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________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध बिहुने घरे जवारा वाव्या । पापड-वडीना मुहूर्त कीधां । बिहुंने धरे गीत गाईइ । तोरण 'वंदरवालि मंडावी। समग्र सामग्री हुई। लग्न इकडइ आविइ, श्री नेमिनाथनइ सिंहासनि बइसारी, गीते गाइते स्नान-मजन-पीठीना आचार करी, पारिणेत वस्त्र पहिराव्यां । तिसिइं उग्रसेन-राजानइ घरि पणि कन्यानइ स्नान-मज्जन विधि करी, गीते गाइते । राजीमती आपणपत्रं धन्य मानती भवांतरनउ पति पामी, रात्री सुखिइं अतिक्रमावी । इसिई प्रभातनइ समइ सूर्यनइ उदयि श्री नेमिकुमारनइ स्नान विलेपन सर्व आभरण पहिरावो, मस्तके छत्र धररावि, बिहु पासे चमर ढालीते, लूग ऊतारीते, गीत गाइते, गोविंदादिक सर्व यादव आगलि चालते, रथिई आम्ही पगि पगि दान दीजते जेतलइ उग्रसेनना घर दूकडउ तोरण-समीप नेमिकुमार आविउ, तेतलइ राजीमती उदार स्फार श्रंगार करी सखी प्रतिज्ञ कहइ, 'हे सखि ! जोइ ए श्री नेमिकुमार आवइ छई' इम कहती गउखे बइठो राजीमती वली वली जोवा लागी । तेतलइ जिमणउं लोचन, जिमणउ खवउ फुरिकिवा लागउ | ए स्वरूप देखी सखी-प्रति कहइ, 'हे सखि ! नेमिकुमारनउ मेलापक दीसइ नही ।' तिसिई जलचर-थलचर-खचरादिक सर्व जीव गउरव-भणी आण्णा छइ तेहनउ विलाप देखी जाणतउ इ नेमिकुमार सारथी कन्हइ पूछइ, 'कहि-न, ए प्राणी कहिनइ हेति दुःखी कीजइ छई?' तिसिइं सारथी कहइ, 'स्वामी ! तुम्हारा गउरव-भणी ए जीव आण्या छइ।' ए वात सांभली रथ पाछउ वालिउ । जीव सर्व मूकाव्या । यादव सर्व आडा हूया, पणि स्वामी कहइ. 'जिहां एवडा जीवनउ विणास, तिहां केहउं सुख ? ' तिसिई मानाप विलाप करतां कहइ, 'वच्छ ! एक बार पाणिग्रहण करि । पछइ जिम मेलि* आवइ तिम करे । एक वार बोल मानि ।' तिसिई नेमिकुमार कहइ, 'हूं ए जीवनउ वध देखी विरतउ हुउ । तुम्हारइ रथनेमि-प्रमुख घणा पुत्र छई । ते तुम्हारा मनोरथ पुरवसिई। पणि हूं चारित्र लिउं छउं ।' ए सांभली मातापिता विलाप करतां कहई, 'जिम पसू-उपरि दया कीधी, तिम अम्ह-ऊपरि दया कांइ न करइ ?" पछई ए वात सांभली राजीमती विलाप करिवा लागी, 'हे प्राणनाथ ! हे स्वामिन ! आठ भवनउ नेह पाली, नवमइ भवि तूं नीटर कांड हउ कहि-न ? इम विलाप करती घणइ कष्टि राखी । तिसिइ सखी कहड. 'ए जउ गयउ, तु वली घणा इ क्षत्रीय-कुमार छइ ।' तिवारइ वलतउं राजलि कहइ, 'ज किम्हई नेमिनाथइ पाणिग्रहण न कीधउं, तु ही माहरइ एह जि गुरु, एह जि स्वामी । जे गति एहनइ ते मुझना ।' तेतलई लोकांतिक देव आवी कहइ, 'स्वामी ! दीक्षानु समय इड छह ।' तिसिई स्वामी सांवत्सरिक दान देई, स्नान करी, सिबिकाइ बहसी, इंद्र माथह छत्र धरइ, बिहुं पासे चमर ढलइ, देवतानो कोडिइ परवरिउ, मनुष्यने सहस्र, यादवने समूहे, वाजित्रने लाखे वाजते, पगि पगि दान दीजते, श्री गिरिनारि सहस्राम्रवन-माहि स्वामी शिबिका-तु ऊतरी, सर्व आभरण मूकी, छठ तर करी, त्रिणिसई वरस घरि रही, चित्रा नक्षत्रि, श्रावण सुदि छठई, पूर्वाह्न स्वामीइ चारित्र लीधउं, सहस्र क्षत्रियकुमार साथि । पछई राम, कृष्ण, पांडवादिक सह वांदी वांदो नगर-माहि आव्या । बीजइ दिनि स्वामी वरदत्त ब्राह्मणनइ घरि परमान्नि करी पारणउं कीधउं । तिहां देवताए पुष्पवृष्टि, रत्नवृष्टि, स्वर्णवृष्टे कीधी । देवदुंदुभिनउ नाद हछ । १. Pu. वानरवाला २. Pu. मेल. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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