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मेरुसुंदरगणि-विरचित ते पणि विस्मयापन्न ता कहई, 'राजन ! इहां पादचारी कोई नाविउ । अम्हे तु प्रभात-ताई जागता हूंता ।' पछइ सघले द्वीपान्तरे चर मोकल्या । पणि कहीं सुद्धि न पामी । तिवारइ राजाइ आपणइ मनि निश्चउ कीघउ जु, 'सही ए राणी विद्यासिद्ध-पुरुषि विद्यानइ बलि अपहरी। तु ए माहरउ राज फोक, माहरी संपदा, मारहउं बल ए सहू फोक, जे मई आपणी प्रिया गमाडी। तु भई, जि को प्रियानी सुद्धि आणइ तेहनई हूं आपणउ अर्द्ध राज आपउं ।' इम कही नगरमाहि पडह वजाविउ ।
__ इम करतां पांचमइ मासि केवली नगरनइ परसरि आवी समवसरिउ । पछइ तिहां राजाई जई केवली वांदी देशना सांभली । पछइ पूछिवा लागउ, 'स्वामिन् ! कमलाप्रिया जीवइ छ। कि मूई ? अथवा ए कहिनउं विलसित ? अथवा जीवती मिलिसिइ ?' इम पूछिई हूंतइ केवली कहइ, 'एहनउ भवांतर सांभलि । विस्मयाक्षि पुरि दुर्जय राजा । तेहनी भार्या धन्या एहवइ नामि हूंती । तिणि एक वार क्रोध-लगइ दासी एकनई गाढी कूटी, बांधी करी, केतलाएक प्रहर-सीम भुंइहरा-माहि घाती राखी । पछइ दया ऊपनीइ बाहिरि काढी । तीणइ भवि कमलाइ ए कर्म ऊपार्जिङ । पूर्व-कर्म-लगइ सांप्रत कीर्तिवर्द्धन-राजानइ मित्रिइ विद्यानइ बलि अपहरी, तिहां बंदीखाणइ घाती मूकी छइ । ते पाछिलउं कर्म उदयि आविउ । ते धन्या मरी सांप्रत
हरी प्रिया कमला हुई। अनइ जे ईणइ भवांतरि ज्ञानपांचमीनउ तप तपिउ, ते पुण्यनइ प्रमाणि हिवइ-मास एक-माहि बंदिमोक्ष होसिइ । तुझनइ मासनइ प्रांते निश्चईसिउं मिलिसिइं । काइ, कर्म भोगव्यां विण न छूटीई ।' इम केवलीना मुखथी कमलानउ पूर्वभवांतर सांभली घणा जीव प्रति. बोध्या हूंता आपणइ आपणइ घरि गया । पछइ रतिवल्लभ राजेंद्र कटक मेली कीर्तिवर्द्धन-ऊपरि चालिवा लागउ ।
एहव तेह जि भुवनभानु-केवली विहार करतउ गिरिवर्द्धनपुरि आविउ । तेतलह केवलीनइ प्रभावि कमलाराणीनइ गलानी सांकल, पगनी अठील, सर्व त्रुटी । तिसिइ श्री कीर्तिवर्द्धन-राजा भुवनभानु-केवलीनइ वांदिवा गयउ । तिहां महात्माइ धर्मलाभ दीधउ । वली विशेष प्रतिबोधभणी कमलानउ भवांतर कहिवउ मांडिउ । कहिउं, 'जि को सुद्ध शील पालइ तेहनइ लोहनी सांकल ब्रटी जाइ ।' ए वात सांभली कीर्तिवर्द्धन मन-माहि चकिउ जु, 'मइ लोक-द्वय-विरुद्ध ए आचार मांडिउ, जे मई कामात-हंतइ कमला-महासतीनइ पाडूउं चींतविउं । पणि ते पहनह शालि करी सह निष्फल हूउं।' इम चीतवी पछइ पाधरउ बंदीखाणइ जई बंदीखाणा-हूंती कमला बाहरि काढी । लाजतु हंतु राजा पगे लागी खमाविवा लागउ ज, हं महा पापी. विरांसिउ । आज पछइ तूं माहरइ बहिन, तूंह जि धर्माचार्य, जे हूं पाप करतउ निवारिउ । हे बहिन ! तूं रतिवल्लभ-राजानी रीस उपसमावे । हिव तुझनइ हूं प्रवहणि बइसारी ताहरइ नगरी लेई जाइसु ।' इम कही जेतलइ प्रवहण सज्ज करो, कीर्तिवर्द्धन-राजा कमलानइ लेई चालिउ. तेतलइ रतिवल्लभ-राजा कटक मेली सीमा-सेढइ आविउ । तिरिइ कमलाइ सामहउ जण मोकली कहाविउं जु. 'स्वामी ! ताहरइ प्रसादि हू अक्षतशील हूंती, कीर्तिवद्धन बांधव साथिई आव छ । तुम्हे ए राजा-ऊपरि कोप म करिज्यो ।' एहवउं स्वरूप सांभली राजा चीतवइ, 'अहो शील महातम्य जोउ, जे कमलानइ शत्रु हूंता ते मित्र हुआ।' इम माहोमाहि बेह राजा मिल्या । बिहु उचित प्रतिपत्ति कीधी । पछइ कमलासती महा विस्तारि नगर-माहि आणी ।
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