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शीलोपदेशमाला-बालावबोध
एक छइ । तिहां तृषांक्रांत पाणी पीवा-भणी आवी । इसिइ पाणीहारि जाणइं जउ, 'ए मलदेवता छइ ।' पछइ जेतलइ वावि-माहि पइठी, तेतलई दवदंतीनउ पग जलगोधाई ग्रसिउ । तिवारई जि त्रिणि नवकार कहिया । तेहनई प्रमाणि पग मूकाण उ । पछइ दवदंती पाणी पीई वाविनी वरंडीइ आवी बइठी ।
राज्य करइ छइ । अनइ चंद्रयशा भार्या । नेहनी दासी एक वाविइ पाणी भरिवा आवी । तिणि ते सती दीठी । तिणि दासीइ जई चंद्रयशा राणीनइ कहिउं । तिवारई वलतुं चंद्रयशा कहइ, 'जा, ते स्त्री इहां आणि । जिम माहरी पुत्री चंद्रवती, तेहनइ बहिन हुसइ ।' इम कही दासी-पाहिइं तेडावी, पुत्री करी मानी । पणि सगपण कुणहइ न जाणिउं । इम एकदा चद्रयशा कहइ, 'जेहवी दवदंती, तेहवी ए संभावीइ छइ । पणि ते नलनी पत्नी, इहां इम किम आवह ?' वली ते स्त्री पूछी। तुड़ी दवदंतीइ आपणउ वृत्तांत न कहिउ । पछइ चंद्रयशाइ पुत्री करी मानी । तिहां शत्रुकारि दान दिइ छइ ।
इसिइ पिंगल चोर मारिवा काढिउ। तिसिइ तिणि दवदंतीइ ते चोर मूंकाविउ । पछइ तिणि चोरि दवदंती माता करी मानी । तिवारइ दवदंतीइ चोर पूछि उ, 'तूं कउण ?' तिसिई चोर कहइ 'हूं वसंत-सार्थवाहनउ दास पिंगल । कर्मनउ प्रेरिउ हूंतउ इहां आवी चंद्रवतीनी रत्ननी करंडी चोरी । तेतलई हूं तलारि झालिउ । पछइ राजाइ वध-भूमिकानउ आदेस दीधउ । अनइ तई ईणी वेलाई जीवदान दीधउं। वली चोर कहइ, 'माता ! जिवारइ तूं तापसपुर-हूंती गई, तिवारइ सार्थवाहि भोजन मुकिउ । एहवइ यशोभद्रसूरि आव्या । तीणे गुरे सातमइ दिहाडइ वसंतसार्थवाहनइ पारण कराविउ । पणि रोतउ, असमाधि करत उ रहइ नही । पछइ ते वसंत सार्थवाह, अन्यदा, घणी भेटि लेई, कूबर-राजानई मिली, संतोष ऊपजावी, ते तापसपुरनउ राजा हुउ । तिहां कूबरि छत्र-चामर देई, ते सामंत करी मूकिउ । अनइ वसंतश्रीसेखर एहवउ नाम दीधउं । वली कूवरि अनेक वाजित्र दोधां । पछइ वसंतश्रीसेखर गाजतइ वाजता आपणइ नगरि आविउ । सुखिइ राज पालइ ।' हिव दवदंती कहइ चोरनइ, 'तू दीक्षा लेइ, संसार-हंतउ निस्तरि ।' तिवारइ पिंगलि तेहनउं वचन मानी दीक्षा लीधी ।
एहवइ प्रस्तावि भीमि राजाई वात सांमली जु, 'नलि राज हारिउं अनइ कुबरिइ नल बाहरि काढिउ। पछइ दवदंतीनइ लेई अटवी-माहि पइठउ। आगलि ते न जाणीइ जीवइ छई कि मूआं ।' तिवारइ पुष्पदंती माता पणि रोवा लागी। पछई भीमराजाइ हरिमित्र नल-दवदंतीनी सुद्धि लेवा-भणी देस-माहि चलाविउ। हिव ते गाम, नगर, वन जोतउ जोतउ अचलपुरि आविउ । तिहां आवी राजा-कन्हलि नल-दवदंतीनी वात पूछो। तिवारइ चंद्रयशा बइठी हूंनी। तिणि वात सांभली नल-दमयंतीनउँ स्वरूप पूछिउ । तिवारइ हरिमित्र सर्व वात कही । तिहां सर्व असमाधि करिवा लागउ। एहवइ सह असमाधि करतां देखी ते हरिमित्र भूखिउ हूत उ, दानशालाइ जिहां शत्रूकार मंडाणउ छइ, तिहां जु आवइ, तु आगलि भीमराजानी पुत्री दीठी । ऊलखी। पछइ दमयंतीने पगे लागउ। भूख-तिरस सर्व विसरी गई। पछइ पूछइ, 'माता ! तुम्हनइ ए कउण अवस्था ?' इम कही तिहां-थकउ ऊठी चंद्रयशादेवीनइ वधामणी दीधी। कहिउं 'ताहरी दानशालाई दवदंती छ ।' तेतलई चंद्रयशा तत्काल तिहां आवी कहिवा लागी, 'मइ एतलउ काल तू उलखी न सकी, पणि तई आप गर कांई न जणाविउं ? किवारई जु भावठि आवइ, तुही मातृकुलि लाज न कीजइ ।' अथवा वली कहइ 'तई नल मूकिउ कि नलइ तूं मूकी ?'
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