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शीलोपदेशमाला-बालावबोध
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जे तुम्हे अन्याई चालउ, तु इम जाणीइ, अमृत-हूंती अंगारनी वृष्टि पडी । हे राजन् ! ए विषय-सुख नरकनी खाणि छइ । तेह-भणी तू आपणा कुलनउ आचार स्मरि । अन्यायमार्गि म चालि ।'
इणि व वनि राजा प्रतिबोधिउ हूंतउ रोहिणीने पगे लागी, आपणउ अपराध खमावी नइ कहइ. 'हे भाद्र ! दुराचारना अदेखना देणहार घणा इ हुई, पणि हितोपदेश विरलु कोई दिइ । आज-पछइ तूं माहरइ भगिनी अनइ माहरी गुरुगी पणि तं, जे नरग माहि पडतउ तई राखिउ ।' पछइ नंदगजा आपणइ घरि आविउ । इसिइ धनावह श्रेष्टि द्वीपांतरहंतउ धा ऊपार्जी घरि आविउ । तिसिइं रोहिणीइं आगता-स्वागत कीघउं । पछइ नंदरायनउ सर्व वृत्तांत चेडीना मुख-इतु सांभली धनावह सेठि चीतवइ, 'ए रोहिणीनुरूप-लावण्य अमृत तेहनी कूई। ए एकांति राजाई विण भोगवी किम मेल्ही हुसिइ १जिम ऊधाडउ करपउ काग-वसि पडिउ हूंतउ अण नाखिउं न मूकइ। वली बिभुक्षितनइ मुखि सरस फल आविउं अणचाखिउं न मेल्हइ । तिम एकां ते रूपवंति स्त्री पुरुषनइ वसि पडी हूंती अणभुक्त न जाइ ।' एवउ विकल्प मन-माहि चीतवी धनावह रोहिणी-साथि न बोलइ । सचिंत थकउ रहइ । इसिइ रोहिणीइ चतुरपणइ भरिन अभिप्राय जाणिउ । तिहां धनावह पणि रात्रिई अणबोलिउ रहिउ ।
इसिइ मेघ अखंड-धार मुसल-प्रमाण धाराइ करी वरसिवा लागउ । वली सात दिन-माहि धार न 'खंडी । तिसिइ गंगानदी महा-पूरि आवो। समस्त पाडलीपुर नगर वाहीवा लागउं । तेतलइ राजा-प्रमुख सर्व लोक मिली कहइं, 'ते कोई छइ जे नदीनउं पूर वालइ तिवारई रोहिणी प्रस्ताव जाणीनइ अावी । पछइ राजा, भर्तार देखतां, सर्वलोक-प्रत्यक्ष, हाथि पाणी नवकारनउँ स्मरण करी कहिवा लागी, 'हे गंगे ! ज मइ मनि वचनि कायाइ करी सुद्ध शील पालि हइ, तु नदि ! तूं माग दइ । पाछी उहटि ।' इम कही जेतलइ पाणीनी छांट घाती, तेतलइ तत्काल नदी पाछी वली। तिसिइ सहू लोक जयजयारव करता, देवता ए कुसुमनी वृष्टि कीधी। तिवारइ भरिनइ मनि विश्लेष ऊतरिउ । पछइ सघले शीलनी महिमा विस्तरी । तिसिई घणे लोके परस्त्रीनउ नीम लीधउ | वली मिथ्यात्व-हंता घणा लोक निवा । विशेषत जिन धर्मनी ख्याति हई। पछइ रोहिणी-राजा-सहित चैत्य-परिवाडि करी रोहिणीनइ घरि आव्या । तिहां धनावहि शीलनी महिमा देवो, सर्व संतोषिउ । इम रोहिणो जिन-शासनि प्रभावना करो, काल धर्म पाली, देव-लोक गई।
॥ इति रोहिणीनी कथा ॥३५।।
हिव शीलवंत मनुष्यनउ संसर्ग बहु गुण-दायक हुइ । ते कहोइ___ सील कलिएहिं सद्धिं संगो वि हु तग्गुणावहो होइ ।
कप्पूरं सई झत्त(?त्थं) पि कुणइ वत्थूण सुरहित्तं ॥७ व्याख्याः -जे मनुष्य शील-कलित कहीइ, शीलई करी सहित हुइ सुसील हा इसित अर्थ । तेह मनुष्यन उ संग-संबंध गुणकारक हुइ । कांई ? ते ही मनुष्य सुशील हुइ, परन दष्टांति । जिम कपूरनउ संसर्ग कीघउ हूंतउ सयर अनइ वस्त्र बिहुनइ आपणइ परिमलि करी सुगंध करइ, तिम शीलवंतनउ संसर्ग करतां, करणहारसइ शीलादिक गुण ऊपजई । जिणि कारणि वली कहिउं,
१.K. खांची, A.B. खंची, Pu. खंडी ।
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