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________________ ४८ मेरुसुन्दरगणि-विरचित की धडं । पछइ कुंडल - मुकुटादिक सर्व आभरण पहिरावी, आरती मंगलीकादिक विधि करी, आराध खनावी, स्वामी करसंपुटि लेई, अवस्वापिनी विद्या अपहरी । माता-समीपि आवी, पट्टकूलयुगल उसीसइ मूंकी, वली रत्नखचित दडउ एक ऊपरी बांधी, पुरंदर इंद्रन आदेशि धनद यक्षि बार कोडि सुवर्ण रत्ननी वृष्टि कीधी पछई इंद्रइ एहवो उद्घोषणा करावी जु, 'जे को परमेश्वरनी माता ऊपरि पाडूउं चींतविसिइ, तेहनई इंद्र वज्रह करी अर्जुन-मंजरीनी परिहं मस्तक बिखंड करिसिहं ।' एहवी घोषणा करी अंगूठई अमृत संचारी, पांच घात्री मूं की, प्रणाम करी इंद्र नंदीश्वरि पहुतउ । तेतलइ माता जागी । आगलि सालंकार, साभरण पुत्र' देखी हर्षी ती कुंभराजानह वधामणी देवरावी । पछइ राजाई तेहनई जीवावधि दान देई जन्म महोत्सव महा विस्तारि कराविउ । बंदि - मोक्ष कराव्या । मान- उन्मान प्रमाण वधार्यां । क्रमिदं छठी कीधी । इग्यारमइ दिवसि सर्व कुटुंब जिमाडी, सर्व कुटुंबनइ वस्त्र, आभरण, अलंकार देई, कुसुममालानउ डोहलउ ऊपन त तेह-भणी श्री मल्लि ए नाम दीध उं । प्राक्तन कर्मना योग लगाइ स्त्री-वेद उ | श्री मल्लि यौवनावस्थाइ आव्या पंचवीस धनुष उच्चैस्तर, त्रिहुं ज्ञाने विराजमान । इसिइ ई इ भरतक्षेत्रिई साकेत - पत्तनि, वैजयंत-तु अवतरी अवलमित्रनउ जीव प्रतिबुद्धि हवनामि राजा हूउ । तेहनइ पद्मावती एहवइ नामि प्रिया । अन्यदा नागनी यात्रा -भगी प्रियासहित जु पहुच, तु आगलि पुष्पनउ मुहुर अनइ पुष्पनउ मंडप देखी, प्रिया सहित वली वली जोइ प्रसंसिवा लागउ जु - एहवी वस्तु आजनइ कालिन दीसइ । एतलइ सुबुद्धि मुहुतई कहिउं, 'बहुरत्ना वसुंधरा, स्वामी ! जेवी कुंभराजानइ घरि मल्लीकुमारिका छइ एहवी त्रिभुवन माहि अनेरी स्त्री नथी ।' ए नाम सांभली भवांतरना स्नेहनइ प्रमाणि आपणउ दूत कुंभराजा-भणी वरणानइ काजि चलाविउ ॥१ एहवइ धरणनउ जीव वेजयंत विमान इनु चिवी पृष्टचपाइ चंद्रछायाभिध राजा हूउ । तेहनइ नयसार नामा श्रेष्ठ जिनधर्मनइ विषइ निश्चल । वाणिजनइ हेति प्रवहणि चडिउ । तिसिइ मिथ्यात्वी देवता एक तेहना धर्मनी निश्चलता जोवा-भणी समुद्र कल्लोलमालाई करी आकलउ कीधउ । प्रवहण बूडिवा लागउं । तेतलइ देवता प्रगट थई कहइ, 'जु जिनधर्म मूकइ अनइ मूझनइ आदरइ तु प्रवहण राखउं ।' इणि वचनि तिलतुममात्र डोलइ नही । तेतलइ देवता प्रगट थई कहिवा लागउ, 'अहो ! ताहरी प्रसंसा इंद्र करतउ देखी मइ मच्छर-लगइ ताहरी प्रसंसा सांप ही न सकी । तेह-भणी मइ परीक्षा कीधी ।' इम कही च्यारि कुंडल रत्नना देई देवता अदृश्य हूउ । पछइ नयसार कुपल-क्षेमि समुद्र ऊतरी मिलानगरीइ आवीउ । कुंभराजानइ बि कुंडल दीघां । तेतलइ मल्ल कुमारी तिहां आवी हूंतो । राजाइ ते कुंडल कुमरीनइ दीघां । पछइ नयसार क्रियाणा सर्व वेत्री चा आविउ । तिहां चंद्रच्छाय-राजानइ मिलिउ | तेहनइ बि कुंडल दीघां । तेतल राजाई पूछिउं, 'बि कुंडल किहां लाधां ?" तिवार नयसार कहइ, 'मइ बि डल मल्लीकुमरीनइ दीघां । पणि ते मल्लीकुमारीनउ रूप जे दोठउ ते एकणि मुखि कहिउं न जाइ । ए वात सांभळी भवांतरना स्नेह-लगइ दूत वरणा भणी मोकलिउ ॥२ K. मुकुर. १. K पुत्री २. P.. मुहर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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