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मेरुसुंदरगणि-विरचित
[३५. रोहिणीनी कथा]
पाडलीपुर नगर । तिहां श्री नंदराजा राज करइ । तिणि नगरि धनावह श्रेष्टि यसइ । तेहनी प्रिया रोहिणी, पणि रूपी करी सर्व जग - मोहिनी ।
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अन्यदा श्रेष्ट रोहिगोनइ कहई, 'हे प्रिये ! जउ तूं कइइ, तर हूं प्रवहणि बइसी, देसांतरि जई, धन उपार्जी आवउं ।' तित्रारखं रोहिणीइ आदेस दीघउ । पछइ धनावह देशांतरि चालिउ । हिव रोहिणो त्रिकरण-सुद्ध शील पालती, धर्म ध्यान करती सुखिई रहइ छइ । इसिई उष्ण-काल आवि रोहिणी सखीए परिवरी आग्णा आवासनो सातमी भूमिकाई चडो हासु-विनोद करिवा लागो । तिसिई नंदराजा ई दीठी । निरूपम रूप लावण्य देखी राजा कामांध हूउ । पछ६ राज: इं रोहिणी-कन्हलि दूती मोकली । तिणि दूतीइं आवो रोहिणीनइ इसिउं कहिउ', 'देवि ! तूंहनइ कंदर्प तूउउ | कांई, तुझनइ राजा श्रीनंद वांछइ छइ । तु हिव तूं नंदराजानइ संगि आपण उ तु सफल करि ।' जिम ए बात सांभळी, तिम रोहेणी मन-माहि चीतवइ, 'सही, ए तां राजा निरर्गला माता हस्तींनी परिहं शीलरूपी वृक्ष उन्मूलिसिइ । तु मइ ए राजा उपाइ जि करी राखिव । पणि इहां कोई प्रण नही चालइ ।' इम विनासी दूत न मधुर वचने करी कहर, 'हे सखि ! स्त्रोतु सहजिइ सुभग पुरुषनी वांछा करइ । पछई वली विशेषिइ नंदराजा सरीखउ प्रार्थइ तु दूध-माहि सकर मिली । जु ए राजा आत्रणहार छइ, तु राति अविओ ।' इम कही फलफूल देई दासी विसर्जी । तिणि जई नंदराजा संतोषिक |
पछइ राजाईं ते दिवस वर्ष समान गमाडिउ । तिसिह रात्रि आवी । राजा नंद शृंगार करी, सर्व लोक विखर्जी, नर्म- महुता सहित रोहिणीनइ घरि आविउ । तिहां चेटी-पाति आगतास्वागत कराविडं । पछइ राजा मनोरथ सहित सिंहासन जई बइठउ । तिसिह रोहिणी सालंकार साभरण राजा साम्ही दृष्टि देई रही, अनइ राजा रोहिणीनइ साम्हउं जोई रहिउ । जेतलइ राजा धीरमपणडे अवलंत्री कांई बोल्ड, तेतलइ सत्रीए कहिउं, 'स्वामी ! रसवती मज़द हुई ।' इम कही राजा आगलि सुवर्णमय थाल आणी मूकिउ । पछइ फलहुलि परीसी । तेतलइ नवनवे वस्त्रे ढांकी हांडली सउ एक आगलि आणी मूकी । रोहिणी परीसिवा लागी । तिसिइ राजा कहइ, 'सर्व हांडली-माहि-थकुँ थोडउं थोडउ परीसउ ।' जिम कोई तृषाक्रांत पाणी मागइ तिम नवनवी हांडिलीनी रसवती लिइ । पणि स्वाद एक जि देखइ । तिवारइ राजा कहइ, 'ए हांडिली नवी नवी दीसई, अनइ रसवती पणि जूजूई दीसई, पणि स्वादतां एक जि स्वाद आवइ छइ । अनइ ए जूजूए ढांकणे करी ढांकी छई ते कांई विशेष संभावीइ ?' तिवारई रोहिणी हसीनइ कहइ, 'राजन ! सर्व जाणवेत्ता माहि तूं धुरि छ, पणि इहां कांई कारण छइ ।' राजाइ पृछिउं 'किसिउं कारण ?' तिसिहं रोहिणी कहइ, 'जिम ए सर्व वस्तु जूजूई देखीइ छइ, पणि स्वाद एक जि, तिम संसार माहि स्त्री सर्व जूजूई जि छई । पणि केतली एक गोरी, केतलीएक श्याम, एक रूपवंति एक मध्यम रूपवंति । इम सर्व स्त्री जूजूई छई । पणि पवि-हुं-नउ संभोग-विशेष एक जि । जिम आकासि चंद्रमा एक, पणि पाणी-माहि प्रतित्रिंत्र जूजूआं देखीइ । जिम चंद्रमा एक जि तिम सर्व स्त्री स्वादिइ एकसरीखी, विशेष कांई नही । पण एतलउ विशेष जि स्वदार-संभोगनउ संतोष ते सन्मार्ग, अनइ परस्त्रीन ऊ संभोग ते असन्मार्ग । तु अहो राजन् ! इहलोक-परलोक- विरुद्ध किम इ नाचरी । विशेषत तुम्हे प्रजाना नाथ, पिता समान, सघलानइ आधारभूत छउ । अनइ
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