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________________ मेरुसुंदरगणि-विरचित . जो जारिसेण संगं करेइ अचिरेण तारिसो होइ । . कुसुमेण सह वसंता तिला वि तग्गंधिया जाया ॥१॥ एह-भणी शीलवंतनउ संसर्ग करिवउ, कुशीलनउ संमर्ग न करिवउ । हिवइ एक शील-गुणपाखइ बीजा सर्व गुण - फोक थाई। ते कहइ... सयलो वि गुणग्गामो सीलेण विणा न सोहमावहइ । नयण-विहूणं व मुहं लवण-विहूणा रसवई व्व ॥५८ व्याख्याः -नय-विनयादिक सघलाइ गुणग्राम-गुण-समूह, शील-पाखइ शोभा न पामइ, सुखनइ दृष्टांति । जिम मुखि भला कपोल, राता होठ, लंब कर्ण, गौर वर्ण, सुकुमाल शरीर, भली दाढी-इत्यादि भला हुइ पणि एक आंखि विना जिम मुख न शोभइ । वली दृष्टांत कहइ, जिम समस्त रसवती मिष्ट, मधुर, गविल, तिक्तादि संपूर्ण-रस-सहित हुइ, पणि जउ एक माहि लवगरस न हुइ तु लगारइ स्वाद न दिइ, तिम अनेश समस्त गुग लिगुग-विण शोभई' नही । अन३ किवारइ शरीर-माहि बीजा गुग न हुई, एक शील जि गुण हुइ, तउ जाणे सर्व गुण हुआ। हिवइ शील-लगइ इह-लोकि हि प्रत्यक्ष फल हुइ ते कहइ विस-विसहर-करि-केसरि-चोरारि-पिसाय-साइणी-पमुहाः । सव्वे वि असुह भावा पहवंति न सीलवंताणं ।।५९ - व्याख्याः -विष थावर-जंगम-रूप, विषधर-अजगरादि सर्प, करि मदोन्मत्त हस्ती,केसरि= सिंह व्याघ्रादि, चो=तस्कर, अरिरि, पिशाच-भूतप्रेत, झोटोंग-गोगा-प्रमुख, शाकिनी=शीकोत्तरीप्रमुख नव कोडि कात्यायनी-ए सघलाइ मारणात्मक अशुभ पदार्थ छई, पणि शीलव्रतधारोनइ प्रभवई नही, कांई उपद्रव करी न सका। हिवइ शीलवत आदरीनइ इंद्रीना वाह्या हूंता शील मेल्हई, शील भांजई तेहनूं स्वरूप कहइ सील-भट्ठाणं पुण नाम-ग्गहणं पि पाव-तरु-बीयं । जा पुण तेसिं तु गई तं जाणइ केवली-भयवं ॥६० व्याख्या :--जे जीव शील-हृता भ्रष्ट थाई तेहy नामग्रहण पणि पाप-तरु-बीज हुइ । जिम बीज वृक्षनइ ऊपजावइ, तिम कुशीरन नामग्रहण पाप ऊपजावइ । अनइ जे वली शीलभ्रष्टनी गति संसार-माहि परिभ्रमण-रूप, ते केवली भगवंत जाणइ । अनेरउ को जीव सकइ । कही पणि न सकई, अति रौद्र-पापपणा लगइ । एतलइ गाथार्थ हूउ । हिव वली शील-भ्रष्ट जीवनइ इह-लोकइ पर-लोकि जे फल हुई ते बिहुँ गाथाए करा कहइ बंधण-छेयण-ताडण-मारण-पमुहाई विविह-दुक्खाई । इह-लोए वि जहा थिरमजसं पावंति गय-सीला ॥६१ दालिद-खुद्द-वाही-अप्पाउ-कुरूवयाई असुहाई । 'नरयताइ वि वसणाई गलिय-सीलाण पर-लोए ॥६२ १. Pu. मरणंता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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