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शीलोपदेशमाला - बालाघबोध
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माबापनइ जूजूई वस्तु आपी । पछइ जउ नदयंतीनइ वस्तु देवा जाइ, तु नंदयंतीनइ न देखs | तिवार सूरपाल सागरपोत- कन्हंइ पूछइ, 'वधू किहां ?' इम पूछि सागरपोति वहूनी सर्व वात कही । तेतलइ सूरपाल रोतउ कहइ, श्रेष्ट ! तुम्हे गाढा वरास्या । ते तु महा पतिव्रता ।' कहिउं, 'सांभलउ, जहीइ समुद्रदत्त चालिउ हूंतु, तीणी जि रात्रि छानउ पाछउ आविउ । हूं तेहनइ माहि नहुत मूंकतु, पणि तीणइ नामांकित मुद्रिका मुझनइ आपी । आपण घर- माहि जई प्रियानइ मिली पाछउ वली प्रवहणि चडिउ । अनइ मूझनइ सम दीघउ हूंतउ, तेह-भणी मई न कहिउं ।' इम कही जेतलइ नामांकित मुद्रिका देखाडी, तेतलइ सागरपोत घणी असमाधि आणत, विलाप करतउ जि वधूनइ जोवा चालिउ ।
ईसिइ समुद्रदत्त पुत्र घण्ड लाभ ऊपार्जी आपणइ नगरि कुशलखेमइ आविउ । तिसिह ते स्त्रीनी वात सांभली वज्राहतनी परिहं महांत असमाधि करतउ इम कहर, 'प्रिया विना जीवन मइ सिउ करिवउं छइ ? हिव हूं काष्ट-भक्षण करिषु ।' तिवारइ मित्रइ कहिउं, 'एक वार सघले देसे जोई आवि । पछइ तु काष्ट-भक्षण करे ।' ए मित्रनुं वचन सांभली समुद्रदत्त गाम, नगर, वन, सहू जोतउ जोतउ जाइवा लागउ । तिहां संचल खूटइ सखाईंया पाछा गया । पछइ एकाकी फिरतउ नंदयंतीनइ स्मरतउ, कंदमूलफलाहार करतउ, महाकृश हूंतउ, फिरत फिरतउ भरुअचि अविउ । पणि क्षुधाइ पीडिउ द्वैतु भोजननइ हेति शत्रूकारि गयउ । तिसिइ दानशालाई दान देती नंदयंती दीठी । उलखी । अनइ नंदयंतीइ ते समुद्रदत्त उलखिउ । इम बिहुँनइ माहोमाहि हर्ष ऊपनउ । हिव नंदयंती आपणी वात कहिती रोवा लागी । तिसिई समुद्रदत्तइ आपणह हाथि करी आंसू लूहीया । पछइ प्रेममइ वात करिवा लागा । इसिइ राजाइ ए वात सभिली । राजा पणि तिहां आवी समुद्रदत्त-नंदयंतीनइ घरि लेई सर्व वात पूछी । एतलह सागरपोत अनइ सूरपाल बेहू भमता भमता तिहां आव्या । सर्व एकठा मिल्या । इम माहोमाहि वात करई छई ।
ईसिइ ज्ञानभानु केवली तिहां आवी समवमरिउ । गया । केवली वांदीनइ समुद्रदत्तइ पूछिडं, 'स्वामिन ! चडिउं ?" तिवारइ ज्ञानी कहइ, 'एहनइ जीवइ भवांतरि याग मांडिउ हूंतउ । तिहां महातमा एक भिक्षानइ अर्थि आविउ । तेहनइ कहिउं, "रे शूद्र ! तूं इहां किहां आविउ १" एहवउं दूषण दीघडं । तेतचइ एहनइ कुटुंचि सघले साचउं करी मानिउ । तिहां सामुदायक कर्म ऊपार्जिं । तेह-लगइ ए महासती इ हूंती पणि कर्म उदयि आविइ हूंतई ए कलंक पामिउ ।' तु केवली कहइ छइ, 'अहो लोको! अणआलोइ कर्मना विशेष-लगी जीव भवाटवीमाहि ईइ परि भमइ ।' एहवउ उपदेस सांभली, वैराग्य पर दीक्षानु मनोरथ चींतवता श्रावकड धर्म पडिवजी, जीर्णोद्धारादि पुण्य करी, भर्तार सहित नंदयती घणउ काल गृह-धर्म पाली, आऊखानइ क्षय देवलोक पहुती । क्रमइ मोक्षि जासिह ।
इति शीलोपदेशमाला - बालाविबोधे श्री नंदयंती कथा समाप्त ॥ ३४॥
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तिसिई समुद्रदत्तादिक सर्व वांदिवा नंदयंतीनइ कीणइ कर्मि ए कलंक
अथ वली त्रीजी मनोरमा महासती, सुदर्शन श्रेष्टिनी कलत्र, सर्व - लोक प्रसिद्ध जि छइ । जेहना शील- महिमा - लगइ सुदर्शन श्रेष्टिनर एवडइ कष्टि पsिs, काउसग्ग कीधर शासन देवताई प्रत्यक्ष हूई संकट भांजिउं । तिहां महांत महिमा हुई । ते सुदर्शन श्रेष्टिनी कथा-ढूंती जाणिवी । मनोरमान नाममात्र कहिउं ।
हिव रोहिणीनी कथा कहाइ
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