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________________ शीलोपदेशमाला - बालावबोध १०३ कुसुमनी वृष्टि करवा लागा । तिवारइ ऋषिदत्ता आपणइ रूपि करी रुक्मिणीनइ दासी-समान करती ऊभी रही, देखी लोक सर्व कुमारनइ प्रसंसइ । कावेरीपति पणि जमाईनइ जीवितव्य देखी हर्षित | जिम चंद्रमा देखी समुद्र उल्लास पामइ, तिम तीणइ पामिउ । पछइ काबेरोपति कुमारनइ ऋषिदत्ता गजेंद्र बइसारी, महा ऋद्धिनइ विस्तारि आपणइ घरि आणी, गौरवपणइ स्नानादिक कराविडं | पछइ योगिनी अणावी कान- नाशिका छेदी, घणी विडंबना देखाडी, देसहूंती बाहर काढी । पछइ काबेरीपति आपणी बेटी गाढी निर्भछी, कुमार केतलाएक दिवस तिहां राखिउ । अन्यदा कुमार ऋषिदत्ता - नइ कहइ, 'हे प्रिये ! तुझ-केडिई ताहरी सुद्धि-भणी मद्द ऋषि एक मोकलिउ हूंतु, ते अजी नावइ । तेहनी असमाधि मुझन गाढी छइ ।' तिवारऋषिदत्ता हसीनइ कहइ, 'स्वामी ! ए 'विषाद म करि । ऊषधीना योग-लगइ ए सर्व मई जि की उं । पणि हिवर माहरउ वर आपि, तई जे बोलिउ हूंतउ ।' कुमार कहा, 'मागि ।' ऋषिदत्ता कहर, 'जिम मुझनइ लेखाइ, तिम जि रुक्मिणीनई गणि ।' कुमार कहइ, 'जोउ एहनउ विवेक, एहनी दया जोउ ।' इम कही ते वात कुमारिइ मानी । तेतलई ऋषिदत्ता रुक्मिणी अणावी । भरतारनइ पगे लगाडी । पछइ कुमार सुसरानइ मोकलावी, बिहुं स्त्रीए परिवरिउ, सैन्य सहित आपणइ नगरि आविउ । पिताइ महा-विस्तारि प्रवेशोत्सव कीधउ । पछइ राजाई ए स्वरूप जाणी ऋषिदत्तानइ आपणउ अपराध खमावीनइ कहइ, 'ए ऋषिदत्ता सती-सिरोमणि । इम कही मानिवा लागउ । हिव अन्यदा कनकरथ पुत्रनई राज देई राजा आपणपे श्री भद्राचार्य-समीपि चारित्र लेई, सुद्ध संयम पाली, मोक्षि पहुतउ । हिव कनकरथ आपणउँ राज पालइ छइ । इसिइ ऋषिदत्ताई सिंहरथ पुत्र जन्मिउ । तिहां महा महोत्सब हूउ । एकदा राजा ऋषिदत्ता सहित गउखि बइठउ छइ, एहवइ आकाशि पंचवर्ण आभां हूयां, अनइ देखतां जि विलइ गयां । तिवारई राजाइ ए असार संसारनू स्वरूप देखी मनि वैराग्य धरतां जि रात्रि गई । तिसिहं प्रभाति श्री भद्रयशसूरिनउ आगमन सांभली सपरिवार राजा वांदिवा गयउ । तिहां गुरे धर्मोपदेश दीघउ | गुरुनी देखना सांभली पछइ ऋषिदत्ता गुरुनइ पूछइ, 'स्वामिन्! मई भवांतर कउण पाप की उं जे मुझनइ राक्षसीनउं कलंक चडिउं ?' तिवारई गुरु ज्ञानि करी कहर, ' वत्सि ! पूर्व-भव सांभलि । गंगापुर नगर । तिहां गंगदत्त राजा, गंगा एहवइ नामि प्रिया, गंगसेना पुत्री । पणि अति हि सुशीलि । एकदा गंगसेना- नइ चंद्रयशा महासती साथिहं धर्मनी गोष्टि हुई । तिवारइ गंगसेना विषय तृण समान गणिवा लागी ।" हिवइ ते गुरु कहइ, 'ते महासती - कन्हलि काई एक तपस्विनी तप तपइ छइ । ते-साथि ताहरइ मत्सर हूउ | तूं तेहनी प्रसंसा सही न सकइ । पछइ तई तेहनइ एहवउ कलंक दीघउं जु, "ए दीह तप तपइ अनइ रात्रि मसाणि जई मृतकनां मांस खाइ ।” तिसिहं तुझनइ महासतीए कहिउं, "बापडी ! एवडउ कर्मबंध कांई करइ ? सामुहउं कर्म ऊपार्जइ छइ ।” हिवइ ए पाप तई अणआलोई अणपडिकमिदं मरी, घणउ काल संसार-माहि भमी, ईणइ जि गंगापुरि राजानी पुत्री हुई । पछइ प्रस्तावि जिन दीक्षा लेई, तप तपी, अणसणपूर्वक मरी, ईशानेन्द्रनी प्रिया हुई । तिहां-ती चिवी तूं हरिषेण राजानो पुत्री हुई । पणि भवांतरनां कर्म-लगइ तुझनइ १. K. L. Pu. विखवाद । २. P. Pu. देखह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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