________________
शीलोपदेशमाला - बालावबोध
१०९
पाछउं जोतउ तां गयउ जां आडां वृक्ष आव्यां । घणी भूमिका जई वली चींतवइ, 'रखे एहनइ कोई वनेचर जीव संतावइ ।' इम चींतवी वनलतानइ अंतरालि जोतङ आत्मानइ कहइ, 'अरे नल ! जे तू एकली निराधार प्रिया वन माहि सूती मूकीनइ जाई छइ, तु तूं शत-खंड कांई नही थातउ ?' इम जि विलाप करतां प्रभात हूउं ।
जेतलइ नल आघउ चालिउ तेतलइ सूर्यनइ उदयि वली सिउं देखइ ? महांत एक दावानल आगलि लागउ दीठउ । ते माहि अनेक वनेचर जीवना आक्रन्द सांभलिवा लागउ । आघेरउ जु जाइ तु मनुष्यनी भाषाई इसिउं सांभलिबा लागउ जु, 'अहो इक्ष्वाकु कुलमंडन नल ! मुझनइ बलतां राखी राखि ।' इम साप एक मनुष्य-भाषाई बोलतउ द ठउ । तिवारइ नल चीतवई, 'ए साप माहर नाम किम जाणइ ? अथवा मनुष्यना भाषाई साप किम बोलइ ?' इम नलनइ विमासतां वतुं साप बोलिउ, 'अहो, उत्तम ! पूर्विलइ भवि हूं मनुष्य हूंतउ । ते अभ्यास - लगइ मनुष्य-भाषाई बोलडं छउं । तउ वली मुझनइ अवधिज्ञान छन्, तीणइ करी सर्व जगत्रयनी वात जाणउं । पणि हिवडां मुझनइ ए आपदा-तु राखि ।' पछइ नलि आपणउं वस्त्र मूंकी, जिम कुवा हूंतडं पाणी काढीइ, तिम ते साप आगि हूंतउ काढउ । तिवारइ जि तीणइ सापि ते नल डसिड । तिम जि नलि साप भुंई लांखीनइ कहिउं, 'अहो सर्प ! तई भलउं न कोधउं ।' तेतलई विष डील-माहि संक्रमिउं । नल कूबडउ अनइ कुरूप हुउ । पछइ नल चतवइ, 'हिव दीक्षा लेई आपणउं काज साधउ ।' इसिइ साप दिव्यमूर्ति हुई कहिवा लागउ, 'वत्स नल ! तुं कांई असमाधि करइ १ हूं तु ताहरउ पिता निषेध नामि, दीक्षानइ प्रमाणि ब्रह्म देवलोकि देवता हूउ छउं । ते हूं आज तुझनई आपदा देखी इहां आविउ । हिव तुं विषाद म करि । ईणइ रूपिई तुझनइ वइरी कोई पीडा नही करइ । अजी तु राजा हुई भरतार्धं भोगवेसि । तुझनइ दीक्षानु अवसर आपहणी हूं कहिसु । हिव ए श्रीफल-चीलउं लइ, ए करंडी लइ, पणि आपणा जीवितव्यनी परिई यत्निइ राखे । अनइ जिवारइ आपण मूलगउं रूप करिवा हीडइ, तिवारइ ए फल भांजी, वस्त्र-युगल काढी, अनइ ए करंडो-माहि थकां आभरण काढी पहिरजे । एतलइ मूलगउं रूप पामिसि । इम कहिइ हूंतइ वली नल पूछइ, 'तुम्हारी वहू मइ जिहां मूकी हूंती, तिहां जि छइ अथवा अनेथि गईं ?' तिवारइ देवताइं दवदंतीनउ सर्व वृत्तांत कही, वली नलनइ कहइ, 'ए वन - माहितू एकलउ कांई भ्रमइ ? जिहां ताहरी मनसा हुइ, तिहां मूकउं ।' वलतुं नल कहइ, 'मुझनइ सुंसुमारपुरि लेई मूकउ ।' पछइ देवताई तत्काल नल तिहां लेई मूकिउ ।
तिहां श्री - नमिनाथनउ नगर बाहिरि देह उं छह, तेह-माहि जई नल देव वांदिवा लागउ । तिवारइ देवता अदृश्य हूउ । देव जुहारी कूचडउ नगर-भणी जेतलइ नीकलिउ तेतलइ नगरमाहि कोलाहल सांभलिउ । तिसिई कुमार च तवइ, 'ए किसिउ कोलाहल ?' तेतलइ घाइ सिउं प्रलयकाल सरीखउ हाथीउ एक प्रकट हूउ । पणि ते हाथीउ मनुष्यना लक्षनइ हणतउ, उपद्रव करतउ हाटनी श्रेणि पाडतउ, मनुष्यनी कोडि परिवरिउ, एहवउ चहुटा-माहि नीकलिउ । तेतलइ दधिपूर्ण राजा ऊचउ हाथ करी कहिवा लागउ, 'अहो लोको ! जि को ए हाथीनइ वशि करिसिइ, तेहनइ हूं सर्व संपदा आपिसु ।' ए बात सांभली नल राजा हाथी आ सामुहउ धायउ । तिसिहं लोक कहई, 'अरे कुब्ज ! म मरि, म मरि । हाथी महा दुष्ट छइ ।' इम वारतां जि नलि हाथी हाकि, 'अरे पापी हस्ती ! बापडा लोकनइ कांइ संतापइ १ हूं तु आगलि ऊभउ छउं । तूं आवि ।' तेतलइ हाथीउ सर्व लोक मूकी कूबडा नल-भणी आविउ । तिवार नलि अनेक किरण - अंगमोटने करी हाथीउ तिम खेदिउ जिम हाथीउ थाकउ । तेतलइ नलि आपणउं वस्त्र लांखिउं । हाथीउ रीस लगइ दंतूसल वस्त्र-भणी खोइवा' लागउ । एहवइ
१. C. Pu. खोवा, K. क्षोभिवा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org