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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
पइसारउ कराविउ । नगर-माहि अनेक तलियां तोरण, वंदरवाल बंधावी । पछ्इ भलइ लग्नि कुमारि रुक्मिणीनउ पाणिग्रहण कीधउं । कुमार केतलाएक दिवस तिहां रहिउ ।
अन्यथा वेसास ऊपनइ रुक्मिणीइ कुमार पूछिउँ, 'हे स्वामिन् ! जे ऋषिदत्ता पहिली परिणी हुंती ते केहवी हुता, जेणीइ अहल्यानी परिहं ताहरउं चित्त रंजिविउ हुतउ ?' इम कहिइ हुँतइ कुमार आंखिइ आंसू पाडतउ गद्गद् -स्वरिइ कहिवा लागउ, 'जेतली विश्व-माहि स्त्री छई, तेतली हूँ तेहनी पग धूलि समान गणू । तेहनइ विरहइ तां मइ ताहरउ पाणिग्रहण की उं । जिम मानसरोवरनउं नीर आस्वादी मनुष्य मरुमं डलन क्षार-जल किम आस्वादइ ? तिम ताहरउ सबंध जाणिवउ ।' ए वात सांभली रुक्मिणी रीसाणी हूंती पूर्विली आपणी सर्व वात कहवा लागी, 'ए तां मइ जि ऋषिदत्ता ताहरा मन-हूंती ऊतारी । सुलसा योगिनी मोकलीन इ म कलंक चडावाविउ ।' इत्यादि वचन सांभली ऋषिदत्तमुनि मन-माहि चतवइ, 'तां भरतारना मन हूंत माहरउ कलंक ऊतरिउं । इम कुमार पणि ते रुक्मणिनां वचन सांभली रोषारुणलोचन हूंतउ ते रुक्मिणोनई तर्जिवा लागउ । जिम दहींनइ भांडि शुनीनइ बोटिई शुनी हाकी काढीई, तिम ते काढी । 'अरे पापिणो ! तई ता हूं केवडा संकट-माहि घातिउ ? तु हिव हूं आपणा जीवनई कांई हित करउं, जिणि कारणि मईं लोकद्वय विरुद्ध नरकनई हेतु आचरण आचरिउ ।' इम कही नगरनइ परसरि कुमारि चिहि करावी । आणि काष्ट-भक्षण करवा लागउ ।
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एव काबेरीपति तिहां आवी कुमारनइ हाथि झाली निवारिवा लागउ । समस्त लोक पणि अश्रुपात करता वारिवा लागा । तु ही कुमार रह नही । इसिइ ऋषिदत्त-मुनि तिहां आवी कुमारनइ कहइ, 'अहो कुमार ! स्त्रो नइ कीधइ एवडउँ सिउं मांडिउ ? अनइ मूआ इ पछी को कहिनइ न मिलइ । एह-भणी जीवतां अजी किहां-इ-थकी तुझनइ वल्लभा मिलिसइ ।' तिवारइं कुमार कहइ, 'अहों ऋषि ! तई तां बालकनी परिइं हूं भोलविवा मांडिउ । हिवइ एक वार मुझनइ मरिवा दइ, जिम विरहनउं दुःख भाजइ ।' ऋषे कहइ, 'ताहरइ सत्विई सही ताहरी भार्या जीवइ छइ ।' 可 वात सांभली कुमार कहइ, 'तरं प्रिया किहां दीठी, किहां सांभली ?' तिवारइ मुनि कहइ, 'हूं' ज्ञानि करी जाणउं छउ, जु ताहरी वल्लभा सुखिईं जोवइ छ ।' [ कुमार कहइ ] 'तु ऋषि ! कहिन किम ही ते प्रिया आवइ ?' वलतु ऋषि कहइ, 'मुझनइ जु मोकलइ, तु सही अणउं ।' तिवारइ कुमार कहइ, 'तु सम करि, जिम मुझनइ प्रतीत (१ति ) ऊपजइ । ' वली ऋषि कहइ, 'जु हूं' आणउं, तु मुझनइ सिउं आपइ ?' कुमार कहइ, 'हू ं आपणउं आत्मा आपउं ।' तिवारई मुनि हसोनइ कहइ, 'तू' आपणउ आत्मा आपणकन्हलि राखि, पणि प्रस्तावि काई मागउं, तेहनी ना म कहेसि ।' ते वचन कुमारि पडिवजिउं । पछइ ते तापस-मुनि परीयछि माहि पइठउ । लोक घणा कउतिगीयाल मिल्या छई नगरीना । इसिई आकाशवाणी हूई जु, 'सतोना सत्व, तप, ध्यान पृथ्वी- माहि जयवंता छ ।' इसिउ कहतां हाथि फूलनी माल धरता देवता आकासि आव्या । तिसिइ जिम करसणी मेघ-सामुहउं जोइ, तिम सहू ऋषदत्तानी वाट जोवा लागा | लोकनई सर्व काम वीसरी गयां । एहवइ कुमार ऋषिदत्ता दीठी । पणि ते केहवी छई ? जिम अग्नि हूंतउ नीकलिउ सोनउं दीपइ, तिम ते दीप्तिमंत, उपपात शय्यनी परिई सुरांगना सरीखी प्रकट हुई । प्रसन्नमुख ऋषिदत्ता जिवारई आवी, तिवारइ सर्व देव, दानव, मानव पतिव्रत'नई 'जय जय', 'जय जय' शब्द ऊचरतां आकाशि
१. P. विना : घण पाणीइ । २. K. लेखवउं छउं । ३. P भोलिवड Pu. भोलविवउ ।
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