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शीलोपदेशमाला - बालावबोध
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हर्ष मानिवा लागी । रात्रि नइ दिवस पुत्रो शुकनइ मूंकइ नही । अनेक साकरना पाणी, शालि, दाडिमनी कुली दिन प्रति दिइ । वली सुवर्णमइ पांजरइ घाती राखिउ । किवार उत्संगि, किवारई पांजरइ, इम विनोद करती भगावइ । भोजनि, शयनि, आसनि, सूती, बइठी, योगिनीनी परि एकाग्र मन हूंती, ते सुलोचना कन्या शुकनइ मूंह नही ।
हिवर एकदा सुलोचना उद्यानवनह विनोद-भणी, शुकनइ पांजरा-माहि घाती लेई गई । तिहां देहरा-माहि सुलोचनाइ सीमंधरस्वामि नमस्करिया । एहवइ शुक्र पणि प्रतिमा देखी चींतवइ, 'एहवी प्रतिमा मइ आगइ किहांई दीठी हूंतो ।' इम ईहापोह करतां जाती- स्मरण - ज्ञान ऊपनउं । तिसिहं जु जोइ, तु पूर्विलइ भवि चारित्र पामिउ हूंतउ । तिहां सर्व शास्त्र भण्यां क्षयोपशम- लगइ । पणि क्रिया तेहवी न पाली । अनइ वस्त्र, पुस्तक, पात्रानी मूर्छाई आपण ज्ञान फोक गमाडिउ । चारित्र विराधिउ । तिहां हूंतु मरी ए-वन-माहि हूं सूडउ हूउ । अनइ जे दूकडउ पाढ मूकिउ तेह-लगइ हिवडां भगवानी मनसा हुई । हिवs तु हूं तिर्यचनइ भवि आविउ । मइ सिउं चालइ १ पणि आज पछइ ए देवनइ प्रणमी भोजन करिसु ।” एहवउ नीम लीघडं । पछइ सुलोचना देवनद प्रणमी पूजी, पांजरउ संघाति लेई पाछी आवी । तिसिइ बीजइ दिनि शुकनइ हाथि लेई जिमवा बइठी । तेतलइ सूडानइ नीम चीति आविउ । पछइ "नमो अरिहंताणं " कही सूडउ ऊडिउ, देहरइ जई, प्रतिमा प्रणमी, वनफल खावा लागउ । इसिइ राजानी पुत्री शुकनइ विरहि विलाप करिवा लागी । एहवइ सूडा-भणी पायक धाया । ते वन-माहि आव्या । तिहां आंचानी डालह सूडउ बइठउ दीठउ । तीणइ पास मांडी सुडउ झाली सुलोचनानइ आणी आपिउ । तिवारइ सुलोचना स्नेहमइ वचन शुक्र-प्रति कहइ, "अहो शुरु ! मुझन मूं की तूं कहां गयउ हूंतउ ? आज पछइ ताहरउ वेसास भागउ ।" इम कही नृपांगजाईं गतिना भंग-भणी सूडानी बेहूं पांख परही करी, सोनानइ पांजरह घाती मूंकिउ । तिबारशुक चींतवह जु, 'परवसपणानइ धिक्कार हु, जे मइ एवडी पीड सहीइ छइ । अथवा जु तहीं इ क्रिया सूश्री पालतउ तु, आज परवसपणडे न पामत । तु अरे जीव ! वेदना सहि । कहइ, हिव परमेसरनउं मुख किम देखिसि ?' ते सूड़उ इम चींतवत, आंखिइ आंसू, पाडत उ, अणसण लेई, मरण पामी सौधर्म-देवलोकि देवता हूउ । पछइ सुलोचना पणि शुकनइ विरहि अणसण पाली, सौधर्म इ देवलोकि तेहनी प्रिया हुई ।
हे राजन ! तिहां घणा सुख भोगवी ते शुकनड जीव मरी सांप्रत तूं शंखराजा हूड, अनइ सुलोचनानु जीव ए कलावती हुई । पणि जे भवांतर सूडानी पांख छेदी हूँती, ते कर्मलगइ कलावतीना हाथ तई छेदाव्या । तु ए आपणा कर्म भोगव्या विण न छूटीइ । एक वारनउं कीधउं दसवार भोगवीइ ।'
पछइ तत्काल राजाराणीनइ जातीस्मरण-ज्ञान उपनउं । तिहां आपणउ भवांतर दीठउ । तिसिइ वैराग्य-रंग ऊपनइ पूर्णकलस पुत्रनइ राज्य देई, गुरु-समीपि बिहुइ दीक्षा लीधी । पछइ घउ काल चारित्र पाली केतलइ कालि मोक्षि पहुचिसि ।
इति श्री - शीलोपदेशमाला - बालाविबोधि श्री कलावती - कथा समाप्ता ॥३२॥
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हिव केई एक महासतीनइ गृहस्थावासि वसतां इ हूंता शोलना माहातम्य लगइ महर्षि इ. स्तव । ते कहइ —
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