________________
८८
मेरुसुन्दरगणि-विरचित आगलि कही । पछइ सहदेव संघातनी रचना करी सुंदरीनइ साथि लेई चालिउ । हिवइ नर्मदानइ कांठइ आवी, पूजा अर्चा करी, नर्मदा-माहि पइसी, जलक्रीडा कीधी। पछइ सहदेव व्यवसायनइ सुखिई तिहां नगरीनी स्थापना करी, नर्मदापुर नाम दीधडं। तिहां जिनमंदिर कराविउं सम्यक्त्व-पिंड पोषिवा-भणी । पछइ सघला-इ व्यवहारोआ आपणा आपणा नगर मूंकी तिहां आत्री वस्या । इसिइ पूरे दिवसे पुत्री जन्मी, पणि पुत्र-जन्म-परिई उत्सव कीघउ । नर्मदासुंदरी ए नाम दीध। क्रमिइ सघली इ कला अभ्यसी यौवनावस्थाइ आवी ।
____ इसिइ नर्मदासुंदरीनउं रूप सांभली ऋषिदत्ताइ चीतविउं जउ, 'माहरा पुत्र महेश्वरदत्त, तेहनइ हेति ए नर्मदासुदरी मागीइ । अथवा मुझनइ धिगधिकार हु, जे मइ जिनधर्म छांडइ हूंतइ हूं कुटुंबिई छांडी । जे हूं पर्वतिथिनां नाम-इ न जाणउं, ते माहरा पुत्रनइ किम पुत्री देसीइं(१)?' इम कहती रोवा लागी । तेतलइ रुद्रदत्त आविउ । तिणि पूछि, 'तूं असमाधि काइ करइ ?' तिवारई ऋषिदत्ताई सर्व वृत्तांत कहिउ ।
एहवइ महेश्वरदत्त पुत्र, मा-बापनी वात सांभली कहिवा लागउ, 'तात ! मुझनई तिहां मोकलउ, जिम सघला-इ आवर्जी, माउलानी पुत्री परिणी, मानइ हर्ष ऊपजावउं ।' पछइ पिताई महेश्वरदत्त चलाविउ । थोडे दिहाडे पंथ अवगाही नर्मदापुरि आविउ । तिहां सहदेवनइं मिलिउ। हिवइ महेश्वहदत्त तिम बोलइ, तिम चालइ, जिम सहदेवादिक सहू मनि चमत्करिया । पछइ
उत्संगि बइसारी कहिवा लागा, 'वत्स ! तइ अम्हारा चित्त तिम आवर्जियां, जिम जांगुली-विद्याइ • करी साप वशि थाइ, तिम अम्हे वशि कीधा । तु वत्स ! मागि । जि कांई मागइ, ते
आपउं ।' तिवारई महेश्वरदत्ति नर्मदासुंदरी मागी । पछइ मातापिताइ आपी । तिहां महेश्वरदत्ति जिनधर्म पडिवनिउं । सम-शपथ कीधा जु, 'इणि भवि जिनधर्म टाली अवर धर्म न कर।' पछइ महा-आनंदि, महा-महोत्सवि नर्मदासुदरीनउं पाणिग्रहण कीधउं । केतलाएक दिन तिहां रहिउ । हवइ नर्मदासुंदरीइ तिम जिनधर्मना उपदेस दीधा, जिम महेसरदत्त जिनधर्मनइ विषयि गाढ निश्चल हुउ । पछइ केतलेएक दिहाडे सुसरानइं कही, भार्या-सहित महेश्वरदत्ति आवी, मातापितानइ प्रणाम कीघउ । तिसिई ऋषिदत्ता नर्मदासु दरीनइ उत्सगि बहसारी कहइ, 'वत्सि ! तई तिम चालिवउं, जिम मिथ्यात्वन उ नाम घर माहि न रहइ ।' हिवइ महेश्वरदत्त नर्मदासुद। • सुखिई काल गमाडतां सर्व स्वजननइ मान्य इयां ।
अन्यदा नर्मदासुन्दरी गउखि बइठी आरीसइ आपणउँ मुख जोती, तंबोल खाती, अनेक विभ्रम करती, लीला-लगइ तंबोल गउखनइ बारणइ नाखिउ । इसिइ महातमा इक तलइ जातउ हंतउ, तेहनइ माथइ तंबोल पडिउ ! तेतलइ तेणइ महातमाइ कहिउं, 'इम जे ऋषिनी आशातना करइ, ते भरिनउ वियोग पामइ ।' इसिउ ते महात्मानउ सकोप वचन सांभली विषाद-पर नर्मदासुंदरी गउख-हूंती ऊतरी, महात्माने पगे लागी कहिवा लागी, 'महात्मन् ! हूं वरांसी, जे हूं जिनधर्मना मर्म जाणती इ हूंती एवडउ अविनय कीघउ । तु हिवइ तुम्हे विश्वनइ वत्सल छउ, मुझ ऊपरि क्षमा करउ । तुम्हे तु वयरी-इ-ऊपरि कोप न करउ, पछइ मुझ ऊारि कोप किम करिसिउ ? तथापि मुझ अभागिणी-ऊपरि शाप परहउ करउ ।' तिसिइ मुनि बोलिउ, 'हे वरिस ! सांभलि, खेद म धरि । जे महारमा हुइ, ते शाप अन अनुग्रह न करइ ।
१. K. अतिक्रमतां । २. L. Pu.लांषिउ । ३. K यती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org