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________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित आविउं । तिवारई संघिई वयरस्वामी वीनव्या, 'स्वामी ! कारिमे कुसुमे पूजानु हर्ष न पहुचइ । तु स्वामि ! तुम्ह सरीखा गुरु, अनइ संघनी इच्छा न पहुचई, तु ए वात साची-घरि रत्नमय दीवा बलई, अनइ अंधारउं पराभवइ । तेह-भणी संघनु हर्ष पूरउ, जिम 'पजसण सरंग हुइ ।' पछइ श्री-वयरस्वामि प्रभावना अंग-फल जाणी आकाशगामिनी-विद्यानइ बलिइं माहेश्वरी-नगरीइ आव्या । वह्निदेवनइ आरामवनि धनगिरिनउ जे छइ मित्र तडितामिध माली, ते-समीपि आव्या । तिणइ मित्रनउ पुत्र देखी भक्तिपूर्वक वांदी कहिवा लागउ, 'काइ काजु हुइ ते कहउ ।' तिवारइ गुरु कहई, 'संघनु काज एक मोटउं छइ, तेह-भणो हूं फूल लेवा आविउ छउं ।' तिवारइ माली कहइ, 'ईणी वाडीइ वीस लाख फूल दिन प्रतिई ऊतरई । जेतलां जोईइ तेतलां लेई पहुचउ ।' तिवारइ गुरे कहिउं, वीस लाख फूल मजद करि, जेतलइ हूं आगलि जई आवउं।' इम कही आपणि क्षुद्र हिमवंति पहुता । तिहां शाश्वतां चैत्य वांदी 'पद्मद्रहि आव्या । तिहां श्री-लक्ष्मी राजहंसि बइठी । बिहुं हाथे कमल । भमरे रुणझुणाट करती, एक कमल हाथि लेई, पद्मदेवनी पूजा-भणी चाली । तेतलइ वयरस्वामि दीठा । लक्ष्मी प्रणाम करी कहइ, 'कमल जोईइ तेतलां तुम्हे लिउ ।' तिहां लक्ष कमल लक्ष्मीई दोधां । पछइ गुरु वह्निदेवनी वाडीइ आवी रत्नहेममय, देवतानी परिई विमान बिकुर्वी वीस लाख फूल माहि मुक्यां । एक लक्ष कमल माहि मूकी आप माहि बइठा । जमक देवतानउ जेतलइ स्मरण कीधउं, तेतलइ देवता आव्या । ते देवताने वृंदे परवरिया अनेक वाजिब वाजते, घांटना सई रणझणाट करते, अनेक ध्वज लहलहते, आकाशि आविवा लागा । तेतलई बौद्धे चीतविउ, ए विमान अम्हारइ देहरइ आवइ छइ ।' तेह-भणी राजादिक लोक सर्व मिली देहरानइ बारणइ ऊभा रह्या जोइ छई । तेतलइ विमान ते देहरउ परिहरी जैन प्रासादि आविउं । माहि श्री-वयरस्वामि अनेक देवताने वृदे परिवर्या विमान-तु ऊतरी, परमेश्वरनइ प्रणाम करी, संघनइ कहइ, 'पजूसण-उपरि फूल तु आव्या छई । तुम्हे आपणी इच्छा पूरवठ।' पछइ श्रावक-संघ आपणी भक्तिई टोडर लेई लेई वीतरागनइ पूजई । एहवी महिमा श्री-जिनशासननी देखी राजादिक सर्व लोक जैनभक्त हुआ । पछह श्री-वयरस्वामि दक्षिण देशि आव्या । तिहां वली बार-वरसी दुकाल ऊपनउ जाणी, महातमा सवें सीदाता देखी, विद्यानइ बलि अन्न आणी करी ऊद्धरिवा लागा । एतल वयरस्वामिनइ लेष्मा ऊपनउ । तिसिई महातमाए सुठि आणी आपी । गुरे प्रासुक देखी केतलीएक लीधी । गांठीउ एक भोजननइ अंति लेवा-भणी कानि मूकी छांडिउ । वार कीधी, पणि गांठीउ वोसरी गयउ । वली सज्झाय करतां संध्याई प्रतिक्रमण-वेलाइ आलोयणउं आलोयतां ते संठि कान-इती पडी । तिवारइं आपणउ प्रमाद जाणी चीतवइ, 'जु मुझनइ एवडउ प्रमाद ऊपनउ, तु रूडा कारण नहीं । तेह-भणी अगसण लीजइ ।' एहवइ श्री-वयरस्वामिई सर्व महातमा तेडी कहिउँ, 'ए जे मंत्रपिंड लीजइ छइ ते तु पाप हुइ छइ. अनइ ए तु बार-वरसी दुकाल । तु ए असार सयरनइ कीधइ कउण संयम विराधई ?' इस विमासी, पछइ वज्रसेन शिष्य तेडो, गच्छनउ भार आपी, कहिउँ, 'जिहां लक्ष धननउ व्यय करी एक हांडो जिहां चडिसिइ, तिहां जाणिज्यो सुगाल होसिइ ।' ए वात कही, वली महात्मानइ कहिउं, चाल उ, कीणइ एकि चही अणसण लीजइ ।' इम कही केतलाएक महातमाए परिवरियां पर्वति चडिवा लागा । तेतलइ १. Pu. P. पजुसरण २. P. L. पद्मदेवीनई द्रहि आव्या । ३. K. पद्मादेवी पूजा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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