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शीलोपदेशमाला-बालावबोध
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हिवह पाछलि कुमार प्रियानउ विरह, तिणि करी आकुल उ शून्यचित्त -थकउ रहइ छइ । एहव सुलसा कृतकृत्य इंतो रुक्मिणी-समीपि जई सर्व वात कही, रुक्मिणीनइ हर्ष ऊपजाविउ । पछइ चंडिकानइ पूजा-मणो छाग एक हणि उ । तिसिइ काबेरीपतिइ रथमर्दन-नगरि हेमरथ राजा-भणी दूत एक मोकलिउ । पछइ दूत तिहां आवी राजानइ कहइ, 'कउग कारण जे पुत्र तुम्हारउ पाणिग्रहण-भणी नाविउ ? हिव आपगउ पुत्र रुक्मिणी कन्याना पाणिग्रहण-भणीचलावउ । सगाई कीधी जि हूइ ।' ए वचन सांभली राजाइ दूत बहु मानी, एकांति पुत्र-समोपि आवी इसिउं कहइ, 'वत्स ! आज काल तू विच्छाय-बदन काई दीसइ ? सूना घरनो परिई ऊमणदूमणउ कांई ? तु तू वच्छ ! पूर्व-दुःकम-लगइ जि कांई कष्ट पडि3 हुइ, ते फेडि । धीर पुरुष वली सर्व कर्मनई विषइ उद्यम करइ । तु हिवई तू माहरइ वचन काबेरीपतिनी पुत्रीन पाणिग्रहण करी माहरु मन संतोषि ।' पछइ कुमार पितानी आज्ञा अणलोपतउ सैन्य-सहित वली पाणिग्रहण-भणी चालिउ । हिवइ मार्ग उलंघतउ, ऋषिदत्तानउ ध्यान धरतउ ते पूर्व-परिचित तपोवन पामिउं । ते देखी मित्रनइ कहइएते तपोवन, ए ते देहरउ, ए ते सरोवर, ए ते वृक्ष, जिहां मई स्नेहपूर्वक ऋषिदत्ता परिणी । तु जोइ-न, ते ऋषिदत्ता-विण आज मुझनइ सर्व दुःखरूप प्रतिभासइ छइ । तु अरे दैव ! तई ए सिउं कोधउं ?' इम असमाधि करतउ श्री
देनाथनइ प्रासादि आविउ । तेतलई जिमणउ लोचन फराकवा लागउ । तिसिइ कुमार मनि चीतवइ,'जे असमाधि कर, ते फोक, कांइ प्रिया भावइ तिहां जीवइ छइ । अथवा ए देहर आगइ रुलियामणउं छइ ।' इम चीतवतउ जेतलइ देवकुल-माहि चउ-पखेर जोइ छइ, एहवइ ते ऋषिदत्त तापस फलफूल लेई कुमारनइ आप्यां । कुमार पणे प्रियाना स्नेह-लगी महा आनंद धरिवा लागउ । तेतलइ ऋषिदत्त मुनि मन-माहि चीतवइ,' ए कुमारना आकार ते दीसइ, जे रुक्मिणीना पाणिग्रहण-भणी चालिउ । तु हूं आपणपउं प्रगट करउं । पणि हिवडा प्रस्ताव नही । पछइ कुमार देव पूजीनइ ऋषिदत्त तापसनइ साथि लेई, कटक-माहि आणी वस्त्र, असन, पान, खादिम-स्वादिमे करी घणी भक्ति कीधी । पछइ पूछिवा लागउ, 'केतला दिवस-लगा तम्हे ईणइ आश्रमि रहउ छउ ? ते तुम्हे आपणउ वृत्तांत कहउ ।'
तिवारइ मुनि कहइ, 'आगइ ईणइ आश्रमि हरिषेण मुनि हूंतउ । तेहनी पुत्री ऋषिदत्ता कन्या । तेहनं पाणिग्रहण कोई राजपुत्र इहां आवी करी गयउ । एहवइ ऋषि जमाई-पत्रीनई पछी आगि-माहि पइसी प्राण छांड्या । अनई हूं पृथ्वी भमी भमी इहां आविउ। मुझनइ इहां रहितां वरस पांच हआ। अहो कुमार ! ताहरइ दश नि ते वरस आज सफल हुआं ।' कुमार कहइ, 'अहो मुनि ! सानन्दपणइ तुझनइ देखी दृष्टि तृप्ति नहीं पामती, जिम थल घटइ पाणीह तृप्ति न पामइ ।' पछइ ऋषि कहइ, 'मुझनइ पणि तुझ देखी हर्ष ऊपजइ छइ ।' कुमार कहइ, 'अहो मुनि ! ताहरइ स्नेहि माहरउ चित्त बांधिउ छइ, पणि मुझनइ आगलि जावउ छइ । एह-भणी तू मुझ साथि आवि । अनइ वलतां तूं ईणइ आश्रमि रहे ।' तिवारई मुनि कहा, 'अहो कुमार ! मुझनइ आग्रह न करिवउ ! जिणि कारणि राजानु संसर्ग ऋषिनइ दुषणप्राय छ ।' इणि ववनि कुमारि गाढेरउ आग्रह करी ऋषिदत्त-मुनि संघाति चलाविउ । पछइ कुमार नई ऋषिदत्त चालतां, मार्गि अनेक गोष्ठ करतां, नवनवा विनोद जोतां, थानकि थानकि रहितां. नव-नवा श्लोक सुभाषित बोलतां, काबेरोनगरीइं आव्या । एहवइ वधामणीइ जई काबेरीपति वधाविउ, कहिलं, 'स्वामिन् ! हेमरथराजानउ पुत्र कनकरथ आविउ ।' ति सई राजाई तेह-नई
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