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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
सतीनइ भरतक्षेत्रि लेई आची । तिहां संघनइ चूलिका आपी, श्री-सीमंधरस्वामिनउ वचन कहिउं । पछइ पारणउं सघले कीधउं ।” इत्यादि वात कही महासती उपाश्रयि पहुती ।
इसिई थूलभद्र वाचना-भणी आचार्य-समीपि आविउ । तेतलइ गुरे कहिउं, 'जा, तूं योग्य नही ।' तिवारइं जउ जोइ तु दिक्षा-दिन आरंभी, आपणउ अपराध न देखइ । पणि एक अपराध जे गुरुनइ अणकहइ सीहनउं रूप कीघउ, ते टाली अनेरउ अपराध नही । पछइ गुरुने पगे लागो आपण उ अराध खमावइ, 'स्वामिन ! ए आराध खमउ । वली अपराध नहीं करउ ।' गुरु कहइ, 'हिवर तूंह नइ व चना नही दिउँ ।' पछइ सर्व संघ मेली, गुरुनी रीस उपसमाविवा-भणी, पगे लागी रहिउ । तुहइ गुरुनी रीस उपसमइ नही । आचार्य कहइ 'अजी तइ समुद्र-माहि एक बिंदु भणिउं छइ, अनइ ते ही विद्या जरी नही, तु आगिलि विद्या किम जरिसिइ ?, पणि जउ संघ वली वली कहइ छइ, तु सूत्रपाठ कराविसु । पणि अर्थ नही कहउं ।' पछइ थूलभद्रनइ च्यारि पूर्व छेहि लां सूत्र-तु भगावी कहिउं, 'आज पछइ तूं दस जि पूर्व शिष्यनइ भणावे, पणि च्यारि म भणावेसि ।'
पछइ श्री-थूलभद्र चउद-पूर्व-धर आचार्य-पदवी लही, एकणि नगरि मित्रनइ घरि आविउ । तेतलह मित्रनो भार्या साम्ही ऊठी, पणि दालिद्र-लगइ कांइ भगत करी न सकइ । तिसिई थूलभद्रि पूछिउं, 'ते 'सोम मित्र किहां गयउ ?' तिसिइं स्त्री कहइ, 'धननी आशाई देशांतरि गयउ छइ।' एवइ जूना घर-माहि थांभउ एक देखी एनलउ बोल कहिउ, “ए इम अनइ ते तिम। कहउ ए वातनउ किम ?' इसिउं कही आचार्य उपाश्रये आव्या । पछइ मित्र घरि आविउ। स्त्रीइं आचार्यना वचन कहियां । थांभउ देखाडि उ । पछइ सोमिई ते थांभउ ऊखेडी. भूमि खणी, सवा लाख द्रव्य काढिउं । इम श्री-थूलभद्रनां घणां अवदात छई। इम भविकजननइ प्रतिबोध देई, प्रांति अणसण लेई स्वर्गि गया।
. इति श्री खरतरगच्छे श्रीजिनचंद्रसूरी विजयि वा० मेरुसुदरगणिना विरचितं श्री स्थूलभद्रचरित्रं समाप्तं ॥१९॥
हिवइ जे लोभ देखाडिइं शील-हूंता न चूकइ ते कहइ--
तं नमह वयरसामि सयंवरा रयणकोडि-सुसमिद्धी।
अवगणिया जेण तिणं व सिट्टि धूआ पवररूवा ।। ४२ व्याख्या :- ते श्रीवयरस्वामिनइ नमउ । जिणि भगवति संयंवरि आवो रूपवंति स्त्री. रत्नकोडि तिणि करि सहित एहवी, धनसंचय श्रेष्टि तेहनी रुक्मिणी बेटी, अनुरागसहित आवी हूंती, जून तृगेनो परिई आगगी:परिहरी। ते जिम लोभि न गया तिम चीजे महापुरुषे स्त्री देखी लोभी न जाइव ।। हिव ते वयरस्वामिनी कथा कहीइ
[२०. वज्रस्वामिनी कथा] ईगई भरतार्द्धि, अवंतीदेशि, तुंबवण संनिवेशि, व्यवहारीयानु पुत्र धनगिरि वसइ, पणि महा धर्मवंत । क्रमिई यौवनावस्थाइ आविउ । तेतलइ मानापिताए कन्या मागी धनगिरीनइ कीधइ । तिसिइ धनगिरि कन्याना पिताइ कहइ, 'तुम्हे कांई कन्या द्यउ छर ? हं तु दीक्षा लेसु ।' इसिइ धनपालनी बेटी नामिई सुनंदा ते कहइ 'धन गरि टालो पाणिग्रहण अनेथि न करडं ।' पछह
१. K. सोमिल । २. L. सोमिले ।
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