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________________ ९० मेरुसुन्दरगणि-विरचित गेध देती, महासतीइ सरोवरि स्नान करी, वन-माहि देव वांदी, फलाहार करीनइ तापसी हुई । पछइ गुफा-माहि माटीनी प्रतिमा करी, मननइ स्थिरता-भणी फले-फूले पूजी, आगलि बइसी सज्झाय करइ । एकाग्र चित्त दीक्षाना, ध्यानना विषइ तत्पर हूंती रहइ छइ । इसिइ. ते नर्मदानउ पीतरीउ वीरदास बब्बरकूल-भणी जातउ हतउ, तीणइ प्रदेशि जिहां नर्मदासुदरी गुफा-माहि स्वामीनी स्तुति करइ छइ, तिहां आविउ । पछइ ते स्तुति सांभली वीरदास गुफा-माहि पइठउ । तिसिई साश्चर्यरूप वीरदासि भत्रीजी देखी । कंठि आलिंगी शोक अनइ हर्ष धरतउ पूछिवा लागउ, 'हे वत्सि ! तूं एकाकिनी इहां कांइ ? अथवा तूं किम आवी इहां ?' इम पूछइ हूंतइ नर्मदाइ आपणउ सर्व वृत्तांत कहिउ । पछइ वीरदास दैवनई ओलंभा देतउ हूंतउ नर्मदासुंदरीनइ संघातिइ लेई बब्बरकूलि आविड । तिसिइं नर्मदासुंदरी वस्त्रना घर-माहि मूकी । पछइ वीरदास भेटि लेई राजानइ मिलिउ । राजाइ बहुमान देई अर्ध दाण मुकिउ । पछइ वीरदास क्रियाणां वेचिवा लागउ । तिहां हरिणी नामिइं पण्यांगना वसइ। पणि ते प्रवहणी-लोक-कन्हलि सहस्र दीनार लिइ। ते लेवा-भणी दासी एक वीरदासनइ ऊतारइ मोकली। तिणि दासीइ नर्मदासुंदरी रूपवंत दीठी । तिणिइं जई हरिणीनई कहिउं जउ, 'एहवउं रूप पृथ्वी-माहि मथी । ए जउ ताहरि घरि आवइ, तु जाणे कल्पवेलि आवी । तीणीई द्रव्यनी कोडि ऊपार्जीइ ।' पछइ हरिणीइ धन मागिवानई मिसिइं तेहनउं चरित्र जोवा-भणी वली तेह जि दासी मोकली। तिसिइ वीरदासिई सहस्र दीनार दीधा । तेतलइ पाछी आवी हरिणीनइ कहइ. 'न जाणीइ, ए वीरदासनी बहिनि छइ अथवा सगी छइ ? किंवा दासी छइ ते जाणीइ नही ।' तिवारइ हरिणी तेहनइ घरि आवी । पछइ वीरदासनइ बलात्कारिइंमिषांतर करी आपणइ परि लेई गई । वीरदास भोलवी हाथनी वीटी नामांकित लोधी । ते लेई बली हरिणीइ दासी मोकली नर्मदासुंदरी-कन्हलि, कहिवराविउं जु, 'ए मुद्रिकानइ अहिनाणिइं श्रेष्ठि वीग्दास तुझनई तेडइ छइ ।' तिसिइं नर्मदा सरल चित्त-लगी ते दासी-साथिई गई। तेतलइ हरिणीइ ते नर्मदासुंदरी भुइहरि लेई घाती । मुद्रिका पाछी आपी । पछइ अखंडवत वीरदास पाछउ परि विउ । जउ ऊतारइ जोइ, तु न मेदा न देखइ । पछइ नगर-माहि जोतउ हूंतउ सासंक हरिणी-नइ घरि आवी पूछइ जु, 'नर्मदा किहां ? तिवारई ते कपटपंडिता न मानइ कहा, 'ह सिउँ जाणउं ? तिसिई वीरदास चीतवइ. 'एक कारेली अनइ लौंबडइ चडी, एक वेश्या अनइ राजानउं बहुमान । तु ए साथिई नही पहचीइ । एक परदेस, बीजउं जीणइ गोपवी ते किम आपिसिइ ?' इम घणी असमाधि कीधी । पर आपणी वस्तु सर्व लेइ, घणउ लाभ ऊपार्जी, पाछउ चालिउ । भरुअच्छि नगरि आविउ । तिहां आव्या-पछी परम मित्र परम श्रावक जिणदास श्रेष्ठि, ते-आगलि वात कही। नर्मदासुंदरीनी सुद्धिनइ हेति बबरकूल-भणी आपणइ ठामि मित्र मोकलिउ । हिवइ हरिणीई वीरदास चाल्या पछी नर्मदासुंदरीनई कहिउं, 'हे सुभगि ! सौभाग्यनउ निधान वेश्यापणउं आदरी यौवननउ फल लिइ ।' ए वचन जेतलइ हरिणी कहिषा लागी, तेतलइ नर्मदाइ कान ढांकी-नइ कहिलं, 'ए वात आज पछी म कहेसि । हूं आजन्म सीलनी खंडना नही करउं ।' तिवारइ वेश्या कहइ, 'अम्हारउ जन्म सफल, जे आपणी इच्छाई विलसउं, भोग भोगवउं ।' तेसलइ नर्मदा कहइ, 'इणे सुखे मोक्षना सुख कुण हारई। जां मुझनइ जीवतव्य, तां शील कुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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