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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
इणि वचनि महात्मा चीतवइ, 'ए मुहुताना पुत्र-भणी बहुमान दिइं गुरु ।' ते त्रिणि 'हिव आवतई वरसालिइ अम्हे पणि अभिग्रह लेसिउं।' इम अमर्ष हीआ-माहि वहता आठ मास मोटइ कष्टिइ गमाड्या। तेतलई वरसालउ आविउ । सिंहगुफावासी महात्माइ गुरु वीनव्या, 'भगवन ! वेश्यानइ घरि च्यारि मास हूं रहिसु । तप नियम करिसु ।' तिसिइ गुरे ज्ञानोपयोगिइं जाणी कहिउं, 'तई ए अभिग्रह नही पलिई ।' इम कहतां वारतां विचालइ सिंहगुफावासीइं अभिग्रह लेई, थूलभद्रनी स्पर्धा वहतउ उपको शानइ घरि पहुतउ । तिणि जाणिउं जु, 'ए थूलभद्रनी तुडिई आविउ छइ।'
पछइ उदार स्फार श्रृंगार करी, महात्मा-समीपि आवी, हावभाव तिम करिवा मांड्या जिम क्षण एक-माहि महात्मा चूकउ । तपक्रिया सर्व मूकी। तिसिइ उपकोशा कहइ, 'धन आणि ।' महात्मा कहा, 'धन मुझ-कन्हलि नथो । तु उपकोशा कहइ, 'नेपाल देसि जा, तिहां नेपाल देशनउ राजा देशांतरीनइ एक रत्नकंबल आपइ छइ, ते रत्नकंबल सवा-लाख लहइ ।' पछइ ते महात्मा कामनउ वाहिउ वरसतइ मेघि नेपालदेस-भणी चालिउ | पंथ अवगाही नेपालदेसना राजानइ मिली, रत्नकंबल लही, वांस एक-माहि गोपवी, पाछउ वालिउ। पणि मन-माहि उपकोशानइ ध्याइ । इम आवतां पालि-माहि सूडानई वचनिइं महात्मा भीले' झालो खउलिउ । पणि कांड न देखइ । तिसिई मूकी दोधउ । तेतलइ वली सूडउ कहइ ‘लाख जाइ, लाख जाइ ।' इसि कह(? हि)इ वली महात्माना मुख-प्रमुख सर्व जोयां, पणि कांई न देखइ। तेतलइ पल्लोपति कहइ, 'अहो महात्मा ! अम्हे ताहरडं काई न लिउँ । पणि कहि, सूडउ साचउ कि कूडउ ?' तिवारई महात्माइ कहिउं, 'ए वांसनी लाकडी-माहि सवा-लाखनउ रत्नकंबल छइ ।' पछइ सत्य वचन-लगइ महात्मा मूंकिउ । हिवइ ते मुनि पंथ अवगाही, उपकोशानइ घरि आविउ । तेतलह उपकोशा पग धोती हूंती । तिसिइ महात्माइ ते रत्नकंचल आणि आगलि मूकिउ । एहवइ वेश्याइ ते कंबल लेई, पग लूही, खाल-माहि चांपिउं । तिवारइ मुनि कहइ, 'एहवउ बहुमूल्य कंचल हेलाई कादम-माहि तइ कांड घातिउं ?' तिवारई कोशा कहइ, 'ए कांबलानी केही वात छड ? जोइन, तई चारित्र रत्न हेलाई माहरइ विषइ किम गमाडिउं छ? कहि-न अल्प सुखनइ काजिइं अनंत सुख कांइ हारई ?' इत्यादि प्रतिबोध सांभली वैराग्य-लगइ कहिवा लागउ,
न। तर ४भलउ तारिउ । हिव हूं गुरु-कन्हलि जई आलोयण लिउं छउं । तुझनह धर्मलाभ हु ।' तिसिइ उसकोशा पगि लागी कहइ, 'एतलउ अपराध मइं तुम्हारा प्रतिबोध-भणी कीधउ । ते तुम्हे खमज्यो ।' पछइ गुरु-समिपि आवी, पाप आलोई, तप तपिवा लागउ।
इसिइ एकदा राजाई सार्थवाह एक आविउ हूंतउ तेहनइ कोशा दीधी। हिवइ ते कोशा सार्थवाह-आगलि सदा थूलभद्रना गुग वर्णवइ । ते गुगवर्णन देखो थूलभद्र-साथिई मन ऊतारिवाभणी सार्थवाह एकणि बाणि करी, सूतउ हूंतउ, आंबानी लूंची छेदी, बाणिई बाण सांधी, कोशानि हाथि लंच आपइ । आपणउ कुसलपणउं देखाडी, कोशाना मुख सामहउं जोइ । तेतलइ कोशा पणि सरिसवनउ थाल भरी, फूले ढांकी, ऊररि सूई मूंके, नाचिवा लोगी। पणि सईइ पग वौधागउ नही, अनइ फूल पणि खिस्पां नहो । एहवउ स्वरूप देखी सार्थवाह संतुष्ट वर्तमान कहइ, 'मागि, स्यू आपउं ?' तिवारई कोशा कहइ, 'मई सिउं देखाडिउं जे तुं रीझिउ १ जउ
१. P सिवाय 'भीले नथी. । २. Pu. षेलि3 L. खालिउ P. झालिउ.। ३. K. हेलाई इम कांई खालि घालिउ । ४. P. L. K भलउ। ५. Pu. 'रषिउ' सुधारीने 'हरषिउ, L. P. रंजिउ ।
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