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________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध कहइ, 'जे थूलभद्र घर छोडइ ते वररुचिनउ विलसित । तु ए वयर ताहरइ सानिधि वलइ ।' इम कहइ कोशा हसीनइ कहइ, 'ते किम? सिरीउ कहइ, 'ताहरी बहिन साथि वररुचिनइ संबंध छह । अनइ ते-पाहि तेहनइ मदिरापान करावीइ ।' ए वात तीणइ पडिवजी । पछइ सिरीउ घरि आविउ। हिवइ वररुचि अनइ राजा सदाइ एकइ आसनि बइठा वात करइ। इम एकदा सिरीइ अवसर लही राजा वीनविउ 'स्वामिन ! भंडारि तेवडा धन नही ।' तिसिइ राजा कहइ, 'जां गडाल हंतउ तां लगइवांक कांई न हंतउ ।' तिवारई सिरीउ कहइ, 'स्वामी! ते 'मद्यपानी वररुचि ब्राह्मणि फोकट बालकनइ मुखि लोक भणावी तुम्हारउं मन विप्रतारिउ ।' राजा कहइ, 'ते वररुचि बांभण, किम मद्य पीइ ?' तिसिई सिरोउ कहइ, 'स्वामी ! प्रभाति ए कउ. तिग देखाडीसिई।' पछई माली एक आपणउ विश्वासी तेडी तेहनइ सीखवी सिरीउ प्रभाति सभामाहि आविउ । वररुचि पणि आविउ । सामंत मंडलोक सर्व आया। तेतलइ मालीइ कमल आणी राजादिक लोकनइ आप्यां, अनइ मयणहल-भावित जे छइ कमल ते वररुचिनइ पणि हाथि दीघउ । सह को कमल सूंघिवा लागा । तिवारंइ वररुचि पणि ते कमल इंघिउं । ते मयणहल-परिमलनइ प्रमाणि वररुचिनइ वमन हउ । तिसिई सभा-हंतउ नीकलिउ । पणि मदिरा गंधावा लागी जे कोशानी बहिनि पाई हूंती। ते वात राजादिक सघले लोके जाणी। पछई वररुचि तातडं कथीर पीधउं, शोधि होवा भणी। मरण पामउ । इम सिरीइ वयर वालिडं। पछइ सिरीइ सतांग राज्य आक्रमिउ । सर्व मुद्राई प्रधानपद भोगवइ । एहवइ श्री-थूलभद्र द्वादशांगी भणी गुरु-समीपि रहइ । इसि वर्षाकाल आव्यउ । त्रिहुं महात्माए गुरु वीनव्या । एक कहइ, 'च्यारि मास. उपवास करी, सीह-गुफानइ द्वारि ऊभउ काउसग्ग करिसु ।' बीजउ साधु कहइ, 'दृष्टीविष सापनइ बिलनइ द्वारि, च्यारि मास उपवास करी काउस्सग्ग करिसु। त्रीजउ साधु कहइ, 'कूआ-ऊपरि अधविचि काष्ट छइ, तिहां च्यारि मोस काउसग्गि रहिसु ।' तिसिइ गुरे श्रुतज्ञाननइ बलि जाणी आदेस दीधउ । तेतलइ थूल-. भद्र पणि गुरुनइ कहइ , 'हूं कोशानइ घरि छ्इ रस जिमतउ, चित्रशाली-माहि च्यारि मास रहिसु ।' इसिइ संभूतिविजय गुरे योग्यता इंद्रिय-जयन। जाणी आदेश दीधउ । पहिला त्रिण्णि महात्मा आपणइ आपणइ ठामि जई काउस्तग्गि रहिया । थूलभद्र कोशानइ घरि जई धर्मलाभ कही, कोशानी चित्रशाली मांगी थूलभद्र चउमासि रहिउ । तिहां छ रसमइ आहार विहराविउ । पछइ वेश्या नवा नवा वेस पहिरी नव नवे हावभाव-कटाक्ष-क्षेपे वचन-विलासे नव नवे भंगारे श्री थूलभद्रनइ खलभलावइ । पणि लगारइ क्षोभ न पामइ। जिम जातिशुद्ध हीरउ लोहि भेदीइ नहीं तिम थूलभद्र न भेदीइ । पछइ कोशा आवी पगे लागी, 'स्वामिन ! पूर्व-परिचयलगइ मइ अपराध कीघउ । हिवइ ते अपराध खमउ ।' पछइ थूलभद्रइ तिम ते प्रतिबोधी जिम श्रावकउं धर्म आदरिउ अनइ अभिग्रह लीधउ - राजदत्त पुरुष टाली अनेरा पुरुषनउ नेम । इसिइ वरसालउ संपूर्ण अतिक्रमिउ। तिणि महात्मा आपणा आपणा अभिग्रह पूरी जेतलई गुरु-समीपि आव्या तेतलई गुरु कांइ एक आसन-इतु ऊठी, 'दुक्करकारक आवउ' इसिउं कहिउं । तेतलइ थूलभद्र आविउ । तेहनइ गुरु ऊठी बहुमान देइ, 'दुक्कर-दुक्करकारक आवउ।' १. K वररुचि ब्राम्हणि मद्यपानिइं । २. Pu. L. मीडहल, K. मीणहल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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