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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
छाना चर मूक्या । एहवइ कुमार चीतवइ, 'आज प्रियानउ ऊघाड होसिइ, तु हूं किम करउं ? एकणि दिसि बापनउ आदेश प्रमाण कीधउ जोईइ, अनइ बोजउं तु प्रियानइ दुःख ऊपनउं । तु हूँ महा-संकट-माहि पडिउ ।'
इसिइ सुलसाइ अवस्वापिनी विद्यानइ बलिई, पूर्विली रीतिइं. पुरुष हणी तिम जि ऋषिदत्तानइ कीघउं । ते स्वरूप प्रभाति राजाने चरे ऋषिदत्ता-समीपि आवी जोयउं । अनइ तिम जि राजानइ पणि आवी कहिउं । तेतलई राजा पुत्र-ऊपरि रीसाणउ निर्भसिवा लागउ, 'अरे पुत्र ! स्त्रीना आचार जाणतउइ घरि राखइ । तु रे पापी ! अरे दुराचार ! मुझआगलि अलगउ जा । जे राखसी, ते तई घरि राखा. माहरइ कुलि तई कलंक चडा विउं ।' एहवद कुमार राजानइ पगे लागी कहइ, 'कोप म करउ । ए कोई दुष्ट तेहनउँ काम ।' तेतला राजा कोपाटोपि चडिउ । कहिवा लागउ, 'अरे पुत्र ! जु न पतीजइ तु जईनइ जोइ ।' पछइ कुमार राजानउ आदेस पामी विच्छाय-वदन इंतु प्रिया-समीपि आवी कहिवा लागउ, 'हे प्रिये । ए ताहरां प्राचीन कर्म उदयि आव्यां । हिव हूं सिउं करउं? तुझनइ राखसीन कलंक सुलसा-योगिनीइ चडाविउ । ते आज राजाने चरे तू तेहवी मुखि रुधिर-खरडी दीठी । तु हिव न जाणोइ ताहरउं कर्म तुझनइ किम रोलविसिई ।'
इसिइं राजाई तलारना कहिउं, जाउ, ऋषिदत्ता घर-माहि-हूंती जटीए झाली, खांची, वाहरि काढउ । अनइ नगर-माहि फेरवी, प्रेतवन-माहि लेई, ए राखसीनइ हपिज्यो ।' एहवउ राजानउ आदेस लही सर्व तलार ऋषिदत्ता-समीपि आवी, जटीए झाली, घर-बाहरि काढी। तेतलइ कुमार गल पासउ घातिवा लागउ । तिवारइं राजाई बलात्कार कुमार मरण-इतु राखिउ । पछा कुमार आंखिइ आंसू पाडतु विलाप करिवा लागउ । तेतलइ तलारे ऋषिदत्तानइ कानि सूपडां बांध्यां, वली बीलना फल माथइ घात्यां, रासभ आणिउ, माथइ भद्र कराविउं, लींबनां पान नहठीकिरानी माल गलइ घाती, मसि मुखि लगाडी, डील चीतराविउं । पछइ रासभि बइसारी, आगलि डुडि वाजतई, काहली सीगडां वाजते, ते सतो नगर-माहि फेरवी, हाहाकार लोकने कीबते, नयर-वाहरि जेतलइ काढी, तेतलइ मूर्छा आवी, अचेत थई, भूमिइं पडी । तिवारई तलारे जाणिउ-'बिन्हा वाना इयां-अम्नई स्त्री-हत्या न लागी, अनइ राजानउ आदेस पणि प्रमाणि चडिउ ।' पछह तलार पाछा वली घरि आव्या । तेतलइ केडिइ ताढउ वायु बायउ, सचेत हुई । चउ-पखेर सामुहउ जोइ, तु निवरं देखइ । पछई रोवा लागी, दैवनइ उलभा देती, हा तात! हे मात ! हा प्राणनाथ।' इम कहती, मउडइ मउडइ चालती, वनभणी नीकली । मन-माहि चीतवइ जु, 'कर्म-आगलि कोई न छूटई । कोधां कर्म भोगवीई, तउ छटी । तेह-भणी हिवदां ए कलंक तुझनई चडिउं, तु रे जीव ! सहि । अनइ भरि पणि महा संकट-माहि पडिउ । तेह्नउ कउण हाल होसिइ ?' इम विलाप करती पादचारिणी पिताना आश्रम-भणी चाली । पगे डाभसी खूचई, लोहो वहइ । इम पगे चालती जिहां पिता आगि-माहि पइठउ हूंतउ, ते चिहि-दूकडी आवी, रोती हूंती कहिवा लागी, हे बाप ! एक वार तूं मुझनइ दशन दिइ । आगइ हूं ए तापस-वन-माहि रहिती । हिवइ वली एह जि तपोवन शरण । तु हिव ए वन-माहि शील मई किम पालीसिइ ?' इम विमासतां चीति आविउं जु, 'मुझनइ बापि ऊषधो देखाडी हूंती, जेहनइ प्रमाणि स्त्री पुरुष प थाइ । पछइ ते ऊषधी लेई कानि बांधी। तत्काल ते पुरूष-रूपि हुई । वन-माहि कंद-मूल-फल खाती रहइ। श्रीआदिनाथनी पूजा करइ । तापसउ वेष धरती, ऋषिदत्त नाम धरती, सुखई रहइ छइ ।
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