात सांभली कहिवा लागउ, 'तात ! मुझनई तिहां मोकलउ, जिम सघला-इ आवर्जी, माउलानी पुत्री परिणी, मानइ हर्ष ऊपजावउं ।' पछइ पिताई महेश्वरदत्त चलाविउ । थोडे दिहाडे पंथ अवगाही नर्मदापुरि आविउ । तिहां सहदेवनइं मिलिउ। हिवइ महेश्वहदत्त तिम बोलइ, तिम चालइ, जिम सहदेवादिक सहू मनि चमत्करिया । पछइ उत्संगि बइसारी कहिवा लागा, 'वत्स ! तइ अम्हारा चित्त तिम आवर्जियां, जिम जांगुली-विद्याइ • करी साप वशि थाइ, तिम अम्हे वशि कीधा । तु वत्स ! मागि । जि कांई मागइ, ते आपउं ।' तिवारई महेश्वरदत्ति नर्मदासुंदरी मागी । पछइ मातापिताइ आपी । तिहां महेश्वरदत्ति जिनधर्म पडिवनिउं । सम-शपथ कीधा जु, 'इणि भवि जिनधर्म टाली अवर धर्म न कर।' पछइ महा-आनंदि, महा-महोत्सवि नर्मदासुदरीनउं पाणिग्रहण कीधउं । केतलाएक दिन तिहां रहिउ । हवइ नर्मदासुंदरीइ तिम जिनधर्मना उपदेस दीधा, जिम महेसरदत्त जिनधर्मनइ विषयि गाढ निश्चल हुउ । पछइ केतलेएक दिहाडे सुसरानइं कही, भार्या-सहित महेश्वरदत्ति आवी, मातापितानइ प्रणाम कीघउ । तिसिई ऋषिदत्ता नर्मदासु दरीनइ उत्सगि बहसारी कहइ, 'वत्सि ! तई तिम चालिवउं, जिम मिथ्यात्वन उ नाम घर माहि न रहइ ।' हिवइ महेश्वरदत्त नर्मदासुद। • सुखिई काल गमाडतां सर्व स्वजननइ मान्य इयां । अन्यदा नर्मदासुन्दरी गउखि बइठी आरीसइ आपणउँ मुख जोती, तंबोल खाती, अनेक विभ्रम करती, लीला-लगइ तंबोल गउखनइ बारणइ नाखिउ । इसिइ महातमा इक तलइ जातउ हंतउ, तेहनइ माथइ तंबोल पडिउ ! तेतलइ तेणइ महातमाइ कहिउं, 'इम जे ऋषिनी आशातना करइ, ते भरिनउ वियोग पामइ ।' इसिउ ते महात्मानउ सकोप वचन सांभली विषाद-पर नर्मदासुंदरी गउख-हूंती ऊतरी, महात्माने पगे लागी कहिवा लागी, 'महात्मन् ! हूं वरांसी, जे हूं जिनधर्मना मर्म जाणती इ हूंती एवडउ अविनय कीघउ । तु हिवइ तुम्हे विश्वनइ वत्सल छउ, मुझ ऊपरि क्षमा करउ । तुम्हे तु वयरी-इ-ऊपरि कोप न करउ, पछइ मुझ ऊारि कोप किम करिसिउ ? तथापि मुझ अभागिणी-ऊपरि शाप परहउ करउ ।' तिसिइ मुनि बोलिउ, 'हे वरिस ! सांभलि, खेद म धरि । जे महारमा हुइ, ते शाप अन अनुग्रह न करइ । १. K. अतिक्रमतां । २. L. Pu.लांषिउ । ३. K यती। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध '८९ पणि न जाणउं, माहरा मुख-हूंतउ एहवउं वचन किम-हि नीकलिउँ ? अथवा लींबनइ जे करअपणउं, ते कोई करइ छइ ? ते स्वभाविइं जि हुइ।' इम प्रतिबोधी महात्मा आपणइ कानि गयउ । नर्मदासुदरी पाछी घरि आवी । सुखिइं घरि रहइ छइ । ____ इसिह अनेरइ दिवसि महेसरदत्त व्यवसाय-भणी जवनद्वीप-भणी चालिवा लागउ । तेतलह नर्मदासुंदरी कहइ, 'स्वामी! हूँ पणि साथि आविसु ।' पछइ नर्मदासुंदरी संघातिइ चालि । हिवा समुद्र-माहि प्रवहणि बइसी चालतां अर्ध पंथ अवगाहिउ जेतलई, तेतलई रात्रिनइ समइ कुणिहि एकणि गीत गायउं । ते गीत सांभली नर्मदासुंदरी स्वरनां लक्षण जाणती हूंती भरिनइ आश्चर्य ऊपजावती कहिवा लागी, 'स्वामिन ! जे ए गीत गाइ छई, ते सामलइ वर्णि छइ, स्थूल-णि छइ, कृश-देह छइ, गुह्यदेसि मसउ छइ, शोण-लांछन छइ, बावीस वरसनउ छड, हीयउं पहुलउँ छइ ।' इत्यादि स्त्रीना वचन सांभली महेसरदत्त मन-माहि चोंतवइ. 'ए नर्मदासुदरी कुशीलि संभावीइ, अन्यथा एतली वात किम ए जाणइ ? तां हिवइ परीक्षा करउ ।' पछइ प्रभाति ते पुरुष तेडी, सर्व अहिनाण जोई, मनि निश्चय कीधउ, 'तां सही ए कुशीलि जि ।' पछइ गूढ कोप धरतउ चींदवइ, “एतला दिन हूँइम जाणतउ जउ, ए महासती छ । पणि तां आज पारखउं दीठउं । तु हिव एहनइ समुद्र-माहि ठेली दिउँ । अथवा खड़गि करी केलिनी परिई बि-खंड करउं ।' इम जेतलइ चींतवइ छइ, तेतलइ अकस्मात नियामक कूमाखंभा'-ऊपरि चडिनइ कहइ, 'अरे लोको ! प्रवहण राखउ, सिद पाडउ, नांगर मंक। राक्षसउ द्वीप आविउ । जल ईधणनी सामग्री लिउ ।' इम कही आपणउं प्रवहण राखि । सर्व संग्रह कीधउ । इसिइ महेसरदत्त माया-लगइ गूढ कोप धरतउ नर्मदासुदरीनइ वन-माहि लेई गयउ । अनेक तलाव देखाड्यां । वली वन सर्व देखाडी संध्याई किहां एक वननिकुंज-मोहि नई सदा । तेतलड पर्वोपार्जित दुःकर्म-लगइ नर्मदानइ निद्रा आवी । तेतलड महेसरदत्त नर्मदा सूती जि मूंकीनइ प्रवहणि आविउ । पणि कहि, 'लोको ! नासउ नासउ । कांता राक्षसि खाधी । हूं नास' आविउ । तुम्हे चालत, नहींतरि राक्षस आवी खासिइ ।' तिवारइ बीहतां लोक प्रवहणि चडी चाल्या । पछइ महेसरदत्त चीतवइ, 'मइ बिहू वानां कीधां-दुःशालि स्त्रीहांडी अनह लोकनउ अपवाद-इ राखिउ ।' हिवइ क्रमिई यवनद्वीपि आविउ । तिहां घणउ धन उपार्जी आपणइ नगरि आविउ, अनई प्रियानउ स्वरूप कहिउं जउ, 'राक्षसइ प्रिया खाधी।' पछइ असमाधि करी नर्मदानां प्रेतकार्य कीधां । वली महेसरदत्त नवी वार परणिउ । ___हिवइ नर्मदासुदरी वन-माहि जिम सूती हूंती, तिम जि नवकार कहिती हूंती जागी । पणि अगलि भार न देखइ । तिसिइं नर्मदा भोलपण-लगइ कहइ, 'स्वामी ! एहवउं हासून कीजह तुहइ कोई नावइ । तेतलइ ऊठी वन-माहि जोवा लागी, पणि भर्तार न देखा। तिवारडं नर्मदा रोइबा लागी । तिणि रोतां जे वननां स्वापद छई, ते ही रोवा लागां । पछह लताना घर-माहि रात्रि रही, पणि रात्रि सउ वर्ष समान हुई । वली प्रभाति वन जोती, रुदन करती, पांच दिन अतिक्रमावी छठइ दिनि जिहां प्रवहण हंतां, तिहां आवी, तु आ प्रवहण नही । तिवारइ गाढेरी निरास-थकी रुदन करती ते मुनिनउ वचन चीति आविउ । पछइ थोडेरी अप्समाधि करिवा लागी । इम आपणउं पूर्वोपार्जित कम भोगवती, आत्मानइ प्रति१. K. कूआर्थमा । २. L. Pu. राखसई द्वीप K. राखिस द्वीप । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० मेरुसुन्दरगणि-विरचित गेध देती, महासतीइ सरोवरि स्नान करी, वन-माहि देव वांदी, फलाहार करीनइ तापसी हुई । पछइ गुफा-माहि माटीनी प्रतिमा करी, मननइ स्थिरता-भणी फले-फूले पूजी, आगलि बइसी सज्झाय करइ । एकाग्र चित्त दीक्षाना, ध्यानना विषइ तत्पर हूंती रहइ छइ । इसिइ. ते नर्मदानउ पीतरीउ वीरदास बब्बरकूल-भणी जातउ हतउ, तीणइ प्रदेशि जिहां नर्मदासुदरी गुफा-माहि स्वामीनी स्तुति करइ छइ, तिहां आविउ । पछइ ते स्तुति सांभली वीरदास गुफा-माहि पइठउ । तिसिई साश्चर्यरूप वीरदासि भत्रीजी देखी । कंठि आलिंगी शोक अनइ हर्ष धरतउ पूछिवा लागउ, 'हे वत्सि ! तूं एकाकिनी इहां कांइ ? अथवा तूं किम आवी इहां ?' इम पूछइ हूंतइ नर्मदाइ आपणउ सर्व वृत्तांत कहिउ । पछइ वीरदास दैवनई ओलंभा देतउ हूंतउ नर्मदासुंदरीनइ संघातिइ लेई बब्बरकूलि आविड । तिसिइं नर्मदासुंदरी वस्त्रना घर-माहि मूकी । पछइ वीरदास भेटि लेई राजानइ मिलिउ । राजाइ बहुमान देई अर्ध दाण मुकिउ । पछइ वीरदास क्रियाणां वेचिवा लागउ । तिहां हरिणी नामिइं पण्यांगना वसइ। पणि ते प्रवहणी-लोक-कन्हलि सहस्र दीनार लिइ। ते लेवा-भणी दासी एक वीरदासनइ ऊतारइ मोकली। तिणि दासीइ नर्मदासुंदरी रूपवंत दीठी । तिणिइं जई हरिणीनई कहिउं जउ, 'एहवउं रूप पृथ्वी-माहि मथी । ए जउ ताहरि घरि आवइ, तु जाणे कल्पवेलि आवी । तीणीई द्रव्यनी कोडि ऊपार्जीइ ।' पछइ हरिणीइ धन मागिवानई मिसिइं तेहनउं चरित्र जोवा-भणी वली तेह जि दासी मोकली। तिसिइ वीरदासिई सहस्र दीनार दीधा । तेतलइ पाछी आवी हरिणीनइ कहइ. 'न जाणीइ, ए वीरदासनी बहिनि छइ अथवा सगी छइ ? किंवा दासी छइ ते जाणीइ नही ।' तिवारइ हरिणी तेहनइ घरि आवी । पछइ वीरदासनइ बलात्कारिइंमिषांतर करी आपणइ परि लेई गई । वीरदास भोलवी हाथनी वीटी नामांकित लोधी । ते लेई बली हरिणीइ दासी मोकली नर्मदासुंदरी-कन्हलि, कहिवराविउं जु, 'ए मुद्रिकानइ अहिनाणिइं श्रेष्ठि वीग्दास तुझनई तेडइ छइ ।' तिसिइं नर्मदा सरल चित्त-लगी ते दासी-साथिई गई। तेतलइ हरिणीइ ते नर्मदासुंदरी भुइहरि लेई घाती । मुद्रिका पाछी आपी । पछइ अखंडवत वीरदास पाछउ परि विउ । जउ ऊतारइ जोइ, तु न मेदा न देखइ । पछइ नगर-माहि जोतउ हूंतउ सासंक हरिणी-नइ घरि आवी पूछइ जु, 'नर्मदा किहां ? तिवारई ते कपटपंडिता न मानइ कहा, 'ह सिउँ जाणउं ? तिसिई वीरदास चीतवइ. 'एक कारेली अनइ लौंबडइ चडी, एक वेश्या अनइ राजानउं बहुमान । तु ए साथिई नही पहचीइ । एक परदेस, बीजउं जीणइ गोपवी ते किम आपिसिइ ?' इम घणी असमाधि कीधी । पर आपणी वस्तु सर्व लेइ, घणउ लाभ ऊपार्जी, पाछउ चालिउ । भरुअच्छि नगरि आविउ । तिहां आव्या-पछी परम मित्र परम श्रावक जिणदास श्रेष्ठि, ते-आगलि वात कही। नर्मदासुंदरीनी सुद्धिनइ हेति बबरकूल-भणी आपणइ ठामि मित्र मोकलिउ । हिवइ हरिणीई वीरदास चाल्या पछी नर्मदासुंदरीनई कहिउं, 'हे सुभगि ! सौभाग्यनउ निधान वेश्यापणउं आदरी यौवननउ फल लिइ ।' ए वचन जेतलइ हरिणी कहिषा लागी, तेतलइ नर्मदाइ कान ढांकी-नइ कहिलं, 'ए वात आज पछी म कहेसि । हूं आजन्म सीलनी खंडना नही करउं ।' तिवारइ वेश्या कहइ, 'अम्हारउ जन्म सफल, जे आपणी इच्छाई विलसउं, भोग भोगवउं ।' तेसलइ नर्मदा कहइ, 'इणे सुखे मोक्षना सुख कुण हारई। जां मुझनइ जीवतव्य, तां शील कुण Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध ९१ हरी सकइ ? कदापि मेरुपर्वतनी चूलिका चालइ अनइ कदापि पश्चिमिदं सूर्यं ऊगह, पणि हर्ड शील भंग न करउं ।' पछइ हरिणीइं अनेक दीन बोल बोल्यां, लोभ देखाडिया, पणि तुह-इ न मानइ | तिवारइ हरिणीइ नर्मदानई पांचसइ नाडी देवरावी । पणि लगारइ ते सतीनउ रोम मात्र खुभु नही, अनइ शील-इ भागउं नही । तिसिहं नर्मदानइ मारतां शीलनइ प्रमाणिई हरिणी वेश्या मूई । पछइ बीजी वेश्या भयभीत हूंती पगे लागी नर्मदानइ मन वइ, 'तूं अम्हारइ स्वामिनी था । प्रभुत्व- पणइ आपणी इच्छाइ शाल पालि ।' पछ३ नर्मदासुंदरी ते वचन मानिउं । इम करतां प्रधानि नर्मदानउं रूप देखी: प्रार्थना करवा लागउ । पणि मानइ नहीं । तिबारइ प्रधानि राजा - आगलि जई नर्मदाना रूपनी वर्णना कीधी । तेतलइ राजाईं नर्मदासुंदरी-भणा पालखी मोकली । तिसिहं राजाने सेवके जई, महाविस्तारि नर्मदासु दरी सुखासनि बइसारी, माथइ छत्र धरी चलावी । एहवइ नर्मदासुंदरी शीलनी रक्षा भणी गहिली हूई । मोटउ एक नगरनउ खाल तेह-माहि ऊलली पडी । पछइ इम tet, 'लोको ! माहरइ सयरि यक्षकर्दम कहितां सूकडि, कर्पूर, कस्तूरी लागी छइ ।' इम कहिती सघलाई लोकनइ कादवि छांटइ, अनइ आपणां वस्त्र फाडइ । वली लोक-साहमी धूलि नांखर । इसिई प्रधानिहं राजानइ कहिउं, 'स्वामी ! न जाणीइ, छलभेद हूउ कि दृष्टि लागी ।' तिसिद्धं राजाई मंत्रवादी तेडिया । ते जेतलइ मंत्र गुणी गुणी सरिसव नाखई, तेतलइं नर्मदासु दरी ते साहमा पाषाण तिम नांखिवा लागी, जिम ते मंत्रवादी नासी गया । हिवइ नगर - माहि गहिलीनई परिहं फिरइ, वोतरागनां गीत गाइ । इसिहं जे जिनदास भरूअच्छि हंतु आविउ छइ, तीणइ ते नर्मदासुंदरीनइ मुखिई वीतरागनी गोत सांभल्यां । तिवारइ जिनदास आगलि आवी दयापर हूंत कवा लागउ, 6 हे सुभगि ! तुझन ए स्युं थयउं ? तूं तु परम श्राविका जिनभक्त छइ ।' तिवारइं नर्मदा कहइ, 'तूं जउ जिन भक्त छइ, तु माहरउ स्वरूप एकांति पूछे, पणि लोक देखतां म पूछेसि ।' हिवह अन्यदा गीत गाती वन - माहि जई, देव वांदी, गीत गाई छइ, तिसिहं जिनदास पणि केडइ लागउ वन-माहि गयउ । तिहां तेहनइ ' वांदु ' कही जिणदास पूछिवा लागउ, तूं कउण ? ' तिवारइ नर्मदासुंदरी आपण स्वरूप सर्व श्रावक - आगलि कहिउं । तिवारइ जिनदास कहइ, after ! ताहरी मोटी वात । तई जिम शोल राखिउं, तिम बीजउ कोइ राखी न सकइ । हिव हूं ताहरइ कीधइ ईहां आविउ छउं । भरूपछि हूंतउ वीरदास - मित्रिइं हूं मोकलिउ । तु हिवई तूं खेद म घरे । जिम रूड हुसिहं तिम हूं करिसु' । पणि आज पछी राजमार्गि जेतला पाणीना घडा आवई, तेतला तू भांजे ।' इम संकेत करी ते बेछू नगर - माहि आन्या । C पछइ नर्मदा पाषाण नांखर, हांडलां फोडइ, लोकनइ संतापइ । इसिहं नगरनउ राजा नीकलिङ । तिणि ते गहिली दीठी । तिसिहं जिनदास आगलि ऊभड हूंतउ । तेहनइ कहिउं जउ, 'इणिइं नगर सघल वानरीनी परि संता पिडं । हिवइ तिम करि, जिम प्रवहणि बइसारी एहनइ परद्वीपि लेई जा, जिम व्याधि जुइ ।' तिवारइ जिनदासि पडिवजिउं । मन-माहि हखिउ । पछइ लोहार तेडी, नर्मदानह पग अठील घाती, प्रवहणि बइसारी, सर्व वाखर प्रवहणि घाल्या । पछइ आपण प्रवहणि बरसी चालिउ । मार्गि जातां अठील भांजी, वस्त्र आभरण पहिरावी, नर्मदापुरि आणी । तिसिहं पिताई १. K. करेसि । २. K. क्रयाणां । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ मेरुसुन्दरगणि-विरचित आवी जाणी, सामुहु आव्यउ । पछइ नर्मदासुन्दरी मातापितानई कंठि लागी तार-स्वरिई रुदन करिवा लागी । तिसई ऋषभसेनादिक कहिवा लागा, "भलू हुउँ जे, अम्हे बेटी जीवती दीठी । तु आज पुत्रीनइ नवउ जन्म हउ ।' एह-भणी महा महोत्सव करिवा लागा । जैन-प्रासादि महापूजा-पूर्वक साधर्मिक वात्सल्यादिक कोधां । केतलाएक दिन जिनदास तिहां रही वीरदासनइ पूछी भरूअच्छि गयउ । इसिइ एकदा आर्य सुहस्तिसूरि दश-पूर्व-धर विहार करतां आव्या नर्मदापुरि । तिवारई ननंदासुंदरी माबाप-पीतरीआ-सहित आचार्य-समोपि आवी, प्रणाम करी आगलि बइठी। तेतलइ श्री-मुहस्तिसूर धर्मलाभ कही धर्मोपदेश दीघउ । तिवार-पछो देशनानइ अंति वीरदास गुरुनइ प्रणमीनइ पूछिया लागउ, 'स्वामिन ! नर्मदा सुंदरीइं भवांतरि कउण कम ऊपाजिउं, जे निर्दोष इ सुसील हुती इ एवंडां कष्ट पाम्यां ?' तिवारई भगवंत श्रुतनउ उपयोग देई पूर्वभव कहिवा लागा, 'ईगइ पृथ्वोपीठि विध्यगिरि । ते-माहि-थिकी नर्मदा नदी नीकली छह । तेहनी अधिष्ठायिका मिथ्वास्विनी देवता एक छ । तीणई देवताईएकदा महात्मा एक धर्मरुचि प्रतिमाइ रहिउ देखी घगा असर्ग कीधा । तु-ही धर्मरुचि महात्मा ध्यान-इंतु न चूकउ । तिसिई देवताई महात्मानो क्षमा देखी प्रतिबूझी हुंती सम्यक्त्ववंति हुई । हिव ते मरी तुम्हारी पुत्री नर्मदा हुई, अनइ पूर्विला अभ्यास-लगी नर्मदा-स्नाननउ डोहलउ ऊपनउ । वली जे महात्मानइ उपसर्ग कीघउ हुँतउ तेह-भणी दुक्खिणी हुई। ए वात साभलो नर्मदाई दीक्षा लीधी। तिसिहं जातीस्मरण उपनउं । पछह चारित्र पालतां वली अवधिशान ऊपनउं । पछइ पवत्तिणि-पद पामी कूववंदपुरि आवी । पणि तप लगी कालक्रमई कृशदेह हुई छइ । तिहां कुणिहि उलखि नही। पछइ नमयासुंदरी पवत्तिणी महासतीने वृदे परिवरी ऋषिदत्तानइ घरि आवी । धर्मलाभ कहिउ । तिसिइ ऋषिदत्ताई आश्रय दीघउ । तिहां महासती रही। हिवई धर्मनउ उपदेस महासती सदा दिइ अनइ महेसरदत्त. ऋषिदत्ता उपदेश सांभलई, पणि एकू ते महासतीनई ओलखइ नही । इम अन्यदा संवेगरंग ऊपाइवा-भणी महेसरदत्तनई स्वर-लक्षण भणाविउं । तिसिइं स्वर-लक्षण भणि इंतह ते नर्मदासुंदरो स्त्री चित्ति आवी । पछइ पश्चात्ताप करिवा लागउ, 'धिग् धिकार मुसनइ, जे मई एहनी इ सती वन-माहि सूती मूकी । तु हूं दैवइं हणिउ । जे स्वरलक्षण-कगी रात्रिइं गीत गातउ पुरुष तेहना अहिनाण कहियां, पणि महारइ मनि विकल्प ऊपनु । तेह-लगइ मई निरपराध ते स्त्री जन-माहि मंकी। तु ते नमयाना कु' ले होसिई?' इम आपणी शोचा करतउ देखी व्या-लगाइ महासती कहइ, 'ते ई नमयासुंदरी, जे तुझ आगलि बइठी छ ।' तिवारई महेसरदत्त चीतवइ, 'ए किसिउं आश्वर्य ? नोउ, सघले कर्म जि सबल, जिम नचावइ तिम नावीह । इहां किहन उ दोन नहीं ।' पछइ ऊठी महासतीनइ पगे लागिउ । तिहां खमावी करी औ रंग-पूरित हतउ श्री-सुइस्तिसूरि आचार्य-समीपि जई व्रत लीधउं । अनइ ऋषिदत्ताई पंणि चास्त्रि लीध। पछइ बेहूं तर तपी, चारित्र पाली, स्वर्गनइ भाजन इया । अनइ नमयासुंदरी पणि प्रांत-समय जाणो, संलेखनापूर्वक अणसण पाली, देवलोकि पहुती। पछइ वली महाविदेहि क्षेत्रि पनी, दीक्षा लेई, मोक्ष पहुचिसइ। __ इति नमया-सुंदरी कथा ॥२७॥ १. K. प्रस्ताव Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलापदेशमाला बालावबोध हिवइ रतिसुंदरीनी कथा कहीइ - [ २८. रतिसुंदरी - कथा ] साकेतपुरि नगरि नरकेसरी राजा राज्य करइ । तेहनइ सकल - अंतेउर - मुख्य कमलसुंदरी पट्टराणी छइ । तेनी पुत्री नामिई करी रतिसुंदरी । क्रमिई क्रमिई वाधिका लागी । रत्न तिसिद्धं विहार करती अति गुणवंति गुणश्री एहवइ नामिदं पवत्तिणी आवी सांभली । तिवारई रतिसुंदरी सखीए परिवरी वांदीवा गई । तिसिइ गुणश्री महासताइ धर्ममइ उपदेस देवा मांडिउ, 'जिम दालिद्रीनइ चिंतामणि रत्न दुर्लभ, तिम संसारी जीवनइ मनुष्यनइ जन्मि धर्मनउं श्रवण दोहिलउं । तिहां इ वली रत्निइ भरिडं निधान हुइ, ते माहि थी जिम भाग्यवंतनइ हाथि ass अनइ अभागीयानइ हाथि कउडी इ न चडइ, तिम जे भाग्यवंत होसिइ, ते ' सम्यक्त्व - रत्न लेसिई । इम जाणी सम्यक्त्व लिउ । निर्मलउं तप तपउ । अनइ उज्जलउं शील पालउ, जिम हेलाई मुक्तिपद पामउ ।' ए उपदेस महासतीना मुख इतु सांभली रतिसुंदरी कहिवा लागी, 'हे महासति ! तई भलउ उपदेस दीघउ । आज ज्ञान-लोचन ऊघाडिउं । तु गृहस्थनइ उचित योग्य धर्म प्रसाद करी मुझनइ दिइ ।' पछइ महासतीईं सम्यक्त्व दीघउं अनइ वली कहर, 'वच्छि ! शीलरत्न- समान अवर धर्म नही । एह-भणी तू अखंड शीलवत पालिजे । पर- पुरुषनउं वर्जन करिजे । कुलांगनानई शीलनई प्रभावि अनेक सिद्धि हुई । अनइ परलोकि संसार माहि पण दुख दुर्गति न हुई । परंपराई मुक्ति पणि पामीइ ।' इत्यादि उपदेश सांभली रामांचित-गात्र हूंतो रतिसुंदरी नीम लेई, महासतीनइ वांदी घरि आवा । ९३ हिवइ इसिई नंदनपुरि चंद्रभूति नामिह राजा राज करइ छइ । अन्यदा साकेतपुरनगर-तु अरिकेसरि राजा, तीणइ राजकाजनइ अर्थि चंद्रभूतिराय-भणी दूत एक मोकलिउ । हिवs चंद्रभूति ते दूत- कन्हलि सर्व देस देसनउं स्वरूप पूछिउं । तिवारइ तिणि दूति सर्व देसनुं वर्णन करतां विशेष रतिसुंदरीना रूपनडं वर्णन कीधउं । तिसिहं चंद्रभूति राजा ते ऊपरि अनुराग धरत, संबंध जोडिवानई काजिई आपणउ प्रधान मोकलिङ अरिकेसरि भूपति भणी । पछ राजाई योग्य संबंध जाणी पुत्रिका दीधी । पछइ भलइ दिवसि राजाई कन्या नंदनपुरि मोकली | जिम लक्ष्मी नारायणनइ सयंवरा आवी, तिम रतिसुंदरी ते राजानइ सयंवरा आवा । तिहां भलइ मुहूर्त्त विवाह्न उत्सव हुउ । सुखिई रहई छ । एहवइ महेन्द्रसिंह राजाई चंद्र नामा दूतपाहईं चंद्रभूतिनई इसिउं कहाविउँ जु, 'अहो राजन्द्र ! आपणपानइ आगइ एतलउं काल प्रांति हूंती, पणि पुत्र ते प्रमाण, जे कुलनइ उद्यातकारक हुइ, अनइ पूर्वजनउ संबंध जे लोपइ नही । हिवह नउ तू सगाई राखइ, स्नेह पालइ, तु तई जे नवी परिणा छइ रतिसुंदरी ते अम्हनइ भेट मोकले । जिम हूं पणि प्रीति चलाविडं जाउं । जिहां प्रोति हुइ तिहां एतलउं काज घण न लेखवीइ ।' इत्यादि दूतनां वचन सांभली चंद्रराजा लगारेक हसी-नइ कहिवा लागउ, 'हे दूत ! सगा कहिनइ वल्लभ न हुइ ? पणि जिणइ कारणि परोपकारो मैत्री च दाक्षिण्यं प्रियभाषणं । सौशील्यं विनयस्त्यागो सज्जनानां गुणा अमी ॥१॥ १. K. तेहनइ हाथि सम्यक्त्व-रत्न आविसि । २. KP अज्ञान लोचन । ३. K. चंद्रभूपति । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित तु अहो दूत ! ताहरइ स्वामीइं मुझनइ भलउँ कहाविउं । पणि जे कुलोन हुई ते आपणी मर्यादा न मूकई । तु हिव हूं पणि वलतू कहावउं छउं जउ - 'तू आपणी भार्या शिवादेवी मोकलइ" तिसिइ दूत कहिवा लागउ जउ, "तू माहरा स्वामीनां वचन लोपेसि तु जाणे तुझनइ अनर्थ ऊपजिसिइ। ते महेन्द्रराजानउं कटक तई किम सहवरानिई ? तेह-भणी ऊतावलउ म बोलि।' इसिई चंद्रराजा रोषारुण-लोचन हतउ कहिवा लागउ, 'अरे दूत! ताहरा स्वामीन जाणपणउ जाणिउं । ते भलउ कुलाचार पालइ छइ, जे पारकी स्त्रीनी वांछा करइ छइ ।' तिसिई वलो दत कह इ. 'अहो राजेन्द्र ! माहरउ वचन सांभलि। कांइ बुद्धिवंत पुरुषे जीणइ कीणह आयई करो आपण आत्मा राखिनउ । किसिउं तुझनइ नीतिशास्त्र वीसरी गयउं ? यतः भृत्यैधनेन ताभ्यां तु रक्षणीया हि वल्लभा । दास-द्रव्य कलत्रैस्तु रक्षणीयं स्व-जीवितं ।' इत्यादि वचन दूत बोलतउ राजाई गलइ झलावी सभा-बाहरि कढाविउ । जिम कृपण इ भीखारी बाहरि काढीइ तिम काढिउ । तिणइ दतइ जई महेन्द्रसिंहनइ कहिउं । तेतलइ महेन्द्रसिंह राजा समुद्रनी वेलि जिम कटक लेई आविवा लागउ । तिलिई ए वात सांभली चन्द्रराजा पणि सामहउँ नीकलिउ । पछइ तिहां बिहु कटकनइ झूझ होतां चन्द्रराजान कटक । तिसिइ महेन्द्रसिंह राहुनी परिई चंद्रराजा जीवतउ बांधी प्रधाननइ आपिउ। तिवारइ हरिणनी परिई चंदराजानउं कटक नासतां मृगलीनी परिई रतिसुंदरी झाली । पछइ रतिसुंदरीन लाभिइ संतुष्ट हुंतइ महेन्द्रसिंहिई चंद्रराजा मूंकिउ । पछइ महेन्द्रसिह राजा आपणइ नैगरि पाछउ आविउ । तिसिइ कामनउ वाहिउ रतिसुंदरोनइ कहिवा लागउ, 'हे सुभगि ! जे दिवस-लगइ मई तूं इतना मुख इतु सांभली ते दिवस-लगइ हूं आनंदपूरित हीयइ मनोरथ करतउ रहिउ । तु हे मंद्रि ! एतलउ आरंभ मई ताहरई काजिई की। तु हिवइ माहरलं वचन मानी राज्यनी स्वामिनी था।' तिवारइ रतिसुंदरी चीतविवा लागी, "ए माहरा रूप नई धिक्कार हु जे भार एवडी आपदा-माहि पाडिउ। अनइ वली ए कामी बलत्कारि शीलनउँ भग करिसिह । तु हिवइ मई किम कीजिसइ ! किम शोल राखोसिद? अथवा काल-विलंब करउं । ते करतां सर्व बोल भला हुसिई । इहां शांत मि वचन बोलि मेलि आवसिइ। इम चौतवी वल कहिवा लागी 'अहो राजेन्द्र ! ए बोलनी थोडी वात छइ १ ताहरउ बोल किम लोपाइ ? पणि कांई एक मांग ते आपि ।' राजा कहा, 'ए सिउँ कहिउं ? जु कहि तु आपण उ जीव पणि आपलं ।' तिवारई रतिसंदरी कहइ, 'ए बातन सिउ कहिवउं ? पणि च्यारि मास शीलभंग म करेसि ।' तिसिइ राजा कडिवा लागउ, 'ए तु वज्रपात-पाहिई अधिक बोल मागिउ। तु हिवइ मइ ताहरउ च्यारि मासनउ बोल मानिउ । पछइ तु माहरइ जि हाथि वात छइ ।' इम कही राजा गयउ । ___ पछा रतिसुंदरी आंबिलनइ उपवासे करी आपणउं डोल शोषती, स्नान-विलेपन सर्व वा, मउड मउइइ कृश देह हुई । मांस-लोही सर्व सूकिवा लागां । एहवइ राजाई ते रतिसुंदरो दीठी। चिंतातुर इंतु पूछिवा लागउ, 'हे सुभगि ! तुझनइ कांई रोग छइ ? अथवा कांई दुःख छह जे तुझनइ एहवी अवस्था आवी ?' तिवारई रतिसुंदरी कहइ. 'हे राजन् ! वैराग्य-लगइ म पडवर्ड व्रत कोबइ छइ, तिणिइ करी माही काया विच्छाप दीमइ छ।' जिम फागुणमासि विच्छाय वन दोसई, तिम ते विच्छाय दोसिवा लागो । वली कहइ, 'ए व्रत तां मह १K. साहमु । २. K स्थानकि गयउ । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-चालावबोध किम्हइ पूरउं कीधळ' जाईइ। कांई व्रतनइ भंगि नरकपात हुइ।' तिवारइ राजा पूछइ, 'तुझनई वैराग्य स्या-लगी ऊपनउ ? भोगनइ योग्य एहवलं जे सयर, ते तूं तपरूप अग्निकुंड-माहि कुसुममालानी परिई कांइ घातइ तिवारइं पतिव्रता कहइ, 'अहो राजेन्द्र ! ए सयरनई तई सिउं वखाणिउं, जे सयर दोषने सए भरिउं छ ? ए सयर जि वैराग्यनउं कारण । सांभलि, ते केहवउ छइ १ यतः वसासृग्मांसमेदोस्थिपित्तविण्मूत्रश्लेष्मभिः । सवत्येतद्वपुरैः नवभिः पूतिगंधितां ॥१॥ एहवा डीलनइ वली वली जे विलेपन-स्नान-धूपे करी संस्करीइ, पणि तु ही दुर्गंधि न छोडई । ए अशुचिन निधान छइ । एहवा डीलनइ विषइ कउण मोह करइ ? अपि तु न कोई। कांड बाहरि दीसतां रूडउं माहि त उ एहवउं । जिम विषफल मुहि मीठउ लागइ अनइ अंतरंगि विणास ऊपजावइ ।' इत्यादि घणउ उपदेस रतिसुंदरीई दीधउ। पणि मगसेलीआ पाषाणनी परिहं राजा भेदीइ नही, मन-माहि चीतवइ, 'ए तां च्यारि मास सर्व बोल कहउ, पछइ तु माहराइ हाथि वात छइ ।इम चीतवी राजा कहिवा लागउ, 'तू काई असमाधि म करेसि, आपणउ नीम सुखिई पूरवि ।। इसि कही राजा आपण घरि आविउ । इम करतां जि च्यारि मास गया ।। पछइ अवधि पहतीइ राजा कहिवा लागउ, 'आज हूं आपणउ मनोरथ पूरव ।' तिवारई रतिसुंदरी कहिवा लागी, 'हे राजन् ! सघले आपणउ स्वार्थ जि वाल्ह।' इसिकही वली रतिसुंदरी कहिवा लागी, 'आज जि तां मई सबल खीरनउ आहार लीधउ छइ, तिणि करि माहरउ डील आकुल थाइ छइ, डील फूटइ छइ, सूल आवइ छइ, माथ दुखइ छइ ।' इम कहती मीणहल खाई वमन कीधउं। तिसिइ राजानइ तेडी कहिउँ, 'जोइ-न कृतघ्न डीलन विलसित । एहवउ परमान्न लीधउ हूंतउ, अनइ हिवडां जिम अशुचिमइ थयउ, तिम भोजन-समान एकवार हैं दीधी, अनइ हिव तूं माहरी वांछा करइ छइ । ते तु हूं वम्या अन्न-समान हुई छ। हिव त ए वांछा करतउ लाजतउ नथी? परनी ग्रही पराई स्त्रीना अंगीकार समान पृथ्वी-माहि अवर काई पाप नथी ।' तिवारई राजा कहइ, 'हे सुंदरि ! ए वात सर्व जाणउ। पणि अतिरागना यश-लगइ ताहरउ संगम वांछउँ ।' तिसिइ महासती कहिवा लागी, 'अजी माहरा अंगन तझनई सिउ अनुराग छइ ?' वली राजा कहइ, 'ताहरउं डील तपिइ करी दाध छइ, पणि ताहरां जे बि लोचन ते मइं न मूंकाई।' तिसिइ रतिसुंदरीइ आपण शील राखिवाभणी लोचन बेह काढी राजानइ हाथि आप्यां । ए स्वरूप देखी राजा चमत्करिउ हूंतउ रतिमुंदरी-ऊपरि राग मूकी कहिवा लागउ, 'हे कृशोदरि ! एहवउ दारुण कष्ट तइं सिउं कोधलं. जे मुझनइ महा दु:खदायक हूउं.?' तिवारई सती कहिवा लागी, 'तुझनइ मुझनइ ऊषध समान ए बात हुई, जिणि कारणि "ऊषध पीतां कडूउं हुई, पणि परिणामि गुणकारक, तिम हिवडां कष्ट ह, पणि आगलि गुणनइ हेति होसिइ ।' पछइ रतिसुंदरीइ तिम उपदेस देवा मांटि विषड निश्चल हुउ, वैराग्य ऊपनइ रतिसुंदरीनइ खमाविवा लागउ। तेतलइ शीलनड प्रमाणि शासन देवताई बेहू लोचन नवां कीधां । पछइ राजाई महुंता-साथिई रतिसुंदरी नंदनपुरि १. K, करिठ। २. K. नाखइ । ३. P. मयणहल Pu. मीडहल । ४. K. राजा पणि भति रागना वश-लगइ कहइ 'ताहरु संगम वांछ।' ५. P. L. Pu. उसह K. उसड। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ मेरुसुन्दरगणि विरचित मोकली, चंद्रराजानइ कहाविउ जु, 'ए माहरइ बहिन । एहनइ मइं सासरवासउ करी मोकली छइ ।' पछइ चंद्रराजा शीलधर्मनउ महात्म्य जाणी प्रतिबूधउ हूंतउ, अवसरि पुत्रनइ राज देई, रतिसुंदरी प्रिया सहित दोशा लेई, चारित्र पाली, बेहू मोक्षि पहुतां । इति श्री शीलोपदेशमाला-बालाविवोधे रतिसुंदरीनी कथा ॥२८॥ इम वली शील-महात्म्य-लगइ स्त्रीनां नाम पापक्षयकारक हुई ते कहा - रिसिदत्ता दवदती कमला य कलावई विमलसीला । मामांगहण-जलेण वि कलिमल-पक्खालणं कुणह ॥ ५५ व्याख्या :-- ऋषिदत्ता १, देवदेती २, कमला ३, अनइ कलावती ४- ए च्यारिइ महासती शीलवंति हुई । पणि ते केहवी छ ? विमल-निर्मल परीक्षा-सहित शीलगुण जेहनइ छ। । इसी च्यार इ सती। अहो लोको! तेहन नाम-ग्रहण-रूपीइ जल = पाणीइ करी आपणउं कलिमल= अनंता भवनां पापरूप मल, तेहनउँ पखालिव करउ । एतलइ गाथानउ अर्थ इउ । हिव विस्तरार्थ कथा हूंतउ जाणिवउ । तिहां चिहुं सती-माहि पहिलउ ऋषिदत्तानी कथा कहीइ - [२९. ऋषिदत्ता-कथा] इणइ मध्यदेशि रथमर्दन नगरि, हेमरथ राजा । तेहनी वल्लभा सुयशा । तेहनु पुत्र कनकरथकुमार सुखिइ वाधा छइ । इसिइ कावेरीनगरीइ सुंदरपाणि राजा, तेहनी प्रिया वासुला । तेहनी पुत्री रुक्मिणी यौवनावस्थाई आवी। तिवारई कनकरथकुमारनई दीधी। पछइ भलइ दिवसि पाणिग्रहण करिवा-भणी पितानु आदेश लही कुमार चालिउ । हिव मार्गि सीमाल भूषालनि वशि करतउ महा एक वन गहन, तेह-माहि आविउ, जिहां सूर्य ऊगिउ न दीसह। तिसिई कुमारई पंथ जोवा-भणी गमे गमे जण मोकल्या हुंता, ते आवी कुमारनइ प्रणाम करी कहिवा लागा, 'स्वामी ! तुम्हारउ आदेस पामी दूरि भूमिकाई गया, तेतलइ तलाव एक अपूर्व दीठउं । अम्हे तेहनइ कांठइ आग्या । तिसिई वननइ आंतरइ कन्या एक वृक्षनइ मूलि हींचती दोठी । जेतलइ अम्हे आघेरा आव्या तेतलइ ते दूरि नाठो, जिम काइ उलखी न सकइ । खेचरीनी परिई वन-माही लुकी रही। पछा अम्हे घण इवन-माहि जोई, पणि किहां इ दीठी नही। जिम चित्रकवेलि दालिट्री न देखइ, तिम अम्हे ते न दीठी।' ए वात सांभली कुमार सहर्ष हूंतउ तेह जि जणनइ साथिई लेई तीणइ मार्गिइ कुमार चालिउ । तिहां पंथ अवगाहा, वन गहन सोधतां, कुरंगीनी परिई ते कन्या कुमारि दीठी । तिवारई कुमार चौतवइ, 'ए देवांगना मुनिना शाप-लगइ पडी घटइ । अन्यथा एहवी स्त्री इहां किहां ? जिम मरुमंडलि कल्पवेलि नही, तिम ए स्त्री-रत्न पृथ्वी-माहि नही।' इम तेहनइ रूदिई मोहिउ हूंत कुमार सैन्य-सहित आघेरउ चालिउ । तेतलई कटकनउ कोलाहल सांभली कन्या नाठी। पछइ कुमारि कटक सघलउं इ तलावनी पालिइ ऊतारिउ । अनइ आपणि कामनउ वाहिउ कन्या जोवा-भणी वन-माहि फिरवा लागउ। पणि कन्यानइ न देखइ । तिसिइ आगलि 'उत्तुंगतोरण प्रासाद एक दीठउ। पछइ कुमार चौतवइ, 'सही ए कन्या एह-माहि घटइ।' इम चौतवी ते प्रासाद-माहि कुमार पाठउ । तिहां श्री-आदिनाथनी प्रतिमा दीठी। आपणपउं धन्य मानतड १.K,Pu..उत्तंग । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध लव करवता. घार प्रणाम करी, वननइ फूले करी प्रतिमा पूनी। तेतलई तापस एक महावृद्ध, मस्तक जटा परतउ, कन्यानइं साथिई लेई, तिहां आविउ । तिसि कन्याइं ते कनकरथ देखी चोंतविडं, 'ए इंद्र कि चंद्र कि कंदर्प ?' इम चीतविवा लागी। एलइ कुमारई प्रतिमा नमस्करी । पछइ तापस मुनिना प्रणाम कीधउं । तिसिइ तापस मुनिइ 'चिरं जीव' ए 'आशिषा दीधी, पूछिवा लागउ, 'अहो कुमार ! ताहरउं कुण कुल ? कुण नाम ? कुण ठाम ?' तिवारई कुमारनई बंदीजनिई सर्व कुलनाति प्रकट कीधां । पछइ कुमारिई कन्याना मुख सामहउं जोई तापस पूछिउ, 'ए कउण कन्या ? ए कहिन उं देहरउं ? अनइ तुम्हे कुण १ तिवारइ तापस कहिवा लागउ, 'ए कथा मोटी छह । एह-भणी जेतलई हैं पूजा करी पाछउ आवउं, तां-लगा पडखउ ।' पछद्र कुमार वचन पडिवजी, मंडपि आवी बइठउ । तिसिइ ऋषि कन्या-सहित देवगृह-माहि मा पूनी पाउ आविउ । एहवइ वली कन्या-सामुहउं कुमार नोवा लागउ । तेतलइ मुनि कुमारनई संघातिई लेई, प्रासादनइ उत्तरदिसिइ *उटज एक छइ, तेह-माहि लेई आविउ । तिहां कुमारनइ पगमोअण देई प्रहुणागति कीधी। पछइ तापस वात कहिवा लागउ, 'वत्स ! इहां मंत्रसंज्ञा नामिइं नगरी हती। तिहां श्री हरिषेण राजा, प्रियदर्शना राणी। तेहनउ पुत्र अजितसेन एहवइ नामिई विख्यात हउ । हिवा अन्यदा वाहीआली-भणी वक्र-शिक्षित तुरंगमि चडी राजा नीकलिउ । तिहां अश्व फेरवत राजा अपहरी ए वन-माहि लीधउ । तिनिइं राजा पणि दक्षपणा-लगा बडनी डालई वलगउ। घोडउ वही आघउ गयउ। पछइ राजा डाल-इतु ऊतरी तृषाक्रांत हूंतउ वन-माहि फिरवा लागउ। तेतलइ तलाव एक दीठउं । तिहां हाथ-मुख धोई पाणी पीध। तिसिई विश्वभति तापस एक आविउ । राजाई प्रणाम कीधउं । ते तापस कच्छ-महाकच्छनउ केडउ। तिणि भीआदिनाथनउ आशीर्वाद दीघउ । पछई राजा अनइ ऋषि माहोमाहि कुशल समाचार पूछिवा लागा । एवइ वन-माहि कोलाहल हूउ । आश्रमवासी ऋषि कहइ, 'ए सिउं कोलाहल !' तिसिई राजाइ चीतविउं, 'मुझ केडिइ माहरउं कटक आवि "घटइ ।' इभिइ सर्व साभंते आवी राजा प्रणमिउ । पछइ तापसे मास एक राजा राखिउ। राजा पणि तापसनी सेवा करिवा लागउ । हिवई. राजाई तिहां उत्तंग-तोरण प्रासाद कराविउ । माहि श्री-आदिनाथनी प्रतिमा मंडावी । पछइ राजा आपणा नगर-भगी चालिसा लागउ। एड्वइ तापम राजानई विषापहार मंत्र एक दीघउ । हिव राजा आधी आपणइ नगरि सुखिई राज पालिवा लागउ । इम एकदा सभा-माहि राजानइ बइठे द्वारपालि पी वी तो कीधी. 'स्वामिन् ! मंगलावती-नगरोइ प्रियदर्शन राजा. विद्य-प्रभा राणी तेहनी पत्री प्रीतिमति । तेहनइ सापनउ डंस हूउ । ते विष वलइ नही । पछइ राजाई अम्हे तुम्ह-समीपि मोकल्या । हिवइ तिम करु, जिम जीवदान दिउ ए वात सांभली राजा घडीआ-जोअणी सांदि सज्ज करावी, आपणि तिहां अवी, ऋषिदत्त मंत्र, तेहनइ योगि तत्काल कन्या निर्विष कीधी । पछड पिताई ते कन्या तेह जि राजानई दधी । पाणिग्रहण करी राजा आपणह घरि आविउ । हिवइ केतलउ काल राजाई राज पाली, पुत्रनइ राज्य देई, पछइ राजाइ प्रिया-सहित तापमा दीक्षा लीधी, विश्वभूति तापस-समीपि । पछइ बेहू सुद्ध शीलवत पालई छई। इसिड प्रोतिमतीन १. K. ए आशीर्वाद दीधउ । २. P. उडीउ एकु । ३. K. पाहुणाचार कीधउ । ४. K. विना बधी प्रतिओमां 'मंत्रिसंज्ञा' पाठ छे । ५. K. हसिड। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ मेरुसुन्दरगणि-विरचित 6 पांचमइ मासि गर्भ प्रगट हूउ लज्जाकारक । तिवारइ राजाई पूछिउँ, 'हे भद्रि ! ए किसिउं ?” प्रीतिमती कहर, 'आगइ माहरइ आघाननउ संभव हूँतउ, पणि मइ जाणिउं-जउ हुं कहिसु, तु व्रतनउ 'अंतराय होसिह । तेह-भणी महं न कहिउं ।' वली राजा कहइ, 'हिवइ तु सघला इ तापस-माहि आपणपे हलूआ पांडेया । तु प्रभाति आपणपे अनेथि जासिउं । इम चींतवी गालहथा देई सचिंत रात्रि गमाडि । तिसिह प्रभाति जउ जोइ, तु तापस एकू वन-माहि नही । तिवारई बेडू विलखा हुआ । डाबउं- जिमणउं जोवा लागां । तेतलइ तापस एक जातउ दीठउ । एहवइ हरिषेण ते तापसनइ प्रणाम करी पूछिवा लागउ जु, 'ए वन आज सूनउं कांइ दीसइ ?' तिवारई ऋषि कहइ, 'ए तुम्हारडं कुकर्म देखी सर्व तापस गया ।' इसिड कही तापस गयउ । पछइ हरिषेण विषाद पर हूंतउ उटज-माहि पइठउ | तिहां आपणां कुकर्मनइ निंदता प्रीतिमतीइ बेटी जाई । पणि अति रूपवती । तेहनउं ऋषिदत्ता नाम दीघउं । वधामणउं डूउं । तिसिई माता परोक्ष हुई । पछइ पिताई पुत्री पाली, आठ वरसनी कीधी । पणि मन- माहि चिंतविडं, 'रखे ए पुत्री रूपवंतीनइ वनेचर, भील, पुलिंदादिक उपद्रवई ।" एह-भणी तेहनइ पिताs अशीकरण अंजन करी मुझनइ दीघउं । हिव ते हूं श्रीषेण दाक्षिण्य-लगइ ए कन्यानी सार करडं छउं । पणि मुझनइ कोइ उलखी न सकइ । अहो कुमार ! ते आज हूं तई उलखिउ । ' इम वात करतां ऋषिदत्ता कुमार सामहउं जोवा लागी । इसिइ ऋषिदत्ता अनइ कुमार ते बेडूंनई स्नेहनउं कारण जाणी तापस कहा, 'ए कन्या मइ तुझनइ दीघी ।' पछइ कुमारि तहत्ति करी, बचन मानी पाणिग्रहण कीघउ । केतलाएक दिन कुमार ऋषिदत्ता साथि तिहां तापसा श्रमि रहिउ । ऋषिदत्ता पण कुमारना संसर्ग-लगी वनेचरी फीटी विचक्षण, डाही हूई । एहवइ बेटीजमाईनइ पूछी ऋषि वैराग्य पर पंच परमेष्ठि स्मरतउ अग्नि-माहि प्रवेस कीधउ । तिवार ऋषिदसा घणउ विलाप करवा लागी । तिसिई कुमारिइं ऋषिदत्तानि तिम समजावी जिम असमाधि करती रही । प कुमार आपण कटक लेई ऋषिदत्ता - सहित आपणइ नगरि पाछउ आविउ । राजादिक ए स्वरूप देखी विस्मयापन्न हुया । रथमर्दननगर-माहि उत्सव होइवा लागा । हिव ऋषिदत्ता भर्तारइ बहुमान्य हुई, अतिविनय-लगी सासू-सुसरानां चित्त आवर्ज्या । पछइ राजाइ कुमारन युवराज-पदवी दीधी । ऋषिदत्ता सहित सुखिइ काल अतिक्रमावर छइ । uses काबेरी - नगरीइ सुंदरपाणि राजाइ ए वात सांभली जु, 'पाणिग्रहण-भणी कुमार आवत हूं अनइ अंतरालि ऋषिनी पुत्री परिणी पाछड गयउ ।' ए वात रुक्मिणीइ पणि सांभली । यौवननउ उन्माद, तेहना गर्व लगइ उपाय चींतविवा लागी जु, 'कीणइ उपायइ ऋषिदत्तानइ असुख ऊपजड़, तु हूं कुमारनउँ पाणिग्रहण करडं । इम विमासी सुलसा जोगिनी तेडावी । पणि ते केही छ ? अनेक मंत्र, तंत्र, यंत्रनी जाणी, छइ कूड कपटनी खाणि । ते सुलसा योगिनी घण भावर्जी, तिवारइ तूठी हूंती कहइ, 'मागि, जि कांई कहइ, ते आपउं ।' पछइ रुक्मिणी कहर, 'ऋषिदत्तानइ कलंक दिइ अनइ कुमार मुझनइ पति दिइ ।' ए वात सुसाइ पडिवजी, रथमर्दन नगरि आवी, पणि सापिणिनी परिई दोपडी हूंती नगर-माहि खड़ी चापडी करइ । राक्षसीनी परि महा दुष्टि तिणि सुलसाइ एकदा महा अंधकार विकुर्विड । अवस्वापिनी विद्या प्रयुंभी १. K. व्याघात । २. Pu. गालहथु, K. गाहत्था, L. गलहाथ । ३. K. रात्रि सतपण नीगमी । ४. Pu. L, तेइनहं । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला बालावबोध एक मनुष्यं हणिउ। पछइ कुमारनइ घरि आवी, दुष्टबुद्धिइं ऋषिदत्तानउं मुख लोहीइ खरडिउं । वलो मांसनउ पोंडउ गांठडीइं बांधिउ । हिवइ ऋषिदत्ता सूती हुँती ए वात जाणइ नही । एतला बोल करी राक्षसी गई । एहवइ पाडोसो, जेहनउ मनुष्य हणिउ हूंतु ते, जउ जागइ (2) तु मनुष्य मारिउ देखी कोलाहल कीघउ । तेतलइ कुमार जागिउ । ते पुरूषनी वात सांभली । प्रियानउं मुख जउ जोइ, तु लोहीइ खरडिउं दोठउं । अनइ छेहडइ मांसनउ पीडउ दीठउ । तिसिई कुमारना चित्तना विषइ शंका ऊपनी, 'किसिउँ भई, जिम आगइ राक्षसी सांभलीइ, तिम ए स्त्री दीसइ छइ । तु किसिउं माहरइ ए प्राणवल्लभा राक्षसी छइ ? ए वात संभषइ नही, पणि इहां दीसइ छइ ।' पछइ कुमारि तत्काल प्रिया जगाडी । जिम सूती ऊठी, तिम नि पूछिया लागउ, 'हे देवि ! तूजउ गोपवइ नहीं, तु हूं तूनइ कांई पूछ।' प्रिया कहर, 'पूछ।' तिवारई कुमार कहइ, 'हे प्रिये! आज पुरुष एक रात्रि मारिउ सांभलिउ । अनइ आज तु ताहरउ मुख पणि लोहीइ खरडि दीसइ छ । यली मांसपिंड ओसीसइ मुकिउ छइ। तु कहि-न तूं मुनिपुत्रिका हुई-ना सांप्रत ए किसिउ राक्षसी थई ? इम जे प्रत्यक्ष देखद, ते किम सावउ न मानइ ?' पछइ ऋषिदत्ता भरिनउं एहवलं वचन सांभली बीहती हंती तरल-लोचन कुमार प्रति कहा, 'स्वामिन् ! ' लहुडपणइ जउ मइ मांसनी स्पृहा कीधी हुत, तु आज इच्छा है ऊपजत | पणि तां ए वात असंभाव्य दीसइ छइ जे मुखइ करी ऊचराइ नही । पणि तां कुणहि वैरि-लगइ अथवा माहरा पूर्विला कर्म-लगइ ए भाव कीधउ छइ । अनइ जु स्वामीनइ कदाचित् २ अप्रतीति ऊपनी छइ, तु घट-सपे आणउ जिम प्रतीति ऊपजावउं ।' तिसिइ कुमार कृपासागर, विवे की तेह-प्रतिई कहइ, 'हे भद्रि ! हूं तु तुझनइ निर्दोष जाणउं छउं, बीजना चंद्रमानी परिइ ।' इम कहतउ पाणीनउ लोटउ लेई कुमार आपणइ हाथि प्रियानउ मुख धोवा लागउ । इम सदाइ ते सुलसा रात्रि पुरुषनइ हणी अवस्वापिनी-विद्यानह बलिइ कुमारनइ परि आवी, ऋषदत्ता जि सूती छइ तेहन मुख लोहोइ खरडी, उसीसइ वली मसिपिंड मंकीनइ जाइ । अनइ कुमार सदा प्रियानउ मुख घोइ, पोंडउ बाहरि नंखावा । इम करतां घणा दिन गया । हिवइ ए वात प्रभातना वायुनी परिई विस्तरती राजा-आगलि वात गई । पछा राजाइ प्रधान तेडी कहिउ, 'तुम्ह थकां दिन दिन प्रति एक एक पुरुष कोइ हणइ छ । तु मउडइ मउडइ बि-बि पुरुष हणासिइ ।' तिवारइ प्रधान कहइ, 'अम्हे यत्न घणउ करउ, पणि जाणी न सकीइ । न जाणीइ, नगर-माहि मरगी छइ कि देवता छ कि योगिणि छई ? एह-भणी पाखंडी सर्व नगर-बाहरि काढोइ । पछइ शांति होसिइ ।' पछइ राजाइ जैन मुनि टाली सर्व दर्शनी काढया । एहवइ पापिणी सुलसा राजानइ आवी मिली । एकांत मांगी कहिवा. लागी, 'स्वामिन् ! आज सउणा-माहि मुझनइ कोई कही गयउ जउ-पाखंडीनइ निरपराध राजा कांई. काढइ छइ ? जिम दूध बिलाई पीई जाइ अनइ रीसिइ बालक मारीइ, तिम जे कुमारि वनचारिणी ऋषिदत्ता. आणी छइ ए सर्व विलसित तेहनां । अनइ राजा दर्शनीनई काढइ । इम मुझनई कही ते अहश्य हूउ । अनइ जउ न मानउ तु आज राजा आपणपे जई कउतिग जोउ ।' तिवार पछी राजाइ ते सुलसा विसर्जी । तीणी रात्रि पुत्र आपण-समीपि राखिउ, अनइ ऋषिदत्ता-समीपि १. K.L.P. लहुडपण-लगइ । २. L. Pu. अप्रिति । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित छाना चर मूक्या । एहवइ कुमार चीतवइ, 'आज प्रियानउ ऊघाड होसिइ, तु हूं किम करउं ? एकणि दिसि बापनउ आदेश प्रमाण कीधउ जोईइ, अनइ बोजउं तु प्रियानइ दुःख ऊपनउं । तु हूँ महा-संकट-माहि पडिउ ।' इसिइ सुलसाइ अवस्वापिनी विद्यानइ बलिई, पूर्विली रीतिइं. पुरुष हणी तिम जि ऋषिदत्तानइ कीघउं । ते स्वरूप प्रभाति राजाने चरे ऋषिदत्ता-समीपि आवी जोयउं । अनइ तिम जि राजानइ पणि आवी कहिउं । तेतलई राजा पुत्र-ऊपरि रीसाणउ निर्भसिवा लागउ, 'अरे पुत्र ! स्त्रीना आचार जाणतउइ घरि राखइ । तु रे पापी ! अरे दुराचार ! मुझआगलि अलगउ जा । जे राखसी, ते तई घरि राखा. माहरइ कुलि तई कलंक चडा विउं ।' एहवद कुमार राजानइ पगे लागी कहइ, 'कोप म करउ । ए कोई दुष्ट तेहनउँ काम ।' तेतला राजा कोपाटोपि चडिउ । कहिवा लागउ, 'अरे पुत्र ! जु न पतीजइ तु जईनइ जोइ ।' पछइ कुमार राजानउ आदेस पामी विच्छाय-वदन इंतु प्रिया-समीपि आवी कहिवा लागउ, 'हे प्रिये । ए ताहरां प्राचीन कर्म उदयि आव्यां । हिव हूं सिउं करउं? तुझनइ राखसीन कलंक सुलसा-योगिनीइ चडाविउ । ते आज राजाने चरे तू तेहवी मुखि रुधिर-खरडी दीठी । तु हिव न जाणोइ ताहरउं कर्म तुझनइ किम रोलविसिई ।' इसिइं राजाई तलारना कहिउं, जाउ, ऋषिदत्ता घर-माहि-हूंती जटीए झाली, खांची, वाहरि काढउ । अनइ नगर-माहि फेरवी, प्रेतवन-माहि लेई, ए राखसीनइ हपिज्यो ।' एहवउ राजानउ आदेस लही सर्व तलार ऋषिदत्ता-समीपि आवी, जटीए झाली, घर-बाहरि काढी। तेतलइ कुमार गल पासउ घातिवा लागउ । तिवारइं राजाई बलात्कार कुमार मरण-इतु राखिउ । पछा कुमार आंखिइ आंसू पाडतु विलाप करिवा लागउ । तेतलइ तलारे ऋषिदत्तानइ कानि सूपडां बांध्यां, वली बीलना फल माथइ घात्यां, रासभ आणिउ, माथइ भद्र कराविउं, लींबनां पान नहठीकिरानी माल गलइ घाती, मसि मुखि लगाडी, डील चीतराविउं । पछइ रासभि बइसारी, आगलि डुडि वाजतई, काहली सीगडां वाजते, ते सतो नगर-माहि फेरवी, हाहाकार लोकने कीबते, नयर-वाहरि जेतलइ काढी, तेतलइ मूर्छा आवी, अचेत थई, भूमिइं पडी । तिवारई तलारे जाणिउ-'बिन्हा वाना इयां-अम्नई स्त्री-हत्या न लागी, अनइ राजानउ आदेस पणि प्रमाणि चडिउ ।' पछह तलार पाछा वली घरि आव्या । तेतलइ केडिइ ताढउ वायु बायउ, सचेत हुई । चउ-पखेर सामुहउ जोइ, तु निवरं देखइ । पछई रोवा लागी, दैवनइ उलभा देती, हा तात! हे मात ! हा प्राणनाथ।' इम कहती, मउडइ मउडइ चालती, वनभणी नीकली । मन-माहि चीतवइ जु, 'कर्म-आगलि कोई न छूटई । कोधां कर्म भोगवीई, तउ छटी । तेह-भणी हिवदां ए कलंक तुझनई चडिउं, तु रे जीव ! सहि । अनइ भरि पणि महा संकट-माहि पडिउ । तेह्नउ कउण हाल होसिइ ?' इम विलाप करती पादचारिणी पिताना आश्रम-भणी चाली । पगे डाभसी खूचई, लोहो वहइ । इम पगे चालती जिहां पिता आगि-माहि पइठउ हूंतउ, ते चिहि-दूकडी आवी, रोती हूंती कहिवा लागी, हे बाप ! एक वार तूं मुझनइ दशन दिइ । आगइ हूं ए तापस-वन-माहि रहिती । हिवइ वली एह जि तपोवन शरण । तु हिव ए वन-माहि शील मई किम पालीसिइ ?' इम विमासतां चीति आविउं जु, 'मुझनइ बापि ऊषधो देखाडी हूंती, जेहनइ प्रमाणि स्त्री पुरुष प थाइ । पछइ ते ऊषधी लेई कानि बांधी। तत्काल ते पुरूष-रूपि हुई । वन-माहि कंद-मूल-फल खाती रहइ। श्रीआदिनाथनी पूजा करइ । तापसउ वेष धरती, ऋषिदत्त नाम धरती, सुखई रहइ छइ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १०१ हिवह पाछलि कुमार प्रियानउ विरह, तिणि करी आकुल उ शून्यचित्त -थकउ रहइ छइ । एहव सुलसा कृतकृत्य इंतो रुक्मिणी-समीपि जई सर्व वात कही, रुक्मिणीनइ हर्ष ऊपजाविउ । पछइ चंडिकानइ पूजा-मणो छाग एक हणि उ । तिसिइ काबेरीपतिइ रथमर्दन-नगरि हेमरथ राजा-भणी दूत एक मोकलिउ । पछइ दूत तिहां आवी राजानइ कहइ, 'कउग कारण जे पुत्र तुम्हारउ पाणिग्रहण-भणी नाविउ ? हिव आपगउ पुत्र रुक्मिणी कन्याना पाणिग्रहण-भणीचलावउ । सगाई कीधी जि हूइ ।' ए वचन सांभली राजाइ दूत बहु मानी, एकांति पुत्र-समोपि आवी इसिउं कहइ, 'वत्स ! आज काल तू विच्छाय-बदन काई दीसइ ? सूना घरनो परिई ऊमणदूमणउ कांई ? तु तू वच्छ ! पूर्व-दुःकम-लगइ जि कांई कष्ट पडि3 हुइ, ते फेडि । धीर पुरुष वली सर्व कर्मनई विषइ उद्यम करइ । तु हिवई तू माहरइ वचन काबेरीपतिनी पुत्रीन पाणिग्रहण करी माहरु मन संतोषि ।' पछइ कुमार पितानी आज्ञा अणलोपतउ सैन्य-सहित वली पाणिग्रहण-भणी चालिउ । हिवइ मार्ग उलंघतउ, ऋषिदत्तानउ ध्यान धरतउ ते पूर्व-परिचित तपोवन पामिउं । ते देखी मित्रनइ कहइएते तपोवन, ए ते देहरउ, ए ते सरोवर, ए ते वृक्ष, जिहां मई स्नेहपूर्वक ऋषिदत्ता परिणी । तु जोइ-न, ते ऋषिदत्ता-विण आज मुझनइ सर्व दुःखरूप प्रतिभासइ छइ । तु अरे दैव ! तई ए सिउं कोधउं ?' इम असमाधि करतउ श्री देनाथनइ प्रासादि आविउ । तेतलई जिमणउ लोचन फराकवा लागउ । तिसिइ कुमार मनि चीतवइ,'जे असमाधि कर, ते फोक, कांइ प्रिया भावइ तिहां जीवइ छइ । अथवा ए देहर आगइ रुलियामणउं छइ ।' इम चीतवतउ जेतलइ देवकुल-माहि चउ-पखेर जोइ छइ, एहवइ ते ऋषिदत्त तापस फलफूल लेई कुमारनइ आप्यां । कुमार पणे प्रियाना स्नेह-लगी महा आनंद धरिवा लागउ । तेतलइ ऋषिदत्त मुनि मन-माहि चीतवइ,' ए कुमारना आकार ते दीसइ, जे रुक्मिणीना पाणिग्रहण-भणी चालिउ । तु हूं आपणपउं प्रगट करउं । पणि हिवडा प्रस्ताव नही । पछइ कुमार देव पूजीनइ ऋषिदत्त तापसनइ साथि लेई, कटक-माहि आणी वस्त्र, असन, पान, खादिम-स्वादिमे करी घणी भक्ति कीधी । पछइ पूछिवा लागउ, 'केतला दिवस-लगा तम्हे ईणइ आश्रमि रहउ छउ ? ते तुम्हे आपणउ वृत्तांत कहउ ।' तिवारइ मुनि कहइ, 'आगइ ईणइ आश्रमि हरिषेण मुनि हूंतउ । तेहनी पुत्री ऋषिदत्ता कन्या । तेहनं पाणिग्रहण कोई राजपुत्र इहां आवी करी गयउ । एहवइ ऋषि जमाई-पत्रीनई पछी आगि-माहि पइसी प्राण छांड्या । अनई हूं पृथ्वी भमी भमी इहां आविउ। मुझनइ इहां रहितां वरस पांच हआ। अहो कुमार ! ताहरइ दश नि ते वरस आज सफल हुआं ।' कुमार कहइ, 'अहो मुनि ! सानन्दपणइ तुझनइ देखी दृष्टि तृप्ति नहीं पामती, जिम थल घटइ पाणीह तृप्ति न पामइ ।' पछइ ऋषि कहइ, 'मुझनइ पणि तुझ देखी हर्ष ऊपजइ छइ ।' कुमार कहइ, 'अहो मुनि ! ताहरइ स्नेहि माहरउ चित्त बांधिउ छइ, पणि मुझनइ आगलि जावउ छइ । एह-भणी तू मुझ साथि आवि । अनइ वलतां तूं ईणइ आश्रमि रहे ।' तिवारई मुनि कहा, 'अहो कुमार ! मुझनइ आग्रह न करिवउ ! जिणि कारणि राजानु संसर्ग ऋषिनइ दुषणप्राय छ ।' इणि ववनि कुमारि गाढेरउ आग्रह करी ऋषिदत्त-मुनि संघाति चलाविउ । पछइ कुमार नई ऋषिदत्त चालतां, मार्गि अनेक गोष्ठ करतां, नवनवा विनोद जोतां, थानकि थानकि रहितां. नव-नवा श्लोक सुभाषित बोलतां, काबेरोनगरीइं आव्या । एहवइ वधामणीइ जई काबेरीपति वधाविउ, कहिलं, 'स्वामिन् ! हेमरथराजानउ पुत्र कनकरथ आविउ ।' ति सई राजाई तेह-नई Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ मेरुसुन्दरगणि-विरचित पइसारउ कराविउ । नगर-माहि अनेक तलियां तोरण, वंदरवाल बंधावी । पछ्इ भलइ लग्नि कुमारि रुक्मिणीनउ पाणिग्रहण कीधउं । कुमार केतलाएक दिवस तिहां रहिउ । अन्यथा वेसास ऊपनइ रुक्मिणीइ कुमार पूछिउँ, 'हे स्वामिन् ! जे ऋषिदत्ता पहिली परिणी हुंती ते केहवी हुता, जेणीइ अहल्यानी परिहं ताहरउं चित्त रंजिविउ हुतउ ?' इम कहिइ हुँतइ कुमार आंखिइ आंसू पाडतउ गद्गद् -स्वरिइ कहिवा लागउ, 'जेतली विश्व-माहि स्त्री छई, तेतली हूँ तेहनी पग धूलि समान गणू । तेहनइ विरहइ तां मइ ताहरउ पाणिग्रहण की उं । जिम मानसरोवरनउं नीर आस्वादी मनुष्य मरुमं डलन क्षार-जल किम आस्वादइ ? तिम ताहरउ सबंध जाणिवउ ।' ए वात सांभली रुक्मिणी रीसाणी हूंती पूर्विली आपणी सर्व वात कहवा लागी, 'ए तां मइ जि ऋषिदत्ता ताहरा मन-हूंती ऊतारी । सुलसा योगिनी मोकलीन इ म कलंक चडावाविउ ।' इत्यादि वचन सांभली ऋषिदत्तमुनि मन-माहि चतवइ, 'तां भरतारना मन हूंत माहरउ कलंक ऊतरिउं । इम कुमार पणि ते रुक्मणिनां वचन सांभली रोषारुणलोचन हूंतउ ते रुक्मिणोनई तर्जिवा लागउ । जिम दहींनइ भांडि शुनीनइ बोटिई शुनी हाकी काढीई, तिम ते काढी । 'अरे पापिणो ! तई ता हूं केवडा संकट-माहि घातिउ ? तु हिव हूं आपणा जीवनई कांई हित करउं, जिणि कारणि मईं लोकद्वय विरुद्ध नरकनई हेतु आचरण आचरिउ ।' इम कही नगरनइ परसरि कुमारि चिहि करावी । आणि काष्ट-भक्षण करवा लागउ । 3 एव काबेरीपति तिहां आवी कुमारनइ हाथि झाली निवारिवा लागउ । समस्त लोक पणि अश्रुपात करता वारिवा लागा । तु ही कुमार रह नही । इसिइ ऋषिदत्त-मुनि तिहां आवी कुमारनइ कहइ, 'अहो कुमार ! स्त्रो नइ कीधइ एवडउँ सिउं मांडिउ ? अनइ मूआ इ पछी को कहिनइ न मिलइ । एह-भणी जीवतां अजी किहां-इ-थकी तुझनइ वल्लभा मिलिसइ ।' तिवारइं कुमार कहइ, 'अहों ऋषि ! तई तां बालकनी परिइं हूं भोलविवा मांडिउ । हिवइ एक वार मुझनइ मरिवा दइ, जिम विरहनउं दुःख भाजइ ।' ऋषे कहइ, 'ताहरइ सत्विई सही ताहरी भार्या जीवइ छइ ।' 可 वात सांभली कुमार कहइ, 'तरं प्रिया किहां दीठी, किहां सांभली ?' तिवारइ मुनि कहइ, 'हूं' ज्ञानि करी जाणउं छउ, जु ताहरी वल्लभा सुखिईं जोवइ छ ।' [ कुमार कहइ ] 'तु ऋषि ! कहिन किम ही ते प्रिया आवइ ?' वलतु ऋषि कहइ, 'मुझनइ जु मोकलइ, तु सही अणउं ।' तिवारइ कुमार कहइ, 'तु सम करि, जिम मुझनइ प्रतीत (१ति ) ऊपजइ । ' वली ऋषि कहइ, 'जु हूं' आणउं, तु मुझनइ सिउं आपइ ?' कुमार कहइ, 'हू ं आपणउं आत्मा आपउं ।' तिवारई मुनि हसोनइ कहइ, 'तू' आपणउ आत्मा आपणकन्हलि राखि, पणि प्रस्तावि काई मागउं, तेहनी ना म कहेसि ।' ते वचन कुमारि पडिवजिउं । पछइ ते तापस-मुनि परीयछि माहि पइठउ । लोक घणा कउतिगीयाल मिल्या छई नगरीना । इसिई आकाशवाणी हूई जु, 'सतोना सत्व, तप, ध्यान पृथ्वी- माहि जयवंता छ ।' इसिउ कहतां हाथि फूलनी माल धरता देवता आकासि आव्या । तिसिइ जिम करसणी मेघ-सामुहउं जोइ, तिम सहू ऋषदत्तानी वाट जोवा लागा | लोकनई सर्व काम वीसरी गयां । एहवइ कुमार ऋषिदत्ता दीठी । पणि ते केहवी छई ? जिम अग्नि हूंतउ नीकलिउ सोनउं दीपइ, तिम ते दीप्तिमंत, उपपात शय्यनी परिई सुरांगना सरीखी प्रकट हुई । प्रसन्नमुख ऋषिदत्ता जिवारई आवी, तिवारइ सर्व देव, दानव, मानव पतिव्रत'नई 'जय जय', 'जय जय' शब्द ऊचरतां आकाशि १. P. विना : घण पाणीइ । २. K. लेखवउं छउं । ३. P भोलिवड Pu. भोलविवउ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध १०३ कुसुमनी वृष्टि करवा लागा । तिवारइ ऋषिदत्ता आपणइ रूपि करी रुक्मिणीनइ दासी-समान करती ऊभी रही, देखी लोक सर्व कुमारनइ प्रसंसइ । कावेरीपति पणि जमाईनइ जीवितव्य देखी हर्षित | जिम चंद्रमा देखी समुद्र उल्लास पामइ, तिम तीणइ पामिउ । पछइ काबेरोपति कुमारनइ ऋषिदत्ता गजेंद्र बइसारी, महा ऋद्धिनइ विस्तारि आपणइ घरि आणी, गौरवपणइ स्नानादिक कराविडं | पछइ योगिनी अणावी कान- नाशिका छेदी, घणी विडंबना देखाडी, देसहूंती बाहर काढी । पछइ काबेरीपति आपणी बेटी गाढी निर्भछी, कुमार केतलाएक दिवस तिहां राखिउ । अन्यदा कुमार ऋषिदत्ता - नइ कहइ, 'हे प्रिये ! तुझ-केडिई ताहरी सुद्धि-भणी मद्द ऋषि एक मोकलिउ हूंतु, ते अजी नावइ । तेहनी असमाधि मुझन गाढी छइ ।' तिवारऋषिदत्ता हसीनइ कहइ, 'स्वामी ! ए 'विषाद म करि । ऊषधीना योग-लगइ ए सर्व मई जि की उं । पणि हिवर माहरउ वर आपि, तई जे बोलिउ हूंतउ ।' कुमार कहा, 'मागि ।' ऋषिदत्ता कहर, 'जिम मुझनइ लेखाइ, तिम जि रुक्मिणीनई गणि ।' कुमार कहइ, 'जोउ एहनउ विवेक, एहनी दया जोउ ।' इम कही ते वात कुमारिइ मानी । तेतलई ऋषिदत्ता रुक्मिणी अणावी । भरतारनइ पगे लगाडी । पछइ कुमार सुसरानइ मोकलावी, बिहुं स्त्रीए परिवरिउ, सैन्य सहित आपणइ नगरि आविउ । पिताइ महा-विस्तारि प्रवेशोत्सव कीधउ । पछइ राजाई ए स्वरूप जाणी ऋषिदत्तानइ आपणउ अपराध खमावीनइ कहइ, 'ए ऋषिदत्ता सती-सिरोमणि । इम कही मानिवा लागउ । हिव अन्यदा कनकरथ पुत्रनई राज देई राजा आपणपे श्री भद्राचार्य-समीपि चारित्र लेई, सुद्ध संयम पाली, मोक्षि पहुतउ । हिव कनकरथ आपणउँ राज पालइ छइ । इसिइ ऋषिदत्ताई सिंहरथ पुत्र जन्मिउ । तिहां महा महोत्सब हूउ । एकदा राजा ऋषिदत्ता सहित गउखि बइठउ छइ, एहवइ आकाशि पंचवर्ण आभां हूयां, अनइ देखतां जि विलइ गयां । तिवारई राजाइ ए असार संसारनू स्वरूप देखी मनि वैराग्य धरतां जि रात्रि गई । तिसिहं प्रभाति श्री भद्रयशसूरिनउ आगमन सांभली सपरिवार राजा वांदिवा गयउ । तिहां गुरे धर्मोपदेश दीघउ | गुरुनी देखना सांभली पछइ ऋषिदत्ता गुरुनइ पूछइ, 'स्वामिन्! मई भवांतर कउण पाप की उं जे मुझनइ राक्षसीनउं कलंक चडिउं ?' तिवारई गुरु ज्ञानि करी कहर, ' वत्सि ! पूर्व-भव सांभलि । गंगापुर नगर । तिहां गंगदत्त राजा, गंगा एहवइ नामि प्रिया, गंगसेना पुत्री । पणि अति हि सुशीलि । एकदा गंगसेना- नइ चंद्रयशा महासती साथिहं धर्मनी गोष्टि हुई । तिवारइ गंगसेना विषय तृण समान गणिवा लागी ।" हिवइ ते गुरु कहइ, 'ते महासती - कन्हलि काई एक तपस्विनी तप तपइ छइ । ते-साथि ताहरइ मत्सर हूउ | तूं तेहनी प्रसंसा सही न सकइ । पछइ तई तेहनइ एहवउ कलंक दीघउं जु, "ए दीह तप तपइ अनइ रात्रि मसाणि जई मृतकनां मांस खाइ ।” तिसिहं तुझनइ महासतीए कहिउं, "बापडी ! एवडउ कर्मबंध कांई करइ ? सामुहउं कर्म ऊपार्जइ छइ ।” हिवइ ए पाप तई अणआलोई अणपडिकमिदं मरी, घणउ काल संसार-माहि भमी, ईणइ जि गंगापुरि राजानी पुत्री हुई । पछइ प्रस्तावि जिन दीक्षा लेई, तप तपी, अणसणपूर्वक मरी, ईशानेन्द्रनी प्रिया हुई । तिहां-ती चिवी तूं हरिषेण राजानो पुत्री हुई । पणि भवांतरनां कर्म-लगइ तुझनइ १. K. L. Pu. विखवाद । २. P. Pu. देखह । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ मेरुसुन्दरगणि-विरचित ए कलंक ऊपनउं छइ । इम जु वचन-मात्रिइं प्राणी एवडां कष्ट पामइ छइ, तु जे कायाइ करी पाप करइ छइ, ते तउ भवने सए नही छूटइ ।' इम ज्ञानीनां वचन सांभली, वैराग्य-रंगि पुरित हुंती, ईहापोह करतां जाती-स्मरण-ज्ञान ऊपनउं । आपणउ भवांतर दीठउ। तिवारई ऋषिदत्ता कर्म-थकी बीहती ज्ञानीनइ वीनवइ जउ, 'मुझनइ हिवइ जिन-दीक्षा दिउ ।' गुरु कहइ, 'राजानइ मनावि, जिम तुझनइ दीक्षा दिउं।' पछइ ए वात सांभली राजा पणि संसारनउं असारपणउं देखतउ सिंहरथ पुत्रनइ राज देई, ऋषिदत्ता भार्या-सहित राजाइ दीक्षा लीधी। पछइ विहार करतां, खड्ग-धारा-समान चारित्र पालतां, भद्दिलपुरि आव्या । तिहां संपूर्ण कर्म उन्मूली, केवलज्ञान पामी, बेहु मोक्षि पहुतां । इति श्री-शीलोपदेशमाला-बालाविबोधे श्री-ऋषिदत्ता-महासती-कथा ॥२९|| हिवइ दवदंत नी कथा कहइ - [३०. दवदंतीनी कथा ईणइ जबद्वीपि भरतक्षेत्रि अष्टोपद-समीपि संगमपुर नगर । तिहां मम्मण राजा वीरमती भार्या-सहित सुखिई राज करइ । अन्यदा प्रिया-सहित राजा आहेडा-भणी नगर-बाहिरिनीकलिउ। तिसिई संधात-साथइ महात्मा एक मल-मलिन-गात्र आवतउ देखी मन-माहि अपशुकन मानतउ राजाई महात्मा खली राखिउ, संघात-हूंतउ चूकविउ । बार घडी-ताई संतापी पछइ दया-परिणाम ऊपनई, राजाई महात्मा पूछिउ, "किहां हूंतउ तूं आविउ ? किहां जाएसि ?" तिवारई मुनि कहइ, 'हुँ रोहीतकनगर-हूंतउ आविउ । पण अष्टापदि बिंब नमस्करिवा-भणी जाउं छ । ते हैं तुम्हे हिवडा संघात-हूंतउ विछोहिउ।' इम वात करतां राजाराणीए दुःस्वप्ननी परिइं कोप मूकिउ। पछइ ते महात्मा-नइ भातपाणीई करी संपूर्ण भक्ति कीधी । तिसिई महात्माई ज्ञानरूप धर्म-ऊषध कर्म-रोगनी चिकित्सा भणी आपिउं । पछइ महात्मा अष्टापदि पहुतउ । हिवइ ते बिहुइ महात्माना संसर्ग-लगइ श्रावकउं धर्म तिम पालिवा लागां; जिम रांक द्रव्यनइ पालइ । अन्यदा वीरमतीनइ जिनधर्मनी गाढी स्थिरता करिवा-भणी शासन-देवताई अष्टापद तीर्थ देखाडि । तिसिईतिहां वीरमतीइं, अष्टापद-ऊपरि शाश्वती प्रतिमाई जे देवता पूजई अचई छई ते देखी परम आनंद धरती चउवीस इ जिननी प्रतिमा नमस्करी, विद्याधरीनी परि? आप. णड नगरि पाछी आवी । पछइ जिन-जिन-प्रति वीस-वीस आंबिल करी रत्नमई चउवीस तिलक कराव्यां । पछइ सपरिवार अष्टापद-पर्वति जई स्नात्र-महोत्सप-पूर्वक चउवीस इ तीर्थकरनई चउवीस इ तिलक दीधां । भावपूर्वक वली चारण-श्रमण महात्मा तिहां आविआ हूंता, तेहनई दान देई, महा-भक्तिपूर्वक नाची, गीत गाई, घरि आवी । हिवइ बिहुँनइ डील इ जूजू पणि जीव एक जि । इम धर्म-कर्म करतां समाधि-मरण पामी, बेहूं देवलोकि देव-देवी हुआ। तिहां हूंतउ मम्मणनउ जीव चिवी, ईणइ जंबूद्वीपि, भरतक्षेत्रि, बहुली-देशि, पोतनपुरि नगरि, धम्मिल्ल नामिई आभारनी भार्या रेणुका, तेहनी कूखिई, धन एहवई नामिइ पुत्र हउ । अनइ वीरमतीनड जीव देवलोक-तु चिवी धूसरी एहवइ नामि धननी भार्या हुई । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध हिवइ धन अरण्य-माहि भइंसि चारइ । कांई ? आभीरनइ कुलि मूलगी एह जि वृत्ति, जे भइंसि चारीइं। इसिई अन्यदा वर्षाकाल आविउ । गाढउ कादम हउ । भइंसि क्रोंकार करिवा लागी। एहवइ धन चारिवा-भणी वरसतइ मेघि भईसिनइ लेई, माथइ छत्रडी धरी, नीकलिउ । पछा महा-अटवी-माहि भइंसिनई चारतां महात्मा एक प्रतिमाई रहिउ दीठउ । पणि एक जि पग भूमिकाई लागउ छइ । अनइ उपवासि करी महा-कृश छ । वली ताढिइ करी कांपतउ, वृ परिहं धजतउ छह । एहवउ ते मुनि देखी धननइ दया ऊपनीइ आपणी छत्रडी महात्माना माथा-ऊपरी महा-भक्तिभावना-सहित धरी रहिउ । पणि न ते धन थाकउ, न ते मेघ वरसतउ रहिउ । इम घणा प्रहर वृष्टि करी मेघ रहिउ । तेतलई महातमाई काउस्सग्ग पारिउ । पछइ धन प्रणाम करो महात्मानई पग चांपिवा लागउ । हाथ जोडी कहिवा लागउ, 'अहो मुनि ! ए काल तु विषम, अनइ पृथ्वी कर्दम-बहुल हुई । तु आज तुम्हे किहां-हूंता आव्या ? अनइ किहां जासिउ ?' तिवारई मुनि कहइ, हूं पांडुदेस-याउ आविउ अनइ गुरुनई वांदिवा-भणी लंकाइ जाइसु । पणि जातां ए वरसालउ आविउ, तु मुनिनइ वरसतइ मेघइ जावडं नावइ । तेह-भणी मइ नीम लीधउ- जां ए मेह वरसिसइ, तां किही नहो जाउं । इम चीतवी इहां बि हिउ । तु आज मेहनइ वरसतां 'सात दिन थया । ए अभिग्रह हिवडां पहुतु । तु हिबइ हैं किहां एक वस-महि जई रहिसु ।' तिवारई धन कहिवा लागउ. 'माहरइ भइसउ छइ. तिणि चडउ, जिम कादमन उ उपद्रव न हुइ ।' तिसिइं मुनि कहइ, महात्मा भईसइ न चडई । परनइं जिम पीड हुइ तिम न करई । महात्मा पाला जि चालई।' इम कहितउ ते मुनि धननइ साथिई नगरनइ परसिरि आविउ । तेतलइ धन कहइ, 'अहो मुनि ! जां हूं भईसि दोहउं, तां पडखउ ।' इम कही धन घरि आवी भइंसि दोही, घडउ एक दूधिई भरी, आपणपुं धन्य मानतउ, तिहां आवो महात्मानई पारणउं कराविउं । पछइ वर्षानइ व्यतिक्रमि महात्मा पोतनपरि आविउ । पछइ धन धूसरी-प्रिया-सहित श्रावकनउ धर्म सूधउं सम्यक्त्व-सहित पालइ । पछइ अवसरि चारित्र लेई, सात वरस दीक्षा पाली, मरण पामी, सुगात्रि जे दान दीधउं तेहनइ प्रमाणि, हैमवति क्षेत्रि बिन्हइ जीव युगलीयां हूयां । तिहां-हूंता मरी देवलोकि ऊपनां । वली तिहां-हंतउ मम्मणनउ जीव चिवी ईणइ भरतक्षेत्रि कोशलदेशि कोशलानगरीई इक्ष्वाकु-कुलि निषध एहवइ नामि राजा अनइ सुंदरी भार्या, तेहनी कूखिइ नल एहवइ नामि पुत्र हूउ । अनइ कूबर लघु बांधव हूउ । इसिई विदर्भदेशि कुंडिनपुरि भीमरथ राजा, पुष्पदंती-भार्या सहित, सुखिई दिवस गमाडइ छह । इसिइं पुष्पदंती पश्चिम-रात्रिई सुख-शिय्याई सूती सउणउं लही, राजानइ कहइ, 'स्वामी ! इम जाणउ वन हूंतउ दावानलनउ प्रेरिउ स्वेत हस्ती एक माहग्इ घरि आविउ ।' ए वात सांभली राजा कहइ, 'ए सउणानइ अनुसारो कोई पुण्याधिक जीव ताहरी कूखिई अवतरिसिइ ।' पछइ पुष्पदंती अनेक धर्मकाज करइ । इम धर्म-कर्म करतां साष्टि नव मास गया । पछइ भलइ दिवसि पुत्री जन्मी । पिताइ पुत्रजन्मनी परिई जन्म-महोत्सव कीधउ । पूर्व-कर्मानुभावलगी ते कन्यानइ भालि तिलक रत्न-समान ऊपनउं, जाणे सूर्य झलहलइ छइ । पछइ सूर्य-चंद्रदर्शन कराव्यां, छठइ दिनि छट्ठी जागी । हिवइ जे दावानल-हूंतउ स्वेत हस्ती घरि आवतक १. K. बार । २. K.P.L. ताहरइ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुंदरगणि-विरचित दीठउ तेह-भणी दवदंती नाम दीघउं । जे 'मित्रेयी माता तेही मधुर-वचने बोलावई । जिम जिम कुमरी रीखती, पगि नूपुर रमिझमि करती, हसती, खेलती चालइ, तिम तिम मावाप हर्षीइ । इम पुत्री वाधती, माबापनां मनोरथ पूरवती, आठ वरसनी हुई । तेतलइ माता-पिताए कलाचार्यसमीपि भणिवा मुंकी। पणि थोडे दिहाडे सर्व शास्त्र भण्यां। साक्षात्कारि सरस्वतीनी परिइं शास्त्र जाणिवा लागी। गुरु नाममात्र जि हूया। तिसिई कला चार्थिई दवदंती आणी राजानई दीधी । तिवारई राजाई दवदंतीनी विद्या देखी, एक लाख सोनउं आचार्यनइ देई कलाचार्य विसर्जित। ... पछइ निर्वृत्ति देवताई दवदंतीनुं पुण्य देखी सुवर्णमइ श्री-शांतिनाथनी प्रतिमा आपी । वली इम कहिउं ज, 'ए भाविउ सोलमउ तीर्थकर होसिइ । ए प्रतिमा तई सदाइ पूजिवी ।' कही देवता अदृश्य हुई। पछइ दवदंती घरनई देवालइ प्रतिमा मूंकी, सदाइ पूजइ । ऋमिई दवदंतीई यौवनपणउं पामिउं । इसिई मागप अनुरूप वरनी चिंता करतां जि पुत्री अढार वरसनी हई। तेतलई प्रधाने राजा वीनविउ, 'स्वामी! स्वयंवरा-मंडप मंडावीइ । तिहां पत्री आफणीई वर ऊलखी लेसिइ ।' पछइ राजाइ स्वयंवरा-मंडप मंडाविउ । हिवइ गामि गामि दत मोकली राजाना कुमार तेडाव्या । दूते निषधराजा बोलाविउ । निषधराजा पणि नल-कबर-पत्रे परिवरिउ आविउ । पछइ भोमरथ राजाई आगता-स्वागत करी, आवासे सर्व राजा ऊतारिया। तिसिई नल देखी सर्व राजा अदेखाई करिवा लागा । हिवइ भीमराजाई सयंवरा-मंडप मंडाविउ । हेममय सिंहासन मंडाव्यां । जेहवी सौधर्मेद्वनी सभा हुइ, एहवी कीधी । विचालइ स्तंभ मांडिउ । तीणइ सर्व भूषण भूषित पूतली करी मांडी, जाणे देवांगना छ । जे पाधरा राजा छइं, ते चीतवई, अम्हे ए जोवाइ नही लहइमिड प्रभाति सर्व राजेंद्र सिंहासने आवी बइठा । निषधराजा पणि पुत्रे परिवरिउ आवी बइठउ । एहवइ दवदंती उदार स्फार शुगार करी, स्वेत वस्त्र पहिरो, सभा-माहि आवी। पणि आगलि प्रतिहारिणी हाथि सोनानी कांब लेई सवें राजानां नाम नइ गुण प्रगट करती कहइ. 'हे स्वामिनि ! ए मगधदेसनउ अधिपति चंद्रकीति । ए अंगदेसनउ अधिपति भीमराजा ।। कोशलदेशनउ निषध राजा । ए नल-कूबर तेहना पुत्र।' इम नाम लेतां नलनइ विषइ दवदंतीनउं मन गयउं, अंगि रोमंच ऊपनउ । तिवारइं नलनई कंटि वरमाला दवदंतीइ मूंकी। तेतलइ कृष्णराज खग लेई कहइ, 'रे नल ! तूं कन्या मूंकि । मुझ-छता कउण कन्या परिणी सकह" तिवारईनल अनइ कृष्णराजनइ माहोमाहि युद्ध होतां मनुष्यना संहार थातां देखी दवदंतीई अवश्रावणा कीधी, 'जउ हूं अहंतनी भक्त छउँ, तउ शासन-देवता ! नलनइ जय हु।' इम कही पाणीनी छांट नांखी। तेतलइ कृष्णराजानउं खांडउं पडिउं । पछइ कृष्णराजाईनल प्रणमिउ । तिहां नलिई जैत्र-पदवी पामी। तिवारई सर्व गजेंद्र हर्षिया । पछइ भलइ दिवसि पाणिग्रहण-महोत्सव हूउ । तिहां हाथ-मेल्हावणीइ भीमराजाई अनेक धन, कनक, अस्व, हस्ती दीयां । पकड भीमरथ राजानइ पूछी निषधराजा पुत्रवधू-सहित कोशल-भणी चालिउ । तिसिइं भीमराजा बीना सीख दिह, 'वत्स! व्यसनि कष्टिइ पडिइ भरिनउ केडउन मूकिवउ ।' इम सीख देई भीमराजा पाछठ ' वलिउ । पछइ दवदंती पितानी सीख मन-माहि धरती, नलनई रथि बइठी। रथ आघउ चालिउ।। १. K. मंत्रेइ । २. P. आपहणी Pu. आम्हणो L. आफणी। ३. Pu. P. वल्यड़ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमालाबालावबोध १०७ हिवइ नल-दवदंती मार्गि अनेक वृक्षनां कउतिग जोतां, रथ उन्मार्गि चालिवा लागउ । इम मागि चालतां अंधकार प्रकट हउ। तिसिइ लोक चाली न सकइं, उरई-परई पडिवा लागा। एहवइ नलि दवदंतीनइ कहिउं, 'हे प्रिये ! निद्रा म करि, तिलक प्रकट करि ।' तिवारई दवदंती रथनइ अनि जेतलइ बइठी, तेतलइ तिलक सूर्य की परिई उद्योत करिवा लागउं । पछइ सर्व लोक सुखिई चालिवा लागा । इम चालतां नलि मुनि एक प्रतिमाई रहिउ दीठउ । तिवारई नल पितानइ कहइ, 'तातपाद ! अजूआलानइ योगिइ महात्मा एक दीसइ छइ । तु मार्गनउ कांई फल लीजइ । ए महात्मानइ काउमग्गि रहतां जे गंधहस्तीइ डील घसिङ छइ, तेहनई गघिई भमरा संतावई छई । ते परीसह मुनि सहइ छइ ।' ए वात सांभली निषधराजा पुत्र-सहित तिहां जई, मुनिनइ प्रणाम करी, सर्व उपद्रव निवारी, उपदेश सांभली (?लइ)। पछइ नल मुनिनइ पूछइ, 'ए दवदंतीना तिलकन एवडउंसि तेज ?' तिवारइ मुनि कहइ, 'जे चउवीस तीर्थकरनई तिलक दीघां हूंतां, तेहन ए फल । अजो घणा प्रकार होसिइं ।' इम सांभली मुनि वांदी आघा चाल्या । पंथ अवगाही आपणि नगरे आव्या । पछइ निषधिइ नलनई राज दीध', अनइ कचरनइ युवराज-पदवो देई आपणपई चारित्र लीधउं । तिवार-पछी नलराजा आपणी प्रजानई पालइ । इसिई अन्यदा नलराजा प्रधारनइ पूछइ, 'माहरइ पिताइ केतली भूमिका साधी हंती ?' तिवारइ प्रधान कहइ, 'पिता-थकी तुम्हे घणी भुंई साधी । पणि इहां-थकी वीस इ जोयण ऊपरि तक्षशिला नगरी, तेहनउ अधिपति कदंबराजा छइ, ते तुम्हारी आज्ञा न पालइ।' ए वात सांभली नलराजाइ कटक करी, तक्षशिलाह जई, नगर व टिउं । एहवइ कदंबराजा सामुहु नीकलीउ। तिवारइ नलि कहिउं, 'जे एवडां मनुष्मनउ क्षय कीजइ, ते काइ? आवि, आपणपे बेहू युद्ध करीइ।' कदंबि ए वचन मानिउं । पछइ बिहुनई युद्ध करतां कदंबि हारिडं। तिवारइ कदंबि दीक्षा लीधी। पछइ नलराजा कदंबना पुत्रनइ राज देई आपणइ घरि आविउ। त्रिणि खंड साधी सुखिइ रहइ छ इसिइ कुबर राज्यनी वांछा करतउ शाकिनीनी परिई नलराजानां छिद्र जोइ । पणि नलराजा तु सरल । हिवह एकदा कुवर दुष्ट स्वभाव-लगी सारि-पासा आणी नलनइ कहइ, 'बांधव ! आवउ, आपणपे जूए खेलीइ ।' पछइ नल नइ कूबर बेहू रमिवा लागा। किवारइ नल जीपह, किवारइ कबर जीपइ । इम .रतां देवना योग-लगइ नल हारिवा लागउ, अनइ कुवर जीपवा लागउ। गाम, नगर, देस, भंडार, कोठार, अश्व, गज, रथ, सर्व हारइ, अनइ कुबर जीपड । तिसिई लोक हाहाकार करिवा लागा, 'स्वामिन् ! ए व्यसन मूकउ । ईणइ व्यसनि घणा लोक क्षयि गया छई।' तु ही नल पाछउ उइटइ नही। तिसिइ दवदंती आवीनइ कहइ, 'स्वामी! द्यत-क्रीडा मूंकि । वरि आपणउं राज भाईनइ आपहणी दिइ । पणि जे हारीनइ दीजइ, ते शोभइ नही।' जिम दसमी अवस्थाई हस्तोंद्र कांइ चेयइ-वेयइ नही, तिम ते नलराजा कांइ चेयइ-वेयइ नही। पछह दवदंती-सहित अंतःपुर पणि हारिउं। तिवारई कूबर नलनइ कहइ, 'ए तु मइ सर्व जीत । हिव माहरी भुंइ छांडि । तुझनइ बापिइ राज दीघउ हूंतउं, मुझनइ परमेसरि दी ।' ए वचन सांभली नलराजा राज्य-रिद्धि सर्व छांडी, एक पहिरणउं पहिरी, नीकलिउ। तिसिइ दवदंती पणि केडिई नीकली । तिवारई कूवर कहा, 'मइ तूं जूवटइ जीती छ। तं म जाएसि । तेतलह अमात्य कहइ, 'कचर ! तू वरांसीइ छ । ए सती परपुरुषनी छाया पणि न सहह । वली वडा भाईनी पत्नी माता-समान गणीह । हिव जु तूं रूडइ मूंकइ तु रूडउं नहोतरि ए सती भस्म करिसि । नवीन काई असाध्य नथी। एह-भणी रथ एक सई बलयुक्त सारथी-सहित दवदंतीनइ आपि ।" Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुंदरगणि-विरचित तिवारइं नल कहइ, 'मइ जु भरतार्ध छांडिलं, तु वली ईणइ रथि सिउं कीजइ ?' इम कही दवदंतो-सहित नल चालिउ । तिसिइ प्रधान वीनवइ, 'स्वामी ! दवदंती रथ-विण पाली चाली नही सकइ, तेह-भणी कृपा करउ । एतलउ बोल मानउ ।' पछइ नल रथ लेई चालिउ । तिसिइ चालतां मार्गि पांच सई हाथनउ थांभउ एक दीठउ । ते थांभउ एकणि हाथि केलिनी परिइ लेई वली थापिउ तीणई थानकि । तेहवइ ऋषि एक आविउ । तीणइ कहिउं, 'वली इहां नलराजा राज्य पामिसिइ ।' इम वात सांभलो नल-दवदंती नगरी-बाहरि नीकली कहा, 'हिवइ केही दिसिई जईसिइ ?' तिवारइ दवदंती कहइ, 'स्वामी! कुंडिन पुरई जईइ, जिहां माहरउ पिता छइ ।' तिवारई नलि कुंडिनपुर-भणी रथ खेडिउ । पछइ मार्ग उल्लंघतां महा अटवी-माहि रथ पडिउ । तिसिइ गमे गमे भील आव्या । एहवइ नल रथ-हंतु ऊतरी, खड्ग लेई, सामुह थाइवा लागउ । तेतलइ दवदंतीइ कहिउं, 'हे नाथ ! शीआलीआ-ऊपरि ताहरउ सिउ आक्षेप ?' इम कहती दवदंती हूंकारउ मूकइ । जे जे हूंकाग सांभलइ, ते ते अचेत थई भुंइ पडइ । पछइ भीले पलायन कीधउं । हिवइ जे रथ अलगउ मूंकिउ हूंतु, ते रथ बीजे भीले लीघउ । पछइ नल-दवदैती पाला चालिवा लागा । . इम चालतां मार्गि जातां थाकां। किहां एक वृक्ष-तलइ जइ बइठ । तिहां नल केलिने पत्रे करी दवदतीनइ वाय घातिवा लागउ । दवदंती पणि नलना पग चांपइ छइ । एहवइ दवदंती तृषाक्रांत हुई । तेतलइ नलि कमलने दले करी जल आणी पायउं, सुस्ती कीधी। तिवारइ दवदंती पूछइ, 'अजी अटवी केतली थाकइ ?' नल कहइ, 'सउ जोयण-माहि अजी पांच जि मोयण आव्या छ।' इम वात करतां सूर्य आथमिउ । पछइ अशोकवृक्षना पल्लव लेई साथरउ कीधउ । तिहां दवदंती सूती । एहवइ गाइनउ शब्द सांभली, वसतु तिवार इं जाणी, नलि कहिउँ, 'इहां कोई तापसाश्रम घटइ ।' तुही दवदंती ऊठी न सका । नलि कहिउँ, 'हं पाहरी छ । तूं सुखिई निद्रा करि।' पछइ दवदंतीनइ नीद्र आवी । एवइ नल चौतवइ, 'जे कष्टि आविइ सुसरानइ शरणि जाइ, ते अधम । एह-भणी जु दवदंतो बापनइ घरि जाइ, तु हं भावइ तिहां जाउ । अथवा ए दवदंतीनइ शीलनइ प्रमाणि कांई उपद्रव नही ऊपजइ ।' इम चीतवी वन सरीखांकठिन चित्त करी, छुरीइ करी जांघ विदारी, रुधिर काढी, वस्त्रनइ छेहडइ एहवा अक्षर लिख्या जु, 'ए वड-तलइ बि बाट छई । तिहां डाबी वाट पिताना घर-भणी जासिइ, अनइ जिमणी वाट सुसराना घर-भणी जासिइ। हिवइ जिहां ताहरइ विचारि आवइ, तिहां तूं जाए।' एहवा अक्षर लिखीनइ नल मउडइ-सि निकलिवा लागउ । तिवारइ आपणा जीवनइ कहइ, 'अरे जीव ! तू चांडालनी परिई निर्दय । कांई ? जे ए अबलानइ मूकी जाइ छह ।' वली विमासइ, 'जे अर्धउं वस्त्र पहिरिउ छइ, अर्धउ दवदंतीनइ बिछाहिउं छइ, ते किम खांचि लिं? इम चीतवतउ वली कठिन चित्त करी, छरिइ करी वस्त्र कापिङ । वली चीत. वइ, 'ए हाथनइ धिक्कार हु, जे वस्त्र कापतां हाथ वहिउ । तु अरे जिमणा हाथ ! एतली दया इन ऊपनी ? इत्यादि अनेक संकल्प-विकल्प चीतवी नोकलिउ । तिसिई आघेरउ जई वली नल चौतविवा लागउ जु, 'हूं आपणउं मुख किम देखाडिसु इमिउं कहितउ वली वली पाउँ जोत उ, वली दैवनइ उलंभा दिइ, 'अरे दैव! अरे विधि! तईए सर्व-गुणशालिनी दवदंती कांई नीपाइ ? अनइ जुनीताई तु एवडा दुख-माहि कांई घाती ? तु अहो वन देवताउ ! ए बल्लभा तुम्हनइ भलावी छइ । तिम करिज्यो जिम एहनइ कष्ट नावइ ।' इत्यादि विलाप करतउ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध १०९ पाछउं जोतउ तां गयउ जां आडां वृक्ष आव्यां । घणी भूमिका जई वली चींतवइ, 'रखे एहनइ कोई वनेचर जीव संतावइ ।' इम चींतवी वनलतानइ अंतरालि जोतङ आत्मानइ कहइ, 'अरे नल ! जे तू एकली निराधार प्रिया वन माहि सूती मूकीनइ जाई छइ, तु तूं शत-खंड कांई नही थातउ ?' इम जि विलाप करतां प्रभात हूउं । जेतलइ नल आघउ चालिउ तेतलइ सूर्यनइ उदयि वली सिउं देखइ ? महांत एक दावानल आगलि लागउ दीठउ । ते माहि अनेक वनेचर जीवना आक्रन्द सांभलिवा लागउ । आघेरउ जु जाइ तु मनुष्यनी भाषाई इसिउं सांभलिबा लागउ जु, 'अहो इक्ष्वाकु कुलमंडन नल ! मुझनइ बलतां राखी राखि ।' इम साप एक मनुष्य-भाषाई बोलतउ द ठउ । तिवारइ नल चीतवई, 'ए साप माहर नाम किम जाणइ ? अथवा मनुष्यना भाषाई साप किम बोलइ ?' इम नलनइ विमासतां वतुं साप बोलिउ, 'अहो, उत्तम ! पूर्विलइ भवि हूं मनुष्य हूंतउ । ते अभ्यास - लगइ मनुष्य-भाषाई बोलडं छउं । तउ वली मुझनइ अवधिज्ञान छन्, तीणइ करी सर्व जगत्रयनी वात जाणउं । पणि हिवडां मुझनइ ए आपदा-तु राखि ।' पछइ नलि आपणउं वस्त्र मूंकी, जिम कुवा हूंतडं पाणी काढीइ, तिम ते साप आगि हूंतउ काढउ । तिवारइ जि तीणइ सापि ते नल डसिड । तिम जि नलि साप भुंई लांखीनइ कहिउं, 'अहो सर्प ! तई भलउं न कोधउं ।' तेतलई विष डील-माहि संक्रमिउं । नल कूबडउ अनइ कुरूप हुउ । पछइ नल चतवइ, 'हिव दीक्षा लेई आपणउं काज साधउ ।' इसिइ साप दिव्यमूर्ति हुई कहिवा लागउ, 'वत्स नल ! तुं कांई असमाधि करइ १ हूं तु ताहरउ पिता निषेध नामि, दीक्षानइ प्रमाणि ब्रह्म देवलोकि देवता हूउ छउं । ते हूं आज तुझनई आपदा देखी इहां आविउ । हिव तुं विषाद म करि । ईणइ रूपिई तुझनइ वइरी कोई पीडा नही करइ । अजी तु राजा हुई भरतार्धं भोगवेसि । तुझनइ दीक्षानु अवसर आपहणी हूं कहिसु । हिव ए श्रीफल-चीलउं लइ, ए करंडी लइ, पणि आपणा जीवितव्यनी परिई यत्निइ राखे । अनइ जिवारइ आपण मूलगउं रूप करिवा हीडइ, तिवारइ ए फल भांजी, वस्त्र-युगल काढी, अनइ ए करंडो-माहि थकां आभरण काढी पहिरजे । एतलइ मूलगउं रूप पामिसि । इम कहिइ हूंतइ वली नल पूछइ, 'तुम्हारी वहू मइ जिहां मूकी हूंती, तिहां जि छइ अथवा अनेथि गईं ?' तिवारइ देवताइं दवदंतीनउ सर्व वृत्तांत कही, वली नलनइ कहइ, 'ए वन - माहितू एकलउ कांई भ्रमइ ? जिहां ताहरी मनसा हुइ, तिहां मूकउं ।' वलतुं नल कहइ, 'मुझनइ सुंसुमारपुरि लेई मूकउ ।' पछइ देवताई तत्काल नल तिहां लेई मूकिउ । तिहां श्री - नमिनाथनउ नगर बाहिरि देह उं छह, तेह-माहि जई नल देव वांदिवा लागउ । तिवारइ देवता अदृश्य हूउ । देव जुहारी कूचडउ नगर-भणी जेतलइ नीकलिउ तेतलइ नगरमाहि कोलाहल सांभलिउ । तिसिई कुमार च तवइ, 'ए किसिउ कोलाहल ?' तेतलइ घाइ सिउं प्रलयकाल सरीखउ हाथीउ एक प्रकट हूउ । पणि ते हाथीउ मनुष्यना लक्षनइ हणतउ, उपद्रव करतउ हाटनी श्रेणि पाडतउ, मनुष्यनी कोडि परिवरिउ, एहवउ चहुटा-माहि नीकलिउ । तेतलइ दधिपूर्ण राजा ऊचउ हाथ करी कहिवा लागउ, 'अहो लोको ! जि को ए हाथीनइ वशि करिसिइ, तेहनइ हूं सर्व संपदा आपिसु ।' ए बात सांभली नल राजा हाथी आ सामुहउ धायउ । तिसिहं लोक कहई, 'अरे कुब्ज ! म मरि, म मरि । हाथी महा दुष्ट छइ ।' इम वारतां जि नलि हाथी हाकि, 'अरे पापी हस्ती ! बापडा लोकनइ कांइ संतापइ १ हूं तु आगलि ऊभउ छउं । तूं आवि ।' तेतलइ हाथीउ सर्व लोक मूकी कूबडा नल-भणी आविउ । तिवार नलि अनेक किरण - अंगमोटने करी हाथीउ तिम खेदिउ जिम हाथीउ थाकउ । तेतलइ नलि आपणउं वस्त्र लांखिउं । हाथीउ रीस लगइ दंतूसल वस्त्र-भणी खोइवा' लागउ । एहवइ १. C. Pu. खोवा, K. क्षोभिवा । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० मेरुसुंदरगणि-विरचित कुब्ज-रूपि नल किरण देई हाथी-ऊपरि चडिउ । ए स्वरूप दधिपर्ण-राजाई देखी मन-माहि चीतविउ, 'ए कोई असामान्य पुरुष ।' इम चीतवी आपणा कंठनी रत्नमाला नलनइ गलइ घाती। तिवारइ नल हाथीइ बइसी, आलान-स्तंभि आणी, बांधिउ । पछइ दधिपर्ण पट्टकूल, सर्व आभरण देई बहुमानपूर्वक जाति, कुल, वंश, सर्व पूछिवा लागउ । तिवारइ कुब्ज कहइ, 'जन्मभूमि कोशलानगरी । अनइ हं ते नल-राजानउ सूआर । ते नलनी संगति-लगइ सर्व कला जाण । वली सूर्य पाक रसवती नल जाणतउ कि (1) हं जाण । हिव ते नलराजाई द्यनक्रीडा करतां राजरिद्धि सर्व हारिउँ, अनइ पापीइ कूवरि जीतउं। पछइ तिःण कूवरि नल दमयंती बाहरि काढयां । ते सांप्रत न जाणीइ किहां गयां ?' ए वात साभली दधिपर्ण-राजा नलना गुण स्मरी स्मरी, नलनां प्रेतकार्य 'करी, असमाधि करिवा लागउ । हिव अन्यदा दधिपर्ण राजा ते सूआरनइ प्रार्थना करइ, 'अहो ! एक वार सूर्यपाक-रसवती नीपाइ ।' तिवारइ सूआरि सूर्यपाक-रसवती करी, राजा सपरिवारि जिमाडिउ । पछइ राजा संतुष्ट वर्तमान हूंतउ ते कूबडा नलनई पांच सई ग्राम अनइ एक लाख टंका एतलु देवा लागउ । पणि ते नल ग्राम न लिइ । पछइ खरच-भणी एक लाख द्रव्य लीधउं । वली राजाई कहिउं, 'जि कांई ताहरइ जोईइ, ते कह ।' तिवारइ कुब्ज कहइ, 'तुम्हे राज पालतां उछउं कांई नथी । पणि देस-माहि सघलइ मदिरा, द्यूतक्रीडा, आहेडउ - ए सहू निवारउ ।' तिवारई राजाई तह त्ति' करी कुब्जनउं वचन मानिउं । इम कुब्ज-रूपि नल सुखिइं रहइ छ । एहवइ अनेरइ दिवसि तलावनइ कांठइ ते कूबडउ जई बइठउ । तिसिइ कोई एक देसांतरी ब्राह्मण आवी कुज-कन्हइ बइठउ। तिहां कूबडनडे सर्वांग रूप देखी गोष्टि करतां अंतरालि तीणइ बि लोक पढ्या । यतः अनार्याणामलज्जानां दुर्बुद्धीनां हतात्मनां । रेखां मन्ये नलस्यैव यः सुप्तामत्यजत् प्रियां ॥१॥ विश्रब्धां वल्लभां स्निग्धां सुप्तामेकाकिनी वने । त्यक्तुकामोऽपि जातः किं तत्रैव हि न भस्मसात् ।।२।। गीत-माहि एहवउं सांभली कुब्ज कहइ, 'तई भलउं गीत गायउं । पणि कहि, तूं कउण ? किहां-हंउ आविउ ? अनइ किहां ए नलनी वात सांमली ?' इम पूछिउ हूंतउ कहइ, 'माहरउ नाम कुसल उ, अनइ कुंडिनपुर-हूंतउ आविउ । तिहां मई ए नलनी कथा सांभली ।' तिवारइ विश्वर-नेत्र हंतउ कुब्ज वली पूछिवा लागउ, 'अहो ! जिम तई वात लाभली छइ, तिम मुझ आगलि वात सर्व कहि ।' तु ब्राह्मण कह इ, 'सांभलि, जिवारई नल दवदंती सूती मूकीनइ गयउ. तिवारइ दवदंतीइ स उणउं दीठउं, 'जाणइ -हूं आंबइ चडी छउँ, आंबा खावानी वांछाइ । जेतलई हाथ घातउं तेतलइ हाथीइ आवी आंबउ उन्मूलिउ, अनइ हूं भुई पडी। इम सउणउं लही जेतलई प्रभाति जागी, तेतलई · भर्तार आगलि न देखइ । पछइ चउ-पखेर जोवा लागी. तुही न देखइ। तिवारई चींतवइ, 'ए विधात्रा अजी मुझनइ सिउँ करिसिइ, जे एहवी अवस भारनइ न देखउं ? अथवा मुख धोवा-भणी तलावि गयउ हसिई । अथवा सौभाग्यनिधि पति कीणी विद्याधरीइ अपहरिउ घटइ । अथवा हासा-लाइ वन-माहि लुकी रहिउ घटइ ।। इस चीतवती दवदंती वृक्ष-वृक्ष-प्रतिइं जोइवा लागी । पणि किहां नलनई न देखइ । तिवारड विलाप करती कहइ, 'ते वृक्ष, ते पर्वत, ते भूमि दीसइ, पणि एक नल न दीसइ ।' पछइ सउणानउ अर्थ चीतारिवा लागी, 'जे सहकार दीठउ, ते नल । जे पुषफल, ते राज । अनइ जे Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १११ फलनउ स्वाद, ते राज्य-सुख । जे भमरा, ते परिवार । अनइ हाथीइ जे सहकार उन्मूलिउ, ते दैविई नल राज्य-हंतउ कादिउ । अनइ जे वृक्ष-हंती पडी, ते जाणे नल-हंती है अलगी हई। तु ईणइ सउणइ मुझमइ नल दोहिलउ मिलिसिइ ।' इम सउणानउ अर्थ विचारी पछइ तिम रोवा लागी, जिम वृक्षनइ पणि रुदन आविवा लागउं । वली विलाप करती कहइ, 'हे नाथ ! हे स्वामी ! मुझनइ मूंकी तूं किहां गयउ ? हं तु तुझनइ कांई भार न करती, कांचली जिम सापनइ भार न करइ तिम । अथवा तूं जु वन-माहि लुकी रहिउ छइ, तु ए हासउं शोभत नथी । अथवा हूं वनदेवतानइ प्रार्थना कर छउं जउ, मुझनइ नल देखाडउ । अथवा वली पृथ्वी ! तूं चि-खंड था, जिम हूं माहि पइसु ।' इम भरतारनई चीतवती, अटवी-माहि सूनइ मनि फिरती हूंती, आपणइ वस्त्र अक्षर लिख्या दीठा । ते देखी हर्षित हूंती वांचिवा लागी। पछइ मन-माहि चोंतवइ, 'तां हूं नलनां मन-माहि छ । आपणपे गयउ, पणि मुझनइ आदेस देई गयउ | तु हिव हूँ ए बडनइ अहिनाणि पितानड घरि जाउं । जिणि कारणि, पति-रहित स्त्रीनइ पिता जि शरण ।' इम विमासी नउकार स्मरती पिताना घर-मणी चाली । मार्गि जातां अनेक डाम खूनई छई, तिणि करी लोही नीकलइ। वली मार्गनउ श्रम, तिणि करी परिस्वेद ऊपजइ छइ । पणि तेहना शीलनइ प्रमाणि तेहवा इ वन-मादि महा हिंसक जीव ते साम्हा सखाईआ हुआ । इम जातां आगलि संघात एक दीठउ । ते संघात देखी दवदंत नइ समाधि ऊपनी । एहवड भीले आवी संघात ग्रहिउ, जिम विषय कामीनइ ग्रइइ । तिवारइ सती दवदंती ऊचइ सादि भीलनई कह्इ, 'अरे भीलो! जाउ जाउ ।' तु ही संघातना लोक बीहवा लागा। तिसिह भील संघात लूसिवा-भणी धाया । तेतलइ सती कहइ, 'अहो लोको ! म बीहउ। संघात मई राखिउ । ते कउण छह, जे तुम्ह-साम्हउँ जोई सकइ ?' इम कही जेतलइ हंकारउ मंकिउ, तेतलइ ते चोर सर्व नासी गया। जिम जांगुली-मंत्र-गुणिइ साप नासइ, तिम ते भील नाठा। पछइ संघातनउ अधिपति सपरिवार आवी, हाथ जोडी, सती-आगलि ऊभउ रही कहइ..'मात ! आज तई जीवदान दीघउ ।तु तू कउण? ए वन-माहि तू एकली कांई भमइ ? आज अम्ह पुण्य-लगइ तूं इहां आवी ।' तिवारई वलत् दवदंती कहइ निल-राजाइ द्यत-व्यसनि करी राज हारित । इत्यादि सर्व वात कही । पछद सार्थवाहि नलनी प्रिया जाणी, बहिन करी मानी। पछड सार्थवाहि दवदंती तंगोटी माहि राखी । मुखिई मार्ग उलंघिवा लागा । तेतराइवरसाल विउ । कादम माहि गाडां खूचिवा लागां । बलद हाली न सकई तिवारद्ध च्यारि मास संघात तिहां रहिउ । पछइ सती घणा कालनी स्थिति जाणी सार्थवाहनइ विण-कहि एकाकिनी नीकली । तिहां-हंती जेतलइ आघी चाली, तेतलइ राक्षस एक सामुहउ आविउ । कहिवा लागउ, 'हं घणा दिनन भूखिउ छउ। आज तुझनइ खाइसु ।' तिवारई सती बीहती इहती धीरपण अवलंबीनइ कहिवा लागी, 'अहो राक्षस ! जु जीव जायउ. तु मरण छन् । पणि परस्त्रीन स्पर्शि तूं भस्म थाएसि ।' इणि वचनि राक्षस हर्षिउ हूंतु कहइ, 'वच्छि! तूठउ । भणि, सिउ उपगार करउं ?' तिवारइ सती कहइ, 'जु तूं देवता छइ, तु कहि, मुझनइ नल कहीइ मिलिसिह" सिई अवधिनइ बलि राक्षस कहइ, 'बारमइ वरिसि पितानइ घरि तुझनइ नल मिलिसइ ।' पछा राक्षस कहइ, 'हे भद्रि! जु कहइ, तु तुझ इक्षण एक-माहि पितानइ घरि लेई मूक तिवार सती कहइ, 'तूंहनइ कल्याण हु । हूं परपुरुषनउ स्पर्श न करउं ।' इणि वचनि देवता प्रकट हई. आपणउं रूप देखाडी, अदृश्य हउ । हिव दवदंतीइ बार वरसनी अवधि जाणी पछह पडवर अभिग्रह कीघउ, 'जां भर्तार न मिलइ, ता-सीम रक्त वस्त्र, तांबूल, भूषण, विलेपन, विगइ-एतलानु Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ मेरुसुंदरगणि-विरचित मुझनइ नीम।' पछइ पर्वतनी गुफा-माहि श्री-शांतिनाथनी माटीनी प्रतिमा करी, एकइ खूणइ मांडी । तिहाँ बनना कुसुम आणी सदा इ पूजइ । बिहु उपवासि पारणउं करइ, अनइ पारणइ फलाहार लिइ । नवकार गुणई । एकली रहइ छइ । एहवह ते सार्थवाह दवदंतीनइ अणदेखतउ, असमाधि करतउ, पगई पगि केडिई आविउ । तिहां गुफा-माहि देव-पूजा करती दवदंती देखी सार्थवाह पूछइ, 'ए कउण प्रतिमा ?' दवदंती कहइ, 'ए श्री शांतिनाथनी प्रतिमा।' इम आलाप-संलाप सांभली इकडा तापस छई ते आव्या । पछइ दवदंतीइ तेहवउ कांई उपदेस मांडिउ, जिम वसंत सार्थवाह श्रावक हउ । पछइ सर्व संघात तिहां आणी राखिउ । इसिइ तापसनइ आश्रमि महा-मेघवृष्टि होइवा लागी। तिणि करी तापस आकुला हूंता दवदंती-कन्हलि आव्या । तिवारई दवदंतीई मेघनई कहिउ, 'जु मई जिनधर्म सूधउ पालिठ छइ, तु मेघ म वरिसिजो ।' इणि वचनि मेघ थंभाणउ । पछह तापस धनकनक आणी दिइ पणि सती न लिइ। तिहां तापसि जिनधर्म पडिवजिउ । पछह वसंत सार्थवाहि तिहां महानगर वसाविउं । वली श्रो-शांतिनाथनउ प्रासाद कराविउ । सती दवदंतीइ पांच सई तापस प्रतिबोध्या। तेह-भणी तापसपुर ए नाम हउ। हिव अन्यदा यशोभद्रसूरि आचार्य तिहां आव्या । ते-कन्हलि विमलमति-कुलपतिइ दीक्षा लीघी । इसिइ पर्वत-ऊगरि उद्योत दीठउ । तिहां एक देवता आवइ, एक जाइ । इम जयजयारख देखी तापस. सार्थवाहना लोक. सर्व जाग्या । पछइ दवदंती तापस-वणिग-सहित पर्वति चडी। तिहाँ जु जोइ, तु सिंह केसर मुनिनइ केवल ज्ञान ऊपनउं छइ । एह-भणी देवता केवल-महिमा करइ छई । पछइ सपरिवार दवदं तीइ ते केवली वांदिउ । एहवइ यशोभद्र केवलीनु गुरु तिहां आविउ । ते पणि केवलीनइ वांदी आगलि बइठउ । तिसिइ सिंह केसरि-केवली धर्मोपदेश देवा लागउ । तिवारइं तापसे पूछिउं, 'स्वामी ! दवदंतीइ जे मेह राखिउ, ते किम ?' मुनि कहइ, 'ए शीलनउं प्रमाण । अनइ जे संघात चोर-हंतु राखिउ, ते ही शीलन प्रमाण ।' इम कहितां जि ते केवली मोक्षि पहुतउ। पछई यशोभद्रसूरे कन्हलि दवदंतीइ आपणां भवांतर पूछिउ । तिवारइ गरे सर्व कहिउं । तिहां तापसे दीक्षा लीधी। पछइ सार्थपतिई प्रासादनी प्रतिष्टा करावी। इम दवदंतोइ सात-वरस-ताई प्रभावना-पूजा कीधी । हिव अनेरइ दिवसि कोई गुफानइ बारणइ आवी कहइ, 'हे दवदंति ! मइ तउ टूकडउ ल दीठउ. पणि माहरइ साथ जाइ छइ । तेह -भणी हं नही पडखउं ।' ए वात सांभली वती हर्षित हती शब्द-केडिइं जिनीकली । आगलि जु घणी भुंई गई. तु मनुष्यनइ न देखड । कांई ? 'देवो दुर्बलघातकः'। दवदंती पछइ अरण्य-माहि पडी । तिवारइ वली बइसइ, वली ऊठइ. वली रुदन करइ, वली वल्लभनइ स्मरइ, वली चीतवइ, 'किसिउं करउं ? किहां जाउं" इम चीतवतां राखसी एक आवी कहइ, 'हूं तुझनइ खाइसु ।' तिवारई दवदंती कहई, 'जउ मई नल टाली बीजउ मनि करी प्रार्थिउ न हुइ, तउ राखसी ताहरउ प्रभाव जाउ ।' तेतलह राखसी अदृश्य हई । पछई दवदंती आधी चाली, पणि त्रिषाक्रांत हुई । एहवइ नदी एक जलि करी रहित दीठी । तिवारइ दवदंती कहइ, 'जु मइ सूधउं समकित्व पालिउं छइ, तु सांप्रत पाणी प्रकट थाउ ।' इम कही जेतलइ पाटू आणी तेतलइ जल नीकलिउं । पछइ पाणी आश्वादी, आगलि जाती वड-तलइ जई बइठी । तिसिइ धनदेव सार्थवाह तिहां आविउ । तिणि ते सती दीठी । पछइ तेहनइ साथइ अचलपुरि आवी । हिवइ ते अचलपुरनइ परसरि वावि Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध एक छइ । तिहां तृषांक्रांत पाणी पीवा-भणी आवी । इसिइ पाणीहारि जाणइं जउ, 'ए मलदेवता छइ ।' पछइ जेतलइ वावि-माहि पइठी, तेतलई दवदंतीनउ पग जलगोधाई ग्रसिउ । तिवारई जि त्रिणि नवकार कहिया । तेहनई प्रमाणि पग मूकाण उ । पछइ दवदंती पाणी पीई वाविनी वरंडीइ आवी बइठी । राज्य करइ छइ । अनइ चंद्रयशा भार्या । नेहनी दासी एक वाविइ पाणी भरिवा आवी । तिणि ते सती दीठी । तिणि दासीइ जई चंद्रयशा राणीनइ कहिउं । तिवारई वलतुं चंद्रयशा कहइ, 'जा, ते स्त्री इहां आणि । जिम माहरी पुत्री चंद्रवती, तेहनइ बहिन हुसइ ।' इम कही दासी-पाहिइं तेडावी, पुत्री करी मानी । पणि सगपण कुणहइ न जाणिउं । इम एकदा चद्रयशा कहइ, 'जेहवी दवदंती, तेहवी ए संभावीइ छइ । पणि ते नलनी पत्नी, इहां इम किम आवह ?' वली ते स्त्री पूछी। तुड़ी दवदंतीइ आपणउ वृत्तांत न कहिउ । पछइ चंद्रयशाइ पुत्री करी मानी । तिहां शत्रुकारि दान दिइ छइ । इसिइ पिंगल चोर मारिवा काढिउ। तिसिइ तिणि दवदंतीइ ते चोर मूंकाविउ । पछइ तिणि चोरि दवदंती माता करी मानी । तिवारइ दवदंतीइ चोर पूछि उ, 'तूं कउण ?' तिसिई चोर कहइ 'हूं वसंत-सार्थवाहनउ दास पिंगल । कर्मनउ प्रेरिउ हूंतउ इहां आवी चंद्रवतीनी रत्ननी करंडी चोरी । तेतलई हूं तलारि झालिउ । पछइ राजाइ वध-भूमिकानउ आदेस दीधउ । अनइ तई ईणी वेलाई जीवदान दीधउं। वली चोर कहइ, 'माता ! जिवारइ तूं तापसपुर-हूंती गई, तिवारइ सार्थवाहि भोजन मुकिउ । एहवइ यशोभद्रसूरि आव्या । तीणे गुरे सातमइ दिहाडइ वसंतसार्थवाहनइ पारण कराविउ । पणि रोतउ, असमाधि करत उ रहइ नही । पछइ ते वसंत सार्थवाह, अन्यदा, घणी भेटि लेई, कूबर-राजानई मिली, संतोष ऊपजावी, ते तापसपुरनउ राजा हुउ । तिहां कूबरि छत्र-चामर देई, ते सामंत करी मूकिउ । अनइ वसंतश्रीसेखर एहवउ नाम दीधउं । वली कूवरि अनेक वाजित्र दोधां । पछइ वसंतश्रीसेखर गाजतइ वाजता आपणइ नगरि आविउ । सुखिइ राज पालइ ।' हिव दवदंती कहइ चोरनइ, 'तू दीक्षा लेइ, संसार-हंतउ निस्तरि ।' तिवारइ पिंगलि तेहनउं वचन मानी दीक्षा लीधी । एहवइ प्रस्तावि भीमि राजाई वात सांमली जु, 'नलि राज हारिउं अनइ कुबरिइ नल बाहरि काढिउ। पछइ दवदंतीनइ लेई अटवी-माहि पइठउ। आगलि ते न जाणीइ जीवइ छई कि मूआं ।' तिवारइ पुष्पदंती माता पणि रोवा लागी। पछई भीमराजाइ हरिमित्र नल-दवदंतीनी सुद्धि लेवा-भणी देस-माहि चलाविउ। हिव ते गाम, नगर, वन जोतउ जोतउ अचलपुरि आविउ । तिहां आवी राजा-कन्हलि नल-दवदंतीनी वात पूछो। तिवारइ चंद्रयशा बइठी हूंनी। तिणि वात सांभली नल-दमयंतीनउँ स्वरूप पूछिउ । तिवारइ हरिमित्र सर्व वात कही । तिहां सर्व असमाधि करिवा लागउ। एहवइ सह असमाधि करतां देखी ते हरिमित्र भूखिउ हूत उ, दानशालाइ जिहां शत्रूकार मंडाणउ छइ, तिहां जु आवइ, तु आगलि भीमराजानी पुत्री दीठी । ऊलखी। पछइ दमयंतीने पगे लागउ। भूख-तिरस सर्व विसरी गई। पछइ पूछइ, 'माता ! तुम्हनइ ए कउण अवस्था ?' इम कही तिहां-थकउ ऊठी चंद्रयशादेवीनइ वधामणी दीधी। कहिउं 'ताहरी दानशालाई दवदंती छ ।' तेतलई चंद्रयशा तत्काल तिहां आवी कहिवा लागी, 'मइ एतलउ काल तू उलखी न सकी, पणि तई आप गर कांई न जणाविउं ? किवारई जु भावठि आवइ, तुही मातृकुलि लाज न कीजइ ।' अथवा वली कहइ 'तई नल मूकिउ कि नलइ तूं मूकी ?' Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ मेरुसुंदरगणि-विरचित तिवारt दवदेती कहइ 'ए वात पछेइ कीजिसिइ । इम कहइ हूंतर चंद्रयशाई आपणइ घरि . आणी, स्नानभोजन करावी, सर्व नलनी कथा पूछो । दवदंतीइ सर्व वात कही । तिवारई सघलानइ मनि हर्ष ऊनउ । तेतलई कोई एक देव, आपणी कांतिई सभा-माहि उद्योत करतउ, आवी दवदंतीनइ प्रणाम करी कहइ, 'हे मात ! ते हूं पिंगल चोर, जे तई प्रतिबोधी, दीक्षा देवरावी । पछा हूं श्मशान -माहि प्रतिमाइ रहिउ हूंतउ । तिहां चितानउ दवानल आविउ, तिणि करी हूं दाघ । पणि मइ परीसह अहिआसिउ । तेह - लगइ मरी, ताहरइ प्रसादइ, हूं सौधर्म - देवलोक देवता हु ।' इम कही सभा-माहि सात कोडि सुवर्णनी वृष्टि कीधी सर्व देखतां । पछइ ते धर्मनउं फल देखी राजाईं जिनधर्म पडिवजिउ । तेतलइ हरिमित्र काइ, 'इ दवदंती घणउ काल रही । हिवइ पितानई घरि मोकलउ ।' पछइ राजाई आपणउ कटक संघाति देई सती पितानइ घरि मोकली । पिताई पणि आवती जाणी, माता-पिता सामूहा आव्या । तिहां दवदंतीई मा-बाप नम्या । तिवारई हर्ष अनइ विखवाद समकाल हुआ । पछइ नगर - माहि आणी, सात दिन ताइ महोत्सव करी भीमि राजाई नन सर्व वृत्तांत पूछिउ । तु अहो कुब्ज ! जिवारइ दवदंतीह ते नलनी सर्व वात कही तिवारई हूं तिहां बइठउ हूं तउ । पछइ दवदंती बापनइ घरि रही । तिहां राजाई हरिमित्रनई पांचसई गाम दीघां । अनइ वली कहिउं, 'नलनइ आगमनि तुझनइ अर्ध राज आपिसु ।' इसिई प्रस्तावि पूर्वि आपणइ काजि दधिपर्ण राजानउ जण एक सुंसुमारपुर थकउ भीम-राजा-कन्हलि आविउ हूंतउ, तेणइ भीमराजा - आगलि एहवी वात कीधी जु, 'नल राजानउ सूआर दधिपर्णराजा - कन्हलि आविउ छइ । ते सूर्यपाक रसवती करइ छइ ।' ए वात सांभली दवदंती कहइ, 'तात ! नल टाली ए विद्या अनेथि नथी । पणि गुटिका, मंत्र, देवतांना योग-लगइ आपणउं रूप गोपविडं घटइ | तु सही तुम्हारउ जमाई तेह जि घटइ ।' पछइ भीमि मुझनइ सीख देई हूँ इहां मोकलिउ । हिव हूं पूछतउ पूछतउ इहां आविउ । तूं कूबडानउं रूप देखी मइ चींतविउ, ते नल किहां अनइ तूं किहां ?" तिवारइ कुब्ज रोवा लागउ । दवदंतीनउ वियोग चीति आविउ । पछइ कुन्ज कहइ, 'अहो ब्राह्मण ! तू' भलइ आविउ । वारु कथा कही जे मुझनइ संतोष ऊपजाविउ । तु आज तूं माहरइ घरि आवि ।' इम कही ब्राह्मण घरि तेडी, सूर्यपाक रसवतीनुं भोजन करावी, अनइ जे पूर्विह लाख टंका लाउ हूंत ते ब्राह्मणनइ दीघउ । वली आपणां आभरण दीधां । पछइ ब्राह्मणि भीम राजा आगिलि जई ते कूडनउ रोहवउं, सूर्यपाक रसवतीनुं करिवउं, लक्ष टंकानड देवउं - ए सर्व वात कही । तिवारई दवदंती कहइ, 'तात ! इहां कांई विचारणा न करिवी । ए सही कूबडनइ रूप तुम्हारउ जमाई छइ । एक वार किम ही इहां आणउ, जिम हूं ऊलखूं ।' तिवारइ भीम कहइ, 'कूडउ सयंवरामंडप मंडावी सुसुमारपुरनउ अधिपति तेडावीइ । अनइ जु नल होसिइ तु ते साथि आपणी आविसिह । कांई, नारीनउ पराभव पशुनइ पणि दोहिल हुइ । वली अश्वना हीयानी वात नल टाली बीजउ को न जाणइ । एह-भणी सयंवरा - मंडपनरं मुहूर्त्त दूकडु कहावउ ।' पछई भीमराजाई दधिपर्णराजा-समीपि दूत मोकली कहाविडं, 'अहो दधिवर्ण राजेन्द्र ! जे दवदंतीन संयंवरा मंडप छछ । चैत्र शुदि पांचमि महूर्त्त छइ । इणि कारणि तुम्हे वहिला आविज्यो ।' इसिउं कहाविदं दधिवर्ण विववाद करइ । तिवारइ कूबड कहइ, 'राजन् ! आज सचिंत कां ?' तिवारइ राजा कहइ, 'अहो कूबड ! नल राजा परोक्ष हूड सांभली सांप्रत भीम Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला - बालावबोध ११५ राजाई दवदंतीनइ हेति सयंवरा - मंडप मंडाविउ । अनइ ते मुहूर्त्त आडा सघलाइ च्यार प्रहर छ । तेह-भणी मइ तिहां न जवाइ । एह जि चिंतानुं कारण ।' तिवारइ कूबड कहइ, 'हूं तुझन कुंडिनपुरि प्रभाति लेई जाउं जु मुझनइ मनमानतां घोडा नइ रथ आपइ ।' तिसिइ राजाइ रथ मजूद कराविउ । पछइ तिणि रथि राजा, छत्रधर, तंबोलदार, बि चमरढाल, अनइ कूबड - एतला जणा रथि बइठा । वली कूचडि आपणी करंडी अनइ श्रीफल ए बि वानां संघाति लीघा । इम छ जणा रथि बइठा । पछइ कूबडइ रथ खेडिउ । जिम वायनउं प्रेरिंडं प्रवहण चालइ, तिम रथ चालिवा लाजउ । चालता राजानुं उत्तर संग ऊडी राजा कहइ, 'अहो कूबड ! रथ राखि, जिम वस्त्र लिउं तिवारइं कहइ, 'राजन ! जिहां वस्त्र पडिउ ते अनइ रथनइ पंचवीस जोअणनउ आंतरउ हूउ । अजी ए घोडा मध्यम छई, जु उत्तम हुई तु पंचास हुइ ।' इम मार्गि चालतां कउठनउ वृक्ष एक दीठउ । ते देखी राजा उत्कर्ष लगइ कूचडनइ कहर, 'ईणिइ वृक्षइ जेतलां फल लागा छइ तेतलां वलतां तुझनइ हूं कहिसु । हिवर्डा तु कालक्षेप खमइ नहीं ।' तिवारई कूबड कहइ, 'राजन् ! हिवडां जि उतिग देखाडि । इम भुइँ पडिउं । तेतलइ कूबड हसीनइ जोयणनड अंतराल तू कालक्षेपन भय माणेसि ।' तिसिई राजाई कहिउ, 'ईणइ कउठि अढार सहस्र फल छ ।' पछइ कूबड एक मुष्टिनइ प्रहारि वृक्ष आहणिउ । तेतलई तडतडाट करतां फल भुई पड्यां । जु गणी जोइ तु ते अढ़ार सहस्र फल हुआं । पछइ कुब्जि ते विद्या लीधी । अनइ अश्वा हीआनी वात जाणिवानी विद्या राजानइ दीधी । तिसिइ एक दिसिई सूर्य ऊगिउ आइ एकइ दिसिहं विदर्भानी पोलिनई बारणइ आव्या । तेतलइ दवदंतीइ रात्रि सउणउं लही प्रभाति बापनइ कहइ, 'तात ! आज निवृत्तिदेवीइ हूं कोशलानगरीइ लोधी । तिहां मुझनइ वन देखाडिउ । वली तेहनइं वचनि हू सहकारि चडी । वली तीणt एक कमल माहरई हाथि दीघउं । एहवइ पंखीउ एक वृक्ष-तलइ पडिउ ।' एहवउ सउणउ दवदंतोइ कहिउ । तिवारई भीम कहइ, 'वत्सि ! तई सउणउं उत्तम दीठउं । जे कोशलानउ वन दीठड ते वली पूर्विली संपदा पामेसि । अन सइकार ते तुझन नल मिलसिई । वली जे पंखीउ पडिउ ते जाणे कूबर राज-हूंतउ पडिसिइ ।' इसिउ सउणानउ विचार सांभली हर्ष धरिवा लागी । तेतलइ वधामणीइ आवी वधामणी दीधी । कहिउं, 'स्वामी ! दधिपूर्ण नइ कूड पोलिनइ वारणइ आव्या ।' पछइ, भीमराजा साम्हउ आवी, घणउं बहुमान देई, आवासि ऊतारिया । तिहां कूबड - पाहइ सूर्यपाक - रसवती करावी सर्व जिम्या | पछइ दवदंती कूबड आपणइ घरि अणावी बापनइ इसिउं कहइ जउ, ' कूबड- रूपि नल। कांई, ज्ञानीइं तु इम कहिउँ हूंत उजु, नल टाली सूर्याक - रसवती बीजउ को करी न जाणइ । तु एह-भणी ए निषधराजानउ पुत्र नल जि । इहां संदेह नहीं । मुनिनां वचन अन्यथा न हुई । वली एक विशेष छह, जु एहनी आंगुली लागइ मुझनइ रोमांच ऊपजइ तु जाणिज्यो नल, नहीतर नही ।' तिवारइ कूबड़ कहइ, 'आजन्म परस्त्रीनइ हूं स्पर्श न करउँ ।' पछइ भीमराजाइ घणी अभ्यर्थना करी आंगुलीनउ स्पर्श करावि । तेतलई दवदंतीनइ रोमांच ऊपनं । तिसिहं दवदंती कहइ, 'स्वामी ! तही हूं सूती मूं की तूं गयउ । पणि हिवडां जागतां किम मूंकी जाएसि ?' इसिउँ कही कूच गृहांगण-माहि आणी, प्रार्थना करवा लागी, 'प्राणनाथ ! अजी आपणउं रूप प्रगट कांई न करइ ? मुझनइ कांइ संतापइ छइ ?' इम कहिइ हू तइ तिणइ कूबडइ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुदरगणि-विरचित श्रीफल-बील भांजी वस्त्र-युगल काढि । वली करंडी-माहि-थां आभरण काढयां । तेतलई तत्काल कुबडउ फीटी संपूर्ण-रूपि नल प्रगट हूउ । पछइ तिहां सर्व सभा-लोक देखतां नलनइ सिंहासनि बइसारी भीमराजा हाथ जोडी कहिवा लागउ, 'ए राज-संपदा, अम्हे, सर्वस्व ताहर। जि काइ आदेस दिउ ते ९ करउ ।' तिसिई वली दधिपर्ण राजा पणि ससंभ्रांत नलनइ प्रणाम करी कहइ जे, 'मइ अजाणि जि कांई अवज्ञा कीधी ते तूं खमि ।' वलि तिणि समइ धनदेव सार्थवाह मिलिवा आविउ । दवदंतीइ भाईनी परिई भक्ति कीधी । इम सघलानइ बहुमान देई, मासदिवस-सीम सर्व राख्या । पछइ नवनवा उत्सव करिवा लागा। इम अनेरइ दिनि कोई एक देवता आवी दवदंतीनइ कहइ, 'हे देवि! तुझनइ चीति आवइ, जे पूर्विइ तापसनउ नायक सम्यक्त्व लेवराविउ हूंतउ ? पछइ वली दीक्षा लेवररावी ? ते हूं सौधर्मदेवलोकि देता हूउ ।' इम कही सात कोडि सुवर्णनी वृष्टि करी अदृश्य हुउ। पछइ वसंत सार्थवाह, दधिपण,भीमादिक राजाए मिली नलनइ राज्याभिषेक कीधउ। पछइ भलइ मुहर्ति नल. राजा अयोध्या-भणी चालिउ । मार्गि अनेक देस,गाम,नगर साधतउ साधतउ अयोध्यानगरीनइ परसरि रतिवल्लभ-उद्याननि आवी ऊतरिउ। एहवइ कुवरि वात सांभली बीहवा लागउ। तेत. लइ नलि दूत मोकली कहाविउं, 'बांधव ! आवि, पासे करी वली खेलीइ । जु हं जीप तु माह उं राज, अश्व, हस्ती, सर्व माह उं, अनइ तू जीपइ तु ताहरउं ।' इम जिवारइ कहाविउं, तिवारइ कूचरि चोंतविउ, 'सही ए-साथिइ 'रण-भूमिकाइ नही जीपाइ, पणि पासे करी नलराजा आगि मइ जीतउ छइ अनइ वली र्ज पिसु ।' इम विमासी तिहां आवी बेहू बांधव पासे खेलिवा लागा। हिव भाग्यना उदय करी नलराजाइ सर्व पृथ्वी जीती। पछइ नलइ आपणउं राज्य लीघ अनइ कूबरनइ भाई-भणी युवराज-पदवी दीधी । हिवइ नलराजा आपणउं राज लेई दवदंतो-सहित कोशलानगरीना चैत्य वांदिवा गयउ । इसिइ अनेक राजा भेटि लेई आविवा लागा । इम घणा वरस भरतार्धनू राज्य पालिउं। तेतलइ निषध पिता देवलोकथी आवो नलनइ उपदेश दिइ, “ए असार संसार, तेह-माहि चारित्र जि सार । तेह-भणी हिव तूं दीक्षा लिइ'। पछइ नलराजाइ पुष्कल-पुत्रनइ आपणउं राज देई, दवदंती-सहित दीक्षा लिधी । तिहां सतरे भेदे संयम पालतउ पृथ्वी-माहि विहार करिवा लागउ। पणि नल सकोमलपणा-लगइ चारित्र पालतउ ढीलउ हूउ । एहवइ निषधि देवि आवी दृढ कीधउ । तुही नल-मुनि दवदंतीनइ विषइ कामातुर हउ । वली पिताइ आवी प्रतिबोधिउ । तुही चारित्र पाली न सकइ । पछइ नल-मुनिइं अणसण लीधउं । तिवारइ नलनइ स्नेहि दवदंतीइ पणि अणसण लीधउं । पछइ अणसण-सहित नल मरी कुबेर-नामि उत्तरदिशिनउ अधिपति हूउ, 'अनइ दवदंती तेहनी देवी हुई । इम दवदंतीनी परिई अनेरे लोके शील पालिव। इति श्री. शीलोपदेशमाला-बालावबोधे नल-दवदंतीकथा ॥३०॥ वि श्री कमला महासतीनी कथा कहीइ [३१. कमला महासतीनी कथा] श्री. लाटदेशि भृगुकच्छनगरि मेघरथ राजा राज करइ । तेहनइ गृहांगणि विमला राणी। तेहनी पत्री कमला एड्वइ नामि । सात पुत्र ऊपरि ते पुत्री जाई। महा रूपवति, वाथती वाधती १. K. संग्रामि । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध ११७ यौवनभरि आवी । इसिइ सोपारइ पत्तनि राजा श्री. रतिवल्लभ राज करइ । तेहनइ मेघरथ राजासाथि प्रीति हुई छइ । ते मेघरथ - राजानई रतिवल्लभ दिहाडीनी भेटि मोकलइ । इम बिहुंनइ प्रीति वाधिवा लागी । दूत माहोमाहि आवता जि रहई । अन्यदा मेघरथ चतवइ जु, 'रतिवल्लभ समान राजपुत्र कोई दीसई नही । तु माहरइ कमला पुत्री छइ ते रतिवल्लभनई देई प्रीति वाघती करउं ।' इम विमासी मेघराजा सभा-माहि आवी बइठउ । तेतलइ कमला पुत्री पितानइ उत्संगि जई बइठी । तिसिह वरनी चिंता ऊपनी । राजा प्रधाननइ कहइ, 'पुत्री नइ वर कउण कीजिसिइ ?' तिवारई प्रधान कहई, 'स्वामिन ! कुल, शील, रूपि, यौवन करी रतिवल्लभ-राजा योग्य दोसइ छइ ।' तिवारइ राजा कहइ, 'महरी मनसा सारइ तुम्हे वचन कहिउं । तु इणि कारणि राजा मुहताने लोचने करी सहस्राक्ष कहीइ ते वात साची ।' पछइ प्रधाने कंडं, 'स्वामी ! आपणपे दूत मोकली नात्रु करावीइ ।' पछइ राजाइ सार्दूल प्रधान मोकली, लग्न-ऊरि रतिवल्लभ तेडावी, भलइ मुहूर्ति रतिवल्लभनइ आपणी पुत्री कमला दीघी । ars विस्तारि पाणिग्रहण हूउं । तिहां हाथ-मेल्हावणीइ रत्न, अलंकार, गज, अश्व घणा दीघा । पछड़ रतिवल्लभ परणी घर-भणी चालिउ । मेघरथ-राजा संप्रेडी पाछउ वलिउ, अनइ रतिवल्लभ मार्ग उल्लंत्री आपणइ नगरि महाविस्तारि आविउ । तिहां कमला- सहित सुख भोगवतां घणा दिन गया । इस समुद्र माहि गिरिवर्धन नगरि कीर्त्तिवर्धन राजा राज करइ । पणि ते महा स्त्री लालुन । तिणि अन्यदा कमलानु रूप सांभली काम-विह्वल हूउ । तिवारइ युगंधर - मित्र मंत्रवादी एकांति तेडी कहिउँ, 'ताहरी प्रीति, ताहरा मंत्रनु सिउं फल, जे हूं कमला- त्रीनइ कीधइ दुःखी था छउं ?' तिवारई मित्र कहिउ, 'स्त्री तु चिहुं प्रकारे छइ एक पतिव्रता, बीजी असती । तिहां सती हुइ ते आणिवानउ सिउ प्रयास कीजइ ? जु कुशीलि स्त्री हुइ तु हिवडां आणलं ।' तिवारई राजा कहइ, 'ए वातनी सी चिंता करइ ? एकवार इहां-ताई आणि, जिम तेहनउ फलाफल देखाडउं ।' पछइ मित्र भूमिग्रह-माहि पइसी मंत्र जाप - होम तिम करिवा मांड्या, जिम क्षण-एकमाहि, कमला जिम पत्यंकि सूती हूंती तिम जि थकी आकर्षी आणी । तिसिइ युगंधर मित्र चीतवह 'एनइ जु हूं जगाडिस, तु मुझनइ सतीपणइ हिवडा जि भस्म करिसिइ ।' इम चींतवी कीर्तिवर्द्धननइ कहिउँ, 'मइ आकर्षणी - विद्यानइ बलि ते कमला आणी छइ । आघी वात तूं जाणइ ।' तिसिई प्रभाति कमला आपहणी जागी । जउ जोइ तु न ते गाम, न ते ठाम, न ते आवास । एकू न देखइ । तिसिह यूथ भ्रष्ट हरिणीनी परिदं सर्व दिशि जोइवा लागी । तेतलइ कीर्तिवर्द्धन राजा कहर, 'हे भद्रि ! ए घर, ए ठाम, ए संपदा, सहू ताइरउ । हूं इ ताहरउ आदेश - कारक छ ।' ए वात सांभली कमला रीसाणी हूंती कहइ, 'अरे दुष्ट ! तू कीर्तिवर्द्धन फीटी आज अकीर्तिवर्द्धन हूउं । तु मुझ आगलि सिउं ऊभउ रहिउ ? हूं तु रतिवल्लभराजानी प्रिया, तेतून किम होसिइ ? जिन रत्नावली कागनइ कठिन छाजइ । बापडा ! मुझनइ शीघ्र माहर घरि मोकलि । नहीतउ, माहरा भर्तारनां चाण ताहरा मस्तकनई दिग्पालनी पूजा-भणी कल्पसिहं ।' तिवारई कीर्तिवर्द्धन राजा कहइ, 'हूं बलात्कारि ताहरउं शील भांजिसु ।' इम कही सर्वांग लोहि वीटी, पगि अठील घाती, बंदीखाणइ घाती मूकी छइ । एहवइ रतिवल्लभराजा जु जागइ तु कमला राणीनई न देखइ । तिवारई चोरइ मुस्यानी परिर्इं राजा आकुल-व्याकुल हूंतउ सर्वत्र जोइवा लागउ । तुही न देखइ | पंछइ पाहुरी पूछया । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ मेरुसुंदरगणि-विरचित ते पणि विस्मयापन्न ता कहई, 'राजन ! इहां पादचारी कोई नाविउ । अम्हे तु प्रभात-ताई जागता हूंता ।' पछइ सघले द्वीपान्तरे चर मोकल्या । पणि कहीं सुद्धि न पामी । तिवारइ राजाइ आपणइ मनि निश्चउ कीघउ जु, 'सही ए राणी विद्यासिद्ध-पुरुषि विद्यानइ बलि अपहरी। तु ए माहरउ राज फोक, माहरी संपदा, मारहउं बल ए सहू फोक, जे मई आपणी प्रिया गमाडी। तु भई, जि को प्रियानी सुद्धि आणइ तेहनई हूं आपणउ अर्द्ध राज आपउं ।' इम कही नगरमाहि पडह वजाविउ । __ इम करतां पांचमइ मासि केवली नगरनइ परसरि आवी समवसरिउ । पछइ तिहां राजाई जई केवली वांदी देशना सांभली । पछइ पूछिवा लागउ, 'स्वामिन् ! कमलाप्रिया जीवइ छ। कि मूई ? अथवा ए कहिनउं विलसित ? अथवा जीवती मिलिसिइ ?' इम पूछिई हूंतइ केवली कहइ, 'एहनउ भवांतर सांभलि । विस्मयाक्षि पुरि दुर्जय राजा । तेहनी भार्या धन्या एहवइ नामि हूंती । तिणि एक वार क्रोध-लगइ दासी एकनई गाढी कूटी, बांधी करी, केतलाएक प्रहर-सीम भुंइहरा-माहि घाती राखी । पछइ दया ऊपनीइ बाहिरि काढी । तीणइ भवि कमलाइ ए कर्म ऊपार्जिङ । पूर्व-कर्म-लगइ सांप्रत कीर्तिवर्द्धन-राजानइ मित्रिइ विद्यानइ बलि अपहरी, तिहां बंदीखाणइ घाती मूकी छइ । ते पाछिलउं कर्म उदयि आविउ । ते धन्या मरी सांप्रत हरी प्रिया कमला हुई। अनइ जे ईणइ भवांतरि ज्ञानपांचमीनउ तप तपिउ, ते पुण्यनइ प्रमाणि हिवइ-मास एक-माहि बंदिमोक्ष होसिइ । तुझनइ मासनइ प्रांते निश्चईसिउं मिलिसिइं । काइ, कर्म भोगव्यां विण न छूटीई ।' इम केवलीना मुखथी कमलानउ पूर्वभवांतर सांभली घणा जीव प्रति. बोध्या हूंता आपणइ आपणइ घरि गया । पछइ रतिवल्लभ राजेंद्र कटक मेली कीर्तिवर्द्धन-ऊपरि चालिवा लागउ । एहव तेह जि भुवनभानु-केवली विहार करतउ गिरिवर्द्धनपुरि आविउ । तेतलह केवलीनइ प्रभावि कमलाराणीनइ गलानी सांकल, पगनी अठील, सर्व त्रुटी । तिसिइ श्री कीर्तिवर्द्धन-राजा भुवनभानु-केवलीनइ वांदिवा गयउ । तिहां महात्माइ धर्मलाभ दीधउ । वली विशेष प्रतिबोधभणी कमलानउ भवांतर कहिवउ मांडिउ । कहिउं, 'जि को सुद्ध शील पालइ तेहनइ लोहनी सांकल ब्रटी जाइ ।' ए वात सांभली कीर्तिवर्द्धन मन-माहि चकिउ जु, 'मइ लोक-द्वय-विरुद्ध ए आचार मांडिउ, जे मई कामात-हंतइ कमला-महासतीनइ पाडूउं चींतविउं । पणि ते पहनह शालि करी सह निष्फल हूउं।' इम चीतवी पछइ पाधरउ बंदीखाणइ जई बंदीखाणा-हूंती कमला बाहरि काढी । लाजतु हंतु राजा पगे लागी खमाविवा लागउ ज, हं महा पापी. विरांसिउ । आज पछइ तूं माहरइ बहिन, तूंह जि धर्माचार्य, जे हूं पाप करतउ निवारिउ । हे बहिन ! तूं रतिवल्लभ-राजानी रीस उपसमावे । हिव तुझनइ हूं प्रवहणि बइसारी ताहरइ नगरी लेई जाइसु ।' इम कही जेतलइ प्रवहण सज्ज करो, कीर्तिवर्द्धन-राजा कमलानइ लेई चालिउ. तेतलइ रतिवल्लभ-राजा कटक मेली सीमा-सेढइ आविउ । तिरिइ कमलाइ सामहउ जण मोकली कहाविउं जु. 'स्वामी ! ताहरइ प्रसादि हू अक्षतशील हूंती, कीर्तिवद्धन बांधव साथिई आव छ । तुम्हे ए राजा-ऊपरि कोप म करिज्यो ।' एहवउं स्वरूप सांभली राजा चीतवइ, 'अहो शील महातम्य जोउ, जे कमलानइ शत्रु हूंता ते मित्र हुआ।' इम माहोमाहि बेह राजा मिल्या । बिहु उचित प्रतिपत्ति कीधी । पछइ कमलासती महा विस्तारि नगर-माहि आणी । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ११९ हिव केतला-एक दिवस कीर्तिवर्द्धन कमला-बहिन-समीपि रही, पछइ आपणइ नगरि पहुतउ । पछइ रतिवल्लभ कमला-सहित गृहस्थधर्म पाली, अवसरि पुत्रनइ राज देई, दान, संघपूजा दिक भक्ति करी, श्री-चंदनाचार्य-समीपि दीक्षा लीधी । चारित्र पाली, घातीयां कर्मनइ क्षयि केवलज्ञान पामी, बेहू मोक्ष पहुता । इति श्री-शीलोपदेशमाला-बालाविबोधे श्री कमला-महासती कथा ॥३१॥ हिव कलावतीनी कथा कहीइ [३२. कलावतीनी कथा] ईगड जंबदीपि, मंगलावती-विजयि श्रीशंखपुर नगर । तिहां शंख नामा राजा राज्य करइ । हिवा ते राजा एकदा सभा-माहि जई बइठउ । एहवइ गज-श्रेष्टिनउ पुत्र दत्त एवइ नामि, तिणि भेट आणी राजा-आगलि मूकी प्रणाम कीधउ । तिसिइं राजाइ आगता-स्वागत पूछिउं । वली राजा पूछइ, 'कहउ, कांई देसांतरि कउतिग द टउं ?' तिवारइ दत्त कहइ, 'राजन ! देवशालपुरि नगरि है वाणिज्य-नइ हेतिइं गयउ हूंतउ । अनइ वाणिज्य करी जु पाछउ वलिउ, तेतलई अंतरालि कन्या एकनउं रूप दीठउं । ते तां मुखि करी न कहवाई । पणि तेहनी वानगी आणी छह । हम कही चित्रलिखित रूपनी पाटी राजा-आगलि मकी । ते रूप देखी राजा दत्तनइ कहइ, 'ए रूप देवीन उं घटइ। मनुष्य-माहि एहवउं रूप किहाँ ?' तिवारइ दत्त कहइ, 'स्वामी ! ए मानवी जि, पणि विधात्राइ आपणउं कुशलपणउं' जणावानइ अर्थि एहवउ रूप कीधउं ।' 'तु ए कउणि ? दत्त कहइ, 'देवशालिपुरि श्री-विजयसेन राजा, श्रीमती राणी, तेहनी पुत्री कलावइ एहवइ नामि । ते जिवारई वयःप्राप्त हुई तिवारई कन्याई एहवी प्रतिज्ञा कीधी जु, 'हूं तेहनउं पाणिग्रहण करिसु, जे बिहु बोलनउ ऊत्तर देसिई ।' ए वात सांभली राजा गाढउ सचिंत हूउ । पछ्इ सयवरा मंडप मडाविउ । एहवइ आपणा नगर-भणी हूं पाछउ चालिउ । जेतलइ हूं देवशालि नगरनइ उद्यानवनि आविउ, तेतलइ राजा विजयसेननउ पुत्र जयसेनकुमार दुष्ट घोडइ अपहरिउ मूर्छागत जातउ दीठउ । ते मह जीवाडिउ । पछइ सुखानि बइसारी घरि लेई गयउ । तिवारई राज ई ईणइ उपगारि हं पुत्र करी मानिउ। ह्विइ एकदा राजा सभा-माहि मुझनइ कहिवा लागउ, 'अहो दत्त ! जिम जयसेनकुमारनइ उपगार कीघउ, तिम माहरी बेटी कलावतीना वरनी चिंता करि ।' तिवारई मई कहिउं, 'श्री-शंखराजा योग्य छइ ।' इसिउं कही पछइ मई कलावतीनउं रूप पटि लिखार्व, है इहां अविउ | ए तु रूप मई वानगी मात्र आणिउं छई । सघलू इ रूप लिखाइ नही ।' ए वचन सांभली राजा वली वली रूप सामुहउं जोतउ, मूर्छागत हूंतउ, दत्त-प्रति कहइ, एवडु माहरु भाग्य किहां छइ, जे एहवा पात्रनउ संयोग मिलइ ?' तिवारई दत्त कहइ, 'नाथ ! तूं असमाधि म करि । तुझनई सउण ते हुइ छइ, जे ए पत्नी ताहरी होसिइ । पणि तुम्हे सरस्वतीनह आराधउ, जिम च्यारि प्रश्ननउ ऊर आवडइ ।' इणि वचनि शंखराजा ब्रह्मव्रत पालतउ सरस्वती आराधिका लागउ । तिसिइ सातमइ दिनि सरस्वती तूठी । इसिउं कहइ, 'वत्स ! ताहरा हाथ नइ स्पर्शि मात्रि पूतली ते ही बोलिसिइ, च्यारि प्रश्नना ऊतर पणि देसिइ ।' इम कही Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० मेरुसुंदरगणि-विरचित सरस्वती अदृश्य हूई । पछइ शंबराजा दत्त सहित देवशालनगरी-भणी सैन्ये परवरि र चालिउ । एहवइ विजयसेन राजाई शंखराजा आवत उ जाणी, जयसेनकुमार सामुहउ मोकली मोटइ विस्तारि नगरमाहि आणिउ । इसिई सयंवरा-मडपि सर्व राजा मिल्या । 'मांचइ जई बइठा । तेतलइ कलावती सालंकार साभरण सखीए परिवरी सभा माहि अवी । तिसिइं प्रतीहारिणी कहइ, 'जि को ए च्यारि प्रश्ननउ ऊतर देसिइ, ते कलावतीनु पाणिग्रहण करिसिइ । ते च्यारि पश्न केहां ? को देवः को गुरुः किं च तत्त्वं सत्त्वं च कीदृशं । स्फुटीकर्ताहति स्पष्टं कलावत्या वरस्रज ॥१॥ ईणिइ प्रश्नि कुण ही राजानइ वलतु ऊतर नावइ । तिवारइ शंखराजाई कहिउं वीतरागः परं देवो महाव्रतधरो गुरु । तत्त्वं जीवादयो ज्ञेया सत्त्वं चेंद्रिय-निग्रहः ॥२॥ ईणइ वलतइ ऊतरि दीधइ हूंतइ कलावती कन्या सहर्ष हूंती इ शंखराजानइ कंठि जेतलई वरमाला मकी, तेतलइ बीजा सर्व राजा रीसाणा । पणि कलावतीनइ शीलि शंखराजाइ सर्व राजा जता। पछइ भलइ मुहर्ति पाणिग्रहण कीधउ । मास एक तिहां रही आपणा नगर-भणी पाछउ चालिउ। तिसिइ विजयराजा पुत्रिकानइ शिख्या देई पाछ उ वलिउ । अनइ संखराजा कलावती-प्रिया, दत्तसहित एकणि रथि बइसी, पंथ अवगाहतउ, सैन्ये परवरिउ, आपणइ नगरि आविउ । तिहां सुखइ राज्य पालइ छइ । इसिइ कलावतीइ सउणा-माहि काम-कुंभ अमृत भरिउ दीठउ । जागरण पामी राजानई - कहिउँ । तिवारइ राजा कहइ, 'आपणइ घरि पुत्र जन्मीसिइ । ते राज्यनइ योग्य होसिइ ।' पछइ जेतलई आठ मास वीस दिन गया, एहवई कलावतीनइ पिताई जाणिउं जु, 'पुत्रीन उ पहिलउ प्रसव पितानइ घरि हुइ ।' तेह-भणी विजयसेन गजाइ कलावतीनइ लेवा पुरुष मोकल्या छइ । तेहनइ हाथि कलावतीनइ भाईइ कलावतीनइ अर्थि बि बाहेरखा लाख लाख द्रव्यना मोकल्या । वली लूगडां पणि मोकल्यां । तीणे पुरुषे आवी कलावतीनइ दीधां । अनइ कलावतीइ ते बहिरखा-वस्त्र राजानइ अणदेखाडिइ पहिरियां । पछई जे प्रधान आव्यां हूंता ते सन्मान देई विसा । हिवइ जे जयसेनभाईना अत्यंत स्नेह-लगी कलावतीइ ते बहिरखा आरणइ हाथि बांध्या, बांधीनइ हसती हूंती सखी-प्रति इसिउं कहिवा लागी, 'हे सखि ! जीणइ ए बहिरखा मोकल्या ते साथि माहरइ गाढउ स्नेह छइ । ते दिवस, ते घडी, किवारइ होसिइ, जिवारइ हूं तेहनइ मिली आपणउँ जीवितव्य सफल करिसु? जिणि कारणि आज मइ तेहनां हाथना मोकल्या बहिरखा पाम्या १ एहवउं मिश्र-वचन बोलती राजाई सांभली । तिवारइं राजा मन-माहि क्रोध धरतउ इसिउं चीतवई, 'जोउ, मुंझनइ टाली ए कलावतीनइ अनेरउ कोई चित्त-माहि वसइ छइ । मुझसाथि चिणउठीनी परिइं बाहरि स्नेह छइ. पणि एहनइ मन-माहि बोजउ कोई छइ । जोउ, एहनह हं सर्वस्व दिउ तुही ए माहरी वर्णना नथी करती। तु हिवइ हूं एहनइ छांडिसु ।' इम चीतवतां रात्रि पडी। तिसिई मातंगी-युगल तेडावीनइ इसिउं कहिउं जे, 'गणीनइ वन माहि मकीनइ तेहना बेह बहिरखा अनइ बेहू हाथ छेदी लेई आविज्यो । इहां कांई विचारणा म करिज्यो ।' इम कही ते बेह मातगी मोकली । पछइ शिय्या-पालक तेडीनइ कहिउँ, 'जाउ, जिम कोई न जाणइ तिम कलावतीनइ रथि बइसारी वन-माहि मूकी आवि ।' पछइ तिणि एकली कलावती १. L. मंचि, C. P. मंडपि । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १२१ रथि बइसारी अरण्य माहि लेई, रथ-हूंती ऊतारो, गदगद-स्वरि कहिवा लागउ, 'हे मात ! न जाणीइ, कीणइ कारणि राजाइ तूं वन-माहि मूकावी ।' जिम ए वात सांभली, तिम जि मूर्छागत हूं तो, रोवा लागो । वली सचेत थाइ, वली भुई पडइ । वलो माता-पिता-भ्रातानइ स्मरती तिम रोवा लागी, जिम पाखती वृक्ष छई ते ही रोवा लागा। इम अनेक विलाप करती ते सिय्यापालकनइ हाथि इसिउ संदेस उ कहाविउ जु, 'राजन ! मइ जे अनाचार कीघउ, ते तई मुझनइ कोई न जगाविउ ?' इम सांभली पछइ रथ-हंती ऊतारी जेतलई पाछउ वलिउ, तेतलइ मातंगी. जुगल आवीनइ कहइ. 'रे पापिणी ! तूं भर्तारनी वंचनानू फल भोगवि ।' इम कही बहिरखासहित चिन्हइ हाथ छेदीनइ लेई गई । तिवारइ कलावतो महा-विलाप करती पूर्वोपार्जित कर्म नइ झूरती नदोनइ तीरि जई वननिकुंज-माहि पुत्र प्रसविउ । पणि हाय-याखइ पुत्रनइ सार न कराई। तिवारइ रोती हूंती इसिउ कहइ, 'जोउ, जे दालिट्रीनइ कुलि पुत्र प्रसवीइ, तेहनइ घरे गीत गाईइ, उत्सव कीजइ । अनइ ए पुत्र राजानइ कुलि ऊपनउ छइ, ते पुत्रनी सार-इ-नउ संदेह पडिउ । इसिइ नदी महा-पूर आवी दीठो । ते देखो संकल्प-विकल्प करी पछइ कलावतीइ एहवी अवश्रावणा कीधी, 'जु मइ मनि वचनि कायाई करी शुद्ध शील पालि हुइ, तु ए नदी उपशमपणउं पामिज्यो । अनइ माहरा हाथ नवा आविज्यो ।' इम जेतलई कहिउं, तेतलई तेहना शीलनइ प्रमाणि कनकचूड-मंडित नव-पल्लव नवा हाथ आव्या । नदी उपशमी । तिवारइ आकाशि कुसुमनी वृष्टि हुई। पछइ कलावती पुत्र-सहित नदी ऊतरी पारि गई । एतलइ तापस आवीनइ कहइ, 'हे सुभगि! बालक प्रसविइ इहां रहिवउं नावइ । तेह-भणी तूं अम्हारइ आश्रमि आवि ।' इम कही आपणइ आश्रमि आणी । तिसिइ तापसपति पूछइ, 'वात्स ! तू क उणि ? कहिनी स्त्री ? किहां-हंती आवी ?' तिवारई कलावतोइ आपणउ सर्व वृत्तांत कहिउ । पछइ तापसि अश्वासना देई, पिताना घरनी परिई पुत्र-सहित कलावती आश्रम-माहि राखी। हिवइ इसिई चांडालि आवी हाथ अनइ बहिरखा राजा-आगलि आणी मूकयां । तिसिइं गजाई बहिरखा हाथि लेई जोया । जु जोइ, तु कलावतीनु भाई विजयसेनकुमार, तेहनु नाम दीठउं । पछइ राजाइ ससंभ्रांतरणइ कलावतीनी सखी पूर्छ । कहिउं, 'देवशालनगर-हूंतउ कोई इहां आविउ हंतउ ?' तिवारई सखीई कहिउं, 'स्वामी ! कलावतीनइ भाईइ चि बहिरखा अनई वस्त्र मोकल्या हंता । ते जण अजी इहां जि छई।' पछइ राजाई ते जण तेडीनइ पूछया, कहिड'ए बहिरखा तुम्हे आण्या " तीणे कहिउँ, 'अम्हे आण्या ।' जिम ए वात राजाह सांभली, तिम राजा अचेत थई भुंइ पडिउ । तेतलइ प्रधाने ताढउ वाय घाती सचेत कीधउ । पछइ राजा हीयउं आहणइ. माथउँ कूटइ । तिवारइ प्रधानि कहिउं' 'पहिलउं अणविमासिइ काज न कीजइ, जु कीजइ तु एवडउं दुक्ख हुइ ।' गजा कहइ. 'हिव हूं ए दुक्ख सही न सकउं, काष्ट-भक्षण करिमु ।' इम कही राजा काष्ट-भक्षण कग्विा चालिउ । तिवारइ महुतइ कहां, 'स्वामी! सात दिन ताई पडख उ, जिम हूं एक वार ते ठाम जोई आवडं। किवारई तुम्हारा भाग्य-लगइ जीवती मिलइ ।' इम राजा समजावी, आपणि जोवा नीकलिउ । सर्व वन जोवा लागउ । पणि किहांड देवह नही । पछा तापसनइ आश्रम आवी, तापस पूछया, 'अहो तापसो ! ए वन-माहि एकाकिनी स्त्री दीठी कि ना?' तिसिइ तापस कहई, 'तिणि स्त्रीइ कण काज छइ ?' १.PL. पहिलउ अणविमासिउं काज कीजइ तु । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मेरुसुंदरगणि-विरचित तिवारइ प्रघानि कहिउँ, 'शंखराजा ते कलावतीनइ वियोगि प्राण त्याग करइ छ । पणि जु ते आवइ, तु प्राण न छांडइ।' इम कहइ हूंतइ तापसे जाणिउं, ‘ए सही राजानउ प्रधान घटइ ।' पछइ दत्तप्रधान नइ पुत्र-सहित कलावती देखाडी । जिम कलावतीइं ते राजानु मित्र दूर-तु आवतु दीठउ, तिम जि 'प्रउहंस ऊपन इ रोवा लागी । तेतलई दत्त आवीनइ कहइ, 'बहिन ! म रोइ । कीधां कर्मनां फल भोगव्यां विण न छूटीई । जे तीर्थकर देव छइ, ते ही कर्म-आगलि न छूटइ। इम जाणी धीरपणउं आदरि । अनइ ईणइ रथि बइसि । आपणइ दर्शनि करी राजानइ जीवदान दिइ। नहीतर पश्चात्ताप करतउ राजा काष्ट-भक्षण करिसिइ। मइ आजना दिन-ताई जिराजा राखिउछइ।' पछइ कलावती तापसनी अनुज्ञा मागी दत्त-साथि रथि बइसी चाली । तिहां-हंती पंथ अवगाही आपणा नगरनइ परसरि आवी । तेतलइ शंखराजाइ वात सांभली। पछइ आंखिई आंसू पाडतउ राजा सामहउँ आवीनइ कहइ, 'हे भद्रि ! जे मइ तुझनइ विडंबना कीधी, तू वन-माहि मूकावी; ताहरा हाथ कपाव्या, ते माहरु सर्व अपराध खमि ।' इम कही महाविस्तारि पुत्र-सहित नगर-माहि आणी । तिहां सउणानइ अनुसारि पुत्रनइ पुर्णकलस ए नाम दीघउं । अन्यदा कलावतीई एकांति अवसर लही राजा पूछिउ, 'स्वामी! कीणइ दोषि वन-माहि मंकी माहरा हाथ छेदाव्या ते कहउ ।' तिवारई राजा सलज्जपणई कहइ, 'हे भद्रि ! तुझ-माहि सर्वथा कलंक नथी, पणि ताहरा भवांतरी कर्म-लगइ मइ ते कांई कर्म आचरिउ, जे मातंग इ नाचरइ ।' तिवारइ राजाई आपण सर्व वृत्तांत कहिवा मांडिउ, 'हे सुभगि! जिणि दिहाडइ मइ तुझनइ आपदा अणावी ते-हूंतू अनेरइ दिहाडइ, ताहरा बहिरखा देखी मुझनइ उरतउ ऊपनइ, हूं काष्ट भक्षण करिवा लागउ । तिसिई दत्त-मित्रइ आवी प्रतिज्ञा करी हूँ राखिउ। पछई हैं प्रासाद देव नमस्करी रात्रिनइ समइ नगरनइ परसरि रहिउ । तिहां मइ निद्रा-माहि इमिउ सउणउं लाध ज अणपाकी वेलि कल्पवृक्ष-हंती खिसी पडी । अनइ वली ते वेलि संपूर्ण फल लागड तत्काल कल्पवृक्षि चडी । पछइ प्रभाति मइ गुरु पूछया। गुरे कहिउं, 'राजन् ! कल्पवृक्ष-समान तूं जाणिवउ, अनइ वेलि समान ताहरी प्रिया । ते तुझनइ पुत्र प्रसविइ मिलिसिइ।" ते तूं मिली।' इत्यादि स्वप्न-विचार कही पछइ राजा कलावती-सहित वन-माहि मुनिनइ वांदिवा गयउ। तिहां देवपजा करी, मुनि वांदी भार्या-सहित राजा आगलि बइठउ । तिसिइ मुनिइ देसना दीधी। पछइ देसनानइ अंति राजा पूछइ, 'भगवन् ! कलावतीइ कउण कमें कीधउं, जे निदोष कलावतीना मई हाथ छेदान्या ?' तिवारइ मुनि तेहन उ पूर्व-भव कहिवा लागउ, 'श्री विदेहि क्षेत्रि, ४ महेंद्रपुरि नगरि, विक्रमराजा लीलावती-भार्या-सहित सुखई राज करइ छइ । इपिइ सुलोचना एहवइ नामि पुत्री जाई। माता-पितानइ महा-वल्लभ हूंती। क्रमि क्रमि वाधती यौवनावस्थाइ आवी। हिव एकदा पुत्री राजानइ उत्संगि बइठी छइ । एहवइ कुणिहि एकिणि एक सूडउ मनोहर आणी राजानइ भेटिइ दीवउ। राजाई ते उपाध्यायनइ देई भणाविउ । राजानइ आशीर्वाद देवा लागउ। पछइ राजाइ ते शुक पुत्रीनइ दीधउ । जिम दालिद्री मोदक पामी हर्ष आणइ, तिम ते शुक लही पुत्री १. C. L.प्रउंहस K. प्रहुम Pu. प्रहहंस P. पहंस । २. K. भवांतरीक कर्म A.B. भवांतरी कुकर्म C. भवांतरी कर्म । ३. K. ते हुतु पहलइ दिनि, Pu. ते इंतु अनेरइ । ४. A.C. महेन्द्रपुरि नगर विक्रम ..B. K. महेन्द्रपुरि नरविक्रम... ५. P. मनोहारिङ L. मनोहरीउ A. मनोहारी । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध १२३ हर्ष मानिवा लागी । रात्रि नइ दिवस पुत्रो शुकनइ मूंकइ नही । अनेक साकरना पाणी, शालि, दाडिमनी कुली दिन प्रति दिइ । वली सुवर्णमइ पांजरइ घाती राखिउ । किवार उत्संगि, किवारई पांजरइ, इम विनोद करती भगावइ । भोजनि, शयनि, आसनि, सूती, बइठी, योगिनीनी परि एकाग्र मन हूंती, ते सुलोचना कन्या शुकनइ मूंह नही । हिवर एकदा सुलोचना उद्यानवनह विनोद-भणी, शुकनइ पांजरा-माहि घाती लेई गई । तिहां देहरा-माहि सुलोचनाइ सीमंधरस्वामि नमस्करिया । एहवइ शुक्र पणि प्रतिमा देखी चींतवइ, 'एहवी प्रतिमा मइ आगइ किहांई दीठी हूंतो ।' इम ईहापोह करतां जाती- स्मरण - ज्ञान ऊपनउं । तिसिहं जु जोइ, तु पूर्विलइ भवि चारित्र पामिउ हूंतउ । तिहां सर्व शास्त्र भण्यां क्षयोपशम- लगइ । पणि क्रिया तेहवी न पाली । अनइ वस्त्र, पुस्तक, पात्रानी मूर्छाई आपण ज्ञान फोक गमाडिउ । चारित्र विराधिउ । तिहां हूंतु मरी ए-वन-माहि हूं सूडउ हूउ । अनइ जे दूकडउ पाढ मूकिउ तेह-लगइ हिवडां भगवानी मनसा हुई । हिवs तु हूं तिर्यचनइ भवि आविउ । मइ सिउं चालइ १ पणि आज पछइ ए देवनइ प्रणमी भोजन करिसु ।” एहवउ नीम लीघडं । पछइ सुलोचना देवनद प्रणमी पूजी, पांजरउ संघाति लेई पाछी आवी । तिसिइ बीजइ दिनि शुकनइ हाथि लेई जिमवा बइठी । तेतलइ सूडानइ नीम चीति आविउ । पछइ "नमो अरिहंताणं " कही सूडउ ऊडिउ, देहरइ जई, प्रतिमा प्रणमी, वनफल खावा लागउ । इसिइ राजानी पुत्री शुकनइ विरहि विलाप करिवा लागी । एहवइ सूडा-भणी पायक धाया । ते वन-माहि आव्या । तिहां आंचानी डालह सूडउ बइठउ दीठउ । तीणइ पास मांडी सुडउ झाली सुलोचनानइ आणी आपिउ । तिवारइ सुलोचना स्नेहमइ वचन शुक्र-प्रति कहइ, "अहो शुरु ! मुझन मूं की तूं कहां गयउ हूंतउ ? आज पछइ ताहरउ वेसास भागउ ।" इम कही नृपांगजाईं गतिना भंग-भणी सूडानी बेहूं पांख परही करी, सोनानइ पांजरह घाती मूंकिउ । तिबारशुक चींतवह जु, 'परवसपणानइ धिक्कार हु, जे मइ एवडी पीड सहीइ छइ । अथवा जु तहीं इ क्रिया सूश्री पालतउ तु, आज परवसपणडे न पामत । तु अरे जीव ! वेदना सहि । कहइ, हिव परमेसरनउं मुख किम देखिसि ?' ते सूड़उ इम चींतवत, आंखिइ आंसू, पाडत उ, अणसण लेई, मरण पामी सौधर्म-देवलोकि देवता हूउ । पछइ सुलोचना पणि शुकनइ विरहि अणसण पाली, सौधर्म इ देवलोकि तेहनी प्रिया हुई । हे राजन ! तिहां घणा सुख भोगवी ते शुकनड जीव मरी सांप्रत तूं शंखराजा हूड, अनइ सुलोचनानु जीव ए कलावती हुई । पणि जे भवांतर सूडानी पांख छेदी हूँती, ते कर्मलगइ कलावतीना हाथ तई छेदाव्या । तु ए आपणा कर्म भोगव्या विण न छूटीइ । एक वारनउं कीधउं दसवार भोगवीइ ।' पछइ तत्काल राजाराणीनइ जातीस्मरण-ज्ञान उपनउं । तिहां आपणउ भवांतर दीठउ । तिसिइ वैराग्य-रंग ऊपनइ पूर्णकलस पुत्रनइ राज्य देई, गुरु-समीपि बिहुइ दीक्षा लीधी । पछइ घउ काल चारित्र पाली केतलइ कालि मोक्षि पहुचिसि । इति श्री - शीलोपदेशमाला - बालाविबोधि श्री कलावती - कथा समाप्ता ॥३२॥ * हिव केई एक महासतीनइ गृहस्थावासि वसतां इ हूंता शोलना माहातम्य लगइ महर्षि इ. स्तव । ते कहइ — Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ मेरुसुंदरगणि-विरचित Areas - नंदती - मोरमा - रोहिणी - पमुक्खाणं । रिसिणो वि सयाकालं महासईणं थुणंति गुणे ॥५६ व्याख्या:- शीलवती १, नंदयंती २, मनोरमा ३, रोहिणी ४ - प्रमुख च्यारि महासती जयवंती हु । कांइ जे, महासतीना गुण, ऋषीश्वर इ सदा इ = सर्वकाल गुण स्तवइ । एतलइ गाहनउ अर्थ उ । भावार्थ कथा - हूंत जाणिवउ । तिहां पहिलंउ शीलवतीनी कथा कहीइ [ ३३. शीलवतीनी कथा ] ईइ जंबूद्रीपि श्रीनंदनपुरि नगरि अरिमर्दन राजा राज कर३ । हिवइ ते राजानइ मान्य श्रीरत्नाकर नामि श्रेष्ठि वसई । श्री एहवइ नामि तेहनी भार्या । ते बेडूं श्रावकउ धर्म पालइ । पणि कर्मना योग लगइ संताननी प्राप्ति नही । तिथि करी महा दुखी । हिवइ अन्यदा पुत्रनइ हेति श्री - कलत्र श्रेष्टिनइ इसिउं कहइ, 'स्वामिन ! ए श्रीअजितनाथना देहरा- आगलि अजितबलादेवी महा सप्रभाविक छइ । ते अपुत्रीयानइ पुत्र दिइ, निर्धननइ धन दिइ, दोहागीनइ सोहागी करइ ! जि को एहनी सेवा करइ, ते सहू पामइ । इणे कारणि, हे नाथ ! आपणपे पुत्रनइ अर्थि कांई मानी । कांई, बेटानइ हेति आपगा प्रणते ही दीजइ ।" तिवारइ रत्नाकर श्रेष्टिइ श्रीनइ बचन ते देवीनइ कांई मानिउं । पछइ संताननी प्राप्ति हुई । कांई ? भाग्यनइ योगइ सघली इ वस्तु फलइ । क्रमिइ पुत्रनउ जन्म हुड | तेहनइ अजितसेन ए नाम दीघउं । जिवारई बाल्यावस्था अतिक्रमी यौवनावस्थाई आविउ, तिवारई पिता विवाहनी चिंता करिवा लागउ जु, 'एहनइ भली कन्या आवइ तु रूडउं । यतः - निर्विशेषः प्रभुः पारवश्यं दुर्विनयोऽनुगः । दुष्टा च भार्या चत्वारि मनःशल्यानि देहिनां ||१|| इमविता करइ छ । एहवह व्यवसानइ हेति कोई वणिगपुत्र रत्नाकर - सेठिइ आगइ चलाविउ हूंतउ, ते संपूर्ण व्यवसाय करी श्रेष्टि-कन्हलि आवी बइठउ । तिसिई सेठिई व्यवसाय स्वरूप पूछिउं । तिवारह वाणउत्रि आय वरउ सर्व देखाडिउ । वली वाणउत्र कहइ, हूं मंगलावती नगरी गयउ हूंत । तिहां जिनदत्त श्रेष्टि साथि माहरइ व्यवहार हूउ । तिणि सेठि एक दिवस हूं घरि जिमवा तेडिउ । तिहां मई देवांगना सरोखी कन्या एक दीठी । तिसिई मह श्रेष्टि पूछिउ, ' र कणि ?' तिवारई श्रेष्ठ कहइ 'ए माहरी पुत्री । पणि मुझन कही चिंता टलती नथी । कां ? जागउं, ए पुत्री हिंसेउ वर पामिसि ? किम ससुरानइ रंजविसिइ ? किम शील पालिसिह ? किम पुत्र प्रसविसिइ ? अथवा ए वली रखे एहनइ सउकिनउं दुख ऊपजइ । इम ए कन्या वाघती वाघती मुझनइ चिंता उपजावइ छइ । पणि ए पुत्री सर्व गुणनी खाणि छइ । सर्व भाषा जाणइ । पंखीयानी भाषा ते हो समझइ । शीलवतो एहवउं नाम । ' एहनइ रूप-कला-गुणे करी सरीखउ वर एहनइ जोईइ छ । पणि वर किहां मिलइ नही । एह भणी मुझन चिंता टलती नथी ।' तिवारइ मई सेठिनइ कहिउं, 'चिता म करि । श्री नंदनपुर रत्नाकर श्रेष्टिन पुत्र अजितसेन ए कन्नानइ योग्य छ ।' तिखिइ जिनदत्त कहइ 'हे मित्र ! घणा १. A. B एहना, C. एहने । २ C. K टलइ नहीं । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला-बालावबोध दिननी चिंता आज तई भांजी।' इम कही पछइ आपणी बेटी अजितसेननइ देवा-मणी आपणउ जिनशेखर पुत्र मुझ साथि मोकलिउ । ते सांप्रत माहरइ घरि छह । हिव तुम्हे ए नात्र सही करउ ।' तिवारइं श्रेष्टि कहइ, 'हे महाभाग ! तइ ए भलउं कीधउं । काइं? सघलाइ लाभ-माहि ए लाभ मुझनइ मोटउ हूउ ।' पछइ रत्नाकरि बहूमान-पूर्वक जिनशेखर तेडी शीलवतीनउं नात्र सही कीघउ । पछइ पिताइं अजितसेन पाणिग्रहण-भणी जिनशेखर-साथि चलाविउ । तिहां महा ऋद्धिनइ विस्तारि अजितसेनि शीलवतीन पाणिग्रहण कीधउं । अनइ हाथ-मेलावणीइ घणउं धन लाघउं । पछइ सुमरानइ मोकलावी शीलवती-सहित आपणइ घरि आविउ । हिवइ अजितसेन शीलवतीसहित सुखिइं धर्म, अर्थ, काम-त्रिणइ पुरुषार्थ साधिवा लागउ । इम करतां घणा दिन गया । एकदा प्रस्तावि शीलवतीइ रात्रिनइ समइ 'शिवा-फेकारीनु स्वर सांभलिउ । ते स्वरनई अनुनारि घडउ लेई रात्रिइ गहिरि नीकली । तिसिइ शीलवत नु सुसरउ जागतउ हूंतउ । तिणि ते वधू रात्रिई बाहिरि जाती दीठी । ते देखी मनि विकल्प ऊपनउ । पछइ चौतविवा लागउ, 'सही एहवी रात्रिई जु ए बाहिरि नीकली छइ, तु इम जाणीइ ए शीलवती कुशीलि छइ . जोउ नइ, भला कुलनी बेटी भलइ थानकि आवी अनइ एहवा इ काज करइ । तु इम जाणीइ. प्रवाहई स्त्री आप-स्वार्थिनी । वाहिरि रूडी दीसइ, पणि माहि चित्त कूडउ ।' सुसरउ इम चीतविवा लागउ । हिव शीलवती मायाई करी रहित, कई काज करी, घडउ ठामि मूकी, आपणि शिय्याइ आवी सूती । पछइ प्रभाति तोछडरणा लगई सेठि आपणी स्त्रीनइ इसिउं कहइ जु, 'ताहरी वह शीलि गुणि आचारे करी केहवी प्रतिभासइ ?' तिवारइ स्रीइ कहिउं, 'स्वामी ! कुलमर्यादाई करी रूडी छइ।' तिसिई श्रेष्टि कहइ, 'ताहरी बुद्धि पणि रूडी नही, जिणि कारणि, एहनां आचरण आज रातिई मइ दीठां छइ । न जाणीइ, एकलो किहांइ नीकली गई हूंती ?' इम वात करई छइ । इलिई अजितसेन पुत्र मातापिताना पग नमिवा आविउ । तिहां बापनइ सचिंत देखी पूछइ, 'आज तुम्हे सचिंत कांई दीसउ ?' तिवारइ पिता कहइ, 'वत्स ! हिबई सिडं कहीइ ? विधात्राइं आपणइ घरि कल्पवेलि वावी, पणि सांसही न सकी । कांई जे, शीलवती एहवइ वंशि ऊपनी, महागुणवंती अनई एहवी इ जु पाडूआ आचारि चालइ, तु सिउँ कहीइ १ जु लाज, जु जिनधर्म, जु सर्व गुण जोईइ, तु एह-माहि । पणि हिवड सर्व गुण गमाडया। एतला दिन कल्पवेलि-सरीखी हूंती, पणि हिव विषवेलि समान हुई । आज रात्रिइ पाणीनउ कुंभ लेई किहांइ गई हूंती मुझ जागतां जि । ते एक प्रहर बारि रही पाछी आवी । तु वत्स ! एहनइ तू छांडि ।' तिवारई पुत्र पितानउ आदेस अणलोपतउ 'तह त्ति' कही घरि आविउ।। तिसिइ प्रभाति शेष्ठि कांई कूड विमासी घू-समीपि आवी कहइ, 'वत्सि ! ताहग्इ पिताई तूं ऊतावली मिलवा-भणी तेडी छ ।' तिवारई वधूई डहापण-लगइ रात्रिनउ वृत्तांत जाणी ससुरानउ वचन मानिउ। कांई ? परीक्षाइ आफणी सोनउं कसि पहुचिसिइ । पछइ रथ प्रगुण कीधउं । तेतलइ शीलवती-वह-सहित रत्नाकर अष्टि रथि बइसी चालिउ । मार्गि चालतां नदी एक आवी । तिसिह श्रेष्टिई शीलवतीनइ कहिउं, 'हे वधू ! ए पगनां खासडां ऊतारि, पाणीइ १K.शिवा फेत्कार करती सांभली । २ P. एहवई, C. एह इ । ३. K.P पाडूइ आचारि प्रवर्तइ । ४.CK. आफणी । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मेरुसुंदरगणि-विरचित भजिसि ।' तिवारई वधू कांई 'विमासीनइ ते खासडां पहिरिइ जि पाणी-माहि चाली । तेतल श्रेष्ठ रीसाउ हूंतु चींतवइ, 'सही ए तां आप छंदी छइ ।' इम वली मार्गि चालतां आगलि . * मूंगनु क्षेत्र फलिउं देखी सुसरउ कहर, 'वत्सि ! ए क्षेत्रीनइ हाथि सर्व धान आविडं । आजकाल धान घरि आवसिह । तिवारई वलतु वहू कहा, 'ए क्षेत्र आगिम खाघउं, घरि धान कांई नही आवइ ।' ईणइ पडूतरि ससुरउ गाढेरठ दूहवाणउ । वली जेतलइ रथ आघउ चालिउ, तेतलई नगर एक मोटउं, धनि करी धनद यक्षना नगर सरीखउं, दीठउं । ते देखी श्रेष्टि वहूनइ कइइ, ए नगर वसइ छइ । ईणइ नगरि आपणपे रहीइ ।' तिवारइ वधू वलतुं कहइ, 'ना, ए नगर सूनउं छइ । इहां नही रहोइ ।' पछइ आधा चाल्यां । पणि ससुरउ दूहवाणउ । तिसिइ आगलि सुभट एक घाए जाजरउ कीघउ आवत दीठउ । ते देखी श्रेष्ठि कहइ, 'बापडइ सुभट वेवडा घाय सह्या छई ?” तिवारइ वधू कहइ, ए कायर नासतु हूंतु कूटाणउ छइ ।' वली मुरवधूनी निंदा करतउ बडबडतउ, रीसाणउ आघउ चालिउ । तिसिहं सूर्य घणउ च' डेउ जाणी श्रेष्टि वड एक मांटउ देखी, वड- तलइ जई ऊतरिउ । तेतलइ वधू इ वडनी छांह मूंकी लू ऊढ़ी तडक जई बइठी । तिसिई श्रेष्टिइ कहिउँ, 'वत्सि ! छायाइ आवि ।' तिवारई वधू अगसांभलती आंखि मोची रही । पछइ श्रेष्टि चींतवइ, 'जे वात हूं कहउं ते तु ए न मानइ । तु हिवइ एहन कउण कहिसिइ ?' इम कही श्रेष्ठि आघउ चालिउ । तेतलइ सूनउं गाम एक आवि । तेह-माहि " सघलाइ घर च्यारि-पांच "वसइ छइ । ते तुच्छ गाम देखी श्रेष्टि कहइ, 'ईणइ गांमि नही रहीइ ।' तिवारइ शीलवती कहइ, 'ए गाम गाढ वसइ छइ । इहां रहींसिइ ।' एछ श्रेष्टि चतवइ, 'ए वहू सर्वथा विपरीति ।' तेतलइ गाम-माहि ढूंतउ शीलवतीनउ माउलउं आविउ । तिणि बहुमानपूर्वक सेठि निमाडी राखिवा लागउ । पणि रहइ नही । पछइ वधू-सहितं सेठि आघउ चालिउ । तेतलई वृक्ष एक देखी मध्याह्न-समु जाणी रथ हूंतु ऊतरि । तिहां कांई थोडउं सिउं सीरावी रथ-जि-ऊपर सेठि कपट-निद्राई सूतउ । पछइ शीलवती पणि पितानुं घर टूकडउं जाणी रोटी-करंवड लेई जिमवा बहठी । तेतलइ कयरना वृक्ष - ऊपरि काग एक बोलिवा लागउ । तिसिइ ते कागनी भाषा उलखी शीलवती कागनइ कहइ, 'रे काग ! तूं कांई करगराट करइ ?' ए वात सांगली श्रेष्टि मन-माहि चींतवर, 'ए दुराचारि सउण पणि जाणइ छइ ।' पछइ वधू कागनइ कहइ, 'तुझनइ करंबानी इच्छा छइ, तेहमणी तूं बोलइ छइ ।' तिवारइ शीलवती अवसर जाणी निःशंकपणइ कहिवा लागी, 'अहो काग ! एक बोल आगइ " शिवा- फेकारीनउ मानिउ, ते माटि भर्तारनउ वियोग हूड, अनइ सांप्रत १. C. K. Pu. विमासी नये खासडे पहिरे । २. Pu. मुगनु क्षेत्र वाविउं देखी । ३. K. रीसाउ । ४. Pu. आघेरउ । ५. K. सर्व थई घर च्यारि पांच सई छ, Pu. घर सघलां इ च्यारि कइ पांच वसई छ । ६. C. वासि । ७. K. सुवासिङ् ८. A. B. विपरित । ९. K सेठिनइ १०. Pu. शिवानु मानिउ तु । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलोपदेशमाला- बालावबोध १२७ ताहरउ बोल जु मान, तु 'पितानइ मिलवानउ संदेह पडइ ।' तिवाग्इ श्रेष्टि जागतउ हंतउ. साभिप्राय वचन सांमली कहइ, 'हे दुर्विनीत ! ए सिंउ बोलइ छइ ? तिवारइ शीलवती कहा, 'सुसरा | ए साची जि वात । कांई ? जे माहरा गुण हूंता, ते दोषनइ हेति हुआ, चंदननी परिई । हूं जहीइ बालकपणइ सर्व शास्त्र भणी, तहोइ काकरुत पणि भणिउं हूंतु ।' इणि वचनि श्रेष्टि सावधान थई सर्व वात पूछिवा लागउ । तिवारइ बहू कहइ, 'सुसरा । जिवारइ हं रात्रिह जागती हंती, एहवइ सिवा एक बोली । पछइ हूं तेहना सउणनइ अनुसारिई घडउ लेई नदीइ गई । तिसई निहां मृतक एक आविउं । तेतलइ ते नदी-हंतु बाहरि काढी, तेहनी कडिड आभरण हंता ते मइं लीधां। ते लेई घडा-माहि घाती हूं घरि आवी । पछइ मइ छाणहरा-माहिं घडउघातिउ । तु कहउ, ईणइ अपराधि हूं तुम्हे एतली भुई आणी । हिव वली ए वायस बोलिर । ते इम कहइ छइ जे, ए वृक्ष-तलइ दस लक्ष स्वर्ण छ । तेह-भणी हं कागनइ कह छउं-दाधा ऊपरि फोडउ म पाडि । आगइ आपदा-माहि पाडी छउं,' वली कांइ पाडइ १ ए वात सांभल, तिमिइ सुसरउ कहइ, 'हे वत्सि ! ए वात किसिउं साची १'इम कहितउ पलवटि बांधी. तरुणा पुरुषनी परिई कुदालउ हाथि लेई, कागनइ करंबउ 'देवरावी, ते वृक्षनइ मलि आवी खणिवा लागउ । तेतलइ माहि-हूंता दस घडा लाख लाख सुवर्ण भरिया नीकल्या । तु जाणे शीलवतीना गुण प्रगट हुआ । ते सोनुं देखी श्रेष्टि चीत इ, 'सही, ए शीलवती साक्षाकारि मूर्तिवंती लक्ष्मी छइ । जोउ, मई काचनी भ्रांतिइ मरकतमणि-समान ए वहू अवगणी ।। इम की सूवर्णक भ रथि घाती, शीलवतीनइ आपणउ अपराध खमावा लागउ । वली वली वधूनी प्रसंसा करत उ, वधूनइ २थि बइसारी रथ पाछउ वालिउ । तिसिइ वधू कहइ, 'माहरा बापनउं घर टूकडउं छइ । तेह-भणी एक वार पितानइ मिलउं ।' तिवारइं सुसरउ कहइ, 'हे सभगि । हिवडां तूं घरि आवि । आपगउं कुल " उआलि ।' पछइ शीलवतीइ सुसराना दाक्षिण्य-लगई वचन मानिउं । पछड श्रेष्टिई रथ पाछउ खेडिउ । इम मार्गि आचतां पूछिवा लागउ, 'हे वस्सि ! ऊवस नगरनइ तई वसतउं कांइ कहिउ ।' तिवारइ शीलवती कहइ, 'जिहां आपणा सगा हुई. ते सूनइ वसतजाणिवउं । कांई १ जेतलई तुम्हे आव्या सांभल्या, तेतलई माहह माउलइ जि कई की ते तुम्हे दीठउ । तेह-भणी मई वसतुं कहिउँ ।' तिवारई चाणिक्यनी परिड वधनां वचन साभिप्राय जाणो वली श्रेष्टि कहइ, 'जिवारई हूं वड-तलइ ऊतरिउ तिवारइ त' तडका कांइ बइठी ?' वधू कहा, 'तुम्हे किसिउं सांभली उं नथी, जु वायस वडि बइठउ स्त्रीनड माथइ विटा करइ तु छ-मास-माहि भरिनइ मरण हुइ किवा महांत रोग आवइ ? अथवा बडनइ मूलि साप हुई। तेह-भणो मई उपाय करो ''उढणउं उढी, छाया म की अलगी बहठी ।' श्रेष्टि कहइ, 'वत्सि ! ताहरी भली बुद्धि ।' १. C. L Pu. पिताइ । २. K सूनु । ३. K घालिउ । ४. K द्रव्य । ५. A. B. पाडी छइ । ६. K. देई । ७. K. Pu, खमाविवा । ८ K. Pu. अजूआलि । ९. K. जे कांइ भक्त कीधी ते तुम्हे दीठी । १०. K. चाणाक्य । ११. K. Pu, ओढणउ ओढी । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंदरगणि-विरचित वली सेठि पूछ, 'ते सुभट मई वखाणिउ अनइ तइ वखोडिउ ते कांइ ?' वधू कहर, 'तेहनइ पूठिह घा लागा हूंना पणि सन्मुख न ता ।' ए वात सांभली श्रेष्टि चमत्क रिउ हूं'तु वली पूछइ, 'वसतां नगरनइ तइ' ऊवस कांई कहिउं ?" तिवारइ वधू कहइ, 'जिहां आपण सगउ कोई नही, ते वसतउ इ सूनउ ।' वलो सुसरउ पूछह, 'मूंगन क्षेत्र फलिड देखी मइ कहिउ - ए क्षेत्रना घणोनद धाननउ वांक कांई नही हुई । तिवारई तई कहिउं - ए क्षेत्र आगिम खाध । ते तई इम कांई कहिउं ?' वधू कहइ, 'ए क्षेत्रना धणी टोहता हूँ, पणि निरादरा दीठा ।' पछइ श्रेष्टिइ ते क्षेत्रमा घणी पूछया । तणे कहि ं, 'अम्हे ए क्षेत्र आगिम खाघउं ।' ए वात सांगली श्रेष्टि गाढेरु हर्षिउ । वली सुसरउ पूछइ, 'पाणी भरी नदी, तेह-माहि खाडा पहिरिइ तूं कांई चाली ?' तिवारइ वधू कहइ, 'पाणि-माहि कीडा, कांटा, जलसर्प दोसई नही । तेह-भणी मइ खासडां पहिरियां ।' इत्यादि वात करतां क्रमिइ घरे आव्या । तिहां श्रेष्टि आपणी स्त्री, आपणउ बेटड तेडीनड् कड्इ जु, 'मइ अजाणपणइ तुम्हनइ भ्रांति ऊपजावी । पण ए साक्षात्कारि लक्ष्मी छ । एहनइ प्रसादइ मई दस लक्ष सुवर्ण आणिउ । वली तहीइ जे घडउ लेई रात्रिइ बाहर गई हूंती 'तहीइ ईणीइ रत्नराशि आणी छइ ।' इम श्रेष्टइ सर्व वृत्तांत कही छाणहरडं खणी रत्न काढयां । तिहां सघले दीठां | पछइ सर्वस्व घरनी स्वामिनी शीलवती हुई । १२८ feat क्रमि श्रेष्टि अ'ऊवानइ क्षय परोक्ष हूउ । अनइ अजितसेन पुत्र कुटुंबनउ नायक कीधउ । पछइ ते बेहू श्रावक धर्म पालित्रा लागां । तिसिहं नगरनउ राजा अरिमर्दन, तीणइ पांचसई महुता नवा कीधा, पणि मुख्य महुतु नही । तेह-भणी राजा परीक्षा जोवा-भणी एहवी एक समस्या समस्त नागरीक लोकनइ कहइ । किसी ? - 'जे मुझनइ पगि करी आहणई, तेहनइ aaण दंड कीजइ ?' तिवारइ लोक कहइ, 'स्वामी ! तेहनइ शिरच्छेद कीजइ ।' पणि राजानइ ए वात मेलि नावइ । पछइ ए वात अजितसेनइ आवी शीलवतीनइ कही । तिसिइ शीलवती कहइ, 'तेहनइ सर्वांग आभरण दीजइ ।' तिवारइ अजिनसेनइ पूछिउ, 'ते किम ?' कहिउं, 'राजानइ प्रिया टाली कउण पाटू दिइ ?' ए वात सांभली अजितसेन सेठि राजा-समीपि जईनइ कहइ, 'जिणि पाहू दीधी तेहनइ सर्वांग आमरण दिउ ।' ए वात सांभली राजा संतुष्ट हूंतु ते अजित सेननइ सर्व प्रधान माहि मुख्य कीधउ । अन्यथा पर्यंत देशना राजा ऊपरि अरिमर्दन- राजाइ कटकी कीधी । तिहां अजितसेन संघाति तेडिउ, चालिवा लागउ । तिसिइ अजितसेन शीलवती प्रियानई कहइ, 'तू' एकली घरि किम रहसि ? किम शील पालेसि !" तित्रारखं शीलवती कहर, 'स्वामी ! जु इंद्र आपणपे आवइ, तुही माह शील खंडी न सकइ । अनइ जु तुम्हनर माहरउ प्रत्य नथी, तड ए फूलनी माल लइ । माहरा शीलन प्रमाणि सदाइ सश्रीक रहिसिइ । अनइ जहीइ मुझनइ कुशीलपणउं, तsts जाणे कुरमासि ।' इम कही अजितमेननइ कंठि कुसुममाला मूंकी । पछइ अजितसेन राजा - साथइ चालिउ । महांत अटवी-माहि गया । तिहां फलफूल कांई न पामोईं । तिसिइ अजितसेननइ कंठ फूलनी माला देखी राजा कहइ, 'एहवी अटवी-माहि एहवां फूल कहां ?" तिवारt अजितसेन कहइ, 'स्वामी ! माहरी शीलवती प्रियाना शीलनर प्रमाणइ फूलनी माला १. C. तेही ईणीइ... | Pu. तेही ईणइ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १२९ कुरमातो नथी ।' जिम ए वात सांभली राज इं, तिम जि कामांकुर-मित्रइ कहिउँ जु, 'स्त्रीनइ शील किहां ? तिवारइ बीजउ ललितांग कहइ, 'ए वात साची । स्त्रीनह शील. नही ।' तेतलइ त्रीजइ रतिकेलि-मित्रइ कहिउं सही, इहां कोई संदेह नही ।' तिसिइं चउथउ अशोक कहइ, 'चालउ, परीक्षा कीजइ ।' पछइ राजाइ घणउं धन देई च्यारइ शीलवती-कन्हलि मोकल्या । हिव कामांकुरि आवी शीलवतीना आवास-कन्हलि नवउ घर मंडाविडं । तिहां सदाइ हावभाव नेपथ्य शीलवतीनइ देखाडइ । णि शीलवतीइ जाणिउ जु, 'माहरां शीलना भ्रंश-भणी एतला वानां करइ छई।' पछइ च्यार इ मित्र उपाय चीतविवा लागा। हिव अनेरइ दिवसि अशोकिइ दूती मोकलीनइ कहाविउं, 'हे भद्रि ! ताहरउ भरि तउ देशांतर गयउ छइ । तूं यौवननई फल कांई न लिइ ?' तिवारइ शीलवती कहइ, 'कुलस्त्रीनई ए वात युगती नही । अनइ कदापि जु ए वात कीजइ तु लोभ-पाखइ न कीजइ ।' इसिई कहिइ हूंतइ अशोकि वली दासी मोकली पूछाविउ जु, 'तू केतलडं धन मागइ छइ ?' तिवारइ शीलवती कहइ, 'हूं लाख टंका मागउं । तेह-माहि अर्ध पहिलङ आपउ, अनइ तुम्हे पांचमइ दिहाडइ आविज्यो तहीई अर्ध लेतां आविज्यो ।' इणि वचनि अशोक हर्षिउ हंतु दूती-हाथि अर्धउ लाख देई शीलवतीनइ माकलिउ। हिव शीलवतीइ उरडा-मादि छानउ एक कूउ खणाविउ, अनइ ते-ऊपरि पल्यंक एक वाण-पाटी-रहित उत्तरपटिइ ढांकी मूकिउ छइ । इसिइ पांचमइ दिनि अशोक पंचास सहस्र लेई, तांबूल भक्षण करतउ, जगत्र सघलउँ त्रिण समान गणत, जेतलइ पल्यंकि जई बइठउ, तेतलइ घाइसिंउ कूआ-माहि पडिउ । पछइ शीलवतीइ ते लाख टंका लेई घर-माहि मूक्या, अनइ तेहनइ शरावलइ 'दोरडउ बांधी, भात-पाणी घाली, कूआ-माहि मू कावइ । हिवइ ते नारकीनी परिई दुःख अनुभविवा लागउ । इन कूआ-माहि रहितां अशोकनइ एक मास अतिक्रमिउ । एहवइ वली ललितांग मुहतउ द्रव्य लेई आविउ । ते पणि शीलवतीई एक लक्ष द्रव्य लेई आ-माहि घातिउ। हिवइ वली त्रीजउ कामांकुर धन लेई आविउ। ते पणि शीलवतीई लाख टंका लेई आमाहि घातिउ | वली च उथ र रति केटि आविउ । तेड्न पणि तेह जिहा: शीलवतीइ कीघउ । इम च्यारि महा दुख भोगविवा लागा । इसिइ राजा वयरी जीपी आपणइ नगरि पाछ । आविउ । पछइ ते च्यारि इ मित्र महा दुखी हूंता शीलवतीनइ कहई, 'जे अणविमासिउ काज करइ, ते अम्हारी परिई दुख पामइ । हिवइ अम्हनइ नरग-हंता काढ ।' तिवारई शीलवती कहइ, 'जउ माहर वचन मानउ, तु काढउं।' तिसिई ते कहई, 'जि कोइ ताहरइ कर्तव्य छई, तेहन आदेश दइ । पणि एक वार कुआ-हंता काढि।' वलतुं शीलवती कहइ, 'जिवारइ हूं बोलावलं तिवारई तुम्हे च्यारि अस्खलित बोलिज्यो ।' तीणेचिहए ए वचन मांनिउं । इम तेहनइ सघली सीख देई, पछइ अजितसेन-पतिनइं सर्व वात जणावी, सपरिवार राजा आणइ घरि जिमवा निहुतरिउ। तेतलइ शीलवतीई सर्व रसवती नीपाई, प्रच्छन्न करी मंकी । तिसिइ राजा आवी जि पवा बइठउ। पणि भोजननी सामग्री कांई न देखइ । तिवारइ राजा कहइ. 'अम्हे किस्या ऊपरि निहुतरिया हूंता ?' तेतलइ शीलवती मूर्तिमंत बारणा आवी, फूले पूजी, कहिवा लागी, 'अहो यशो ! सघली रसवती मजूद करउ । आज आपणइ परि राजा जिमवा आविउ छइ ।' तिसिइ ते कृपा-माहि-थका च्यारइ कहई. 'अम्हे रसवती मजद , १. Pu. दोरउ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१३० मेरुसुंदरगणि-विरचित कर छउं । तुम्हनइ घणी इ पूरिसिउ ।' पछइ राजा जेतलइ जिमवा बइठउ, तेतलइ सघली इ सामग्री राजा-आगलि आण।। राजा जिमवा लागउ । पणि मन-माहि कउतिग ऊपनउं । तिहां वली शीलवतीइ तांबूल-वस्त्र अलंकारे करी चारी लाख टंकानउ व्यय कीधउ । तिवारई राजा संतोषिउ हूंतउ चीतवइ, 'सही ए कोई अपूर्व सिद्धि छइ, जे बोल बोलतां सर्व संपन्न ।' पछइ राजा शीलवतीनइ पूछइ, 'हे भद्रि ! ए आश्चर्यकारक किसिउं ?' तिवारई शीलवती कहइ, 'माहरइ घरि च्यारि कामिक यक्ष छइ। ति णि करी सर्व वस्तु संजइ ।' तिहां राजाई शीलवती बहिन करी मानी। पछइ वहुमान-पूर्वक वस्त्र -आभरण देई च्यार इ यक्ष माग्या । तिवारइ शीलवतीइ वचन मानि । कहिउं, 'ए च्यारिइ यक्ष तुम्ह- भागलि आणी मूकिसु ।' ए वात सांभली राजा आपणइ घरि गयउ । पछई शीलवतीइ ते च्यार इ कूआ-माहिथो काढी, बावने चंदने लींप्या, वांसना करंडीया-माहि घाती रथि बइमार्या । पछइ भागलि अनेक धूर ऊगाहीते, वाजिन वाजते, नाटक करावाते, इणी रीतिइ करंडीया राजा-कन्हलि आणीवा लागा । तेतलइ राजा साहु आवी बहुमानपूर्वक व्यारि ई करंडीया घरि लेई गयउ । पछ। राज इं सूआर निवारिया, कहिउँ, 'आज रसवतो यश्च जि देसिइं ।' पछइ भोजननइ अवसरि राजाई पूजी, अर्ची, भोगादि करो कहिलं, 'अहो यक्षो ! तुम्हे नीपनी रसवती आपउ।' तिवारई पेला किहां-थकी आपइ पछइ राजाई जिम करंडीया ऊघडाव्या, तिम माहि. थका च्यार इ ते कराल-विकराल अस्थिचर्मावशेष नीकल्या । तिवारह राजा बीहनउ हूंतु पूछइ, 'तुम्हे क उण ? राखस कि झोटींग कि प्रेत तिवारइ ते च्यार इ कहा, "स्वामी! अम्हे ताहरा कामांकुरादि च्यर इ पुरुष ।' इम कहिइ तह राजाइ उलख्या । पछइ सर्व वृत्तांत पूछिउ । तीणे सघली इ वात जिम हुई, तिम राजा-आगलि कही। तिसिइ राजा कहइ, 'वत्सो ! ए तुम्हनइ कउण अवस्था आवी ?' एहवउं स्वरूप जाणी राजादिक लोक सह चमत्करिया । तिहां राजाई शीलवतीनां शीलनी प्रसंसा कीधी । पछइ राजाइ शीलवती तेडावीनइ कहि, 'हे पतिव्रते! ताहरी ए माटी बुद्धि । हे महासति ! एहवा दृढिमा शीलनी अनेथि न दीसइ । जिवारई मई अजितसेननई गलइ फूलनी माल दीठी, तिवारइ अम्हे ताहरउं शील जाणिउं । तु हिव तू अम्हारउ अपराध खमि । आपणा बांधव ऊपरि कोप म करेसि ।' पछई तेहना शीलनइ प्रमाणि देवताए कुसुमनो वृष्टि कीधी। तिहां राजादिक लोके परस्त्रीना नीम लीधां । पछइ राजाइ शीलवती सत्कारी सन्मानी घरि मोकली। हिवइ अजितसेन शीलवती प्रिया-सहित सुखिइं रहइ छइ । ईसिइ 'श्रीदमघोषसूरि ज्ञानी तिहां आव्या । राजादिक सर्व वांदिवा गया । पछइ देसनानइ अंति ज्ञानी मुनि शीलवतीनइ कहा, 'हे भद्रि ! पूर्व-भवनां अभ्यास-लगी ताहरउ शील दीपइ छइ ।' तिसिइ अजितसेन पूछइ, 'किम ? तिवारई ते ज्ञानी मुनि शीलवतीनु पूर्वभव कहइ, 'कुशपुरि नगरि सुलस श्रावक वसइ । तेहनी भार्या सुजसा । तेहनु धर्मपुत्र दुर्गत, अनइ तेहनी भार्या दुर्गिला । ते एकदा सुजलासाथि महासतीनी पोसालइ आवी । तिणि सुजसाइ पोथी पूजी । ते देखी दुर्गिला महासतीनइ पछइ, 'ए किसिउं?' तिवारइ महासती कहइ, 'आज अजूआली पांचमि छ। ए पोथी पूजतां, शील पालतां मोक्ष पामीइ ।' ए वात सांभली दुगिला नींतवइ, 'ए माहरी स्वामिनी धन्य, जे हम दान दिइ छ । अनइ एक हूँ अभागिणी, जे दान देई न सकूँ ।' तिवारई महासती कहइ. 'जु तई दान न देवाइं, तु तू सुद्ध शील पालि, जावज्जीव परपुरुषनउ नीम ल्यइ । अनइ १.P धर्मघोषसूरि, Pu. श्रीमदघोषसि । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १३१ आठमि चउदसि धरि पणि शील पाले । ए उपदेस सांभली दुर्गिलाई ए नीम लीधउ । क्रमिई समकित्व पणि पामिउं। वली ज्ञान-पंचमीनउं तर पणि की घउं । कालनइ योगि भर्तार-भार्या मरी सौधर्म-देवलोकि देवता थया । तिहां-हंतउ चवी दुर्गतनउ जीव तूं अजितसेन हउ, अनइ दुर्गिलानु जीव चिवी ए शीलवती हुई । जे भवांतरे ज्ञान आराधिउं तेह-लगइ शीलवतीनइ निर्मली बुद्धि हुई।' इम कहिइ हूंतइ जाती-स्मरण-ज्ञान उपनउं । तिहां आपणउं पूर्व भव स्वरूप द ठउं। पछइ बिहुँनई वैराग्य ऊपनइ हूंतइ चारित्र लेई, सम्यग् पाली, पांचमइ देवलोकि देवता हुआ। तिहां हंता वली एक वार मनुष्यनु जन्म लही मोक्ष पामिसिइं। __इति श्री-शीलोपदेशमाला-बालावबोधि श्रीशीलवतीचरित्र समाप्त ॥३३ हिव नंदयंतीनी कथा कहीइ [३४. नंदयतीनी कथा ] श्रीपोतनपुर नगरि नरविक्रम राजा राज्य करइ । तिहां सागरपोत नामा श्रेष्टि वसइ । तेहपुत्र समुद्रदत्त । ते बालपणा लगइ सर्व कला अभ्यासतु ऋमिइ यौवनपणउं पामिउ । इसिई सोपारापाटण-वास्तव्य नागदत्त श्रेष्टि, तेहनी पुत्री नंदयंतो महागुणवंति, तेइ साथि समुद्रदत्तनइ पाणिग्रहण हउं । हिव समुद्रदत्तनउ जे बालमित्र सह्देव, ते साथि कथा-काव्य-विनोद करी काल अतिक्रमावइ । ___अन्यदा समुद्रदत्ति सहदेवनइ कहिउं, 'हे मित्र ! पुरुष ते प्रमाण, जे आपणी ऊर्जी लक्ष्मी भोगवइ । तेह-भणी चालउ आपणपे देशांतरि जई लक्ष्मी ऊगर्जीइ ।' तिवारइ वलतं सहदेव कह पितानइ कहि, जिम आपणि चालीइ ।' पछइ समुद्रदत्त बाप-कन्हलि आवी कहइ. 'मझनड आदेश दिउ, जिम हूं देशांतरि चालउं । तिवारइ पिता कहइ, 'आपणइ घर धननी कोडि छ । देशांतरि जईनई किसिउ करिसु । ए लक्ष्मी आपणी इच्छाई विलसि । कांई ? ए वात साची हई. जे आंगणइ कल्पवृक्ष अनइ बेडि-माहि फल लेवा जईइ ।' वली पुत्र कहइ, 'तात ! जे कापुरुष हुइ, ते बाप ऊपार्जिउं धन विलसइ ।' ए वात पुत्रनी सांभली पिता शोक अनइ आनंद धरतउ, गद्गद-स्वरि रोतु कहइ, 'वत्स ! ए वात तु साची । जे भाग्यवंत पुत्र हुइ, तेह जि आपणी ऊपार्जी लक्ष्मी विलसइ ।' इत्यादि वचन कही पिताइं ए वचन मानिउं । - पछइ समुद्रदत्त घणां क्रियाणां मेली, द्रव्यनी कोडिइ प्रवहण पूरावी, मातापितानी अनुमति मांगी, भलइ मुहर्ति समुद्रदत्त-मित्र-सहित प्रवहणि चडी चालिउ । तिसिइं रात्रिनइ समइ प्राणवल्लभा नंदयंती चीति आवी । तिहां तेहनइ विरहि झूरतउ असमाधि करतउ मित्र-प्रति इसि कहा 'मई सह मोकलाविउ, पणि नंदयंती प्रिया रति आवो हंती. तिणि करी मह मोकलावी नही । ते माहरा मन-माहि अपार खटकइ छइ ।' तिवारइ मित्रिई कहिउ, 'अजी कांई 'विपर्छ छइ ? पाछउ जई मिली आवि ।' तिवारइ समुद्रदत्त पाछउ वलिउ । अर्धरात्रिनइ समइ घरनइ बारणइ आविउ । पणि सुरपाल पोलीउ जावा न दिइ । तिसिइ समुद्रदत्तिई पोलीआनइ सर्व वात जणावीनइ कहिउं, 'एक वार माहि मूकि, जिम नंदयंती-प्रियानइ मिली आवउं । अनइ जउ न मानइ, तउ ए माहरी नामांकित मुद्रिका लइ ।' इम कही सूरपाल-पोलीआनइ आपणी नामांकित मुद्रिका दीधी । पछइ आपणइ घरि आवी बारणइ ऊभउ रही इम चीतवइ, 'जोर्ड, १.K विणठउं नथी । C. विणठउं छइ, पाछउ जा, मिली आबि । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुंदरगणि-विरचित प्रियानइ मनि माहरउ वियोग केतलउएक छइ ? किसिउं करइ छइ ?' इम प्रच्छन्न-वृत्तिई जु जोइ तु सिउं देखा? ते नंदयंती भरिनइ वियोगि जिम जल-विण माछली टलपलइ, तिम टलवलइ छइ । खिणि बइमइ, खिणि सूइ, खिणि ऊठइ, खिणि भुई पडइ । इम करतां किमही जंप न हुइ । वली हार-दोर त्रोडइ, समस्त अंग मोडइ, चंद्र चंदन अपारि दहइ, मुखि इम कहइ, 'दैविई मुझनइ एवडउ वियोग सिउं कीधउ ?' इम कही तिहां-यकी ऊठी घरनी वाडीइ गई । तिहां जई पंच-परमेष्टि-नवकार कही, देवगुरु स्मरी, सर्व जीव साथि खिमित-खामणां करी कहइ, 'हिवडां भरतार अणबोलाविउ चालिउ छइ । जु इणि भवि एहव स्वरूप हुउं, तु आवतइ भवि मुझनइ समुद्रदत्त भर्तार होज्यो ।' इम कही आपणा वस्त्रनउ पासउ करी वृक्षिई बांधिउ । तिहां भरतारना गुण वली वली स्मरी आपणइ गलइ जेतलइ 'पासउ घातिठ, तेतलइ समुद्रदत्ति आवी पासउ कापिउ । पछइ तिहां संभोगादिक सुख अनुभवी, गत्र रहो, प्रियानइ मोकलावी, पाछउ प्रवहणि आवी, प्रवहण खेडावी द्वीपांतरि चालिउ । हिव जे समुद्रदत्त रात्रिई घरि आविर, ते वात कोई न जाणइ । पणि तीणइ संयोगि नंदयंतीनइ गर्भ रहिउ । तेतलई माम च्यारि हुआ, पछइ उदर वाधिवा लागउं । तिसिइ सागरपोत-सुसराना मन-माहि एहवउ विश्लेष ऊपनउ, 'जहीइ समुद्रदत्त चालिउ तहीइ ए वधू तु रतिवंती हंती । तिणि करी विणमोकलाविई चालिउ । अनइ हिवडां जे ए गर्भ दीसइ छइ, तिणि करी इम जाणीइ, ए दुःशीला । तु ए वधू अम्हारा कुलनइ लांछन ऊपजाविसिइ । हिवइ ए राखिवा "युक्ती नहीं। चांडालिनी परिइं परिहरी जोईइ।' इम मन-माहि चीतवी, निर्दयपणउ आणी, मउडइ-सिउ नंदयंतीनइ रथि बईसारी, महा-वन-माहि लेई मूकी आविउ । तिवार-पछइ नंदयंती चीतवइ, 'मई तु अपराध काई नहीं कीघउ, अनइ है जे ईणइ स्वसुरह बीते कांड १इम विमाम्तो अचेत थई भुंइं पडी । लगारेक वाय वायउ, सचेत हुई। निराधार ती चीतवइ, 'हि वह माहरउ शील किम रहिसिइ ? इम चीतवी जेतलइ वन-माहि पासउ गलइ घातिउ, तेतलइ देवताइ पासउ कापि । तिहां हनी आधी चाली । सिंह व्याघ्र आवी नमी नमी जाई, पणि पाडूउ कांई न करई । पछइ पर्वत एक नई शंगि चडी, देवगुरुनउ ध्यान करी जेतलइ झांप दीधी, तेतलई देवताइ तलइ पल्यंक कीधउ । तिहां शासनदेवता, तनिध्य की । वली आगलि जाती चींतवइ, ह भरतारि छांडो, पिताई छांडी. न जाणी मझनइ अजी विधात्रा सिउ करिसिइ ? इम आपणपउ निंदती यूथभ्रष्ट हरिणीनी परिडं उपद्ध-परड फिरिवा लागी । ईसिई भरूच -नगरनउ अधिपति श्रीपद्मराजा मृगयात्रा-भणी नीलिउ हंतउ, तिणि ते बन-माहि नंदयंती दीठी । बहिन करी मानी । पछइ आपणइ नगरि आणी । कहिउँ, 'बहिनि ! जां-लगइ ताहरउ पति नावइ तां-तांई शत्रूकारि दीन-दुखित-लोकनइ दान दइ ।' पछइ नंदयंती दान देतो, धर्म-ध्यान करती, गर्भ पालती, भरिनइ स्मरती, रहइ छइ । हिव श्रेष्टि कहूनइ वन-माहि मूकी पाछउ घरि आवी, तिहां वहूना शीलनी वात सर्वकुटुंब-आगलि कहो । .. हिवइ अन्यदा सूरपाल प्रतीहार किसिई काजिई जिहां समुद्रदत्त छह तिहां गयउ हूंतउ । ते काज करी पाछ उ घर-भणी चालिवा लागउ । तिसिई तेहनइ हाथि समुद्रदत्तई आपणइ माता-पिता-प्रियानइ कई कांई अपूर्व वस्तु मोकली । ते लेई सूरपाल घरि आवी १K.पाश । २.K.P युक्त । ३K. छांडिवा योग्य । ४K.नथी । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालाघबोध १३३ I माबापनइ जूजूई वस्तु आपी । पछइ जउ नदयंतीनइ वस्तु देवा जाइ, तु नंदयंतीनइ न देखs | तिवार सूरपाल सागरपोत- कन्हंइ पूछइ, 'वधू किहां ?' इम पूछि सागरपोति वहूनी सर्व वात कही । तेतलइ सूरपाल रोतउ कहइ, श्रेष्ट ! तुम्हे गाढा वरास्या । ते तु महा पतिव्रता ।' कहिउं, 'सांभलउ, जहीइ समुद्रदत्त चालिउ हूंतु, तीणी जि रात्रि छानउ पाछउ आविउ । हूं तेहनइ माहि नहुत मूंकतु, पणि तीणइ नामांकित मुद्रिका मुझनइ आपी । आपण घर- माहि जई प्रियानइ मिली पाछउ वली प्रवहणि चडिउ । अनइ मूझनइ सम दीघउ हूंतउ, तेह-भणी मई न कहिउं ।' इम कही जेतलइ नामांकित मुद्रिका देखाडी, तेतलइ सागरपोत घणी असमाधि आणत, विलाप करतउ जि वधूनइ जोवा चालिउ । ईसिइ समुद्रदत्त पुत्र घण्ड लाभ ऊपार्जी आपणइ नगरि कुशलखेमइ आविउ । तिसिह ते स्त्रीनी वात सांभली वज्राहतनी परिहं महांत असमाधि करतउ इम कहर, 'प्रिया विना जीवन मइ सिउ करिवउं छइ ? हिव हूं काष्ट-भक्षण करिषु ।' तिवारइ मित्रइ कहिउं, 'एक वार सघले देसे जोई आवि । पछइ तु काष्ट-भक्षण करे ।' ए मित्रनुं वचन सांभली समुद्रदत्त गाम, नगर, वन, सहू जोतउ जोतउ जाइवा लागउ । तिहां संचल खूटइ सखाईंया पाछा गया । पछइ एकाकी फिरतउ नंदयंतीनइ स्मरतउ, कंदमूलफलाहार करतउ, महाकृश हूंतउ, फिरत फिरतउ भरुअचि अविउ । पणि क्षुधाइ पीडिउ द्वैतु भोजननइ हेति शत्रूकारि गयउ । तिसिइ दानशालाई दान देती नंदयंती दीठी । उलखी । अनइ नंदयंतीइ ते समुद्रदत्त उलखिउ । इम बिहुँनइ माहोमाहि हर्ष ऊपनउ । हिव नंदयंती आपणी वात कहिती रोवा लागी । तिसिई समुद्रदत्तइ आपणह हाथि करी आंसू लूहीया । पछइ प्रेममइ वात करिवा लागा । इसिइ राजाइ ए वात सभिली । राजा पणि तिहां आवी समुद्रदत्त-नंदयंतीनइ घरि लेई सर्व वात पूछी । एतलह सागरपोत अनइ सूरपाल बेहू भमता भमता तिहां आव्या । सर्व एकठा मिल्या । इम माहोमाहि वात करई छई । ईसिइ ज्ञानभानु केवली तिहां आवी समवमरिउ । गया । केवली वांदीनइ समुद्रदत्तइ पूछिडं, 'स्वामिन ! चडिउं ?" तिवारइ ज्ञानी कहइ, 'एहनइ जीवइ भवांतरि याग मांडिउ हूंतउ । तिहां महातमा एक भिक्षानइ अर्थि आविउ । तेहनइ कहिउं, "रे शूद्र ! तूं इहां किहां आविउ १" एहवउं दूषण दीघडं । तेतचइ एहनइ कुटुंचि सघले साचउं करी मानिउ । तिहां सामुदायक कर्म ऊपार्जिं । तेह-लगइ ए महासती इ हूंती पणि कर्म उदयि आविइ हूंतई ए कलंक पामिउ ।' तु केवली कहइ छइ, 'अहो लोको! अणआलोइ कर्मना विशेष-लगी जीव भवाटवीमाहि ईइ परि भमइ ।' एहवउ उपदेस सांभली, वैराग्य पर दीक्षानु मनोरथ चींतवता श्रावकड धर्म पडिवजी, जीर्णोद्धारादि पुण्य करी, भर्तार सहित नंदयती घणउ काल गृह-धर्म पाली, आऊखानइ क्षय देवलोक पहुती । क्रमइ मोक्षि जासिह । इति शीलोपदेशमाला - बालाविबोधे श्री नंदयंती कथा समाप्त ॥ ३४॥ * तिसिई समुद्रदत्तादिक सर्व वांदिवा नंदयंतीनइ कीणइ कर्मि ए कलंक अथ वली त्रीजी मनोरमा महासती, सुदर्शन श्रेष्टिनी कलत्र, सर्व - लोक प्रसिद्ध जि छइ । जेहना शील- महिमा - लगइ सुदर्शन श्रेष्टिनर एवडइ कष्टि पsिs, काउसग्ग कीधर शासन देवताई प्रत्यक्ष हूई संकट भांजिउं । तिहां महांत महिमा हुई । ते सुदर्शन श्रेष्टिनी कथा-ढूंती जाणिवी । मनोरमान नाममात्र कहिउं । हिव रोहिणीनी कथा कहाइ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुंदरगणि-विरचित [३५. रोहिणीनी कथा] पाडलीपुर नगर । तिहां श्री नंदराजा राज करइ । तिणि नगरि धनावह श्रेष्टि यसइ । तेहनी प्रिया रोहिणी, पणि रूपी करी सर्व जग - मोहिनी । १३४ अन्यदा श्रेष्ट रोहिगोनइ कहई, 'हे प्रिये ! जउ तूं कइइ, तर हूं प्रवहणि बइसी, देसांतरि जई, धन उपार्जी आवउं ।' तित्रारखं रोहिणीइ आदेस दीघउ । पछइ धनावह देशांतरि चालिउ । हिव रोहिणो त्रिकरण-सुद्ध शील पालती, धर्म ध्यान करती सुखिई रहइ छइ । इसिई उष्ण-काल आवि रोहिणी सखीए परिवरी आग्णा आवासनो सातमी भूमिकाई चडो हासु-विनोद करिवा लागो । तिसिई नंदराजा ई दीठी । निरूपम रूप लावण्य देखी राजा कामांध हूउ । पछ६ राज: इं रोहिणी-कन्हलि दूती मोकली । तिणि दूतीइं आवो रोहिणीनइ इसिउं कहिउ', 'देवि ! तूंहनइ कंदर्प तूउउ | कांई, तुझनइ राजा श्रीनंद वांछइ छइ । तु हिव तूं नंदराजानइ संगि आपण उ तु सफल करि ।' जिम ए बात सांभळी, तिम रोहेणी मन-माहि चीतवइ, 'सही, ए तां राजा निरर्गला माता हस्तींनी परिहं शीलरूपी वृक्ष उन्मूलिसिइ । तु मइ ए राजा उपाइ जि करी राखिव । पणि इहां कोई प्रण नही चालइ ।' इम विनासी दूत न मधुर वचने करी कहर, 'हे सखि ! स्त्रोतु सहजिइ सुभग पुरुषनी वांछा करइ । पछई वली विशेषिइ नंदराजा सरीखउ प्रार्थइ तु दूध-माहि सकर मिली । जु ए राजा आत्रणहार छइ, तु राति अविओ ।' इम कही फलफूल देई दासी विसर्जी । तिणि जई नंदराजा संतोषिक | पछइ राजाईं ते दिवस वर्ष समान गमाडिउ । तिसिह रात्रि आवी । राजा नंद शृंगार करी, सर्व लोक विखर्जी, नर्म- महुता सहित रोहिणीनइ घरि आविउ । तिहां चेटी-पाति आगतास्वागत कराविडं । पछइ राजा मनोरथ सहित सिंहासन जई बइठउ । तिसिह रोहिणी सालंकार साभरण राजा साम्ही दृष्टि देई रही, अनइ राजा रोहिणीनइ साम्हउं जोई रहिउ । जेतलइ राजा धीरमपणडे अवलंत्री कांई बोल्ड, तेतलइ सत्रीए कहिउं, 'स्वामी ! रसवती मज़द हुई ।' इम कही राजा आगलि सुवर्णमय थाल आणी मूकिउ । पछइ फलहुलि परीसी । तेतलइ नवनवे वस्त्रे ढांकी हांडली सउ एक आगलि आणी मूकी । रोहिणी परीसिवा लागी । तिसिइ राजा कहइ, 'सर्व हांडली-माहि-थकुँ थोडउं थोडउ परीसउ ।' जिम कोई तृषाक्रांत पाणी मागइ तिम नवनवी हांडिलीनी रसवती लिइ । पणि स्वाद एक जि देखइ । तिवारइ राजा कहइ, 'ए हांडिली नवी नवी दीसई, अनइ रसवती पणि जूजूई दीसई, पणि स्वादतां एक जि स्वाद आवइ छइ । अनइ ए जूजूए ढांकणे करी ढांकी छई ते कांई विशेष संभावीइ ?' तिवारई रोहिणी हसीनइ कहइ, 'राजन ! सर्व जाणवेत्ता माहि तूं धुरि छ, पणि इहां कांई कारण छइ ।' राजाइ पृछिउं 'किसिउं कारण ?' तिसिहं रोहिणी कहइ, 'जिम ए सर्व वस्तु जूजूई देखीइ छइ, पणि स्वाद एक जि, तिम संसार माहि स्त्री सर्व जूजूई जि छई । पणि केतली एक गोरी, केतलीएक श्याम, एक रूपवंति एक मध्यम रूपवंति । इम सर्व स्त्री जूजूई छई । पणि पवि-हुं-नउ संभोग-विशेष एक जि । जिम आकासि चंद्रमा एक, पणि पाणी-माहि प्रतित्रिंत्र जूजूआं देखीइ । जिम चंद्रमा एक जि तिम सर्व स्त्री स्वादिइ एकसरीखी, विशेष कांई नही । पण एतलउ विशेष जि स्वदार-संभोगनउ संतोष ते सन्मार्ग, अनइ परस्त्रीन ऊ संभोग ते असन्मार्ग । तु अहो राजन् ! इहलोक-परलोक- विरुद्ध किम इ नाचरी । विशेषत तुम्हे प्रजाना नाथ, पिता समान, सघलानइ आधारभूत छउ । अनइ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १३५ जे तुम्हे अन्याई चालउ, तु इम जाणीइ, अमृत-हूंती अंगारनी वृष्टि पडी । हे राजन् ! ए विषय-सुख नरकनी खाणि छइ । तेह-भणी तू आपणा कुलनउ आचार स्मरि । अन्यायमार्गि म चालि ।' इणि व वनि राजा प्रतिबोधिउ हूंतउ रोहिणीने पगे लागी, आपणउ अपराध खमावी नइ कहइ. 'हे भाद्र ! दुराचारना अदेखना देणहार घणा इ हुई, पणि हितोपदेश विरलु कोई दिइ । आज-पछइ तूं माहरइ भगिनी अनइ माहरी गुरुगी पणि तं, जे नरग माहि पडतउ तई राखिउ ।' पछइ नंदगजा आपणइ घरि आविउ । इसिइ धनावह श्रेष्टि द्वीपांतरहंतउ धा ऊपार्जी घरि आविउ । तिसिइं रोहिणीइं आगता-स्वागत कीघउं । पछइ नंदरायनउ सर्व वृत्तांत चेडीना मुख-इतु सांभली धनावह सेठि चीतवइ, 'ए रोहिणीनुरूप-लावण्य अमृत तेहनी कूई। ए एकांति राजाई विण भोगवी किम मेल्ही हुसिइ १जिम ऊधाडउ करपउ काग-वसि पडिउ हूंतउ अण नाखिउं न मूकइ। वली बिभुक्षितनइ मुखि सरस फल आविउं अणचाखिउं न मेल्हइ । तिम एकां ते रूपवंति स्त्री पुरुषनइ वसि पडी हूंती अणभुक्त न जाइ ।' एवउ विकल्प मन-माहि चीतवी धनावह रोहिणी-साथि न बोलइ । सचिंत थकउ रहइ । इसिइ रोहिणीइ चतुरपणइ भरिन अभिप्राय जाणिउ । तिहां धनावह पणि रात्रिई अणबोलिउ रहिउ । इसिइ मेघ अखंड-धार मुसल-प्रमाण धाराइ करी वरसिवा लागउ । वली सात दिन-माहि धार न 'खंडी । तिसिइ गंगानदी महा-पूरि आवो। समस्त पाडलीपुर नगर वाहीवा लागउं । तेतलइ राजा-प्रमुख सर्व लोक मिली कहइं, 'ते कोई छइ जे नदीनउं पूर वालइ तिवारई रोहिणी प्रस्ताव जाणीनइ अावी । पछइ राजा, भर्तार देखतां, सर्वलोक-प्रत्यक्ष, हाथि पाणी नवकारनउँ स्मरण करी कहिवा लागी, 'हे गंगे ! ज मइ मनि वचनि कायाइ करी सुद्ध शील पालि हइ, तु नदि ! तूं माग दइ । पाछी उहटि ।' इम कही जेतलइ पाणीनी छांट घाती, तेतलइ तत्काल नदी पाछी वली। तिसिइ सहू लोक जयजयारव करता, देवता ए कुसुमनी वृष्टि कीधी। तिवारइ भरिनइ मनि विश्लेष ऊतरिउ । पछइ सघले शीलनी महिमा विस्तरी । तिसिई घणे लोके परस्त्रीनउ नीम लीधउ | वली मिथ्यात्व-हंता घणा लोक निवा । विशेषत जिन धर्मनी ख्याति हई। पछइ रोहिणी-राजा-सहित चैत्य-परिवाडि करी रोहिणीनइ घरि आव्या । तिहां धनावहि शीलनी महिमा देवो, सर्व संतोषिउ । इम रोहिणो जिन-शासनि प्रभावना करो, काल धर्म पाली, देव-लोक गई। ॥ इति रोहिणीनी कथा ॥३५।। हिव शीलवंत मनुष्यनउ संसर्ग बहु गुण-दायक हुइ । ते कहोइ___ सील कलिएहिं सद्धिं संगो वि हु तग्गुणावहो होइ । कप्पूरं सई झत्त(?त्थं) पि कुणइ वत्थूण सुरहित्तं ॥७ व्याख्याः -जे मनुष्य शील-कलित कहीइ, शीलई करी सहित हुइ सुसील हा इसित अर्थ । तेह मनुष्यन उ संग-संबंध गुणकारक हुइ । कांई ? ते ही मनुष्य सुशील हुइ, परन दष्टांति । जिम कपूरनउ संसर्ग कीघउ हूंतउ सयर अनइ वस्त्र बिहुनइ आपणइ परिमलि करी सुगंध करइ, तिम शीलवंतनउ संसर्ग करतां, करणहारसइ शीलादिक गुण ऊपजई । जिणि कारणि वली कहिउं, १.K. खांची, A.B. खंची, Pu. खंडी । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुंदरगणि-विरचित . जो जारिसेण संगं करेइ अचिरेण तारिसो होइ । . कुसुमेण सह वसंता तिला वि तग्गंधिया जाया ॥१॥ एह-भणी शीलवंतनउ संसर्ग करिवउ, कुशीलनउ संमर्ग न करिवउ । हिवइ एक शील-गुणपाखइ बीजा सर्व गुण - फोक थाई। ते कहइ... सयलो वि गुणग्गामो सीलेण विणा न सोहमावहइ । नयण-विहूणं व मुहं लवण-विहूणा रसवई व्व ॥५८ व्याख्याः -नय-विनयादिक सघलाइ गुणग्राम-गुण-समूह, शील-पाखइ शोभा न पामइ, सुखनइ दृष्टांति । जिम मुखि भला कपोल, राता होठ, लंब कर्ण, गौर वर्ण, सुकुमाल शरीर, भली दाढी-इत्यादि भला हुइ पणि एक आंखि विना जिम मुख न शोभइ । वली दृष्टांत कहइ, जिम समस्त रसवती मिष्ट, मधुर, गविल, तिक्तादि संपूर्ण-रस-सहित हुइ, पणि जउ एक माहि लवगरस न हुइ तु लगारइ स्वाद न दिइ, तिम अनेश समस्त गुग लिगुग-विण शोभई' नही । अन३ किवारइ शरीर-माहि बीजा गुग न हुई, एक शील जि गुण हुइ, तउ जाणे सर्व गुण हुआ। हिवइ शील-लगइ इह-लोकि हि प्रत्यक्ष फल हुइ ते कहइ विस-विसहर-करि-केसरि-चोरारि-पिसाय-साइणी-पमुहाः । सव्वे वि असुह भावा पहवंति न सीलवंताणं ।।५९ - व्याख्याः -विष थावर-जंगम-रूप, विषधर-अजगरादि सर्प, करि मदोन्मत्त हस्ती,केसरि= सिंह व्याघ्रादि, चो=तस्कर, अरिरि, पिशाच-भूतप्रेत, झोटोंग-गोगा-प्रमुख, शाकिनी=शीकोत्तरीप्रमुख नव कोडि कात्यायनी-ए सघलाइ मारणात्मक अशुभ पदार्थ छई, पणि शीलव्रतधारोनइ प्रभवई नही, कांई उपद्रव करी न सका। हिवइ शीलवत आदरीनइ इंद्रीना वाह्या हूंता शील मेल्हई, शील भांजई तेहनूं स्वरूप कहइ सील-भट्ठाणं पुण नाम-ग्गहणं पि पाव-तरु-बीयं । जा पुण तेसिं तु गई तं जाणइ केवली-भयवं ॥६० व्याख्या :--जे जीव शील-हृता भ्रष्ट थाई तेहy नामग्रहण पणि पाप-तरु-बीज हुइ । जिम बीज वृक्षनइ ऊपजावइ, तिम कुशीरन नामग्रहण पाप ऊपजावइ । अनइ जे वली शीलभ्रष्टनी गति संसार-माहि परिभ्रमण-रूप, ते केवली भगवंत जाणइ । अनेरउ को जीव सकइ । कही पणि न सकई, अति रौद्र-पापपणा लगइ । एतलइ गाथार्थ हूउ । हिव वली शील-भ्रष्ट जीवनइ इह-लोकइ पर-लोकि जे फल हुई ते बिहुँ गाथाए करा कहइ बंधण-छेयण-ताडण-मारण-पमुहाई विविह-दुक्खाई । इह-लोए वि जहा थिरमजसं पावंति गय-सीला ॥६१ दालिद-खुद्द-वाही-अप्पाउ-कुरूवयाई असुहाई । 'नरयताइ वि वसणाई गलिय-सीलाण पर-लोए ॥६२ १. Pu. मरणंता । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १३७ व्याख्या :--शीलना भंग-लगई जीव इह-लोकि बंधन-रांदु-लोहना-बंधन इत्यादि पाम। छेदन कर्ण-नासिकादि, ताडन शस्त्रि करी, मारण लकुटादिके, खङ्गादिके करी, प्रमुख बीजी इ नानाविध कदर्थना सहावीइ । वली इहलोकि अयश-अपकीर्ति एवमादिक प्रकार लहइ । अनइ मूआ पूठिइ परलोकि दालिद्र हुइ । क्षुद्र व्याधि, अल्पायु, कुरूपता, वामणा, कूबडा, टूटा, पांगुला, अशुभ 'नपुंसका, नरक, तिर्यंचादि-गति-प्रमुख अनेक कष्ट व्यसन लहइयामइ । जोड, शील-भगइ इह-लोकि पर-लोकि एवडा कष्ट भोगवीइ २ । हिव शील-भ्रष्ट कूलवालूआनउ दृष्टांतपूर्वक फल कहइ-- निरुवम-तव-गुण-रंजिय सुरो पि सो कूलवालुओ साहू। मागहिया-संगाओ गलिय-वओ पाविओ कु-गई ॥६३ व्याख्याः -निरुपम असामान्य जे तपगुण, तिणि करी रंजव्या सुर-देवता जीणइ इसिउ, ते कुलवालूउ मुनि मागधिका गणिकाना संसर्ग-लगइ गलित-व्रत भग्नशीलवत हउ । इह-लोकि पतित हूउ अनइ परलोकि नरकादि कुगति पामो । एतलइ गाथानउ अर्थ हूउ । भावार्थ कथाहंतु जाणिवउ । ते कूलवालूआनी कथा कहीइ-- [३६. कूलवालूआनी कथा ] कीणइ एकि नगरि कोई एक आचार्य क्षमावंत हुआ । ते आपणा गच्छनइ पालई । हिवइ जिम श्री-महावीरनइ गोसालउ कुशिष्य, तिम ते गुरुनइ कुशिष्य एक सांपडिउ, गुरुनइ उदेशकारक दाविनीत, गुरुनइ प्रतिकूल । तेहनइ गुरु घणोइ सारणावारणा दिई. पणि ते कशिष्यनइ गमइ नही । इम सदा-इ ते गुरु-ऊपरि पाप बांधइ । अन्यदा गुरु यात्रा-भणी श्री. गिरिनारि पर्वति चडया । तिसिइ ते कुशिष्य चपल-लोचन भावइ तिहां सुख जोतउ देखी गुरे रीस कीधी । पछइ चेलउ डंस राखी रहिउ । गुरु जिवारइ पाछां ऊतरिवा लागा, तिवारइ केहिइ गडउ एक गुरु-भणी ढोली दीधउ | तिसिई गुरे ते पाषाण आवतउ जाणी, गुरु टली अलगा हुआ । गडउ वही आघउ गयउ। गुरु रीसाणा हूंता कहई, 'रे कुशिष्य ! तूं स्त्री-हूंतउ पतित थाए ।' पछइ ते शिष्य गुरुवचन कूडउं करिवा-भणी चीतवइ, 'हूं तिहां रहिसु, जिहां स्त्रीनउं नाम-मात्र नही सांभलउँ ।' इम चीतवी नर्मदा-नदीनइ कूलि जई मास-क्षपणादि तप तपतउ काउसगि रहिउ । तिसिइ वरसालइ नदीनउं महा-पूर आविउं । तेतलइ नदीनी अधिष्टायकई प्रमाणि प्रवाह टालिउ । तिहां लोक-माहि कूलवालूउ महात्मा ए नाम विख्यात हउ। हिवइ तिणि प्रस्तावि हार-कुंडल-वस्त्र-सहित सेचनक हस्ती श्री.श्रेणिक राजा हल्ल-विहल्लनई दीघउं । तेतलई श्रेणिकराजा परोक्ष हूउ । पछइ कोणिक राजि बइठउ । पणि श्रेणिकनी असमाधिई नगर-माहि रही न सकइ, बाहरि जई रहिउ। तेतलई प्रघाने बुद्धि दीधी । तिहां चंपानगरी वसावी । पछइ कोणिक कालादिक दस कुमार सहित तिहां रहिउ । पद्मावती पट्टराणी कीधी । ते राणीना आग्रह-लगइ कोणिकइ हल्ल-विहल्ल-कन्हई हार-कुंडल माग्यां । तिसिई हल्ल-विहल्ले विमासी, सार वस्तु लेई, रतोरतिइं विशालनगरीइ आव्या । तिहां हल्ल-विहरूलनउ नानउ घेडड राय राज्य करइ छ । तिणि हल्ल-विहल मान देई राख्या । तिसिइं प्रभाति कोणिक वात १K. नपुंसकता । २ C. भोगवावीई, K. भोगवावीइ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ मेरुसुंदरगणि-विरचित सांभली चौंतवइ, 'तां भाई तु गया अनइ रत्न इगयां । जु मई ए वात पडिवजी, तु हिव हूँ पाछी किम मूकडं ? वरि कटक करीनइ ए रत्न लेई आवउं।' इम चीतवी दूत मोकली चेडारायनई कहाविउ जु, 'हल्ल-विहल्ल बेहं उरहा' मोकलिओ ।' तिवारइ चेडउ राजा दूतनइ कहइ, 'अहो दूत ! ए माहरा दोहीत्र शरणइ आव्या, ते मइ किम देवराई ?' इम कही दूत पाछइ वालिउ । तेतलइ कोणिक सिंहनी परिई रीसाणउ हूंतउ कटक मेली विशालानगरी-भणी आविउ । तिवारइ चेडउ राजा पणि सामुहउ आविउ । हिवइ चेडारायनइ परिग्रह-परिमाणि एक जि बाण नांखिवानउ नीम छइ। इसिइ पहिला दिनि कोणिका आपणउ भाई काल इसिइ नामि सेनानी कीघउ । तिहां झूझनइ समइ चेडारयनइ एक-इ बाणि परोक्ष हउ । वली बीजइ दिनि बीजउ भाई हणिउ । इम चेडइ राय नवे दिहाडे नव भाई कोणिकना हण्या । तिहां कोटि-संख्य सेभट पडया । किहांइएक एहवी संख्या दीसइ छड जउ, एक कोडि असी लाख एतला सुभट पड्या । एहवउ महा-अरिष्ट झूझ हूउं । हिवई रात्रिन समइ हल्ल-विहल्ल सेचनकि हाथीइ बइसी नीकलई, अनइ कोणिकनउं. कटक हणी पोछा आंवई । इम करतां कोणिक घणाइ उपाय करइ, पणि हल्ल-विहल्ल किमहि वसि नावइ । पछइ कोणिकइ खाई एक 'खणी, खयरना अंगार भरी, छोनी ढांकी मूकावी छइ । इसिइ तिम जि गत्रिइ हल्ल-विहल्ल सेचनकि बइसी आव्या। तिसिइ हल्ल-विहल्ले सेचनक प्रेरिउ । पणि सेचनक आगि जाणी आघउ पइसइ नही । जिवारइ बलात्कारि हाथीउ प्रेरिउ, तिवारइ हाथोई सूढिइ करी हल्ल-विहल्ल पूठि-हंता ऊतारी आपणि खाई-माहि पडिउ । तेतलइ आगि प्रकट हुई। पछह हल्ल-विहल्ल उरता करता दीक्षानी वांछा करिवा लागा । इसिइ श्रीशासन-देवताइ ऊपाडी श्रीमहावीरनइ समोसरणि मक्या । तिहां तीणे दीक्षा दीधी । हिवइ कोणिक विशाला लेई न सकइ । तिवारइ वली कोणिकइ एहवी प्रतिज्ञा कीधी, हूँ तु कोणिक, जु विशालनगरी-माहि रासभी जोतरी हल खेडावडं । नहीं तु अग्नि-माहि प्रवेस करउं।' इसी प्रतिज्ञा कीधी, तुही गढ लेवराइ नही । तिवारइ कोणिक मन-माहि विखवाद करिवा लागउ । तिसिई शासन-देवताई गुरुनउ प्रत्यनीक कूलवालूउ जाणी, रीसाणी हंती, आकाशि रही एहवी वाणी बोली 'समणे जइ कूलवालए मागहिआ गणिआ य आणए । राया य असोगचंदए वेसालिं नगरिं गहिस्सए ॥१॥' एहवी गाथा सांभली कोणिक राजा हर्षिउ । कांई ? देवतानी वाणी निःफल न हुइ । पछइ राजाई मागधिका वेश्या तेडी वस्त्र-अलंकारे सत्कारीनइ कहिउं, 'हे भद्र ! कूलवालूउ मुनि भोलवी इहां आणि ।' तिवारई वेश्याइ ए वात पडिवजी । पछइ कपट-श्राविका हुई, तेवडतेवडी पांच-सात सखी साथि लेई, संघनी रनना करी, तीर्थ नमस्करती. जीणइ प्रदेसि कूलवालूउ मुनि छइ तिहां आवी । भावना-पूर्वक मुनि वांदी, आगलि बइठी । तिसिइं मुनिइं धर्मलाभ कही पूछिउं, 'तुम्हे किहां-हूंता आव्या ?' तिवारइं मागधिका कहइ, 'नाथ ! अम्हे चंपानगरी हूंता तीर्थ नमस्करता नमस्करता इहां आव्या। तु आज अम्हे जंगम-तीर्थ मेटिउं । महात्मन् ! हिव अम्ह-ऊरि कृपा करी बइतालीस-दोष-विशुद्ध आहार छ। ते आज तू लइ ।' १.K. अत्र । २. 'खणी' पाठ मात्र K. मां ज छे. ३. K. आषत गमन करइ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध पछइ मुनि घणइ आग्रहि फासू जाणी विहरवा आविउ । हिव मागधिकाइ पूर्विइ नेपालगोटे मिश्रित मोदक करी मूक्या छई। तेह्वा ते मोदक विहराव्या । पछ। मुनि एकांति जई जेतलइ कीघउं. तेतलह 'विरेच लागउ । तीणइ अतीसारि करी रात्रि मोटइ कष्टि गई। तेतलाई प्रभाति मागधिका आवी कहइ, 'ए दोष मुजकृत हूउ ।' इम कहती सारशुद्धि करिवा लागी । वली कहइ, 'अम्हारउ चालणउ रहि । कांई ? मुनिनइ ए अवस्था हुई हूं किम छांडी जाउं ?' पछइ अंगनी संवाहनां करिवा लागी । इम संकटि पाडी हावभावे करी तिम-किमह मुनि भोलविउ, जिम भर्तार-भार्यानउ संबंध हउ । जोउ मोहन विलसित । जिम क्रीडामर्कट दोरीइ बांघिउ भावइ तिहां लीजइ, तिम ते कुलवालूउ मुनि मागधिका वेश्याई कोणिककन्हलि आणिउ । पछइ राजानइ कहइ, 'ए कूलवालूउ मइ पति करी आणिउ छइ ।' तिसिह राजा क्लवालू आनइ कहइ 'अहो मुनि ! तिम करि जिम ए विशाला लेवराइ ।' पछइ मुनि विशाला-माहि जई नगरना चरित्र जोइवा लागउ । जु जोइ तु नगर-माहि राजानइ सबलाई कांई नथी । पणि श्री-मुनिसुव्रतस्वामिना स्तूपनी सबलाइ दीठी । ते थूभनी प्रतिष्टा मूल पुष्पार्कि मोटइ योगि हुई छ। तिणि करी जउ इंद्र आवइ तु ही ए नगरीन लेवराइ । एहवउं कारण जाणी कांई विचारइ तेतलइ नगरना लोक, राजा सहू आवी मुनि-कन्हलि पूछइ, 'अहो! अजी विग्रह केतलाएक दिन होसिइ ?' तिवारइ मुनि कहई, 'जां नगर-माहिए स्तूप छइ, "तां-लगइ गढ-रोहउ होसिइ ।' कहिउं, 'जु ए खणी लांखउ, तु हिवडां इ गढ-रोहउ भाजइ । तेतलइ लोक कुसि-कुदाला लेई थूभ खणिवा लागा । कहउ, धूर्तिइ कउण-एक भोलवीइ नहीं ? पछइ तीणइ कोणिकनइ इसिउं जणाविउजु, 'तूं कटक लेई कोस बि अलगउ जाए, जिम एहनइ प्रत्यय ऊपजइ ।' पछइ कोणिक बि-कोस ताइ पाछउ गयउ । तिवारइ लोके साचउ प्रत्यय जाणी स्तूप मूल-हूंतउ खणी नांखिउ । तिसिइं अधिष्टायक नगरनइ छोडी. गया । पछइ बारमा बरसनइ अंति कोणिकइ विशाला नगरी लीधी। तीणी वेलाइ जे संग्राम हउ ते संग्राम ईणइ उत्सर्पिणीइ न हुत उ हूउं। पछइ कोणिकि चेडानइ नीकलीनइ कहिउं, 'हे नाना ! हिव तूं जि काई कहइ ते हूं करउ !' तिवारइ चेडउ कहइ, 'जेतलइ हूं वाविई स्नान करी आवर्ड, तेतलइ त् नगर-माहि मावेसि ।' इम कही पछइ चेडइ राजाई स्नान करी आपणइ कंठि प्रतिमा बांधी जेतलइ वावि-माहि झांप दीधी तेतलई धरणे द्रई आवी, चेडाराजानइ साहम्मी-भणी लेई, आपणइ स्थानकि गयउ । तिहां चेडउ राजा अणसण लेई, आराधना-पूर्वक मरण पामी, आठमइ सहस्त्रार देवलोकि देव हउ। एहवइ चेडारायनउ दोहीत्रु सुजेष्टानु पुत्र सत्यकी एहवइ नामि विद्याधर छइ । तिणी आवी ते विशालानउ सर्व लोक नीलवति पर्वति लीधउ । पछइ कोणिकि नगरी-माहि जई, हलि शसभ जोतरावी. विशालानी भूमिका खेडी, कउडां वावी प्रतिज्ञा पूरी कीधी । पछइ अशोकचंद्र राजा आपणई नगरि पाछउ आविउ । अनइ कूलवालूउ ऋषि मागधिका वेश्यानइ संगि शीलमी खडना करी अनेक भव संसार-माहि मिउ । इति श्री शीलोपदेशमाला-बालाविबोधि कूलवालूआनी कथा ॥३६॥ हिवइ तु (जु) विषय-सुखरसिक जीव, तेहनइ तप इ निरर्थक, ते कहइ - १. K. रेच २ C.L. चलाण, K. चालिवउ । ३. Pu. अवस्था हुई केम । ४. K. तां-लगइ ए विग्रह नहीं भाजइ । तेतलइ लोक कुसि......... Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० मेरु सुंदरगणि-विरचित समणी विहु विसय-रसा पुव्व भवे दोवई कम - नियाणा । सिवदायगं पि हु तवं मुहाई हारिंसु ( ? ) ही मोहो ॥६४ व्याख्या : - द्रुपदी = दुपद राजानो पुत्री अनइ पांडवनी कलत्र । द्रुपदी पूर्विलइ भवांतरि सागरदत्त श्रेष्टिनी पुत्री हूंती, ते पुत्री श्रमणी महासति हुई । पछइ विषयरस = लोलपता - लगइ नियाणउं बांधिउं । ते नियाणा-लगइ आपणउं तप मुहियां हारविउ । जिणि कारणि बाटी-वडइ अरहट वेचिउ । जिम' कोई दोरीनइ काजि वैदूर्य-मणि भाजइ, लोह - खंडन की इ. प्रवहण भांजर, तिम तीणी महासतीइ भोगनइ काजि मोक्ष-दायक तप मुहियां हारविउं । एतलइ गाथार्थ हुए । हिवs द्रुपदीनी कथा कहीइ- [ ३७. द्रुपदीनी कथा ] चंपानगराई त्रिणि ब्राह्मण-सहोदर, सोमदेव, सोमभूति, सोमदत्त - इणि नामिई वसई । ते त्रिहु नी ए त्रिणि प्रिया - नागश्री १, भूतश्री २, यक्षश्री ३ । ए त्रिहद्द आपणइ आपणइ वारि रसवती करइ अनइ सर्व कुटुंब एकठउं भोजन करइ । इम एक दिनि नागश्रीइं आपणइ वार व्यंजन सहित रसवती कीधी । पणि ते व्यंजन माहि अजाणपणइ कडूई तूंबडी पचाणी । पछइ संपूर्ण पाकनइ अंति रसवती चाखतां ते कडूई तू बडी सर्प-दृष्टनी परिइ अनिष्ट जाणी । तुम्ही लोभ- लगइ लांखी नहीं, एकांति राखी मूंकी । पछइ कुटुंब सर्व जमाडिउं । जेतलह भर्तारदेवर जिमी बाहर गया, तेतलइ उद्यानि वनि धर्मघोषसूरि ज्ञानी समोसरिया । हिवइ तेह-माहि एक धर्मरुचि महात्मा माखक्षपणनइ पारणइ नागश्रीनइ घरि विहरवा आविउ । तेतलइ नागश्रीइ दुर्गति पडिवा-भणी महात्मानइ कडुडं तूंबडउं दीघउं । तिणि महात्माइ ते गुरुनइ आणी देखाडिउं । तिसिईं गुरे वत्सलपणा - लगइ कहिउं, 'ए तू'बडउं नागश्रीइ तुझन दीघउं, पणि तूं म लेजे, किहांइ प्रासुक भूमिकाई लेई परिठविजे ।' एइवउ गुरूनउ आदेस पामी धर्मरूचि नगर बाहरि परिठविवा गयउ तिहां परिठवतां बिंदु एक भूमिकाई पडिउँ । तिहां कीडी आवी । जे जे कीडी बिंदुइ लागइ, ते मरइ । ते देखी चोंतवइ, 'जु एकणि बिंदुइ एवडी कीडी मूईं छई, तु सर्व परिठवतां न जाणीइ केता जीव परिसिई ?" इम चींतवी आराधना-पूर्वक ते कडूउं तूं बडउ धर्मरुचि - महात्माई ४ लीघउँ । लेतां समान मरण पामी सर्वार्थसिद्धिइं पहुतउ । तिसिहं गुरु वाट जोई जु, 'अजी धर्मरुचि नावइ ।' पछइ गुरे बि महात्मा मोकल्या । तीणे धर्मरुचिनउं स्वरूप जाणी गुरुनइ आवी कहिउं । तिवारई गुरे महात्मा - आगलि सर्व वात कही । ते वात कीणइ प्रकारि सोमदेवादिके जाणी, नागश्री ऊपरि रीसाणा । पछी सोमदेवि नागश्री घर-हूंती काढी । तिहां लोके गरहीती-निंदीती जाती हूंती ज्वर - खास "स्वास-अतीसारनी बेदना अनुभवती, क्षुधा तृषा सहिती, रौद्र ध्यान लगइ मरी छठी नरग पृथ्वीइ गई । तिहां हूंती मत्स्यनइ भवि गई । वली सातमी नरग पृथ्वी, वली मत्स्यनई भवि, इम सघले नरके भमी । पछइ वली पृथ्वीकायमाहि भी । इम गिरि - सरिदुपल-न्यायि करी कर्मना लाघव इतु नागश्रीनउ जीव भमी भमी चंपानगरीइ सागरदत्त - श्रेष्टिनी भार्या सुभद्रा, तेहनी कुखिह सुकुमालिका एहवइ नामि पुत्री हुई । सर्वत्र 'द्रौपदी' पाठ छे. ६. K. छ- काय माहि १. K. जिम कोदिरा नई काजिई वैडूर्य मणि भाजइ । २. K. मां ३ K. शिवाय 'परठवा' । ४. K. वावडिं । ५ Pu. K. कास, ७. K.C. सत्र 'सुकुमारिका' पाठ आपे छे. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला घालावबोध १४१ इसिई तीणइ जि नगरि जिनदत्त श्रेष्टि, भद्रा प्रिया, तेहनउ पुत्र सागर सर्व-गुण-संपूर्ण छइ । इसिह अन्यदा जिनदत्त-श्रेष्टिडं ते सुकमालिका महा-रूपवंती दीठी । ते देखी चीतवइ, 'सही, ए कन्या माहरा पुत्रनइ योग्य छइ ।' इम विमासी साजन मेली सागरदत्त-कन्हलि सुकुमालिका पुत्री मांगी। तिवारइ श्रेष्टि कहइ, 'पुत्री तउ वरनइ दीधी जि जोईइ, पणि पुत्री-विण हूं एक घडी रही न सकउं । तेह-भणी जउ घरजमाई थाइ तु पाणिग्रहण करउ ।' सेठिइ ए वात पडिवजी । पछइ मोटइ विस्तारि पुत्रनउं पाणिग्रहण हूउं । तिहां सागरनइ हाथ-मेल्हावणीइ घणउं धन दीघउं । पछइ सागरिइं सर्व भोगांग-सामग्री मेली सिज्याइ स्त्रीनई विषइ एकत्र संयोग कीघउ । तेतलई पूर्वकर्मना उदय-लगइ जिम अंगार ज्वलइ, तिम सुकुमालिकानउ शरीर ज्वलतउं जाणी सागर भयभीत हूंतउ रात्रिनइ समइ नासी गयउ। तिसिइ प्रभाति जागी हूंती, भर्तार गयउ जाणी, यूथ-भ्रष्ट कुरंगीनी परिई सुकुमालिका रुदन करिवा लागी। तिसिइ ए वात पिताई सांभली, जिनदत्त श्रेष्टिना कहिउ । तिवारई जिनदत्ति आपणउ सागर पुत्र गाढउ 'हटकिउ, 'अरे निर्लज्ज ! ए भला कुलनो पुत्री तूं किम छांडइ ? रूडी अनइ पाडूई इ अंगीकार कीधी किम परिहराइ ? इणि कारणि तूं जईनई आदरि, सगपण म भांजि।' तिवारइ सागर पुत्र कहइ, 'वरि हूं कूद पडउं, पणि ए सुकमालिकानइ नादरउ ।' ए वात सागरदत्तइ भीतिनइ आंतरि थकउ सांभली पुत्रीनइ कहइ, 'वत्सि ! ते सागर तिम किमइ विरतउ हउ, जिम ताहरउ नाम न सांसहइ। तु वरिस ! असमाधि म करि । वली बीजउ को वर जोई सिइ ।' इम कही श्रेष्टि गउखि बइठउ बइठउ वर जोइ छइ । इसिइ भीखारी एक दीठउ । पणि कहाउ ? एक खापर हाथि छइ, माखी भणहणाट करतउ, कुतिपत, यौवनावस्थाइ संप्राप्त, वली कक्षाट जि परिग्रह, साक्षात्कारि दालिद्रीमूर्ति । एहवउ ते घर-माहि तेडी, अभ्यंग-उद्वर्तन करावी, चंदनइ लेपी, दिव्य वस्त्र पहिरावी, सागरदत्त कहिवा लागउ, 'ए माहरी पुत्री सुकुमालिका । तेहनइ परणी घणी लक्ष्मी विलसि ।' इम कहिइ इंतइ ते भिक्षाचर स्वर्गवास-समान श्रेष्टिनउ घर मानतउ घर-जमाई थई रहिउ । एहवइ ते सुकुमालिका शंगार करी वासघर-माहि आवी । पछइ जेतलइ ते स्पर्श करवा लागउ, तेतलइ ते अग्निदाह-समान । राक्षसीनी परिई सुकुमालिका नइ मानतउ ते भिक्षाचर खापर लेई रात्रिई नाठउ। तेतलइ वली प्रभात पुत्री रोती देखी पिता कहइ, 'वत्सि ! ए भवांतरना कर्मनउ विपाक । तूं असमाधि म करि । कर्म आगलि कोई न छूटइ । तेह-भणी हिव तू दान दिइ, संतोष आणी माहरइ घरि सुखद रहा।' पछइ सुकुमालिका आपणउं कर्म भोगवती पितानइ घरि थकी रहइ छइ । इसिइ अन्यदा महातमा एक विहरवा आविउ । तिवारइं प्रासुक अन्नि करी महातमा पडिलाभिउ । तिणइ महातमाइ वलतउ धर्मोपदेश तिम दीघउ, जिम वैराग्य-लगइ तीणी सुकुमालिकाई ते महातमा-कन्हलि चारित्र लीधउं । जिम निधन मनुष्य माणिक्यनइ पालइ, तिम ते चारित्र पालिवा लागी। घणा तप तपो, एकदा विशेष तपनी वांछाई गुरुणीमइ प्रणमी इसिउं पूछइ, 'भगवति ! जिम महातमा वन-माहि रही उग्र तप तपई, तिम इ पणिं वन-माहि जई तप करिस ।" तिवारई महासती कहई, 'महानुभावि ! पुरुषनई वनवासि रही तप करिवठं वीतरागे कहिउ छइ । पणि संयतीनइ नही । तु ही सुकुमालिका न मानइ । गुरुणी घणउं इ १.K.हाकिउ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ मेरुसुंदरगणि-विरचित वारइ पणि कदाग्रह न मूकइ । पछइ वनवासनी तुलना करिवा-भणी एकली नगर-समीपि जे वन छइ, ते वन-माहि जई उग्र तप करिवा लागी । हिवइ एकदा वसंतऋतई देवदत्ता गणिका पांचे पुरुषे परिवरी तेह जि वन-माहि आवी क्रीडा करिवा लागी। एक पुरुष पग तलहांमइ, बीजउ वोजणइ वाय घातइ छइ, त्रीजउ पानना बीडी करी मुखि दिइ छइ, च उथानइ उत्संगि सुति छइ, पांचमउ पाणी पाइ छइ-इम पांचे विट पुरुषे देवदत्ता गणिका सेव्यमान । पांचइ लालि पालि करतां देखी सुकुमालिका चर्चीतवइ, 'एक हूं स्त्री जोउ, जे मई बि वर परा अनइ ते बेइ वर रात्रि मूनइ मेल्ही नाठा । अनइ एकि बापडी स्त्री जोउ, जेहनइ पांच पुरुष लालिपालि करई छई, तु ही ए बोल नहीं देती । तु हिव जु माहरा तपर्नु प्रमाण छई, तुहूं भवांतरि पांचे भरतारे सेव्यमान हूजिउ ।' इम कामभोगाभिलाषिणीइ निआणउं बांधिउं । तिहां आपण उ तप वेचिउ । जु ए तप न वेचत, तउ तीणउ जि भवि तपनइ प्रमाणि मोक्ष जाअत । हिक ए निआणउं अणआलोइ 'अद्धमासनी संलेखना करी तर तपती हुइ उपाश्रयि रही । तिहां-थको मरी नव पल्योपमनइ आऊखइ सौधर्मइ देवलोकइ देवी हई । तिहां-हती चिवी कांपिल्य-पुरनउ अधिपति द्रुपदराजा, तेहनइ घरि द्रुपदो एहवइ नामि महा-रूपवति कन्या हुई । क्रमिइ यौवनपणउं पामिउं । तिवारइ द्रुपदराजाइ पुत्रिकाना पाणिग्रहण-भणी स्वयंवरा-मंडप मंडाविउ । तिहां गधावेधविद्या मांडी । सर्व राजा दूत मोकली मोकली तेडाव्या । तिहां पांङ राजाना पुत्र युधिष्ठिर १, भीम २, अर्जुन ३, नकुल ४, सहदेव ५-ए पांचइ पांडव महारिद्धिनइ विस्तारि आव्या । तिसिई द्रुपदी सालंकार, साभरण, स्नान करी, स्वेत वस्त्र पहिरी, स्वयंवरा मंडप-माहि आवी। तिहां हाथि वरमाला लेई ऊभी रही । एतलइ अर्जुनि राधावेध साधिउ । तिसिई द्रपदीइ अर्जुननइ कंठि वरमाला मूकी । तेतलइ पृविला निआणाना कर्मना उदय-लगइ पांच पांडवनड गलइ समकालइ वरमाला पडी । तिवारइ राजा द्रुपद अनइ द्रुपदीना मन-माहि एहवी चिंता ऊपनी जु, 'एक वरमाला पांचनइ कंठि किम पडी ? अथवा पांच-इ-नइ पुत्री किम देवराह . एतलड आकाशि देवतानी वाणो हुई। कहिउँ, 'ए नियाणा-बद्ध छइ, एहनइ पांच भरतार होसिह । ए वात चूकइ नही । पांच-इ-नइ पाणिग्रहण करावउ ।' इम देवतानी वाणी सांभली भवितव्यतानु निओग जाणी पांच-इ-नउ पाणिग्रहण कराविउ । पछह पांचड भर्तार-साथिद्ध द्रपदी सुख भोगविवा लागी । एहनउ विस्तार पांडवना चरित्र हतउ जाणिवउ । इहां संखेपिई करी कहिउं छह । जिम द्रुपदीइ पाछिलइ भवि विषयाभिलाषि नियाणउ बांधिउ, तिम अहो लोको! विषयनउ एहवउ व्याप जाणी तुम्हे निआणउं न बांधिवउं । इति श्री शीलोपदेशमाला बालाविबोधे द्रुपदीचरित्र समाप्त ॥३७॥ हिवइ जे पुरुष पारदारिक कहीइ परस्त्री नइ विषइ व्यसनीआ हुई ते गरुया इ लघुत्वपणउं पामइ । ते दृष्टांत-सहित देखाडतउ कहइ अमर-नर-असुर-विसरिस-पोरिसचरिओ पि पर रमणि-रसिओ । विसम-दसं संपत्तो लंकाहिवई वि रंको व्व ॥६४ १. C.K.Pu. आठ मासनी । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १४३. व्याख्याः -अमर-देव नर मनुष्य, असुर-तेह-माहि अदभुत-चरित्र, असामान्य पराक्रमी एहवउ लंकाधिपति रावण, जे त्रैलोक्यनउ कंटक, ते ही रावण जु पररमणी-परस्त्रीनइ विषइ रसिकतालगइ रांकनी परिई महा-विषम दशा-माहि पडि उ=राज्यभ्रश, कुलक्षय, मरणांत कष्ट पामि तु अनेरानउ सि कहीइ १ इति गाथार्थ । हिवइ वली शीलभ्र श-लगी जीव नकादि दुर्गति' भवांतरि लहइ अनइ इहलोक अनेक काल सीम अयश पृथ्वी-मांहि विस्तरइ । इसिउ दृष्टांते करी कहइ नेउरपंडिय-दत्तयदुहिया-पमुहाण अज्ज वि जयम्मि । असई त्ति घोस-घटा-टंकारो विरमइ न तारो ॥६६ । व्याख्याः -नूपुरपंडिता, दत्तनी पुत्री-प्रमुख अनेक स्त्री असती कुशील हुई । तेहनउ आचार आज-सीम 'ए असती' इसिउ तार-दीर्घ अयशरूप घंटानउ शब्द नथी फीटउ । सह कोइ इम कहइ जु-नूपुरपंडिता, दत्तदुहिता महा असती हुइ । इसिउ अपयश - शब्द जगत्रयमाहि आज-लगइ पसरी रहिउ छइ । अजी फीटतउ नथी । अनेरा घांटनउ शब्द थोडी वार रही फीटइ, पणि असतीनु शब्द न फीटइ । एतलई गाथानउ अर्थ हउ । सांप्रत नूपुरपंडितानउ दृष्टांत कहइ छइ-.. [३८. नूपुरपडितानु दृष्टांत] राजगृह-नगरि देवदत्त सुवर्णकार वसइ । तेहनु पुत्र देवदिन्न । ते पणि समस्त गुणे करी विख्यात हउ । तेहनी भार्या दुर्गिला एवइ नामि । पणि ते आपणउं रूप-लावण्य-सौभाग्ययौवन-रूप पाश, तिणि करी तरुण पुरुषरूप मृग, तेहनइ पाश-माहि पाडइ, अनइ यौवनमदि की उन्मत्त थकी निरर्गल फिरइ । एक वार ते दुर्गिला ग्रीष्म-कालि स्नान करिवा-भणी नदीड गई। तिहां स्नान करती नगरनइ जुवान पुरुषइ दीठी । तेतलइ तेहनइ मनि व्यामोह ऊपनउ । तिवारइ ते पुरुष कहई, 'हे सुभगि ! ए नदी, ए वृक्ष, ए हूं तुझनइ कुशल पूछउं छउं ।' वलतूं दुर्गिला कहइ, 'तुझनइ, वृक्षनइ, नदीनइ कल्याण हु। अनइ तुम्हारी इच्छा पणि अवसरि पहचाडीसिइ ।' इणि वचनि क्षण-एक ते पुरुष उन्मत्त सरीखउ थई रहिउ । एहवइ कोईएक बालक रमतां हता, ते आश्रइ वचन कही आपणपउ जणाविउं जु, 'देवदत्त स्वर्णकारनी वह, देवदिन्ननी प्रिया । अनइ मारउं घर पूर्व दिसिइ छइ।' ईम आपणउ संबंध जणावी घरि आवी । ते युवान पणि आपणइ घरि आविउ । पछड तिणि तापसी एक सीखवी दुर्गिला-कन्हलि मोकली । ते तापसी भिक्षानइ मिसिई स्वर्णकारनइ घरि आवी । तिवारइ दुगिला हांडला धोती हूंती। ते-आगलि प्रच्छन्नपणइ तिणि तापसीइ वात कही जु, 'तुझनई स्नान करतां जीणई पुरुषइ आपणउ भाव जणाविउ हूंतु, तीणइ हैं मोकली छ।' ए वात सांभली मन-माहि जाणी, आकार गोपवी, कहिवा लागी, 'रे पापिणी ! एहवलं वचन तई मुझनइ सिउं कहिउ' ? जे कुलीन हुइ, ते ए वात न सांसहइ ।' इम कही ते तापसी गलथी बाहरि काढी, काढतां पूठिइ मिसि-खरडिउ हाथउ दीधउ। पछते तापसी दूहवाणी हूंती पाछी आवी ते युवाननइ कहइ, अहो! ए पाषाण-सरीखी कठिन स्त्री, ए-कन्हलि मुझनइ सि मोकलइ ? मुझ नीकलतां जीणइ माहरी पूटिइं काजल-खरडी थाप पणि दीधी।' इम कही पूठउं देखाडिउं । पांच आंगुलोनइ अहिनाणि जाणिउं जु, 'हूं काली पांचमिई तेडिउ छठं । कांइ, धूर्तनी सान धूर्त जि जाणइ । पणि मुझनइ ठाम न जगाविउं ।' तेह-भणी वली तापसीनइ घणउं धन देई कहा, 'ते माहरइ विषइ सही अनुरक्त छइ । पणि किसिइं कारण-लगइ तूं जे निर्भरसी, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ मेरुसुन्दरगणि-विरंचित ते वात न जाणीइ । पणि एक वार वली तूं जा । कांई, जे गढ छइ ते ही उपक्रमिइंज लीजइ । पछइ मनुष्यन सिउं कहिवउ?' तिवारइ तापसी कहइ, 'ते तु सती । तेइनउं दर्शन तुझनइ दोहिनु घटइ । तु ही तुझनइ तां एहनी आशा छइ, तउ एक वार वली जाउं ।'इम कही ते तापसी[इ] दुर्गिला-समीपि. जईनइ इसिउं कहिउं, 'ते तउ नर ताहरइ विषइ अनुरक्त छह, तू निरास काइ मकई ?' तिवारइ दुर्गिलाई जाणिउं, 'सही तिणि दिहाडउ जाणिउ, पणि ठाम न जाणिसं, तेहभणी मोकली ।' पछइ दुर्गिलाइ ते तापसी-ऊररि रोस करी घरनो छोंडीइ काढो । तिसिइ विलखी थकी पाछी आवी । ते तरुण पुरुषनइ सर्व वृत्तान्त कहिउ । तिबारइं तिणि जाणि पछोकडि तेडिउ छउं ।' तापसी कहई, 'आज पछाइ हं वली नही जाउं ।' ... पछई ते तरुण पुरुष काली पांचमिनी गत्रिई तेहना घरनी वाडी-माहिगयउ तिसिंह तिहाविना माहोमाहि संबंध हुउ। तिहां जि विहुँनइ निद्रा भावी। तिसिई देवदत्त वृद्ध सोनार, तेहनउ सुसरउ,जे रात्रिई घरनइ पछोकडि जिहां वाडी छइ, तिहां कायनी चिंता-भणी जु आवइ,तु तेहवउ अपमंजस संबंध देखी चीतवइ, 'ए तु पुत्र नही ।' पछइ घर-माहि आवो पुत्रनइ जोई वली पाछउ आवी चीतवइ, 'जउ प्रभाति बेटानइ ए वात कहि, तु बेटउ मानिसिई नही ।' इम विमासी मउडइसिउ पगनउं नेउर ऊतारी लीधउं । तेतलई दुर्गिला जागी । सुसरउ · उलखिउ । पछह तिणि जार-पुरुष जगाडीनउ कहिउं, 'आपणपे सुसरई दोठां, पणि हिव तूं सखायत करे ।' पछइ ते तरुण वचन पडिवजी आपणइ घरि गयउ । अनइ दुर्गिला ऊठी भर्तार-समीपि आवी । तिहां भरिनइ जगाडीनइ इसिउं कहइ , 'इहां ताा हुइ छइ, पणि आपणपे पछोकडि अशोकवनिका-माडि जई निद्रा कीजइ ।' पछइ देवदिन्न दुर्गिला-सहित पछोकड जई सूतउ । मन-माहि कांई कपट नही, तिवारइ. जि तेहनइ निद्रा आवी । पणि दुर्गिलानइ निद्रा नावइ । घडी बिघडी गई. तेतलइ भरिनइ जगाडी कहइ, 'ए तुम्हारा घरनउ सिउ आचार जे मुझनइ तुम्ह-कन्हलि-थकां तुम्हारउ पिता हिवडा आवो इगी अवस्यांइ सूनां माहरा पगन ने उर काढी गयउ। ए डोसउ तु चलचित्त हुउ । लाज इ गमाडी । वली एतलइ नही सरइ । प्रभाति सुन्हई दोस चडाविसह। अनइ तुम्हे आपणा पितानउ मुख राखिसिउ । तेह-भणी हिवडा जि ऊठउ । आलस न करउ । ईणी वातइ माहरा प्राण जाइ छ। । तुम्हें नेउर "मांगी अणउ ।' तिवारई भर्तार कहइ. 'हं डोकरनइ गाढउ हाकिसु । तूं रखे मन-माहि संदेह आणइ । प्रभाति जो, ए डोकरनइ सिउंसिर्ड कहउ छउं ।' ईणी रीतिइं भर्तार हाथि करी, वली समनां सई कराव्या जु, 'सही हूं न पहिडउं ।' कहउ, स्त्रीनइ वसि पुरुष पडिउ हूंतु कउण कउण सम न करइ ? .. इसिई प्रभाति देवदिन्न पिता समीप जई कहिवा लागउ, 'तात! एहवउं सिउं कीधउं, जे वधूना पगनउं नेउर लीधउंतिवारइ ते वृद्ध कहइ, 'ताहरी स्त्री कुशीलि । मइ परपुरुष-साथि सूती दीठी। तेहनीप्रतीति-भणी मइं नेउर लीघउं।' तिवारई पुत्र कहइ, 'तात! तेहूंय जि पछोकडि सूतउ हतउपणि तुम्हनइ वडपण आविउं, तिणि करी बुद्धि गई । ते तु सती जि छइ । इहां विचार कार्ड नही ।। तिसिई वृद्ध कहइ, 'रे पुत्र ! जिवारइ मइ नुपुर लीध, तिवारइ तूं जोयउ, पणि तू घर-माहि हुँत उ । तेतलइ वधू आवीनइ कहइ, 'हिवइ ए वान हूं सांसहूं नही । धीज इ करीनइ हूं आपणउं कलंक ऊतारउ । कुलवंती स्त्रीनइ थोडउं इ कलंक घणूं दूषण ऊपजावइ । तेह-भणी १. A. B. K. तुरुण । २. K. पाछलि २, Pu. मागी आवउ । ३. C. P. L. हरकिसु, K. हार्कोस । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १४५ आपणई नगरि शोभन -नामा यक्षनी ऊभी प्रतिमा छइ, तेहनी जांघ विचालइ जि को सचिउ हुइ ते नीकली जाइ, अनई जि को कूडउ हुइ तेहनइ जांघ विचि चांपी राखइ।' तिवारइ ए बात सघले मानी। पछद दुर्गिलाइ स्नान करी, धौत वस्त्र पहिरी, पूजा-भणी बलि हाथि लेई आदित्यवारि सर्व-लोक-प्रत्यक्ष यक्षनइ भुवनि आविवा लागी । तेतलइ मार्गि जातां ते जार-पुरुष संकेत-ऊपरि गहिलानइ रूपी आवी दुर्गिलानइ विलगउ । तिसिइ दुर्गिलाइ ते परहु कीचड, अनइ घरि जई नवी वार स्नान करो यक्षनइ कहिवा लागी, 'अहो यक्षराज! आजन्म देवदिन्न भार अनइ मार्गि आवतां जे गहिलउ आवी लागउ ते टाली बीजा कहिनइ जु ई आभडी हउं, तउ न यक्ष ! मुझनइ शुद्धि म देजे । नहीतर आपणउ प्रत्यय देखाडे ।' इम कहिइ हूंतइ जेतलइ यक्ष कांई विमासइ, तेतलइ दुर्गिला यक्षना रिहुं पग विचालइ नीकली गई । तिवारइ सघले लोके सूधी सूधी कही । तेहनइ गलइ राजपुरुषे फूलनी माल घाती। हिवइ यक्ष विमासतउ जि रहिउ । पछइ ते दुर्गिला वाजिब वाजते, मनुष्यने सहसे परिवरी, देवदिन्नइ महा-महोत्सव कीजते आपणइ घरि आवी । तिहां नूपुरन उ अबाद ऊतरिउ, तेह-भणी लाके नूपुरपंडिता नाम दीधउं । -हिवइ देवदत्त, वधून एहवउं विस्मयकारक चरित्र देखी, तेहनइ निद्र नाठी, योगीनी परिई नष्टनिद्र हूउ । ए वात मउडइ मउडइ राजाई सांभली जु, 'देवदत्तनइ निद्र नावइ ।' पछइ राजाइ ते देवदत्त तेडी अंतःपुरनउ रखवालउ कीधउ ।। इसिई आगइ अंतःपुर-माहिली का एक राणी हाथीनउ पउतार कहतां मेंठ, ते-साथि लुब्ध हुई छ । ते वार वार ऊठइ अनइ सोनार जागत उ देखी वली पाछी जाइ। तिवारह देवदत्त स्वर्णकारि जाणिउं जु, 'इहां 'कणे कई कारण संभावीइ ।' इम जाणि ते वृद्ध सोनार कपट-निद्राइ सूतउ । तिवारई राणी चोरनी परिइ ऊठी, उरइ-परइ जोती, पूर्व संकेत-स्थानकि गउखि जई बइठी । तिसिइ तलइ राजान उ पट्ट-हस्ती हूंतउ, तीणइ सूदिइ करी राणी भुंइं ऊतारी। तिवारइ राणी-ऊपरि पउतार रसाण उ कहइ, 'रे ! तुं मउडी कांइ आवी ?' इम कही हाथीनी सांकल हाथि लेई दासीनी रीतिइं पूठिइ आणी । तिवारइ राणी कहइ, 'स्वामी ! है सिङ करउं ? आज राजाइ कोई नवउ पाहरी मूकिउ छइ । ते तु जागतउ रहइ छइ । तेहनई भइ हूँ नावी । हिवडां लगारेक तेहनइ निद्रा आवी छइ, तिणि करी हूं इहां आवी। तु मुझ ऊपरि फोकट कोप कांइ करउ ?' इम राणी प्रहर बि तिहां रही। पछइ पाछिली रात्रिई वली हाथीड ऊपाडी राणीनइ गउखि मूकी अनइ राणी आपणइ ठामि गई। एहवउं राजाना घरनउँ चरित्र देखी वृद्ध सोनार चीतवइ. 'जोउ, जेहनइ एवडा पाहुरी, एवडां रखोपा, तेहने घरे जु एहवा वृत्तांत, तु मुझनइ माहरी वड्नउ सिउ अउरतउ ? ए स्त्रीना चरित्रनाउ पारंपर्य कउण लही सका? जिणि कारणि कहिउं, अश्वप्लुतं वासवगजितं च स्त्रीणां चरित्रं भवितव्यता. च । __ अवर्षण चाप्यतिवर्षणं च देवा न जानन्ति कुतो मनुष्याः ॥१॥ विशेषत स्रीनउं चरित्र मेघना गर्जित सरीखउं कउण मणी साइ? तु हिव हूँ सिउं विस्मय कर कांई, जे सदा इ घरनइ व्यापारि थकी रात्रिदिवन बाहर फिरइ, तेहनइ सील किम पलइ इम विमाली वधूना दोषनउ अवर्ष मन हूं उ मूंकी देवदत्त स्वर्ग कार सूतउ । पछइ प्रभात एउं, १. C. K. Pu. पणि । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ मेरुसुन्दरगणि-विरचित तुही सोनार जागइ नहो । तिसिइ पाहुरिए जई राजान३ कहिउँ । तिवारइ वलतु राजा कहइ, 'कई कारण जि घटइ। एहनइ कोई म जगाडिज्यो।' इम तेहनइ सूतां सात दिन गया। सातमई दिनि जिम जागिउ, तिम राजपुरुषे सोनार राजा-समीपि लीधउ'। तेतलइ राजाइ पूछिउं, 'कहि, तूं जे सात दिन-ताई सूतउ, ते सिउ कारण ?' तिवारइ देवदत्ति अभयदान मांगी रात्रिनउ वृत्तांत राजा-आगलि कहिउ। राजाई ते राणी-पउतार- हाथीन उ सर्व वृत्तांत सांभली ते सोनार सरकारपूर्वक विसर्जिउ । पछइ राजा इसिउं चीतवई, 'ते राणो किम ओलखीसिइं?' इम चीतवी तिहां-हूंतठ ससंभ्रांत ऊठी, राजा अंतःपुर-माहि आवी, गूढ कोप धरतउ कहिवा लागउ जु, 'आज मई सुहणउ एक लाध छ । तेह-भणो तुम्हे आपणां वस्त्र मूकी मुझ-आगलि आवउ, जिम हूं तुम्हारी पृठिई असवार थाउ, एतलइ पाडूउ सुहणउटलइ ।' इम कहिइ हूंतइ सघली राणीए तिम जि कीधउं । पणि जे एक दुश्चारिणी ते कहइ, 'हूं लाज अनइ बीहडं।' तिवारई राजानइ हाथि सनाल कमल हूं तउ, तिणि कमलि करी राजा राणी आहणी। तेतलइ कपट-मूर्खाइ अचेत थई भुई पडी। तिवारई राजाई जाणिउं जु, 'ते एह जि।' पछइ वली पूठिई सांकलना घाय दीठा । तिरिई राजा कहइ, 'रे नीलजि । तिवारइ हाथीइ सू ढिइ करी ऊतारी अनइ पउंतारि सांकलइ करी मारो, तिवारइ तून बीहनी, अनई हिवडां एक कमलनइ घाई अचेत थई भुई पडी ?' जिम इम कहिउँ, तिम राणी चमकी। पछइ राजा रीसाणउ हंतउ पउतार तेडी, पट्टहस्ती अणावी, ते राणी नइ पउतार उपरि बइसारी, राजा भृकुटी-भीषण थई मुहता आगलि कहिवा लागउ, 'जाउ, ए हाथीउ राणीपउतार-सहित वैभारगिरि पर्वतनइ शगि चडावी, त्रिहुंनइ ढोली दिउ।' पछई पउतार-राणीसहित हाथीउ पर्वतनइ शृगि चडाविउ । तिवारई परंतारि हाथीउ त्रिहुं पगे ऊभउ राखिउ । सर्व लोक हाहाकार करिवा लागा। तिसिइ प्रधाने जई राजा वीनविउ, 'स्वामी! ए पशु अजाण । एहनई जीवदान दिउ ।' इम कहइ हूंतइ राजा न मानइ । तिवारइ हाथीउ बिहुं पगे राखिउ । वली प्रधाने लोके जई राजा वीनविउ । तु ही राजा न मानइ । पछइ एकइ पगि राखिउ । तिवारइ वो सर्व लोके जई वीनविउ, 'स्वामी ! ए हस्ति-रत्न कांई मारउ छउ ? ए तु परवशि । जिम पउतार कहइ, तिम कधइ जि छूटइ ।' तिवारइ राजाई कहिलं. 'जाउ, जउ तुम्हे कहउ छउ, तु हाथी ऊतारउ।' पछइ लोके जई कहिउं, 'अहो पउतार ! राजानउ आदेश हुइ छइ । हाथीउ पर्वत-हूं तु उतारि ।' तिरिई पतारइ कहिउ' जु, 'अम्हनइ अभयदान देवरावउ, तु हूंए हाथी ऊनारउ ।' तिईि वली प्रधानि राजा मनावी अभयदान देवराविउ । पछइ हाथीउ मउडइ मउडइ पर्वर-हतउ ऊतारिउ । तेतलइ पउतारराणीनइ देसवटउ हूउ । अनइ हाथीउ राजानइ घरि अविउ। .. पछइ राणी नइ पउतार नासतां नासतां संध्यानइ समइ कीणइ गामि गया। तिहां बाहरि सूनइ देवकुलि सूता । एहवह चोर एक चोरी करी नाठउ, तीणइ जि देवकुलि रात्रिई आविउ। तेतलइ देहर राजाने जणे वोटिउं । पछइ महांधकारि ते चोर जिहां ते बि जणां सुता छई. तिहां आविउ । हिवइ तेहनइ स्पर्शि जे पउतार सूतउ छह, ते जागिउ नहीं । पणि ते चोरनह स्पर्शि ते राजवल्लभा तत्काल जागी। ते जिम जागी, तिम जि तेहनइ विषइ अनुरक्त हंती इ. 'तं कउग ?' तिवारई ते कहइ, 'हूं चोर, राजाना जणना भय-लगइ नाठर, इहां मावि छउ ।' तिवारइ राणी कहइ, 'अहो पुरुष ! जउ माहर वचन मानइ, तु तुझनइ १ A. B. आण्यउ । २ C. K. सउण.3, Pu. मुणु । ३ C. K. सूढिइ, Pu. सूडि । ४ C. K. L. देसउटउ, Pu. देसटउ । . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १४७ मरण-हुतउ राखउ ।' तु जोउ, स्त्रीना स्नेह एहवा छइ, जे राजा नइ पउतार छांडी चोर-ऊपरि मन कीधउ । जिणि कारणि स्त्री एहवी जल्पंति सार्धमन्येन पश्यत्यन्यं सविभ्रमा । हृदये चिंतयत्यन्यं प्रियः को नाम योषितां ॥१॥ इम जाणी पंडिते ममता न करिवी । तिवारइ चोर कहइ, 'सोननइ वली सुरह। एक तुझ थकी माहरा प्राण ऊगरई, अनइ वली ताहरी प्राप्ति हुई । तु हुं आजन्म ताहरउ चोल लोपउनही । पणि कहइ (? हि.) कीणी युक्तिई माहरा प्राण राखेसि तिवारइ वरतु राणी कहइ, 'जिबारई प्रभाति तलार आविसिइ, तिवारइ हूं कहिसु, ए माहरउ पति भरतार ।' पछइ चोर कहइ, 'ए वात वारु कही ।' तेतलइ प्रभाति राजाना सुभट 'हणि' 'हणि' करतां देवकुल माहि पइसी पूछिवा लागा; 'तुम्ह-माहि चोर कउण ?' तिसिइ ते पापिणी चोर-साम्हु जोई कहइ, 'ए माहरउ भरतार। अम्हे देशांतरि जाता हतां । तिसिई सांझ पडी। पछइ अम्हे ए देवकुल-माहि आवी सूतां तिवारइ तलार विमासवा लागा जु, ‘ए चोर हुइ, तु एहवउं स्त्रीरत्न किहां? जेहनइ लक्ष्मी सरीखी ए वल्लभा, ते चोर किम घटइ ?' पछइ ते स्रीनइ व्यतिकरि, बापडउ निरपराध पउतार चोर करी बांधो सूलीइ दोधउ । तिवारइ तृषा ऊरनीइ जे जे लोक मार्गि आवइ, ते ते कन्हलि पाणी मांगइ । पणि राजाना भय-लगइ कोई पाणी पाइ नही। इसिई जिनदास श्रावक तीणी वाटइ आवतउ देखी पाणी मांगिउं। तिवारई जिनदास कदइ, 'जु माहरउं वचन करइ, तु तुझनइ पाणि पाउं ।' तीणइ कहिउं 'करिसु ।' तिवारइ जिनदासइ कहिउं, 'नवकारनु पद स्मरि । जेतलइ ई पाणी आणी पाउं, तेतलई तू "नमो अरिहंताण" ए पद ऊचरि ।' पछइ पउतारइ जलनी वांछाई वली वली पद स्मरिवा लागउ। तिसिइ जिनदास राजानउ आदेस अवगणी पाणी. लेई आवतउ तिणि पउतारि दोठ। पाणी आवतउ देखी संतोष ऊपनइ वली वली “नमो अरिहंताणए पद स्मरतउं प्राण मूकिउ। तु जोउ-न, अज्ञात-धर्म-तत्त्व इ नकारनइ प्रमाणि अकाम-निर्जराइ, मरी व्यंतर-माहि देवता हूउ ।। हिवइ ते दुराचारिणी चोर-साथि मार्गि जाती हूंती । विचालइ नदी एक महांत आवी।, तिवारई चोर कहइ, 'हे प्रिये ! हूं तुझनई वस्त्र-अलंकार-सहित नदीनइ पेलइ पारि लेई जई नही सकउं । तेह-भणी पहिलउ आपणा वस्त्र-आभरण सर्व माहरइं हाथि आपि, जिम पेलइ, पार लेई मूंकउं। पछइ बीजी वार तुझनइ लेई मूकिसु ।' इणि वचनि राजवल्लभाई सर्व आपणां आभरण-वस्त्र ऊतारी तेहनइ हाथि दीधां । तिवारइ चोर कहइ, 'हे स्वामिनी ! जां लगह ए. पारि जई आभरण पेलइ पारि मूंकि आवउं, तां-लगइ तूं निर्भय हूंती ए शरकडना वन-माहिरहि । हंहिवडां जि आवी तुझनइ लेई जाइसु ।' इम कही ते चोर नदीनइ पेलइ पारि जई विमासिवा. लागउ, जे स्त्री पउतारनइ आपणी नथी हुई, ते मुझनइ किम आपणी होसिइ १ इम चीतवीते चोर सर्व आभरण लेईनइ नाटउ । तिसिइ राजवल्लभा नग्न शरकडना वन-माहि थकी... पोकारिवा लागी. 'अहो पुरुष ! म नासि, म नासि । अरे अधम ! मुझनइ मंकी तूं किहां जाइ छइ ?' तिवारइ चोर कहइ, 'हूं तुझनइ नग्न देखी बीहउं । तेह-भणी हूं जाउं छा . इम कहितउ चोर नासी गयउ । पछइ राणी दीन-दयामणी थकी ऊभी रही । इसिई प्रस्तावि ते पउतारनउ जीव देवत्वपणउं पामिइ हूंतइ अवधिज्ञाननइ बलि ते राणीनई - नदीनइ उपकठि निरावरणी दीठी। तिसिड पूर्वभव-संबंप-लगइ प्रतिबोधिवा-भणी देवताई सीआलियान Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ मेरुसुंदरगणि-विरचित रूप करी मुखि मांस-खंड लेई नदीनइ कांठइ आविउ । जिम नदी -माहि माछिली दीठी, तिम नि मांस मूंकी माछिली -भणी घायउं । तेतलइ माछिलउ कूदी नदी -माही पइठउ । अनइ जे मांसखंड हूंतउ, ते समल| लेई गई । इम सीआलिउ बिहुं-हूंतु चूकउ देखी राजवल्लभा कहइ, 'रे दुर्बुद्धि ! रे मूर्ख ! मुखि आविड मांसपिंड मूकीनइ जड माछला - पूठिइ घाउ, तु जोइ न बिहुडूंत चूकउ ।' तेतलइ मनुष्य-भाषाई सीयालीइ लोक बोलिउ । यतः - 'इतो भ्रष्टा ततो भ्रष्टा नदी वहति संगमे । न च जारो न भर्तारो कथं वदसि नग्निके' ॥१॥ वली कहइ, 'रे नीलजि ! हूं तु बिहुँ थकउ चूकउ, पणि तू राजा-पउतार-चोर त्रिहुँथकी चूकी | रे नग्नि ! मुझनइ सिउ हसइ ?' ए वात सांभली जेतलइ भयत्रस्त हुइ, तेतलइ देवता प्रगट हुई कहइ, 'अरे पाविणी ! ते हूं पउतार, जे तई हूं मराविउ । पणि मइ जिनधर्मइ प्रमाणि देवपण पामि । तु हिवइ हूं तुझ ऊपरि सी दया करउ ? पणि तथापि जिनधर्म पडिवजि ।” तिवारइ तिणि राजवल्लभाई वचन मानिउँ । पछइ देवताई ते राणी ऊपाडी महासती - समीपि लेई मूकी । तिहां दीक्षा लीधी । तु ही अजी असतीनउ अपयश रूपीउ नाद विरमिउ नथी । इति श्री शीलोपदेशमाला - बालाविबोधे नूपुरपंडितानी कथा समाप्त ॥ ३८ ॥ * अथ दत्तदुहितानी कथा कहीह [ ३९. दत्तदुहितानी कथा ] जयपुर नगर । तिहां जयरथ राजा राज करइ । तेहनइ दत्त एहवइ नामि मंत्रीश्वर । तेहमी पुत्री शृंगारमंजरी एहवी नामि । ते आपणइ रूपि यौवनि करी सर्व विश्वन व्यामोह ऊपजावई । पणि ते पूर्वकर्मना दोष लगइ आकार इंगित चेष्टाई करी असतीपणउ जणावइ । हिवह राजा वावि-कूप-तडाग वननइ विषइ क्रीडा कुतूहल रसिक हूंतउ एकदा जयरथ भूपतिइ जिम ते गडखि बइठी शृंगारमंजरी दीठी, तिम ज राजा काम-विह्वल' हूउ । चेतना इ नाठी । कांई, कंदर्प - रूपी भीलिइ राजा हणिउ । तेहना दर्शन लगइ आराम-वाविनी क्रेडा वीसरी गई । पछ ए वात प्रधाने जाणी, ते श्रृंगारमंजरी मांगी। भई दिवसि राजाइ तेहनउं पाणिग्रहण कीघउँ । पछ राजाईं सप्तभूमिका आवास माहि राखी । पणि ते श्रृंगारमंजरी स्वभावि इ चपला । हिवइ राजा सहित किवारइ वन-माहि, किवारइ प्रासादि, किवारइ सान भूमिकानि आवासि इम भर्तारना वालपणा-लगइ स्वेच्छाइ सुख विलसइ । अनइ राजा पणि स्नान-भोजनादिक सर्व तेह-जि-नह घरि करइ । तेह-तु एक क्षण अलगउ न रहइ । इसि तेह जि नगर-माहिं व्यवहारीआनु पुत्र धनंजय । ते एकदा मार्गि जातउ हूं तउ | जीणइं गउखि बइठी छइ जे अंगारमंजरी, ते गडखलि हारि मनोहारि कंदर्भावतार ते धनंजय नीकलिउ । तिसिहं ते दत्तनी पुत्री श्रृंगारमं जरोइ दीठउ । पछइ कामनी वाही हूंती तत्काल चीरीइ मनोगत वात लिखी मुक्ताफलनइ हारि बांधी उपरि-थकीइं धनंजयना कंठ-भणी ते हार लांखी गलइ घातिउ । तिसिहं धनंजइ ते हार हूंती- चीरी लेई वांची । तिवारई ते राणी सानुरामिणी जाणी आपणइ घरि आविउ । पछइ घगडं घन वेची आपणा घर-हूंतो राणीना घर-सीम मोटी सुरंग देवरावी । १. C. काम विद्धउ, K. काम-विकल ।' Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १४९ तीणा सुरंगइ धनंजय जाइ-आवइ । किवारई राणी धनंजयनइ घरि आवइ । इम केतलउ-एक काल अतिक्रमिट । एकदा राणी धनंजयनइ घरि गउखि बइठी क्रीडा करइ छ। इसिइ राजा रइवाडीइ नीकलिउ । तेतलइ राजाइते दत्तनी पुत्री क्रीडा करती दीठी। तिसिइंतीणी राणीइ पणि विचक्षणपणा-लगई ते राजानउ अभिप्राय जाणिउ । पछइ तत्काल ते सुरंगनी वाटइ थई आपणइ घरि आवी। तेतलइ राजा पणि साशंक ऊतावलउ आवी जिम आवास-ऊपरि चडिउ, तिम आगलि राणी देखी राजा हर्षिउ । हिव अन्यदा राजाई नाटक एक मंडाविउ । तिहां गंधर्व गीत-गान करिवा लागा । तिसिइं ते दत्तनी सुता तिहां जोवा आवी । ते देखी राजानइ मनि क्षोभ हउ । पछई सभा विसर्जी राजा आवास-माहि आविउ । जउ ओइ, तउ ते राणी घूर्माती, बगाई खाती दीठी। ते देखी राजानइ मनि शंका ऊतरी । इम राजा राणी-सहित सुखिइं काल अतिक्रमावइ छ । एहवइ वसंत-समय आविउ जाणी राजा राणी-सहित पौरलोके परवरिउ वन-माहि क्रीडा करिवा-भणी गयउ । तिहां घणी क्रीडा करी, रात्रिइं तेह जि वन-माहि वेलिना मांडवा-तलइ सुतां । तेतलइ अकस्मात राणीनइ सापनउ डंस हूउ। पछइ राणी पोकार करती आगी, अचेत होइवा लागी। इसिइं राजाइ मंत्रवादी बोलाव्या । जेललइ मंत्रवादी आवई, तेतलइ राणी अचेत थई भुई पडी । जेतला उपचार हूंता, तेतला सर्व गारुडीए कीधा, पणि सर्व निःफल हुआ। पछइ. राजा धोरिमा मूकी रोवा लागउ। तिवारइ आपणउं राज तृण-समान गणतउ ते राणी साथि काष्ट भक्षण करिवानइ सावधान हउ । तिसिई घणउं इ प्रधान राखई, पणि रहइ नहीं । पछइ नगर-बाहिरि चिहि कीधी । जिवारइ राजा राणी-साथि तिहां आविउ, तिवारइ सर्व लोक विलाप करिवा लागा । एहबइ नंदीश्वरि यात्रा-भणी विद्याधर एक जातउ हूंतउ । तीणइ ते राजानु मरण सांभली दया-लगइ पाणी अभिमत्र जेतलइ राणी छांटो, तेतलइ विष गयउं। राणी सचेत थई । गजा हर्षिउ । समस्त नगरलोक पणि हा । महा-वाजित्र वाजिवा लागो । पछई राजाई ते विद्याघरेश्वरनइ बहुमान-पूर्वक विसर्जिउ । हिव ते रात्रि तेह जि वन माहि रह्या । तिसिई धनंजय पणि रात्रिई तिहां आविउ । कांई, जिहां आपणउं मन तिहां अलगू इ इकडम् । तिवारई राणी धनंजय-कन्हलि आवीनइ कहइ, 'आवउ, आपणपे देशांतरि जईइ । इहां आपणपानइ केहउं सुख ?' तिवारइ धनंजय कहइ, 'अरे मुग्धि ! ए कूडी विमासण म करि । ए राजा जीवतई तुझनई लेई जातां माहर: माउं इ आइ ।' तिवारइ वली राणी कहइ, 'प्राणनाथ ! ए राजा जीवतां आपणपे निस्संक सुख भोगवी नही सकीइ । तेह-भणी हूं राजानई मारी आवउं छउं । पठइ तूं राजा अनइ हूं राणी।' तु ओउ संसारनी गति । एक ए योषिता किस्यां किस्यां वानां न करइ १ यत : __ कवयः किं न कुर्वन्ति, किं न कुर्वन्ति योषितः ।। मद्यपाः किं न जल्पन्ति, किं न भक्षन्ति वायसाः ॥१॥ ते राणी इम कही जिहां राजा सूतउ छइ तिहां आवी, राजानु खड्ग लेई, जेतलइ प्रहार करइ, तेतलइ धनंजय आबी, हाथ-हूंतउ खड्ग लेई मन-माहि इसिउं चींतविवा लागउ, 'जोउ, जीगई राजाई ए पट्टराणी कीधी, वली जेहनइ स्नेहि करी राजा काष्ट-भक्षण करतउ 'तउ, जेहनइ प्रसादि एवडा सुख भोगव्यां, तेहनइ जउ ए आपणी नथी हुई, तु ए मूहनई आपणी किम होसिइं? आते दिहाडे मुझनइ पणि ए प्रकार होसिइ । तु माहरइ ईणइ संबंधि करी सरिउं । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित ए माहरा आत्मानइ धिक्कार, जे मइ एतलउ काल एह-साथि संबंध कीधउ । तु तेह जि धन्य, जे सर्व संसार छांडी, धर्म आदरो, तपोधन हुआ ।' इत्यादि मन-माहि विचारी जिम कोई बलती निता-हूंतउ नासइ, तिम ते स्त्री-हूंतउ नासी, वैराग्यरंग-पूरित विरक्तचित्त हूंतु, गुरुसमीपि जई दीक्षा लीधी। तिसिई प्रभाति राजा आपणइ घरि आविउ, सुखइ राज पालइ छ । इसिई अन्यदा कोई एक वणिजारे घोडा आण्या । तेह-माहि लक्षणयुक्त तुरंगम एक मोटउ देखी कउतिग-लगइ राजा असवार हउ । तिवारइ प्रधान कहइ, 'स्वामी ! सबल। द्विपद-चतुप्पदि अणपरीखिइ काज न कीजई।' इम वारतां इ हूंतां राजा तुरंगमि चडिउ । पणि ते अश्व मउडइ मउडइ चालिवा लागउ । पछइ जेतलइ राजाई वाग खांची तेतलइ ते अश्व पवनवेगि चालिउ। “जाइ, जोइ" लोके इम कहतां जि राजा अदृश्य हूउ । इम मार्गि जातां राजा चींतवइ, ईणइ घोडइ तु वन-माहि लीधउ । तु हिवइ जि कांई निबद्ध छइ, ते पामीसिइं।' इम कही ते घोडानी वाग ढीली मंकी । तेतलई अश्व ऊभउ रहिउ । तिवारई वक्र-शिक्षित अश्व जाणी राजा ऊतरिउ । एहवइ तृषा-बुभुक्षाक्रांत हूं तउ राजा अरण्य-माहि फिरवा लागउ । तेतलइ महातमा एक शांत-दांत देखी राजाई वांदिउ । तिसिई महातमाइ काउसग्ग पारी, गजानइ धर्मलाभ कही, उपदेश देवा लागउ, 'राजन ! ए असार संसार-माहि जीवनइ धर्म जि आधार छ।' इत्यादि उपदेश सांभली वैराग्य-रंग-पूरित चारित्रनउ मनोरथ करतउ, राज-रिद्धि तृण-समान गणतउ महात्मानइ कहइ, 'हे भगवन ! तई जे नवयौवनि दीक्षा लीधी ते. कहि, कउण वैराग्पनउ कारण ?' तिवारइ मुनि कहई, 'राजन ! जे मइ दीक्षा लीधी, ते तिहां कारण तूंह जि ।' राजाई पूछिउं, 'किम ?' तिवारइ मुनि कहइ, 'राजन! जिवारई ताहरी . राणीनइ साप-डंस हउ, तिवारइ तूं काष्टभक्षण करिवानइ सज्ज हूउ। तेतलई विद्याधरि आवी विष वालि । रात्रिई तुम्हे तेह जि वन-माहि रहिया । तिवारइ राणी तुझनइ मूको मुझ-समोपि पूर्व-परिचय-लगइ आवो, इसिउं कहिवा लागी जु, “ए राजा जीवतां आपणपानइ सुख न घटइ । तेह-भणी राजानइ हणी आवडं।" इम कहो ते राणी खड्ग लेई जेतलइ ताहरउं मस्तक छेदइ, तेतलइ मई हाथि झाली, आपणह मनि चीतविउ जु, "मुझनइ धिक्कार, कामनइ धिक्कार, जे कामनी वाही राणी राजानउ एवडउ स्नेह अवगणी आज राजानइ मारिवा आवी । तु ते मुझनइ किम आपणी होसिइ ?" इम चीतवी पछई मुझनई सवेग-रग ऊपनइ, विष-समान विषय-सुख मूकी चारित्र लीधउं। तेहभणी हिव हं आतपि आतापना करउं छउं ।' ए वात सांभली राजा वैराग्य-पूरित हंतउ, चारित्र लेवानु मनोरथ करवा लागउ । एहवइ ते राजानउं कटक आविउं। पछइ राजा सपरिवार नगर-माहि आवी, पुत्रनइ राज देई, आपणपे दीक्षा लोधी। तिहां राणीनी वात प्रकट हुई । तिवारइ लोक राणीनी निंदा करिवा लागा । हिव ते श्रृंगारमंजरी राणी निकाचित कर्म बांघ, आऊखानइ क्षयि मरी, नरकि गई । तिहां-हूंती आवी घणउ काल संसार-माहि भमसिइ । इति श्रीशीलोपदेशमाला-बालाविबोधे मेरु सुंदर-गणिना विरचिन दत्त-दुहितानी कथा संपूर्णा ॥३९॥ हिव पाछिला दृष्टांतनउ अर्थ उपदेसि करी कहइ एवं सोलाराहण विराहणाणं च सुक्ख-दुक्खाई। इय जाणिय भो भव्वा सिढिला मा होह सीलम्मि ॥ ६७ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालापबोध १५१ व्याख्या:-एवं ईणइ प्रकारे, जेहे जीवे शीलनी पालना कीधी, ते जीवनइ इह-लोकि परलोकि सुख-यशादि फलनी प्राप्ति हुई। अनइ जेहे शीलनी विराधना कीधी, ते जीवनइ अयश= अपकीर्ति, नरकादि फल हुआ। एह-भणी शील-आराधन-विराधन-लगइ सुख-दुखनउं फल जाणी, भो भविक-लोको ! शील पालता द.ला म होज्यो । हिव शील-पालणहार पुरुषे नारीनउ संग वर्जिवउ ते कहइ बभव्वय धारीणं नारी-संगो अणत्थ-पत्थारी । मूसाण व मंजारी इयं निसिद्धं च सुत्ते वि ॥ ६८ व्याख्या :-जे पुरुषनइ स्वदार-संतोष, परदार-परिहार हुइ अनइ जे स्त्रीनइ परपुरुषनउ परिहार हुइ ते शीलवत कहीइ । अनइ जे सर्वथा मैथुननउ त्याग, ते ब्रह्मवत कही । ते ब्रह्मव्रतधारी-नइ नारीनउ संग अनर्थनई हेति हुइ, ऊंदिरनइ दृष्टांति । जिम ऊंदिर चिलाईनइ संगि विणास पामइ, तिम स्त्रीनउ संग ब्रह्मत्रतधारीनई विणास ऊपजावइ । वली एह जि कहई - विभूसा इत्थि संसग्गी पणीयं रस भोअणं नरस्सऽत्त-गवेसिस्स विसं तालउड जहा ॥६९ व्याख्या:-आत्मगवेषी तत्ववेत्ता जे पुरुष हुइ, तेहनइ ए विभूषादिक सर्व तालपुट विष-समान जाणिव उ। हिवइ ते विभूषा सिउं कहीइ ? जे सयरनी शोभा-भणी नख समारीइ, अलंकारन पहिरव, तांबूलादिक शोभा । अनइ स्त्रीनउ संसर्ग एकत्र निवास । प्रणीत सरस आहार-रसभोजन, विगइन सेविवउं। जिम तालपुट विष तत्काल प्राणनइ अपहारक, तिम शीलवंतनइ विभूषादिक तालपुट विष-समान जाणिवउं । हिव वली सिद्धांतनउं उदाहरण कहइ जहा कुक्कुड-पोयस्स निञ्च कुललओ भयं । एवं खु बंभयारिस्स इत्थी-विगाहओ भयं ।। ७० व्याख्या:--जिम कूडाना बालकनइ कुलल कहीइ बिडालानउ भय सदाइ हुइ, तिम ब्रह्मचारीनइ स्त्रीना विग्रह कहीइ डील-थकी भय ऊपजइ । स्त्री नइ पुरुषना संग-लगइ विणास इ ऊपजइ। एह-भणी परस्परिई संग वर्जिवउ। यतः-- स्मृता भवति तापाय दृष्टा तून्माद-कारिणी। रपृष्टा भवति मोहाय केनेयं निर्मिता वशा ।। १ ।। अग्निकुंड-समा नारी घृतकुंभ-समो नरः । एक-संग-प्रसंगेण द्रवो भवति नान्यथा ॥ २ ॥ वली स्त्रीनउं रूप वर्जिवउं ते कहइ - चित्त-भित्तिं न निज्झाए नारिं वा सुअलंकिय । भक्खरं पिव दळूणं दिहिँ पडिसमाहरे ॥ ७१ ब्याख्याः -भीतिनां लिख्यां रूप न ध्याईइन जोईइ, अनइ नारी भला अलंकार, भलां वस्त्र पहिरे रूप जोइवउं नहीं । जिम भास्कर सूर्य देखी दृष्टि वालीइ, तिम स्त्री देखी दृष्टि पाछी वालियइ । हिवइ जे काम-लोचना-स्त्रीनउ संसर्ग ब्रह्मचारीइ वर्जिवउ एहनउं किसिउं करिव १ पणि जे एहवीइ स्त्री हुइ तेहनउ इ संग वर्जिवउ ते कहइ छइ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु सुन्दरगणि-विरचित हत्थपाय पडिछिन्नं कन्ननास - विगप्पियं । अवि वास सयं नारिं बंभयारी त्रिवज्जए ॥ ७२ व्याख्या : - जे स्त्रीना हाथाग छेद्या हुई, काननाक ते पणि काव्यां हुईं वली सउ वरस उल्या हुइ, एहवी है बीभत्स स्त्रीनउ सतर्ग ब्रह्मवारी निश्चइ-सिउं वर्जइ । कांइ १ इंद्रियग्राम दुर्जय छइ । १५२ 27 वली एह जि विशेष बिहुं गाहे करी कहइ व्याख्या : - इहां पहिलउं जीवनइ अनादि भवाभ्यास लगी विषय- पिपासा = भोग-तृष्णा निवारतां दोहिली, अनइ इंद्रिय तु महादुर्जय = जीपाइ नही । तेह इ माहि वली चित्त-मन ते तउ गाढेरउं चपल [७३], [थेत्र ] जे सत्त= चित्तनउ दृढपणउं छइ, ते तु थोडिलउं लगारेक, वली असार=क्षण- विनश्वर । अनइ जे महिला =स्त्री ते तु मोहणनी वेलडी । कांइ, रात्रिदिवस हाव-भाव कटाक्ष - विक्षेद के करी व्यामोह ऊजावइ । एतले प्रकारे करी जेती वारह चित्तचल इ, तिवारई स्त्रीनइ संसर्गि आपणउं ब्रह्मव्रत किम राखी सकइ ? अपि तु न सकइ । इम शीलभैगन अणकरिवइ करी आपणउं मन राखइ । हिवइ ए अर्थनइ विहरह आपणा आत्मानइ शिख्या दिइ ते कहइ विसमा विसय पिवासा अणाइ भव-भावणाइ जीवाणं । अइ दुज्जेआणि य इंदियाणि तह चंचलं चित्तं ॥ ७३ थेवमसारं सत्तं मोहण वल्ली अ महिलिआओ वि । इअ कह विचलिय-चित्तो य ठावए एवमप्पाणं ॥ ७४ व्याख्या : - रे जीव ! सिद्धांत माहि कहिउँ छइ अनई प्रत्यक्ष अनुभव करो देखइ छइ पणि, कामभोगनां सुख जेतलइ आंखि मीची ऊबाडीइ, एतलउं विषय-सुख छइ । तु एहनइ काजि, अरे मूर्ख जीव, अनंत = शास्वतां मोक्ष सुख कांइ हारवइ ? ते केहवां छई ? जे शशी चंद्रमा, तेहनी कान्ति ते समान उज्ज्वल छ । अनह वली जस= कीर्ति, ते पणि मुहीआं कांइ गमाडइ १ कांइ नीगमइ १ हिवइ कामातुर मनुष्यनइ जे इह-लोकि दोष ऊपजइ, कहइ इत्यादि । रे जीव समय कप्पिय-निमेस सुह- लालसो कहं मूढ । सासय- सुह्मसमं तं हारिसि ससि सोयरं च जसं ॥ ७५ कलमल - अरइ- अभुक्खा वाही दाहाइ विविह- असुहाई । मरणं पि हु विरहाइसु संपज्जइ काम - तविआणं ॥ ७६ व्याख्या : - कामदन जीवनइ जे ऊपरि वांछा हुइ, ते-पाखइ कलमलउ = चित्तनउं व्याकुल उं, तिणि करीअरति= चित्तनउ उद्वेग, तेह लगइ अभूख हुइ । अति काम-लगी व्याधि=ज्वर, खनादि रोग ऊपजइ, हीया-माहि दाघ ऊपजइ । आदि शब्द-इतु मूर्छा = चित्तनइ सून्यता इत्यादि ऊपजइ । मरण पणि ऊपजइ विरहादिके करी । यतः - प्रथमे त्वभिलाषः स्यात् द्वितीये ह्यर्थचितनं । अनुस्मृतिस्तृतीये च चतुर्थे गुण-कीर्तनं ॥१॥ उद्वेगः पंचमे ज्ञेयो विलापः षष्ठ उच्यते । उन्मादः सप्तमे ज्ञेयो भवेद् व्याधिरथाष्टमे ॥२॥ नवमे जडता प्रोक्ता दशमे मरणं भवेत् । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १५३ वली विसयातुरनइ दुखी संसार देखाडइ विसईण दुक्ख-लक्खा विसय-विरत्ताणमसमसम-सुक्ख । जइ निउण परिचिंतसि ता तुज्झ वि अणुभवो एसो ॥७७ व्याख्या:-जे मानवी विषयासक्त हुइ, तेहनइ दुक्खना लक्ष ऊपजई। अनइ जे विषयहता विरता हुई, तेइनइ सुक्ख असामान्य परम सुख ऊपजई। ए वातनइ विहरइ अनेराना कह्या-पाहइ आपणइ होइ-निपुणपणइ हीआ-साथि आफणी विचारी जोइ । रे जीव! तहन अनुभूत स्वरूप छई । आपणा हीया-सिउं विचारी जोइ । एतलइ गाथार्थ हउ। वली ए उपदेश कहइ जासिं च संग-वसओ जस-धम्म-कुलाइ हारसे मूढ । तासि पि किंपि चित्ते चिंतसु नारीण दुच्चरियं ॥७८ व्याख्या:--रे जीव-आत्मन् ! तूं नारीनु जे संग-संभोग, तेहनह काजि आपणउ यश, धर्म, कुलाचार समस्त हारवइ छइनीगमइ छइ । तु ते नारीना जे दुश्चरित दोष छई, ते आपणा हीया-सिउ विचारी कांइ न जोइ? वली नारीना विशेष कहइ-- चवलाओ कुडिलाओ वंचण-निरयाउ दुट्ठ-धिट्ठाओ । तह नीय गामिणीओ जाओ तेसि पि को मोहो ? ॥७९ व्याख्याः --जे नारी स्वभाविइं चपल चंचल-स्वभाव हुइ, अनई वली महा-कुटिल वक्र स्वभाव हुइ, परवंचनानइ विषइ निरत सावधान हुइ, वली मनुष्यनई आपदाइं पाडिवानइ काजि महादुष्टि, धृष्टा, वली वक्र-चित्त, वली नदीनी परिई नीचगामिनी, इसी जे निर्गुणि, निर्लज्जि, निस्नेहि, ते स्त्री-उपरि किसिउ मोह कीजइ ? अपि तु न कीजइ । हिवह ए नारी क्षण-एक राग धरइ ते कहइ गण-सायरं पि परिसं चंचल-चित्ता विवजिउ पाया। रच्चइ निरक्खरे विहु नीअत्तमहो महिलाए ॥८० व्याख्याः --ए पापिणी स्त्री चंचल-चित्त हूंती, गुणरूप रत्न तेहनउ सागर-समुद्र इसिउ गुणसागर ते आपणउ पुरुष मेल्ही, जे निरक्षर मूर्ख हाली-पींडार-प्रभृति जे पुरुष हुई, तेहनइ विषइ राचइ-तिहां मन करइ, तेह-सि रमई । तु अहो लोको ! ते स्त्रीनउ नोचपणउं अधमपणउं जोउ । वली स्त्रीनउं अधमपणउं कहइ रूवोवहसिय-मयरद्धयं पि पुहवीसरं पि परिहरिउ । इयर-नरे वि पसज्जइ ही ही महिलाण अहमत्तं ॥८१ व्याख्याः --जीणइ पुरुषि आपणइ रूपि करी मकरध्वज कंदर्प हसिउ जीतउ छइ, अथवा पृथ्वीपति राजा हुइ तेहवा इ आपणा पुरुषनइ परिहरी, कामातुर हूंती स्त्री जे कुरूप, दालिद्री, कर्मकरादि जे पुरुष ते-ऊपरि अभिलाष करइ-अंगना संग करइ । 'ही ही' इसिई खेद-वचनि । जोउ-नि, महिला स्त्रीनउं अधमपणउं । जे रूपिई न राचइ, गुणे न राचइ, किंतु काम-सुखि राचइ, इणि कारणि अधमपणउं कहिउं । २० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सुन्दर गणि-विरचित हिवt ए स्त्रीनउं स्वरूप जणावतउ कहइ धरा व कायरा वा नारी मुद्धा व बुद्धिमं वा । रत्ता व विरत्ता वा सरला कुडिला व नो जाणे ॥८२ व्याख्या:- ए स्त्रीनइ कोई इम जाणी न सकइ जु, 'ए स्त्री धीर=साहसवंति छइ १ किंवा कायर = चीहकणि छइ ? कि ए स्त्री मूधी = भोली छइ ? कि ए बुद्धिवंत छइ ? कि ए राती = सानुरागि छ ? कि ए विरति छइ ? कि ए सरल स्वभावनी छइ ? किंवा ए कुटिल स्वभावनी= उन्मार्ग चारिणी छ ?' इत्यादि बोले स्त्रीनउं स्वरूप को जाणी न सकइ । सामान्य मनुष्यन सिउं कहीइ १ जे महा-बुद्धिवंत हुई, तेह इ ए स्त्रीनां चरित्र जाणी न सकइ । ते स्वरूप कहइ नियमइ-माहप्पेणं जे सयलं तिहुयणं परिकलंति । नारी चरिअ - विआरे ते वि हु मूढ व्व मूअ व्व ॥ ८३ व्याख्या : - - जे पुरुष महा बुद्धिवंत हुइ, आपणी बुद्धिनइ महातमि करी त्रिहु त्रिभुवनमाहि ज्ञान-विज्ञानादिक सहू जाणई, एहवा जे पुरुष, ते पणि नारी=स्त्रीना चरित्र = कुटिलपणउं इत्यादि कारणे नारीना चरित्रनई विषइ = विचारिते पुरुष मुखि बोलिदा मूक = बोबडा हुई, स्त्रीना चरित्र लखी न सकई, अनइ बोबडानी परिर्इं जाणताई हूंता पणि जीभइ कही न सकई, किसइ कारणि । हिवइ ए स्त्रीनां चरित्र जाणीइं नही ते कारण कहइ - अन्नं रमइ निरिक्खर अन्नं चिंतेइ भासए अन्न । अन्नरस देइ दोस कवड- कुडी कामिणी विअडा ॥८४ व्याख्याः - - ए नारी अनेरा साथि रमइ = क्रीडा करइ, अनेरानइ निरखइ = जोइ, अनेरउ कोई पुरुष चित्त-माहि चींतवइ, अनइ अनेरानइ मुखि श्रृंगारवचने करी हासपूर्वक बोलावइ । अनेरा दुःशीलादिक पुरुष, दोष' अनेरानउ अनुरक्त पुरुषनई दिइ, अनइ अनेशनइ अणहूंतउ दोष चडाव = कलंक दिइ । ईणि कारणि ए कामिनी=स्त्री महाविकट=वांकी | अनइ वली कूडकपट= वंच-द्रोह तेहनी कुटीगृह | जेवलां सर्व कपट, तेतलां समस्त ए कामिनी स्त्री-माहि हुई । हिवइ अनुरक्त इ स्त्रीनउ वेसास न करिवउ ते कहइ - जत्थाणुरत्त-चित्ता सुर-धण देसाइअं पि छड्डेइ । तं पहु खिवेइ दुक्खे महिला मिंठस्स निव-भज्जा ॥ ८५ व्याख्या : - जि पुरुषनइ विषइ अनुरक्तचित्त हुइ, रागसुख-परवशि महिला कामसुख-भणी, सुह कही राज्यादिक सुख, धनं कहीइ सुवर्ण-मणि माणिक्यादिक, देन कही स्थानकादिक, आदि शब्द तु मातृकुल- पितृकुल-स्वसुरकुल, परिवार समस्त ए छांडइ = मेल्ही जाइ । जे पुरुष साथि लुब्ध हुंती ए सर्व मेल्हइ, निदानि ते पुरुषनइ पणि महा - दुःख माहि पाडइ । ते स्त्रीन क्रिसिङ वेसास १ तेह - ऊपरि किसिउ मोह ? राणीनी परिडं, जिम नृप=राजानी कामिनी = कलत्र मेंठ पडतार, तेहसिउं अनुरक्त हूंती अनइ पछइ ते पउंचार एवडइ दुक्ख पाडिउ । इहां नूपुरपड़िता, राणी अनइ पउंचार ए त्रिहुँनो कथा जाणिवी । ते कथा आगइ कही छह, तिहां हूंती जाणिवी । १. A.B. सदोष अनेरा अनुरक्त पुरुष नं दिइ । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १५५ हिवइ जे भव्य हुई ते स्त्रीनां चरित्र देखी विषय-इता विरता हुई । इसिउ दृष्टांतपूर्वक कुडिलं महिल-ललिय परिकलिउ विमल बुद्धिा धीरा । धन्ना विरत्त चित्ता हवंति जह अगडदत्ताई ॥८६॥ व्याख्याः -महिल=त्रीनउ महाकुटिल वांकुं ललितपणउं बुद्धिवंत-पुरुषनई अनाकलीय, तु एवढं ते चेष्टित=आचरण परिकली=जाणीनइ जे निर्मल-चेष्टित हुइ, बुद्धिमंत हुई, धीर हुई, हलूकर्मा जीव हुई ते ए स्त्री-हूंता विरक्त-चित्त हुई, अगडदत्तनइ दृष्टांति । जिम अगडदत्तकुमार स्त्रीना चेष्टित देखी विरक्त हुउ, तिम आदि शब्द-इतु भर्तृहरि-शालिभद्र-जंबूस्वामि-प्रमुख अनेक पुरुष जाणिवा । एतलह गाथानउ अर्थ हू। विस्तरार्थ कथा-हूंतउ जाणिवउ । ते अगडदत्तनी कथा कहीइ [४०. अगडदत्तनी कथा] शंखपुर नगरि सुंदर राजा, भार्या सुलसा । तेहनी कूखि-हूंतउ ऊपनउ अगडदत्त । पणि ते महा रूपवंत, महा पराक्रमी अनइ वली सर्व दोषनउं निधान । ते एकदा राजसभा-माहि आवी बइठउ । तिसिइ लोके आवो राजा विनविउ, 'स्वामी! ईणइ अगडदत्ति सह नगर संतापिउ । एह-थकां अम्हे वसी न सकूँ ।' ए वात सांभली राजा रीसाणउ हूंतु कहिवा लागउ, 'वरि अणजायउ पुत्र भलउ, पणि दुर्विनीत पुत्र पाडूउ । जिणि कारणि, सामान्य इ कुल भलइ. पुत्रिई विभूषीइ, अनइ भलूइ कुल कुपुत्रिइ कलंकीइ ।' इत्यादि वचन कही साहंकार कुमार राजाइ निर्भसिंउ । तिवारई कुमार 'प्रहुसिउ हूंतउ रात्रिई नीकली गयउ । मउडइ मउडइ भूमि आक्रमतउ वाणारसी-नगरीइ आविउ । हिवइ ते नगरी जोतउ जोतउ कुणहि एकणि मढि गयउ । तिहां नेसाली मणई छई उपाध्याय-समीपि आवी । तिसिइ पवनचंद्र उपाध्यायन प्रणाम करी ते अगडदत्त-कुमार आगलि बइठउ । तिवारइ ते आकृतिवंत कुमार देखी उपाध्याय पूछइ. 'तूं कउण १ किहां-हंत उ आविउ ? अनइ कउण कारण ?' तिवारइ कुमारि आपण उ सर्व वृत्तांत कहिउ । पछइ उपाध्याय कहइ, 'वत्स ! जे सुपुत्र हुइ, मातापितानइ न मूकई । कांइ ? तेहना उपगारनई आपणपे 'ऊरण किम इन थईइ । जीणइ स्तन्यपान कराव्यां तेहनइ जु मुंकीइ तु ढोर न माणसनइ सिउवहिरउ ?' तिवारइ कुमार कहइ, 'ए बोल तुम्हारउ मइ मानिउ । पछह उपाध्यायइ आपणइ घरि आणी स्नान-भोजन करावी कहिउं, 'वत्स ! पिताना घरनी रीतिई डहां त रहे । चिंता किसी इ म करे ।' पछइ कुमार तिहां रहिउ हंतु सर्व शास्त्र भणिउ । हिव एकदा कुमार वन-माहि खेलतउ हूंतउ, तेतलइ अकस्मात् फूलनइ दडइ आहणिउ । तिसिइ. जउ पाछउं जोइ, तु रमणी एक दीठी । कुमार पणि तेहने कटाक्षबाणे करी वीघिउ इंतउ स्त्री-सम्मुख जोवा लागउ । तिवारइ स्त्री कहइ, 'अहो कुमार ! जे वेला-लगइ तूं दृष्टिई दीठउ. ते वेला आरंभी तू कंदर्पने बाणे करी हणइ छइ ।' ए वात सांभली कुमार पूछइ, 'सुभगि. ! तू. कउणि १ कहिनी बेटी ?' तिवारइ स्त्री कहई, 'हूं बंधुदत्त श्रेष्टिनी पुत्री, नामिई मदनमंजरी । मइ बालकपणइ सर्व कला अभ्यसी । पछई हूं पिताई परणावी । पणि भरतारइ दालिद्र-लगइ हूं परिहरी। १. P. रीसाणउ । २. A.B.L.Pu. ऊर्ण, K. उसिंकल । ३.K. अंतर । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मेरुसुन्दरगणि-विरचित -भणी हूं पितानइ घर-थकी रहउं छउं । तु आज तूं दृष्टिईं करी दीठउ । हिवइ तूं माहरउ मनोरथ सफल करि ।' तिवारइ कुमार कहइ, 'ताहरउ मनोरथ अवसरइ सफल कीजिसिह । तूं चिंता म करे ।' पछइ मदनमंजरी हर्षित हूंतो घरि गई, अनइ कुमार असवार थई नगर-भणी आविवा लागउ । एतलइ नगर-माहि कोलाहल सांभलिउ । तिसिह विस्मित हूंत सन्मुख जु जोइ, तु हस्ती एक प्रचंड आवतउ दीठउ । ते देखी कुमार घोडा-थकी ऊतरी रभसपणइ हाथी-भणी धायट । जेतलइ हाथि उत्तराखणनी वीटली करी हाथी-भणी लांखी तेतलइ हाथी कुमार-सन्मुख धायउ । तिसिइ लोक हाहारख करिवा लागा । एतलइ कुमार इ विद्युतिकरण देई, पडतारनी परिर्इं हाथीइ चडिउ । तेतलइ भुवनपाल - राजाईं कुमार दीठउ । साहसक जाणी राजाइ कुमार डी आपण सम बइसारी कहिवा लागउ, 'वत्स ! गुणे करी यद्यपि कुल जाणीइ छइ, पणि तथापि आपण स्वरूप प्रकट करि ।' तिवारई कुमारि पवनचंद्र उपाध्याय - सन्मुख जोयउं । तिसिई तिणि उपाध्यायइ कुमारन सर्व वृत्तांत कहिउ । तिवारइ राजाईं कहिउं, 'एवडा पराक्रम राजबोज टाली अनेथि न हुई ।' पछइ कुमार वस्त्र अलंकारे सत्कारिउ । घणउं जोता रहउं, पणि चोर इसिइ नगरीना लोक भेटि लेई आव्या, राजानइ वीनवई, 'स्वामिन ! तई राज पालतइ ताहरउं नगर कुणहि एक अदृष्ट चोरे मुसीइ छइ ।' ए वात सांभली राजाई तलार तेडावी आक्रोसपूर्वक कहिउं,' रे ! तुम्ह थका चोरे नगर संतापीइ, ते सिउं कारण ?" तिवारइ तलार कहइ, 'स्वामी ! चोर न जाणीइ सिद्ध छइ किंवा मंत्रवादी छइ ? अम्हे घण अम्हारी दृष्टि नावइ । ते सिउं कारण ?' तिवारइ राजा सचिंत जाणी कुमार कहइ, 'तात ! ए चिंता म करउ ए काम मुझनइ दिउ । ए आदेश अनेथि म देज्यो । जु सूंठिइ श्लेष्मा खाइ, तु रसायण कण लिई ?' पछइ राजाईं कुमारनई आदेस दीघउ । हिवइ कुमार पवनचंद्र उपाध्यायनी अनुज्ञाइ द्यूतकार, मालाकार, कलाल, वेश्या, कंदोईनां हाट-ईणे स्थानके चोर जोता छ दिन हूया । पछइ सातमइ दिनि कुमार चीतवइ, 'अजी तां चोरनी वात इ न सभिलीइ, अनइ दिन तु एक जि थाकइ छइ । माहरी प्रतिज्ञा पूरी किम यासि ?' इम चींतवी जेतलइ नगर - बाहरि नीकलिड, तेल परिव्राजक एक, कषायक वस्त्र पहिरो, ताम्राक्ष, विकराल आवत देखी, कुमार चीतवई, 'सही एह जिते चोर ।' एहवड निश्वउ करी तेहनइ प्रणाम कीघउ । तिवारई परिव्राजक प्छइ 'तू' कउण ?' कुमार कहइ, 'हूं विदेसी, दालिद्री - पीडित हूंतु घननइ काजि उरइ-परइ फिरउं छउं । 'तिवारई पाखंडी कहइ, 'मुझ साथि आवि, जिम ताहरउं दालिद्र गमाडउं । ' पछइ कुमार 'प्रमाण' इसिउं कही ऊभउ रहिउ । तेतलइ ते परिव्राजक पाछउ जई, प्रेतवन- माहि-हूता बि कुशि, चि खड्ग आणी, कुमारनइ साथि लेई, नगर-माहि आवि, विद्यानइ बलि नगरना लोकनां लोचन बांध्यां । पछइ कोई एक व्यवहारीयानइ घरि जई खात्र पाडिउं । तिहां अनेक रत्न आभरण बस्त्रे भरी 'पेई बि काढ़ी | बीजा इ घणां वानां काढ्यां । ते समस्त धन लेई कुमार सहित कुणिहि देवकुलि गयउ । तिहां घणा विदेशी सूता देखी परिब्राजकइ कुमारनइ कहिउँ, 'आपणपे इहां सूईसिइ । ' पछइ तिणि परिव्राजकि सर्व सुता जाणि, बिन्हइ पेईं ऊपाडी, सूनइ देवकुलि लेई मूंकी । आपणि पाखंड - लगइ आवी सूनउ । तिवारइ राजकु नगरि चींतत्रीउं, 'एहनउ वेसास न कीजइ ।' इम चींतवी आपणइ साथरइ पछेडी लांबी करी मूं की । पछइ आपणउं खड्ग सखायत करी वडना १. A. B. Pu. पेडी । २. A. B. Pu- पेडो, L. पटारी P पेटारी, C. पिटारी । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध कोटर-माहि रहिउ । तेतलइ परिवाजकि ऊठी जेतला सूता हूंता ते सर्व हणी, कुमारनइ साथरइ आवी पछेडी बि-खंड कीधी। पछइ ते साथरउ सूनउ जाणी ते चोर उरइ-परइ जोवा लागउ । तेतलई कुमार खड्ग काढ़ीनइ कहइ, 'रे चोर ! हिव तू किहां जाएसि ?' इम कहितइ जि खड़गि करी चोरनी बिहइ जांघ छेदी । तिवारइ चोर कहइ, 'अहो सत्पुरुष ! ताहरइ सौर्यपणइ करी हूं संतोषिउ। हिवइ माहरी वात सांभलि । ए देहरा-पूठिइ वडना कोटर-माहि पातालि माहरउं भुवन छइ । तिहां वीरमती पुत्री-पाहइ शिला उघडावे । अनइ ए खड्ग संकेतभणी देज्ये । वली तेहनउं पाणिग्रहण करिजे । ते तुझनई सर्व भंडार देखाडिसिइ । पछइ कुमारि तिहां जई वीरमतीनइ सर्व वात कही। अहिनाण-भणी खड्ग पण दीधउं । तिवारई तिणि वीरमतीइं आगतास्वागत करी, कुमारनइ पल्यंकि बइसारो, घर-माहि जई, बीजी भूमिकाई चडी । तिसिई कुमारि चीतविउं, 'एहनउ इ वीप्सास न कीजह ।' इम चीतवी पल्यंक मूकी कुमार एकइ खूणइ लुकी रहिउ । हिव वीरमतीइ ऊपरि चडी यंत्रशिला कापी। ते तत्काल खडखडती पल्यंक-ऊपरि पडी। पल्यंक चूर्ण हउ । पछइ वीरमती आवीनइ कहइ, 'अरे! माहरा पितानइ हणी जीविवउं वांछइ ?' ते वीरमतीनइ इम कहिता जि कुमार प्रगट थई जटीए झाली भूमिगृह-बाहरि काढी. ते शिला तिम जि देई, राजा-समीपि लेई आविउ । तिवारई राजा कुमारनी सौर्य प्रसंसिवा लागउ । पछइ राजाई नगरना लोक तेडी जेहनी जे वस्तु हंती तेहनइ ते वस्तु आपी। थाकती राजाह लीधी। पछइ राज इं संतुष्ट वर्तमान एक सहस्र हाथी, एक लाख जात्य तुरंगम, एक कोडि सोनउं. लाख गामनउ एक देश, दस कोडिनउ भंडार, वली अनेक वस्तु आभरणअलंकार-सहित आपणी कमलसेना कन्या, एतलां वानां ते अगडदत्त-कुमारनइ दीधां। वली सात-भूमिक आवास दीधउ। हवइ तिहां कुमार सपरिवार उपाध्यायनइ ध्यातउ, राजानइ बापनी परिई मानतउ, सखिड रहइ छइ । इसिइ काई एक स्त्री वधावती कुमारनइ कहइ, 'जे पूर्विइ बंधुदत्त श्रेष्ठिनी पुत्री मदनमंजरी संतोषी हंती. तीणीइ ताहरउ वृत्तांत, चोर निग्रहिवउं, राज-पत्रीन परिण । सर्व सांभली हूं तुझ-कन्हलि मोकली छउ ।' इम कही कुमरनइ कठि कुसुममाला घाती । वली कहिवा लागी, 'अहो कुमार ! माहरउ अभाग्य, जे तई हूं वीसारी' । तिवारड कमार कहइ, 'तू तेहनई कहिजे, जउ खेद न धरे । चालतां तुझनइ साथि लेई चालिस ।। म कसरी आपणा हाथनी नामांकित मुद्रिका देई मोकली । इसिई कुमारनइ पोलीइ आवी वीनती कीधी. 'स्वामी ! शंखपुरना बि प्रधान बारणइ आवी ऊभा रहिया छई।' पछइ कुमारि माहि तेडाव्या । ते बेहू उलखी, आलिंगनपूर्वक बहुमान देई, आपण-कन्हलि बइसारी माता-पितान क्षेम-कल्याण-कारण पूछि । तिवारइ सुवेग कहइ, 'हे कुमार ! जे दिवस-लगइ तुम्हे चाल्या ते दिवस-लगह मातापितानइ असमाधि न भागी।' ए वास सांभली कुमार अपात करतउ इसि कहइ, 'मइ माबापनई दुःख जि कीघउ ।' तिवारई वली सुवेग कहइ, 'तुम्हे जे देशांतरना कुतूहल जोयां, तिणि करी ए दुख इ सुखरूप हूउ। तु हिव आवउ। आपणे गणे. दर्शनि करी पिताना मनोरथ पूरउ ।' पछई कुमार ते बेड् प्रधान सत्कारी, संतोषी आपणइ साथि लेई राजा-समीपि आविउ । तिहां सुवेग पाहंति सर्व वृत्तांत कहाविउ। पछइ भुवनपालि राजाइ पुत्रीनइ सर्व सीख देई कुमारनइ चालिवानी अनुमति दीधी । कुमार पशि उपाध्यायनइ पूछी सपरिवार चालिउ। पछइ कुमारि कटक वहितउं करी, आपणि पाछउ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित वली, ते मदनमंजरी दूती-पाहंति तेडावी, रथि बइसारी वली चालिउ । तेतलइ कटक चाली गयउ । पछइ कुमार सूनाडिनी वाटइ नीकलिउ । इम सूनइ मार्गि जातां विंध्यवन-माहि भीम पल्लीपति आवी पडिउ । पछइ माहोमाहि युद्ध होवा लागउं । तिवारई कुमारना सुभट दिशोदिशि नासिवा लागा । इम कुमार अनइ भीम पल्लीपतिनइ युद्ध हता, जिवारई कुमार भीम जीपी न सकइ, तिवारइ कुमारि मदनमंजरो सारथी करी रथि बइसारी । तेतलइ भीम मदनमंजरीनइ रूपि व्यामोहिउ हूंतउ क्षोभ पामिवा लागउ । तिसिई कुमरि अवसर लही भीम हणिउ। मरण पामिउ। पछइ कुमार एकलइ रथि तीणी वाटइ निकलिउ । जे कटक दिशोदिशि नाठां ते तउ जूजूइ वाटइ पडिउं । हिवइ कुमार एकणि रथइ जातउ जेतलई अर्ध पंथ अवगाहिउ, तेतलइ बि पुरुष साम्हा मिल्या । ते-कन्हलि कुमारि वाट पूछी। तिसिइ ते पुरुष कहई, 'अहो ! ए वड-हूंता दि मार्ग छई। तेह-माहि जिमणइ मार्गि शंखपुर अलगउं हुइ, पणि मार्गि भय नहीं। अनइ डाबइ मार्गि शंखपुर दूकड हुइ, पणि मार्गि भय घणा। एक दुर्योधन नामइ चोर छइ, एक मदोन्मत्त हस्ती छइ, वलि एक सिंह छइ । तेह-भणी तुम्हे डाबी वाटइ म जाज्यो।' ए वात सांभली पछइ कुमारि ढूकडउ पंथ जाणी डाबी वाटइ रथ खेडिउ । तिवारई केतलाएक लोक कुमारनइ साथिइ चाल्या । तःणई मार्गि जातां कापालिक एक सन्मुख आवी कुमारनइ आशीर्वाद दीधउ । पछइ ते कापालिक कुमारनइ कहइ, 'हूं तीर्थयात्रा-भणी चालिउ छ', इणि कारणि ताहरउ साथ वांछ'। तिवारइ कुमारि ए बोल मानिउं । पछइ कुमारना रथ साथि ते कापालिक चालिउ । जु केतलीएक भूमिका गयउ, तु कापालिक इसिउं कहइ, 'अहो ! हूं इहां आगइ वरसालइ रहिउ हूंतउ, तेह-भणी इहां मुझनई गोकुलना धणी प्रहुणागत करिसिई । इणि कारणि, अहो कुमार ! साथ-सहित आज तू प्राहुणउ था ।' कुमार कहइ, 'मनिनउं भोजन करिवा युगतलं नही।' इन कइइ हंतह पछइ तीणइ कापालिक विष-मिश्रित दूधदही आणी दीधां। तिहां एक कुमार टाली बीजे सघले लीधां । लेई सघला इ साथरइ सूता । हिवइ जेतलइ कुमार आपणउ शंबल काही भोजन करिवा बइठउ, तेतलइ ते कापालिक खड्ग काढी कुमार समोपि आवी कहइ, 'अरे ! ते हूं दुर्योधन-नामा चोर । तइ किसिउं मारह नाम इ नही सांभलिउं ? तु हिव तूं प्रिया अनइ लक्ष्मी लेई किहां जाएसि ? ताहरा जे सखाइआ ते सर्व मइ विषइ करी मारिआ।' इम कही खड्ग काढी जेतलह कुमार-भणी धायउ तेतलइ कुमारि आपणइ खगि करी ते कापालिक बि-खंड कीधउ । पछइ कुमारई पाणी आणी कापालिकनइ मुखिई देवा लागउ । तिवारइ कुमारने गुणे रंजिउ हूंतउ कापालिक कहइ, 'ए पर्वत-माहि वडना 'कोटरनइ अहिनाणि माहरउं घर छइ । तिहां धन छई सर्व, अनई सुंदरी भार्या छ । ए सर्व तूं लेजे ।' पछइ ए वात कुमारि मदनमंजरीनइ कही । तिसिइ मदनमंजरीइ चित्ति विचारीनइ कहिउ, 'नाथ ! हिवडां आधा चालउ ।' पछइ कुमार जेतलइ आघउ चालिउ तेतलइ वनगज एक सामुहउ आविउ। ते पणि हेलाई वसि कीघउ । इम वली केसरी सिंह आविउ । ते पणि आपणि शक्तिइ करी बि-खंड कीघउ । ईणी रीतिइ पंथ अवगाहता आगलि कमलसेना-प्रिया-सहित आरणउ कटक दाठउ। ते देखि हर्षित हंतउ पछिया लागउ, 'तुम्हे मुझ-पखई आधा किम चाल्या ?' तिवारई कुमारना प्रधान कहई, 'स्वामी! अम्हनइ कुणिहि एकणि ईम कहिउ जु, "कुमार आघउ चालिउ" ते-भणी १. C. K. Pu. कोतर । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १५९ अम्हे कमलसेनानइ लेई बीजी वाटइ चाल्या । तु सांप्रत हिवडां तुम्हे मिल्या ।' इम वात करतां पंथ अवगाहतां संखपुरिनइ उद्यानि वनि आन्या । पछइ पिताई कुमार प्रवेशोत्सव करी नगरी-माहि आणिउ । तिसिइं वधू-सहित कुपर मातापिता पग नमस्करी भापणइ घरि आविउ । पछइ भलइ दिवसि कुमारनइ युवराज पदवी दोधी । अनइ कुमारिइ ते मदनमंजरी पट्टराणी कीधी । अनइ कमलसेना लहुडी राणी कोधी । हिवइ. सर्व काजकामनइ धुरि मदनमजरी कीधी । पणि लगारइ कमलसेना रीसाणी नहीं । हिव अन्यदा वसंतऋतु आविई राजा सांत:पुर वन-माहि गयउ । तिसिई अगडदत्तकुमार पणि मदनमंजरी-सहित रथि बइसी वन-माहि गयउ । तिहां सर्व दिन क्रीडा करी, तीणइ जि रथि निद्रा करिवा लागा। एहवइ निद्रा-माहि मदनमंजरीनउ हाथ लांबउ हूउ, तिहां सर्पिइ आवी डंक' कीधउ । तेतलइ तत्काल मदनमंजरी पुकारी ऊठी । तिसिई कुमार दीवउ करी जु जोइ, तु साप दीठउ । एतलइ प्रियानइ मूर्छा आवी । ते देखी कुमारनइ पणि मूर्छा आवी । पछइ शीतल वायनह योगह कमार सचेत हउ। हिवह जेतलई मंत्रवादी-तंत्रवादी तेडावीनइ उपचार करावइ, तेतलइ राणी अचेत हुई मुंई पडो। तिवारइं कुमार विलाप करतउ काष्टनी चिहि करावी प्रिया-सहित चिहि-माहि पइसिवा लागउ । तिसिई कोई एक विद्याधर आकाश-मार्गि जातउ हूंतउ। तेणइ ते कोलाहल सांभली तिहां आविउ । पछइ विद्याधरइ विद्याइ करी त्रिण्णि वार पाणी अभिमंत्री मदनमंजरी छांटी । तेतलह तत्काल विष गयउं, आंखि ऊघाडी जोवा लागी। तिवारह कुमारनइ मनि आनंद ऊपन। पछइ विद्याधर सत्कारिउ हूंतउ आपणइ ठामि पहुतउ । अनई कुमार मदनमंजरीनइ लेई देवकुल-माहि आविउ । तिसिइ मदनमंजरी कहइ, 'स्वामी! मुझनइ ताढी लागइ छ। ए वात सांभली कुमार अरणीना काष्ट लेवा गयउ। हिवइ ते देवकुल-माहि आगइ पांच चोर चोरी करी प्रच्छन्न रह्या हता, तीणइ दीवउ प्रगट कीघउ तिवारइ ते चोरनू रूप देखी मदनमंजरी व्यामोहि हूती इसिउँ कहइ, 'जु मुझनइ आदरउ तु @ भरिनइ हगी तुम्ह-साथि आवउं ।' चोरे ए वचन मानिउं । एहवइ कुमारिइं अरणी-काष्ट लेतां. देवकुल-माहि उद्योत दीठउ । ते देखी सासक हूंतउ पाछउ आवी प्रियानइ पूछइ, 'हे प्रिये ! ए देवकुल-माहि उद्योत किसिउं हूउ ?' तिवारइ स्त्री कहइ 'स्वामी ! तुम्हे जे अरणीनी आगि पाडी तेहनउ उद्योत इहां प्रतिबिंबिउ ।' इणि वचनि मननी शंका भागी। पछइ आपण खड़ग प्रियानइ हाथि देई, सीत गमाडिवा-भणी आपणपे आगि प्रगट करिवा लागउ । तिसिद्ध प्रयाइ भर्तार-भणी खड्ग मूकिउ, पणि लागउं नही, भीतिइं खलहाणउं । पछइ कुमार सासंक हतउ प्रियानइ पूछइ, हे प्रिये ! ए सिउं?' तिवारई स्त्री कहइ, 'माहरा हाथ ताब्या, तिणि करी खांडउं खिसी भुई पडिउं ।' पछइ कुमारनइ मनि वेसास ऊपनउ । तिहां-थकउ प्रिया-सहित कुमार घरि आविउ । हिवह पाछलि चोरे चौतविउं, 'जोउ, जेहनइ कीधइ कुमार काष्ट-भक्षण करतउ हूंतउ, तेहनइ जु आपणी नही हुई, तु अम्हनइ किम हुसिह ?' इम चीतवतां वैराग्य-रंग ऊपनइं पांचे चोरे दीक्षा लीधी ।। हिव कुमार धर्म-अर्थ-काम ए त्रिवर्ग साधतउ रहइ छइ । इसिइ परदेसी तुरंगम आव्या। जेतलइ एकइ घोडइ कुमार असवार हूउ, तेतलइ ते तुरंगम पंवमधाराइ चालिवा लागउ । एहवइ केंतलाएक असवार पाछा वल्या केतलाएक संघाति नीकल्या । इम जातां जि क्षण-एक कमार अदृश्य हउ । महा-अटवी-माहि गयउ। तिहां जेतलइ कुमारि घोडानी वाग मंकी. १. G. Pu. डस, K. डंश । २. P ठर्या । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुंदरगणि-विरचित तेतला घोडउ पडेउ' । पछइ कुमार वन-माहि फिरतउ, तिहां श्री-आदिनाथनउ प्रासाद देखी मनि हर्ष ऊपनउ । पछइ प्रासाद-माहि आवी श्री-आदिनाथनइ प्रणमी आगिली वाविइ स्नान - करी, वली फलफूल लेई, जगन्नाथ पूजी, जगती-माहि आवीउ । तेतलइ तिहां मुनि एक धर्मोपदेश देतउ देखी, पछइ महात्मा-पाखती त्रिणि प्रदक्षिणा देई, प्रणाम करी, आगलि बइठ । तिसिइ तिहां केई-एक पुरुष दीक्षा-लेणहार देखी महात्मा-कन्हलि पूछइ, 'भगवन ! ए पांच पुरुष दीक्षा लिई छई, ते कउण? अनइ वली एहनइ वैराग्पनउ स्यउं कारण ?' तिवारद मुनि कहइ, 'अहो भद्र ! एहनउ संबंध सांभलि ।। इहां वध्याटवी। तेह-माहि भीम नामा पल्लीपति रहइ । तेहना ए पांच इ बांधव । हिवइ तिहां कोई एक राजकुमर कटक लेई आवतउ हूंतउ । तेह-साथि भीमइ झूझ कीघउं । तिवारइ भीम मदनमंजरीनइ रूपिइ व्यामोहिउ हूंतउ काम-व्याकुल हूउ। तिसिई कुमारिइं ते पल्ल पति हणिउ । पछइ कुमार आपणइ नगरि आविउ । हिवइते भीमना पांच इ बांधव कुमारनइ हणिवा-भणी छिद्र जोई, पणि पहुची न सकई । इम एकदा ते कुमार प्रिया-सहित वन-माहि देखी ते पांच इ छाना देवकुल-माहि रह्या । इसिई कुमाग्नी वल्लभा सर्पनइ डसिइ अचेत हुई । तिवारइ तेहनइ विरहि कुमार अग्नि-प्रवेश करिवा लागउ । एहवइ विद्याधरि आवी प्रिया जीवाडी । कुमार हर्षिउ । पछइ प्रिया कहइ, 'स्वामो ! ताढी लागइ छइ, अग्नि आणि ।' इणि वनि कुमार स्नेहनउ वाहिउ आप अग्नि लेवा वन-माहि गयउ। अनइ प्रिया देवकुठ-माहि मूंकी । एहवइ जे पूविई पांच इ चोर कुमारनइ हणिवा भगी देहरा-महि रह्या छई, तीणे दीवउ प्रगट कध।। तेतलई कुमारनी प्रिपाइ ते पांव इ चोर दीठ। हिवइ तेह-माहि जे लघु बांधव छइ, तेहनउं मन कुमारनी प्रिया-ऊपरि हां। अनइ ते स्त्रीनउं मन ते चोर-ऊपरि एउं । पछइ स्त्रीइ प्रार्थना कीधी । तिवारइं चोरिई कहिउं, 'जां ताहरउ पति जीवइ तां-ताई आपणपानइ संबंध न घटइ।' वली स्त्री कहइ, 'अहो । जेतलइ कुमार आवइ, तेतलइ कुमारन हगी निःशल्य करिसु ।' इम कहितां जि ते कुमार आगि लेई आविउ । तिसिई चोरे दीवउ ढांकिउ । पछइ कुमारि प्रिया पूछी, 'कहि-न, ए देवकुल माहि उद्योत सिउ हूउ ? तिवारइ आपण उ संबंध गोपवी स्त्री कहइ, 'स्वामी! तुम्हे जे आगि आणी, तेड्नइ प्रतिबिंबि उद्योत हूउ।' स्त्रीइं इम वेसास ऊरजाविउ । पछ आपणउं खड्ग पियानइ हाथि देई, "आप अग्नि प्रगट करिवा लागउ । तिवारइं तीणी पापिणीइ पति मारिवा-भणी खांड सज्ज कीधउं । तेलइ ते चोरनइ दया ऊपनी । चोर । लागा, 'जोउ. जेहनइ कीधइ ए कुमार अग्नि-प्रवेश करतउ हंतउ, तेह-ऊपरि स्नेह ऊतारी सांप्रत माहरइ विषइ राती हंती, वली तेहनइ मारिवा चीतवइ छइ। तु ए युवती स्त्रीनट केहउ वेसास, जे हूंता एतलां वाना हुई ?' यतः ___ अकीर्ति-कारणं योषित् योषित् वैरस्य कारणं । संसारे कारणं योषित् योषितं वर्जयेत्ततः ॥११॥ स्त्रीनउ एहवढं कारण जाणी ते पांचे इ चोर संसार-हूंता विरम्या। हिव जेतलइ तीणी स्त्रीई कमारना गला-भणी खांडउं मूकिउ तेतलई चोरे खांडउं खलहिउं ।' जिम ते मुनिना मुख-इतु एवात सांभनी तिम जि कुमार स्त्री-ऊपरि विरतउ हउ । मर-माहि चौंतवित्रा लागउ,'मुझनइ धिकार, जे मइ जाति-कुल-विशुद्ध स्त्री छांडी ए-ऊपरि अनुराग कीधउ।' तिवारई मुनि कहा, 'अहो कुमार ! ईगइ कारणि ए पांच इ चोर दीक्षा लिइ छई।' एहवउ १. K. रहिउ । २. C. आपणिपे सीत गमाविवा-भणी अग्नि । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध वृत्तांत सांभली ते चोरनइ खमावी स्त्रीनउं स्वरूप विमासतु मुनिनइ कहइ, धन्य ए चोर, जे एहवर्ड कारण देखी दीक्षा लिइ छई।' इम वली गुरुपई कहइ, 'स्वामिन ! ए सर्व तुम्हे-माहरउ जि वृत्तांत कहिउ । ते हूंय जि । तु तुम्ह टाली मुझनई ए कउण संदेह भाजत ? हिवइए पांच इ चोर माहरा बांधव हूया, जीणे हूं जीवतउ राखिउ । तु आज पछइ मुझनइ अरहंत देव, सुसाधु गुरु, जिन-प्रणीत धर्म-एह जि समकित्व सरणि ।' तिहां एहवउं समकित्व पडिवजी, आपणड घरि आवी, माता-पितानइ समझावी, कमलसेनाप्रिया-सहित दीक्षा लेई, वैराग्य-रंग-पूरित हूंतउ, चारित्र पाली, ते अगडदत्त महात्मा मोक्ष-सुखनइ भाजन हूउ । इहां अगडदत्त-मुनिनउ दृष्टांत संक्षेपिई करी कहिउं । हिव एहनउ विस्तार श्री-वसदेवहींडि'-हतउ जाणिवउ । इति श्रीशीलोपदेशमाला-बालाविबोधइ श्री-खरतरगच्छ-नायक-श्री-जिनचंद्रसूरि-शिष्येन विरचित श्रीअगडदत्तमुनि-कथा ॥४०॥ * अथ वली नारीनउ वेसास करतां दुर्दशा पामीइ ते कहइ मुह-महुरासु निरिघण-मणासु नारीसु मुद्ध वीसासं । जंतो लहसि अवस्सं पएसिराउ व्य विसम-दसं ॥८७ व्याख्याः - हे मुग्ध = हे सुद्ध-हृदय ! ए नारी मुखिइ महा मधुर हुइ, अनइ मन-माहि महा-निर्पण दृष्ट-चित्त हइ । तु अहो अप्राज्ञ ! इसी नारी स्त्रीनउ जु तं वेसास करिसि. तउ त तेहनड विश्वासि जातउ हतउ अवश्यमेव-निश्चइ-सिउं विषम पाडुई दशा पामिसि । कणनी परिई १ प्रदेशी-राजानी परिइ । जिम प्रदेशी राजाई स्त्रीना विश्वास-लगइ विषम अवस्था पामी. तिम अनेरउ-इ नर पामइ । इति गाथार्थ । हिवइ विस्तर-अर्थ कथा-हंतउ जाणिवउ । ते प्रदेशी राजानी कथा कहीइ [४१. प्रदेशी राजानी कथा] श्वेतवती-नगरीइ प्रदेशी राजा राज्य करइ । तेहनी प्राणप्रिया सूर्यकांता राणी। अनइ चित्र नामा मंत्रीश्वर । ते चित्र एकदा राजकाज-भणी जितशत्रु राजा-समीपि श्रावस्ती-नगरीई गयउ। तिहां केशी गणधर देखी, प्रणाम करी, उपदेश सांभली, गृहधर्म पडिवजी. केशीकमारनइ आग्रह कीधउ, कहिउं, 'स्वामी ! एक वार श्वेतवती-नगरीइ विहार करिज्यो ।' इम कही गुरुनइ हा भणावी । पछइ चित्र महुतउ आपणइ नगरि आविउ ।। हिवइ जे प्रदेशी-राजा, ते महा-नास्तिक । पुण्य-पाप कांई न मानह । नित महुता-साथि विवाद करतउ जि रहा। इसिई पृथ्वी-मंडल-माहि विहार करतउ केशी आचार्य, श्वेतवतीनइ परसरि उद्यानवन,तेह-माहि आवी समोसर्या । एहवइ उद्यानपालकि आवी महतानइ वधामणी दीधी। तिसिहं चित्र महतउ इसिउं चींतवइ,'जु मुझ थकां माहरउ स्वामी नरकि जासिइ, तु ए वात युगती नही।' इम चोंतवी घोडानइ मिषांतरि प्रदेशी राजा वन-माहि लीधउ। तिहां घणा अश्व फेरिया। राजा थाकउ । पछह वृक्ष-मूलि जई वीसामउ लेवा लागउ। तेतलइ ते गुरुनी वाणी राजानइ कानि पडी । तिवारई प्रधान-प्रति कहइ, 'ए कउण बोलइ छइ ?' तिसिई प्रधानि कहिउं, 'स्वामी ! चालउ आपणपे जई सांभलोइ।' पछइ राजा दूकडउ आवी वाणी सांभलिवा लागउ । तिहां मधुर स्वरि १. B. ० हींडिसिद्धांत-हूंतउ । २. AB. फर्या, P. फेर्या, L. फिरया । २१ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित करी गुरु कहा, 'अहो लोको ! ए संसार-माहि जे मूढ जीव तत्त्व अणजाणतउ हंतउ अनइ असद-वासनाई करी आपणउ जन्म मुधा हारवइ, ते नरगनइ अतिथि थाइ । अनई जु धर्म आदरह तु ऊर्ध्वगति पामइ ।' एहवउं सांभली वलतुं राजा कहइ, 'महात्मन! पुण्य-पाप नथी, जीव-अजीव नथी। जिणि कारणि, मइ चोर एक झाली तोलावी जोयउ। पछइ वली गलइ टूपउ देईनइ तोलिउ। न तेहनउ कांइ भार घटिउ, न कांइवाधिउ। इम वली चोर एक झालीनइ खंडोखंडि करी जीव जोयउ । पणि तेहनउ जीव दीठउ नही। पछई वली एक चोर झाली कुभी-माहि घाती, बारणउं लीपावी, दिन पांच-सात माहि राखी जिम बाहरि काढयउ तिम 'गाडरनां सई दीठा । तु कहउ, ते चोरनउ जीव कीणी वाटइ गयउ ? अनइ गाडरना जीव कीणो वाटइ आव्यां? कुंभीइ तु काई छिद्र पडिउंन हंतउ।' तिवारइ गुरु राजानइ वलतु दृष्टांत देखाडिवा-भणी कहइ, 'राजन! एक दईड अणावीनइ जोइ।' तिवारह राजाई दईड अणावी, •तोलावी, वली वाई भरी तोलाविउ, पणि तेह-माहि तेतलउ जि भार । ए राजाना पहिला बोलनउ ऊतर हूउ । वलि गुरे अरणी-काष्ट अणावी राजानइ कहिउ', 'राजन ! एह-माहि आगि किहांइ दीसइ छइ ?' कहिउँ, 'ना ।' तिवारइ ते काष्ट घसाव्यां, माहिहंती अग्नि प्रगट हुई । ए बीजा बोलनु ए ऊतर। वली गुरे कुंभी एक अणावी. माहि शंखवादक पुरुष घाती, बारणउं बूगवी, संख पूराविउ । पछइ गुरे राजानइ कहिउ', 'जिम ए स्वर नीकलतउ कुणिहि न दीसइ, तिम जोव नीकलतउ कुणिहि न दीठउ ।' इत्यादि युक्तिई राजा रिम किमह प्रतिबोधिउ, जिम राजाइ नास्तिक-मत छांडी, हेमनी रीतिइ परीक्षा करी, जिन-मत आदरिउ । तिहां जि सम्यक्त्व-मूल द्वादश व्रत ऊचरी, वली शीलतादिकना अभिग्रह लीधा । पछइ पर्वतिथिई राजा पोसह लेवा लामउ । इम जिनधर्मनइ विषइ महांत रक्त हउ । तिसिई सूर्यकांता राणीइ कामाशक्तपणइ अन्य-पुरुष- सिप्रीति बांधी। तिवारई तिणि पुरुषि कहि', 'जां ए राजा बीव, तां आपणउ स्नेह सफल नहीं थाइ।' पछइ सूर्यकांता-राणीइ राजाना उपवासना पारणानइ दिवसि भोजन-माहि विष दीधउ । जेतलइ प्रधाने आवी विषापहारी पयोग करी विष वालिवा लागा, तेतलइ सुर्यकांताई चीतर्व उं जु, 'माहरउं कीधउं अणकीधउं थास्यड । इम चोंतवो माया-लगो रोती हूंती सूर्यकांता राणी राजानइ गलइ वलगीनइ कहिवा लागी. हा स्वामी ! हा प्राणनाथ ! ए तूंन किसिउं हुई ?' इत्यादि कपट-विलाप करती गजाननु गलइ अंगूठउ चांपी टूपउ दीघउ । तिवारइ राजाई ते पापिणीनउं स्वरूप जाणि उं, पणि चालड कांई नही । पछइ नवकार गुणतां जि राजाना प्राण गया । मरीनइ सूर्याभ-विमानि सौधर्मि देवलोकि देवता ह। हिव तिहां अवधिनइ बलि आपणउं पूर्व-स्वरूप जाणी, सम्यक्त्व निर्मलउं करतउ, च्यारि पल्योपमनउ आयु पाली, महाविदेहि क्षेत्रि आवी मोक्षि जासिइ । तु अहो धार्मिको ! इसिउ जाणी ते स्त्रीनउ वेसास म करिज्यो । इति श्रो-शोलोपदेशमाला-बालावियोधे प्रदेशीराजानी कथा समाप्त ॥४१ बली यांतपूर्वक नारीनउ अविस्वासपण उ देखाडतउ कहइ अणुकल-सपिम्माण वि रमणीणं मा करिज वोसासं । जह राम-लक्खणेहिं सुप्पणहाए महारणे ॥८८ व्याख्या:-हे विदुषो ! इम म जाणिसिउ, जु ए मूहनइ अनुकूल=हितकारिणी छह, अथवा १. Pu. गाढरनां सइ, B.लटना सई । २. A. B. दडउ, P. दीवडउPu, दीडउ । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध माहरइ विषइ सप्रेम-सस्नेह, सानुरागिणी छइ । इसिउ जाणिइं हूंतइ पणि ते रमणी-स्त्रीनउ विश्वास न करिवउ । यतः न विश्वसेत् कृष्णसर्पस्य स्त्री-चरित्रं न विश्वसेत् । सो विराधितो हन्ति स्त्री समाराधिता पि हि ॥१॥ ए ऊपरि दृष्टांत कहइ-जिम इहां अरण्य-दंडकारण्य-माहि श्री-राम-लक्ष्मण-कुमारि सूर्पणखा= रावणनी बहिन, तेहन उ वेसास न कीधउ । किम ते कहइ-यदा कालि श्री-राम-लक्ष्मण बेहू वनवासि, फिरता फिरता जिवारइ लक्ष्मग-कुमारि शांबूक विद्याधर हणिउ, तिवारइ रावणनी भगिनी सूर्पणखा आपणा पुत्रनउ वध जाणी, जेतलई लक्ष्मण-समीपि आवी, तेतलइ लक्ष्मणनउं रूप देखी व्यामोही हूंती, पुत्रनी असमाधि मूकी, संभोगनई कारणि प्रार्थना करिवा लागी। तिवारइ लक्ष्मणि श्रीराम-कन्हलि मोकली। पणि श्रीराम न मानइ । वली श्रीगमि लक्ष्मण-कन्हलि मोकली। जिम डमरूनी मणि उरइ-परइ फिरइ, तिम ते सूर्पणखा फिरी । पणि तेहनउ वेसास न कीधउ । ए मोटउ दृष्टांत छइ । पणि शीताना चरित्र-हंतउ जाणिवउ तिम अनेरे पुरुषे पणि स्त्रीनउ वेसास न करिव । वली एह जि अर्थ दीपावतउ कहइ पर-रमणी-पत्थणाउ दक्खिन्नाआवि मुझ मा मूढ । 'पडसि अणत्थे किं किल दक्खिन्नं रक्खसीहिं समं ॥ ८९ व्याख्याः -रे मूढ= मूर्ख ! पर-रमणी-परस्त्री, किवाग्इं मैथुन-सेवा-भणी प्रार्थना करइ, तु रखे तेहना दाक्षिण्य-लगी चूकइ । जु किवारई तेहना दाक्षिण्य-लगइ मोहइ पडिउ, चूकउ, तउ सही मोट: अनर्थि संकटि पडिसि । किल इसिइ(१३) प्रश्नि । किसिउ ? जे राक्षसी हुई तेहनी कोई काणि करइ ? अपि तु कोई न करइ । जिसी राक्षसी, तिसी परस्त्री जाणिवी । यतः दर्शने हरते प्राणान् स्पर्शने हरते बलं । मैथुने हरते वीर्य स्त्री हि प्रत्यक्ष-राक्षसी ॥ २ हिव पारदारिकनी निर्भर्त्सना करइ पररमणी-संगाओ सोहम्गं मा "मुणेसु निब्भग्ग । जइ सिद्धि-वहू-रंग करेसु ता मुणसु सोहग ॥९० व्याख्याः -हे निर्भाग्य-शेखर ! पर रमणी-प-स्त्रीना रंग लगइ आपणउं रूप, 'लावण्यादि सौभाग्यवंत करी म मानि । स्त्री बापडी कुण मात्र ? जइ किमइ सिद्धिवधू-मुक्ति-कन्या, ते साथि रंग करइ ते जु आपणइ वशि करइ, तेह-सिउ रमइ, तु ताहरउं सौभाग्यपणउं साचलं मान-तउ जाणउं सही, ताहरउं साचलं सौभाग्य । इति गाथार्थ । हिवइ संसाराभिलाषी जीवनइ मोक्षनउं लाभ दोहिलउ ते कहइ बहु-महिलासु पसत्त सिव-लच्छी कह तुम समीहेइ । __इयरावि पोढ-महिला अन्नासत्त न ईहेइ ॥९१ १. Pu. पडिस्सं। २. C. मा मणेसु । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित व्याख्याः -अरे मूढ जीव ! जइ किसइ अनेरी बहु घणी स्त्रीनइ विषइ आसक्त होसिइ, तउ जे शिवलक्ष्मी=मुक्तिकन्या छइ, ते तूंहनइ किम वांछसिइ ? इहां दृष्टांत देखाडइ-जिम अनेरी : अन्य-स्त्री-आसक्त देखो विरती थाइ, तिम मुक्ति-स्त्री पणि अन्य-स्त्री-रक्त पुरुषनई न वांछइ । हिवइ निर्मल शील पालवइ जि करी मोक्षनी प्राप्ति हुइ ते कहइ-- सासय-सुह-सिरि-रम्म अविहड-पिम्मं समिद्ध-सिद्धि-वहु । जइ ईहसि ता परिहर इयराओ तुच्छ-महिलाओ ॥९२ व्याख्या:-अरे मुग्घ जीव ! जिहां सिद्धिवधू छइ, तिहां तु शाश्वतां निश्चल, अनंत सुख छई। वली शाश्वता, रम्यप्रधान, अनंत लक्ष्मी ते पणि तिहां छ । जे अनंतइ कालि विहडइ नही इसिउ प्रेम स्नेह पणि तिहां छइ। ए सर्व वात सिद्धिवधूनइ विषइ प्रसिद्ध छ। । इसी मुक्तिनारीनउ संगम जइ ईहइ वांछइ तु, इतर अनेरी जे तुच्छ अघमि, नीचि, निस्नेहि महिला छई, तेहनत संसर्ग मेल्हि रिहरि । अथ स्त्री-लंपटनइ किहां सुख न हुइ ते कहइ रम्माओ रमगीओ दट्ठं विविहाउ काम-तवियस्स । .. कत्थ सुहं तुह होही भणियमिणं आगमेवि जओ ॥९३ व्याख्याः -अरे आत्मन ! रम्य मनोहर रमणीना हावभाव, विविध कटाक्षक्षेपादि देखी, जउ कामि करी संतप्त होएसि, तु तूहनइ सुख किहां-थक उ होसिइ ? वली एह जि संबंध सिद्धांत-माहि कहिउ छइ । ते कहा जइ तं काहिसि भावं जा जा दच्छसि नारीओ । वायाइद्धो व्व हढो अद्विअप्पा भविस्ससि ॥९४ व्याख्या:-जइ किमइ तूंजे जे नारी सुरूप देखिसि, ते ते नारी-ऊपरि जउ चित्त-माहि संभोगाभिलाष करेसि, तउ वायनउ अंदोलिउ वृक्ष, तेहनी परिई अनिश्चितात्मा होसि=अथिरआत्मा थाएसि । हिव स्त्रीनइ शरीरि वैराग्य-हेतु-कारण देखाडतु कहा रमणीणं रमणीयं देहावयवाण जा सिरिं सरसि । जुव्वण-विरमे वेरग्ग-दाइणिं तं चिय सरेसु ॥ ९५ व्याख्या:-हे विवेकी ! जिम तू उन्माद-जनक रमणी-स्त्री तणां स्तनादिक अंगोपांग तणी रमणीय-मनोहर श्री शोभा आपणा मन-माहि स्मरइ छइ, तिम तेही जि स्त्री तणां यौवननइ विगमनि-जगइ आविइं हूँतइ, एतलां वानां हुइ-स्तन सूकी जाइ, मुखिइ दांत न हुइ, सयरि लालरी बलइ, मुख लाल पडइ-इत्यादि स्त्रीनी अवस्था देखी, चित्त-माहि वैराग्य काइ न स्मरइ ? इति गाथार्थ। अथ शीलनउ महातम्य अनइ शीलरहितनी निंदा कहइ सील-पवित्तस्स सया किंकरभावं करंति देवा वि । सील-भट्ठो नट्ठो परमिट्ठी वि ह जओ भणियं ॥ ९६ व्याख्याः - जे पुरुष सीलि करी पवित्र हुइ-सुशीलवंत हुइ, तेहनइ देवता पणि किंकरभाव-दासपणउं करइ । अनइ जे परमेष्टीब्रह्मा हुइ, अथवा ते परमेष्टी-सरीखु हुइ, पर जउ शील-भ्रष्ट हउ, तउ निश्चिइ-सिउं नष्ट विगतउ इजि । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालापबोध वली श्री-उपदेसमाला-माहि कहिउं छइ, ते कहइ-- जइ ठाणी जर मोणी जइ मुंडी वक्कली तवस्सी वा । पत्यंतो अ अबंभं बंभा वि न रोचए मझं ॥ ९७ व्याख्या:-जइ किमइ एकणि ठामि काउसम्गि सिंहगुफावासीनी परिई रहइ, अथवा जंगमादिकनी परिइ मूनव्रत-धारक हुइ, अथवा मुंडितमस्तकलुंचितकेश बौद्धादिकनी परिइ, वक्कली वल्कल कहीइ त्वचा-धारक तापसादिक, तपस्वी=मास-क्षपणादि उग्र-तपकारक विश्वामि-त्रादिक, वा-शब्द-इतु अनेरउ इ कोई जाति-कुल-ईश्वर्यादि जे संपन्न, गुणवंत हुई, तेहवउ इ हूंतउ जइ किमइ अब्रह्म सेविवा वांछइ, तर ते नर-मनुष्य मुंहनइ न रुचइन सुहाइ । अनेरानउं सिउं कहीइ १ जे लोक-माहि ब्रह्मा जगतनउ कर्ता छइ, ते पणि न रुचइन भावह । इय भावं भावंतो सजोग-जुत्तो जिइंदिओ धीरो । रक्खइ मुणी गिहीवि हु मिम्मल निय-सील-माणिक्कं ॥९८ व्याख्या:-- इम पूर्वोक्त भाव भावतउचीतवतु हूंतउ आपणउ मन-वचन-कायनउ योग, तिणि करी संयुक्त सहित हूंतउ, जितेंद्रिय कहीइ आपणी इंद्रिय जीपी=उन्मार्ग-हूंती निवर्तावी, जे धीर= निश्चल, मुनि-महात्मा अथवा गृहस्थ, ते आपण निर्मल-शीलरूप माणिक्य-रत्न राखइ। माणिकनी परिई शील सुरक्षित करिवउं । हिव मुनिनी परिई शीलरक्षानउ उपाय कहइ एगते मंताई पासत्थाई-कुसंगमवि सययं । परिवज्जंतो नवबंभ-गुत्ति-गुत्तो चरे साहू ॥९९ व्याख्याः - एकांति-निर्विजन-स्थानकि, स्त्री-साथि मंत्र आलोचकरण, आदि-शब्द-लगी जे स्त्री व्याकुल स्थानक, तेहनउं वर्जिवु, वली पासस्था-उसन्नादिक, तेहनउ संग वर्जिवउ । इत्यादि बोल वर्जतउ, नवविध ब्रह्मचर्य गुप्ति तिणि करी गुप्त-सहित साधु विचरइ । वली आदि-शब्द इतु अवसन्न-कुशील-संसक्त यथाछंदादि जाणिवा । हिव गृहस्थनइ पणि शीलरक्षानउ उपाय कहइ वेसा-दासी-असई-पमुहाणं सेस-दुट्ठनारीणं । सील-वय-रक्खणत्थं गिही वि संग विवज्जिज्जा ॥१०० व्याख्या:-गृहस्थि आपण शलवत राखिवा-भणी वेश्या, दासी, असती कही जे भरिनड वंची पर-पुरुष-सिउं रमइ, एह-प्रमुख अनेरी इ जे दुष्ट-कुशीलिणी नारी हुइ, तेहनउ संसर्ग सर्वथा वर्जिवउ । एहना संसर्ग-लगइ गृहस्थनइ शीलभंग-दोष ऊपजइ । अथ वली मुनि-गृहथनह शिक्षा कहइ वेसा-दासी-इत्तर-परंगणा-लिंगिणीण सेवाओ । वज्जिज्ज उत्तरोत्तर ए ए दोसा विसेसेण ॥१०१ व्याख्या:-गृहस्थई ए सर्व वर्जिवी, जिणि कारणि एक एक पाहंत अधिक अधिक सदोष छइ । ते कउण ? वेश्या पणांगना, ते भलइ मनुष्यइ वर्जिवी । दासी चेडी ते पणि न सेविवी । इत्वरा कहीइ जे भाडउं देई संभोग-भणी घरि राखी हुइ । परांगना कही परस्त्री, ते तु सर्वथा त्याज्य Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दर-गणि-विरचित हइ । लिंगिणी कहीइ यति-वेष-धारिणी-महासती । इणि कारणि एकेकथी अधिक अधिक सदोष छइ । तेह-भणी उत्तमे एह-सिङ संबंध-संभोगाभिलाष सर्वथा वर्जिवउ । एतलउ गाहनउ अर्थ हूउ। हिव बिहुंनइ कुसंसर्ग वर्जिवउ, ते कहइ जू आर-पारदारिअ नड विड-पमुहेहिं सह कुमित्तेहिं । संग वज्जिज्ज सया संगाउ गुणा वि दोसा वि ॥१०२ व्याख्या:-जूआर-जूआरी, पारदारिक परस्त्री-लंपट, नट-नाटको, विट-चोर, एह-प्रमुख अनेरा इ मद्यपानी, पाडूआ मित्र, एह-साथि संग सदाइ वर्जिवउ । जिणि कारणि, जिसिउ संसर्ग कीजइ, तिसा जि गुण नइ दोष ऊपजई । अथ नारीना गुण कहइमिय-भासिणी सलज्जा कुल-देस-वयाणुरूव-वेसधरा । अभमण-सीला चत्तासइ-संगा हुज्ज नारी वि ॥१०३ व्याख्याः -मित-भाषिणी कहोइ थोडउं-सिउं बोलई । वली सलज्जा लाज-सहित हुइ, अनइ वली कुल नई देसनइ सारइ, वयनइ सारइ, लक्ष्मीनइ सारइ, रूपनइ सारइ वेस पहिरइ । वली अभमण कही घरि घरि भमतो न रहइ । असतीनउ संग त्यजइ । -इसी कुलस्त्री सघले प्रशस्य श्लाघनीय हुइ । वली कुलस्त्री किसी हुइ ते कहइ देव-गुरु-पियर-ससुराइएस भत्ता थिरा वर-विवेया। कंताणुरत्त-चित्ता विरला महिला सुदढ-चित्ता ॥१०४ व्याख्याः -देव, गुरु, माता-पिता, सासू-स्वसुग-प्रमुख जे वडा-पूज्य हुई, तेहनइ विषइ भक्ता हुइ, थि-स्थिर कहीइ चपल-स्वभाव न हुइ, वली वर-प्रधान-विवेकवती हुइ, वली कांत= भरिनइ अनुरक्त-चित्त हुइ, वली शील राखिवा-भणी दृढ-चित्त-निश्चल-मन हुइ-एहवी कुलीन स्त्री सइसहस्त्र-माहि एक्का-विरली जि दीसइ । अथ महासतीनी शीलनी दृढिमा कहइनिम्मल-महासईणं सीलवयं खंडिउं न सक्को वि । सक्केड जेण ताणं जीवाओ सीलमभहिअं ॥१०५ व्याख्या:-जे स्त्री निर्मल महासती सत्ववति हुइ, तेहन उं शील शक्र इंद्र इ खंडी न सका। जिणि कारण, ते स्त्रीनई जीवतव्य-पाहंति शील वालहूं हुइ । वरि आपगा प्राण छांडइ, पणि शीलनउ भंग न करइ । हिव सती-शब्दनउ अर्थ कहइ स च्चिय सइ त्ति भन्नइ जा विहुरे वि हु न खंडए सीलं । तं किल कणयं कणयं जं जलणाओ विमलयरयं ॥१०६ व्याख्याः -सती एहवउं नाम तेहनइ कहिवराइ जे विधुरि=संकटि पडिइ, जीव संदेहि पडि हंतइ जे शीलनी खंडना न करइ । इहां दृष्टांत देखाडइ-किल-निश्चइसिउं जिम कनक Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला बालावबोध १६७ कांइ १ सुवर्ण ते कहीइ, जे ज्वलन = वैश्वानर-माहि घतिउं हूंतउ विमलतर = चोख उं नीकलइ | सोनउ जिम जिम अग्नि-माहि घातीइ, तिम तिम चोखउ नीसरइ । तिम सती ते कहीइ, जे संकटि पडयां शील राखइ । हिवs असतीन स्वरूप कहइ निय - सत्त- वज्जियाओ पावाउ नराण दूसणं दिति । किं काहामो अम्हे निराला जेणिमे पुरिसा ||१०७ व्याख्या: – निज= आपणई सत्विदं विवर्जित= शील- दृढिमा - रहित हूंती ए पापिणी स्त्री, नर= पुरुष इ इसिउं दूषण दिइ कि, 'सिउ' करउ ? अम्हे तु अबला स्त्री मात्र अनइ ए पुरुष तउ स्वच्छंद, लंपट, निरर्गल हूंता आवी आवी उद्वेग करई । ए- आगलि किमहि न छूटीइ । ए सर्व पुरुषजि-नु दोष, अम्हारउ दोष कांई नहीं ।' अथ शीता - महासतीनउ दृष्टांत पूर्वक कहइ तिहुअण-पहुणा विहु रावणेण जीसे न रोममित्तं पि । संचालिय नं तीए चरिअं चित्तं ति सीआए || १०८ व्याख्याः - अनेरा सामान्य पुरुषनउ सिउँ कहिवड १ पणि जे त्रिभुवननउ स्वामी, महा-रूपवंत कंदर्पावतार, एवउ जे लंकानड अधिपति रावण, तीणइ अनेक महा-हावभाव, दीनहीन ववने स्नेह-होभ- भयादिक घणा प्रकार कीघा, पणि ते शीता महासतीनउं रोममात्र रावणिइ चलावी न सकिउ । तु जे एहवी हुइ, ते महासती कहीइ । हिवs ते महासतीना चरित्र कुण देव - मनुष्यमहर्षिनइ आश्चर्य न ऊपजावइ ? किंतु नाम मात्र सांभलता सत्रलाई मनि आश्चर्यरूप चमत्कार ऊपजइ । एतलइ गाहानउ अर्थ हूउ । विस्तरार्थ कथा-हूंतु जाणिवउ । हिव शीतानी कथा कहीइ [ ४२. सीतानी कथा ] मिथिलानगरी जनकराजा राज करइ । तेहनी भार्या विदेहा राणी । तिणि अन्यदा पुत्रपुत्र नउं युगल प्रसविउँ । तलई कर्मना योग-लगी पूर्व वयर चींतवी, देवताई पुत्र अपहरिउ, पछइ वैताढ्य पर्वत ऊपरि आणी मूकिउ | एहवइ दक्षिण- श्रेणिइं रथनूपुरनगरनउ अधिपति चंद्रगति' आविड हूंत, तीणइ ते बालक लेई, पुत्र करी, आपणी चंद्रमती प्रिया तेहनइ देई वघराविउ । पछइ भामंडल एवडं नाम दीघडं । हिवइ पाछलि जनकराजा - विदेहाराणीइं पुत्रनउ अपहरण जाणी, घणी असमाधि नइ घणी शोचा करी रह्या । पछइ माता-पिता पुत्रीनउ मुख देखी शीतल थया । तेह-भणी शीता एहवउं नाम दीघउं । पणि पुत्रनउं अपहरण देखी बीहता हूंता ते शीता-पुत्रीनई भुज लोटाss | इणि कारणि ए शीतानहं बीजउ नाम भूमिसुता एवउं हूउं । ते शीता उडद मउडइ वाघती यौवनावस्थाइं आवी । तिवारई जनकपितानइ वरनी चिंता ऊपनी । इसिइ म्लेच्छ - राजाई ते जनक - राजानउ देत घणउ लीघउ । पणि जनक पुहची न सकइ । हिवइ अयोध्या नगरीइ राजा दशरथ रराज करइ । कोशला (१), बीजी सुमित्रा (२), त्रीजी कैकेयी (३). चउथी ए च्यारि पुत्र जाणिवा - राम (१) रहद्द छन् । लक्ष्मण ( २ ), भरत ( ३ १. C. चंडगुति । २. C. वधारविउ । ३. C. सुभद्रा । तेहनी ए च्यारइ वल्लभा जाणिवी - एक सुप्रभा (४) । तेहनइ अनुक्रमिइ वली ), शत्रुध्न ( ४ ) - इत्यादि सहित सुखिइ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित इसिइ जनकराजानउ दूत दशरथराजानइ प्रणाम करी आगलि आवी बइठउ । तेतलइ दशरथराजाईं जनकनउं कुशलक्षेम - समाचार पूछिउ । वली पूछिउं, 'तू केहइ काजि मोकलिउ छइ ते कहि ।' तिवारइ दूत प्रणाम करीनइ कहर, 'स्वामी ! जनकराजानइ घणाइ मित्र छ, पणि कष्ट पड तुझ सरीखउ सगउ मित्र बीजउ कोई नही । जिणि कारणि, वैताढ्य पर्वतनइ अंतरालि बर्बर देस, तिहां मयूरशाल - पुरि म्लेच्छराजा दुर्जय छइ । तीणइ जनकराजानउ देस लीउ । तेह-भणी हूं तुम्ह-भणी मोकलिउ छउं । हिव तुम्हे विलंब म करउ । प्रीतिनउ अवसर एह जि छइ ।' ईणि वचनि दशरथराजा प्रयाण भंभा देवरावी चालिवा लागउ । तिसिहं श्री रामिइ आवी, प्रणाम करी, पितानइ राखी, आप लक्ष्मण सहित कटक लेई, मिथिलानगरीइं गयउ । तिह्रां रामि म्लेच्छ-साथि महायुद्ध करी, म्लेच्छ हणी, देस-डुंता काढी, जनकराजानइ हर्ष ऊपजाविउ । तिवारइ जनकराजाई इसिउं चींतविडं जु, 'ए शीता श्रीरामनइ दिउं ।' इम जेतलइ देवानी मनसा कीधी, तेतलइ नारद ऋषि कन्याना अंतःपुर-माहि आविउ । तिसिह शीताई ते नारद कछोटी धारक, भीषण-आकार देखी, बहती हूंती, ते नारदनइ आगता स्वागत विण-कीधइ घर-माहि गई । तिवारइ नारद रीसाणउ हूंतु, वैताढ्य पर्वत जई, चंद्रगतिनउ पुत्र भामंडल तेहनइ शीतानउं रूप पुटि (१ पटि) लिखी जिम देखाडिउ, तिम ते कामार्त्त हूउ । तिवारई चंद्रगतिपिताई शीतानउं नामठाम सहू नारदनइ मुख- इतु जाणी, नारदनइ विसर्जी, पछई) चंद्रगति भामंडलपुत्रनइ कहइ, 'वत्स ! खेद म धरि । शीता तूंहनइं परिणावीसिइ ।" इम कही पछइ रात्रि चपलगति विद्याधर मोकली, जनकराजा अणावी, भामंडल - पुत्रनइ हेति शीता मागी । तिवार जनकि कहिउं, 'मह शीता श्रीरामनइ दीघो छइ ।' ए वात सांभळी चंद्रगति कहा, 'जु मित्राणई नहीं दिइ, तु हूँ बलात्कारि हरिवा समर्थ छ । अथवा वली एक वात सांभलि, जे सघला-इ-नई संमति । आपणइ घरि वज्रार्णव धनुष छइ, सहस्र यक्षे अधिष्टित, देवतादत्त छइ । जि-को ते धनुष चडाविस, ते शीतानउ पाणि ग्रहण करिसिह । इम करतां जु राम धनुष चडावर, तु अपरि भलउ | अम्हे पण करणवार न करउ । इम ताहरउ बोल पणि ऊपरि आविसिह ।' ए वात सांभली जनकराजा क्षण एक विमासी, कालक्षेप करिवा-भणी ए वचन मानिउं । पछइ चंद्रगतिह वज्रार्णव धनुष जनकनइ देई, जनक मिथिलाइ पहुतउ कीघउ । १६८ पछ जनकराजाई शीतानइ काजि स पंवरा मंडप मंडाविउ । तिहां अनेक खेचर, भूचर, राजा दशरथ, राम-लक्ष्मणादिक सडू इ आव्या । इसिई शीता सालंकार साभरण करी सयंवरामंडप आणी । तिसिई सघले राजाए दीठी । पछइ तिहां सर्व प्रत्यक्ष देखतां प्रतिहारणी इसिउ कहवा लागी, 'अहो राजानो ! जि को ए वज्रावर्त धनुष चडाविसिह, ते शीतानुं पाणिग्रहण करिसिइ ।' तिवारइ सहू राजा धनुष-भणी हाथ घातई, पणि चडावी कोई न सकइ । पछइ पितानइ आदेशि श्रीरामहं धनुष चडाविउं । अनइ वली ऊतारिउं । तिसिहं शीताई वरमाला रामनइ कंठि घाती । तिहां वली जेतलइ लक्ष्मणि वज्रार्णव धनुष चडाविउं, तेतलई विद्याधरे अढार कन्यान' पाणिग्रहण कराविड । एहवउं स्वरूप देखी भामंडल कोप धरिवा लागउ । तिसिइ ज्ञानीइं आवी समजाविउ । कहिउँ, 'ए तु ताहरी युग्मजात बहिन ।' इम कही प्रतिबोधिउ । पछइ जनकराजाई अनेक वस्त्र, अलंकार, आभरण देई, संतोषी, सर्व विसयां । हिवइ जे राम-लक्ष्मण, तेह इ शीतानइ लेई आपणइ नगरि आग्या । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ शीलोपदेशमाला-बालावबोध अन्यदा दशरथराजा आपणपानइ वृद्धपण जाणतउ शीरामनइ राज देवा लागउ । इसिइ के केइई अवसर जाणी पूर्विलउ वर 'पोतिइ हूंतउ, ते मांगिउ । तिवारई दशरथ राजा चिंतातुर हूंतउ रामन तेडीनइ कहइ,'वत्स! मइ केकेइनह सयंवरा-मडपि सारथीपणइ वर कहिउ हूंतउ । ते वर हिवड केकेइ मागइ छइ । इसिउं कहइ जु. "माहा पुत्रनइ राज दिउ ।” तु हूं हिवइ सि करउ ?' तिवारई राम हर्षित हूंतउ कहइ, 'तात ! ताहरइ तु बेहू पुत्र सरीखा । तेह-भणी भरतनइ राज दिउ।' ए वचन सांभली पछइ राजाई भरत तेडीनई कहिउं, 'ए राज तूं लइ ।' तिवारइं भरत कहइ, 'राम-थकां मुझनई राज किसिउ ?' तिवारइं वलतू राम कह्इ, 'हे बंधव ! तूं बापनू ऋण वालि । हूं वनवास आदरिसु ।' इम कही पिता नइ प्रणाम करी, धनुष, तूणीर-भाथउ हाथि लेई, मानइ प्रणाम करिवा गयउ । तिसिई माइ पणि ए वात सांभली, असमाधि करती कहइ, 'वत्स! ताहरउ वियोग किम सहिसु ?' तिवारइं राम कहइ, 'मात ! जिवारई सिंह वन-माहि जाइ छइ, तिवारई सिंहो कोई असमाधि न करइ । तिम मुझनइ वन-माहि जातां तूं कांई असमाधि करइ १'इम मातानइ समझावी प्रणाम करी, सिंहनी परिई श्रीराम वनवास भणी नीकलिउ । तिसिह सीता पणि सास-स्वसुरानई प्रणमो भर्तार-केडिई नीकली । तेतलइ वली लक्ष्मणि इए वात सांभली जु, 'श्रीराम वनवासि चालिउ' । तिवारई लक्ष्मण रीसाणउ हंतउ असमाधि करता इसिउ कहिवा लागउ जु, 'ए केकेइ कालरात्रि-सरीखी हुई। कई ? जेह-हूंतउ सांप्रत एवडउ उत्पात ऊपनउ ।' इम कहितां जि दशरथ राजा केकेइना पुत्रनइ राज देई आप "ऊरण हुउ । तिवारइं लक्ष्मण कहइ, 'तात! कहउ तु एहनइ हणी राज रामनइ दिउ । अथवा भरत आफे गमनइं देसिइं। वली लक्ष्मण चीतवइ, 'इम करतां कुलि विरोध ऊपजिसिई।' इम चीतवी पितानई पूछी लक्ष्मण राम-केडिइ नीकलीउ । इम जिवारई लक्ष्मण, श्रीराम नइ शीता-त्रिणइ अयोध्या-हूंती नीकल्या, तिवारइ समस्त नागरीक-लोक आंखिइ अश्रधात करतां इसिउं कहइं, 'वली ईणि नगरि एह जि श्रीराम राजा होसिइ ।' एहवी लोकनी आसीस लेता, पादचारी, मउडइ मउडइ पंथ अवगाहता, महा-दंडकारण्य-वन-माहि एक गुफा छइ. तिहां आवी रह्या । तिहां जेतलइ बि मास-खमण कधा, तेतलइ पारणइ मुनि एक विहरवा आविउ । तिवारइ शीताइ ग्रासुक-अन्नपाने करी महातना प्रतिलान्या । तिसिइं देवताए देवदु दुभि-नाद करी कुसुमनी वृष्टि कीधी । एहवइ कोई एक कुष्ट-रोगी खग-पांखीई आवी मुनिना चरण नमस्कर्या । तेतलइ तत्काल मुनिचरणना स्पर्श-लगी सुवर्ण-पक्षी हू । तिवाग्इ श्रीराम मुनिनइ वंदीनइ पूछिवा लागउ, 'ए रोगी, दुष्ट पंख उ, तुम्हारा स्पर्श-लगइ सुवर्ण वर्ण हुउ, ते मिउ कारण ?' तिवारइ मुनि कहइ, 'हे राम ! एहनउ पूर्व संबंध सांभाल । इहां जि कुभारनउ की "पुरनगर, तिहां दंडकराजा राज्य करइ । तेहनउ महतउ पालक इसिइ नामि। अन्यदा तणइ महतइ श्रीखंदकाचार्य गाढा पीडया । तीणी वेदनाइ खंदकसूरि मरी वह्मिकुमार-माहि देवता हूउ । तिवारह ते रीस-लगइ ए नगर, देस, राजा, लोक सहित सहु भस्म कीधउ । तिणि कारणि ए दंडकारण्य हुउ । हिवइ जे दंडक राजानउ जीव, ते संसार-माहि भमी भी सांप्रत ए कुछ पाखीउ हूउ । ते हिवडां अम्हनइ देखी एहनइ जाती-स्मरण-ज्ञान ऊपनउं । सांप्रत आपणउं पर्विल स्वरूप दीठडं । अनइ वली जिन-धर्मनइ प्रमाणि नीरोग हउ । तु हिवइ ए १. C. L. . पोतई, Pu. पोति-हुतु। २. K. ऊऋण, Pu. ऊर्ण । १. P. पुरिमताल नगर । २२ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. मेरुसुन्दरगणि-विरचित अटायु पांखिउ आज पछइ तुम्हारइ साहम्मी ।' पछह श्रीरामईते जटायु पाखीउ बांधवनी रीतिई बहुमान देई संघाति लीघउ । हिव च्यारिइ तिहां-हतां चाल्या-राम, लक्ष्मण, शीता, जटायु पांखीउ । पंथ अवगाहता दक्षिग-देसि पंचवटी, गोदावरीनइ कांठइ आव्या । तिसिई तिहां अनेक नदीना जल चर जीव, तेहना शब्द सांभलतु हनु, लक्ष्मणकुमार नदीना कउतिग जोतउ जोतउ 'वंसियालि एक-माहि गयउ । तिहां जउ जोइ, तु एक खड्ग दीठउं । तिवारइं लक्ष्मणि ते खांडउं हाथि लेई, रामति-लगइ लीलाई खनि करी वसियालि छेदी । तेतलई माहि अग्निनउ कंड दीठउ । तिहां वली ऊंधइ माथइ, ऊपहरे पगे, पुरुष एक धूम्रपान करतउ एहवउ खड्गिइ छेदाणउ द ठउ । ते देखो लक्ष्मण चीतवह, 'मइ तां पुरुष एक निरपराध हणिउ ।' माथउं अग्नि ऊपरि दीठउं अनइ डील भूमिकाइ पडिउ । ते तिहां एवउ संबंध देखी वडी वार-ताई शोचा करी खड्ग लेई रामनइ देखाडिउं । तिवारइ राम कहइ, 'बांधव ! ए तु चंद्रहास खड़ग । एहनउ साधक तई हणिउ । तु वली एहनउ रखवालउ पणि कोई हुसिइ ।' तीणइ प्रस्तावि पाताल-लंकानउ अधिपति खर नामा राक्षस, तेहनी वल्लभा अनइ रावणनी बहिन सूर्पनखा, ते आपणा पुत्रनइ जेतलइ जोवा आवी, तेतलइ वसियालि-माहि पनड धड अनइ मस्तक जूजूआं देखी, रोती कहइ, 'रे वत्स ! तूं कुणिहि हणिउ ?' इम विलाप करती पगिइं पगि पंचवटीइ जिहां राम-लक्ष्मण छई तिहां आवी । तेतलइ राम-लक्ष्मणनां रूप देखी व्यामोही हूंती, पुत्रनी असमाधि मूकी 'कामविह्वल हूंती, प्रार्थना करइ जउ, 'माहरउं पाणिग्रहण करि ।' तिवारइ रामि कहिलं, 'अहो ! माहरइ तु भार्या छइ । तूं लक्ष्मण-कन्हलि जा। पछइ लक्ष्मण-कन्हलि जई प्रार्थना करिवा लागी । तिवारइ वलतू लक्षमणि कहिउं. 'अहो ! तई तु पहिलङ वडा बांधवनी प्रार्थना कीधी, इणि कारणि तं माहरड भउजाइ हुई ।' पछइ वली कामात हूंता राम-समीपि आवी । तिवारइं शीताई ते गाढी हसी । पछइ ते सूर्पनखा अत्यंत रीसाणी हूंती आपणउ पति खर राक्षस,ते-कन्हलि जई मंबूक-पुत्रना मरणनी बात कही । तेतलई तत्काल ते खर राक्षस चउद सहस्र सभट लेई रामलक्ष्मण-साथि झूझ करिवा आविउ | तिबारई लक्ष्मणि श्रीराम शीताना रखोपा-भणी मोकलिउ, अनइं आपणपई लक्ष्मण एकांग-वीर युद्ध करिवा रहिउ । तिवारहुं श्रो रामई कहिउ. 'बांधव ! जिवारई कई गाढी आपदा आवइ, तिवारइत सिंहनाद करे।' इम कही राम शीता-कन्हलि गयउ । पछइ लक्ष्मण एकलउ ते खर राक्षस-साथि झूझ करिवा लागउ । तिसिई राक्षस भाजिवा लागा। एहवइ ते सूर्पनखा भरिनी सखायत-भणी त्रिकूट-पर्वति आई, दशवदन रावणनइ यहइ, 'अहो बांधव ! दंडकारण्य माहि राम-लक्ष्मण आव्या छ । ते खरमाथि अझ करइ उई । तेह-भणी तुम्हे वहिला आवउ । मुझनइ पति-भिक्षा दिउ। अनह ते वइरीनइ हणो दसइ दिसिनइ विषइ बलि दिउ । वली एक वात सांभलि । तिहां लक्ष्मण एकलउ अझ करइ छ । अनइ जे श्रीराम, ते गवित हूंतउ शीता-साथि क्रीडा करइ छइ । तु बांधव एहवउं स्त्रीरत्न पृथ्वी-माहि नथी ।' ए वात सांभली कामातुर हूंतउ रावण तत्क्षण पुष्पक विमानि बइसी जिहां शीता बुद्ध विहां आविउ । पणि श्रीराम-छतां शीतानह हरी न सका। पछह रावणि अवलोकिनी विद्या स्मरी । तिवारइ ते आवीनइ कहइ, 'स्वामी ! मह इहां कांई न चालइ । १, P. वंशजालि । २. K. काभि पीडी ढुंती । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध पणि एक वात सांभलि-ए रामलक्ष्मण बिहूंनइ माहो-माहि सिंहनादनउ संकेत छ ।' ए वात जाणी जिम रावणि सिंहनाद कीघउ, तिम जि श्रीराम सासक हूंतउ शीतानइ कहइ, 'हे शीते ! लक्ष्मणनइ आपदा आवी ।' तिवारइ शोता कहइ, 'स्वामी! हिवइ विलंब म करि । तूं लक्ष्मणनइ जई राखि ।' इम कहिइ हूंतइ राम धनुष चडावीन लक्ष्मण-भणी चालिउ । तिसिइ राणि प्रस्ताव जाणी, विमान इतु ऊतरी, शीतानइ अपहरी, विमानि बसारी जावा लागउ । तेतलइ शीता बदन करिवा लागो। एहवइ जटायु पांखीउ आपणे नखे करी रावण-साथि झुझ करिवा लागउ । तिहां रावणि खगि करी जटायु पांखीउ भुई पाडिउ । पछइ रावण शीतान लेई चालिउ । तिवारइं शीता महा-विलाप करती कहइ, 'हा भ्रात भामंडल ! हा रामलक्ष्मण ! मुसनइ राखउ, राखउ ।' ईम विलाप करती मागि जाइ छ । इसिइ भामंडलनउ पायक एक आकाशि आवतु हंतु, तीणइ ते शीतानां हरण जाणी रावण-साथि झूझ मांडिउ । तिवारइं ते .ही रावणि खड़गि करी भुई पाडिउ । इम आकाशि जातां रावण शीतानइ कहइ, हे सुभगि ! तूं विलाप कांई करि ? हं तु रावण, लंकानउ अधिपति । ताहरउ आदेशकारक थाउ छ । हिवइ त ते वनेचर रामनइ मूकी माहरउ अंगीकार करि ।' इम कहितउ रावण शीतानइ लेई लंकाइ आयउ । तिहां अनेक चाटुकार वचने करी प्रार्थइ, पणि शीतानउं रोम मात्र भेदीइ नहीं । किन एक 'राम' 'राम' स्मरतो रहइ । तिहां वली एहवउ अभिग्रह लीघउ, 'जां राम-लक्ष्मणन कुशलसमाचार न पामउं, तां-सीम मुझनइ अन्ननउ नेम ।' इसिइ तिहां लक्ष्मणनइ झूझ करतां श्रीराम आविउ । ते देखी लक्ष्मण ससंभ्रांत इंतु कहा, 'बांधव! शीता एकली मंकी इहां कांइ भाविउ ?' तिवारइ श्रीराम कहइ, 'हे भ्रात | तई सिंहनाद कीघउ, तेह-मणी हूं आविउ ।' तिवारई वलंतु लक्ष्मण कहइ, 'भ्रात ! मई तु सिंहनाद न कीघउ । हिव तं पाछउ जा। सही, नूं कुणिहि छेतरिउ।तू ऊतावलउ जा । हिवडा जि वइरीनइ हणी ताहरी पठिई आवउं छउं ।' इम जेतलइ श्रीराम पाछउ आवी जोइ, तु शीता न देखड। तिवारइ राम विलाप करतु, छेद्या वृक्षनी परिई मूर्छा-गत हूंतउ, भुई पडिउ। पछइ वनना वाय लागइ सचेत हुई वन जोइवा लागउ । तिहां जटायु पांखीउ खड्गाहत, सुसतउ हूंतउ, भूमिकाइ पडिउ दीठउ । तीणइ शोताना हरणनउ वृत्तांत कहिउ । पछइ श्रीरामइ जटायु पंखीयानइ नवकार दीधउ । तेहनइ प्रमाणि जटायु मरी माहेंद्र-देवलोकि देवता हउ । हिवइ राम शतानइ पनि वनि जोतउ मूर्छागत हूंतउ वली भूई पडिउ । तेतलई लक्ष्मण वइरीनइ बीपी राम-समीपि आविउ । तिसिई राम अचेत देखी पाणी सींची सचेत कीधउ । पछइ कहई, 'बांधव ! ताहरइ कीधइ शीतानइ मूंकी आविउ हूंतउ, पणि जोइ-न, देविकीसिउं की ?' तिवारई वल लक्ष्मण कहइ, 'बांधव ! विखवाद म करि । शीता तउ छलिई करी अपहरी, पणि हिवइ कांई आपणपे उपाय करीइ । पणि वली एक विशेष सांभलउ, जे मई सांप्रत खर राक्षस हणिउ, तेहनउ वइरो विराध आगइ पाताल-लंकानउ अधिपति हंत। ते खरि काढिउ छइ, ते मुझनइ आवी सिलिउ । तेह-साथिई मई मित्राचार पडिवजिउ छइ । तु चालउ, तेहनह पितानउ राज देई आपणउ कोजइ ।' पछइ श्रीरामि ते विराधनइ पाताल-लकानउं गज दीघउ । शुद अनइ सुपखा बेहू बोहतां नासी रावण-'कन्हलि गया। १. C कन्हइलि । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरगणि-विरचित इस प्रस्ताव कवि धानगरीनउ अधिपति सुग्रीव क्रीडा· भंणी बाहरि नीकलिउ हूँ त । एहवह विद्याधर एक विद्यानइ बलि नवउँ सुग्रीवनउं रूप करी राजि बइठउ । तेतलइ मूलगु सुग्रीव विपणि नगर -माहि पइसिवा न लहइ । प्रधान कहा, 'तू कउण १ सुग्रीव तु आगइ रान करइ छ ।" तिहां विट-सुग्रीवनउ पक्ष सघले कीघउ, पणि तेहनउ कुणिहि न कीधउ । पछइ जे मूलगउ सुग्रीव ते दीन दयामणउ थकउ रहइ छइ । १७२ इसिइ राम-लक्ष्मण कविक धाइ आग्या । तेतलइ ते सुग्रोव रामनइ शरणि जई कहइ, 'अहो राम ! मुझन माहरउं राज्य देवारि, जिम छू ताहरउ सेवक थाउं, ताहरइ काजि आविसु ।' तिवारइ श्रीरामि वचन मानिउँ । पछइ सुग्रीविइ प्रधाननइ इम कहाविउ, 'जि को 'रणांगण जिपिसिइ ते राज लेसिइ ।' इणि वचनि विट-सुग्रीव झूझ-भणी सर्व-बलि नीकलिउ । तिहां जेतलाई रामन दर्शन हूउं ते तलई रूप - परावर्त्त विद्या नाठी । तिसिहं विट-सुग्रीव पणि नासी गयउ । पछइ तिहां श्रीराम मूलगा सुग्रीवनइ किक्किं धानगरीनउ राज्य दीघउं । तिवारइ सुग्रीव अढार कन्या लेई आविउ । रामनइ कहइ, 'स्वामिन ! मुझ ऊपरि कृपा करी ए कन्यानउ पाणिग्रहण करउ ।' तिवारइ वलतू श्रीराम कहइ, 'अहो सुग्रीव ! ए कन्या रहिवा दइ, किंतु शीतानी शुद्धि आणि । " पछइ कपि-वानर, तेहनउ राजा सुग्रीव, तीणइ दिशोदिशिहं शीता जोवा-भणी आपणा सुभट मोकया | अनइ आप सुग्रीव कंबुद्वीप-भणी चालिडं । तिसिइ मार्गि जातां रत्नजटी विद्याधर, भामंडलनउ पायक मिलिउ, जे रावणिई हणी भुंइ नांखिउ हूंतउ । तिहां तीणइ शीतानउ सर्व वृत्तांत कहिउ | पछइ सुग्रीवइ रत्नजटी-पायक राम - कन्हलि आणिउ । तिवारई तोणइ जीणी रीतिह रावण शीता अपहरी, जीणी रीतिह तीणी झूझ कीधउं, ते सर्व वृत्तांत राम - आगलि कहिउ । पछइ रावणि शीता हरी जाणी, श्रीराम सुग्रीवनह पूछइ, 'अहो सुग्रीव ! लंका केतलइ दूरि छह ?' तिवारइ सुग्रीव कहइ, 'स्वामी ! लक्ष्मणना बल आगलि लंका कांई अलगी नथी ।' तिबारह लक्ष्मण कहइ, 'अहो ! जे रावण वायसनी परिहं शीतानई लेई गयउ, ते रावणनउ बल जाणिउ ।' तिसि जांबवंत मंत्री कहइ, 'स्वामी ! नैमितिकि इम कहिउं छह जि को कोटि- शिला ऊपाडिसिह, ते रावणनइ हणिसिह ।' इम कही पछइ सघले वानरे लक्ष्मण सिंधु देखि लीघडं । तिहां जेतलइ लक्ष्मणि कोटि-शिला ऊपाडी, तेतलइ देवताइ कुसुम - वृष्टि कीधी । जयजय - रव हूउ । पछह कोटि-शिला पर्वति अनइ समेतशिखरि वीतराग नमस्करी, सहू किक्कि धाइ आव्या । वाई वृद्ध वानर रामचंद्रनइ कहइ, 'स्वामी ! लक्ष्मणनइ हाथि रावणनउ क्षय होसिइ । पणि तथापि एक बार दूत मोकलीइ ।' एह वचन रामिइ मानिउ । पछइ सुग्रीवइ अंजनानउ पुत्र हनुमंत सूर्यपतन हूँ तउ अणावी, बहुमान देई, श्रीरामनइ कहिउं, 'स्वामी ! माहरा राजनउ ए जीवितव्य-सार छइ । वली ए. महापराक्रमी छइ । ए शीतानी शुद्धि-भणी मोकलउ ।' तिवारइं श्रीराम आपणी नामांकित मुद्रिका देईनइ इसिउ' कहइ, 'अहो हनूमंत ! तू' लंकाइ नई शीता प्रियानइ संकेत-भणी ए मुद्रिका देई, संदेसउ कहिजे जु-राम ताहरइ विरहि जगत्र तृणसमान गणइ छइ । तेह-भणी रखे तूं आपणा प्राण छांडइ । जुहूँ राम जीवतउ छ ं, तु तूंहनइ वहिली पाछी आणिसु ।' ए वात हनूमत सांभली तहत्ति करी, आकास मार्गि फाल देई लंकाई आविउ । पछई तिहा रावणनउ भाई विभीषण, तेहनई मिलो कहिवा लागउ 'हे भ्रात ! न्याय अनइ अन्याय सर्व तुझ आगलि हुइ छ३ । इणि कारणि हूं तुझनइ कहउँ छ । तुम्हे रामनी पत्नी १. B. ऋगांगणि Pu. रुग्णांगणि । २. K. जग त्रिण समान लेखवइ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध मूकावउ, जु आपणपानइ हित वांछउ । कांई? ताहरउ बांधव रावण 'बलवंत छई. पणि श्रीराम-आगल रही नहीं सकइ । तेह-भणी शीता रामनइ पाछी अपावउ ।' तिवारह विभाषण बोलिउ, 'अरे हनूमंत ! आपणी वल्लभा तु सवि कहिनइ वाल्ही हुइ । पणि ताहरउ स्वामी श्रीराम माहरा भाई-सिउं पहुची नही सकइ । एह-भणी तूं पाछउ जा । शीताना कोई नही आपइ ।' ए वाउ सांभली हनूमंत रोषारुण हूंतउ देवरमण-उद्याननि आवि। तिसिह तिहां शीता दीर्घ नीसासउ मूंकती कृश-देह, मलमलिन वस्त्र धरती, मुखि राम राम स्मरती, अश्रुपात करता, अशोकवृक्ष-तलइ दीठो । एहवी शीता देखी हनूमति रामनी नामांकित मुद्रिका आगलि मूंकी, प्रणाम कीधउ । तेतलई शीता हर्षित-वदन हूंती पूछा, 'राम-लक्ष्मणनइ समाधि छइ ?' तिवारइ हनूमत कहइ, 'हं राम ताहरी शुद्धि-भणी इहां मोकलि छ। हिव मई पाछह गयई जि राम कटक करो इहां आविसिइ ।' तु शीता पूछा, 'वत्स ! कहि-न, तई समुद्र किम लांघिउ ?' तिवारहं हनुम त कहा, 'हे भात ! श्रीरामनइ वनि आकाशगामिनी-विद्यानइ बलि समुद्र लांघिउ । तु हिव मात ! ताहरउ चूडारत्न भापि, जिम रामनइ प्रत्यय ऊपजह ।' पछह शीताइ आपण चहारल आपिउं । अनइ वली इम कहिउं, 'वत्स ! तुं शीघ्र पाउ जा । ए राक्षस-माहि मरहिसि ।' तिवारइ हनूमंत कहइ, 'मात ! भयनी शंका म करि । तु आपणउ पराक्रम देखाडीनइ जाइसु ।' इम कही शीतानइ प्रणाम करी पछह लंकानां समस्त वन भांजिवा लागउ । जे रखवाला हंता ते ही हण्या । पछइ वली लंकानां घणां घर भांजी, छाजां नोडी, वली रावणना मस्तकनउ मुकुट चूर्ण करा, का प्रजाली, इत्यादि विनोद करी हनूमत पाछउ राम-समापि आविउ पछइ प्रणाम करी शीतान चहारत्न आगलि म्की सर्व बात कही-जिम शीता मिली, जिम लंका विश्वास. इत्यादि सर्व बात कही। तिवारई श्रीराम हर्षित हूंतु आलिंगनपूर्वक घणउं बहुमान देई, पछइ प्रयाणभंभा देवरावी । तिहां अनेक विराध, जांबवंत, नील, भामंडल, नल, अंगद -इत्यादि परिवार लेई रामलक्ष्मण लंका-भणी चाल्या । तिवारइ सुग्रीव आगेवाण कीघउ, अनइ जे नल-नील ते बेह संग्रामनइ अग्रेसर थाप्या । इम मार्गि जातां तीणे नल-नीलि समुद्र नइ सेतु राजा बेह बांधी करी रामनइ आप्या । तिवारह रामि पणि ते तिहां जि आपणा करी थाप्या । इम मार्गि जातां बली सवेलनगरि सुवेलराजा जीपी संघाति लधिउ। वली तिहां-थकी हंसदीप लंकानइ पासइ छई, तिहां आवी, हंसरथ राजा जीपी, राम-लक्ष्मण कटक-सहित केतलाएक दिन तिहां रडा । । इसिई रावण पणि श्रीरामनइ आवलउ जाणी रेणनइ विषइ सज्ज हुई, सर्व सैन्य मेली, जेतलइ नीकलिउ, तेतलइ विभीषण आवी रावण नइ प्रणमी कहइ, स्वामी ! अणविमासिउं काम म करउ | आगइ एक परस्त्रीनइ अपहारि करी कुल लजाविउं छइ । तु बांधव ! हिव शीता परही आपउ । सर्व लोकनउ क्षय म करउ ।' इणि वचन रावण रीसाणउ हूंतउ, विभीषण तिम किमइ निर्भछि उ, जिम विभीषण सपरिवार रामचंद्रनई आवी मिलिउ । तिवारइ श्रीरामि अवसर जाणी विभीषण बहुमानी आप-समीपि राखिउ। वली कहिउं, 'ए लंकानउं राज तुझनइ आपिसू ।' पछइ रामनइ आदेसि वानरे लंका रूधी। तेतलई रावणने सुभटे युद्ध मांडिउं । इम बेहु कटकनइ युद्ध होतां राक्षस भागा। निसिई रावण बांधव-सहित सामुहु आवी झूझ करिवा १. C. बलवंत ५ हूतउ पाण, K. बलबंत हूतु पणि । २. B. C. *णनइ । ३ K. विना सर्वत्र ‘अपहरि' । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित लागउ । इसिइं राम-लक्ष्मण-भामंडलादिक सहू इ रणतूर वाजते सुमनइ साम्हा थया । तिहां खड्गादि खड्ग, शरादि शरिइं, इम माहोमाहि झूझ करतां, रावणि विभीषण-भणी जिम त्रिशूल मू किउं, तिम लक्ष्मण इ चूर्ण कीघउं । तिवारइ रावणि रीसाणइ हूंतइ, शक्ति-प्रहरणि शस्त्रि करी लक्ष्मणनई होइ ताडिउ । तेतलई तत्काल लक्ष्मणनइ मूर्छा आवी । तिसिई रामि शोकार्त हुतइ आवी रावण-भणी भालउ मूकिउ । तिम जि वली रावणि राम-भणी गदा मूको । तिवारई राम अचेत हुई भुंइं पडिउ । तेतलई विद्याधरे जलि करी साँचिउ । तिणि प्रस्तावि शीता चीतवइ, 'जोउ, भर्तार-देवरइनइ ए अवस्था आवी ।' इम विलाप करत' देखी, काइ. एक विद्याधरी आवी, शीतानइ कहइ, 'हे शीते ! तूं असमाधि म करि । ताहरउ देवर प्रभाति निःशल्य यासिइ ।' ए वात सांमली सूर्यना उदय-ताई शीता सुस्ती थई । हिवइ तिहां लक्ष्मण अचेत थई पडिउ देखी श्रीराम पणि अचेत थई पडिउ । वली शीतल वायुनई योगि राम सचेत हूउ । तिवारइ राम इसिउ कहइ, 'बांधव ! बोलइ कांई नही ? तई नउ राज विभीषणनइ देवउं कहिउं छह । ते वचन किसिउं तई वीसारिलं ? तु तं बांधव! ऊठि, जिम . आपणपे गवणनइ हणो, राज विभीषणनई दीनइ ।' इम कही राम धनुष हाथि लेई ओतलई ऊठिउ, तेललइ विभीषणि रामनइ कहिउं, 'हे श्रीराम! सांप्रत ए मोह छांडि | धीरपणउं आदरि । जिणि कारणि, शक्ति-प्रहरण-शस्त्रनउ हणिउ पुरुष सूर्योदय-ताई जीवइ, अधिकउ न जीवइ । ते-भणी तुम्हे मंत्रतंत्रे करीं यत्न करावउ ।' पछइ श्री रामिई लक्ष्मण-पाखती सुग्रीवादिक रखवाला मूक्या । एहवइ चंद्र विद्याधर आवी रामनइ वीनवइ, 'स्वामी ! शक्ति नीकलिवानउ एक उपाय छह, ते तूं सांभलि । जिणि कारणि, भरतनउ माउलउ द्रोणमेघ राजा, तेहनी कन्या विशल्या, तेहना स्नाननइ नीरि करी शक्ति आफे बाहरि नीकलिसिइ ।' इणि वचनइ भामंडलदिके तिहां बई विशल्या कन्या आणी । पछइ तेहना जल-स्तान-लमी सूर्यनइ उदयि शक्ति ज्वलती बाहरि नीकली । तिसिहं जयजयारव हूउ । तिसिइ प्रभाति रावण शुकने वारीतउ हूंतउ संग्राम-भणी रण-भुमिकाइ आविउ । तिहां राम-रावणनइ महा-युद्ध करतां, राक्षसे वानर उलाली नांख्या । तेतलइ लक्ष्मण वेदना-रहित युद्धना विषइ वली सज्ज हूउ देखी, लक्ष्मणनइ जीपवा-भणी रावणि बहरूपिणी विद्या स्मरी । तेतलइ तत्काल रावणनां अनेक रूप हूआं । तिसिइं लक्ष्मण आगलि-पाछलि आसइ-पासइ सघले रावण झूझ करतउ देखइ । तिवारइ एकलउ लक्ष्मण गरुड-पंखि चडिउ हूंतु नानाविध शस्त्रे करी रावणर्नु सहू इ रूप पाडिवा लागउ । तिवारह रावणि आपणउ चक्र स्मरी मस्तक-पाखती फेरवी लक्ष्मण-भणी मंकिङ । हिवइ जेतलइ लक्ष्मणि चक्र आवत उ जाणिउं, तेतलइ डाबह हाथि करि झालिउं। तेतलई देवताए आकाशथी एहवी उद्योषणा कीधी जउ, 'ए लक्ष्मणकुमार आठमा हरि हउ ।'तिहां देवनाए इसिउं कहि। पछइ लक्ष्मणि तेह जि चक्र रावण-भणी मुकिउ । तिसिइ ते चक्र रावणनउ शिरच्छेद करी पाछउं लक्ष्मणनइ हाथि आवी बइठ । तिवारइ वली देवता जयजयारव करतां कुसुमनी वृष्टि करिवा लागा । १. K, लक्ष्मण हीइ । २. K. आफणी । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध । तिणि समई श्रीरामइ विभीषणनइ लंकानउं राज दीधउं । तिहां विभीषणनइ राजि बइसारी पछइ राम-लक्ष्मण परिवार-महित शीतानइ लेवा वन-माहि गया । तिसिइ शीताई श्रीराम आवतउ देखी हर्षाश्च पाडती विश्वर-नेत्र साम्हउं जोवा लागी । तिवारइ आकाशि देवतानी वाणी हुई जु, 'ए शीता महासती, महासती ।' इम वात सांभली पछइ राम-लक्ष्मण सहर्षित हता पुष्पक-विमानइ बहमी सुग्रीव-विभीषण-भामंडालदिक-सहित आपणइ साकेतपुरि नगरि आव्या । तेतलइ भरत पणि सुमित्र-बांधव-सहित आवी राम-लक्ष्मणनइ प्रणाम कीधउ । पछइ महा विस्तारि वाजिन वाजते राम-लक्ष्मण-शीता-प्रमुख सह घरि आव्या । तिवारइ लक्ष्मणनइ अर्धचक्रीन राज दीधउं । अनइ आपणपे श्रीराम राजा हुउ । पछ। सुग्रीवादिक सहु आपणे आपणे देशे मोकली, सुखिइं शीता-सहित सुख अनुभविबा लागा। इम केतले दिहाडे शीता सरभ-स्वप्न सूचित हूंती गर्भ धरिवा लागी । तिवारइ समेत - शिखरि यात्रा जावान र डोहलउ ऊपनउ । इसि अवसरि शीतानउ जिमणुं लोचन फुरकिवा लागउ। पछइ ए वात जिम समनइ कही, तिम जि राम चमकिउ हूंतउ शातानइ कहा, 'हे प्रिये ! इकाई पाडू संभावीइ । इणि कारणि तू आपणइ घरि बई देवार्चन करावि, सुपात्रि दान दिइ ।' एहवी भर्तारनी शिक्षा सांभली शीता आपणइ परि आवी, देवार्चनादिक सर्व पुण्य कीधां । तेतलइ नगरने वृद्ध-पुरुषे आवी राम वीनविउ, 'स्वामी ! साच' कि झूठउ', अथवा रूड कि पोड् अम्हे न जाणउ, पणि सर्व लोक इम कहई छई जु, "रावण स्त्री-लंपटि शीता एकाकिना छमास-ताई घरि राखी, हिवइ यद्यपि शीता रावण-ऊपरि विरक्त हूंती, पणि तथापि रावणि बलात्कारि शील भांजिउ घटइ ।" तु राजन ! ए वात विचारिवा-सरीखी । जिम तेलन बिंद पाणी-माहि प्रसरइ, तिम लोक-माहि अपयश प्रसरिउ छह । तु स्वामी। रखे आपण कुलिं आघउ अपयश अणावउ ।' इम शीतान' कलंक सांभली श्रीराम राजा अणबोलिउ रहिउ । तिसिई वली धेर्यपणउ अवलंबी कहिवा लागउ, 'अहो महाजनो ! तुम्हे मुसनइ भबउ जणाविउ। ए स्त्रीनइ कीधा अपयश नही सांसह ।' इम कही महाजन विसर्जी, पछइ रात्रि राम नष्टचर्याई नीकलिउ । नगर-माहि लोकनी वात सांभलतउ चमारना घर-दूकडउ आवी गम वात सांभ. लवा लागउ । इसिई चमारिई आपणी स्त्री पाटूई आहणीनइ कहिउ', 'रे दुराचारि । एतली वेलात किहां गई हंती ?' तिवारइ स्त्री कहइ, 'तू भलेरउ पुरिष आविउ । जोउ-न, शीता तां रावणनई घरि छ मास रही, तु ही रामिई कांई न कहिउँ । रामई तो छ मास सांसह्या', अनइ आज तूं एक क्षणमात्र सही न सकिउ ?' तिवारइ वलतु चमार कहइ, 'राम तु स्त्रीनइ वशि छइ, पणि हूं कहिनइ वशि नथी ।' तिहां रामि एहवी वात सांभलो । राम दुखात हूंतु नीतवद्ध. 'मझनइ धिकार हु, जे हूं स्त्रीनइ कीधा नीचनां वचन सांभली सांसहउ ।' वली राम चींतवइ, 'सही शीता तु पतिव्रता, अनइ रावण तु स्त्रीलंपट । अनइ महारउ कुल तु निर्मल, अनइ लोक तु दुराराध्य । तु हिवइ हूं सिउ करउ १ शीतानइ छांडउ ?' इम चीतवी लक्ष्मण-आगलि सर्व वात कही । तिवारइ लक्ष्मण कहइ, 'बांधव ! लोकनइ कहिइ शीता म छांडिसि । लोक प्रवाहइ परदोषनइ विषइ रसिक हुई । यतः-- ... १..C. समा । २. B. गई । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ..... मेरुमुन्यागणि-विरक्षित खल: सर्षपमात्राणि पर-छिद्राणि पश्यति । - आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥१॥ इम लक्ष्मणिइ घणु इ कहि, तु ही राम न मानइ । पछइ श्रीरामि कृतांत सेनानी तेडीनइ कहिउ, बा, शीतानइ वन-माहि मूंकी आत्रि । कोइ ? लोक तु शीतानउ एहवउ अपवाद बोलह छह । तेह-भी हूं शोताना दिसु । इणि कारणि तूं रथ सज्ज करि । कांइ ? आगई ए शीतानइ संमेलशिखर जावान डोहलउ छ । ईणइ मिस शोता- रथि बइसारी गंगानई पारि लेई मूकि । पछइ कुलांत सेनाको संमेतशिखरनो यात्रानइ मिसि शीतानइ रथि अइसारी नीकलित। तिहां जई समेतशिखरनी यात्रा करावी वलतां अटवी-माहि मूकीनइ इम कहिउ, 'मात ! लोकापवाद-भणी रामचन्द्रि तूं वन-माहि मूकावी छन । तु माहरउ अभाग्य, जे हूं ईणइ कामि मोकलिउ । ए वचन सांभली मुळगत हंती शीता भुंइं पडी। पछइ शीतल वायनइ योगि सचेत हुइ हूतो शोता विलाप करती कहिवा लागी, 'हे रामचन्द्र ! जु तूं लोकापवाद-भइ बीहतु हूंतु, तु मुसनइ लोक-प्रत्यक्ष तई धीच कांई न 'काराविउं? अहो राम ! एहवउं निघणपणउं ! तई आपणा कुल-सरीखर्ड नं कीघउ, जे हूं एकाकिनी निरपराध आधान-सहित वन माहि मूकावी । हिवइ हूँ ता किमही वन-माहि थाइसु । पणि राम-लक्ष्मण जयवंता होज्यो ।' इम कही सेनानी विसर्जिउ । तिवारह सेनानी पणि शीतानइ प्रणाम करी अश्रुपात करतउ पाछउ वलिउ । पछइ शीता पणि आपणउं कर्म निंदती यूथ-भ्रष्ट हरिणीनी परिहं वन-माहि फिरवा लागी । इसिइ प्रस्तावि श्री वनजंघ राजा तिहां आविउ हंतउ वीणइ ते शीता बहिन पहिबजी, पुंडरीक-पुरि आणी। हिवह सेनानी पाउ आन्यज, रामनइ प्रणाम करी शीतानउ सर्व वृत्तांत कहिउ । रामचंद्र शीतानउ वियोग अणसहितउ, तेह जि सेनानी साथी लेई रामचंद्र वन-माहि गयउ । विहां शीता सर्वत्र जोई, पणि लाधी नहीं। पछइ राम धरि आवी शीतानी "प्रेत-क्रिया करी, शीतानउं ध्यान करतउ काल अतिक्रमावइ छइ । हिवइ शीताह तेहनइ परि लव अनइ कुश पुत्रयुगल प्रसविउ । तिवारइ वज्रजंघि आपणा पुत्रनी परिई जन्मोत्सव कीथउ । ते बेहू बालक कुश अनइ लव एहवे नामें प्रसिद्ध हुआ । विहुए संपूर्ण कला अभ्यसी । बेहू यौवनपणउं पाम्या । बेहू महा-दुर्धर सुभट हुआ। पछा वज्रनधि आपणी शशिच्ला पुत्री लवनइ परिणावी । वली क्षेत्रीस कन्या बीजी परिणावी । इम बली कुशनइ कीधा पृथुराजानी पुत्री मंगावी । तिवारइ पृथुराजा कहइ, 'हूँ अज्ञातवंशनइ आपणी पुत्री नही आपउं।' इणि वचनि वज्रजंघ अनइ पृथुराजानइ माहोमाहि युद्ध हूउं । तिसिई पृथुराबाइ वज्रजंघन कटक भांजिडं ! तिवारइ लव अनइ कुछ रीसाणे हूंते, तिम किमइ या मांडिड, जिम पृथुराजा नाठर। तेतलइ लव-कुशि कहिउं, 'अहो! अम्हे अवंशजे तं वशज नसाडि ।' तिवारई पृथुराजा पछि उ वलीनइ कहइ, 'अहो कुमारी ! तुम्हारी "सोयवृत्तिई करी मई तुम्हाग्उं कुल जाणिउं ।' इम कही पछइ वनजंघ साथि मेल करी बेहु कटक तिहां ऊया । इसिई नारद आविउ । तिवारइ वज्रजघि नारदनइ प्रणाम करीनइ कहि, 'महो रिषि ! ए कुशनइ पृथुराजा आपणी पुत्री दिइ छइ । इणि कारणि तुम्हे कुशनउं कुल प्रकट करठ, निम पृथुना हर्ष ऊपजइ । ' तिवारइ नारद हसीनइ कहइ, 'अहो अबूझ लोको ! १. B. करावी, K. Pu. कराविउ। २. C. प्रतिक्रिया । ३. B. C. सूर्यवृत्तिह । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध १७७ ए एनां कुरु कुण न जाणइ ? रामलक्ष्मण तु सबलइ प्रसिद्ध छ । जिणि कारणि, ए वात सांभलउ | लोकापवाद-भणी श्रीरामइ शीता वन-माहि मूंकावी । तेहना ए लव अनइ कुश बेहू पुत्र ।' वात सांभली कुश कहर, 'नारद ऋषि ! श्रीरामइ तां रूडडं न कीधउं, जे लोकनी वातई अविचारि शीता वन-माहि मूंकावी । ' तेतलइ वली लव बोलिउ, 'अहो ऋषि ! ते नगरी केतलह दूरि छइ, जिहां राम-लक्ष्मण छ ?' तिवारई नारद कहइ, 'इहां हूंती अयोध्यानगरो वीसा -सउ जोअन हुई ।' तिसिहं तिहां पृथुराजाई कनकमाला पुत्री कुशनह परिणावी । पछ वज्रजंघ लवकुश सहित आपणइ नगरि आविउ । तेतलइ लव नह कुश माउलउ पूछी, जे श्रीरामि शीता छांडी ए अमर्ष मन-माहि घरी, बेहू बांधव कटक करी राम भणी चाल्या । इम पंथ अवगाहता जेतलs अयोध्यानइ परसरि आव्या तेतला राम-लक्ष्मण पणि घणडं सैन्य लेई साम्हा आवी महा-झूझ मांडिलं । तिसिह लवकुशे रामनउं सैन्य क्षण एक माहि आकडाना तूलनी परि दिशोदिशि ऊडाडिउं । तिवारई राम-लक्ष्मण रीसाणा हूंता, अति अमर्ष करी कुश-भणी चक्र मूं कि - डं । पणि ते चक्र गोत्रि - तु पुहची न सकइ । पछइ कुश पावती फिरी वली लक्ष्मणनइ हाथि आवी बइठउं । तिवारह राम-लक्ष्मण मन-माहि विखवाद भरता इम चींतविवा लागा जउ, 'बलिभद्रनारायण अम्हे है, कि ए लव नइ कुश ? हम चींतवइ छ । इसिह नारद ऋषि भामंडल - सहित तिहां राम-लक्ष्मण-समीप आवी, हसीनइ इम कहिवा लागउ, 'अहो ! हर्षनह ठामि तुम्हे सिउ विखवाद मांङिउ ? जेहना एहवा पुत्र, तेहनइ हर्ष जि कीधउ जोईइ ।' तिवारइं श्रीरामि पूछि, 'रिषि ! ते किम ? ' वलतुं नारद कहइ, 'ए बेढू ताहरा पुत्र, शीतानी कूखिई ऊपना । सांप्रत संग्रामनइ मिसि तुम्हनइ जोवा आग्या छ । पणि ए वहरी नहीं, इणि कारणि ए चक्र गोत्रि-भणी न पुहचिरं । तु ए अहिनाण तुम्हे जाणिज्यो । ए वात सांभली राम-लक्ष्मण स्नेह लगइ साम्हा मिलवा गया । तिसिहं लव-कुस पणि विनीत हूंता आवी पिताने पगे लागा । तिवारs बिहुं कटकन माहो माहि महा-उत्सव- आनंद हुआ । पछइ पुष्पक विमान इसी गम-लक्ष्मण लवकुश सहित नगर माहि आग्या । तिसिद्धं लक्ष्मणि, सुग्रोवि, वज्रजंध शीता आणिवा भणी श्रीराम वं नविउ । तेतलाई रामि अनुज्ञा दीधी । पछइ लक्ष्मणादिक सहू साम्हा तिहां जइ शीतानइ नगर-माहि वेडिवा लागा । तिवारइ शीता कहर, 'जां धीज करीनइ सूझउं नही, तां-सीम हूं नगर-माहि नावडं । दश धीज छ । तेह- माहि जे मेलि आवइ ते करावड । जु कहु तउ आगि माहि पइसी नीकलउं ( १ ), अथवा चोखा चावडं (२), अथवा कहउ तउ कोस पीउं (३), अथवा घटसर्प काढडं (४), अथवा घटगोल काढउं ( ५ ), अथवा तरवारि-ऊपरि चालडं ( ६ ) अथवा तातउ लोहनउ गोलउ हाथ - ऊपरि राखउं (७), अथवा कहउ तउ ताती तेल - कडाइ - माहिथी कउडी काढउं (८), अथवा उन्हों कुसि जीभइ करी चाटउं (९), अथवा कहउ तउ देवनउं फूल ऊतारडं (१०) । ' शीताइ इम कहिई हूंतई, पछइ श्रीगमि मोटी चउरी खणावी । त्रिण्णि सह हाथ लांबी, बि पुरिस ऊंडी एहवी, चंदनादिक काण्डे भरी, माहि अग्नि प्रज्वाली, महा Terait करी । श्रीराम-लक्ष्मणादिक सहू इ मिली शीता-पाहंति स्नान कराविउं । पछइ शीताई स्नान करी, त्रिणि नवकार कही एहवी अवश्रावणा कीधी, 'अहो लोकपालो ! सांभP. गोत्रपुत्रनई । २. K. चउक ऊपरि । १. B. गोत्रि माहि तु, Pu. गोत्र तु, ३. K. ताती । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित लउ। जु मह राम टाली त्रिधा-सुद्धिइ बीजउ कोई पुरुष ध्यायउ हुइ, तु मुझनइ आगि भस्म करिज्यो, नही तु आगि फीटी पाणीनउ कुंड होज्यो।' इम कही जिम शीताइ आगि-माहि झांप दीधी, तिम शीलनइ प्रमाणि आगि शीतल हुई .। वावनी परिई ते खाई पाणी[इ] भराणी । ते पाणी-माहि सहस्रदल कमल हुआं । ते कमल-परि रत्नमय सिंहासन । ते ऊपरि शीता बइठी, लक्ष्मीनी परि सोभिवा लागी। तिसिइ देवताए शीताना मस्तक-ऊपरि कुसुम-वृष्टि कीधी । 'अहो शीलमहो शीलं' इम देवता प्रसंसा करिवा लागा। एहवउं 'मातानउ स्वरूप देखी ला अनइ कुश बेहू पुत्र आवी फ्गे लागा। तेतलइ लक्ष्मणादिक तेह. इ नमस्करिवा लागा। तेतलइ वली श्रीराम आवी हाथ जोडी कहिवा लागउ, 'हे देवी ! मइ जे लोकनी वाते तूं अरण्य-माहि मूकाबी अनइ सांप्रत वली तुझ-पाहंति दिव्य कराविडं इत्यादिक सर्व माहरउ अपराध ख म । हिव ईणइ विमानि ब्रहमी आपणिइ घरि आवि । राज्यलक्ष्मी सफल करि ।' तिवारइ शीता कहइ, 'हे प्रियतम ! ए तोहरउ दोस नही, न अनेरानउ दोस । किंतु ए माहरा कर्मनउ दोस । एह-भणी माहरइ संसारनइ सुखि करी सरिउं । हिव हैं दुक्खना छेद-भणी जि दीक्षा लेसु-पछइ मोटइ महोत्सवि श्रीरामइ अनइ शीताइ बिहूंजणे दीक्षा लीधी । इम घणु काल चास्त्रि' पाळी श्रीसम मोक्षि पहुतउ । अनइ शीता शीतेंद्र हउ । तिहां देवलोकनां सुख भोगवी क्रमिई कर्मनई क्षयि शीता मोक्ष(१क्षि) जासिइ । इति श्रोशीलोपदेशमाला-बालाविबोधे शीता-महासती-कथा समाप्ता ॥४२॥ वली महासतीना लक्षण कहइजा सीलभंग-सामरिग-संभवे निच्चला सई एसा । इयरा महासईओ घरे घरे संति पउराओ ॥१०९ व्याख्या:-जे स्त्री शील-भंगनी सामग्री हूंती इ आपणउं शोल पालिवा-भणी दृढ हुइ-ते सामग्री कउण ? रूप, लावण्य, यौवन, नरनी प्रार्थना, लक्ष्मीना उन्माद, एकांत प्रदेश, राजादि, ग्रहादि कारणे-जु शीलभंग न करइ, तु इम जाणीइ ते महासती। अनइ एह-ती जे अनेरी सती, ते घरि घरि घणी इ दीसइ । वली शीलरक्षानउ उपाय कहइ तह वि हु एगंताई-संगो निच्चं पि परिहरेअव्यो । - जेण य विसमो इंदियगामो तुच्छाई सत्ताई ॥११० व्याख्याः -यद्यपि शील पालतां दोहिलङ छइ, पण तु ही शलना पालणहार नरनारीए एकांति संग सदाइ वर्जिवउ । जिणि कारणे जीवनइ जे इंद्रियग्राम, ते तु महा विषम अति दर्जय छइ । अनइ जे सत्त्व:साहस ते तु थोड़ा। इणि करणि, निसत्त्व जोवनइ पडतां वार न लागडा तेह-भगो शोलवंत पुरुषे एकांति स्त्री-संग टारिवउ । तिम स्त्रोइ पणि एकांति पुरुषनउ संग टालिवउ। अथ ते संग-लगी जे दोष ऊपजइ ते कहइ जइ वि हु नो वय-भंगो तह वि हु संगाउ होइ अववाओ। दोस-निहालण-निउणो सत्रो पायं जणो जेण ॥११२ १. C. L.P. शीतान। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौलोपदेशमाला बालाघवोध १७९ व्याख्याः -यद्यपि ते. यतेंद्रियनह ब्रह्मवतनउ भंम न हुइ, पणि तथापि संग-लगी अपवाददोषादिक कारण ऊपजइ । जिणि कारणि, प्रवाहि लोक दोष लेवानई' विष सावधान छ । हिव शीलनउ उपदेश कहइ ता सव्वहा वि सीलम्मि उज्जम तह करेह भो भव्वा । जह पावेह लहु-च्चिय संसारं तरिय सिव-सुक्ख ॥११२ व्याख्याः -अहो भविको ! तेह कारण-इतु मनसा वा वा कर्मणा-त्रिकरण-सुद्धिई, शीलनइ विषह उद्यम करउ, जिम लव-शीघ्र संसार-समुद्र तरी शिव-सौरव्य पामउ। हिवइ ग्रंथनउ करणहार स्व-गर्व-परिहार-पूर्वक सर्व-संग्रह उपदेस कहा इय सील भावणाए भावंतो निच्चमेव अप्पाणं । धन्नो धरिज्ज बंभं धम्म-महा-भवण-थिर-थंभं ॥११३ व्याख्याः -ईणइ प्रकारि=पूक्ति उपदेश, दृष्टांतरूप शीलनी भावनाई करी, नित्य-सदाई, आपणपुं भावता हूंता, हे धन्यो भाग्यवतो, जीवो, तुम्हे ब्रह्मवत शीलवत धरउ प्रतिपालउ । पणि ते ब्रह्मवत केहवउं छइ ? धर्मरूपीउ महागरुउ भुवन आवास, तेह थोभिवा-भणी निश्चल स्तंभ-समान ए ब्रह्मवत छई। जिम प्रासाद स्तंभि करी निश्चल हुइ, तिम धर्मसील दृढ ब्रह्मवत पालिवह करी निश्चल हुइ। जे धन्य-कृतपुण्य हुइ, तेह जि शीलवत धरिवाना विषइ क्षम-समर्थ हुइ। पणि मुझ सरीखउ पापी समर्थ न हुइ । वली एह जि संबंध ग्रंथकार जणावइ--अहो संगदोषि जे धन्य हुइ, तेह जि शील पाली सकइ । पणि अधन्य पाली न सकइ । इहां धनश्री सतीनउ दृष्टांत देखाडइ [४३. धनश्रीन दृष्टांत] ऊजेणी नगरीइ जितशत्रु राजा कमला-भार्या-सहित सुखिइं आपणउं राज पालइ । यही तेह जि नगरी-माहि सागरचंद्र श्रेष्ट चंद्रश्री-भार्या-सहित वसइ । हिवइ तेहनउ पुत्र समुद्रदत्त, ते अन्यदा मातापिताइ कलाचार्य-समीपि भणिवा मूकिउ । पछइ मउडइ मउडइ कलाचार्यनी भार्यानइ संसर्गि ते समुद्रदत्तनी माता कलाचार्य-साथि लुब्धी हुइ । इम एकदा समुद्रदत्त मातानउ ए स्वरूप देखी सर्व स्त्रीनइ विषइ विरतउ हु। तिवारइ समुद्रदत्ति विवाहनउ अभिग्रह लीघउ जउ, 'हूं पाणिग्रहण नही करउं।' पछइ पिता पुत्र यौवन वय(?इ) आविउ देखी घणी। कन्या मागइ. पणि समुद्रदत्तनइ स्त्रीन नाम न सुडाइ, सर्वथा न मानइ, यतीनी परिहं सर्व निषेध । इम करतां घणउ काल गयउ । ___ अन्यदा विवसाय-निमित्त पिता सागरचंद्र सोरठदेस-भणी चालिउ । तिहां गिरिपुरि धन सार्थवाह. तेहनइ घरि जई ऊतरिउ। तिहां घणउ विवसाय करी, पछइ तेहनी पुत्री धनश्री समुद्रदत्तनह काजि मांगी, सागरचंद्र आपण घरि आविउ । इम एकदा पिताइं समुद्रदत्तनइ कहिउं. 'वत्स! गिरिपरि आपणी वस्तु-भांड छई, ते तूं जई लेई आवि।" ते-आगलि परणवानी वात हुन कही। किंतु समुद्रदत्तनु मित्र छइ तेह-आगलि छानइ-सिउं बात कही जु. 'मई तिहां धनश्री कन्या मागी छइ । ते तूं प्रपंच करी एहनइ पाणिग्रहण करावे ।' तिवारइ तीणइंमित्रि: सर्व वात पडिवजी । पछइ भलइ मुहूर्ति मित्र-सहित गिरिपुर-भणी समुद्रदत्त चालिउ। मार्ग उल्लंघतउ थोडे दिहाडे गिरिपुरनइ उद्यानि-वनि पहुतउ । १. B.Pu. बोलवानइ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचितं तिसिह तिणि मित्र 'छानइ - सिउं धन - सार्थवाहनइ वरनडं आगमन जणाविउँ । धनह पणि विवाहनी सर्व सामग्री सज्ज करी मूंकी । पछइ समुद्रदत्त सपरिवार घरि जिमवा निहुतरिउ । तिहां काणिई पाडो धनश्रीनउं पाणिग्रहण कराविउं । हाथ - मेल्हावणीइं घणउं धन दीघउ । पछइ वली मित्रनु प्रेरिउ वासगृह-माहि गयउ । तिसिई तिहां धनश्रीनई देखी तत्काल पाछउ वली, मित्र - समीप आवी सुतउ । पछइ प्रभाति शरोरनी चिंतानइ मिसि कागनी परि किहांइ नासी गयउ । लगारेक हूई जिवारदं नावइ, तिवारह मित्र सुसरानई कहाविड जउ, 'तुम्हारउ जमाई दीसतु नथी ।' पछइ धन सार्थवाहर जमाई सघले जोआविउ, पणि किहांइ न लाघउ | मउडइ मउडर ए वात सागरचंद्र - पिताई सांभली । पिता पणि महा असमाधि करत हिां आविउ । तिहां इ पुत्रनी सुद्धि अणपामतउ वली पाछउ घरि पहुतउ । इम करतां बार वरस वउलियां । १८० बारमा वरसनइ अंति समुद्रदत्त कापडीनइ वेसि स्थूल पीनांग देह धरतउ तिहां अत्री घनश्रेष्ठिनइ प्रणाम करोनइ इसिउं कहइ, 'अहो श्रेष्टि ! जउ तुम्हारइ उद्यान - वननइ रखवालउ जोईइ, तु मुझनइ राखउ ।' पछइ सेठइ तेह जि वाडीनउ रखवालउ कीधउ । हिवइ ते समुद्रदत्त कापडीनइ वेषि हूंतइ तिम कांई वृक्षनी शुश्रूषा कीधी, जिम थोडा दिन -माहि नंदनवन सरीखउ वन दीसिवा लागउ । अन्यदा धन- सार्थवाह तेहवी वनलक्ष्मी देखी, आनंद-पूरित ईंड, मन-माहि इम चतविवा लागउ जउ, 'आज पहिलउं एहवड कलापात्र मई योग्य कोई न दीठउ । तु हिवइ ए आपणइ हाटि बसारी ।' इम चौतवो पछइ ते समुद्रदत्त कापडी बहुमानपूर्वक आपणइ हाटि बइसारिउ । तीणह थोडा दिन-माहि घण लक्ष्मी ऊपार्जी । पछइ अति विनीत देखी विनीतक एहवउँ नाम दीघउं । ते विनीतक सघले विख्यात हुङ । तिवारइ श्रेष्टिई चींतबिउं जउ, 'रखे ए विनीतक सर्व-गुणमह देखी राजा लिइ ।' इम विमासी पछइ सर्व घरना काज-काम तेहनइ भलाव्यां । हिवर ते घरनां वांछित काज करत पुत्र नाहइ ते अधिक करो मानिउ । कांई ? सघले गुण जि ' अर्चीह । यत :लहुडा वडा मा भणउ, गुण वडा संसारि । गागरि अछछ बइठडी, करवइ पीजइ वारि ॥१॥ इम ते विनोतक सर्व कार्य करतउ, धनश्रीना मननइ विश्वासपणउं पामिउ । पणि भरतारनइ उलख नही । इम अनेरइ दिवसि धनश्री गउखि बइठी तलारिहं दीठी । तिसिई तलार कामांध हूड । यतः - न पश्यति हि जात्यंध कामांधो नैव पश्यति । न पश्यति मदोन्मत्तो अर्धी दोषो न पश्यति ॥२॥ ते तलार अति काम व्याप्त हूंतइ, आपणी स्त्रीना पारखा-भणी विनीतकिकहिउं, सर्व बात कहिसु ।' कांई ? जे धूर्त हुइ, ते धनश्रीनी प्रार्थना विनीतक पाहइ करावी । तिवारह 'ए वातनी चिंता म करी । अवसरि धनश्रीनइ हूं परमार्थं लेवा-भणी सघली वस्तु पडिवजइ । पछ १. C. L. Pu. छानउं । २. K. लाजिई पाडी । ३. C. Pu. काज तेह माहि भलाव्या । ४. K. Pu. अर्धी । ५. K मन गुणउ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौलोपदेशमाला-बालावबोध विनीतकि धनश्रीन जिम तलारनउ संबंध कहिउ, तिम धनश्री कहिवा लागी, 'अहो विनीतक ! आजपछह एहवलं वचन सर्वथा म कहेसि ।' इम वली दिवस एकनउं आंतर उं घालीनइ विनीतकि कहिउँ । तिवारइ धनश्री माथउं धूणती विनीतकनइ कहा, 'अहो ! एतला दिवस तूं प्राण-इपाहइ अति-वल्लभ हूंतउ, पणि ईणि वनि वइरी-पाहिइ अधिकउ हूउ । कांई? जे तू' माहउ शील-माणिक्य दूषववा वांछइ । बिणि कारणि, सांभलि मन-वचन-कायि करी मुझनइ पितादत्त भरतार समुद्रदत्त तेह जि शरणि ।' तिवारइ विनीतक आपणपउं गोपवतु, गूढ हर्ष धरतउ कहिवा लागउ, 'हे मुग्धि ! कृपणना धननी परिइं तूं मुधा जन्म कोई गमाडइ? ते तु भरतार तुझनइ छांही गयउ। तेहनी शुद्धि इकिहां इन लोधी । इणि कारणि तलारनउ वचन मानि ।' तिवारई धनश्री कहइ, 'अरे ! तू विनीत इ अविनीत एउ, जे तूं एहवां बचन मुझनइ संभलावइ । कांई? कुलस्त्रीनइ शील जि रत्न राखिउं जोईइ, अनइ तिणि शील 'भाजतइ स्त्री जीवती इ मुई जाणिवी । सांप्रत चिर-परिचित-लगी तूं जीवतु मुकिउ छह ।' इम धनश्रीइ विनीतक गादउ निर्भसिउ । पछइ तलारनइ जई कहिउं, 'अहो ! स्त्री तु न मानइ ।' तिवारइ तलार रागांध हूंतु विनीतकनइ कहइं, 'अहो विनीतक ! धनश्रीनइ वली एक वार कहि, पछह म कहेसि ।' इम वली दिवस पांच-सात आंतरउ करी वली त्रीजी वार धनश्रीनइ कहिउं । तिवारइ धनश्रीइ चीतविउं', 'शिख्या-पाखई ते नही रहा ।' इम चीतवी धनश्रीइ कहिलं, 'ना, ते तलार सर्व सामग्री करावी अशोकवनिका-माहि तेडि । पल्यंकादिक सर्व भोगादि सामग्री मेलावि ।' इम कही पछा आपणपे तिहाँ गई । ते पणि तिहां आविउ । तिसिइ धनश्रीइ चन्द्रहास मदिरा अणावी । ते तलारनइ चिम पाई, तिम तलार अचेत यई भुंइं पडिउ । पछड़ मनश्रीइ तेह-जि-नउं खड्ग लेई मस्तक-छेद करी विनीतकनइ कहिउ', 'अरे विनीतक ! वेगउ' खाड खणि, 'नही तु ईणइ खड्गि करी ताहरउं पणि मस्तक छेदिसु ।' तिवारइ दीहतइ हूंतह खाड खणी । पछइ तलारनइ धनश्रीइ ते-मा हे दाटिउ । विनीतकनइ कहिउ, 'अरे ! जउ बाहिरि वात कोधी, तु तू जाणिइ ।' इम निभर्तिसई बोहतु हूंतु धनश्रीनइ पगि लागी कहइ, 'स्वामिनि ! ए माहरु अपराध खमि । पणि कहि ते समुद्रदत्त कउण ?' तिवारइ धनश्री कहइ, 'सांभलि, उज्जेणीनगरीई सागरचन्द्रनु पुत्र समुद्रदत्त, सर्व गुणनु आगर, ते माहरउ पति जाणिवउ ।' हिवइ तेह जि समुद्रदत्त छइ, पणि आपणपठ अणजणावतु स्त्रीनइ इसिउ कहइ, 'हे सुभगि ! ताहरे गुणे रंजिउ हूंतु, भावह तिहां थकु ताहरउ भरतार जोईनइ आणिसु ।' इम कहीनइ नीकलिउ । तिसिई मार्गि जातउ इम चीतवइ, 'मई तु माहरी स्त्रोना शीलनी परोक्षा दीठी । जे हूं इम जाणतउ जे सर्व स्त्री कुशीलि, ते तां वृथा ।' इम चीतवतु धनश्री-उपरि सानुराग हूउ । इम मार्ग उल्लंघी आपणइ घरि आविउ । मातापितानइ हर्ष ऊरजाविउ । पछइ सागरचंद्र श्रेष्टिइ गिरिपुरि धन-सार्थवाहनइ जमाईन आगमन जणाविउ । तिसिइं ते पणि महांत हर्ष धरिवा लागा । धनश्रोइ १.K. भाषिवइ, C. Pu. नाठइ । २. K. ऊतावलउ । ३. K. नहीतरि ईणइ । ४. C. वृथा फोकट । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ मेरुसुन्दरगणि-विरचित 'रुलीमाइति थई । पछह अन्यदा समुद्रदत्त स्त्रीनइ ओणउं करिवानइ अर्थि गिरिपुरि गयउ। स्वसुरानइ परि आविउ । पणि लाज-मणी आपणपउं देखाडइ नही । इम करतां रात्रिनइ समइ धनश्रीइ वासघर-माहि दोवउ आणिउ । तिसिइ समुद्रदत्ति लाज-भणी दीवउ वधारी, शिय्याई सूई रहिउ । इस बीजइ दिनि । त्रीजइ दिनि इम जि करो रहिउ । पछइ धनश्रीइ चउथइ दिनि संध्यानइ समइ प्रच्छन्न दीवउ करी घर-माहि राखिउ । इसिई भरतार आवी शिय्याई सूतु, तेतलइ धनश्रीइ तत्काल दीवउ प्रगट कीघउ । जो जे इ, तु तेह जि विनीतक आपणउ भर्तार जाणो सहषित सस्नेह हूंती कहिवा लागी, 'हे स्वामी ! हे प्राणनाथ ! तई मुझनइ आपणप कांई न जणाव्यउं ?' इम आपणउ जमाई जाणोनइ सह इहरख्या । पछइ समुद्रदत्त आपण हाथ-मेल्हावणीनउँ धन अनइ धनश्रीनइ लेइ आपणइ नगरि . आविउ । इम धनश्री आपणउ भर्तार पामी, निःकलंक शील पाली, सकल सुखनइ भाजन हुई । इति श्रोशीलोपदेशमाला-बालाविबोधे धनश्रीनी कथा संपूर्णा ॥४३॥ हिवइ ग्रंथकार ग्रंथनी समाप्ति-भणी आपण नाम-गर्भित मंगल. गाथा कहा--. इय जयसिंह-मुणीसर-विणेय-जयकित्तिणा कय एयं । सीलोवएसमालं आराहिय लहह बोहि फलं ॥११४ व्याख्याः -ईणइ-पूर्वोक्त प्रकारि करी, जयसिंहमूरि, तेहनु विनीत शिष्य जयकीति मुने, तीणइ ए श्रीशोलोपदेशमाला-प्रकरण-रूप मूल-सूत्र कीघउ । तु ए प्रकरण, भो भविक लोको ! तुम्हे आराधी करी, ईणइ प्रकार शील पाली. सिद्धांतोक्त गाथारूप प्रकरण भणतां गुणतां, सुद्ध शील पालतां, भावना भावतां, जिम बोधिबीजनु फल लहु, पर पराइं मोक्षफल पणि पामउ ॥ ___ इति श्रीशीलोपदेशमाला-बोलावबोधः संपूर्णः ॥ श्री खरतरगच्छे, श्री जिनचन्द्रसूरि-विजयराज्ये, वाचक-रत्नमूर्तिगणि-शिष्येण वाचक-मेरुसुन्दरगणिना शीलोपदेशमाला-बालावबोधः मुग्धजनविबोधाय कृतः ।। १. C.Pu. रुलीआति हई ।, K. रुलियाइति हुती पछइ ... । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमालानी गाथाओनी अकारादि सूची संख्या संख्या ८८ ८४ २५ ११० ११४ २८ ११२ १०८ ८६ ८० गाथा अक्खलिय-सील अणुकूल-सपिम्माण अन्नं रमा निरिक्खइ अवंभ पयर्ड चिय अमर-नर-असुर आबाल-बंभयारि इय जयसिंह-मुणीसर इय भाव भावंतो इय सील-भावणाए एगते मंताई पासस्थाई एवं सीलाराहण कलमल-अरह कलिकारओ वि जन कुडिलं महिल-ललिय गुण सायरं पि पुरिसं चवलाओ कुडिलाओ चालणि-धरिय चित्त-भित्तिं न छट्टहमदसमाई मइ ठाणी जइ मोणी जई तं काहिसि भावं बई विहु नो वयभंगो घउ-नंदणो महप्पा ज लोए वि सुणिज्जइ जस्थाणुरत्त-चित्ता अर-जज्जर-थेरी जहा कुक्कुडपोयस्स जाणति धम्मतत्त जा निय-कंत जासिं च संगवसओ जा सील-मंग-सामग्गि जिप्पंति सुहेणं चिय जूआर-पारदारिअ गाथा जे मामति न सीस जे सयल-सत्थ जलनिहि जो अन्नायरओ तं दाणं सो अ तवो तं नमह वयरसामि तहवि हु एगंताई ता कह विसय-पसत्ता ता सयल इयरकहा ता सम्वहा वि सीलम्मि तिहुअण-पहुणा वि तिहुयण-जगडण-उन्भड तुच्छा वि रमणि-जाई ते धन्ना गिहिणो थेवमसारं सत्तं दाण-तव-भावणाई दायार-सिरोमणिणो दाया वि तवस्सी वि दालिद्द-खुद्द-वाही दीसंति अणेगे उग्ग दीसंति सीह-पोरिस देव-गुरु-पियर देवो गुरू य धम्मो धीरा व कायरा नंदउ सीलाणंदिय न वि किंचि अणुन्नार्य निम्मल-महामईण निम्महिय-सयल-हीलं निय-मइ-माहप्पेणं निय-सत्तावज्जियाओ निय-सील-बहुल निय-सील-महामंतेण निय-सील-रक्खणत्थं निरुवम-तव-गुण १०४ ८ ८५ m v. , ४८ ७८ s m ur mm Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा निव-धुआ निय-रूवा नेउरखंडिय - दत्तय नो कामीण सच्च पइ - दिवस दस दस पर पुरिस से विणीओ पर - रमणी - पत्थणाउ पर - रमणी - संगाओ परलोए वि हु पालंति निय-सीलं इज्जति सिवत्थं बंधण- छेपण - ताडण बं भव्वय-धारीणं बहु - महिलासु पसतं मयण-पवणेण जइ मरणे वि दीण वयणं मिय-भासिणी सलड़जा मुह मडुरासु मेहुण-सन्नारूढो रमणी - कडक्ख - विक्खेव रमणीणं रमणीयं रम्माओ रमणीओ रिसिदत्ता दवदंती रूवो हसिय रे जीव समय संख्या ३८ ६६ २४ ३१ ४९ ८९ ९० ४३ २१ ६१ ६८ ९१ ३३ १८ १०३ ८७ २३ ३७ ९५ ९३ ५५ ८१ ७५ १८४ गाथा लच्छी जसं पयावो विभूसा इरिथ विसईण दुक्ख विसमा विसय पिवासा विसयासत्तो वि नरो विस-विसहर - करि वेसा दासी - असई वेसा - दासी - इत्तर संवेगगहियदिक्खो सक्को वि नेय सच्चिय सह त्ति समणी विहु विसय सयलो वि गुणग्गामो सावज्जजोग - वज्जण सासव - सुह - सिरि सिरिमल्लिनेमि सील - कलिएहिं सद्धिं सील - पभाव - पभाविय सील पवित्तस्स सील-भट्ठाणं पुण सीलवर नंदयंती सो जयउ थूलभद्दो हत्थपाय-पडि छिन्नं हरि-हर - चउराणण संख्या ३ ६९ ७७ ७३ २२ ५.९ १०० १०१ ३० १७ १०६ ६४ ५८ २९ ९२ ४० ५७ ४५ ९६ ६० ५६ ४१ ७२ २० Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्य पृष्ठ ५२ dNmdd ९३ ३२ ૨૨ १५२ ९४ शीलोपदेशमाला-बालावबोधमा उद्धृत संस्कृत प्राकृत पद्योनी अकारादि सूची पृष्ठ पद्य अकीर्ति-कारणं योषित् ___ न वेत्ति लोको मूढो अक्वाणसणी कम्माण निर्विशेषः प्रभुः अग्निकुण्ड-समा नारी १५१ पंचिंदिया मणुस्सा अनार्याणामलज्जानां ११० पा दे जलिय जोई अश्वप्लुतं वासवर्जित १४५ परोपकारो मैत्री च असंखइत्थिनर २२ पुरिसेण सहगयाए अहं च भोगगयस्स प्रथमेत्वाभिलाषः इतो भ्रष्टा ततो भ्रष्टा १४८ भृत्यर्धनेन इत्थीजोणिमझे २२ राजपत्नी गुगेपत्नी इत्थो जोणीए संभवति २२ लक्ष्मीर्यशः कुले जन्म कवयः किं न कुर्बन्ति लहुडा वडा मा भणउ को देवः को गुरुः १२० वसासृग्मांस खलः सर्षपमात्राणि १७६ वायुना यत्र नीयन्ते चेईय-दब्व-विणासे विश्रब्धां वल्लभां जइ तं काहिसि भावं वीतरागः परं देवो जल्पन्ति साध मन्येन १४७ श्रीनाभेयममेयश्री जो जारिसेण मंग १३६ श्रीजिनचन्चन्द्रगुरूगा दर्शने हरते प्राणान् १६३ संधरणम्मि असुद्धिं धिरत्थु ते जसोकामा संसार तव पर्यन्त-पदवी न पश्यति हि जात्यंधः १८० समणे जइ कूलवालए नवलक्खाणं मज्झे सव्वो पुवकयाणं न विश्वसेत् कृष्णसर्पस्य १६३ स्मृता भवति तापाय १८. ३२ ११० ३२ WU २२ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अऊठ साडा ऋण अग्निदाघ अग्निदाह अजी हजी अठील बेडी अणसण अनशन अधविचि अधवच अधिकउ अदको, वधारानो अनेथि अन्यत्र, बीजे अनेरउ बजु, अन्य अपभ्राजना हीणपत, अवमानना अपारि (भलउ ) घणुं (सारं ) अमावस अमास अलगउं दूर, आघुं अवदात यशस्वी कार्य अवश्रावणा घोषणा असमाधि चिंता, उपाधि महत्वना शब्दोनी सार्थ सूची अहिनाण घाण अंगमोटन अंग मरोडं अंगोलगु अंगसेवक अंतपुरी राणी अंतेउरी अंतःपुरनी स्त्री, राणी आऊखु, आऊखउ आयखु, आयुष्य आगता - स्वागत (नपुं. ) आगतास्वागता आदित्यवार आतवार, रविवार आगम् आवकारखु आगिम आगळथी, पहलेथी आप पोते आपणइ पोते आपणडं पोतानु आपणपानइ आपणने आपणी आपोआप आपणीइ पोते आफणी, आफहणी आपोआप आभरं वादळु आभड् अडवु आम तात हे तात ! आय-वरउ आय-व्यय आरेणि प्रथम हरोळनुं युद्ध आलोय् आलोच आलोयणड आलोच आव् आवडवु आवs आवs आसोज आसो आस्वासना आश्वासन आहणू मारखं आहे शिकार ईग्यारस अगियारस वाह ईंटो भाडो उरई -पई अहींतहीं अटिंगे उठीं उत्तरासण उत्तरासंग उरडउ ओरडो उरतउ ओरतो, अप्राप्तनी शंखना माई ओरमा उलिउ ओल्युं उसन्न शिथिलाचारी (साधु) उसर पेखणु, नाटक- भवाई जेवो तमाशी उहदू हटवु ऊगर् बच ऊगाह् उछाळवु (धूळ) ऊघाडू उघाडु' पडी जवु, घटस्फोट थवो ऊचलू उचाळा भरवा ऊदालू आंचकी लेवु ऊपराठउ नाराज, प्रतिकूळ, विफरेलु ऊपहरउ ऊंच, ऊफरं ऊभग् ५५,५७ कंटाळी जत्रु, थाकत्रु, मनथी थाकवु ऊमण दूमणी खिन्न ऊरण ऋणमुक्त एकण एक ज Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक - संथुई (स्त्री) जेने एक वारना श्रवणथी याद रही जाय तेवी (स्त्री) एकु एक पण, एके य उतिगीयाल कौतुकी कटकी ७१, १२८ आक्रमण, चडाई कणयर कर कणवार करणवार, सार-संभाळ कयर केरडो करगराट कळकळाट ( कागडानो) करणवार चिंता, सारसंभाळ करसणी खेडूत कलहाट ६८ १ कागल ( फा . ) कागळ काणि मर्यादा, दाक्षिण्य, लाज (काणि पाडी शरममां नाखी, शरमावी) कादम कादव कापडी रखडतो भिखारी कारखान ( फा . ) कारखानु काश्मिर कृत्रिम, बनावटी किरण करण, युद्धमां अंगना चलन वलननो प्रकार रमाई रमाई कुणबी खेडुत, कणी केलिहरा कदलीगृह केहा केवा क्रोंकाट (भैंस) डणकवु खउल खोळवु खडहड् लथडवु, स्खलित थवु खडी - चापडी ९८ १ खडोखली ४४ कुंड, होज खम् क्षमा करवी खयन खेन, क्षय खयर खेर खरच ( फा . ) खरच खलहाण स्खलित थयुं, अथडाणु खली राखिउ १०४ छूटो पाडीने बंदी राख्यो ? ૨૮૭ खवउ खभो खापर ठीबहु खांच् च खुभ् क्षुब्ध थ खो ख गउरव गौरव, वरपक्षने कन्यापक्ष तरफथी अपातुं जमण, हरख - जमण गड पहाणो गढ - रोहउ गढनो घेरों गमाड् गुमाव, विताववु गमे गमे दिशो दिश गलहथ् गळन्रीए पकडवु गंजा - गांजवु गाढ़उ घणु गाढेर वधारे गालहथा (देवा) (चिंतामा) हथेली पर गाल ढाळवा गावडि २९ १ गिरिनारि गिरनार गुडि हाथी कवच गुणव् गणवु, वारंवार पठन करवु गुरुणी गरणी, जैन साध्वी गोगउ १३६ गोगा बापा, गोगा देव, घोघा वीर ग्रामांतरि गामतरे घट् संभववु, लागवु घडीआ - जोअणी ९७ घडिया - जोजन, एकमां एक योजन कापती घाई उतावळ घात् घालवु नाखवु घास् छेतराव घूर्मा - १४९ झोकां खावां चउ-पखेर चोपास, चोगम चउमास चोमासु चउरी १७७ चोखंडो खाडो चकि चकित थयो चरड चोर Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाल चाल, ऊप चालणड जवानुं, प्रस्थान चांपेल चपानी सुगंध वाळु तेल चिणउठी चणोठी चित्राम चित्र चिवू च्यaj (स्वर्गमांथी) अवतरवु चिहि चेह, चिता चिरी चीठी चीतार् चीतव चोरी चोरीछूपीथी छट्ठी जागी १०५ छठ्ठीए (संतान जन्म पछी छट्ठे दिवसे) जागरण यु छत्रडी छत्री छब् अडवुं छाजां छजां छाणहरु छाणांनो गंज छांदूआ बोल खुशामतना बोल, छांदां छे हिलउं छेल्लुं जगत्र त्रण जगत, त्रिभुवन जरहि बख्तरनो एक प्रकार जाजरउ जर्जरित जानीया, जानीलोक जानैया जायउ जण्यो जिणू जण जितकासी विजेताने योग्य जिम जेथी करीने जीणसाल बख्तरनो एक प्रकार जीप् जीत जुहार बंद, जुहार करवा जूड जुदुं जूत् जू-बुं जूप जूतवु जूवटड जुगार जोयण योजन झीलू नहा झ्झ युद्ध करवु १८८ झूझ युद्ध झोटींग भूत टोडर फूलनुं छोगुं, कलगी ठोकिरडं ठीक डंक दंश डाभसी डाभनी तीणी सळ डाउ डायो डील शरीर डुंगर डुंगरो डोहलउ दोहद, दोहलो ढोल दोडaj तलहांस तळांसवुं तलार नगररक्षक तंगोटी नानो तंबू तंबोलदार तांबूलिक ताछ छोलवु ताद ताढा थई जवुं तादि ताद तुsिहं स्पर्धामां तूं ह तू प्रसन्न थ तृण तर त्रोडू तोडं थाकू रहेवु, बाकी रहेवु थाकउ थाक्यो थाकती बाकीनी थांभर थांभलो थूभ स्तूप थोभू टेको देवो दइडु दो दाइझू बळवु दाधी दाझी दालिद्र दारिद्रय दीसू देखापुं दुर्गंध दुर्गंध Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ दुहवण दुःख, दुभावू दोपडी ९८ बे-जीभी १ ठगारी वात कर नारी ? दंग गाम धीज सोचनु पारखं धुरि आरंभे, शरूमा धूण् धुणावq धूपधाणां धूपदानीओ नमया नर्मदा नवबारही नव योजन पहोळी, बार योजन लांबी नष्टचर्या रात्रिचर्या नहोतउ, नहींतो नहीतरि नहितर नानउ नानो, मानो बाप नालेरी नाळिएरी नाव् न आवडवू, न घटवू नांद् आनं देत यवु, सुखी-समृद्ध थQ निआणउं निदान, नियाj निभ्रंकू निंदवू निवरउं निर्जन, एकांत निवाइ निर्वाते, एकांते निहुँतर् नोतरवु नीगम् वीताव, गाळवू नीठ ६९ नष्टप्राय ? दीन-हीन ? नीठर निष्ठुर नोठाइ, नीठालू नाश करवो नेडालि दामणी नेसाल निशाळ पइल पेलु पइसारउ प्रवेश पउद् पोढवु पउण पोj परंतार महावत पखाल स्नान पगई पगि पगले पगले पग-धोअण. पग धोवा, पाणी पच्चखाण पचखाण [अमुक पाप कर्मनो त्याग करवानी बाधा] पछोकड पछवाडे पजून प्रद्युम्न पजूसण (पाठांतर : पजूसरण) पर्युषण पडख , पडिख वाट जोवी, प्रतीक्षा करवी पडगह प्रतिग्रह, वाटका जेवू पात्र पडहउ पडो, घोषणानो ढोल पडूतर प्रत्युत्तर पतगर् कबूल करवु, खातरी आपवी पतीज् विश्वास बेसवो, प्रतीति थवी परहुणउ परोणो पराव् पारणुं कराव, परिअछि, परियछि पडदो परिठव् स्थापq परीछ समजवु, जाणवू पवाडउ पराक्रम, पराक्रमनो जश परोक्ष हूउ मृत्यु पाम्यो पसाय भेट पहिडू ४४ फटकवू, विचार बदलवो, फरी ज पहिरणउं पहेरण पंचयज्ञ पांचजन्य (कृष्णनो शंख) पाखर घोडान कवच पाडू खराब पात्र गणिका पाथउ ४६ ? पाधर सीधे सीधु, पाधलं, मात्र, केवळ पारिणेत पानेतर पालट पलटावं, बदलावू पालि पल्ली, चोरोनो वास पाशी, पासउ फांसो पाहुरी प्राहरिक, पहेरेगीर पीतरीउ पितराई पूजनीक पूजनीय Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूठउं पूंठ पूर्व पूवु पूर्विलउं पलांनु पेई पेटी पेखणिया पेख करनारा, नाटकिया पोत अंग, पंड पोतड निधार, खजानो पोतरा पौत्र प्रउहंस १२२ दुःखद लागणीनो आवेग प्रगुण कीधउ तैयार कर्यो प्रमाण प्रभाव प्रवाहि, प्रवाहइ सामान्यपणे, नियमे करी प्रहुणागत परोणागत प्रहुस् १५५ दुःखद लगणीन्गे आवेग आववो प्रार्थिक प्रार्थित प्राहइ प्रायः फलहुलि भोजनमां फळफळादि खाद्य फासू प्रासुक फीट् मटवु, नष्ट थं फुरकू फरकवु बगल (फा.) बगल बाई बासु बहिरखु बेरख बंदी खाण बंदिखानुं बंदीवाण बंदीओ बार दीघां बारणां बंध कर्या बांह (स्त्री.) बाहु बिडालउ बिलाडो बिलाई बिलाडी बीहकण बीकण बीहनउ बन्यो बोलवानां बोलबांह स्नेह-सद्भाव, सहाय भउजाई मोजाई भण् कहे भरूअच, भरूअच्छ, भरूयछ भरूच १९० भथाइत भाथावाळो भलइ भले भावइतिहां फावे त्यां, गमे त्यां भावठि पीडा, संकट भांग प्रकार, भंगी मांभलीइ भांभळु थाय भीनां भोनां थयां, भींडयां भुइहरु भय भेटि भेट भोगली कर्म भोगवा माटे उदयमां आवेलु कर्म मउडइ-सिउ धीमे थी मउडी मोडी मजूद (कर) ( फा ) तैयार कर मत संमति (लिखित), मनुं मनसा वांछा मयणद्दल मीढळ मसवाडउ मास महुतउ, मुंहतउ मंत्री महांत मोटुं मंथाणु रवैयो माई मातृका, वर्णमाला माउलउ मामो माछिलउ, माछिली माछलु, माछली मातउ मत्त, मातो मातुल मातलि (इंद्रनो सारथि ) माम (स्त्री.) शाख, आबरू मालाखाडउ मल्ल - अखाडो मास - दीह मासदिवस, एक मास सुधी माहिल मालु, अंदरनुं मित्राचार मैत्री मुस् लुंटवु मुहियां मुधा, व्यर्थ मूधी भोळी, मुग्धा मूर्छा लालसा, स्पृहा मृगयात्रा मृगया मेघ वरसाद Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ मेल् मेळवद्यु, एकठं करवू वरसालउ चोमासु मेलापक मेळाप वरंडी नीचो कोट, वंडी मेह वरसाद वर्णव् वखाणबु मोकलाव् विदाय लेवी वरांस्' भ्रममां पडवु मोजडा जोडा वरांसइ भूलथी . रइवाडी राजानी सवारी वरांसउ खोटो भरोसो, भूल, भ्रम रति (स्त्रीनी) ऋतु, रजस्रावनो समय वरि भले रतिवंती ऋतुमती, रजस्वला वहियावटि वही रतोरतिई रातोरात वहिरउ वहेरो, फरक राख् रक्षण करवु वहिर् वोरवू राती अनुरक्त वहीआली, वहयाली घोडा खेलववानुं स्थान रात्रि विहाणी वहाणु थयु वंदरवालि वंदनमाला, शोभा माटे लटकावेली रामति रमत माळा रांदु दोरडु, रांढवु वंसियालि वांसनु जालु रोसाव् रीसावु वाय् वगाडवु रीसाणु काप्यो गुस्से थयो वाखर माल रुलियामणउं रळियामणु वाग लगाम रुलियायति (स्त्री.) रळियात, आनंद-उमंग वाछरूया वाछरू रूसु (-ना उपर) गुस्से थर्बु वाटली, वाटुली गोळ लहू प्राप्त कर वाणउत्र वाणोतर लहुडपण बचपण वाणही मोजडी लालरी करचली वाथ् वधवु लालिपालि लल्लोचप्पो, खुशामत वानगी वानगी लाख नाखवू वार (कोधी) सहाय (कर) लुक् संतावू वालंभपण वहाल लूस-लूटवु वासगृह, वासघर शयनगृह लोटाड् सुवा वाहरइ आव्या वार करी, संकटमां सहाय लोटीकगणउं आळोटवु लोहखंड लोखंड विकल्प शंका लोंग लविंग विखवाद विषाद वउल वीतयु विगड घी वगेरे विकारजनक खाद्य वस्तु वड आंटो, वोटो विगूच निंदा कराववी, उतारी पाडवु वड झ झु विचालइ दरमियान वणिगपुत्र वाणोतर विछाहू ढांकQ वधार ओलवयु (दीवो) विछोहिंउ विखूटो पाइयो वधराव् वधाववू विणठं विनास्थु वरणउं वरण वितू ७० क्षुल्लक काम, कनिष्ठ काम Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ विधात्रा विधाता विरतउ विरक्त विरल छूटुं विलखउ भोंठो, झंखवाणो विश्लेष १३२ वांकदेखो संशय विहड् वछूटवू, छूटवु विहरई मिशे, निमित्ते अर्थनइ विहरइ (अर्थने मिशे) वोघर् पीगळवू वीसम् विश्वास करवो वेगउ वहेलो वेच् खरचवू, वापर वेडस वेतस वेडि वगडो वेसास विश्वास व्यतिकर १४७ दगाबाजी, वंचना व्यवहार वेपार शत्रकार सदावत शराप शाप शाटउ (१) ५० डूडु ? शिख्या शिक्षा शीकोत्तरी १३६ शिकोतरी प्रलेष्मा सळेखम सउण शकुन सउण, सुहण स्वप्न सउंचल संचळ सखाइउ सहायक सखायति सहाय सज्झाय स्वाध्याय समर्माकत्व सम्यक्त्व समार् कापवू, सरखु करवु (नख) सयर शरीर सवितुं सौ ससंभ्रांत संभ्रांत, हांफळु फांफलु सही (कर) पाकुं (कर) सहू सौ संघाडउ संघाडो, संघेडो संचकार अवकाश ? संप्रेड ६८, ११७ वळाववू, विदाय आपवी सभेडउ कलह साखोउ साक्षी साजउ साजो साढ सार्ध, दोढ साढो बार साडी बार सात् संताडवू साहू पकडवु साहम्मी साधर्मिक, समान धर्म पाळतुं सांढि सांढणी सांसह खमयु, सहन करवू सिज्यातर साधुने बास-स्थान देनार सोगडउ शंगवाद्य सीझ सिद्ध थवु सींगणीउ धनुर्धर सुरहुं सुगंधी सुसरउ ससरो सुस्त स्वस्थ सुहा- गमवु सूआर रसोयो सूक् सुकावु सूकडि सुखड सूखडी सूखडी सूझ शुद्ध थवु सुधि समाचार सूनाडि निर्जन स्थळ, सून, एकांत सेवा सेवन स्वसुरउ ससरो हटक् हाकवु, धमकाववु हलूआ हलका हाजीविउ 'हा जो हा' करनारो हाथउ थापो हाथ-मेलावणी हस्तमेळाप हारव् हारवु हाल चालवु हासू हसवु, हास्य हीड् (करवा हीरइ १०९) चाहवु (करवा चाहे) हेरू छूपी तपास, मासुसी तपास Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only www.ainelibrary.org