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मेरुन्दरगणि-बिरचित
व्याख्या :- निज
आपणइ डीलिई सूधउं शील पालती, अनइ रहनेमिनह उन्मार्ग पडतो धर्म विषs स्थापती हूंती एहवी राजीमती महासती जगत्रय-माहि पूजिवा = वांदिवानंद योग्य हुई । श्री नेमी दीक्षा लेतां श्री नेमिनउ लघु बांधव रथनेमी प्रार्थना करतउ राजीमती प्रतिबोधिउ । इम शोलनइ प्रधानपणइ राजीमती पूज्य हुई। कथा तु आगइ कही छइ ।
हिवर जे ऋषीश्वर शील पालई ते धन्य । वली जे गृहस्थ हूंता शील पालई ते गाढेरा धन्य । ते कहर -
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ते धन्ना गिहिणो वि हु महरिसि - मज्झम्मि जे उदाहरणं । निरुवम सील-वय-रया पावति पसिद्ध-माहप्पं ॥४४
व्याख्या : - खलु = निश्चई ते गृही धन्य, जे गृहस्थावासि वसता हूंता - सुदर्शन श्रेष्टि प्रमुख - निरुपम शील पालिवानइ विचारि ब्रह्मव्रतनी परीक्षा करतां, महर्षि गरुआ श्री-स्थूलभद्रादि मुनि-माहिं दृष्टांत जगत्रय - माहि हुआ । शीलनइ महातम्यइ करी महर्षि समान हुआ । ते गृहस्थ किस्या छ ? प्रसिद्ध = समस्त लोक विरूपात महातम्य जेहनउं छह, एहवा ते गृहस्थइ धन्य = वंदनीय हुई | हिवइ ते शीलवंत गृहस्थनां नाम पूर्वक देखाडीइ छइ
सील - प्रभाव - पभाविय, सुदंसणं तं सुदंसणं सेट्ठि ।
कविला - निवदेवीहिं अखोहिअं नमह निच्चपि ॥ ४५
व्याख्या:- आपणा सुद्ध शीलनइ प्रभाविई = महातम्यई करी, दीपाविउँ = उद्योतवंत कीधउं, सुष्ठु = प्रधान दर्शन = सम्यक्त्व अथवा जिनशासन जाण्यउ छइ जेणइ । एहवउ जे श्रेष्टि सुदर्शन श्रावक = गृहस्थ- धर्मिदं वर्तमान, मुनीश्वरनी परिई कपिलनी भार्या कपिला ब्राह्मणी अनइ राजानी पट्टराणी अभयादेवी ए बिहुए हावभाव-लोभ- भयादिक अनेक प्रकारि अब्रह्मसेवना भणी क्षोभवी इ हूंतउ पणि क्षोभि न गयउ, शील हूंतर चूकउ नही । मरण आंगमिउं, पणि शील भांजिउ नही । एहवा सुदर्शन श्रेष्ठिनइ नमस्करउ = सदा प्रणाम करउ । एहवां वांदिवा योग्य हुई । इति गाथार्थः । विस्तरार्थ कथा हूंत जाणिवउ ।
हिवs ते सुदर्शन श्रेष्ठिनी कथा कहीइ
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[ २१ सुदर्शन श्रेष्ठिनी कथा ]
अंगदेशि चंपानगरीइ दधिवाहन राजा अभय प्राणवल्लभा सहित सुखिई दिवस नीगमइ । हिवइ तिणि नगरीइ ऋषभदत्त श्रेष्टि वसइ । तेहनी प्रिया अर्हदासी जाणवी । तेहनइ सुभग नामा भइसिन पालनहार सदाइ गाई - भइंसि वेडि- माहि जई चारs, पाइ । इम एकदा सांझइ पाछउ वलिउ घर-भणी । तिसिहं प्रतिमाइ रहिउ महात्मा एक वस्त्ररहित शीत परोषह सहत दीठउ । ते सुभग घरि आविउ । पणि ते महात्मानु कष्ट चींतवतां रात्रि मोटइ कष्टि गमाडी । प्रभाति सवारइ ऊठी, गाइ-भई सिनइ आगलि करी, जु महात्मा - कन्हलि आवइ, तु अजी ते महातमा काउसगिंग जि दीठउ | आहार करिवा लागउ
तलई सूर्य उग | 'नमो अरिहंताणं' कहतउ ते चारणऋषि काउसग्ग पारी आकाशी ऊडिउ । पछइ सुभग चीतवह, 'नमो अरिहंताणं' ए आकाशगामिनी विद्या घटइ । पछ रात्रि नई दिवस मन हूंतउ ए पद न मूं कह । तिसि इ श्रेष्ठिई पूछिउ, 'आजकाल तूं सिउ as छ ?' तीणइ कहिउं, 'आकाशगामिनी विद्या जपउ छउं ? हि' 'तु मुझनइ कहई ( १ हि ) । ' तिबारह 'नमो अरिहंताणं' ए पद कहिउं । तिसिई श्रेष्ठि कहर, 'बापडा ! एह लगइ अनेक
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