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________________ ९८ मेरुसुन्दरगणि-विरचित 6 पांचमइ मासि गर्भ प्रगट हूउ लज्जाकारक । तिवारइ राजाई पूछिउँ, 'हे भद्रि ! ए किसिउं ?” प्रीतिमती कहर, 'आगइ माहरइ आघाननउ संभव हूँतउ, पणि मइ जाणिउं-जउ हुं कहिसु, तु व्रतनउ 'अंतराय होसिह । तेह-भणी महं न कहिउं ।' वली राजा कहइ, 'हिवइ तु सघला इ तापस-माहि आपणपे हलूआ पांडेया । तु प्रभाति आपणपे अनेथि जासिउं । इम चींतवी गालहथा देई सचिंत रात्रि गमाडि । तिसिह प्रभाति जउ जोइ, तु तापस एकू वन-माहि नही । तिवारई बेडू विलखा हुआ । डाबउं- जिमणउं जोवा लागां । तेतलइ तापस एक जातउ दीठउ । एहवइ हरिषेण ते तापसनइ प्रणाम करी पूछिवा लागउ जु, 'ए वन आज सूनउं कांइ दीसइ ?' तिवारई ऋषि कहइ, 'ए तुम्हारडं कुकर्म देखी सर्व तापस गया ।' इसिड कही तापस गयउ । पछइ हरिषेण विषाद पर हूंतउ उटज-माहि पइठउ | तिहां आपणां कुकर्मनइ निंदता प्रीतिमतीइ बेटी जाई । पणि अति रूपवती । तेहनउं ऋषिदत्ता नाम दीघउं । वधामणउं डूउं । तिसिई माता परोक्ष हुई । पछइ पिताई पुत्री पाली, आठ वरसनी कीधी । पणि मन- माहि चिंतविडं, 'रखे ए पुत्री रूपवंतीनइ वनेचर, भील, पुलिंदादिक उपद्रवई ।" एह-भणी तेहनइ पिताs अशीकरण अंजन करी मुझनइ दीघउं । हिव ते हूं श्रीषेण दाक्षिण्य-लगइ ए कन्यानी सार करडं छउं । पणि मुझनइ कोइ उलखी न सकइ । अहो कुमार ! ते आज हूं तई उलखिउ । ' इम वात करतां ऋषिदत्ता कुमार सामहउं जोवा लागी । इसिइ ऋषिदत्ता अनइ कुमार ते बेडूंनई स्नेहनउं कारण जाणी तापस कहा, 'ए कन्या मइ तुझनइ दीघी ।' पछइ कुमारि तहत्ति करी, बचन मानी पाणिग्रहण कीघउ । केतलाएक दिन कुमार ऋषिदत्ता साथि तिहां तापसा श्रमि रहिउ । ऋषिदत्ता पण कुमारना संसर्ग-लगी वनेचरी फीटी विचक्षण, डाही हूई । एहवइ बेटीजमाईनइ पूछी ऋषि वैराग्य पर पंच परमेष्ठि स्मरतउ अग्नि-माहि प्रवेस कीधउ । तिवार ऋषिदसा घणउ विलाप करवा लागी । तिसिई कुमारिइं ऋषिदत्तानि तिम समजावी जिम असमाधि करती रही । प कुमार आपण कटक लेई ऋषिदत्ता - सहित आपणइ नगरि पाछउ आविउ । राजादिक ए स्वरूप देखी विस्मयापन्न हुया । रथमर्दननगर-माहि उत्सव होइवा लागा । हिव ऋषिदत्ता भर्तारइ बहुमान्य हुई, अतिविनय-लगी सासू-सुसरानां चित्त आवर्ज्या । पछइ राजाइ कुमारन युवराज-पदवी दीधी । ऋषिदत्ता सहित सुखिइ काल अतिक्रमावर छइ । uses काबेरी - नगरीइ सुंदरपाणि राजाइ ए वात सांभली जु, 'पाणिग्रहण-भणी कुमार आवत हूं अनइ अंतरालि ऋषिनी पुत्री परिणी पाछड गयउ ।' ए वात रुक्मिणीइ पणि सांभली । यौवननउ उन्माद, तेहना गर्व लगइ उपाय चींतविवा लागी जु, 'कीणइ उपायइ ऋषिदत्तानइ असुख ऊपजड़, तु हूं कुमारनउँ पाणिग्रहण करडं । इम विमासी सुलसा जोगिनी तेडावी । पणि ते केही छ ? अनेक मंत्र, तंत्र, यंत्रनी जाणी, छइ कूड कपटनी खाणि । ते सुलसा योगिनी घण भावर्जी, तिवारइ तूठी हूंती कहइ, 'मागि, जि कांई कहइ, ते आपउं ।' पछइ रुक्मिणी कहर, 'ऋषिदत्तानइ कलंक दिइ अनइ कुमार मुझनइ पति दिइ ।' ए वात सुसाइ पडिवजी, रथमर्दन नगरि आवी, पणि सापिणिनी परिई दोपडी हूंती नगर-माहि खड़ी चापडी करइ । राक्षसीनी परि महा दुष्टि तिणि सुलसाइ एकदा महा अंधकार विकुर्विड । अवस्वापिनी विद्या प्रयुंभी १. K. व्याघात । २. Pu. गालहथु, K. गाहत्था, L. गलहाथ । ३. K. रात्रि सतपण नीगमी । ४. Pu. L, तेइनहं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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