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मेरुसुंदरगणि-विरचित मुझनइ नीम।' पछइ पर्वतनी गुफा-माहि श्री-शांतिनाथनी माटीनी प्रतिमा करी, एकइ खूणइ मांडी । तिहाँ बनना कुसुम आणी सदा इ पूजइ । बिहु उपवासि पारणउं करइ, अनइ पारणइ फलाहार लिइ । नवकार गुणई । एकली रहइ छइ ।
एहवह ते सार्थवाह दवदंतीनइ अणदेखतउ, असमाधि करतउ, पगई पगि केडिई आविउ । तिहां गुफा-माहि देव-पूजा करती दवदंती देखी सार्थवाह पूछइ, 'ए कउण प्रतिमा ?' दवदंती कहइ, 'ए श्री शांतिनाथनी प्रतिमा।' इम आलाप-संलाप सांभली इकडा तापस छई ते आव्या । पछइ दवदंतीइ तेहवउ कांई उपदेस मांडिउ, जिम वसंत सार्थवाह श्रावक हउ । पछइ सर्व संघात तिहां आणी राखिउ । इसिइ तापसनइ आश्रमि महा-मेघवृष्टि होइवा लागी। तिणि करी तापस आकुला हूंता दवदंती-कन्हलि आव्या । तिवारई दवदंतीई मेघनई कहिउ, 'जु मई जिनधर्म सूधउ पालिठ छइ, तु मेघ म वरिसिजो ।' इणि वचनि मेघ थंभाणउ । पछह तापस धनकनक आणी दिइ पणि सती न लिइ। तिहां तापसि जिनधर्म पडिवजिउ । पछह वसंत सार्थवाहि तिहां महानगर वसाविउं । वली श्रो-शांतिनाथनउ प्रासाद कराविउ । सती दवदंतीइ पांच सई तापस प्रतिबोध्या। तेह-भणी तापसपुर ए नाम हउ।
हिव अन्यदा यशोभद्रसूरि आचार्य तिहां आव्या । ते-कन्हलि विमलमति-कुलपतिइ दीक्षा लीघी । इसिइ पर्वत-ऊगरि उद्योत दीठउ । तिहां एक देवता आवइ, एक जाइ । इम जयजयारख देखी तापस. सार्थवाहना लोक. सर्व जाग्या । पछइ दवदंती तापस-वणिग-सहित पर्वति चडी। तिहाँ जु जोइ, तु सिंह केसर मुनिनइ केवल ज्ञान ऊपनउं छइ । एह-भणी देवता केवल-महिमा करइ छई । पछइ सपरिवार दवदं तीइ ते केवली वांदिउ । एहवइ यशोभद्र केवलीनु गुरु तिहां आविउ । ते पणि केवलीनइ वांदी आगलि बइठउ । तिसिइ सिंह केसरि-केवली धर्मोपदेश देवा लागउ । तिवारइं तापसे पूछिउं, 'स्वामी ! दवदंतीइ जे मेह राखिउ, ते किम ?' मुनि कहइ, 'ए शीलनउं प्रमाण । अनइ जे संघात चोर-हंतु राखिउ, ते ही शीलन प्रमाण ।' इम कहितां जि ते केवली मोक्षि पहुतउ। पछई यशोभद्रसूरे कन्हलि दवदंतीइ आपणां भवांतर पूछिउ । तिवारइ गरे सर्व कहिउं । तिहां तापसे दीक्षा लीधी। पछइ सार्थपतिई प्रासादनी प्रतिष्टा करावी। इम दवदंतोइ सात-वरस-ताई प्रभावना-पूजा कीधी ।
हिव अनेरइ दिवसि कोई गुफानइ बारणइ आवी कहइ, 'हे दवदंति ! मइ तउ टूकडउ
ल दीठउ. पणि माहरइ साथ जाइ छइ । तेह -भणी हं नही पडखउं ।' ए वात सांभली वती हर्षित हती शब्द-केडिइं जिनीकली । आगलि जु घणी भुंई गई. तु मनुष्यनइ न देखड । कांई ? 'देवो दुर्बलघातकः'। दवदंती पछइ अरण्य-माहि पडी । तिवारइ वली बइसइ, वली ऊठइ. वली रुदन करइ, वली वल्लभनइ स्मरइ, वली चीतवइ, 'किसिउं करउं ? किहां जाउं" इम चीतवतां राखसी एक आवी कहइ, 'हूं तुझनइ खाइसु ।' तिवारई दवदंती कहई, 'जउ मई नल टाली बीजउ मनि करी प्रार्थिउ न हुइ, तउ राखसी ताहरउ प्रभाव जाउ ।' तेतलह राखसी अदृश्य हई । पछई दवदंती आधी चाली, पणि त्रिषाक्रांत हुई । एहवइ नदी एक जलि करी रहित दीठी । तिवारइ दवदंती कहइ, 'जु मइ सूधउं समकित्व पालिउं छइ, तु सांप्रत पाणी प्रकट थाउ ।' इम कही जेतलइ पाटू आणी तेतलइ जल नीकलिउं । पछइ पाणी आश्वादी, आगलि जाती वड-तलइ जई बइठी । तिसिइ धनदेव सार्थवाह तिहां आविउ । तिणि ते सती दीठी । पछइ तेहनइ साथइ अचलपुरि आवी । हिवइ ते अचलपुरनइ परसरि वावि
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