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शीलोपदेशमाला-बालावबोध
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पणि न जाणउं, माहरा मुख-हूंतउ एहवउं वचन किम-हि नीकलिउँ ? अथवा लींबनइ जे करअपणउं, ते कोई करइ छइ ? ते स्वभाविइं जि हुइ।' इम प्रतिबोधी महात्मा आपणइ कानि गयउ । नर्मदासुदरी पाछी घरि आवी । सुखिइं घरि रहइ छइ ।
____ इसिह अनेरइ दिवसि महेसरदत्त व्यवसाय-भणी जवनद्वीप-भणी चालिवा लागउ । तेतलह नर्मदासुंदरी कहइ, 'स्वामी! हूँ पणि साथि आविसु ।' पछइ नर्मदासुंदरी संघातिइ चालि । हिवा समुद्र-माहि प्रवहणि बइसी चालतां अर्ध पंथ अवगाहिउ जेतलई, तेतलई रात्रिनइ समइ कुणिहि एकणि गीत गायउं । ते गीत सांभली नर्मदासुंदरी स्वरनां लक्षण जाणती हूंती भरिनइ आश्चर्य ऊपजावती कहिवा लागी, 'स्वामिन ! जे ए गीत गाइ छई, ते सामलइ वर्णि छइ, स्थूल-णि छइ, कृश-देह छइ, गुह्यदेसि मसउ छइ, शोण-लांछन छइ, बावीस वरसनउ छड, हीयउं पहुलउँ छइ ।' इत्यादि स्त्रीना वचन सांभली महेसरदत्त मन-माहि चोंतवइ. 'ए नर्मदासुदरी कुशीलि संभावीइ, अन्यथा एतली वात किम ए जाणइ ? तां हिवइ परीक्षा करउ ।' पछइ प्रभाति ते पुरुष तेडी, सर्व अहिनाण जोई, मनि निश्चय कीधउ, 'तां सही ए कुशीलि जि ।' पछइ गूढ कोप धरतउ चींदवइ, “एतला दिन हूँइम जाणतउ जउ, ए महासती छ । पणि तां आज पारखउं दीठउं । तु हिव एहनइ समुद्र-माहि ठेली दिउँ । अथवा खड़गि करी केलिनी परिई बि-खंड करउं ।' इम जेतलइ चींतवइ छइ, तेतलइ अकस्मात नियामक कूमाखंभा'-ऊपरि चडिनइ कहइ, 'अरे लोको ! प्रवहण राखउ, सिद पाडउ, नांगर मंक। राक्षसउ द्वीप आविउ । जल ईधणनी सामग्री लिउ ।' इम कही आपणउं प्रवहण राखि । सर्व संग्रह कीधउ । इसिइ महेसरदत्त माया-लगइ गूढ कोप धरतउ नर्मदासुदरीनइ वन-माहि लेई गयउ । अनेक तलाव देखाड्यां । वली वन सर्व देखाडी संध्याई किहां एक वननिकुंज-मोहि नई सदा । तेतलड पर्वोपार्जित दुःकर्म-लगइ नर्मदानइ निद्रा आवी । तेतलड महेसरदत्त नर्मदा सूती जि मूंकीनइ प्रवहणि आविउ । पणि कहि, 'लोको ! नासउ नासउ । कांता राक्षसि खाधी । हूं नास' आविउ । तुम्हे चालत, नहींतरि राक्षस आवी खासिइ ।' तिवारइ बीहतां लोक प्रवहणि चडी चाल्या । पछइ महेसरदत्त चीतवइ, 'मइ बिहू वानां कीधां-दुःशालि स्त्रीहांडी अनह लोकनउ अपवाद-इ राखिउ ।' हिवइ क्रमिई यवनद्वीपि आविउ । तिहां घणउ धन उपार्जी आपणइ नगरि आविउ, अनई प्रियानउ स्वरूप कहिउं जउ, 'राक्षसइ प्रिया खाधी।' पछइ असमाधि करी नर्मदानां प्रेतकार्य कीधां । वली महेसरदत्त नवी वार परणिउ । ___हिवइ नर्मदासुदरी वन-माहि जिम सूती हूंती, तिम जि नवकार कहिती हूंती जागी । पणि अगलि भार न देखइ । तिसिइं नर्मदा भोलपण-लगइ कहइ, 'स्वामी ! एहवउं हासून कीजह तुहइ कोई नावइ । तेतलइ ऊठी वन-माहि जोवा लागी, पणि भर्तार न देखा। तिवारडं नर्मदा रोइबा लागी । तिणि रोतां जे वननां स्वापद छई, ते ही रोवा लागां । पछह लताना घर-माहि रात्रि रही, पणि रात्रि सउ वर्ष समान हुई । वली प्रभाति वन जोती, रुदन करती, पांच दिन अतिक्रमावी छठइ दिनि जिहां प्रवहण हंतां, तिहां आवी, तु आ प्रवहण नही । तिवारइ गाढेरी निरास-थकी रुदन करती ते मुनिनउ वचन चीति आविउ । पछइ थोडेरी अप्समाधि करिवा लागी । इम आपणउं पूर्वोपार्जित कम भोगवती, आत्मानइ प्रति१. K. कूआर्थमा । २. L. Pu. राखसई द्वीप K. राखिस द्वीप ।
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