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शीलापदेशमाला बालावबोध
हिवइ रतिसुंदरीनी कथा कहीइ -
[ २८. रतिसुंदरी - कथा ]
साकेतपुरि नगरि नरकेसरी राजा राज्य करइ । तेहनइ सकल - अंतेउर - मुख्य कमलसुंदरी पट्टराणी छइ । तेनी पुत्री नामिई करी रतिसुंदरी । क्रमिई क्रमिई वाधिका लागी ।
रत्न
तिसिद्धं विहार करती अति गुणवंति गुणश्री एहवइ नामिदं पवत्तिणी आवी सांभली । तिवारई रतिसुंदरी सखीए परिवरी वांदीवा गई । तिसिइ गुणश्री महासताइ धर्ममइ उपदेस देवा मांडिउ, 'जिम दालिद्रीनइ चिंतामणि रत्न दुर्लभ, तिम संसारी जीवनइ मनुष्यनइ जन्मि धर्मनउं श्रवण दोहिलउं । तिहां इ वली रत्निइ भरिडं निधान हुइ, ते माहि थी जिम भाग्यवंतनइ हाथि ass अनइ अभागीयानइ हाथि कउडी इ न चडइ, तिम जे भाग्यवंत होसिइ, ते ' सम्यक्त्व - रत्न लेसिई । इम जाणी सम्यक्त्व लिउ । निर्मलउं तप तपउ । अनइ उज्जलउं शील पालउ, जिम हेलाई मुक्तिपद पामउ ।' ए उपदेस महासतीना मुख इतु सांभली रतिसुंदरी कहिवा लागी, 'हे महासति ! तई भलउ उपदेस दीघउ । आज ज्ञान-लोचन ऊघाडिउं । तु गृहस्थनइ उचित योग्य धर्म प्रसाद करी मुझनइ दिइ ।' पछइ महासतीईं सम्यक्त्व दीघउं अनइ वली कहर, 'वच्छि ! शीलरत्न- समान अवर धर्म नही । एह-भणी तू अखंड शीलवत पालिजे । पर- पुरुषनउं वर्जन करिजे । कुलांगनानई शीलनई प्रभावि अनेक सिद्धि हुई । अनइ परलोकि संसार माहि पण दुख दुर्गति न हुई । परंपराई मुक्ति पणि पामीइ ।' इत्यादि उपदेश सांभली रामांचित-गात्र हूंतो रतिसुंदरी नीम लेई, महासतीनइ वांदी घरि आवा ।
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हिवइ इसिई नंदनपुरि चंद्रभूति नामिह राजा राज करइ छइ । अन्यदा साकेतपुरनगर-तु अरिकेसरि राजा, तीणइ राजकाजनइ अर्थि चंद्रभूतिराय-भणी दूत एक मोकलिउ । हिवs चंद्रभूति ते दूत- कन्हलि सर्व देस देसनउं स्वरूप पूछिउं । तिवारइ तिणि दूति सर्व देसनुं वर्णन करतां विशेष रतिसुंदरीना रूपनडं वर्णन कीधउं । तिसिहं चंद्रभूति राजा ते ऊपरि अनुराग धरत, संबंध जोडिवानई काजिई आपणउ प्रधान मोकलिङ अरिकेसरि भूपति भणी । पछ राजाई योग्य संबंध जाणी पुत्रिका दीधी । पछइ भलइ दिवसि राजाई कन्या नंदनपुरि मोकली | जिम लक्ष्मी नारायणनइ सयंवरा आवी, तिम रतिसुंदरी ते राजानइ सयंवरा आवा । तिहां भलइ मुहूर्त्त विवाह्न उत्सव हुउ । सुखिई रहई छ । एहवइ महेन्द्रसिंह राजाई चंद्र नामा दूतपाहईं चंद्रभूतिनई इसिउं कहाविउँ जु, 'अहो राजन्द्र ! आपणपानइ आगइ एतलउं काल प्रांति हूंती, पणि पुत्र ते प्रमाण, जे कुलनइ उद्यातकारक हुइ, अनइ पूर्वजनउ संबंध जे लोपइ नही । हिवह नउ तू सगाई राखइ, स्नेह पालइ, तु तई जे नवी परिणा छइ रतिसुंदरी ते अम्हनइ भेट मोकले । जिम हूं पणि प्रीति चलाविडं जाउं । जिहां प्रोति हुइ तिहां एतलउं काज घण न लेखवीइ ।' इत्यादि दूतनां वचन सांभली चंद्रराजा लगारेक हसी-नइ कहिवा लागउ, 'हे दूत ! सगा कहिनइ वल्लभ न हुइ ? पणि जिणइ कारणि
परोपकारो मैत्री च दाक्षिण्यं प्रियभाषणं ।
सौशील्यं विनयस्त्यागो सज्जनानां गुणा अमी ॥१॥
१. K. तेहनइ हाथि सम्यक्त्व-रत्न आविसि । २. KP अज्ञान लोचन । ३. K. चंद्रभूपति ।
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