________________
शीलोपदेशमाला - बालावबोध
६३
चेes एक बालक देखी बलात्कारि पर्वत-तलइ मूंकी आप पर्वति आरुहिआ । तेतलाइ चेलड चतवइ, 'मइ ऊपरि चडिई रखे गुरुनइ असमाधि ऊपजइ । ' तेह-भणी चेलउ तल रही आरा धना अणसण लेई शिला-परि काउसग्ग कीधउ । जिम 'आगइ घी वीघरइ, तिम तडकs चेलान सयर वीघरिडं । क्षण एक-माहि कर्मनउ क्षय करी स्वर्गतइ भाजन हुउ । तिहां देवताए महिमा कीजइ । ते देखी वयरस्वामि महात्मानइ कहइ, 'जोउ, थोडइ कालि किम आपणपु साधिउं । तु आपणपे आलस कांइ कीजइ ११ पछइ सघले महातमाए समकालि अणसण लीधउं । तेतलइ मिथ्यात्वी देवता एक श्रावकनु रूप करी महात्मानइ मोदक देखाइ, पाणी देखाडइ | पछइ श्री - वयर स्वामि चतवइ, 'ए मिथ्यात्वा देवता महात्माना मन पडावइ । तु अनेथि जई काज साधीइ ।' पछइ श्री बयरस्वामि दस सहश्र महातमाए परवरिया बीजइ पर्वति चडी आपणउं काज साध | तिहां सम्यग्दृष्टी देवतानु अनुग्रह मागिउ । सुखिई अणसण पाली सर्व साधु स्वर्गनइ भाजन हुआ । तेतलइ देवताए ते वात इंद्र- आगलि कही । तु इंद्र आपणपे जृंभक देवताए परिवरिउ आवी रथि बइसी, पर्वत - पाखती त्रिणि प्रदक्षिणा दीधी । तेह-भणी रथावर्त पर्वतनउं नाम हूउं । तिहां अंत्य-क्रिया करी, स्वर्णमय स्तूप करी, श्री वयरस्वामिनी प्रतिमा पूजी, इंद्र आपण ठामि पहुतु ।
।
इसिई वज्रसेन सोपारई बार वरसनइ प्रांति गुरुनी शिख्या हीयइ घरी आविउ । तेतलइ जिनदत्त श्रेष्ठ, ईश्वरी भार्या, तेहना च्यारि पुत्र चंद्र १, उद्देहिक २, नाग ३, विद्याधर ४ - इत्यादि कुटुंबे परवरियां दुकाल जालवई पणि अन्न न लाभई । पछइ एक दिनि लाख द्रव्यनउ व्यय करी हांडी एक चडावी, अनइ विष वाटी ढांकणीइ घाति मूकिउं छइ । तिसिहं कुटुंब तेडी जिणदत्त कहइ, 'कुमरणई मरण होसिहं ते पाहईं आराधना अणसण ऊचरी जउ ए विष लगइ मरीह, तु दुःख न देखीइ ।' इम कही जेतलई अराधना ऊचरावइ, तेतलइ वज्रसेन आवी 'धर्मलाभ' कहिउ । तिसिइ ईश्वरी ऊठी आपणउं धन्य मानती कहा, 'भलउं हूउं जे भाग्य लगइ तुम्हे इहां आया। संविभाग करावउ । अजी विष तु नथी घातिउं । ए तेतलई गुरुवचन स्मरी वज्रसेन कहइ, 'तुम्हे म मरउ । प्रभाति लई मरण-हूंता निवर्त्या तेतलइ प्रभातिइ धानना वाहण आव्यां सुगाल हूउ । तिवारणं श्रेष्ठिने चिहुं बेटे दीक्षा लोधी । व्यारह समग्र विद्या भण्यो । चिहुंनइ आचार्यपद दीघां । तिहां च्यारि गच्छनी स्थापना कीधी ।
1
तु हवा श्री - वयरस्वामि छ मास घरि रही, आठमइ वरसि वाचनाचार्य पदवी लही, ४४ वरस व्रतार्याय पाली, ३६ वर्ष आचार्यपद पाली, जिनशासन महांत प्रभावना करी, धननी कोडिइ जे लोभि न गया ।
श्री-वयर स्वामिचरित्र समाप्त ॥ २० ॥
#
Jain Education International
खीर लेई अम्हनइ तारउ ।' सुगाल होसिई' । इम जेत
हिवs शीलवंत पुरुष मान्य हुइ, पणि जे स्त्री शीलवती हुइ, ते पणि पूजनीक हुइ-इसिउं दृष्टांतपूर्वक कहइ छइ -
पालति निय-सीलं ठावंति सुद्ध धम्म - मग्गमि ।
रहनेमि मुणि पि जए सा पुज्जा रायमइ अज्जा ॥४३
१. K. अग्निहं घी वीघराइ २. Pu. इंद्र ३ उद्देहिक ४ नागेन्द्र ५ विद्याधर ४ । A. इंद्र १ चंद्र २ नाग ३ |
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org