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________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १४५ आपणई नगरि शोभन -नामा यक्षनी ऊभी प्रतिमा छइ, तेहनी जांघ विचालइ जि को सचिउ हुइ ते नीकली जाइ, अनई जि को कूडउ हुइ तेहनइ जांघ विचि चांपी राखइ।' तिवारइ ए बात सघले मानी। पछद दुर्गिलाइ स्नान करी, धौत वस्त्र पहिरी, पूजा-भणी बलि हाथि लेई आदित्यवारि सर्व-लोक-प्रत्यक्ष यक्षनइ भुवनि आविवा लागी । तेतलइ मार्गि जातां ते जार-पुरुष संकेत-ऊपरि गहिलानइ रूपी आवी दुर्गिलानइ विलगउ । तिसिइ दुर्गिलाइ ते परहु कीचड, अनइ घरि जई नवी वार स्नान करो यक्षनइ कहिवा लागी, 'अहो यक्षराज! आजन्म देवदिन्न भार अनइ मार्गि आवतां जे गहिलउ आवी लागउ ते टाली बीजा कहिनइ जु ई आभडी हउं, तउ न यक्ष ! मुझनइ शुद्धि म देजे । नहीतर आपणउ प्रत्यय देखाडे ।' इम कहिइ हूंतइ जेतलइ यक्ष कांई विमासइ, तेतलइ दुर्गिला यक्षना रिहुं पग विचालइ नीकली गई । तिवारइ सघले लोके सूधी सूधी कही । तेहनइ गलइ राजपुरुषे फूलनी माल घाती। हिवइ यक्ष विमासतउ जि रहिउ । पछइ ते दुर्गिला वाजिब वाजते, मनुष्यने सहसे परिवरी, देवदिन्नइ महा-महोत्सव कीजते आपणइ घरि आवी । तिहां नूपुरन उ अबाद ऊतरिउ, तेह-भणी लाके नूपुरपंडिता नाम दीधउं । -हिवइ देवदत्त, वधून एहवउं विस्मयकारक चरित्र देखी, तेहनइ निद्र नाठी, योगीनी परिई नष्टनिद्र हूउ । ए वात मउडइ मउडइ राजाई सांभली जु, 'देवदत्तनइ निद्र नावइ ।' पछइ राजाइ ते देवदत्त तेडी अंतःपुरनउ रखवालउ कीधउ ।। इसिई आगइ अंतःपुर-माहिली का एक राणी हाथीनउ पउतार कहतां मेंठ, ते-साथि लुब्ध हुई छ । ते वार वार ऊठइ अनइ सोनार जागत उ देखी वली पाछी जाइ। तिवारह देवदत्त स्वर्णकारि जाणिउं जु, 'इहां 'कणे कई कारण संभावीइ ।' इम जाणि ते वृद्ध सोनार कपट-निद्राइ सूतउ । तिवारई राणी चोरनी परिइ ऊठी, उरइ-परइ जोती, पूर्व संकेत-स्थानकि गउखि जई बइठी । तिसिइ तलइ राजान उ पट्ट-हस्ती हूंतउ, तीणइ सूदिइ करी राणी भुंइं ऊतारी। तिवारइ राणी-ऊपरि पउतार रसाण उ कहइ, 'रे ! तुं मउडी कांइ आवी ?' इम कही हाथीनी सांकल हाथि लेई दासीनी रीतिइं पूठिइ आणी । तिवारइ राणी कहइ, 'स्वामी ! है सिङ करउं ? आज राजाइ कोई नवउ पाहरी मूकिउ छइ । ते तु जागतउ रहइ छइ । तेहनई भइ हूँ नावी । हिवडां लगारेक तेहनइ निद्रा आवी छइ, तिणि करी हूं इहां आवी। तु मुझ ऊपरि फोकट कोप कांइ करउ ?' इम राणी प्रहर बि तिहां रही। पछइ पाछिली रात्रिई वली हाथीड ऊपाडी राणीनइ गउखि मूकी अनइ राणी आपणइ ठामि गई। एहवउं राजाना घरनउँ चरित्र देखी वृद्ध सोनार चीतवइ. 'जोउ, जेहनइ एवडा पाहुरी, एवडां रखोपा, तेहने घरे जु एहवा वृत्तांत, तु मुझनइ माहरी वड्नउ सिउ अउरतउ ? ए स्त्रीना चरित्रनाउ पारंपर्य कउण लही सका? जिणि कारणि कहिउं, अश्वप्लुतं वासवगजितं च स्त्रीणां चरित्रं भवितव्यता. च । __ अवर्षण चाप्यतिवर्षणं च देवा न जानन्ति कुतो मनुष्याः ॥१॥ विशेषत स्रीनउं चरित्र मेघना गर्जित सरीखउं कउण मणी साइ? तु हिव हूँ सिउं विस्मय कर कांई, जे सदा इ घरनइ व्यापारि थकी रात्रिदिवन बाहर फिरइ, तेहनइ सील किम पलइ इम विमाली वधूना दोषनउ अवर्ष मन हूं उ मूंकी देवदत्त स्वर्ग कार सूतउ । पछइ प्रभात एउं, १. C. K. Pu. पणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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