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________________ ४० मेरुसुन्दरगणि-विरचित विछोड़ी हूं इहां मूंकी । हिवई हूं तेहनी धाविनाता, ते मुझ-पाखइ किम रहिसिई ?' ए वात सांभली कुमार कहइ. ' म रोइ धीरपणउं आदरि । हूं हिवडां ते खेचरनइ हणी, कन्या पाछो वालउं छउ ।' इम कही सूर्यनइ उदयि विशालशील शुंग पर्वतनी गुफानइ चारणइ जेतलइ आवइ, dies कुमारीन प्रार्थना करत विद्याधर देखी, शंखकुमार खड्ग काढी विद्याधर प्रति कहइ, 'अरे पानी, परस्त्रीना पापनउं फल आज देखाडिसु ।' तिसिई विद्याधर धनुष लेई सामुहु ऊठिउ । तेतलई कुमारिइं हाथ-हूंतु धनुष ऊदाली पाटूई तिम किमई आहणिउ, जिम वृक्ष भुई इतिम ते भुंई पडिउ । पछइ कहिवा लागउ, 'आज पछइ हूं ताहरउ सेवक । पणि तिम करउ जिम एक वार देव वांदिवा-भणी आवउ ।' पछइ कुमारि ए वात पडिवजी । हस्तिनागपुर आपणउ वृत्तांत जणावी, धाविमाता कन्यासहित अणावी, अनेक खेचरे परिवरिया वैताढ्य पर्वति आव्या । तिहां यशोमतो - सहित शंखकुमार शास्वतां चैत्य वांदी, पूजी, पछइ मणिशेखरि विद्याधरि कुमार कनकपुरि आणीउ । वस्त्र आभरणे बहुमानी, अनेक विद्याधरनो पुत्री सहित, यशोमतीइं अलंकृत कुमार, श्री जितारिराजाईं चंपानगरीइ अणाविउ । तिहां शंखकुमारि महारुद्धिन विस्तारि पाणिग्रहण कीधउं । वली श्री वासुपूज्यनी यात्रा करी, स्वसुरानइ पूछी हस्तिनागपुर आविउ । तिसिई श्रीषेणराजाई शंखकुमारनइ राज देई, आपणपे चारित्र लेई, केवलज्ञान पामी, भविकंजननई उपदेश देतां, हस्तिनागपुरि आव्या । तेतलई शंखराजा अंतपुर सहित आविउ । तिहां श्रीषेण केवलीना मुखतु उपदेस सांभली, वैराग्य ऊपनइ, संसारनु असारपणउं चींतवतउ' शंखराजा केवली - समीप पूछइ, 'हे स्वामी ! यशोमती - साथिई एवडुं जे स्नेह, ते कांइ !' केवली कहई, 'पहिलई धननइ भवि एह जि धनवती प्रिया ताहरईं हूंती । पछइ पहिलई देवलोकि संबंध । वली चित्रगति - रत्नवती । पछइ महेंद्र देवलोकि । वली प्रीतिमती - अपराजित । वली आरण देवलोकि सातमइ भवि | सांप्रत शंख-यशोमती । वली इहां हूंता अपराजित - विमानि देव । वली नवमइ भवि तूं नेमिनाथ होइसि अनइ ए राजीमती होसिइ । एह-भणी तुम्ह बिहुनइ पूर्वभवनउ स्नेह छइ ।' इत्यादि पूर्व संबंध सांभली पुंडरीक पुत्रनइ राज देई, यशोमती प्रिया - सहित श्री शंखराजा चारित्र लेई, वीस स्थानकादि तप करी, तीर्थंकर नाम-कर्म निकाचित बांधिउं । पछइ अणसण लेई, आराधना करी, मरण पामी, अपराजित विमानि बेहू देवता हुआ । इसिई जंबूद्रीपि भरतक्षेत्रि सोरीपुरि नगर, समुद्रविजय राजा, शिवादेवी राणी, तेहनी कूखिई कार्तिक वदि बारसिनी रात्रि चित्रा नक्षत्र माहि कन्याराशिदं शंखनउ जीव अपराजित - विमानतु चवी त्रिहुं ज्ञानि सहित, चऊद सउणे सूचित, परमेश्वरिई अवतार लीघउ । माता जाग्या पही भर्त्तार - प्रति सउणानु फल पूछिउं । तिसिहं समुद्रविजय कहइ, 'ए सउणानइ अनुसारि पुत्र होसिइ ।' तु ही नैमित्तिक पूछिया । नैमित्तिके विचारीनइ कहिउं, 'तुम्हारउ पुत्र बावीसमउ तीर्थंकर होसिइ ।' ए वात सांभली शिवादेवी हर्षी हूंती गर्भ धरिवा लामी | तिसिई इंद्रनउ आसन कंप उ | पछइ इंद्रि अवधि ज्ञानि करी बावीसमउ जिन जाणी, प्रणाम करी शक्रस्तव भणी यथास्थानि पहुतउ । परमेश्वरनइ अवतारि राजानइ भंडार कोठार सहू धनि करी वाध्यां । गर्भनइ प्रमाण बंदीवाण सर्व मूकाणा । १. L. पणउं जाणी शंख ०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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