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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
आवी जाणी, सामुहु आव्यउ । पछइ नर्मदासुन्दरी मातापितानई कंठि लागी तार-स्वरिई रुदन करिवा लागी । तिसई ऋषभसेनादिक कहिवा लागा, "भलू हुउँ जे, अम्हे बेटी जीवती दीठी । तु आज पुत्रीनइ नवउ जन्म हउ ।' एह-भणी महा महोत्सव करिवा लागा । जैन-प्रासादि महापूजा-पूर्वक साधर्मिक वात्सल्यादिक कोधां । केतलाएक दिन जिनदास तिहां रही वीरदासनइ पूछी भरूअच्छि गयउ ।
इसिइ एकदा आर्य सुहस्तिसूरि दश-पूर्व-धर विहार करतां आव्या नर्मदापुरि । तिवारई ननंदासुंदरी माबाप-पीतरीआ-सहित आचार्य-समोपि आवी, प्रणाम करी आगलि बइठी। तेतलइ श्री-मुहस्तिसूर धर्मलाभ कही धर्मोपदेश दीघउ । तिवार-पछो देशनानइ अंति वीरदास गुरुनइ प्रणमीनइ पूछिया लागउ, 'स्वामिन ! नर्मदा सुंदरीइं भवांतरि कउण कम ऊपाजिउं, जे निर्दोष इ सुसील हुती इ एवंडां कष्ट पाम्यां ?' तिवारई भगवंत श्रुतनउ उपयोग देई पूर्वभव कहिवा लागा, 'ईगइ पृथ्वोपीठि विध्यगिरि । ते-माहि-थिकी नर्मदा नदी नीकली छह । तेहनी अधिष्ठायिका मिथ्वास्विनी देवता एक छ । तीणई देवताईएकदा महात्मा एक धर्मरुचि प्रतिमाइ रहिउ देखी घगा असर्ग कीधा । तु-ही धर्मरुचि महात्मा ध्यान-इंतु न चूकउ । तिसिई देवताई महात्मानो क्षमा देखी प्रतिबूझी हुंती सम्यक्त्ववंति हुई । हिव ते मरी तुम्हारी पुत्री नर्मदा हुई, अनइ पूर्विला अभ्यास-लगी नर्मदा-स्नाननउ डोहलउ ऊपनउ । वली जे महात्मानइ उपसर्ग कीघउ हुँतउ तेह-भणी दुक्खिणी हुई।
ए वात साभलो नर्मदाई दीक्षा लीधी। तिसिहं जातीस्मरण उपनउं । पछह चारित्र पालतां वली अवधिशान ऊपनउं । पछइ पवत्तिणि-पद पामी कूववंदपुरि आवी । पणि तप लगी कालक्रमई कृशदेह हुई छइ । तिहां कुणिहि उलखि नही। पछइ नमयासुंदरी पवत्तिणी महासतीने वृदे परिवरी ऋषिदत्तानइ घरि आवी । धर्मलाभ कहिउ । तिसिइ ऋषिदत्ताई आश्रय दीघउ । तिहां महासती रही। हिवई धर्मनउ उपदेस महासती सदा दिइ अनइ महेसरदत्त. ऋषिदत्ता उपदेश सांभलई, पणि एकू ते महासतीनई ओलखइ नही । इम अन्यदा संवेगरंग ऊपाइवा-भणी महेसरदत्तनई स्वर-लक्षण भणाविउं । तिसिइं स्वर-लक्षण भणि इंतह ते नर्मदासुंदरो स्त्री चित्ति आवी । पछइ पश्चात्ताप करिवा लागउ, 'धिग् धिकार मुसनइ, जे मई एहनी इ सती वन-माहि सूती मूकी । तु हूं दैवइं हणिउ । जे स्वरलक्षण-कगी रात्रिइं गीत गातउ पुरुष तेहना अहिनाण कहियां, पणि महारइ मनि विकल्प ऊपनु । तेह-लगइ मई निरपराध ते स्त्री जन-माहि मंकी। तु ते नमयाना कु' ले होसिई?' इम आपणी शोचा करतउ देखी व्या-लगाइ महासती कहइ, 'ते ई नमयासुंदरी, जे तुझ आगलि बइठी छ ।' तिवारई महेसरदत्त चीतवइ, 'ए किसिउं आश्वर्य ? नोउ, सघले कर्म जि सबल, जिम नचावइ तिम नावीह । इहां किहन उ दोन नहीं ।' पछइ ऊठी महासतीनइ पगे लागिउ । तिहां खमावी करी औ रंग-पूरित हतउ श्री-सुइस्तिसूरि आचार्य-समीपि जई व्रत लीधउं । अनइ ऋषिदत्ताई पंणि चास्त्रि लीध। पछइ बेहूं तर तपी, चारित्र पाली, स्वर्गनइ भाजन इया । अनइ नमयासुंदरी पणि प्रांत-समय जाणो, संलेखनापूर्वक अणसण पाली, देवलोकि पहुती। पछइ वली महाविदेहि क्षेत्रि पनी, दीक्षा लेई, मोक्ष पहुचिसइ।
__ इति नमया-सुंदरी कथा ॥२७॥
१. K. प्रस्ताव
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