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________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ४७ [१८. श्री मल्लिनाथ-चरित्र ] श्री जंबूद्वीप-माहि सलिलावती-विजयि वीतशोका नगरी । तिहां बल एहवइ नामि राजा राज्य करइ । धारणी भार्या । तेह्नउ पुत्र महाबल । तेह जिवारई योवनावस्थाई आविउ, तिवारइ पांच सई गजानी कन्या परणाविउ ।। हिवइ तेहनइ नगर-माहि छ मित्र छई । वैश्रमण १ अभिचंद्र २ धरण ३ पूरण ४ वसु ५ अचल ६-ए छ मित्र साथि क्रीडा-विनोद करतां काल जाइ । अनेक वावे, तलावि, वाडी एहे मित्रे परवरिउ महाबल हीडइ । एतलइ एकदा उद्यान-बनि बलराजा गयउ । तिहां ज्ञानी आचार्य देखी राजा वांदइ । आचार्य धर्मोपदेश दिइ । राजा ते उपदेश सांभली चीतविवा लागउ, 'अजी राज धरिवानइ कोई समर्थ पुत्र नही, जेहनइ राज देई हु दीक्षा लिउ ।' इम चीतवतु वली पूछइ, 'स्वामिन ! ए चिंता कांइ ऊपनी ? तिसिइं ज्ञानी कहइ, 'जिवारई कर्म सबल हुइ, तिवारई ए चिंता ऊपजइ । जिवारई जीव सबल, तिवारइ चिंता न ऊपजइ ।' इम राजाई विचार सांभली तिहां जि चारित्र लीधउं । पछइ प्रधाने मिली महाबलनइ राज दीधउं । महाबल छए मित्रे परवग्उि राजलीला भोगवइ । इम काल जातई राजानई घरि कमलावती राणीई सर्व-लक्षण पुत्र जन्मिउ । महा विस्तारि पुत्र-जन्म-उत्सव करी बलभद्र नाम दीधउ । मउडइ मउडइ वाधतां सर्व कला अभ्यसी। तिसिई यौवनावस्थाइ आविइ युवराज पदवी दीधी । अ'पणि धर्म-जि-नइ विषइ उद्यमपर हूउ । दान, शील, नप, भावना भावतउ श्री वीर-गुरु-समीरि छ मित्र-साथि महाबलि दीक्षा लोधी । पछइ सातइ महात्गा सर्वतोभद्र. सिंहानिक्रीडितादि तपि करी कम क्षमावता पारगडं करई । पणि महाबल तपनइ प्रांति पारणउं न करइ माया-लगी । इम महाबलि स्त्री-कर्म ऊपार्जि । मोहनउं विउसित जोउ । एवडइ महाबले माया-लगह स्त्रीपगडं पा मेउ । पछ बीस स्थानक महावलि सेव्यां, तीर्थंकर-नाम-कर्म ऊगर्जिङ । चउरासी पूरव लक्ष आयु पालो, सतई मुनि वैजयंति विमानि अनुत्तर सुर, तेत्रीस सागरोपमनइ आऊखइ हआ । इसिई जंबू-दीपि, दक्षिण भरति, विदेह-देशि, मिथिला नगरीइ कुंभ नगमा भूपति प्रभावती राणी-सहित सुखिई काल अतिक्रमावइ । इसिई महाबलनउ जव वैजयंत-विमान-तउचिवी. फागण शुदि चउथिनी रातिई प्रभावती गणीनी कुखिइं अवतार लीधउ। तिहां चऊद सउणा स्वामीनइ अवतार देखी, नैमित्तिकना मुख-तु स्वामीनउ अवतार जाणी, गर्भ पालती. पूरे दिक्से मागशिर सुदि एकादशीनइ दिनि, सर्वलक्षणसंपूर्ण 'पुत्र प्रसविउ । तिसिई क्षण एक नारकीनह पणि सुख ऊपन उ । इसिई छप्पन्न दिसि-कुमारिकाए आपणउ आपणउ अधिकार सूतिकर्मनउ कीघउ । तेतलइ इंद्रना आसन कांग्यां, शाश्वती घांट सुघोषा वागी। तेहनइ नादि चउसठि इंड मिल्या । तत्काल इंद्रनइ आदेशि लाख जोयणनउं पालक-विमान कीध। माहि मणिनी पनिका पांच सई योजन ऊंच विमान, तिहां इंद्र आपणपे बइठउ। देवता सर्व मेरुपर्वति पहता। इंद्र आपणि स्वामीनी मातानइ अवस्वापिनी विद्या देई, करसंपुटि जिननई लेई प्रतिछंद रूप मूकी, पांच कल्याणक समकाल हुई तेह-भणी पांच रूप करी नइ, पांडु कंबलसिला-उपरि जगन्नाथनई आपणई उत्सगि धरी बइठउ। तीर्थोदक आणी योजन-मुख कलसे मात्र अच्युतादिक इंद्रे कीधउं । पछइ गंध काषायक वस्त्रे अंग लूही, बावन चंदने अगि विलेप १. K पुत्रीनु जन्म हूउ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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