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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
पछई स्वामी चउपन दिन छद्मस्थपणइ विहार करतां, असर्ग सहितां रेक्तकाचलि सहसाम्रवन-माहे वेडसवृक्ष-तलइ, अष्टम तपि, आसोज वदि अमावसनइ दिनि, पूर्वाह्नि, चित्रानक्षत्रि केवलज्ञान ऊपनउं । तेतलई इंदनउं आसन कांपिउं । अवधि-बलिई जाणी, इंद्र तिहां
आवो, समवसरण कीधउं । स्वामी तिहां सिंहासनि बइसी धर्मोपदेश देवा लागा। तेतलइ उद्यानपालकि जई कृष्णनइ वधामणी दीधी। तेहनइ बार कोडि रूपानी वधामणी आपी । तिवारह कृष्ण आपणपे सपरिवार, सांत:पुर, सनागरीकलोक वांदिवा आविउ । तिहां स्वामीनउ रपदेस सांभलिवा लागउ । तेतलई वरदत्त-प्रमुख वि सहस्र राजकुमार अनइ घणी कन्याए परिवरि राजीमतीइ महा महोत्सवपूर्वक चारित्र लोधउं। एहवइ राजमतीनउ अति अनुराग देखी कृष्ण स्वामो-कन्हलि पूछइ, 'हे भगवन ! तुम्ह-ऊपरि एवडउ स्नेह ते कांइ ?' तिवारइं धनदत्तधनदेव-विमलबोध स्वरूप कहां अनइ आठ भवना स्नेहनउं कारण कहिडं । वरदत्त-प्रमुख इग्पार गगधानी स्थापना कीधी। दस दसार, उग्रसेन, पजून, रामादिके सम्पत्व पडिवजिउं । सिवा, रोहणी, देवकी, रुक्मिणी-प्रमुखे' श्रावकपणउं पडिवांजेउं । इम चतुर्विध संघनी स्थापना करो । बीजो पोरसिई गणधरे धर्मोपदेश दीघउ, तेतलई कृष्णि एक पायउ बलि आणिउं, तेनउ अर्ध देवनार लोधलं, अर्ध राजलोके लीधउं । यक्ष गोमेध द्विमुख नरवाहन स्थापिउ, अनइ सिंयानारूढ कुष्मांडी देवता शासननी रखवालि कीधो । अढार सहस्र महातमानइ दीक्षा दीधी अनई चउआलीस सहस्र महासतीनइ दीक्षा दीधी । श्रावक एक लाख 'इगुण हत्तरि सहस्र, श्राविका त्रिणि लाख छत्रीस सहस्स गुणवंति-इत्यादि संघ प्रतिबोधी, एक सहस्त्र वर्ष आऊखउं पाली, पांच सइ छत्रीस सिउं श्री गिरिनारि पादपोपगम अणसण लेई, आसाढ शुदि आठमि, चित्रा नक्षत्रि, स्वामीनइ निर्वाण हूउं । राजीमती पणि मोक्षि पहुती; अनइ परमेश्वरना माबाप चउथइ देवलोकि पहुता । हिवइ देवनाए गोशीर्ष-चंदने चिहि करी, स्वामीनउ अंग प्रज्वालि, वह्निकुमार देवताए वह्नि कीधी, वायु-कुमार देवताए वायु कीधउ, मेघकुमारे अग्नि उपशमावी । तिसिई इंद्रिइ दाढ लीधी, अस्थि देवताए लीधां, वस्त्र राजाए लीधी, राख सर्व लोके लीधी । पछइ निर्वाण भूमिकाई नेमिनाथनई, इंद्रि मंडर कोधउ । पछइ सधला देव ते ठाम वांदी, पूजो नंदीश्वरि पहुता ।
इति शीलोपदेशमाला-बालाविबोधे श्री नेमि-चरित्र नव-भव-संबंधि च्यारि प्रस्ताव कीधा ॥१७॥ वरली सील पालवानी दृढिमा देखाडतउ कहइ
सिरि-मल्लि-नेमि-पमुहा साहीण-सिवा वि बम-वयलीणा।
जइ ता किमण्ण-जीवा सिढिला संसारवसगा वि ॥४० व्याख्याः - जेह भगवंतनइ स्वाधीन शिव-भावीउं मोक्षपद, मोक्षगामी छइ एहवा श्री मलनेमि-प्रमुख ब्रह्मवतनइ विषइ लीन छई, पाणिग्रहण परिहरी ब्रह्मचर्य पालवानइ काजि लीन =तत्पर छई । कांइ शील पालइ? मोक्ष-भणी । ते मोक्षि जाइवानउ तिणिही जि भवि निवड
का आणइ छइ जउ-अम्हे इणिइ जि भवि मोक्ष जासिउं। तीणे जु ब्रह्मव्रत पालिङ, पाणिग्रहण न कीघउ, विषयसुख विमुख थया । तउ अनेरा जे जीव संसार-सागर-माहि बूडा छई. जेहनइ मोक्ष दःप्राप छइ, ते जीव मोक्ष-सुख साधवा-भणी कांइ निरुद्यम? तेहे जीवे मोक्ष-सुख वांछते शील जि पालिवउं, मल्लिनाथनी परि । हिव ते मल्लिनाथनउ चरित्र कहीइ
१. L. Pu. प्रभृति. २. Pu. पोथउ ३. P. उगणहुत्तरि K. ओगणउत्तरि.
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