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सुन्दरगणि-विरचित
इस प्रस्ताव कवि धानगरीनउ अधिपति सुग्रीव क्रीडा· भंणी बाहरि नीकलिउ हूँ त । एहवह विद्याधर एक विद्यानइ बलि नवउँ सुग्रीवनउं रूप करी राजि बइठउ । तेतलइ मूलगु सुग्रीव विपणि नगर -माहि पइसिवा न लहइ । प्रधान कहा, 'तू कउण १ सुग्रीव तु आगइ रान करइ छ ।" तिहां विट-सुग्रीवनउ पक्ष सघले कीघउ, पणि तेहनउ कुणिहि न कीधउ । पछइ जे मूलगउ सुग्रीव ते दीन दयामणउ थकउ रहइ छइ ।
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इसिइ राम-लक्ष्मण कविक धाइ आग्या । तेतलइ ते सुग्रोव रामनइ शरणि जई कहइ, 'अहो राम ! मुझन माहरउं राज्य देवारि, जिम छू ताहरउ सेवक थाउं, ताहरइ काजि आविसु ।' तिवारइ श्रीरामि वचन मानिउँ । पछइ सुग्रीविइ प्रधाननइ इम कहाविउ, 'जि को 'रणांगण जिपिसिइ ते राज लेसिइ ।' इणि वचनि विट-सुग्रीव झूझ-भणी सर्व-बलि नीकलिउ । तिहां जेतलाई रामन दर्शन हूउं ते तलई रूप - परावर्त्त विद्या नाठी । तिसिहं विट-सुग्रीव पणि नासी गयउ । पछइ तिहां श्रीराम मूलगा सुग्रीवनइ किक्किं धानगरीनउ राज्य दीघउं । तिवारइ सुग्रीव अढार कन्या लेई आविउ । रामनइ कहइ, 'स्वामिन ! मुझ ऊपरि कृपा करी ए कन्यानउ पाणिग्रहण करउ ।' तिवारइ वलतू श्रीराम कहइ, 'अहो सुग्रीव ! ए कन्या रहिवा दइ, किंतु शीतानी शुद्धि आणि । " पछइ कपि-वानर, तेहनउ राजा सुग्रीव, तीणइ दिशोदिशिहं शीता जोवा-भणी आपणा सुभट मोकया | अनइ आप सुग्रीव कंबुद्वीप-भणी चालिडं । तिसिइ मार्गि जातां रत्नजटी विद्याधर, भामंडलनउ पायक मिलिउ, जे रावणिई हणी भुंइ नांखिउ हूंतउ । तिहां तीणइ शीतानउ सर्व वृत्तांत कहिउ | पछइ सुग्रीवइ रत्नजटी-पायक राम - कन्हलि आणिउ । तिवारई तोणइ जीणी रीतिह रावण शीता अपहरी, जीणी रीतिह तीणी झूझ कीधउं, ते सर्व वृत्तांत राम - आगलि कहिउ । पछइ रावणि शीता हरी जाणी, श्रीराम सुग्रीवनह पूछइ, 'अहो सुग्रीव ! लंका केतलइ दूरि छह ?' तिवारइ सुग्रीव कहइ, 'स्वामी ! लक्ष्मणना बल आगलि लंका कांई अलगी नथी ।' तिबारह लक्ष्मण कहइ, 'अहो ! जे रावण वायसनी परिहं शीतानई लेई गयउ, ते रावणनउ बल जाणिउ ।' तिसि जांबवंत मंत्री कहइ, 'स्वामी ! नैमितिकि इम कहिउं छह जि को कोटि- शिला ऊपाडिसिह, ते रावणनइ हणिसिह ।' इम कही पछइ सघले वानरे लक्ष्मण सिंधु देखि लीघडं । तिहां जेतलइ लक्ष्मणि कोटि-शिला ऊपाडी, तेतलइ देवताइ कुसुम - वृष्टि कीधी । जयजय - रव हूउ । पछह कोटि-शिला पर्वति अनइ समेतशिखरि वीतराग नमस्करी, सहू किक्कि धाइ आव्या ।
वाई वृद्ध वानर रामचंद्रनइ कहइ, 'स्वामी ! लक्ष्मणनइ हाथि रावणनउ क्षय होसिइ । पणि तथापि एक बार दूत मोकलीइ ।' एह वचन रामिइ मानिउ । पछइ सुग्रीवइ अंजनानउ पुत्र हनुमंत सूर्यपतन हूँ तउ अणावी, बहुमान देई, श्रीरामनइ कहिउं, 'स्वामी ! माहरा राजनउ ए जीवितव्य-सार छइ । वली ए. महापराक्रमी छइ । ए शीतानी शुद्धि-भणी मोकलउ ।' तिवारइं श्रीराम आपणी नामांकित मुद्रिका देईनइ इसिउ' कहइ, 'अहो हनूमंत ! तू' लंकाइ नई शीता प्रियानइ संकेत-भणी ए मुद्रिका देई, संदेसउ कहिजे जु-राम ताहरइ विरहि जगत्र तृणसमान गणइ छइ । तेह-भणी रखे तूं आपणा प्राण छांडइ । जुहूँ राम जीवतउ छ ं, तु तूंहनइ वहिली पाछी आणिसु ।' ए वात हनूमत सांभली तहत्ति करी, आकास मार्गि फाल देई लंकाई आविउ । पछई तिहा रावणनउ भाई विभीषण, तेहनई मिलो कहिवा लागउ 'हे भ्रात ! न्याय अनइ अन्याय सर्व तुझ आगलि हुइ छ३ । इणि कारणि हूं तुझनइ कहउँ छ । तुम्हे रामनी पत्नी १. B. ऋगांगणि Pu. रुग्णांगणि । २. K. जग त्रिण समान लेखवइ ।
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